गुरुवार, 6 मई 2010

मैं गया था अपने गांव --- मनोज कुमार

एक कविता पढ़ी थी। स्‍कूल के दिनों में। राष्‍ट्रकवि स्‍व. मैथिली शरण गुप्‍त की।

अहा ग्राम्‍य जीवन भी क्‍या है ?

क्‍यों न इसे सबका मन चाहे.....

तब यह काफी भाता था। तब यह कहा जाता था, भारत देश है कृषि प्रधान। हम है उसकी संतान। लहलहाती इसकी धरती है। भारत की आत्‍मा गांवों में बसती है। आज...... ? बीस बाइस सालों से देश के विभिन्न भागों में बिहार की मिट्टी से दूर रह्ते हुए पीछे छूट गए गांव की जबर्दस्त कसक सताती है। ग्रामीण परिवेश में पला-बढ़ा, शिक्षा-दीक्षा की शुरुआत हुई सो उसके प्रति ममता हृदय से गई नहीं हैं। गांव की सादगी, ईमानदारी और अपनापन बार-बार अपनी ओर आकर्षित करता रहता है। अपने गांव की स्मृतियां ही वह पूंजी है जिसके बल पर कई ऐसी कविता या कहानी लिख डाला। मेरे जैसे बहुत से ऐसे लोग हैं जो शहर को मिथ्या और गांव को सत्य मानते हैं। पर आज का सत्य तो बड़ा कठोर, निर्मम और क्रूर है।

किसान किसान का पेशा अगर आपने अपना लिया तो आपका परिवार भूख से, बिमारी से बेबसी ओर लाचारी से तड़प तड़प कर मर जाएगा। आए दिन किसानों की आत्‍महत्‍या की खबरें देखने-पढ़ने को मिलती हैं। गांव की धूल मिट्टी भरी आवो हवा और गोबर की दुर्गंध ने वहां के युवकों को पलायन हेतु प्रेरित किया है। चर-चांचर की ज़िन्दगी से चंद रूपयों की चाकरी भली। झींगुरदास का बेटा तो अपनी परिवार के बोझ तले एवं जानलेवा बीमारी के दर्द से इतना परेशान हुआ कि रेल में कट कर अपनी मुक्ति पा ली।

पर जब आठ साल के अंतराल पर (हैदराबार के निकट एद्दुमैलारम की अपनी पोस्टिंग के वक्‍त) अपने गांव गया था, अहा ग्राम्‍य जीवन का आनंद लेने तो झींगुरदास का छोटा बेटा मुनिया समस्‍तीपुर रेलवे स्‍टेशन से गांव तक की 12 किलोमीटर की हमारी दूरी तय कराने तांगा लेकर आया था। रास्‍ते में बोल रहा था, “आब गाम कोनो रहई वाला छई? धुत्त! मूरूखे ओत्तs रहतई। हमहूँ सोचई छियई समसतीयेपुर चइल एबइ।”

गांव की मिट्टी से लगाव नहीं। लोग करें भी तो क्‍या? मूलभूत सुविधाओं का सर्वथा अभाव, महंगी होती कृषि सामग्री, फसलों का उचित मूल्‍य न मिलना और ऊपर से प्राकृतिक आपदाएं बाढ़ आदि ने तो वहां के लोगों का जीना दूभर कर दिया है।

विधालय, चिकित्‍सा और बिजली पानी की समस्‍या इतनी विकराल है कि लोग शहर की ओर भाग रहे हैं। इसी ब्‍लॉग के एक योगदानकर्ता करण समस्‍तीपुरी से बेहतर इस समस्‍या का भुक्‍तभोगी कौन होगा। उन्होंने गांव में रहकर इन सब समस्‍याओं से जूझ कर स्‍नातकोत्तर की न सिर्फ पढ़ाई की। विश्‍वविद्यालय में अव्‍वल आए। यह तो भला हो उस पुश्‍तैनी साइकिल का, जो इनके पिताजी ने इन्‍हें दे दिया था, सो शहर से गाव की दूरी इन्‍होंने गांव में रह कर तय करली वरना काला अक्षर से दूर रहते और काली भैंस इनके पास न होती।

