गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

वररुचि की कथा

कथासरित्सागर-2

पिछले अंक – १. कथासरित्सागर : शिव- पार्वती प्रसंग

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nअनामिका

आप सब को नमन करते हुए अनामिका  एक बार फिर हाज़िर है आपके समक्ष कथासरित्सागर की पिछली कड़ी को जोड़ते हुए....पिछले अंक में शिव-पार्वती प्रसंग में शिव जी पार्वती जी को कथा सुनाते हैं जिसे शिवजी के गण पुष्पदंत योगशक्ति से अदृश्य हो वह कथा सुन लेते हैं और पार्वती क्रोधवश पुष्पदंत और उसके मित्र माल्यवान को मनुष्य योनी का श्राप देती हैं जिससे पुष्पदंत मृत्युलोक यानि धरती पर जाकर पाटलिपुत्र के राजा नन्द का मंत्री वररूचि  बन गया है, जहाँ उसे शाप-मुक्ति के उपाय हेतु सुप्रतीक नामक यक्ष, जो कि काणभूति के नाम से जाना जाता है, को यही कहानी सुनानी है और माल्यवान को काणभूति से यह कथा सुनकर मनुष्य योनी में इसका प्रचार करना है तभी इनकी मुक्ति संभव है. अब यहाँ से आगे ...

clip_image001

वररुचि के मुंह से बृहत्कथा सुन कर पिशाच योनी में विंध्य के बीहड़ में रहने वाला यक्ष काणभूति शाप से मुक्त हुआ और उसने वररुचि की प्रशंसा करते हुए कहा - आप तो शिव के अवतार प्रतीत होते हैं. शिव के अतिरिक्त ऐसी कथाएं और कौन सुना सकता है ? यदि गोपनीय न हो, तो आप अपनी कथा भी मुझे सुनाइये. वररुचि ने कहा - सुनो  काणभूति, मैं तुम्हें अपनी रामकहानी भी सुना देता हूँ....

कौशाम्बी में सोमदत्त नामक ब्राह्मण रहते थे. वसुदत्ता उनकी पत्नी थी. ये ही मेरे पिता और माता हैं. मेरे शैशव में ही पिता का स्वर्गवास हो गया. माता ने बड़े कष्ट उठा कर मुझे पाला.

एक बार की बात है. दो बटोही हमारे घर आये. दोनों ब्राह्मण थे और बड़ी दूर से चल कर आ रहे थे. थके होने से हमने उन्हें अपने घर ठहरा  लिया. रात का समय था. दूर से मृदंग की थाप सुनाई दी. सुनते ही मेरी माँ की आँखे आंसुओं से डबडबा आई और उसने मुझसे कहा - बेटा, ये तुम्हारे पिता के मित्र नन्द हैं. ये बड़े अच्छे नर्तक हैं. गाँव में इनका नर्तन हो रहा है.

मैं तो बच्चा ही था. उल्लासित हो बोला - माँ मैं नन्द चाचा का नर्तन देखने जाता हूँ. फिर तुमको उनके अभिनय के सारे संवाद अक्षरशः सुनाऊंगा और उनका नर्तन भी वैसा का वैसा ही करके दिखाऊंगा. हम दोनों माँ-बेटे की बातचीत दोनों अभ्यागत सुन रहे थे. उनमें से एक ने बड़े कौतुक से पूछा - माता, यह बालक क्या कह रहा है ?

मेरी माता ने कहा - मेरा बेटा वररुचि विलक्षण बुद्धि वाला है. एक बार जो भी देख और सुन लेता है, वैसा का वैसा ही यह तुरत याद कर लेता है. मेरी परीक्षा लेने के लिए उस ब्राह्मण ने वैदिक व्याकरण का एक पाठ मेरे आगे बोला. मैंने सुना और जस का तस दोहरा दिया.

तब तो वह ब्राह्मण मेरी माँ के चरणों पर गिर पड़ा और बोला - माता, मैं व्याड़ी हूँ. यह मेरा मित्र इन्द्रदत्त है. हम दोनों ऐसे ही विलक्षण बुद्धि वाले व्यक्ति को खोज रहे हैं. आपके घर आकर हमारा जन्म सफल हो गया.

