बुधवार, 29 जून 2011

समालोचना

समालोचना

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आलोचना शब्द की उत्पत्ति 'लुच' धातु से हुई है जिसका अर्थ है - देखना. साहित्य के सन्दर्भ मे समालोचना भी प्रयोग होता है, जिसका अर्थ है - 'सम्यक प्रकार से देखना या परखना'.

ड्राईडन के अनुसार -

आलोचना वह कसौटी है जिसकी सहायता से किसी रचना का मूल्यांकन किया जाता है. वह उन विशेषताओं का लेखा प्रस्तुत करती है जो साधारणतः किसी पात्र को आनंद प्रदान कर सकें.

मैथ्थ्यु आररनल्ड  के अनुसार -

"But the criticism, real criticism is essentially the exercise of this quality curiosity and disinterested love of a free play of mind".

टी. एस . इलियट पाश्चात्य आलोचना के प्रमुख समीक्षक माने जाते हैं.नयी आलोचना पर इलियट का पर्याप्त प्रभाव पडा है. जब काव्य तथा समीक्षा दोनो माध्यमों से साहित्यकार अपने एक ही विशिष्ट दृष्टीकोण को अभिव्यक्त तथा पुष्ट करता है तो उसकी कवि तथा समालोचक दोनो रूपो में मान्यता मिलती है.

कोई भी जागरूक साहित्यकार अपने युग की चेतना के निर्माण में यदि अपनी कविता द्वारा योग देता है तो उसका समीक्षात्मक साहित्य भी इसे अनिवार्य रूप से प्रभावित करता है.

इलियट आलोचना के संबंध मे महत्वपूर्ण बात कहते हैं. वे कहते हैं कि आलोचना के क्षेत्र मे परंपरा का अनुगमन रुढ़िवाद  नही है. प्राचीन परंपराएं मानव के भावी जीवन के विकास की आधारभूमि होती हैं और वर्तमान को भी प्रभावित करती हैं. इलियट कहते हैं की आलोचना के दो दृष्टिकोण हैं.

१. कवि के तत्कालिक समय की दृष्टि से कवि का मूल्यांकन करने के लिए.

२. वर्तमान समय मे उसकी उपादेयता के लिए

इलियट के अनुसार उत्कृष्ट आलोचना वह है जिसमे लोकदृष्टि हो तथा जो अध्येता  को रसास्वादन की सूझ-बूझ और क्षमता प्रदान कर सके.

कविता की भाषा के सन्दर्भ मे इलियट का कहना है की उसमे उच्चता का गुण अत्यंत आवश्यक है. कविता मे कल्पना का प्रयोग वांछित होता है, परंतु वह यथार्थ के धरातल से जुड़ी रहनी चाहिए.

इन विद्वानों के विचार पढ़ कर आलोचनाओ के विभिन्न कार्य सामने आते हैं.

१. रचना का भाव और कृतिकार के उद्देश्य को प्रकट करना.

२. रचना के गुण दोषों का उद्घाटन करना.

३. रचना की व्याख्या करना और अपने मन पर पड़ने वाली प्रतिक्रिया का प्रेषण करना.

समालोचक रचना की परख अलग अलग उद्देश्यों और दृष्टिकोण से करता है, उसकी आल्लोचना के मानदंड भी भिन्न भिन्न होते हैं. इसी आधार पर समालोचना भी भिन्न भिन्न प्रकार की होती है...जैसे ..

शास्त्रीय आलोचना

- जब कोई आलोचक शास्त्रीय नियमों को आधार बनाकर काव्य का मूल्यांकन करता है तो इसे शास्त्रीय आलोचना कहते हैं. इसमें न तो व्याख्या की जाती है, न प्रभाव का अंकन होता है, न मूल्यांकन होता है और न निर्णय दिया जाता है. काव्यशास्त्र के सिद्धांतो को आधार बनाकर यह आलोचना की जाती है.

