शनिवार, 5 मार्च 2011

आंधायुग की प्रासंगिकता

आंधायुग की प्रासंगिकता

011मनोज कुमार

पहली दृष्टि में यह लगता है कि ‘अन्धायुग’ के नाटककार ने एक पौराणिक कथा को अपने तरीक़े से लिखने की कोशिश की है। पर अगर गहन विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि इसमें ‘महाभारत’ की कथा तो है ही नहीं। हां, महाभारत की पृष्ठभूमि अवश्य है, परन्तु यह पॄष्ठभूमि मात्र अपना आभास बनाए रहती है, और इसके ऊपर धर्मवीर भारती ने कुछ गंभीर प्रश्न उठाए हैं। इन प्रश्नों का उत्तर हमें अपने भीतर ही पूरी ईमानदारी से तलाश करना है।

यह कृति हमें आत्मनिरीक्षण की गंभीर ज़रूरत पर बल देती है। आज की स्थितियां महाभारत से कम विस्फोटक या विध्वंसक नहीं हैं। कुछ लोगों की विवेकहीनता के कारण आज भी सम्पूर्ण मानवजाति या तो  विनाश के अंधे गह्वर में धकेल दिया गया है, या धकेले जाने में वह दूसरों की मदद कर रहा है या चुप रह कर धकेलने वालों का हौसला बढा रहा है।

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के विश्व को इस अंधायुग’ के द्वारा एक चेतावनी है कि समय रहते अगर हम नहीं चेते तो तीसरे विश्वयुद्ध के बाद महाभारत के इस दृष्टांत को दुहराने वाला, सुनने-सुनाने वाला शायद कोई बचेगा भी नहीं। इसलिए ज़रूरी है कि हम धर्म और विवेक के मतलब को ठीक से समझें। हम अपने भीतर छुपे अपने पाप और आत्याचार के बर्बर पशु की शिनाख़्त कर  उसे काबू मे लाएं।

इस नाटक में जहां एक ओर आस्था और अनास्था, सत्‌ और असत्‌, आदर्श और यथार्थ, भाव और कला, काव्यत्व और दृश्यत्व है, वहीं दूसरी ओर व्यापक जीवन सत्य का उद्घाटन भी है। जिस तरह से आशा, सौंदर्य, उन्नति, आस्था, क्षमा, निर्माण आदि शुभत्व जीवन के सच हैं उसी तरह कुंठा, निराशा, रक्तपात, प्रतिशोध, विकृति, कुरूपता, अंधापन भी जगत का उतना ही कड़वा सच है। इनसे घबराने के बजाय इनका मुस्तैदी से सामना करना चाहिए। सच का सामना हर आदमी को करना पड़ता है। इससे भागना क्यों? मनुष्य होने के नाते इन कुरूपताओं, विद्रूपताओं, अंधत्व पर विजय प्राप्त करना हर आदमी का लक्ष्य होना चाहिए।

पर शेष अधिकतर हैं अंधे

पथ भ्रष्ट, आत्महारा, विगलित

अंतर की अंध गुफाओं के वासी

यह कथा उन्हीं अंधों की है

या कथा ज्योति की है अंधों के माध्यम से।

अंधायुग में अंधों के माध्यम से ज्योति की कथा कही गई है। प्रकाश की कथा कही गई है। अंधेरे के बिना प्रकाश नहीं और प्रकाश के बिना अंधेरा नहीं। जिन लोगों की मति पर अंधकार हावी है, वे अंधे हैं, या अपनी अंध गुफाओं के वासी हैं। ऐसे लोग तो अंधकार में ही जीते हैं। इसलिए वे अशुभ, अमंगल, कुरूपता, विद्रूपता, कुण्ठा, संत्रास, विडंबना और वेदना में जीते हैं। उनका बाहरी आभामंडल शुभत्व मंडित भले ही हो लेकिन वे भीतर ही भीतर अपने अंधकार को जी रहे होते हैं। ऐसे लोग अपने भीतरी अंधकार और बाहरी ज्योति के बीच समन्वय नहीं कर पाते। ऐसे में अशुभ अंधकार जीत जाता है। शुभ प्रभु मर जाता है।

आह! वह सुनता नहीं

ज्योति बुझ रही वहां,

और जिस क्षण प्रभु ने प्रस्थान किया

द्वापर युग बीत गया उस क्षण

प्रभुहीन धरा पर आस्थाहत

कलियुग ने रखा प्रथम चरण

यह तो सौ फीसदी सच है कि हमारे अंतर का अंधकार जब-जब जीतता है शुभत्व के प्रभु की मृत्यु हो जाती है। तब कलियुग प्रारंभ हो जाता है। इस युग में आदमी अपना जीवन अंध गुफाओं में भटकते हुए काटता है। आज भी हर क्षण कहीं-न-कहीं किसी न किसी व्यक्ति के प्रभु की (मूल्यों की) हत्या हो रही है, उसकी जीवन पर अंधकार का कलियुग हावी हो रहा है। अंधकार और प्रकाश का यह सत्य सनातन है।

