गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

ये अंधेरों में लिखे हैं गीत

Sn Mishraश्रद्धेय गुरु तुल्य स्व. श्री श्‍यामनारायण मिश्र हमारे साथ मेदक में काम करते थे। वहां उनसे नवगीत विधा में रचना की ढेर सारी जानकारी मिली और उनके मार्गदर्शन में बहुत कुछ सीखा। कई नवगीत लिखे भी। मेदक से मैं स्थानान्तरण होकर चंडीगढ आ गया। जब चंडीगढ में था तो उनसे पत्राचार होते रहते थे। आज उनका लिखा एक पत्र और उनकी एक रचना पोस्ट कर रहा हूं। अब वो हमारे बीच नहीं रहे। उनकी एक मात्र संतान उनकी पुत्री से इसे पोस्ट करने की अनुमति ले चुका हूं। हर सप्ताह गुरुवार के दिन उनकी एक रचना हम प्रकाशित करेंगे तथा नवगीत विधा पर कुछ चर्चा भी।

पत्र लिखना स्वयं में एक कला है। मुझे तो यह पत्र किसी साहित्यिक कृति से कम नहीं लगता। तो पहले पत्र फिर उनकी एक रचना।

आदरणीय मनोज कुमार साहब,

सादर नमस्‍कार।

आप तो जानते हैं कि कभी मेरी आत्‍मा गीतों में ही रची-बसी थी। भावपूर्ण गीतों के साथ आपके पत्र मिलते ही मैं अपने अतीत में लौट आता हूँ। इन गीतों से मेरे भी सुख दुख जुड़े हैं इसलिए मुझे ये प्रिय हैं। गीत हमारी रग रग में प्रवाहित होते हैं। इतने प्राकृतिक हैं ये। हवाओं का, पानी का और हमारे मन का साथ साथ बहना किसी धुन किसी लय और किसी छंद में ही होता है।

हू-हू हाय-हाय कल कल कल कल

सूं-सूं-धांय-धांय छल छल छल छल

कू-कू-कांय-कांय (कांव कांव) भल भल भल भल

चूं चूं चांय-चांय तल तल तल तल

टू-टू टांय-टांय मल मल मल मल

ठू-ठू ठांय ठांय पल पल पल पल

कुछ प्राणियों के स्‍वर भी उदाहरण के रूप में देखे जा सकते हैं

पंत जी ने लिखा है - "टी बी टी टुट टुट बोल रही थी चिडि़यां।"

तीतर बोलता है -- चिड़ी कोको, चिडि़ कोको ।

बटेर की आवाज -- चह गुल गुल, चह गुल गुल

चक्रवाक का स्‍वर है -- दुर्र पों, दुर्र पों ।।

मानसून आते ही हर दिशाओं में पंछियों की कुछ ऐसी ही बोलियां गूंज उठती है। तिल बोऊं कि कक्‍करा। उठो लोगो जिमी जोतो। उठ पूल तिल पूर। पचीस तीस लात। बस इनकी आवृतियों पर नजर (ध्‍यान) रखते रखते मेरे ओठो पर छंद ताल लय से पूरित गीत थिरकने लगते थे। ग्‍वालों का बंशी अलगोजा, बच्‍चों की पपिहरी, लड़कियों का फुंकनी फुकना, गायों के गले लकड़ी के घंटी नुमा खड़खड़े बजना मुझे सब कुछ गीत नुमा लगते थे। देहातियों का गाली गलौज करना - हरामजादे, कमीने की औलाद, मुंहजले या और भी फूहड़ गालियां -- सब कुछ तो गीत मय ही था। बच्‍चों का कुछ बोलकर मुंह चिढ़ाना, रोना, मचलना, छींकना-डकारना क्‍या सब लय बद्ध ताल बद्ध और छंद बद्ध (आवृतियों के साथ) नहीं है? इसलिए मैं गीत के समर्थन में सदा रहा। तथाकथित कविता गद्य से या नई कविता से मुझे कोई शिकायत नहीं, मैं उसे कविता नहीं मानता क्‍योंकि वह प्राकृतिक नहीं है। मैं अतीत की दूरी में जाकर काव्‍य की व्‍याख्‍या के पचड़े में नहीं पड़ना चाहता हमें अपने ही युग में जीना और मरना है।

