शुक्रवार, 20 मई 2011

जन्म दिन पर सुमित्रानंदन पंत की काव्य-यात्रा के विविध चरण

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आज कविवर पंत जी का जन्म दिन है। इस अवसर पर एक विशेष आलेख।

 पंत जी का जीवन परिचय और साहित्यिक उपलब्धियां यहां पढ़े।

clip_image008पंत जी हिन्दी के छायावादी युग चार के प्रमुख स्तंभों में से एक हैं। हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रकृति के एक मात्र माने जाने वाले सुकुमार कवि श्री सुमित्रानंदन पंत जी बचपन से ही काव्य प्रतिभा के धनी थे और 16 वर्ष की उम्र में अपनी पहली कविता रची “गिरजे का घंटा”। तब से वे निरंतर काव्य साधना में तल्लीन रहे।

कवि या कलाकार कहां से प्रेरणा ग्रहण करता है इस बारे में अपने विचार व्यक्त करते हुए पंत जी कहते हैं, “संभवतः प्रेरणा के स्रोत भीतर न होकर अधिकतर बाहर ही रहते हैं।” अपनी काव्य यात्रा में पन्त जी सदैव सौन्दर्य को खोजते नजर आते हें। शब्द, शिल्प, भाव और भाषा के द्वारा कवि पंत प्रकृति और प्रेम के उपादानों से एक अत्यंत सूक्ष्य और हृदयकारी सौन्दर्य की सृष्टि करते हैं, किंतु उनके शब्द केवल प्रकृति-वर्णन के अंग न होकर एक दूसरे अर्थ की गहरी व्यंजना से संयोजित हैं। उनकी रचनाओं में छायावाद एवं रहस्यवाद का समावेश भी है। साथ ही शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेजी कवियों का प्रभाव भी है।

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‘उच्छ्वास’ से लेकर ‘गुंजन’ तक की कविता का सम्पूर्ण भावपट कवि की सौन्दर्य-चेतना का काल है। सौन्दर्य-सृष्टि के उनके प्रयत्न के मुख्य उपादान हैं – प्रकृति, प्रेम और आत्म-उद्बोधन। अल्मोड़ा की प्रकृतिक सुषमा ने उन्हें बचपन से ही अपनी ओर आकृष्ट किया। ऐसा प्रतीत होता है जैसे मां की ममता से रहित उनके जीवन में मानो प्रकृति ही उनकी मां हो। उत्तर प्रदेश के अल्मोड़ा के पर्वतीय अंचल की

गोद में पले बढ़े पंत जी स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि उस मनोरम वातावरण का इनके व्यक्तित्व पर गंभीर प्रभाव पड़ा

मेरे मूक कवि को बाहर लाने का सर्वाधिक श्रेय मेरी जन्मभूमि के उस नैसर्गिक सौन्दर्य को है जिसकी गोद में पलकर मैं बड़ा हुआ जिसने छुटपन से ही मुझे अपने रूपहले एकांत में एकाग्र तन्मयता के रश्मिदोलन में झुलाया, रिझाया तथा कोमल कण्ठ वन-पखियों ने साथ बोलना कुहुकन सिखाया।

पंतजी को जन्म के उपरांत ही मातृ-वियोग सहना पड़ा।

नियति ने ही निज कुटिल कर से सुखद

गोद मेरे लाड़ की थी छीन ली,

बाल्य ही में हो गई थी लुप्त हा!

मातृ अंचल की अभय छाया मुझे।

मां की कमी उन्हें काफी सालती रही और प्रकृति माँ की गोद का सहारा मिला तो मानों वे उसके लाड़ से अपने आप को पूरी तरह सरोबार कर लेना चाहते थेः

