शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

काव्य शास्त्र-10 :: आचार्य रुद्रट

आचार्य रुद्रट :: -आचार्य परशुराम राय

काव्यशास्त्र के इतिहास में आचार्य वामन के बाद प्रसिद्ध आचार्य रुद्रट का नाम आता है। इनका एक नाम शतानन्द भी है। इस संदर्भ में आचार्य रुद्रट के एक टीकाकार ने इन्हीं का एक श्लोक उद्धृत किया हैः-

शतानन्दपराख्येन भट्टवामुकसूनुना।

साधितं रुद्रटेनेदं समाजा धीनतां हितम्।।

इसके अनुसार इनके पिता का नाम वामुकभट्ट था। इनका रुद्रट नाम जैसा शतानन्द प्रसिद्ध नहीं हुआ। आचार्य रुद्रट के मत का उल्लेख धनिक, मम्मट, राजशेखर आदि कई आचार्यों ने किया है। आचार्य, राजशेखर इनके सबसे पहले के पूर्ववर्ती आचार्य है और इनका काल लगभग 920 ई. के आस-पास माना जाता है। इस प्रकार आचार्य रुद्रट का काल नौवीं शताब्दी के उत्तरार्ध के आस-पास मानना चाहिए।

काव्यशास्त्र के अधिकांश आचार्य कश्मीरी हैं और इनमें से अधिकांश आचार्यों ने अपने ग्रंथों को ‘काव्यलङ्कार’ नाम से ही अभिहित किया है। आचार्य रुद्रट ने भी अपने काव्यशास्त्र के ग्रंथ का नाम भी यही रखा है। इस ग्रंथ में कुल 714 आर्याएँ (एक छंद विशेष) हैं और यह 16 अध्यायों में विभक्त हैं।

आचार्य रुद्रट नौ रसों के स्थान पर दस रस मानते हैं। दसवें रस को ‘प्रेयरस’ के नाम से इन्होंने अभिहित किया है। इसके अतिरिक्त अलंकारों का विभाजन करने के लिए उन्होंने चार तत्व निर्धारित किए हैं-औपम्य, अतिशय और श्लेष। इन्होंने मत, साम्य, पिहित और भाव नाम के चार नये अलंकार प्रतिपादित किए हैं। कुछ प्राचीन आचार्यों द्वारा प्रतिपादित अंलकारों को इनके द्वारा नए नाम दिए गये हैं, यथा आचार्य भामह के ‘व्याजस्तुति अलंकार’ को व्याजश्लेष, ‘स्वभावोक्ति’ को ‘जाति’ और ‘उदात्त’ को ‘अवसर अलंकार’ आदि ।

आचार्य रुद्रट के ग्रंथ ‘काव्यालंकार’ के तीन टीकाकारों का उल्लेख मिलता है- आचार्य वल्लभदेव, आचार्य नमिसाधु और आचार्य आशाधर। अन्तिम दो टीकाकार जैन यति थे। आचार्य वल्लभ देव की टीका‘रुद्रटालंकार’ अभी तक उपलब्ध नहीं हो पायी है।

आचार्य रुद्रभट्ट

आचार्य रुद्रभट्ट का ग्रंथ ‘शृंगारतिलक’ के नाम से जाना जाता है। हालाँकि प्राचीन और अर्वाटीन अधिकांश विद्वान आचार्य रुद्रट और आचार्य रुद्रभट्ट को एक ही व्यक्ति मानते हैं। जबकि कुछ विद्वान दोनों को भिन्न मानते हैं और ऐसे विद्वानों के निम्नलिखित तर्क हैः-

1. आचार्य रुद्रट के ग्रंथ का नाम काव्यालंकार है, जबकि आचार्य रुद्रभट्ट के ग्रंथ का नाम ‘शृंगारतिलक’ है।

2. ‘काव्यालंकार’ में 16 अध्याय हैं, किन्तु ‘शृंगारतिलक’ में तीन परिच्छेद हैं।

3. आचार्य रुद्रट काव्यत्व अलंकारों में मानते हैं, जबकि आचार्य रुद्रभट्ट काव्य का प्रधान तत्व रस मानते हैं।

4. ‘काव्यलंकार’ में दस रसों (दसवाँ प्रेम रस) का उल्लेख है तथा ‘शृगारतिलक’ में नौ रसों का उल्लेख है।

