शनिवार, 21 जनवरी 2012

वीरों का हो कैसा बसंत … ( सुभद्रा कुमारी चौहान )

Subhadrakumari.jpg
जन्म –१९०४
निधन -१९४८
आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का हो कैसा बसंत

फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का हो कैसा बसंत

भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का हो कैसा बसंत

गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का हो कैसा बसंत

कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का हो कैसा बसंत

हल्दीघाटी के शिला खण्ड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड;
दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
वीरों का हो कैसा बसंत

भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
फिर हमें बताए कौन हन्त
वीरों का हो कैसा बसंत

9 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया रचना पढवाने के लिए आभार |

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  2. सुभद्रा कुमारी चौहान की रचना तो ओज से भरी हुई ही होती हैं ....प्रस्तुत करने के लिए आभार आपका

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  3. शायद आठवीं या नवीं कक्षा में पढ़ी थी यह सुन्दर रचना.आज आपने यहाँ पढवाया. बहुत आभार.

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  4. भूषण अथवा कवि चंद नहीं
    बिजली भर दे वह छन्द नहीं
    है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
    फिर हमें बताए कौन हन्त
    वीरों का हो कैसा बसंत

    विद्यार्थी जीवन की यादें ताजा कर दिया आपने । उन दिनों इस कविता को कंठस्थ कर हिंदी के शिक्षक को सुनाना पड़ता था । बहुत सुंदर । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  5. कक्षा १० में मेरी हिंदी की पुस्तक का हिस्सा थी ये कविता, आज भी एक एक शब्द याद है ...एक बार फिर से दोहरवाने के लिए धन्यवाद!!!!!

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  6. बहुत दिनों बाद यह कविता पढ़ने को मिली आपका आभार।

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  7. दसवीं में पढी थी हमने भी। जय हे गाँधी! हे करमचंद!! मैंने इसी तर्ज पर लिखने की कोशिश थी, जो दो अक्तूबर को लगायी थी। ओजमयी कविता है, बहुत प्रवाहमयी भी।

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