बुधवार, 21 दिसंबर 2011

अंक-14 - हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी


अंक-14
हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
आचार्य परशुराम राय
पिछले अंक में ब्रजसाहित्य-मंडल के तत्त्वाधान में सेठ कन्हैयालाल पोद्दार जी के अभिनन्दन समारोह में आचार्य जी की प्रतिक्रिया को हमने देखा। प्रखर विद्रोही लेखकों और विद्वानों से रूढ़िवादी और अपने हित में रत विद्वान भी उनके शत्रु हो जाते हैं। आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भी इस परम्परा के शिकार हुए। वे लिखते हैं कि ब्रजभाषा का व्याकरण लिखने के बाद इनके विरोधियों में बढ़ोत्तरी हुई। इसके बाद उन्होंने कोई एक और समाजिक समस्याओं पर पुस्तक लिखी, जिसने पुनः इस प्रवृत्ति पर वज्र-प्रहार किया। वे लिखते हैं कि इससे एक शक्तिशाली वर्ग उनसे नाराज हो गया, पर देश का बड़ा काम हुआ।
आचार्य जी को किसी भी प्रकार की अनियमितता सह्य नहीं थी, चाहे उनका चहेता ही क्यों न करे। इस सन्दर्भ में उन्होंने हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति के चुनाव का उल्लेख किया है। इस सम्बन्ध में जयपुर में सम्मेलन का एक अधिवेशन हो रहा था। सम्मेलन के निर्धारित नियमों के अनुकूल चुनाव हुआ। सत्तारूढ़ दल का नेता हार गया और श्री इन्द्र विद्यावचस्पति विजयी हुए। इस पर केवल इसलिए बड़ा कोहराम मचा कि उनका नेता हार गया, इसलिए नहीं कि श्री विद्यावाचस्पति जीते थे। फिर यह चर्चा शुरु हुई कि चुनाव के लिए अपनाई गयी पद्धति दोषपूर्ण थी। जबकि उसी पद्धति और नियम के अन्तर्गत आठ-दस वर्षों से चुनाव हो रहे थे और वे सम्मेलन के द्वारा ही बनाए गए थे।
 जो भी हो, चुनाव को निरस्त कर दिया गया। यह बात आचार्य जी के लिए असह्य हो गयी। जबकि आचार्य जी ने विद्यावाचस्पति जी के विरोधी को ही अपना मत दिया था। पर आचार्य जी ने इस निर्णय का खुलकर विरोध किया और सम्मेलन की स्थायी समिति से त्यागपत्र दे दिया। साथ ही समाचार पत्रों में भी प्रकाशित करा दिया। आचार्य जी की इस प्रतिक्रिया को लोगों ने उतनी गम्भीरता से नहीं लिया, क्योंकि उनके इस कार्य से कुछ लोग खुश भी थे।  पुनः चुनाव हुआ, हारे हुए नेता इस बार उम्मीदवार तो नहीं थे। श्री इन्द्र विद्यावाचस्पति जी ने पर्चा भरा था, पर वे हार गए और श्री गणेश दत्त गोस्वामी विजयी रहे। उन्हें जिताने के लिए जिस उद्देश्य से प्रयास किया गया था, सम्मेलन को वह न मिल पाया, अर्थात सम्मेलन के लोगों को विश्वास था कि उनके जीतने से सम्मेलन मालामाल हो जाएगा। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, हाँ साम्प्रदायिकता को बढ़ावा अवश्य मिला।