5. ‘काव्यालंकार’ में पाँच वृत्तियों (शैलियों) का उल्लेख किया गया है – मधुरा, परुषा, प्रौढ़ा, ललिता और भद्रा। किन्तु रुद्रभट्ट केवल चार वृत्तियाँ मानते है- कौशिकी, भारती, सात्वती और आरभटी।

6. नायक-नायिका भेद करते समय आचार्य रुद्रट ने वेश्यानायिका का वर्णन मात्र दो श्लोकों में किया है, किन्तु रुद्रभट्ट ने इसका विस्तार से वर्णन किया है।

प्राचीन सूक्तिसंग्रहों में दोनों आचार्यों के पद्य एक-दूसरे के नामों से उल्लिखित हैं। शायद इसी आधार पर इन दोनों आचार्यों को विद्वान एक ही व्यक्ति मानते हैं।

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आज का विचार

आज का विचार :: साहस

image जिस काम को करने में डर लगता है उसको करने का नाम ही साहस है।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

काव्य शास्त्र-9 :: आचार्य वामन

आचार्य वामन :: आचार्य परशुराम राय

आचार्य वामन आचार्य उद्भट के समकालीन थे। क्योंकि महाकवि कल्हण ने अपने महाकाव्य राजतरङ्गिणि में लिखा है कि आचार्य उद्भट महाराज जयादित्य की राजसभा के सभापति थे और आचार्य वामन मंत्री थे। जयादित्य का राज्य काल 779 से 813 ई. माना जाता है।

आचार्य वामन काव्यशास्त्र में रीति सम्प्रदाय प्रवर्तक है। ये रीति (शैली) को काव्य की आत्मा मानते हैं। इन्होंने एकमात्र ग्रंथ काव्यालङ्कारसूत्र लिखा है। यहकाव्यशास्त्र का ग्रंथ है जो सूत्र शैली में लिखा गया है। इसमें पाँच अधिकरण हैं। प्रत्येक अधिकरण अध्यायों में विभक्त है। इस ग्रंथ में कुल बारह अध्याय हैं। स्वयं इन्होंने ही इस पर कविप्रिया नाम की वृत्ति (टीका या भाष्य) लिखी-

प्रणम्य परमं ज्योतिर्वामनेन कविप्रिया।

काव्यालङ्कारसूत्राणां स्वेषां वृत्तिर्विधीयते

उदाहरण के तौर पर अन्य कवियों के साथ-साथ अपनी कविताओं का भी उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि वे स्वयं भी कवि थे। लेकिन काव्यालंकार सूत्र के अलावा उनके किसी अन्य ग्रंथ का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। हो सकता है कि उन्होंने कुछ श्लोकों की रचना केवल इस ग्रंथ में उदाहरण लिए ही की हो।

काव्यालङ्कारसूत्र पर आचार्य वामन की कविप्रिया नामक वृत्ति ही मिलती है। इस पर किसी ऐसे आचार्य ने टीका नहीं लिखी जो प्रसिद्ध हों। लगता है कि कविप्रिया टीका में आचार्य वामन ने अपने ग्रंथ को इतना स्पष्ट कर दिया है कि अन्य परवर्ती आचार्यों ने अलग से टीका या भाष्य लिखने की आवश्यकता न समझी हो या यह हो सकता है कि आचार्यों ने टीकाएँ की हों, परन्तु वे आज उपलब्ध न हों। क्योंकि काव्यालंकारसूत्र बीच में लुप्त हो गया था। आचार्य मुकुलभट्ट (प्रतीहारेन्दुराज के गुरु) को इसकी प्रति कहीं से मिली, जो आज उपलब्ध है। इस बात का उल्लेख काव्यालंकार के टीकाकार आचार्य सहदेव ने किया है।

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आज का विचार

आज का विचार :: साहित्य

image साहित्य का कर्तव्य केवल ज्ञान देना नहीं है परंतु एक नया वातावरण देना भी है। – डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन

बुधवार, 28 अप्रैल 2010

काव्य शस्त्र-8 :: आचार्य भट्टोद्भट

आचार्य भट्टोद्भट :: आचार्य परशुराम राय

आचार्य भट्टोद्भट एक कश्मीरी ब्राह्मण थे। आचार्य दण्डी के ये परवर्ती आचार्य हैं। ये कश्मीर के राजा जयादित्य की राजसभा के सभापति थे। इनका काल आठवीं शताब्दी का अन्तिम तथा नवीं शताब्दी का प्रारंभिक भाग माना जाता है।

