सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

बंदिशें और ज़िंदगी

बंदिशें ज़िन्दगी में
हर पल कुछ यूँ
हावी हो जाती हैं
चाहता है कुछ मन
पर ख्वाहिशें
पूरी नही हो पाती हैं ।
यूँ तो हम सब
ज़िन्दगी जी ही लिया करते हैं
सुख के पल भी ज़िन्दगी में
अनायास ही पा लिया करते हैं ।
हंस लेते हैं महज़ हम
इत्तफाक से कभी कभी
खुश हो लेते हैं यह सोच
कि ज़िन्दगी में कोई कमी तो नही ।
पर गायब हो जाती है मुस्कान
ये सोच कि -
हम कौन सा पल
अपने लिए जिए ?
अब तक तो मात्र
सबके लिए फ़र्ज़ पूरे किए।
ढूंढे से भी नही मिलता वो एक पल
जो हमने अपने लिए जिया हो
बंदिशों के रहते
किसी पल को भी अपना कहा हो।
रीत जाती है ज़िन्दगी
बस यूँ ही चलते - चलते
बीत जाती है ज़िन्दगी 
बंदिशों में ढलते - ढलते |



संगीता स्वरुप 

20 टिप्‍पणियां:

  1. बस यूँ ही चलते - चलते
    बीत जाती है ज़िन्दगी
    बंदिशों में ढलते - ढलते |
    very nice

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  2. ये सब भी तो अपने ही हैं, इनके लिए जिए तो समझो अपने लिए जिए। नर हो ना निराश करो मन को।

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  3. बीत जाती है जिंदगी बंदिंशों में ढलते-ढलते-ये बंदिशें ही तो हमें जिंदगी के साक्षात्कार क्षणों से रागात्मक लगाव की सृजन कर मन के संवेदनशील भावों को झकझोर कर चली जाती हैं एवं छोड़ जाती हैं कुछ यादें जो एक धरोहर बन कर मन में स्थायी भाव के रूप में सुरक्षित रह जाती हैं।वहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति।धन्यवाद।

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  4. बस यूँ ही चलते - चलते
    बीत जाती है ज़िन्दगी
    बंदिशों में ढलते - ढलते |
    सुन्दर अभिव्यक्ति।

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  5. यही ज़िन्दगी का सत्य है………………सुन्दर और सटीक चित्रण्।

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  6. ज़िंदगी कि उठापटक को बाखूबी चित्रित करती अच्छी कविता.

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  7. इस बंदिश का भी अपना ही मजा है..कभी कभी इसमें भी सुख मिलता है..बस सोच की बात है.
    बहुत बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति.

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  8. सुन्दर भावोद्गार...

    पर अपने लिए कुछ पल चुरा ही लेना चाहिए...

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  9. जिंदगी का दर्शन , हम चुरा रहे है कुछ पल .

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  10. ढूंढे से भी नही मिलता
    वो एक पल
    जो हमने अपने लिए जिया हो
    बंदिशों के रहते
    अह!
    क्या आनंद है इन बंदिशों का।

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  11. पर गायब हो जाती है मुस्कान
    ये सोच कि -
    हम कौन सा पल
    अपने लिए जिए ?
    अब तक तो मात्र
    सबके लिए फ़र्ज़ पूरे किए।

    कितना सच लिखा है संगीता जी ! कभी पीछे मुड कर देखते हैं तो यही अहसास होता है कि शायद ही कोई पल ऐसा जिया हो जो केवल अपने लिये ही जिया हो ! जीवन के सारे सुबहो शाम सिर्फ फ़र्ज़ निभाते ही बीत गये ! वास्तविकता के बहुत करीब हर आम नारी का दर्द बयान करती एक बहुत ही खूबसूरत रचना ! बधाई एवं शुभकामनायें !

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  12. रीत जाती है ज़िन्दगी
    बस यूँ ही चलते - चलते
    बीत जाती है ज़िन्दगी
    बंदिशों में ढलते - ढलते |

    सच्ची बात कहती हुई रचना .
    अक्सर ऐसे ही जीवन बीतता है .

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  13. हम कौन सा पल
    अपने लिए जिए ?
    gahri soch ke baad hi yah nishkarsh hota hai... anubhawon ke aanch mein tapker satya milta hai

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  14. संगीता जी ,
    सामाजिक प्राणी है आदमी ,बंदिशें कुछ तो रहेंगी ही ,नहीं तो मन ऐसी अराजक चीज़ है कि सभी कुछ तोड़-भागना चाहता है .
    यह भी हमारी सामर्थ्य पर निर्भर है कि हम कहाँ कितनी छूट ले लें. खीच-तान तो चलती रहेगी-रस्सी कस के खींचे रहिये अपनी तरफ़(बड़ा संतोष मिलता है ) .

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  15. पर गायब हो जाती है मुस्कान
    ये सोच कि -
    हम कौन सा पल
    अपने लिए जिए ?
    अब तक तो मात्र
    सबके लिए फ़र्ज़ पूरे किए।

    बहुत सुंदर अभिव्यक्ति है...

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  16. jindagi aur bandishen....hammeshaa ek doosare ka haath pakad kar hi chalti hai!...bahut sundar rachna!

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  17. sangeeta ji aapne meri rachnaoo ko charcha manch pr kayi baar jgah di hai...lekin mai charchamanch site pr aapko aabhar vyakt nahi kr payi...pta nahi kyo jab bhi mai charchamanch ki site kholne ki koshish krti hu...site khul hi nahi pati..is samasya ka smadhan krne ki koshish kr rhi hu...lekin fir bhi agar charchamanch pr mera aabhar na aaye to site ki samasya hi hogi...
    dhanybad

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