अपनी ही सांस की धुन सुनकर मन कभी हिरन सा बिदक उठता है, मैं इसे भी कविता में बांध चुका हूँ। फिर कोई कारण नहीं है कि हमारे तमाम जीवन्‍त क्रिया-कलाप गीतों के अंश नहीं बनते। सचमुच वह बड़ा अलग संसार था। कई बार अस्तित्‍व की रक्षा के लिए बचाव की मुद्रा में आना पड़ा और अब तो बस बचाव में जीवन उलझकर रह गया है। आप मेरे जीवन यथार्थ से भली भांति परिचित हैं। समय ने मुझे कुछ भी न बनने दिया, यह कहना ठीक नहीं। बस अपने व्‍यक्तित्‍व में ही कुछ कमियां थी कि हम समय या अवसर से लाभ लेना न सीख सके।

मुझे पूरा विश्‍वास है आप अपने पूरे जीवन का सदुपयोग सृजन में कर सकेंगे। ईश्‍वर ने आपको प्रतिमा के साथ-साथ चयन की क्षमता, काल का विशाल फलक दे रखा है। बस गावं या नदियों वाली रचना की तरह शब्‍दों से गीत चित्र बनाते रहें। आपके सुखद-सफल भविष्‍य की कामना के साथ पत्र समाप्‍त करता हूँ।

भवदीय

श्‍यामनारायण मिश्र

अब

नवगीत

ये अंधेरों में लिखे हैं गीत

श्‍यामनारायण मिश्र

ये अंधेरों में लिखे हैं गीत

सूर्य से इनको जंचाना चाहता हूँ।

दिनभर आकाश से आखें लड़ाकर

शहतीर के नीचे दुबककर सो गई चिडि़या,

आंखों में सतरंगी इन्‍द्रधनुष के अंडे

सपनों के सुख में ही खो गई चिडि़या,

कुंठा के कोबरे-करैतों की

दाढ़ से इसको बचाना चाहता हूँ ।

एक ओर घर था एक ओर जंगल

घर को अपनाकर वह परेशान क्‍यों है?

जिसको बेआबरू करके निकाला था

आंखों में अब भी वह मेहमान क्‍यों है?

आघात से अनवरत रिसता है,

इस रंग से जीवन रचाना चाहता हूँ ।

22 टिप्‍पणियां:

  1. जिसको बेआबरू करके निकाला था

    आंखों में अब भी वह मेहमान क्‍यों है?

    बहुत सुन्दर

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  2. पत्र वाकई संग्रहणीय है !हार्दिक शुभकामनायें !

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  3. ये अंधेरों में लिखे हैं गीत
    सूर्य से इनको जंचाना चाहता हूँ।
    सुंदर अतिसुन्दर , कई अर्थों को अपने में समाये हुई रचना, बधाई

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  4. मनोज जी! यह तो साहित्य साधना के साथ साथ एक बड़े पुण्य का कार्य किया है आपने. इस एक पत्र और रचना को पढकर लगता है कि यह एक साहित्यिक दस्तावेज़ होने वाले हैं!! मेरे श्रद्धा सुमन!!

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  5. बेशक आभासी दुनिया का कितना विस्तार हो जाये मगर पत्र का महत्व कभी कम नही होगा। संग्रहणीय पत्र और कविता अपने कालजयी रूप मे हमेशा सरिता सी बहती रहेगी। धन्यवाद इसे पढवाने के लिये।

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  6. एक संग्रहणीय पत्र। सच कहा आपने कि किसी साहित्यिक दस्तावेज़ से कम नहीं है। पत्र के साथ तिथि भी देना चाहिए था।
    कविता / नवगीत बहुत ही गहन भाव लिए हुए।
    आभार इस प्रस्तुति के लिए।

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  7. पत्र और रचना दोनों ही अनमोल ...अच्छी प्रस्तुति

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  8. पत्र और कविता दोनों ही सराहनीय हैं. उसको संचित रखने भी आपकी सराहना करनी पड़ेगी वैसे कुछ ऐसे दस्तावेज होते हैं जो बहुत अमूल्य समझे जाते हैं.

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  9. कविता का एकदभुत रूप देखने को मिला।

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  10. मेल से प्राप्त गिरीजेश राव जी की टिप्पणी

    गिरिजेश राव to me
    2:18 PM (1 hour ago)

    Gr8 article. Could not help commenting from mobile. Keet it up!

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  11. ये पत्र और नवगीत दोनों ही बेमिसाल हैं ....

