नुक्कड़ नाटक और ‘औरत’
मनोज कुमार
‘औरत’ एक नुक्कड़ नाटक (Street Play) है। इसकी रचना दिल्ली के जन
नाट्य मंच (जनम) ने सफ़दर हाशमी के नेतृत्व में सामूहिक रूप रूप से की
थी। 1973
में जनम की
शुरुआत की गई थी। सफ़दर हाशमी ‘जनम’ के ही एक अन्य नाटक ‘हल्ला बोल’ का प्रदर्शन
करते हुए कुछ गुंडों द्वारा मारे गए थे।
नुक्कड़ नाटक एक ऐसी विधा है जो नई है। आरंभ
में साहित्य और नाटकों के विद्वानों ने इसे नाट्य विधा मानने से ही इंकार कर दिया
था। लेकिन पिछले तीन-चार दशकों में यह नाट्य-रूप काफ़ी लोकप्रिय हुआ है। इसमें
रंगमंचीय और लोक नाट्य दोनों की विशेषताओं का व्यवहार होता है। इसमें नाटक मंडली
जनता के बीच जाकर बिना किसी बाहरी तामझाम के अपना नाटक पेश करती है। यह किसी भी सड़क,
गली, चौराहे पर या फ़ैक्ट्री के गेट पर पेश किया जा सकता है। इसे आमतौर पर उसी रूप
में पेश किया जाता है जैसे सड़क पर मदारी अपना खेल दिखाने के लिए मजमा लगाते हैं। वैसे
तो यह नाट्य विधा पुरानी है, पाश्चात्य देश में तो यह काफ़ी पहले से प्रचलन में था,
लेकिन भारत में इस विधा का उद्भव 1967-1977
के दौरान हुआ। यह वह समय था जब देश में राजनीतिक स्थिति संघर्षपूर्ण थी। जन-संघर्ष
का दौर था। इसी संघर्ष की अभिव्यक्ति नुक्कड़ नाटकों के रूप में हुई। इस देश में आपात काल के समय
सत्ता पक्ष द्वारा किए जा रहे अत्याचार के प्रति विरोध प्रदर्शित करने हेतु नुक्कड़
नाटक का प्रचलन भारत में बढा, ताकि जनता को सत्य का पता चले।
नुक्कड़ नाटक में वर्तमान समाज, राजनीति,
संस्कृति आदि से संबंधित विषय होते हैं। ये विषय हमारे वर्तमान जीवन से संबंधित
होते हैं। जन साधारण के ऊपर हो रहे अन्याय और उत्पीड़न को कला के रूप में बदल कर
लाखों-करोड़ों अनपढ, अशिक्षित किसानों, मज़दूरों और महिलाओं में जागरूकता लाने के
लिया इसका ब-खूबी इस्तेमाल किया गया।
नुक्कड़ नाटक में रंगमंच, पर्दे आदि की
ज़रूरत नहीं होती। इसमें न तो अंक परिवर्तन होता है और न दृश्य परिवर्तन। इसमें कोई
नायक नहीं होता। सबके सब साधारण पात्र होते हैं। इसके संवाद न साहित्यिक और न ही
क्लिष्ट भाषा में होते हैं। बल्कि ये जनता की भाषा में होते हैं, ताकि इसे सब समझ
सकें। यह ग्रामीणों की भाषा होती है, मज़दूरों की भाषा होती है। इसके पात्र समाज के
साधारण सदस्य होते हैं, आम आदमी होते हैं।
खुले
स्थान पर बिना किसी साज-ओ-सज्जा के इसे पेश किया जाता है। दर्शक और अभिनेताओं के
बीच कोई दूरी नहीं होती। नाट्य प्रस्तुति का यह रूप जनता से सीधे संवाद स्थापित
करने में मदद करता है।
नुक्कड़ नाटक का मुख्य उद्देश्य है
सम्प्रेषण। श्रोता या पाठक इसे आसानी से समझ सके। इसका आस्वादन कर सके। और इसके
मर्म को अपने हृदय में ग्रहण कर सके। हम कह सकते हैं कि इसका उद्देश्य होता है आम
जनता तक अपनी बातों को, अपने उद्देश्य को पहुंचाना। जनता को धूर्त, चालाक, शोषक