निर्णयात्मक आलोचना

- निर्णयात्मक आलोचना में आलोचक एक न्यायाधीश की भांति कृति को अच्छा बुरा अथवा मध्यम बताता है. निर्णय के लिए वह कभी शास्त्रीय सिद्धांतो को आधार बनता है तो कभी व्यक्तिगत रूचि को. बाबु गुलाब राय मानते हैं की यदि निर्णय के लिए शास्त्रीय सिद्धांतो को आधार बनाया जाये तो इसमें सुगमता रहती हैं. आलोचना का यह रूप प्रायः व्यक्तिगत वैमनस्य निकालने का साधन बनकर रह जाता है. जहाँ पाठक स्वयं पर निर्णय थोपा हुआ महसूस करता है, वहीँ लेखक स्वयं को उपेक्षित अनुभव करता है.

ऐतिहासिक आलोचना

इस अल्लोचना पद्धति में किसी रचना का विश्लेषण तत्कालीन परिस्थितियों के सन्दर्भ में किया जाता है. उदाहरण के लिए राम काव्य की रचना - वाल्मीकि, तुलसी, मैथिलीशरण गुप्त ने की, किन्तु उनकी कृतियों में उपलब्ध आधारभूत मौलिक अंतर तद्युगीन परिस्थितियों की उपज है.

प्रभाव वादी आलोचना 

इस आलोचना में कृतिकार की कृति को पढ़कर मन पर पड़े प्रभावों की समीक्षा की जाती है. किन्तु हर व्यक्ति की रूचि भिन्न भिन्न होती है अतः एक कृति को कोई अच्छा कह सकता है और कोई बुरा. इसलिए इस आलोचना में प्रमाणिकता का सर्वथा अभाव रहता है.

मार्क्सवादी आलोचना 

मार्क्सवाद सामाजिक जीवन को एक आवयविक पूर्ण रूप से देखता है. जिसमें अलग अलग अवयव एक दूसरे पर निर्भर करते हैं. वह मानता है की सामाजिक जीवन में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका भौतिक आर्थिक संबंधो द्वारा श्रम के रूपों द्वारा अदा की जाती है. अतः लेखक का कर्तव्य है कि किसी युग के सामन्य विश्लेषण में वह उस युग के सम्पूर्ण सामाजिक विकास का पूरा चित्र प्रस्तुत करे. वह कहता है कि कला के अनन्य प्रकारों में साहित्य इसलिए भिन्न है कि साहित्य में रूप की तुलना में विषय का महत्त्व है.इसलिए वह सबसे पहले कृति को विषय का अपने विश्लेषण का विषय बनता है.और तब कृति की अभिव्यक्ति की शक्ति द्वारा सामाजिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव का निर्धारण करता है.

मार्क्सवादी आलोचक एक सीमा तक शिक्षक भी होता है. उसे सबसे पहले लेख के प्रति अपने रुख में शिक्षक होना चाहिए. आलोचक लेखक से बहुत कुछ सीखता है. श्रेष्ठ आलोचक लेखक के प्रति प्रशंसा और जोश की दृष्टि रखता है. उसका कर्तव्य है की वह नए लेखकों को उनकी ग़लतियाँ बताये साथ ही सामाजिक जीवन को समझने में उसकी सहायता करे. आलोचक पाठक की भी सहायता करता है. वह उसे अच्छे साहित्य का आस्वादन करा कर उसकी रूचि का परिष्कार करता है. मार्क्सवाद का मानना है की आलोचक को स्वयं को एक शिशु के रूप में देखना चाहिए. उसे विनम्र, विराट, प्रतिभाशाली साहित्य का अवलोकन करना चाहिए.

19 टिप्‍पणियां:

  1. संक्षिप्त में कहना चाहूँगा कि -आलोचना का एक अर्थ आत्मलोचन भी है-जहाँ देखने का अर्थ है अपने आप को न देखना,बल्कि खुली आँखों से जीवन, जगत, इतिहास,वर्तमान को देखना और भविष्य की रूप रेखा को निर्धारित करना। आलोचना की तीक्ष्ण दृष्टि केवल दिखती नही दिखाती भी है और एक प्रकार से वह समाज के आलोचना से भी जुड़ जाती है।आलोचना के सलीके और आलोचना की समझ के बिना न तो साहित्य पूर्ण हो सकता,न ही साहित्य का अध्येता। हिंदी समाज में साहित्यिक विवेक का संचार करने में आलोचना एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है। लेकिन इस सत्य से विनुख होना एक कठिन कार्य है कि आलोचना कर्म अपने शुरूआती दौर से ही कंटक पथ पर चलता आ रहा है। पोस्ट,परिभाषा एवं विश्लेषणात्मक प्रस्तुति अच्छी लगी।
    धन्यवाद सहित।