मातृहीन, मन में एकाकी, सजल बाल्य था स्थिति से अवगत,

स्नेहांचल से रहित, आत्म स्थित, धात्री पोषित, नम्र, भाव-रत

हालाकि पंत जी ने गद्य की भी कई विधाओं पर अपनी लेखनी चलाई लेकिन मूलतः वे कविता के प्रति ही समर्पित थे। 1918 से 1920 तक की उनकी अधिकांश रचनाएं ‘वीणा’ में छपी हैं। यद्यपि अपनी आरंभिक रचनाओं ‘वीणा’ और ‘ग्रंथि’ से पंत जी ने काव्यप्रेमियों का ध्यान अपनी ओर खींचा ज़रूर पर एक छायावादी कवि के रूप में इनकी प्रतिष्ठा ‘पल्लव’ से ही मिली। ‘पल्लव’ की अधिकांश रचनाएं कॉलेज में पढने जब वे प्रयाग आए, उसी दौरान लिखी गईं। पंत जी कहते हैं, “शेली, कीट्स, टेनिसन आदि अंग्रेज़ी कवियों से बहुत-कुछ मैंने सीखा। मेरे मन में शब्द-चयन और ध्वनि-सौन्दर्य का बोध पैदा हुआ। ‘पल्लव’-काल की प्रमुख रचनाओं का आरम्भ इसके बाद ही होता है।”

प्रकृति-सौन्दर्य और प्रकृति-प्रेम की अभिव्यंजना “पल्लव” में अधिक प्रांजल तथा परिपक्व रूप में हुई है। इस संग्रह के द्वारा पंत जी प्रकृति की रमणीय वीथिका से होकर काव्य के भाव-विशद सौन्दर्य प्रासाद में प्रवेश पा सके। छायावाद के कवियों ने सृजन को मानव-मुक्ति चेतना की ओर ले जाने का काम किया। सुमित्रानंदन पंत ने रीतिवाद का विरोध करते हुए ‘पल्लव’ की भूमिका में कहा कि मुक्त जीवन-सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही काव्य का प्रयोजन है।

पल्लव को आलोचक भी छायावाद का पूर्ण उत्कर्ष मानते हैं। डॉ. नगेन्द्र का मानना है, “‘पल्लव’ की भूमिका हिंदी में छायावाद-युग के आविर्भाव का ऐतिहासिक घोषणा-पत्र है।” भाव, भाषा, लय और अलंकरण के विविध उपकरणों का बड़ी कुशलता से इसमें समावेश किया गया है। ‘पल्लव’ में प्राकृतिक रहस्य की भावना ज्ञान की जिज्ञासा में परिणत हो गयी है। इसकी सीमाएं छायावादी अभिव्यंजना की सीमाएं हैं। इसमें पंत जी कल्पना द्वारा नवीन वास्तविकता की अनुभूति प्राप्त करने की चेष्टा कर रहे थे। इसके साथ ही इसमें मानव जीवन की अनित्य वास्तविकता के भीतर सत्य को खोजने का प्रयत्न भी है, जिसके आधार पर नवीन वास्तविकता का निर्माण किया जा सके।

कवि पंत की रचनाओं को देख कर ऐसा लगता था जैसे वे स्वयं प्रकृति स्वरूप थे। उनकी विभिन्न रचनाओं में ऐसा लगता है जैसे कवि प्रकृति से बात कर रहा हो, अनुनय कर रहा हो, प्रश्न कर रहा हो। मानों प्रकृति कविमय हो गई है और कवि प्रकृतिमय हो गया है। प्रकृति से परे सोचना उनके लिए असंभव सा थाः-

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया, तोड़ प्रकृति से भी माया।

बाले! तेरे बाल जाल में, कैसे उलझा दूँ लोचन॥

कवि सम्राट पंत जी ने स्वयं माना कि छायावाद वाणी की नीरवता है, निस्तब्धता का उच्छ्वास है, प्रतिभा का विलास है, और अनंत का विलास है। अपनी संकुचित परिभाषा के कारण कुछ लोग पंत की रचनाओं में भी केवल पल्लव और पल्लव में भी कुछेक कविताओं को ही छायावाद के अंतर्गत स्वीकार करते हैं। मौन निमंत्रण में अज्ञात की जिज्ञासा होने के कारण रहस्यवाद है, अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता के कारण छायावाद है और कल्पनालोक में स्वच्छंद विचरण करने के कारण स्वच्छंदतावाद भी है। पंत का रहस्य भावना ‘अज्ञात’ की लालसा के रूप में व्यक्त हुई है। पंत सीमित ज्ञान की सीमा को तोड़कर प्रकृति और जगत के प्रति जिज्ञासु की तरह देखते हैं। पंत का बालक मन हर चीज से सवाल पूछता है।

प्रथम रशमि का आना रंगिणि, तूने कैसे पहचाना

‘गुंजन’, विशेषकर ‘युगांत’ में आकर पंत की काव्य यात्रा का प्रथम चरण समाप्त हो जाता है। ‘गुंजन’-काल की रचनाओं में जीवन-विकास के सत्य पर पंत जी का विश्वास प्रतिष्ठित हो जाता है।

सुन्दर से नित सुन्दरतर, सुन्दरतर से सुन्दरतम

सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर सुन्दर जग जीवन!