राजनेताओं से सचेत करना। नुक्कड़ नाटक, कलाकार
और दर्शक को एक-दूसरे के आसपास लाकर खड़ा कर देता है, जिससे वे अपने आपसे और अपने
परिवेश से जीवंत साक्षात्कार कर सकें। नुक्कड़ नाटक का सामाजिक उद्देश्य भी होता है, अंध
विश्वास, रीति रिवाज़, ग़लत प्रथा के प्रति जागरूक करना।
सड़क पर खड़े और बैठे दर्शकों के
लिए धैर्य रखना मुश्किल न हो जाए इसलिए नुक्कड़ नाटकों की अवधि प्रायः 30-40 मिनट की होती है। इसमें
थोड़े कलाकारों से विभिन्न पात्रों का का काम ले लिया जाता है। संवादों में कई तरह
के प्रयोग की गुंजाइश होती है। गीत, संगीत और कविता के प्रयोग पर भी बल रहता है।
‘औरत’ नुक्कड़ नाटक जनम द्वारा 1979 में पहली बार उत्तर भारत की असंगठित कामगार महिलाओं
के पहले सम्मेलन के मध्यांतर के दौरान खेला गया। यह हमारे मौज़ूदा हालात से उपजा
नाटक है जो एक सामजिक पहलू को उजागर करता है। औरत देश की आधी जनसंख्या है, और समाज
पुरुष प्रधान। औरतों को देवी, पूजनीय आदि उपाधि देकर यह पुरुष प्रधान समाज उनका
शोषण करता रहा है। कोमलांगी, तन्वी, फैशनेबुल, घर की देवी, अप्रतिम आकर्षण वाली
सलज्ज कामिनी आदि उपमा देकर घर की चार दीवारी में उन्हें क़ैद कर दिया है। यह नाटक
औरत की गहरी अंतर्व्यथा को प्रस्तुत करने की कलात्मक कोशिश है। औरत के जीवन की
वास्तविकताओं को इस नाटक में कई कोणों से देखने की कोशिश की गई है। मेहनत करती
औरत, शोषण की चक्की में पिसती औरत और पुरुष मानसिकता का शिकार औरत की जो तस्वीर
पूंजीवादी-उपभोक्तावादी समाज में पेश की जाती है उससे अलग हटकर नारी का चित्र इस
नुक्कड़ नाटक में प्रस्तुत किया गया है।
जो अपने हाथों से फ़ैक्ट्री में
भीमकाय मशीनों के चक्के घुमाती
है
वह मशीनें जो उसकी ताक़त को
ऐन उसकी आंखों के सामने
हर दिन नोंचा करती है
एक औरत जिसके ख़ूने जिगर से
खूंखार कंकालों की प्यास बुझती
है,
एक औरत जिस का खून बहने से
सरमायेदार का मुनाफ़ा बढता है।
वर्गों में बंटे समाज में हर वर्ग की स्त्री शोषण
और उत्पीड़न का शिकार होती हैं। लेकिन जो स्त्री ग़रीब है उसे स्त्री होने के
साथ-साथ ग़रीब होने की पीड़ा भी झेलनी पड़ती है। इस नाटक में शोषण और उत्पीड़न के
ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद किया गया है।
मैं खुद भी एक मज़दूर हूं
मैं खुद भी एक किसान हूं
मेरा पूरा जिस्म दर्द की तस्वीर
है
मेरी रग-रग में नफ़रत की आग भरी
है
और तुम कितनी बेशर्मी से कहते हो
कि मेरी भूख एक भ्रम है
और मेरा नंगापन एक ख्वाब
एक औरत जिसके लिए तुम्हारी
बेहूदा शब्दावली में
एक शब्द भी ऐसा नहीं
जो उसके महत्व को बयान कर सके।
मानव सभ्यता के आरंभिक काल से लेकर आज की तथाकथित
विकसित सामाजिक व्यवस्था तक के विभिन्न चरणों में स्त्री जीवन के यथार्थ को गतिशील
रूप में यह नाटक प्रस्तुत करता है। ज्यों-ज्यों धन का मूल्य बढता गया, व्यक्ति