गौशाला-१ शहरीकरण का प्रसार इस तीव्र गति से हो रहा है कि गांव की सभ्‍यता बुरी तरह संक्रमित हो रही है। गांव में पहले चौपाल होती थी, पेठिया पोखर होते थे, पनघट कुंआ, दालाना बथान। सब प्रायःगायब होते जा रहे हैं। जब मैं अपने बच्‍चों को गांव के पेठिया में झिल्‍ली बड़ी कचरी खिलाने के प्रलोभन से ले गया तो वहां पेप्सी की मौज़ूदगी ने अहा! ग्राम्य जीवन का मेरा सारा उत्‍साह ठिकाने लगा दिया।

घोघ तानने (घूंघट डाले) झरझरी वाली मेरे चेहरे पर की लकीरें पढ़ते हुए बोली, “बउआ की तकई छियई ।....... अब किछो नई भेटत । सब गेलई.......बज़ार!”

गांव जब जा रहा था तो मन में था कि अभी भी वहां गांव का बहुत कुछ बचा होगा और जब लौट रहा था तो स्पष्ट था कि वहां से बहुत कुछ विलुप्त हो चुका है। मेरे मन में प्रश्‍न था कि हम गांवों को आत्मनिर्भर, सुंदर और सुविधा-संपन्न क्यों नहीं बनाना चाहते थे? अब तो वह सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन भी नहीं हैं जिसकी कामना करके मैं वहां गया था। फिर सोचता हूँ गांव किसके लिए हैं? युवक वर्ग वहां रहना नहीं चाहते। अवसर ही नहीं है। उसकी तलाश में वे शहर भागते हैं। गांव से आ कर जो लम्बे समय तक शहर में रहे, वे गांव लौटना नहीं चाहते। गांव में रहने वाला मुनिमा भी अब गांव में रहना नहीं चाहता। जुगेसर ने शहर में सैलून खोल ही लिया है। हां, झींगुरदास की तरह के अभिशप्त लोग ही रहते हैं गांव में।

21 साल की नौकरी के बाद भी किसी शहर में न ज़मीन ली है, न मकान। शायद रिटयर होने के बाद गांव में ही रहूँ, कह नहीं सकता। वहां से लौट कर, आंध्र प्रदेश की राजधानी हैदराबाद में, तब एक कविता लिखी थी, उस ग्राम्‍य गमन के पश्‍चात! पेश है।

मैं गया था अपने गांव

बरसों के बाद गया

मैं अपने गांव,

क्या करता छू आया

बस बड़ों के पांव।

KONICA MINOLTA DIGITAL CAMERA गौशालों की गंध से

थी सनी हवाएं,

छप्परों पर धूल सी

जमी मान्यताएं।

स्वेद सिक्त, श्रमरत,

सर गमछे की छांव।

सूरज तो भटक गया

शहरों की भीड़ में,

चांदनी भी फंस गई

मेघ की शहतीर में।

खोजते हैं शहर

वहां अपने ही दांव।

गौशाला-२ मक्खियाँ तक अब नहीं

करती हैं भिन- भिन,

आम के दरख़्तों पर

ठिठुरे से दिन।

सब गए शहर कहे

अम्मा की झाँव।

सिकुड़ी आँखों झुककर

झांके झींगुर दास,

पेठिये के शोरगुल पर

मण्डी का उपहास।

कब्बार के कोने उपेक्षित

दादाजी की खड़ाउँ।

कुंआ झुर्रियों ढपी आंखें

सपने अब शेष नहीं,

शहर इन गांवों को

छोड़ आया दूर कहीं।

इनारों की जगत पर

शाम का ठिठकाव।

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी प्रस्तुति।
    राजभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय है।

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  2. अच्छी प्रस्तुती. कविता अच्छी लगी.धन्यवाद.

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  3. किसी विषय से सम्बंधित हिन्दी जानकारी, अनुवाद, लेखन, विषय-आधारित उद्यान-स्थापना, विशेषीकृत वृक्षारोपण इत्यादि के लिय्व संपर्क करें: ०९४२५६०५४३२ कुमार, मार्गदर्शक

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