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उनकी काव्य यात्रा का दूसरा चरण ‘युगांत’, ‘युग-वाणी’ और ‘ग्राम्या’ को माना जा सकता है। इस काल तक आते-आते कवि स्थायी वास्तविकता के विजय-गीत गाने को लालायित हो उठता है और उसके लिए आवश्यक साधना को अपनाने की तैयारी करने लगता है, उसे ‘चाहिए विश्व को नव जीवन’ का अनुभव भी होने लगता है।

नवीन जीवन तथा युग-परिवर्तन की धारणा को सामाजिक रूप देने की कोशिश ‘युगान्त’ में सक्रिय रूप में सामने आई है। ‘युगान्त’ की अधिकांश कविताएं कवि की तीखी भाव चेतना के परिवर्तन का संकेत देती हैं। यह परिवर्तन वस्तुवादी चेतना के प्रति अधिक आग्रहशील दिखता है। “द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र, हे स्रस्त, ध्वस्त, हे शुष्क शीर्ण” में जहां ओजपूर्ण आवेश है वहीं गा कोकिल में नवीन जीवन पल्लवों से सौन्दर्य-मंडित करने का भी आग्रह है।

गा कोकिल, बरसा पावक कण

नष्ट-भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन –

झरे जाति-कुल; वर्ण-पर्ण धन –

व्यक्ति-राष्ट्र-गत राग-द्वेष-रण –

झरें-मरें विस्मृत में तत्क्षण –

गा कोकिल, गा, मत कर चिन्तन -

‘ग्राम्या’ प्रगतिशील आन्दोलन के प्रभाव के अन्तर्गत लिखी हुई रचना है। इसमें मार्क्सवाद, श्रमिक-मज़दूर, किसान-जनता के प्रति इन्होंने भावभीनी सहानुभूति प्रकट की है।

जगती के जन-पथ कानन में

तुम गाओ विहग अनादि गान।

चिर-शून्य शिशिर-पीड़ित जग में,

निज अमर स्वरों से भरो प्राण।

‘ग्राम्या’ 1940 की रचना है, जब प्रगतिवाद हिन्दी साहित्य में घुटनों के बल चलना सीख रहा था। पंत जी कहते हैं, “‘ग्राम्या’ में मेरी क्रान्ति-भावना मार्क्सवादी दर्शन से प्रभावित ही नहीं होती, उसे आत्मसात्‌ कर प्रभावित करने का भी प्रयत्न करती है।”

भूतवाद उस धरा स्वर्ग के लिए मात्र सोपान,

जहां आत्म-दर्शन अनादि से समासीन अम्लान।

इन सब के साथ-साथ आदर्श तथा यथार्थ के बीच व्यवधान पंत जी के भीतर बना ही रहा। कवि के मन में आदर्श और यथार्थ की चिन्तन-धाराओं का संघर्ष तथा मंथन चलता रहा। डॉ.. नगेन्द्र ने ठीक ही कहा है,

“मार्क्सवाद में श्री सुमित्रानंदन पंत का व्यक्तित्व अपनी वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं पा सकता।”

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शीघ्र जी फिर वे अपने परिचित पथ पर लौट आये। मार्क्सवाद का भौतिक संघर्ष और निरीश्वरवाद पंत जैसे कोमलप्राण व्यक्ति का परितोष नहीं कर सकते थे। काव्य यात्रा के तीसरे चरण की रचनाओं ‘स्वर्णकिरण’, ‘स्वर्णधूलि’, ‘युग पथ’, ‘अतिमा’, ‘उत्तरा’ में वे महर्षि अरविन्द से प्रभावित होकर आध्यात्मिक समन्वयवाद की ओर बढ़ते दिखते हैं। कवि की अनुभूति वस्तु जगत को समेटती हुई उस बौद्धिक चेतना से ऊपर उठकर एक सूक्ष्म अतिमानवीय चेतना को ग्रहण करती लगती है।

