शुक्रवार, 31 अगस्त 2012

साखी .... भाग - 27 / संत कबीर


जन्म  --- 1398

निधन ---  1518

सुखिया सब संसार है, खावै और सोवे  

दुखिया दास कबीर है, जागै अरु रौवे 261


परबति परबति मैं फिरया, नैन गंवाए रोइ  

सो बूटी पाऊँ नहीं, जातैं जीवनि होइ 262


पूत पियारौ पिता कौं, गौहनि लागो घाइ  

लोभ-मिठाई हाथ दे, आपण गयो भुलाइ 263


हाँसी खैलो हरि मिलै, कौण सहै षरसान  

काम क्रोध त्रिष्णं तजै, तोहि मिलै भगवान 264  


जा कारणि में ढ़ूँढ़ती, सनमुख मिलिया आइ  

धन मैली पिव ऊजला, लागि सकौं पाइ 265


पहुँचेंगे तब कहैगें, उमड़ैंगे उस ठांई  

आजहूं बेरा समंद मैं, बोलि बिगू पैं काई 266


दीठा है तो कस कहूं, कह्मा को पतियाइ  

हरि जैसा है तैसा रहो, तू हरिष-हरिष गुण गाइ 267


भारी कहौं तो बहुडरौं, हलका कहूं तौ झूठ  

मैं का जाणी राम कूं नैनूं कबहूं दीठ 268


कबीर एक जाण्यां, तो बहु जाण्यां क्या होइ  

एक तै सब होत है, सब तैं एक होइ 269


कबीर रेख स्यंदूर की, काजल दिया जाइ  

नैनूं रमैया रमि रह्मा, दूजा कहाँ समाइ 270


बुधवार, 29 अगस्त 2012

पं. बालकृष्ण भट्ट

Anamika 7577 की प्रोफाइल फोटोआदरणीय गुणी जनों को  अनामिका का सादर नमस्कार  ! अगस्त माह  से मैंने एक नयी श्रृंखला का आरम्भ किया है जिसमे आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवियों और  लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा शैली पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा  है और विश्वास करती हूँ कि आप सब के लिए यह एक उपयोगी जानकारी के साथ साथ हिंदी राजभाषा के साहित्यिक योगदान में एक अहम् स्थान ग्रहण करेगी.

लीजिये भारतेन्दु हरिशचंद्र जी, श्री बद्रीनारायण  चौधरी 'प्रेमघन' जी  और श्री नाथूराम शर्मा 'शंकर' , श्रीधर पाठक जी की चर्चा के बाद आज चर्चा करते हैं  पं. बालकृष्ण भट्ट  जी की ...


 


पं. बालकृष्ण भट्ट

                                                      जन्म  सं. 1901 (1885 ई.),  मृत्यु 1916 ई.


परिचय

भारतेंदु युगीन निबंधकारों में पं. बालकृष्ण भट्ट का एक विशिष्ट स्थान है. निबंधकार, पत्रकार, कथाकार, उपन्यासकार, नाटककार, शैलीकार एवं आलोचक आदि वीविध रूपों में आपने हिंदी साहित्य की विविध रूपों में सेवा की.  लगभग बत्तीस वर्षों तक 'हिंदी प्रदीप' का संपादन कर आप  अपने विचारों का व्यक्तिकरण करते रहे. भट्ट जी भारतेंदु युग की देदीप्यमान मौन विभूति होने के साथ साथ द्विवेदी युग के लेखकों के मार्ग-दर्शक  और प्रेरणा स्त्रोत भी रहे.

जीवन वृत्त

भट्टजी का जन्म प्रयाग में सं. 1901 (सन 1885 ई. ) में हुआ था. इनके पिता का नाम पं. वेनिप्रसाद था और शिक्षा की ओर इन्हें विशेष रूचि थी तथा इनकी पत्नी भी विदुषी थीं. अतः भट्टजी की शिक्षा पर विशेष ध्यान दिया गया. प्रारंभ में इन्हें घर पर संस्कृत की शिक्षा दी गयी और 15-16 वर्ष की अवस्था तक इनका यही क्रम रहा. इसके उपरान्त इन्होने माता के आदेशानुसार स्थानीय मिशन के स्कूल में अंग्रेजी पढना प्रारंभ किया और दसवीं कक्षा तक अध्ययन किया. विद्यार्थी जीवन में इन्हें बाईबिल परीक्षा में कई बार पुरस्कार भी प्राप्त हुए. मिशन स्कूल छोड़ने के उपरान्त यह पुनः  संस्कृत, व्याकरण और साहित्य का अध्ययन करने लगे.

