रविवार, 29 मई 2011

कहानी ऐसे बनी - 25 : 'न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको’

कहानी ऐसे बनी - 25 :

'न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको’

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

नमस्कार जी !

अरे बाप रे बाप ........ उस दिन जो बघुअरा वाली और चमनपुर वाली के बीच 'महाभारत' हो रहा था..... ! ऊँह पूछिये मत। कितने दिनों बाद ऐसा-ऐसा आशीर्वाद सुने कि मन तृप्त हो गया। अब आप पूछेंगे कि ये बघुअरा वाली कौन है ? अरे उनको पहचाने नहीं... ? वही चमनपुर वाली की पड़ोसन। धत्त तेरे की .... अब ये चमनपुर वाली कौन है ? अरे महराज कहा तो.... बघुअरा वाली की पड़ोसन.... ? अब आपको लग रहा होगा कि ये दोनों कौन है .... ? अरे साहब ! इसमें भी कोई मैथमेटिक्स थोड़े है .... दोनों अड़ोसन-पड़ोसन हैं ! हा.... हा... हा.... !! देखे कितना मजेदार चुट्कुल्ला सुनाए हम .... लेकिन उस दिन की कहानी भी कम मजेदार नहीं है।

अरे हम झींगुर दास के साथ पैतैली पेठिया (हाट) से बैल बेच कर आ रहे थे। जैसे ही काली थान से आगे बढे की खूब जोरदार चख-चुख सुनाई दिया। देखे अच्छी-खासी भीड़ भी जुट गयी थी। उस बीच में पीली साड़ी के आंचल को कमर में घुमा कर बांधी हुई चमनपुर वाली ऐसा चमक रही थी कि क्या बताएं .... ! उसी तरह उसकी देवरानी जमी हुई थी, बघुअरा वाली। चमनपुर वाली चमके तो इसके मुँह से भी स्नेह की झड़ी फूट पड़े। चमनपुर वाली चमक कर इस कोने से उस कोने को एक कर रही थी। इधर बघुअरा वाली का हाथ ही काफ़ी था। ऐसे चमकाए कि मुँह के बोल को हरी-पीली चूड़ियों का ताल मिल जाए। भीड़ कभी इसकी बात पर हंस पड़े तो कभी उसकी बात पर समझाए। गाँव में ऐसा डृश्य हमेशा ही देखने को मिल जाता है, लेकिन इन दोनों देवरानी-जेठानी के मधुर संवाद की तो बात ही कुछ और है........ ! एकदम समझिये कि सुर-ताल से सजा। एक बोले ‘मैय्याखौकी’ तो दूजा ‘भैय्याखौकी’ ... !

ऊपर से तो ‘हा-हा’ करें मगर यह सब सुनकर अन्दर से हमरा मन भी प्रफुल्लित हो जाता था। हमने हिम्मत की और दोनों अखाड़े  में घुस गए। हमको देखते ही चमनपुर वाली चमक के आ गयी और हमारे दोनों हाथ पकड़ कर लगी चिल्लाने, "देखिये बौआ ! हमारा केलबन्नी (केले का बगान) ! हमारे केला का घौंद !! और ये छुछिया .... ! लुत्तिलगौनी ..... बेइमनठी … ! काट के रख ली है।"

हमारी दृष्टि बघुअरा वाली पर पड़े कि उससे पहले ही उसका स्पीकर चालु हो गया। हाथ को उल्टा चमका-चमका कर कहने लगी, "हाँ ! यही तो एगो छुलाछन (सुलक्षण) है। हरजाई कहीं की..... ! इतना ही गौरव है तो अपनी जमीन में क्यों नहीं रखी केला के बीट।"

इधर बघुअरा वाली भट्ठी में पड़े चना की तरह फरफरा ही रही थी कि उधर चमनपुर वाली तीसी की तरह चनचना उठी।

अब क्या करें ... मजा तो हमको इसमें रानी सुरुंगा के खेल से भी अधिक आ रहा था। लेकिन गाँव-घर का लिहाज। लोग-वाग एक तो हमें पढ़-लिखा बुद्धिमान समझते हैं। मामला की तहकीकात कर दोनों के मरद को तलब किये। चमनपुर वाली के मरद फुलचन गए हुए थे कुटमैती। बघुअरा वाली का मरद रूपचन ताश का खेल छोड़ कर आया। अब हम, झींगुर दास, बदरू झा, फजले मियाँ सब इधर बात ही कर रहे थे कि उधर फिर एक राउंड शुरू हो गया।

चमनपुर वाली कहे ‘शौखजरौनी ! तेरे जुआनी में लुत्ती लगा देंगे’ .... तो बघुअरा वाली भी कहाँ कम थी .... वो कहे ‘तोरे धन में बज्जर गिरा देंगे।’

इसी पर बदरू झा दोनों को डपटकर बोले, "धत्त ! तोरी जात के मच्छर काटे ! लाज-शर्म नहीं है तुम दोनों जनानी को क्या ? अरे इधर मरद-मानुस बात कर ही रहे हैं न .... ममला सुलझाना है कि कपरफोरी करना है.... ! तभी से कें...कें.... कें.... कें.... गाली-गलौज करे जा रही है।" बदरू झा की बोली में अभी भी सरपंची रुआब था। दोनों चुप हुई। तब हमलोग विस्तार से माजरा समझे।

वो क्या था कि फुलचन और रूपचन दोनों भाई ही थे। फुलचन के केला का पौधा गिर गया था रूपचन के मटर खेत में। रूपचन की जनानी घौंद काट के ले आयी। दोनों घर में वैसे ही बहुत प्रेम था। ऊपर से मालभोग केला के घौंद ने और रस बढ़ा दिया। बस हो गया मंगल के दंगल वीर बली का नाम ले कर।

रूपचनमा कहता कि पहले से ही केला का बीट हटाने को बोले थे तो हटाये नहीं .... हमारा धुर भर का मटर बर्बाद हो गया .... तो हम केला कैसे दे दें..... ! उधर चमनपुर वाली कहे कि हम छोड़ेंगे नहीं !