सामाजिक जीवन से कहीं महत्‌ अंतर्मन,

वृहत्‌ विश्व इतिहास, चेतना गीता किंतु चिरंतन।

इस चरण को पंत जी के चेतना-काव्य का चरण कहा जा सकता है। इसमें उन्होंने मानवता के व्यापक सांस्कृतिक समन्वय की ओर ध्यान आकृष्ट किया है।

भू रचना का भूतिपाद युग हुआ विश्व इतिहास में उदित,

सहिष्णुता सद्भाव शान्ति से हों गत संस्कृति धर्म समन्वित।

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पंत जी की कव्य यात्रा का चौथा चरण ‘कला और बूढ़ा चांद’ से लेकर ‘लोकायतन’ तक की है। इसमे उनकी चेतना मानवतावाद, खासकर विश्व मानवता की ओर प्रवृत्त हुई है। इन रचनाओं में लोक-मंगल के लिए कवि व्यक्ति और समाज के बीच सामंजस्य के महत्व को रेखांकित करता है।

हमें विश्व-संस्कृति रे, भू पर करनी आज प्रतिष्ठित,

मनुष्यत्व के नव द्रव्यों से मानस-उर कर निर्मित।

‘लोकायतन’ कविवर पंत के लोक-कल्याण संबंधी नेक इरादे का भव्य एवं कलात्मक साक्षात्कार कराता है। अरविन्द दर्शन से प्रभावित होकर पंत की चेतना इस चरण में फिर से वापस लौटकर अपने प्रथम चरण की चेतना से जुड़ जाती है। अरविन्द दर्शन के प्रभाव में आने के बाद पंत को भौतिकता और आध्यात्मिकता के समन्वय का एक ठोस आधार प्राप्त हो गया।

समग्र रूप से देखें तो पाते हैं कि कवि के चिंतन में अस्थिरता है। निराला और पंत की जीवन-दृष्टि और काव्य-चेतना की तुलना करें तो हम पाते हैं कि निराला की जीवन-दृष्टि का लगातार एक निश्चित दिशा में विकास होता है जबकि पंत का दृष्टि विकास एक दिशा में न होकर उसमें कई मोड़ आते हैं। कभी वे प्रकृति में रमे रहते हैं तो कभी मार्क्सवाद, अरविन्द दर्शन और गांधीवाद की गलियों के चक्कर लगाते हैं। ‘ग्रंथि’ से ‘पल्लव’ और ‘पल्लव’ से ‘गुंजन’, ‘ज्योत्सना’ और ‘युगांत’ में वे क्रमशः शरीर से मन और मन से आत्मा की ओर बढ़ रहे थे। बीच में ‘युगवाणी’ और ‘ग्राम्या’ में आत्म-सत्य की अपेक्षा वस्तु-सत्य पर बल देते हैं। ‘स्वर्णकिरण’, और ‘स्वर्णधूलि’ में फिर से वे आत्मा की ओर मुड़ जाते हैं।

फिर भी ‘द्रुत झरो जगत के जीर्ण पत्र’ जैसी रचनाओं द्वारा पंत जी छायावादी काव्य-धारा को सम्पन्न बनाया। वे छायावादी कविता के अनुपम शिल्पी हैं। उनकी भाषा में कोमलता और मृदुलता है। हिन्दी खड़ी बोली के परिष्कृत रूप को अधिक सजाने-संवारने में इनका योगदान उल्लेखनीय है। भाषा में नाद व्यंजना, प्रवाह, लय, उच्चारण की सहजता, श्रुति मधुरता आदि का अद्भुत सामंजस्य हुआ है। शैली ऐसी है जिसमें प्रकृति का मानवीकरण हुआ है। भावों की समुचित अभिव्यक्ति के लिए अत्यंत सहज अलंकार विधान का सृजन उन्होंने किया। नये उपमानों का चयन इनकी प्रमुख विशेषता है। उनकी कविताओं में प्राकृतिक उपमानों का सर्वथा एक नया रूप देखने को मिलता है। जैसे