पर क्या अंधेरा हमेशा जीतेगा ही? क्या शुभ सदैव पराजित ही होता रहेगा? सच कभी नहीं मरता। कितना भी अंधेरा क्यों न हो छंटता ज़रूर है। कितना भी पापी से पापी क्यों न हो उसके अंतर की अंध गुफाओं के समस्त अंधकार को भेदकर ग्लानि और पश्चातप का शुभ भाव जगता है। समस्त पापों को वह प्रभु के चरणों में अर्पित कर गति पाता है। अंधायुग में यह ज्योतिष के साथ हुआ, यह अश्वत्थामा के साथ हुआ।

इसलिए ‘अंधायुग’ हमें सिखाता है कि जो ग़लती हो गई उसे दुहराएं नहीं, उससे सीखें कि कैसे जीना है। जो युद्धों के आवशेष पड़े हैं, वे याद दिलाते हैं कि कभी हमारी ग़लतियों के कारण हीरोशिमा और नागासाकी का विध्वंस हुआ था। उसके बावज़ूद भी हमने जीना सीखा। आगे बढे। पर प्रश्न वही है कि किधर आगे बढे। .. पुनर्विनाश की ओर …!

विध्वंशों के अवशेष पर निर्माण की बात नाटक उठाता है। आह्वान करता है। नाटक में यह भी बताया गया है कि हर पक्ष अपने को नैतिक कारण से सम्बद्ध बता कर अपने संघर्ष को धर्मसम्मत, विवेकपूर्ण और न्याय का पक्ष साबित करता है जबकि वस्तुतः दोनों पक्षों में से धर्म कहीं नहीं होता। सिर्फ़ धर्म की दुहाई दी जाती है। विवेक कहीं नहीं होता। सबके सब गहरे अंधकार से ग्रस्त होते हैं। अंत में विजय किसी की नहीं होती, सब हारते हैं। युद्ध में शशीर से अधिक मानवीय मूल्य अधिक हताहत हुए। जिस राजपाट के लिए युद्ध हुआ उससे दोनों ही पक्ष वंचित रहे, क्योंकि दोनों ही अंधी प्रवृत्तियों से परिचालित थे। हिंसा-प्रतिहिंसा, प्रतिशोध-अहंकार और दंभ से जो संघर्ष होता है उसमें सबकी पराजय निश्चित है।

जीवन भर सच बोलने वाले युधिष्ठिर के आधे सच ने आश्वत्थामा के भीतर प्रतिशोध की हिंसा को जन्म दिया। अंधायुग उसी के परिणाम का दस्तावेज़ है। महाभारत में दोनों पक्षों द्वारा अपनाए गए छल-प्रपंच, षडयंत्र, अधर्म, पाप आदि के मुकाबले युधिष्ठिर का एक अर्धसत्य सब पर भारी पड़ता है। सत्य के प्रकाश को असत्य के अंधकार ने निगल लिया। अंधकार और प्रकाश का यह संघर्ष सब दिन रहा है और रहेगा। समस्त संघर्षों और विनाशों के बावज़ूद आदमी और आदमियत बची रही है और रहेगी।

8 टिप्‍पणियां:

  1. सत्य के प्रकाश को असत्य के अंधकार ने निगल लिया। अंधकार और प्रकाश का यह संघर्ष सब दिन रहा है और रहेगा। समस्त संघर्षों और विनाशों के बावज़ूद आदमी और आदमियत बची रही है और रहेग
    सारगर्भित पोस्ट सोचने को मजबूर करती...

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  2. कोई भी कृति अपने शाश्वत मूल्यों के कारण ही कालजयी बनती है। इसलिए,उसकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहती है।

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  3. बहुत अच्छी पोस्ट ..बहुत कुछ जानने को मिला .

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  4. कर्म आपको बांध लेता है जैसे कर्म किए जायें उसको भुगतना होता है अतः हर क्षण कर्म करते हुए सजग रहें
    देर सबेर अच्छे बुरे कर्मों का हिसाब देना ही होता है।

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  5. भारती जी की लेखनी और दूरदर्शिता का जवाब नहीं अब तक ये लेखन उद्वेलित करता है। आखिर कर्म से कोई क्यों और कैसे बच सकेगा।

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  6. "अंधेरे के बिना प्रकाश नहीं और प्रकाश के बिना अंधेरा नहीं।" सही कहा गया है, लेकिन इन दोनों में सामंजस्य होना जरूरी है। हमें अपने मन कर्म और वचन से किसी के मूल्यों का अनादर नहीं करना चाहिए।

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  7. धर्मवीर भारती जी का यह नाटक हमें मानव मूल्यों के नव निर्माण के प्रति आशान्वित करती है

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