आचार्य जी ने एक और मार्मिक घटना का उल्लेख किया है। जब देश को स्वतंत्रता विभाजन के साथ मिली, तो अनेक शरणार्थियों का रेला हरिद्वार पहुँचा। जिससे धर्मशालाएँ, लॉज, मन्दिर, साधुओं के बड़े-बड़े आश्रम एवं अन्य इस प्रकार के आवास ठसाठस भर गए। इस प्रकार इन लोगों के आने से हरिद्वार के कुछ लोग काफी भड़क गए। वे लिखते हैं कि कांग्रेस के लोग इसलिए डर गए कि इनके यहाँ बस जाने से इनका वोट उन्हें नहीं मिलेगा और अगर इनके कारण कोई अशान्ति फैली, तो मुसलमान यहाँ से भाग जाएँगे और दोहरा नुकसान होगा। मुसलमान इसलिए चिन्तित थे कि ये (निर्वासित लोग) कभी भी आग भड़का सकते हैं और वे मुसीबत में फँस सकते हैं। व्यापारी वर्ग की चिन्ता का कारण था कि ये यहाँ बस कर उनकी रोजी-रोटी के हिस्सेदार बन जाएँगे। एक वर्ग वह था जिनकी जीविका तीर्थ-यात्रियों पर निर्भर थी। इनकी चिन्ता का कारण था कि तीर्थ-यात्रियों के ठहरने के स्थान तो इन्हीं लोगों से भरे हैँ, फिर इसके कारण उनकी रोजी-रोटी प्रभावित होगी।
अतएव नगर की रक्षा के लिए अमन सभा गठित की गई। जगह-जगह इसकी सभाएँ आयोजित की जाने लगीं। लोग इन बेचारे शरणार्थियों के विरुद्ध ऐसी-ऐसी बातें करने लगे, मानो वे पेशेवर बदमाश हों।
  एक दिन की बात है। कनखल के चौक में अमन सभा का जलसा आयोजित किया गया। पं. हीरावल्ल्भ त्रिपाठी इसके सभापति थे, जो बाद में सांसद भी चुने गए। सभा का आरम्भ करते हुए उन्होंने कहा- ये हमारे मेहमान हैं। मेहमान को आश्रय देना हमारा फर्ज है। परन्तु अमन रखना भी जरूरी है। अमन में हम गड़बड़ी न पड़ने देंगे। अगर अमन में खलल पड़ा, तो हम उस का मुकाबला सख्ती से करेंगे। हमारे पास ताकत है (आचार्य जी के शब्दों में)। इनकी बातें आचार्य जी को अच्छी नहीं लगीं। जब उन्हें बोलने के लिए आमंत्रित किया गया, तो उन्होंने जो बातें कीं, उससे उनकी निर्भीकता और साहस का पता चलता है- भाइयों. जिन के बारे में यह सभा हो रही है, वे हमारे मेहमान नहीं हैं, भाई हैं. और इस घर में, देश में इन का बराबरी का हिस्सा है। हमें देना होगा, बिना अहसान प्रकट किए। और, वे लोग पूर्ण शान्ति से रह रहे हैं, तब अपडर से उन के प्रति वैसी भावना प्रकट करना और शक्ति के द्वारा दबाने की बात कह कर उन के दुःखी मन को और भी दुखाना इस समय उचित नहीं है (आचार्य जी के शब्द)। इतना बोलने के बाद ही सभापति महोदय द्वारा उन्हें रोक दिया गया। वे मानने वाले न थे, किन्तु सभापति का सम्मान कर वे चुप रहे। पर, दूसरे ही दिन उन्होंने नगर शान्ति सभा का गठन किया और वे स्वयं उसक मंत्री बने।
इसके बाद जगह-जगह सभाएँ करके उन्होंने अमन सभा की कलई खोलकर रख दी और उसे जड़ से उखाड़ फेंका। बाद में निर्वासित लोगों के हथियार के विषय में बातें होने लगीं कि उनसे लाइसेंस वापस ले लेने चाहिए। इसका भी उन्होंने यह कहकर विरोध किया कि उनके पास पूरे भारत के लाइसेंस हैं। अन्त में यह बात भी दब गयी।
इस घटना के आगे कुछ और चर्चा अगले अंक में की जाएगी। इस अंक में बस इतना ही।   
  


7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छी श्रृंखला .. कांग्रेस की मनोवृति का सहज एहसास हो जाता है ..

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  2. इन्हें वैयाकरण कहें या राजनेता.. अद्भुत व्यक्तित्व!!!

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