कुछ समय के लिए यह जमुना मिशन स्कूल में संस्कृत के अध्यापक भी रहे, पर अपने धार्मिक विचारों के कारण इन्हें पद  त्याग करना पड़ा. विवाह हो जाने पर जब इन्हें अपनी  बेकारी खलने लगी तव यह व्यापार करने की इच्छा से कलकत्ते भी गए, परन्तु वहां से शीघ्र ही लौट आये और संस्कृत साहित्य के अध्ययन तथा हिंदी साहित्य की सेवा में जुट गए. यह स्वतंत्र रूप से लेख लिखकर हिंदी साप्ताहिक और मासिक पत्रों में भेजने लगे तथा कई वर्ष तक प्रयाग में संस्कृत के अध्यापक रहे.

यह  प्रयाग से 'हिंदी प्रदीप' मासिक पत्र का निरंतर घाटा सहकर 32 वर्ष तक उसका सम्पादन करते रहे. हिंदी प्रदीप बंद होने के बाद  हिंदी शब्दसागर का संपादन का काम भी इन्होने कुछ समय तक देखा पर अस्वस्थता के कारण इन्हें यह कार्य छोड़ना पड़ा. सं. 1971 में प्रयाग में इनका  स्वर्गवास हो गया. प्रयाग का भारती भवन पुस्तकालय इन्होने ही स्थापित किया है और वह इनकी पुण्य स्मृति का स्तम्भ है.

महत्वपूर्ण स्थान

हिंदी के निबंधकारों   में पं. बालकृष्ण भट्ट का महत्वपूर्ण स्थान है. निबंधों के प्रारंभिक युग को हम निःसंकोच भाव से भट्ट युग के नाम से अभिहित कर सकते हैं. व्यंग्य विनोद संपन्न शीर्षकों और लेखों द्वारा एक ओर तो ये  प्रताप नारायण मिश्र के पास बैठे हैं और गंभीर विवेचन एवं विचारात्मक निबंधों के लिए आचार्य शुक्ल के पास. यह अपने युग के न केवल सर्वश्रेष्ठ निबंधकार थे अपितु इन्हें सम्पूर्ण हिंदी साहित्य में प्रथम श्रेणी का निबंध लेखक माना जाता  है.  इन्होने साहित्यिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, दार्शनिक, नैतिक और सामयिक आदि सभी विषयों पर विचार व्यक्त किये हैं. इन्होने तीन सौ से अधिक निबंध लिखे हैं.  इनके निबंधों का कलेवर अत्यंत संक्षिप्त है तथा तीन प्रष्टों में  ही समाप्त हो जाते हैं.  इन्होने मूलतः विचारात्मक निबंध ही लिखे हैं और इन विचारात्मक निबंधों को चार श्रेणियों में विभाजित किया है -

व्यवहारिक जीवन से सम्बंधित

साहित्यिक विषयों से समबन्धित

सामयिक विषयों से सम्बंधित

हृदय की वृतियों पर आधारित

भाषा शैली

भट्टजी का झुकाव  संस्कृतनिष्ठ भाषा की ओर अधिक था पर परिस्थिति व् आवश्यकतानुसार अरबी, फ़ारसी के औलाद, मुहब्बत, नालिश, दुरुस्त, ऐयाशी, आमदनी, कसरत, पैदाइश और बेकदर तथा अंग्रेजी के फिलासफी, कैरेक्टर, सोसाइटी, स्पीच, नेशनेलिटी, स्टेंडर्ड, पुलपिट, नेचुरल, गिफ्ट, मोरेल आदि शब्द इनकी भाषा में मिलते हैं.  कहीं कहीं तो निबंधों के शीर्षक अंग्रेजी में दिए गए हैं जैसे - Are the nation and individual two different things. इसी प्रकार ब्रिज भाषा के शब्दों की भी कमी नहीं है और विभक्तियों व् क्रियाओं को बहुलता से प्रयोग किया गया है.