आत्म-केन्द्रीत होता गया, समाज में औरतों का अवमूल्यन हुआ, और उन्हें भोग की वस्तु
माना जाने लगा। घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं। उसके विचार, उसकी इच्छा को महत्व
नहीं दिया जाता था। वे अपने अधिकार से वंचित रहीं।
यही स्थिति मध्य काल तक रही। ऐश्वर्य और विलासिता
का जीवन जीने वाले मध्यकालीन शासक के शासन काल में उनके शोषण का आयाम बदल गया।
पर्दा-प्रथा आया। इस काल में स्त्रियों के कारण कई युद्ध हुए। युद्धोपरांत उन्हें
उपहार स्वरूप दिया जाने लगा।
ऐसी स्थिति में नारियों ने यह महसूस किया कि
नारियों को स्वयं ही अपनी परतंत्रता की बेड़ियों को काटना होगा। ध्रुवस्वामिनी में
यह बताया गया है। वह उपहार की वस्तु बनने के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करती है।
महाभारत में द्रौपदी पूछती है – क्या अधिकार था पाण्डव को हमें दांव पर लगाने का? अन्धा युग में भी
अधिकार के लिए प्रश्न पूछा गया है। पति गौतम द्वारा निरपराध अहिल्या को शाप दिया
गया। एक पुरुष को नारी की शुद्धता चाहिए। सीता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। अग्नि
परीक्षा से सफलतापूर्वक गुज़रने के बाद भी उसे घर से निकाल दिया गया। वह भी उस
परिस्थिति में जब वह मां बनने वाली थी। सीता अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकी, धरती में
समा गई। अर्थात् समाज से ओझल हो गई।
जब सतयुग में नारी की अवस्था यह थी तो आज पूंजीवादी
व्यवस्था में तो स्थिति और भी भयावह हो गई है। धन आज सर्वोपरि है। पूंजीपति की
रक्षा के लिए पूरी व्यवस्था है। ‘औरत’ में यही प्रश्न उठाया गया है कि इस
युग में नारी कहां है? उसका क्या मूल्य है?
उत्तर बड़ा भयावह है – उसकी स्थिति ‘माइनस
ज़ीरो’ है। रीतिकालीन लोगों की तरह उसे देखा जा रहा है। आज वह निराश्रित है।
उसके साथ दुहरा व्यवहार किया जा रहा है। पराया धन का तमगा उसके ऊपर बचपन से ही लगा
दिया जाता है। आज भी दहेज की प्रथा शान की प्रतीक बनी हुई है। लड़कियों का अवमूल्यन
हुआ है। कामकाज़ी महिलाओं को कार्य-स्थल पर दोयम दर्ज़े की स्थिति है। यौन शोषण के
केस सामने आते रहते हैं। काम करने की उसकी शारीरिक क्षमता पर विश्वास नहीं है।
तुम्हारी शब्दावली उसी औरत की
बात करती है
जिसके हाथ साफ़ हैं।
जिसका शरीर नर्म है
जिसकी त्वचा मुलायम है और जिसके
बाल ख़ुशबूदार हैं।
हालांकि आज वे हर क्षेत्र में आगे हैं। फिर भी
पुरुष प्रधान समाज उनकी प्रगति में अवरोध पैदा करता है। वस्तु स्थिति यह है कि उनकी
मानसिक, शारीरिक, नैतिक और बौद्धिक क्षमता में कोई कमी नहीं है। फिर भी उनकी
स्थिति शोचनीय बनी हुई है। नारी चाहे बच्ची हो,
लड़की हो, पत्नी हो, मां हो, उसे क़दम-क़दम पर शोषण और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता
है। उसे भाई की तुलना में अधिक काम करना पड़ता है। उसकी पढने-लिखने और आगे बढने की