मेरी माँ के पूछने पर व्याड़ी ने अपना वृतांत इस प्रकार बताया - बेतस नामक नगर में देवस्वामी और करम्भक नामक दो ब्रह्मण भाई रहते थे. उनमे से एक का पुत्र मैं व्याड़ी हूँ और दूसरे का यह इन्द्रदत्त है. मेरे पिता तो मेरे जन्म के बाद ही चल बसे और उनके दुख में कुछ समय बाद इन्द्रदत्त के पिता ने भी देह त्याग दिया. पतियों के ना रहने पर हम दोनों की माताएं भी शोक में घुल-घुल कर चल बसीं. हम दोनों अनाथ हो गए. इधर उधर भटकने लगे. धन हमारे पास बहुत था, विद्या नहीं थी. तो हम दोनों ने कुमार कार्तिकेय की अराधना की. एक दिन कार्तिकेय ने हमें स्वप्न में दर्शन दिए और बताया की पाटलिपुत्र नामक नगर में, जहाँ राजा नन्द राज्य करता है वर्ष (वर्ष व्याकरण में पाणिनि गुरु के रूप में माने जाते हैं) नामक एक ब्राह्मण रहता है, उससे हम दोनों को विद्या मिल सकती है. हम दोनों पाटलिपुत्र पहुंचे. बहुत पूछताछ करने पर लोगो ने बताया की वर्ष नाम का कोई मूर्ख रहता तो इस  नगर में है. जिस ढंग से पाटलिपुत्र के लोगों ने वर्ष का नाम लिया, उससे तो हमारा मन ही डूब गया. अस्तु, किसी तरह वर्ष के घर का पता लगाकर हम वहां पहुंचे. वर्ष  का घर चूहों की बिलों से भरा हुआ था. उसकी दीवारें ढ़हने को थीं और छप्पर तो लगभग उड़ ही गया था. उसी घर में वर्ष ध्यान लगाये बैठे थे. उनकी पत्नी ने हमारा आतिथ्य किया. वह मूर्तिमती दुर्गति के समान लगती थी. धूसर देह, कृष काया और फटे पुराने कपडे. हमने उसे अपने आने का प्रयोजन बताया तो उसने कहा - तुम लोग मेरे बेटे जैसे हो. मैं तुम्हें अपनी कथा सुनाती हूँ.

वर्ष की पत्नी ने अपनी कहानी इस प्रकार बताई - इसी पाटलिपुत्र नगर में शंकरस्वामी नामक ब्राह्मण रहता था. उसके दो पुत्र हुए, एक था मेरा पति वर्ष और दूसरे उपवर्ष. मेरे पति मूर्ख और दरिद्र निकल गए, जबकि छोटे भाई उपवर्ष बड़े विद्वान् और धनी थे. एक बार वर्षा का समय था. स्त्रियाँ इस ऋतु में गुड़ और आटे की पीठी से गुप्तांगों की मूर्तियाँ बनाकर हंसी हंसी में मूर्ख ब्राह्मणों को दान देते हैं. यह कुत्सित रीति यहाँ चली आ रही है. मेरी देवरानी को और कोई ब्राह्मण नहीं मिला, तो उसने अपना जुगुप्सित दान अपने जेठ अर्थात मेरे ही पति देव को दे दिया और ये मूर्खराज प्रसन्न हो कर उसे घर भी ले आये. देवरानी के इस अपमानजनक व्यवहार से तो मेरे तन में आग लग गयी और मैंने अपने पति को खूब फटकारा. इन्हें भी अपनी मूर्खता और अज्ञान पर बहुत पछतावा हुआ और ये कुमार कार्तिकेय की अराधना करने लगे. कुमार कार्तिकेय ने इन्हें वरदान दिया कि तुम्हें सारी विद्याएँ प्रकाशित हो जाएँगी पर तुम्हें अपना सारा ज्ञान किसी श्रुतधर (एक बार में सुनकर पूरा याद कर लेने वाले) को ही सबसे पहले बताना होगा.

इतनी कथा सुनकर वर्ष की पत्नी ने हम दोनों (व्याड़ी और इन्द्रदत्त)से कहा - तो पुत्रो, यदि तुम्हें मेरे पतिदेव से सारा ज्ञान अर्जित करना है, तो किसी श्रुतधर को खोजो. ये अपनी विद्या केवल उसी को बता सकते हैं, अन्य किसी को नहीं.

वर्ष की पत्नी की बात सुन कर हमने सबसे पहले तो उसे सौ स्वर्ण मुद्राएँ दी, जिससे उसकी दरिद्रता कुछ समय के लिए दूर हो सके. तब से हम किसी श्रुतधर बालक की खोज कर रहे हैं.