कृतियाँ

भट्ट जी भारतेंदु युग के देन थे और भारतेंदु मंडली के प्रधान सदस्य थे. संवत 1934 में प्रयाग में इन्होने हिंदी प्रवर्द्धिनी नामक सभा की स्थापना  कर हिंदी प्रदीप  प्रकाशित करते रहे.  इसी पत्र में इनके अनेक निबंध दृष्टिगोचर होते हैं और हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयोग में इनके कुछ निबंधों का संग्रह निबंधावली नाम से प्रकाशित भी करवाया. नूतन ब्रहमचारी और सौ अजान एक सुजान इनके उपन्यास हैं तथा साहित्य सुमन निबंध संग्रह हैं - शिक्षा, दान, प्रभावती, शर्मिष्ठा, दमयंती, स्वयंवर, कलिराज की सभा, रेल का विकट खेल, बाल विवाह आदि इनकी नाट्य-कृतियाँ हैं. हिंदी प्रदीप में इनके अनेक  उत्कृष्ट  सशक्त व्यंग्य , गहन अर्थ और अभिव्यंजना शक्ति के साथ मुहावरों व् कहावतों का भी प्रचुर प्रयोग है. भट्टजी अपने समय के उत्कृष्ट शैलीकार भी थे और व्यास व् समास दोनों प्रकार की शैलियों को इन्होने कुशलतापूर्वक अपनाया है.  इनकी शैली को चार रूपों में बांटा जा सकता है.

1. विचारात्मक शैली

2. वर्णात्मक शैली

3. भावात्मक शैली

4. व्यंग्यात्मक शैली

सन 1916 ई. में इनकी मृत्यु हो गयी.

मंगलवार, 28 अगस्त 2012

चरन कमल बंदौ हरि राइ

विनय के पद

मंगलाचरण

चरन कमल बंदौ हरि राइ


(आराध्य की कृपा की आकांक्षा)

चरन कमल बंदौ हरि राइ।
जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे अंधे कौ सब कछु दरसाई॥
बहिरौ सुनै गूँग पुनि बोलै रंक चलै सिर छत्र धराइ।
सूरदास स्वामी करूनामय बार बार बंदौँ तिहिँ पाइ॥
                                                     -- सूरदास

सोमवार, 27 अगस्त 2012

यह दिया बुझे नहीं / गोपाल सिंह नेपाली

घोर अंधकार हो,
चल रही बयार हो,
आज द्वार–द्वार पर यह दिया बुझे नहीं
यह निशीथ का दिया ला रहा विहान है ।

शक्ति का दिया हुआ,
शक्ति को दिया हुआ,
भक्ति से दिया हुआ,
यह स्वतंत्रता–दिया,
रूक रही न नाव हो
जोर का बहाव हो,
आज गंग–धार पर यह दिया बुझे नहीं,
यह स्वदेश का दिया प्राण के समान है ।

यह अतीत कल्पना,
यह विनीत प्रार्थना,
यह पुनीत भावना,
यह अनंत साधना,
शांति हो, अशांति हो,
युद्ध¸ संधि¸ क्रांति हो,
तीर पर, कछार पर, यह दिया बुझे नहीं,
देश पर, समाज पर, ज्योति का वितान है ।

तीन–चार फूल है,
आस–पास धूल है,
बांस है –बबूल है,
घास के दुकूल है,
वायु भी हिलोर दे,
फूंक दे¸ चकोर दे,
कब्र पर मजार पर, यह दिया बुझे नहीं,
यह किसी शहीद का पुण्य–प्राण दान है।

झूम–झूम बदलियाँ
चूम–चूम बिजलियाँ
आंधिया उठा रहीं
हलचलें मचा रहीं
लड़ रहा स्वदेश हो,
यातना विशेष हो,
क्षुद्र जीत–हार पर¸ यह दिया बुझे नहीं,
यह स्वतंत्र भावना का स्वतंत्र गान है ।