हमलोग बड़े जतन से रूपचनमा को समझाए। कहे, "अरे जैसे तू ... वैसे फुलचन ... ! दोनों घर तो एक ही है। तू भी खाओ ... तेरा भाई-भतीजा भी खायेगा। आधा घौंद केला इसे भी दे दो।"

रूपचनमा तैयार हो गया। हमलोग के सामने ही कचिया हांसू से बराबर दो भाग काट दिया। तब झींगुर दास बोला, "हे चमनपुर वाली कनिया ! सुनो ! केला तेरा ही सही ... लेकिन इसके खेत में गिरा तो मटर तो बर्बाद हो ही गया। काट कर ले आया तो कोई बात नहीं थी .... जैसा तेरा बाल-बच्चा, वैसा इसका। दोनों आदमी आधा-आधा ले लो !"

लेकिन यह भलाई की दुनिया नहीं। चमनपुर वाली लगी फिर चनचनाने। हमारा केला हम आधा क्यों लेंगे.... ? लबरा पंच सब ! मुँह देख कर पंचैती करता है .... !’

लेओ भैय्या ! अब हम लोगों पर ही उखड़ गयी। उधर बघुअरा वाली भी चिल्लाए जा रही थी, "एक छीमी भी नहीं देंगे केला... ! हमारे मटर का हर्जाना कौन भड़ेगा ?"

रूपचन किसी तरह अपनी लुगाई को समझाए मगर उसकी भौजाई को कौन समझाए.... ! वह तो आकाश-पाताल एक कर रही थी। रह-रह के गुर्राने लगे। हमलोग भी क्या करें ... मूकदर्शक बने हुए थे।

अंत में बेचारा रूपचन भी आजीज हो गया। पत्नी को डांट-डपट कर खुद ही टोकरी में केला डाल कर चला गया भौजाई को देने .... मगर चमनपुर वाली ने उसका तन-वदन, धरम-ईमान का एक भी गति नहीं छोडी। आखिर मरद का जात कितना सहे .... ! वह भी तमसा गया। एकदम से बोल पड़ा, "हे.... ! 'न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको...... !!' जय हो अगिन-देवता ! लो केला का भोग लगाव.... !" कह कर धान उबालने के लिए जो बड़ी भट्टी जल रही थी उसी में दोंनो टोकड़ी का केला उड़ेल दिया..... ! ‘अब लो खा लो केला छील-छील कर ... ! "न तोको न मोको....चूल्हे में झोंको !!"

हा.... हा... हा..... ठी... ठी... ठी.... ! खें..... खें....खें...खें...... हे.... हे...हे....हे.... ! एक पहर से यह कीर्तन भजन का आनंद ले रही भीड़ के मुँह से समवेत ठहाके निकल पड़े।

हम भी बोल उठे, "एकदम सही किया, रूपचन ! यह औरतिया झगड़ा .... बाप रे बाप ! छोटा-बड़ा किसी की बात नहीं समझती है। हमारा है तो हमारा है। हम लेंगे तो हम नहीं देंगे..... ! लो अब ठन-ठन गोपाल.... ! न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!" अब तो संतुष्टि हुई न .... आधा में संतोष नहीं था तो पूरा गया अग्नि देवता के पेट में।"

हम भी अपनी भड़ास निकाल लिए और भीड़ को पुकार कर बोले, "चले-चलो भाई ! चले-चलो !! खेल ख़तम हुआ... !"

हम भी अपना बटुआ संभाले और झींगुर दास के साथ बढ़ गए घर की तरफ। लेकिन एक बात तो भूल ही गए ..... अरे आप आज की कहावत का मतलब समझे कि नहीं .... ? यह तो एकदम सिंपल है ... । अरे

जब किसी वस्तु के लिए दो आदमी इतना खींचा-तानी करें कि न इसका हो सके न उसका .... और खा-म-खा बर्बाद हो जाए तो आप रूपचन की तरह कह दीजिएगा "न तोको, ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!"

तो यही था इसका अर्थ। अब चलते हैं। घर जाने में आज बहुद देरी हो गई। लोग घर पे अंदेशा कर रहे होंगे कि बैल बेच के आ रहा है ..... कहीं राहजनी तो नहीं हो गया ..... ! जय राम जी की !!!

10 टिप्‍पणियां:

  1. थोडी भाषा समझने में परेशानी आयी, लेकिन लेख जानदार रहा,

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  2. न तोको न मोको....चूल्हे में झोंको !
    अच्छी लगी कहानी ..बड़े भाई

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  3. न तोको, ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!"
    bahut manoranjak raha.

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  4. वाह मनोज जी...इच्छापुर से समस्तीपुर का सैर करा दिए ! सही - सही कहानी गाँव में ऐसी घटनाए प्रायः मिलती ही रहती है ! मैंने भी कई बार अनुभव किये है ! लोकोक्ति सिद्ध हो गयी ! बधाई !

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  5. बहुत रोचक शैली में लिखी अच्छी कहानी| धन्यवाद|

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  6. हास्य ग्राम्य-जीवन का सहज अंग है। वह यहां भी दिखती है।

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  7. न्याय प्रिय बात . झगडा ख़तम झगडे की जड़ भी ख़तम

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