पौ फटते, सीपियाँ नील से

गलित मोतियां कान्ति निखरती

या

गंध गुँथी रेशमी वायु

या

संध्या पालनों में झुला सुनहले युग प्रभात

इसी तरह उन्होंने छाया को, परहित वसना”, “भू-पतिता” “व्रज वनिता” “नियति वंचिता” “आश्रय रहिता” “पद दलिता” “द्रुपद सुता-सी कहा है। इस तरह उन्होंने भाषा को एक नया अर्थ-संस्कार दिया।

ध्वन्यार्थ व्यंजना, लाक्षणिक और प्रतीकात्मक शैली के उपयोग द्वारा उन्होंने अपनी विषय-वस्तु को अत्यंत संप्रेषणीय बनाया है। शिल्प इनका निजी है। पंत जी की भाषा शैली भावानुकूल, वातावरण के चित्रण में अत्यंत सक्षम और समुचित प्रभावोत्पादन की दृष्टि से अत्यंत सफल मानी जा सकती है।

उनका व्यक्तित्व भी आकर्षण का केंद्र बिंदु था, गौर वर्ण, सुंदर सौम्य मुखाकृति, लंबे घुंघराले बाल, उंची नाजुक कवि का प्रतीक समा शारीरिक सौष्ठव उन्हें सभी से अलग मुखरित करता था। आकर्षक और कोमल व्यक्तित्व के धनी कविवर सुमित्रा नंद पंत जिस तरह से अपने जीवन काल में सभी के लिए प्रिय थे उसी तरह से आज भी आकर्षण का केंद्र हैं। प्रकृति का परिवर्तित रूप सदा पंतजी में नित नीवन कौतूहल पैदा करता रहा। उन्होंने सबकुछ प्रकृति में और सब में प्रकृति का दर्शन किया। यही कारण है कि वे प्रकृति के सुकुमार चितेरे थे और अंत में शास्वत सत्य की जिज्ञासा उन्हें अरविंद दर्शन, स्वामी रामकृष्ण आदि के विचारों की ओर खींच ले गई। इस प्रकार उन्होंने काव्य सृजन से वे चारों पुरूषार्थ उपलब्ध किए जो काव्य का फल हैं। अंत में ‘आंसू’ की ये पंक्तियां ...

वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान।

उमड़ कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।

22 टिप्‍पणियां:

  1. सुमित्रा नंदन पन्त जी की काव्य यात्रा के बारे में अच्छी जानकारी दी आपने... आभार

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  2. सुमित्रा नन्दन पन्त जी के जन्मदिवस पर सराहनीय प्रस्तुति ...उनके लेखन के हर चरण की विस्तृत जानकारी मिली ... ज्ञानवर्द्धक पोस्ट ...आभार

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  3. एक ज्ञान वर्धक और सराहनीय पोस्ट.

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  4. प्रकृति के एक मात्र हिंदी कवि पन्त जी को जितना पढने के दौरान नहीं समझा उस से अधिक आपके आलेख ने सम्पूर्णता से परिचय करा दिया है... एक सम्पूर्ण और समर्थ आलेख....

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  5. छायावादी कवियों में पंत जी का अप्रतिम स्थान है और प्रकृति की गोद में पले बढ़े पंत ने अपनी रचनाओं में बखूबी उकेरा है। अच्छी और जानकारी से परिपूर्ण पोस्ट।

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  6. अभाव क्रूरता और करूणा- दोनों की संभावना लिए रहते हैं। यह देखना सुखद है कि अभावों में पले लोगों ने जीवन को कितना कुछ दिया है।

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  7. निःसन्देह पन्त जी के विषय में डा. नगेन्द्र का विचार सटीक है । मार्क्सवाद जितना निराला जी की रचनाओं में मुखर हुआ उतना संभवतः कम ही कवियों में हुआ है । फिर भी पन्तजी की काव्य--यात्रा सतत प्रगति की ओर अग्रसर हुई है । इसे आपके आलेख द्वारा और भी अच्छी तरह समझा जा सकता है । धन्यवाद ।