शुक्रवार, 24 अगस्त 2012

साखी ----- भाग - 26 / संत कबीर

जन्म  --- 1398

निधन ---  1518


कबीरा राम रिझाइ लै, मुखि अमृत गुण गाइ  

फूटा नग ज्यूं जोड़ि मन, संधे संधि मिलाइ 251



लंबा मारग, दूरिधर, विकट पंथ, बहुमार

कहौ संतो, क्यूं पाइये, दुर्लभ हरि-दीदार 252



बिरह-भुवगम तन बसै मंत्र लागै कोइ  

राम-बियोगी ना जिवै जिवै तो बौरा होइ 253  




यह तन जालों मसि करों, लिखों राम का नाउं  

लेखणि करूं करंक की, लिखी-लिखी राम पठाउं 254



अंदेसड़ा भाजिसी, सदैसो कहियां  

के हरि आयां भाजिसी, कैहरि ही पास गयां 255



इस तन का दीवा करौ, बाती मेल्यूं जीवउं

लोही सींचो तेल ज्यूं, कब मुख देख पठिउं 256



अंषड़ियां झाईं पड़ी, पंथ निहारि-निहारि  

जीभड़ियाँ छाला पड़या, राम पुकारि-पुकारि 257



सब रग तंत रबाब तन, बिरह बजावै नित्त

और कोई सुणि सकै, कै साईं के चित्त 258



जो रोऊँ तो बल घटै, हँसो तो राम रिसाइ  

मन ही माहिं बिसूरणा, ज्यूँ घुँण काठहिं खाइ 259



कबीर हँसणाँ दूरि करि, करि रोवण सौ चित्त

बिन रोयां क्यूं पाइये, प्रेम पियारा मित्व 260


गुरुवार, 23 अगस्त 2012

श्रीधर पाठक

Anamika 7577 की प्रोफाइल फोटोआदरणीय गुणी जनों को  अनामिका का सादर नमस्कार  ! अगस्त माह  से मैंने एक नयी श्रृंखला का आरम्भ किया है जिसमे आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवियों और  लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा शैली पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा  है और विश्वास करती हूँ कि आप सब के लिए यह एक उपयोगी जानकारी के साथ साथ हिंदी राजभाषा के साहित्यिक योगदान में एक अहम् स्थान ग्रहण करेगी.

लीजिये भारतेन्दु हरिशचंद्र जी, श्री बद्रीनारायण  चौधरी 'प्रेमघन' जी  और श्री नाथूराम शर्मा 'शंकर' जी की चर्चा के बाद आज चर्चा करते हैं श्रीधर पाठक जी की

श्रीधर  पाठक

जन्म  1859 ई.,  मृत्यु 1928 ई.

जीवन वृत्त

इनका जन्म आगरा जिले के जोंधरी गाँव में हुआ था. हिंदी के अतिरिक्त इन्होने अंग्रेजी, फ़ारसी  और संस्कृत का भी अच्छा ज्ञान प्राप्त किया. आजीविका के लिए पाठक जी ने कलकत्ता में सरकारी  नौकरी की . नौकरी के प्रसंग में ही इन्हें काश्मीर और नैनीताल भी जाना पड़ा, जहाँ इन्हें प्रकृति के निरीक्षण का अच्छा अवसर मिला. नौकरी के पश्चात ये प्रयाग में आकर रहने लगे.  इन्होने बृजभाषा और खड़ी बोली दोनों में अच्छी कविता की हैं. इनकी बृजभाषा सहज और निराडम्बर है - परंपरागत रूढ़ शब्दावली का प्रयोग  इन्होने प्रायः  नहीं किया है.खड़ी बोली में काव्य रचना कर इन्होने गद्य और पद्य की भाषाओं में एकता स्थापित करने का एतिहासिक कार्य किया.  खड़ी बोली के  ये प्रथम समर्थ कवि भी कहे जा सकते हैं. यद्यपि इनकी खड़ी बोली में कहीं कहीं बृजभाषा के क्रियापद भी प्रयुक्त हैं, किन्तु यह क्रम महत्वपूर्ण नहीं है कि महावीरप्रसाद द्विवेदी द्वारा 'सरस्वती' का सम्पादन संभालने से पूर्व ही इन्होने खड़ी बोली में कविता लिखकर अपनी स्वच्छन्द वृति का परिचय दिया. देश-प्रेम, समाज सुधार तथा प्रकृति - चित्रण इनकी कविता के मुख्य विषय हैं. इन्होने बड़े मनोयोग से देश का गौरव गान किया है, किन्तु देश भक्ति के साथ इनमे  भारतेंदु कालीन कवियों के समान राजभक्ति भी मिलती है. एक ओर इन्होने ' भारतोत्थान' ; 'भारत प्रशंसा' आदि देशभक्ति पूर्ण कवितायें लिखी हैं तो दूसरी ओर 'जार्ज वन्दना' जैसी कविताओं में राजभक्ति का भी प्रदर्शन किया है. समाज सुधार की ओर भी इनकी दृष्टि बराबर रही है. 'बाल विधवा' में इन्होने विधवाओं की व्यथा का  कारुणिक वर्णन किया है. परन्तु इनको सर्वाधिक सफलता प्रकृति  चित्रण में प्राप्त हुई है. तत्कालीन कवियों में इन्होने सबसे अधिक मात्रा में प्रकृति चित्रण किया है. परिणाम की दृष्टि से ही नहीं, गुण की दृष्टि से भी वह सर्वश्रेष्ठ हैं. इन्होने रूढी का परित्याग कर प्रकृति का स्वतंत्र रूप में मनोहारी चित्रण किया है. इन्होने अंग्रेजी तथा संस्कृत की पुस्तकों के पद्यानुवाद भी किये.  मातृभाषा  की उन्नति की भी ये कामना करते हैं. इनके शब्दों में -

