सोमवार, 1 नवंबर 2010

नवगीत और स्व. श्याम नारायण मिश्र :: आग छूटी जा रही

पिछले अंक में हमें लिखे एक पत्र के द्वारा हमने आपसे हमारे गुरु तुल्य स्व. श्री श्याम नारायण मिश्र जी से परिचय कराया था। इस शृंखला हम थोड़ी-बहुत नवगीत की बात करेंगे और उनकी एक रचना पेश करेंगे।

नवगीत नई कविता का संवेदनात्मक विस्तार या लयात्मक अनुवाद नहीं है। संवेदना और शिल्प, दोनों स्तरों पर नवगीत ने अपनी एक अलग पहचान बनाई। एक अलग राह अपनाई। नवगीत अलग रास्ते का अन्वेषी होकर निराला की परम्परा को नवन्मेष देता रहा है।

नवगीतकारों का मानना था कि बुनियादी सामाजिक बदलाव के उद्देश्य को दृष्टि में रखते हुए यदि हमें अपनी रचनाशीलता के साथ जनता को बदलने के लिए, जनता के बीच उतरना है, तो हमें कविता को उसका समूह-चरित्र और लोक-संस्कार वापस देना होगा, उसकी गेयता को पुनः लौटाना होगा।

नवगीतकारों के अनुसार छन्दों में लोकजीवन की लय को फिर से जगाना होगा। तभी हमारा सामाजिक कथ्य एक सहज आवेग से जुड़ता हुआ लोकचित्त को एक तीव्र रागात्मक स्तर पर ले जाकर सामूहिक मुक्ति के विचार से जोड़ेगा।

 

अब Sn Mishraश्याम नारायण मिश्र जी की एक रचना

आग छूटी जा रही

 

 

 

अंगुलियां सम्हालूं

या दिया बालूं,

     आग छूटी जा रही है

                    मुट्ठियों से।

 

आग का आकार

हाथों में अधूरा है,

इसे भीतर तक उतरने दो।

दे रहा हूं

एक आकृति आग को

रोशनी में धार धरने दो।

आप भी अवसर मिले तो,

खोजना भीतर

आग जो मां ने भरी

          है घुट्टियों से।

11 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत अच्छा लगा यह नवगीत॥ ये भीतर की आग जलते रहनी चाहिए।

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  2. नवगीत तो आज की कविता संस्कृति बन चुका है...स्व. मिश्र की यह रचना भी लाजवाब! अफसोस होता है कि ऐसे कवि गुमनामी के अंधेरों में चुपचाप साहित्य का दिया जलाते रहते हैं!!

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  3. अंगुलियां सम्हालूं

    या दिया बालूं,

    आग छूटी जा रही है

    मुट्ठियों से।


    जबरदस्त पंक्तियाँ !

    .

    जवाब देंहटाएं
  4. नवगीत नई कविता का संवेदनात्मक विस्तार या लयात्मक अनुवाद नहीं है। संवेदना और शिल्प, दोनों स्तरों पर नवगीत ने अपनी एक अलग पहचान बनाई। एक अलग राह अपनाई। नवगीत अलग रास्ते का अन्वेषी होकर निराला की परम्परा को नवन्मेष देता रहा है।
    नवगीत के बारे मैं अच्छी जानकारी मिली ...श्याम नारायण मिश्र जी की रचना बहुत अच्छी लगी ...घुत्तियों से आग भरना ....बहुत सुन्दर ...आभार

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  5. अंगुलियां सम्हालूं

    या दिया बालूं,

    आग छूटी जा रही है

    मुट्ठियों से।
    ाच्छा लगा नवगीत के बारे मे जानकार। धन्यवाद।

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  6. अंगुलियां सम्हालूं

    या दिया बालूं,

    आग छूटी जा रही है

    मुट्ठियों से।

    गज़ब का चिन्तन और चित्रण्……………शब्द और भाव खुद बोल रहे हैं………………एक बेहतरीन अभिव्यक्ति।

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  7. नवगीत के बारे में नहीं जानता लेकिन गोपाल दास नीरज सरीखे गीत लग रहे हैं ये.. विम्ब प्रधान गीत ! हजारों ऐसे गीतकार, कवि हमारे आस पास गम नामी में जीने को अभिशप्त हैं.. आपको श्रेय जाता है कि कम से कम किसी एक को भी आप लोगो के बीच ला पा रहे हैं..

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  8. श्याम नारायण मिश्र जी की लेखनी के बारे में जानकारी देने के लिए आभार.

    सुंदर पंक्तियाँ पढ़ा दी. शुक्रिया.

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