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  8. aadarniy sir
    aaj ke din mahan kavivar v prakriti se athah prem karne jag vikhyat sumitra nandan pant ji ka janm hua .aaj unke janm diwas ke awsar par un mahan vyktitv ke dhani pant ji ko mera shat -shat naman
    pahlle ktabo me in ki adbhut rachnaon ko padhne ka soubhagy mila aur aaj aapke dwara unke baare me vistrit jaankari mili .
    vividhtaon se paripurn kavivar pant ji ke baare me itna gyan nahi tha .bas scooli padhai me hi jo jaan saki thi vo hi padha tha .inki kuchh ojpurn rachnaayen bhi kabhi kabhi bachcho ko padhate waqt yaad aa jaati hain .
    deri se comments dene ke liye xhma chahti hun .karan to aap jante hi hai .
    bahut hi gyan-vardhak aalekh
    hardik badhai v naman
    poonam

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  9. काव्य यात्रा के बारे में सुन्दर अभिव्यक्ति.... आभार

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  10. बहुत उपयोगी!
    प्रकृति के सुकुमार कवि पन्त जी को नमन!

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  11. पन्त जी के जीवन एवं साहित्य वृत्त की मनोरम प्रस्तुति . पन्त जी को नमन

    जवाब देंहटाएं
  12. बहुत ही सुन्दर लिखा है अपने इस मैं कमी निकलना मेरे बस की बात नहीं है क्यों की मैं तो खुद १ नया ब्लोगर हु
    बहुत दिनों से मैं ब्लॉग पे आया हु और फिर इसका मुझे खामियाजा भी भुगतना पड़ा क्यों की जब मैं खुद किसी के ब्लॉग पे नहीं गया तो दुसरे बंधू क्यों आयें गे इस के लिए मैं आप सब भाइयो और बहनों से माफ़ी मागता हु मेरे नहीं आने की भी १ वजह ये रही थी की ३१ मार्च के कुछ काम में में व्यस्त होने की वजह से नहीं आ पाया
    पर मैने अपने ब्लॉग पे बहुत सायरी पोस्ट पे पहले ही कर दी थी लेकिन आप भाइयो का सहयोग नहीं मिल पाने की वजह से मैं थोरा दुखी जरुर हुआ हु
    धन्यवाद्
    दिनेश पारीक
    http://kuchtumkahokuchmekahu.blogspot.com/
    http://vangaydinesh.blogspot.com/

    जवाब देंहटाएं
  13. बहुत ही सुन्दर लिखा है अपने इस मैं कमी निकलना मेरे बस की बात नहीं है क्यों की मैं तो खुद १ नया ब्लोगर हु
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  14. एक ज्ञान वर्धक और सराहनीय जानकारी। धन्यवाद।

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  16. 🌺आशा अमरधन 🌺
    .......................................

    हर बार एक,
    हर बार नया,
    जाने मैं कितनी दूर तक गया. !
    भविष्य काे देखा,
    भूत काे खाेया,
    वतॆमान में ना जाने,
    क्या ले कर बाेया !
    छाेटा सा सपना आँखाें में संजाेया,
    यह ले कर मैं सारी रात ना साेया !
    फिर एक दिन नसीब ने कहा,
    तू किस्मत से आगे चल ।
    भूल जा तू अपने बीते हुए पल,
    नसीब काे भला काेई बदल है पाया !!
    वह सब उसने श्रम से दिखलाया ।।

    सी0 के0 तिवारी 💐🙏

    🌹: जिंदगी के किराये का घर है, एक न एक दिन बदलना पड़ेगा । मौत जब तुझको आवाज देगी, घर से बाहर निकलना पड़ेगा ।।
    🌿🌷☘
    🌹: एक छोटा सा सपना है प्यार, कोई अपना है प्यार। साॅसों का चलना है प्यार, साॅसों का ढलना है प्यार, सूरज का उगना है प्यार, सूरज का ढलना है प्यार, सागर की गहराई है प्यार, अंतरिक्ष की ऊँचाई है प्यार, अपनों का बिछड़ना है प्यार, बिछड़ों का मिलना है प्यार, किसी की आहट है प्यार, किसी का आभाष है प्यार, तकरार में है प्यार, इनकार में है प्यार, आशा में है प्यार, निराशा में है प्यार, सागर में है प्यार, एक बूँद में अपार, जलती हुई आग है प्यार, बुझता हुआ चिराग है प्यार, चिड़ियों का चहकना है प्यार, शेर की दहाड़ में है प्यार, पत्ते के गिरने में है प्यार, हवाओं के चलने में है प्यार, फूल के खिलने में है प्यार, जीवन का सार है प्यार, छोटा सा सपना है प्यार, कोई अपना है प्यार ।
    डॉ0 चन्द्रकान्त तिवारी फरीदाबाद 🌿🌷🌷🌿