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  12. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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  13. आह...... ! ये नवगीत वेदना की अन्यतम अभिव्यक्ति हैं. पत्र तो ऐसा कि एक-एक शब्द बोल रहा हो. मुझे याद है जब मैं ने आपके (प्रस्तुतकर्ता के) चंडीगढ़ निवास से दूरभाष पर आदरणीय मिश्रा जी से बात की थी. चन्दा पंक्तियों की एक कविता भी सुनाई थी और दाद के साथ उनका मार्गदर्शन भी मिला था. पहली बार मुझे कविता में "काफिया" के चमत्कार का दर्शन उन्होंने ही करवाया था. बाद में उनका स्नेहिल सानिध्य प्राप्त कर 'दीक्षा' ग्रहण करने की उत्कट लालसा क्रूर काल का शिकार हो गयी. किन्तु आज उनके पत्र को पढ़ कर ऐसा लग रहा है कि वे उसी खनकती आवाज़ में गीतों के मर्म खोल रहे हैं, जिनसे मैं बहुत कुछ सीख सकता हूँ. एक बात तो साफ है, गेयता कविता का लक्षण है. मैं भी नयी कविता को 'अकविता' ही कहना पसंद करता हूँ. उम्मीद है कि स्वर्गीय मिश्र जी के दुर्लभ पत्रों की श्रृंखला जारी रहेगी. धन्यवाद !!

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  15. पत्र, मानो एक कविता है...और कविता, मानो एक पत्र है...अद्भुत।

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  16. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  17. sundar prastuti!
    patra sangrahniya hai....
    ati sundar rachna!
    swargiya mishra ji ko shraddha suman!

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  18. मनोज जी!यह पत्र और रचना एक अमूल्य निधि है... मिश्र जी जैसे साहित्यकारों की रचनाएँ अंधेरे में लिखे गीतों की तरह अंधेरों में विलीन हो जाती हैं.. आपने इनका प्रकाशन कर हमें कृतार्थ किया!!

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  19. यह पत्र और रचना एक अमूल्य निधि है... मिश्र जी जैसे साहित्यकारों की रचनाएँ अंधेरे में लिखे गीतों की तरह अंधेरों में विलीन हो जाती हैं.. आपने इनका प्रकाशन कर हमें कृतार्थ किया!

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  20. पत्र पढ़कर अच्छा लगा...बहुत अच्छा लगा पढ़कर इस पोस्ट को.

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  21. मनोज कुमार जी,
    नमस्कार!
    आपकी इस पोस्ट के संदेश ने मेदक में मिश्र जी के साथ बिताए दिनों को याद दिला दिया। श्री श्यामनारयण मिश्र का खिलखिलाता उन्मुक्त हंसीवाला चेहरा बरबस याद आ गया। मिश्र जी ने नवगीत विधा को काफ़ी समृद्ध किया है। यदि उनकी रचनाएं उपलब्ध हो सके और यदि राजभाषा ब्लॉग पर उन्हें प्रकाशित कर सकें तो मिश्र जी के प्रति श्राद्धांजलि के साथ-साथ ब्लॉग के पाठकों को नवगीत में नया मार्गदर्शन मिलेगा।
    आभार!

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  22. स्व0 श्याम नारायण जी मिश्र से मेरा व्यक्तिगत परिचय नहीं रहा। उनकी रचनाएं सारथ पत्रिका में प्रकाशित हुआ करती थीं। बस, रचनाओं से उनके व्यक्तित्व के बारे में एक चित्र बना था। उनमें गीत की संवेदना, समझ और अभिव्यक्ति की नैसर्गिक की प्रतिभा थी। उनके गीत हमेशा हृदय की गहराइयों तक उतरते हैं।

    प्रस्तुत पत्र स्वयं में एक गीत सा ही तो है। मिश्र जी ने पत्र में जीवन में गीत तथा ध्वन्यात्मक शब्दों में गीत खोजने की चर्चा की है वह इतना सरल नहीं है। अधिकतर ध्वन्यात्मक शब्द स्वतंत्र रूप से निरर्थक होते हैं लेकिन जब युग्म के साथ वाक्य में आते हैं तभी अर्थ देते हैं। केवल ध्वन्यात्मक शब्दों से गीत की रचना करना मिश्र जी जैसे कवियों की ही सामर्थ्य हो सकती है। बाबा नागार्जुन और केदार नाथ सिंह के केवल ध्वन्यात्मक शब्दों से रचे गीत अंतस को झंकृत करते हैं। ऐसे ही प्रभाव वाले कुछ गीतों की रचना गीतकार गुलजार ने कुछ फिल्मों के लिए की थी और उन गीतों ने लोकप्रयिता के शिखर को स्पर्श किया था। गीत जन जीवन की संवेदनशील अनुभूति और अभिव्क्ति है। स्व0 मिश्र जी गीतों को लिखा नहीं जिया है।

    इस अवसर पर मैं स्मृतिशेष मिश्र जी को सादर श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूँ।

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