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  2. आलोचना पर विस्‍तृत आलेख के लिए आभार।

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  3. समालोचना सिद्धांत और उसके विभिन्न पहलुओं पर एक विस्तृत समीक्षा बहुत ही ज्ञानवर्धक है।

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  4. विश्लेषणात्मक प्रस्तुति बहुत अच्छी लगी । धन्यवाद।

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  5. सारगर्भित और सटीक आलेख्।

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  6. आलोचना और समालोचना के विभिन्न पहलुओं पर गहन विश्लेषण अच्छा लगा

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  7. आज पता चला ...आलोचना और समालोचना

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  8. समालोचना के विभिन्न रूपों की व्याख्या एक अलग ही दृष्टिकोण है।

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  9. सारगर्भित एवं ज्ञानपरक आलेख.

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  10. सुन्दर और सुव्यवस्थित ढंग से समालोचना की विवेचना ..

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  11. आलोचना/समालोचना......विस्तृत विश्लेषण...आनन्द आ गया पढ़कर....ज्ञानवर्धक. आभार.

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  12. Behad achhe prastuti! Wah! Aapka wachan-pathan bhee kitna wistrut hai,ye aalekh dikha deta hai!

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  13. काला धन और भ्रष्टाचार पर आरोप-प्रत्यारोप के इस दौर में किसकी आलोचना किस श्रेणी में रखी जाए?

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  14. मेरे जैसे जिज्ञासु के लिए ये पारिभाषिक शब्द मायने रखते हैं .सामालोचना के प्रकार .आलोच्य विषय का अनुशीलन ,मनन ,सम्प्रेषण और सबसे बढ़कर ,पढ़ना रचना को ,पढ़कर रचना के प्रति बाल भाव ,बालकों सा कौतुक रखना .लेकिन इस दौर में तो मठाधीशों ने खूब चांदी कूटी .हिंदी आलोचना के बारे में कहा जाता है -आलोचना करने के लिए आलोच्य विषय से वाकिफ होना ज़रूरी नहीं है .यहाँ कई नाम -वर लोग अपने प्रभा मंडल के गिर्द ही आलोचना को समेटे रहें हैं .मैं विज्ञान का विद्यार्थी बराबर गोष्ठियों में भी शिरकत करता रहा हूँ .सागर में जब पढता था -वहां डॉ .धीरेन्द्र वर्मा और बाजपई नन्द दुलारे का दरबार देखा ,दिल्ली में डॉ नगेन्द्र ,बाद उसके नामवर सिंह जी का रूतबा देखा .एक मर्तबा ये सज्जन रोहतक विश्विद्यालय के हिंदी विभाग में मुख्य वक्ता के रूप में पधारे .विषय वही -आलोचना ।
    भाई साहब कहने लगे हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की विधिवत शिक्षा नहीं हुई थी .बारहवीं पास थे .पंजाब विश्व -विद्यालय में जब प्रोफ़ेसर बनाने की बात चली तो उनकी शैक्षिक योग्यताओं पर एतराज उठा ।
    इसी तर्क को यदि आगे बढा या जाए तो कबीर ,संत साहित्य की धारा के अन्य कवि-गण तो अंगूठा छाप थे क्या उन्हें साहितियिक कूड़े दान में फैंक दिया जाए .हमने उस एक तरफा संवाद में यह सवाल पूछकर उस साहित्यिक सन्नाटे को तोड़ा था .अपना कुछ बिगड़ना भी नहीं था .हम तो यूनिवर्सिटी कोलिज में भौतिकी पढ़ाते थे ।
    तो ज़नाब समालोचक गधेको घोड़ा बतला सकता है .घोड़े को साहित्यिक खच्चर .क्या कर लोगे उसका अगर वह कहे -दो और दो पांच होतें हैं ।
    मार्क्स वादी आलोचक किताबों में कैद हैं परिभाषा के काम आतें हैं .

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  15. आलोचना के सिद्धांत और प्रकार को समझा ...
    ज्ञानवर्धक आलेख !

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