    खामोशियों की आवाज कौन सुनता है,
    कटे पेड़ों की आवाज कौन सुनता है ।
    कहने को तो पक्षियों की भी बोली होती है,
    पर उनकी बात कौन सुनता है ।
    छोड़ आते हैं रिश्तों को मरघट पर ,
    घर तो दिखावे का रोना होता है ।
    ये सागर. ये लहरें ये लहरों का बढ़ना ,
    गीली रेत पर पाॅव का धसना ,
    पल में बदलती ये सूरज की छाया ,
    रेत का घर किसने बनाया ।
    लहरों का तट को मिलना दोबारा,
    घर के ददॆ को कौन सुनता है ।
    खामोशियों की आवाज कौन सुनता है ।
    ददॆ अब भीतर ही रह जायेगा,
    न सुनेगा कोई और न सुना पायेगा ।
    सच में आवाजों के शहर में,
    खामोशी पहचानेगा कौन ।
    फिर भी मन तो सपना बुनता है ।
    खामोशियों की आवाज कौन सुनता है ।
    .
    डॉ0 चन्द्रकान्त तिवारी फरीदाबाद

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  17. अंग्रेजो ने तो अखंड भारत को विभाजित कर के ही दम लिया, परंतु भाषा/बोली की आड़ में अब भारत के न जाने कितने टुकड़े होंगे । प्रत्येक राज्य को अपनी बोली संविधानिक रूप से आठवीं सूची में चाहिए । आज दुनिया विकास कर रही है और भारत में आज तक यह तय ही नहीं होती सका कि हमारी राष्ट्रीय एकता और सम्मान की प्रतीक हिंदी भाषा है । न जाने ये भाषा के ठेकेदार क्षेत्रीयता की मानसिकता से कब बाहर आयेंगे। एक क्षेत्र विषयक भाषा/ बोली को लेकर सीमित लोगों में सम्मान ग्रहण करते हुए सुखी महसूस करते हैं । विस्तृत भाषा में सम्मान पाने के लिए दोबारा जन्म न लेना पड़ जाएगा । देश में ऐसे बहुत से मुद्दे हैं पर उनकी बात कौन सुनता है कौन बोलता है । भाषा/ बोलियों को लेकर ही देश आज तक निणॆय नहीं कर पाया कि कौन सी भाषा में विकास करें; कि बोली में राष्ट्र की प्रगति हो। मामला हमेशा के लिए विचाराधीन बना रहेगा । क्योंकि इस देश में न कोई किसी की बात को ठीक से सुनता है और न अपनी भाषा को ही ठीक से बोलता है । कुछ चीजें भगवान भरोसे ही चल रही हैं। खैर चलने दो, क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है । समय हर कमजोर को एक बार साहसी बनने का मौका देता है । चाहे वह भाषा ही क्यों न हो । डॉ चन्द्रकान्त तिवारी 'दमन'