निज भाषा बोलहु लिखहु पढ़हू गुनहु सब लोग !

करहु सकल वषयन विषैं निज भाषा उपजोग !!

पाठक जी कुशल अनुवादक थे - कालिदास कृत 'ऋतुसंहार' और गोल्डस्मिथ-कृत 'हरमिट',  'टेजटेंड विलेज' तथा 'प ट्रैवलर' का ये बहुत पहले ही 'एकांतवासी योग', ऊजड ग्राम और श्रांत पथिक शीर्षक से काव्यानुवाद कर चुके थे.

इनकी मौलिक कृतियों में 'वनाश्टक' 'काश्मीर सुषमा' (1904), 'देहरादून'(1915),  'भारत गीत'(1928),  'गोपिका गीत' , 'मनोविनोद' , 'जगत सच्चाई- सार'  विशेषतः उल्लेखनीय हैं.

पाठक जी की काव्यशैली के उदाहरण स्वरुप  एक अवतरण देखिये -

चारु हिमाचल आँचल में एक साल बिसालन कौ बन है !

मृदु मर्मर शीत झरैं जल-स्त्रोत है पर्वत -ओट है  निर्जन है !!

लिपटे हैं लता द्रुम, गान में लीन प्रवीन विहंगन कौ बन है !

भटक्यों तहां रावरौं भूल्यौं फिरै, मद बावरौ सौ अलि को मन  है  !!

लीजिये उनकी प्रमुख कृतियों में से एक कृति

भारत गीत


जय जय प्यारा, जग से न्यारा

शोभित सारा, देश हमारा.

जगत मुकुट, जगदीश दुलारा

जन सौभाग्य सुदेश,

जय जय प्यारा, देश हमारा.

प्यारा देश, जय देशेश

अजय अशेष, सदय विशेष

जहाँ न संभव अघ का लेश

केवल पुन्य प्रवेश

जय जय प्यारा, देश हमारा.

स्वर्गिक शीश फूल पृथ्वी का

प्रेम मूल, प्रिय लोकत्रयी का.

सुललित  प्रकृति -नटी  का टीका

ज्यों निशि का राकेश !

जय जय प्यारा, देश हमारा.

जय जय शुभ्र हिमाचल शृंगा

कलरव निरत कलोलिनी गंगा

भानुप्रताप चमत्कृत अंगा

तेज पुंज तपदेश

जय जय प्यारा, भारत देश .

जग में कोटि कोटि जुग जीवे

जीवन सुलभ अमी रस पीवे,

सुखद वितान सुकृत का सीवे,

रहे स्वतंत्र हमेश !

जय जय प्यारा, भारत देश !!

       ********

मंगलवार, 21 अगस्त 2012


‘प्रसाद’ की राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप

मनोज कुमार

‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “राष्ट्रीयता एक गहरा और मज़बूत आदर्श है।” मैज़िनी की मानें तो शिक्षा, स्वदेशी और स्वराज्य - राष्ट्रीयता के तीन प्रधान स्तंभ हैं। जो राष्ट्र क हित है, वही व्यक्ति का हित है। स्वदेशी, स्वराज्य और राष्ट्रहित की भावना राष्ट्रीयता कहलाता है। “प्रिंसिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी” में ई.ए. रॉस ने कहा है, “किसी भी राष्ट्र के चरित्र में अधःपतन के सबसे प्रबल कारणों में से एक कारण उस राष्ट्र का किसी विदेशी शासन के अधीन हो जाना है। राष्ट्रीयता की चेतना जगाने के लिए विभिन्न विद्वानों-चिंतकों ने समय-समय पर अपना-अपना योगदान दिया है। प्रसाद जी ने भी अपनी रचनाओं में अपने युग की राष्ट्रीय भावनाओं को प्रतिबिम्बित किया है।

