शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

पुण्य की पोटली छू अधोगामी हुए

पुण्य की पोटली छू अधोगामी हुए

श्यामनारायण मिश्र

यहां, ऊंचे स्वार्थ के पर्वत

और सूखी झील है संवेदना की,

             बहुत हुआ तीर्थ, चल वापस लौट चल।

 

जो बोकर आए थे पीछे सब सूख गया।

हाथ पर साधा नहीं, ओठों पर चूक गया।

श्रद्धा से सूंघ मत,

मीरा का शाल नहीं,

कंचुकि है पूतना की,

             बहुत हुआ तीर्थ, चल वापस लौट चल।

 

पाप की ही सही निष्ठा से ढोने का अपना सुख था।

अपने ही हाथ, अपना ही दर्पण, अपना ही मुख था।

पुण्य की,

यह पोटली छू अधोगामी हुए,

और अपनी ही सतत्‌ अवमानना की,

             बहुत हुआ तीर्थ, चल वापस लौट चल।

 

किस पर है कितना, वयौहर पर छोड़ गुणा-भाग।

ठंडा मत होने दे प्राणों का अलाव, सांसों की आग।

किस-किसके लिए किए आत्महंत अनुष्ठान

आहुतियां दे डाली भावना की,

             बहुत हुआ तीर्थ, चल वापस लौट चल।

9 टिप्‍पणियां:

  1. किस पर है कितना, वयौहर पर छोड़ गुणा-भाग।

    ठंडा मत होने दे प्राणों का अलाव, सांसों की आग।

    किस-किसके लिए किए आत्महंत अनुष्ठान

    आहुतियां दे डाली भावना की,

    बहुत हुआ तीर्थ, चल वापस लौट चल।

    बहुत सुन्दर संवेदनाओं को उजागर करती रचना !

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  2. पाप की ही सही निष्ठा से ढोने का अपना सुख था।
    अपने ही हाथ, अपना ही दर्पण, अपना ही मुख था।

    जीवन में व्यक्ति अपने कर्मों का सही आकलन नहीं कर पाता, अहंकार वश उसे लगता है कि वो जो कुछ कर रहा है वो सही है ...इस कविता की इन पंक्तियों में इस भाव की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है .....आपका आभार

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  3. किस पर है कितना, वयौहर पर छोड़ गुणा-भाग।

    ठंडा मत होने दे प्राणों का अलाव, सांसों की आग।

    किस-किसके लिए किए आत्महंत अनुष्ठान

    आहुतियां दे डाली भावना की,

    बहुत हुआ तीर्थ, चल वापस लौट चल
    गहरी संवेदनाएं दिल कि तह तक जाती हैं और अपना असर छोडती हैं..

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  4. मिश्र जी का यह गीत आह्वान कर रहा है .... सुन्दर गीत...

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  5. बहुत बहुत सुन्दर....
    और क्या कहूँ ?????

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  6. एक एक पंक्ति, गहरी सम्वेदना से सराबोर है.. मिश्र जी को सादर नमन!!

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  7. सुन्दर प्रस्तुति!
    इस ब्लॉग में कम्प्यूटर पर नेट वायरस होने की चेतावनी दे रहा है!
    कृपया ब्लॉग व्यवस्थापक देख लें कि
    ऐसा क्यों हो रहा है?

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  8. मिश्रजी का यह गीत उनके मुखारविन्द से सुना था। आज पुनः ब्लाग पर पढ़ कर पुरानी स्मृति ताजी हो गयी। सोच के दायरे हमें संकीर्णताओं में किस प्रकार बाँध लेते हैं, इस गीत में अच्छी करह से व्यक्त किया गया है।

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