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  18. हिंदी भाषा एवं साहित्य के प्रचार- प्रसार के लिए आप सभी साहित्य प्रेमियों/ भाषा प्रेमियों से अनुरोध है कि आप सभी जहाँ कहीं भी रहते हैं, अपने दैनिक कार्यों में हिंदी भाषा में बात करें और हिंदी भाषा के प्रति विशेष अभिरुचि/ समपॆण/ अपनत्व एवं हिंदी साहित्य के प्रति विशेष अभिरुचि प्रकट करें । हिन्दी भाषा राष्ट्रीय एकता/ सम्मान और देश प्रेम की भावना का स्पर्श कराती है । हम सब भारतीय अपनी दैनिक जरूरतों को हिंदी भाषा में ही पूरा करतें हैं और अपनी सहभागिता भी प्रत्येक कार्यों में हिंदी भाषा में ही निभाने में सक्षम हैं । फिर अन्य भाषा के प्रति अकारण मोह किस बात का । हिन्दी भाषा की विविध बोलियाॅ हैं और विविध बोलियों के कारण ही हिंदी को पहचाना जाता है । कहा जा सकता है कि हिंदी भाषा एवं साहित्य विविधता में एकता का प्रतीक है । इसे सीमित दायरे में रखने के बहाने तलाश न करें । हम सबको मिलकर क्षेत्रीयता की राजनीति से बाहर निकलने की कोशिश करनी होगी । हिन्दी भाषा को विविध बोलियों की भाषा बनाकर विकास किया जा सकता है नया शोध किया जा सकता है परंतु अलग भाषा/ बोली बनाकर विकास नहीं होगा । इस प्रकार तो हिंदी भाषा के विभाजन का खतरा मंडरायेगा । इस कार्यक्रम में हम सबको मिलकर प्रयत्न करना है । हम सबको मिलकर क्षेत्रीयता से बाहर निकलते का प्रयास करना है । भारत विभिन्न प्रान्तों का देश है । हर राज्य ने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है । सबकी राष्ट्र के प्रति विशेष अभिरुचि/ विशिष्ट पहचान एवं अपनी सहभागिता है । हर राज्य की सरकार एवं प्रत्येक नागरिक का राज्य के प्रति समर्पण है । परंतु प्रश्न भारतीयता का है ? नागरिकता का है? मानवता का है? विश्वशिखर पर राष्ट्रीय एकता और सम्मान का है ? तो सबसे बड़ा प्रश्न तो भाषा का है । मेरा सभी भारतीयों से विनम्र निवेदन है कि आप अपनी भारतीयता को भाषा के सूत्र में एकत्र करें । देखियेगा विकास के मार्ग पर भाषा कभी भी आड़े नहीं आती है । मेरा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण के दीघॆ समंदर तक पूर्व से लेकर पश्चिम की अनंत सीमाओं तक जहाँ तक भारतीय एकता की आवाज की प्रतिध्वनि सुनाई देती है अनुरोध है कि आप सभी जहाँ कहीं हों हिंदी भाषा एवं साहित्य को माता की तरह प्रेम करेंगे । तभी सच्चे अर्थों में हम सभी मातृभाषा के प्रति समर्पित होकर राष्ट्रीय विकास की दौड़ में शामिल हो सकेंगे ।

    "जागो-जागो हिंदी के नायक ,
    भारत-भाग्य-विधाता ,
    हे दक्षिण के दीर्घ समंदर,
    उत्तर सागरमाथा ।!!"

    डॉ चन्द्रकान्त तिवारी / नई दिल्ली

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  19. अंग्रेजो ने तो अखंड भारत को विभाजित कर के ही दम लिया, परंतु भाषा/बोली की आड़ में अब भारत के न जाने कितने टुकड़े होंगे । प्रत्येक राज्य को अपनी बोली संविधानिक रूप से आठवीं सूची में चाहिए । आज दुनिया विकास कर रही है और भारत में आज तक यह तय ही नहीं होती सका कि हमारी राष्ट्रीय एकता और सम्मान की प्रतीक हिंदी भाषा है । न जाने ये भाषा के ठेकेदार क्षेत्रीयता की मानसिकता से कब बाहर आयेंगे। एक क्षेत्र विषयक भाषा/ बोली को लेकर सीमित लोगों में सम्मान ग्रहण करते हुए सुखी महसूस करते हैं । विस्तृत भाषा में सम्मान पाने के लिए दोबारा जन्म न लेना पड़ जाएगा । देश में ऐसे बहुत से मुद्दे हैं पर उनकी बात कौन सुनता है कौन बोलता है । भाषा/ बोलियों को लेकर ही देश आज तक निणॆय नहीं कर पाया कि कौन सी भाषा में विकास करें; कि बोली में राष्ट्र की प्रगति हो। मामला हमेशा के लिए विचाराधीन बना रहेगा । क्योंकि इस देश में न कोई किसी की बात को ठीक से सुनता है और न अपनी भाषा को ही ठीक से बोलता है । कुछ चीजें भगवान भरोसे ही चल रही हैं। खैर चलने दो, क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है । समय हर कमजोर को एक बार साहसी बनने का मौका देता है । चाहे वह भाषा ही क्यों न हो । डॉ चन्द्रकान्त तिवारी 'दमन'

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  20. सुमित्रानंदन पंत के बारे में बहुत ही अच्छी जानकारी आप ने दी हैं जिससे हम छात्रों को बहुत ही लाभ होगा जी धन्यवाद

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