‘प्रेम पथिक’ (1910) से ‘कामायनी’ (1936) तक प्रसाद जी के रचनाकाल के अध्ययन से हम पाते हैं कि उनमें राष्ट्रीय चेतना और आधुनिक भावबोध कूट-कूट कर भरे हुए थे।
“बात कुछ छिपी हुई है गहरी,
मधुर है स्रोत, मधुर है लहरी।”

उपर्युक्त पंक्तियां ‘छायावाद’ के स्वरूप को रेखांकित करती हैं। प्रसाद जी को छायावाद का प्रवर्तक कहा जाता है। छायावाद को नवजागरण की अभिव्यक्ति कहा जाता है। इस नवजागरण के पीछे राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना सक्रिय थी। छायावाद का मूल उत्स भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में है। जब लोगों में दासता के ख़िलाफ़ संघर्ष के भाव मुखरित हुए, तो उनमें स्वाधीनता की चेतना जगी। इसी चेतना का परिणाम है – कल्पना पर अधिक बल। ध्यान करने वाली बात यह है कि हिंदी कविता में छायावाद और भारतीय राजनीतिक मंच पर महात्मा गांधी का आगमन लगभग एक साथ हुआ। तभी तो डॉ. नगेन्द्र कहते हैं, “जिन परिस्थितियों ने हमारे दर्शन और कर्म को अहिंसा की ओर प्रेरित किया, उन्होंने ही भाव-वृत्ति को छायावाद की ओर।”

प्रसाद जी के काव्य में हमें नवीन भावबोध के साथ स्वाधीनता की चेतना, सूक्ष्म कल्पना, लाक्षणिकता, नए प्रकार का सादृश्य-विधान, नया सौंदर्य बोध आदि के दर्शन होते हैं। छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण, सांस्कृतिक जागरण के रूप में आता है। नन्ददुलारे वाजपेयी ने आधुनिक साहित्य में कहा है, “केवल राष्ट्रीयता की भावना देश और समाज के सांस्कृतिक जीवन के बहुमुखी पहलुओं का स्पर्श नहीं करती और एक बड़ी सीमा तक एकांगी बनी रहती है। … नवयुग के कवियों ने इस तथ्य को समझ लिया था और इसीलिए उनकी रचनाएं ‘राष्ट्रीय’ न रहकर अधिक राष्ट्रीय और सांस्कृतिक भूमियों पर पहुंची थीं।”

प्रसाद जी की रचनाओं में कहीं भी भाव-स्थूलता का वर्णन नहीं है। इनमें अनुभूति का सूक्ष्म वर्णन है। वे स्वच्छंदतावादी भी थे। हालांकि कुछ आलोचकों ने, जब उन्होंने “ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे” लिखा था, पलायनवादी होने का आरोप लगाया। किंतु हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना और ‘द्विवेदी कालीन’ कवियों,  मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, की चेतना में अंतर है। उनकी राष्ट्रीय चेतना बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के ‘विप्लव गान’ और ‘निराला’ के ‘जागो फिर एक बार’ से भी भिन्न है। इनमें राष्ट्रीयता का स्वरूप स्थूल हैं, इनमें उद्बोधन है, विदेशी सत्ता से मुक्त होने का आह्वान है।

प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना का स्वर प्रच्छन्न है, कोमल है, सौम्य है, सूक्ष्म है। यह सीमित अर्थ में राष्ट्रवाद नहीं है। यहां राष्ट्रीय जागरण ने सांस्कृतिक जागरण का रूप धारण कर लिया है। इस सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति ‘प्रथम प्रभात’, ‘अब जागो जीवन के प्रभात’, ‘बीती विभावरी जाग री’ आदि रचनाओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति शैली अभिधात्मक नहीं है, बल्कि यह अप्रत्यक्ष है, व्यंजना पर आधारित है यह स्वच्छन्दतावाद की मूल चेतना से अभिन्न है
अब जागो जीवन के प्रभात।
वसुधा पर ओस बने बिखरे
हिमकन आंसू जो क्षोभ भरे
ऊषा बटोरती अरुण गात।