आकांक्षाओं का गला घोंट दिया जाता है। कारखानों में उसे कम वेतन और छंटनी का शिकार
होना पड़ता है। ससुराल में दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता है। सड़कों पर अपमानित
होना पड़ता है। यह माना जाता है कि उसका सौंदर्य और यौवन उपभोग के लिए है। एक इंसान
के रूप में उसकी क़ीमत कुछ भी नहीं है। नारी जीवन की इन्हीं विडंबनाओं को इस नुक्कड़
नाटक की विषय वस्तु का आधार बनाया गया है।
बाप के भाई के और खाविन्द के
ताने तिश्नों को सुनना तमाम उमर।
बच्चे जनना सदा, भूखे रहना सदा,
करना मेहनत हमेशा कमर तोड़ कर
और बहुत से जुलमों सितम औरत के
हिस्से आते हैं
कमज़ोरी का उठा फ़ायदा गुण्डे उसे
सताते हैं।
दरोगा और नेता-वेता दूर से यह सब
तकते हैं
क्योंकि रात के परदे में वह खुद
भी यह सब करते हैं।
औरत की हालत का यह तो जाना-माना
किस्सा है
और झलकियां आगे देखो जो जीवन का
हिस्सा है।
सम्पूर्ण स्त्री समाज की
वास्तविक स्थिति को दर्शाने वाले इस नुक्कड़ नाटक का कथ्य विचार के रूप में यह है
कि औरत के बारे में हमारे समाज का दृष्टिकोण बदलना चाहिए, उसे बराबरी का दर्ज़ा
मिलना चाहिए और उसकी महत्ता को स्वीकार किया जाना चाहिए। नाटक यह संदेश देता है कि
स्त्री पराधीनता से मुक्ति का सवाल जनतांत्रिक अधिकारों के आंदोलन और विकास के साथ
ही संभव होगा। सिफ़ारिश, कृपा और भीख मांगने के बजाय संघर्ष की चेतना और संघर्ष का
आह्वान ही समानता और उन्नति का बंद द्वार खोल सकेगा। जब तक संगठित होकर औरत अपने
अधिकार के लिए संघर्ष नहीं करेगी तब तक वह प्रताड़ित होती रहेगी। समाज के सृजन में
नारी की सबसे बड़ी भूमिका होती है। परन्तु उसके महत्त्व को नहीं समझा जाता है। औरत
की स्वतंत्रता के नारे ज़रूर बुलंद किए जाते हैं। परन्तु औरत की स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं है कि उसे उपभोग की
वस्तु के रूप में देखा जाए।
इस नाटक का उद्देश्य समाज में
स्त्री की वास्तविक दशा का करुण चित्रण प्रस्तुत कर जागृति पैदा करना है ताकि उनका
शोषण और उत्पीड़न न हो और वे स्वयं इसके विरुद्ध संगठित होकर संघर्ष करने के लिए
आगे आएं। औरत और पुरुष के भेद मिटाकर औरत को समान दर्ज़ा देने का संदेश नाटक का
मर्म है। नाटक स्त्री की जिजीविषा, संघर्षशीलता और भविष्य के प्रति गहरी आशा का
संदेश देते हुए समाप्त होता है।
भेड़िये से रहम की उम्मीद छोड़ दे
अपनी इन सदियों पुरानी बेड़ियों
को तोड़ दे
आ चुका है वक्त अब इस पार या उस
पार का
राज़ जाहिर हो चुका है असली
जिम्मेदार का
नाटक की भाषा बोलचाल की है। इसे
समझने में कोई दिक़्क़त नहीं होती। भाव के अनुकूल भाषा का मिज़ाज़ बदलता है। भाषा और
भाव भंगिमा का गहरा रिश्ता ‘औरत’ नाटक में मौज़ूद है। इस नाटक में पुरुष
वर्चस्व और पितृसत्तात्मक संगठन के पुरुषवादी सामंती मूल्यों को निःसंदिग्ध रूप से
चुनौती दी गई है। साथ ही स्त्री मुक्ति के प्रश्न को एक व्यापक संदर्भ भी दिया गया
है।