सोमवार, 31 जनवरी 2011

ज़िम्मेदारी





अक्सर मैं सोचती हूँ कि
दुनिया में कितने रंग हैं
अपने गम से बाहर निकलो तो
दुनिया में कितने गम हैं ।

कभी कभी बचपन बीतता भी नही
कि आदमी बुजुर्ग हो जाता है
और कभी कभी कोई बुजुर्ग
बच्चे से बड़ा नहीं बन पाता है

ज़िन्दगी-
बहुत कुछ सिखाती है
ज़रूरत
इंसान को कभी कभी
जल्दी ही उम्र दराज़ कर जाती है ।

बचपन में ही ओढ़ लेते हैं
बड़ी - बड़ी जिम्मेदारियों का बोझ
मासूम से कंधे झुक जाते हैं
समझ नहीं पाते दुनियादारी की सोच ।



उनके ख़ुद के रास्ते सब बंद हो जाते हैं
मेहनत के बदले चंद सिक्के ही मिल पाते हैं
जोड़ - तोड़ कर जैसे - तैसे परिवार चलाते हैं
किसी तरह वो ये ज़िन्दगी गुजारते हैं ।

एक मासूम सा किशोर
अचानक बड़ा हो जाता है
सबको खुशी देता है
जिनसे उसका नाता है ।

पर जब वक्त गुज़र जाता है
उम्र सच में ही ढलने लगती है
थक चुका होता है ज़िन्दगी से
तो नफे - नुक्सान की गणना होने लगती है

पाता है कि छला गया है वो
नाते - रिश्ते सब कहाँ चले गए हैं ?
गम के अंधेरों से जूझता रहा है हर पल
जो नक्शे - कदम बनाए थे वो कहाँ धुल गए हैं ?

वो नाते , वो रिश्ते
छोड़ जाते हैं सब साथ
जिनके लिए उसने अपना
लहू पसीना किया था
आज नितांत अकेला
पाता है ख़ुद को
वो कहाँ हैं सब
जिनके लिए वो जिया था ।
इल्तिजा है बस मेरी
इतनी ही खुदा से
यूँ मासूमों का
इम्तिहान न लिया कर
जो चाहते हैं सच ही
ख़ुद कुछ कर गुज़रना
उनको कुछ अपनी भी
ताकत दिया कर . 





20 टिप्‍पणियां:

  1. जीवन की निर्मम सच्चाइयों से रू ब रू करा दिया आपने ! सच में कितना संघर्ष, कितनी कठिनाइयाँ और कितने इम्तहानों से गुज़रता है इनका बचपन ! दिल दर्द से भर आया ! अगर कहीं इश्वर है और उसके दरबार में इन्साफ है तो वह कहाँ है ! बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना ! बधाई एवं आभार !

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  2. mumma...

    कभी कभी बचपन बीतता भी नही
    कि आदमी बुजुर्ग हो जाता है
    और कभी कभी कोई बुजुर्ग
    बच्चे से बड़ा नहीं बन पाता है

    ...:)
    अच्छी तरह जानती हूँ...समझती हूँ ये पंक्तिया....और परिस्थियाँ....

    ''उनके ख़ुद के रास्ते सब बंद हो जाते हैं''

    ...हम्म...:(...यहाँ भगवानजी की मदद चाहिए होती है..सही समय पर सही सूत्रधार और अवसर भेज दे......एक फिल्म देखी थी ''यशवंत''.....नाना पाटेकर अनाथ होता है...मगर एक पुलिस ऑफिसर बनता है.....और साथ ही अपनी अनाथ पत्नी को कलेक्टर बनाता है ...तो जिसको रास्ते बनाना है वो बना ही लेता है......हालाँकि ये फिल्म थी......मगर बहुत से आम जीवन के भी उदारहण हैं मेरे पास........:):)

    ''पाता है कि छला गया है वो
    नाते - रिश्ते सब कहाँ चले गए हैं ?''

    :)
    मम्मा....मम्मा........
    कौन नहीं छल रहा है आजकल.???......शिक्षा..पद...संस्कारों..की गरिमा कौन निभाता है.??..हीरों के व्यापारी अपनी माँ को क़ैद में रखते हैं.....तो कोई कुत्ते बिल्ली पाल रहा है मगर माता पिता को घर में नहीं रख रहा......