(वररुचि ने काणभूति से कहा) - व्याड़ी तथा इन्द्रदत्त की इतनी कथा सुन कर मेरी माँ ने कहा - पुत्रों मेरे इस बेटे वररुचि के जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी कि यह वर्ष नामक उपाध्याय से सारी विद्याएँ प्राप्त करेगा. इतने वर्षों से मैं तो स्वयं इस चिंता में घुली जा रही हूँ कि वर्ष नाम के गुरु मेरे बेटे को कब और कहाँ मिलेंगे. तुम लोगो ने मेरी चिंता दूर कर दी. तुम इसे ले जाओ.

(वररुचि ने काणभूति से कहा) - तब व्याड़ी और इन्द्रदत्त ने मेरी माँ को भी प्रचुर धन दिया और मुझे ले कर पाटलिपुत्र में वर्ष गुरुदेव के पास पहुंचे.

मैं, व्याड़ी तथा इन्द्रदत्त- तीनो उपाध्याय वर्ष के सामने पवित्र भूमि पर बैठे. वर्ष सारे शास्त्र बोलते चले गए और मैं एक बार सुन कर सब याद करता गया. व्याड़ी में किसी भी शास्त्र को दो बार सुन कर याद कर लेने की योग्यता थी और इन्द्रदत्त तीन बार सुन कर याद रख सकता था. मैं एक बार सुन कर स्मरण किये हुए शास्त्र को बाद में उन दोनों के सामने सुनाता, तो वे शास्त्र पहले व्याड़ी को याद हो जाते, फिर व्याड़ी उन्हें इन्द्रदत्त को सुनाता, तो तीसरी बार सुन लेने से इन्द्रदत को भी वे याद होते जाते. फिर क्या था, सारे पाटलिपुत्र में वर्ष के अद्भुत शास्त्रज्ञान और उसके साथ हमारी योग्यता की भी धूम मच गयी. समूह के समूह ब्राह्मण महाज्ञानी वर्ष के दर्शन के लिए आने लगे और जब यह सारी बात राजा नन्द को विदित हुई, तो उन्होंने वर्ष के घर को धन-धान्य से भर दिया.

पाठक गण ये कथा यहीं समाप्त होती है....अगली कड़ी में पाटलिपुत्र नगर की कथा प्रस्तुत की जाएगी.

नमस्कार.

20 टिप्‍पणियां:

  1. कथा बहुत ही रोचक लगी ,अगली कड़ी का इंतजार रहेगा ...

    जवाब देंहटाएं
  2. वाह ! कितनी अद्भुत कथा है...इसे पढवाने के लिये हृदय से आभार!

    जवाब देंहटाएं
  3. चाणक्‍य धारावाहिक में वररुचि का वर्णन है, लेकिन यह वर्णन तो अनोखा है। बहुत अच्‍छी कथा है, आनन्‍द आया। आभार।

    जवाब देंहटाएं
  4. फुर्सत के दो क्षण मिले, लो मन को बहलाय |

    घूमें चर्चा मंच पर, रविकर रहा बुलाय ||

    शुक्रवारीय चर्चा-मंच

    charchamanch.blogspot.com

    जवाब देंहटाएं
  5. कितनी अद्भुत कथा है...इसे पढवाने के लिये हृदय से आभार!

    जवाब देंहटाएं
  6. कमाल की है ये कथा .. आभार इसे पढवाने का ...

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत रोचक...अगली कड़ी का इंतज़ार है..

    जवाब देंहटाएं
  8. सुंदर कथा
    बेहतरीन प्रस्तुति!

    जवाब देंहटाएं
  9. कथा में कथा फिर कथा में कथा. रुचिकर और जिज्ञासा बढ़ाने वाली. अगली कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी.

    जवाब देंहटाएं
  10. वाह, इतने सुंदर व प्रभावी वर्णन को पढ़ मन पवित्र व प्रसन्न हो गया।

    जवाब देंहटाएं
  11. इतनी रोचक कथा सुनाने के लिये आपका धन्यवाद ! इधर कई दिनों से इतनी व्यस्तता थी कि मैं नेट पर भी समय नहीं दे पा रही थी ! आज समय मिला है तो सबसे पहले इन्हें ही पढ़ रही हूँ ! बहुत आनंद आ रहा है !

    जवाब देंहटाएं

आप अपने सुझाव और मूल्यांकन से हमारा मार्गदर्शन करें