जहां प्रसाद जी सूक्ष्म, सास्कृतिक और सौम्य हैं वहीं द्विवेदी युगीन काव्य स्थूल है। भाषा की विलक्षणता पर ज़ोर देकर, आंतरिकता के स्पर्श और आधुनिक बोध और बदली हुई काव्य दृष्टि द्वारा वे मनुष्यों की मुक्ति को महत्त्व दे रहे थे। बंधनों से छुटकारा पाने को बल दे रहे थे। एक प्रकार से यह स्वाधीनता की चेतना के विकास का काम था। नया सौंदर्य बोध, नयी संबंध भावना के विकास का काम था। भारतेदु युग में राष्ट्रीय आदर्शवाद अस्पष्ट और अमूर्त रूप में था। द्विवेदी युग में इतिवृत्तात्मकता और विवरेणात्मकता प्रमुख हो गई, जो स्थूल कथन पर आश्रित थी। प्रसाद जी के समय और उनके द्वारा राष्ट्रीय चेतना अधिक गहरी है, प्रौढ़ है, परिपक्व है। उन्होंने परतंत्र देशवासियों में नवजागरण का शंख फूंका। ‘लहर’ में संकलित लम्बी कविता ‘अशोक की चिंता’, ‘शेरसिंह का शस्त्र समर्पण’, ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’, तथा ‘प्रलय की छाया’ में नवजागरण के संकेत हैं। ये रचनाएं 1930 के आस-पास लिखी हईं। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि यह 1930 के में भारत में राजनैतिक पराभव या पराजय की भावना की अभिव्यक्ति है। ‘प्रलय की छाया’ का राजनीतिक अर्थ स्वाधीनता संग्राम के एक विशेष दौर की मनोदशा से संबद्ध है। नामवर सिंह व्याख्या के क्रम में संकेत करते हैं कि कमलावती राजशक्ति को नष्ट करने की कोशिश में स्वयं नष्ट हुईं। इससे उसकी आत्मप्रवंचना के निहितार्थों का अनुमान किया जा सकता है। प्रसाद जी इस पराजय की भावना से देश-प्रेम का संदेश देते हैं।

इसी प्रकार ‘अशोक की चिंता’ और ‘अरी ओ करुणा की शांत कछार’ में भी राष्ट्र के प्रति गर्व गौरव की भावना अंकित किया गया है। कवि अशोक के नरसंहार के बाद हृदय परिवर्तन और बौद्ध-धर्म ग्रहण के माध्यम से यह बताना चाहता है कि राजा/शासक का धर्म है जनता की सेवा करना। कवि शांति का संदेश देते हुए कहता है कि विजय लोहे की नहीं होती, विजय आत्मा की होती है। और वह प्रेम, शांति और मानवता से ही संभव है। कवि राष्ट्रीय एकता का भी संदेश इस कविता के माध्यम से देता है।

‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ में  महाराणा प्रताप को अस्ताचल के सूर्य के रूप में बताया गया है। वह निर्धन है, ज्वलंतहीन है। पर इसके द्वारा एक तरह से जागृति का संदेश है हम पराजित होकर भी जीवित हैं। इसके द्वारा यह भी बताया गया है कि जिसे जीतना चाहिए था, वह हारा है। ‘अरी ओ करुणा के कछार’ सारनाथ के पास यमुना का वर्णन है। भगवान बुद्ध के अहिंसा, शांति, करुणा के संदेश को याद करता हुआ कवि कहता है
छोड़ कर जीवन के अतिभाव, मध्य पथ से लो सुगति सुधार।
दुख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मों का व्यापार।
विश्व मानवता का जयघोष, यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद।
मिला था यह पावन आदेश, आज भी साक्षी है रवि-चन्द्र।

प्रसाद जी में संकुचित राष्ट्रीयता नहीं है। यह देश की सीमा से बंधा हुआ नहीं है। यह विश्व-राष्ट्रीयता है इसमें विश्व-मंगल की कामना है।
‘बीती विभावरी जाग री!
...    ...    ...    ...
तू अब तक सोई है आली
आंखों में भरे विहाग री!”