    ''जो चाहते हैं सच ही
    ख़ुद कुछ कर गुज़रना
    उनको कुछ अपनी भी
    ताकत दिया कर ''

    हम्म ..इसे मैंने दूसरे अर्थों में लिया.....:)
    कि..'बुढ़ापा जो बहुधा बचपन का पुनरागमन होता है'...(प्रेमचंद जी के शब्दों का शुक्रिया...) ...ऐसे मासूम बुजुर्गों को इतना swarth और विरक्ति देना...कि पहले तो अपनी कमाई का एक हिस्सा अपने नाम सुरक्षित रखें........दूसरी बात....अपने पुत्र-पुत्री मोह को त्याग कर माता-पिता से ऊपर उठकर स्वयं के अस्तित्व को भी साथ रखें.........:)

    देखा....मैंने आपकी कविता का मूल अर्थ ही बदल दिया...:)
    डांट मत लगाईयेगा ...सही कहा है मैंने...:):)

    बधाई...कविता के लिए....मेरी संजीदा तबियत और तासीर के एकदम अनुकूल थी...:)

    pranaaaaam !

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  3. शायद यही ऐसा सच है जिसे बदलना संभव नही………जिम्मेदारी कब क्या बना दे पता ही नही चलता।

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  4. कभी कभी बचपन बीतता भी नही
    कि आदमी बुजुर्ग हो जाता है
    और कभी कभी कोई बुजुर्ग
    बच्चे से बड़ा नहीं बन पाता है
    phir se milna hoga hamen ,baaten karte hue janungi us jagah ka pata jahan se aap itne gahre ehsaas le aati hain

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  5. मुझे लगता है कि ये जो गरीबी है वे केवल यथार्थ में जीती है, सपने नहीं देखती। अमारी केवल सपने देखती है और यथार्थ से दूर हो जाती है। इसलिए अक्‍सर गरीब कुछ नहीं होने के बाद भी खुश रहता है।

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  6. यथार्थ से रूबरू कराती बेहतरीन अभिव्यक्ति.

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  7. इस हक़ीक़त से मुंह चुराया भी तो नहीं जा सकता।

    दबी जुबान से, सच का बयान कैसे हो
    कटे हो पंख तो, माफिक उड़ान कैसे हो
    कमर पे हाथ मुफलिसी के, खड़े होने पर
    टिके जो भूख, बचपन जवान कैसे हो।

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  8. जीवन की एक सच्चाई ये भी है, कितने बचपन इसी तरह बुजुर्ग होकर जीते जीते दूसरों को तो जवान कर देते हैं लेकिन खुद आख़िर में खाली हाथ ही रह जाते हैं. ईश्वर को भी उन पर तरस नहीं आता और उन्हें किसी पुल के नीचे या फिर रैन बसेरा में दम तोड़ने के लिए छोड़ देते हैं.
    ये कलयुग है, दूसरों का जितना फायदा उठा सकता है उठा le और फिर chupchap patali gali se nikal le.

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  9. चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी प्रस्तुति मंगलवार 01- 02- 2011
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..

    http://charchamanch.uchcharan.com/

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  10. एक नंगा सच!! जितना इससे नज़र चुराएँ, उतना ही पीछा करता है!!संगीता दी, दिल को छू गई यह नज़्म!!

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  11. सच है, जिम्मेदारियों के बोझ में मासूमियत दबकर दम तोड़ जाती है।

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  12. बहुत ही सशक्त अभिव्यक्ति पेश की है आपने!

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  13. जिम्मेदारियों के तले बढ़ा बचपन एकदम से बुजुर्ग हो जाता है ...
    कितने इम्तिहान होते हैं इनके जीवन में जो आपकी हमारी पलकें भिगो देते हैं , मगर खुद उनके लिए ये एक चुनौती है जिसे कई बार वे पार कर लेते हैं कई बार डूब जाते हैं ...
    जीवन के यथार्थ को चलचित्र की तरह प्रस्तुत कर दिया !

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  14. तीन बार रिफ्रेश करके देखा कि कहीं मेरे सिस्टम में ही तो टेक्स्ट ठीक से डाउनलोड नहीं हो रहा...पर हर बार ऐसा ही रहा...

    दुसरे और तीसरे चित्र के बीच की पंक्तियाँ एक अक्षर के नीचे एक अक्षर रूप में स्क्रीन पर आ रही हैं,जिन्हें पढने में बड़ी दिक्कत हो रही है...

    कृपया एक बार फिर से पोस्ट कर देंगे इस पेज को...

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  15. bahut sundar likha hai.. sach kaa ainaa aisa hee hai... bahut khoob,... Sangeeta ji..dhanyvaad kavita hamse shayer kee...

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  16. कभी कभी बचपन बीतता भी नही
    कि आदमी बुजुर्ग हो जाता है
    और कभी कभी कोई बुजुर्ग
    बच्चे से बड़ा नहीं बन पाता है

    वाह क्या बात है और क्या सादगी| अनुभव से सजी सुंदर रचना के लिए बहुत बहुत बधाई दीदी|

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