इन पंक्तियों के द्वारा प्रसाद जी राष्ट्र को जागरण का संदेश देते हैं। नन्ददुलारे वाजपेयी का कहना है, “बीती विभावरी जाग री” शीर्षक जागरण गीत प्रसाद जी के संपूर्ण काव्य-प्रयास के साथ उनकी युग-चेतना का परिचायक प्रतिनिधि गीत कहा जा सकता है।” राष्ट्रीय चेतना का स्थूल रूप उनके नाटकों के गीतों, ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ और ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से’ में मिलता है। नाटकों के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय चेतना का प्रसार किया। और जब वे कहते हैं
“इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रांत भवन में टिक रहना,
किंतु पहुंचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं।”

तो वे समग्र विश्व तक राष्ट्रीय चेतना का प्रसार करते प्रतीत होते हैं। इसका क्लासिक उदाहरण है ‘कामायनी’।

‘कामायनी’ संकुचित राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर विश्वमंगल वाली रचना है। वह संपूर्ण मानवजाति की समरूपता का सिद्धांत अपनाकर आनंद लोक की यात्रा का संदेश देती है
समरस थे जड़ और चेतन
सुंदर आकार बना था
चेतना एक विलसती
आनंद अखंड घना था।
या
‘विश्व भर सौरभ से भर जाए
सुमन के खेलों सुंदर खेल।’

‘कामायनी’ आधुनिक जीवन-बोध का महाकाव्य है। इसमें संघर्ष करना सिखाया गया है। कर्म करना सिखाया गया है। विश्व-मंगल इसका मूल प्रयोजन है। उसकी मूल संकल्पना संकुचित राष्ट्रवाद के विरुद्ध है। मुक्तिबोध इड़ा को पूंजीवादी सभ्यता की उन्नायिका कहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि श्रद्धा, जो रागात्मक वृत्ति का प्रतीक है, का आदर्शीकरण प्रसाद जी करते हैं। श्रद्धा मनु को जीवन में वापस लाती है। कर्म-क्षेत्र में आने से आनंद की प्राप्ति होती है। फिर भी इड़ा का जो व्यक्तित्व विधान है उसमें नई युग चेतना के सभी सकारात्मक तत्त्व वर्तमान हैं
‘बिखरी अलकें ज्यों तर्क-जाल।
गुंजरित मधुप-सा मुकुल सदृश
वह आनन जिसमें भरा गान
वक्षस्थल पर एकत्र धरे
संसृति के सब विज्ञान-ज्ञान
था एक हाथ में कर्म-कलश
वसुधा-जीवन रस सार लिए
दूसरा विचारों के नभ को
था मधुर अभय अवलंब लिए।’

प्रसाद जी की व्यापक राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का विश्वमंगल से विरोध न था। वे उत्पीड़न के विरोध में थे द्वंद्वों से क्षुब्ध थे विषमता रहित समाज की स्थापना चाहते थे। ‘कामायनी’ की मिथकीय सीमाओं में भी कर्म चेतना, संघर्ष चेतना, एकता जैसे तत्त्व हैं, जिनका महत्त्व राष्ट्रीय आंदोलन के लिए था।

‘चित्राधार’ में तो वे यहां तक कहने का साहस कर गए कि उस ब्रह्म को लेकर मैं क्या करूंगा जो साधारण जन की पीड़ा नहीं हारता। ‘आंसू’ में भी विश्वमंगल की भावना की अभिव्यक्ति हुई है।
‘सबका निचोड़ लेकर तुम
सुख से सूखे जीवन में
बरसो प्रभात हिमकन-सा
आंसू इस विश्व-सदन में।’

हालांकि घनीभूत पीड़ा आंसू में अभिव्यक्ति पाती है, लेकिन यहां महत्त्वपूर्ण यह है कि व्यक्तिगत वेदना कैसे व्यापक कल्याण भावना में बदलने लगती है।
‘चिरदग्ध दुखी यह वसुधा
आलोक मांगती तब भी।’

यही अनुभव कवि को विश्व भावना तक ले जाता है।

सारांशतः हम यह कह सकते हैं कि प्रसाद जी का काव्य राष्ट्रीय काव्य, सांस्कृतिक जागरण का काव्य हैं। ये स्वाधीन चेतना के बल पर नई मानव परिकल्पना में सक्षम हैं। वह नई संबंध भावना का संकेत हैं। यहां राष्ट्रीयता का भाव संकुचित नहीं है, बल्कि विश्वमंगल हेतु है।
‘शक्तिशाली हो, विजयी बनो
विश्व में गूंज रहा यह गान।’
***