आचार्य उद्भट के तीन ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। तीन ग्रंथों में केवल काव्यशास्त्र विषयक ग्रंथ काव्यालंकार सारसग्रंह ही मिलता है। दूसरा ग्रंथ भामहविवरण है, जो आचार्य भामह के काव्यलंकार पर टीका है। इसके अतिरिक्त आचार्य भरत के नाट्यशास्त्र पर इन्होंने एक टीका भी लिखी थी। क्योंकि शार्ङ्गदेव ने अपने संगीतरत्नाकर नामक ग्रंथ में नाट्यशास्त्र व्याख्याताओं में इनके नाम का भी उल्लेख किया हैः

व्याख्यातारो भारतीये लोल्लटोद्भटशङ्कुकाः।

भट्टाभिनवगुप्तश्च श्रीमत्कीर्तिधरोऽपर।

तीसरा ग्रंथ कुमारसंभव नामक काव्य है। इसी नाम से महाकवि कालिदास द्वारा विरचित ग्रंथ भी है। दोनों की कथावस्तु एक है, लेकिन ग्रंथ अलग-अलग हैं।

काव्यालंकार सार गंग्रह में कुल 79 कारिकाएँ हैं और 41 अलंकारों के लक्षण दिए हैं। पूरा ग्रंथ छः वर्गों विभक्त है। इस ग्रंथ में उदाहरण के रुप में आचार्य उद्भट ने अपने काव्य ग्रंथ कुमारसम्भव से ही लिए हैं।

यहाँ उल्लेखनीय है कि पुनरुक्तवदाभास, काव्यलिंग, छेकानुप्रास, दृष्टांत और संकर ये पाँच अलंकार काव्यालंकार सारसंग्रह में ही मिलते हैं। इनके पूर्ववर्ती आचार्य भामह और दण्डी के ग्रंथों में नहीं मिलते।

उत्प्रेक्षावयव, उपमा-रूपक और यमक अलंकारों को आचार्य भामह और दण्डी उत्प्रेक्षा के अन्तर्गत मानते हैं, किन्तु उद्भट इससे सहमत नहीं हैं। इसी प्रकार आचार्यच दण्डी ने अपने ग्रंथ काव्यादर्श में लेश, सूक्ष्म तथा हेतु अलंकारों की भी चर्चा की है, जबकि आचार्य भामह उनका निषेध करते हैं और आचार्य उद्भट ने तो इनका उल्लेख ही नहीं किया है।

इसके अतिरिक्त रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वि, समाहित और श्लिष्ट अलंकारों के निरूपण भामह और दण्डी के ग्रंथों में मिलते तो हैं, लेकिन उनके लक्षण (परिभाषा) स्पष्ट नहीं हैं। इन अलंकारों के स्पष्ट लक्षण आचार्य उद्भट के काव्यालंकार सार-सग्रंह में ही मिलते हैं और ये तथा पुरुक्तवद्भास आदि पाँच अलंकार काव्यशास्त्र के लिए आचार्य. उद्भट की अनुपम देन हैं।

आचार्य उद्भट के काव्यालंकार सारसग्रंह की दो टीकाएँ मिलती हैं-

प्रतीहारेन्दुराजकृत ‘लघुविवृति’ और राजनक तिलक की उद्भटविवेक।

आज का विचार

आज का विचार :: हिन्दी

 

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हिन्दी राष्ट्रीयता के मूल को सींचती है और दृढ़ करती है। देश का कोई भी सच्चा प्रेमी हिन्दी का तिरस्कार नहीं कर सकता।

मंगलवार, 27 अप्रैल 2010

काव्य शास्त्र-7 :: आचार्य दण्डी

आचार्य दण्डी :: --आ.परशुराम राय

आचार्य दण्डी महाकवि भारवि के प्रपौत्र हैं। इसका उल्लेख उन्होंने अपने ग्रंथ ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ में किया है। आचार्य दण्डी का काल आठवीं विक्रम शताब्दी में विद्वानों ने तय किया है। आचार्य भामह के बाद काव्यशास्त्र पर जिनका ग्रंथ उपलब्ध है, वे हैं आचार्य दण्डी।

आचार्य दण्डी के तीन ग्रंथ माने जाते हैं, जैसा कि‘शार्ङ्गधरपद्धति’ में राजशेखर के एक श्लोक का उल्लेख मिलता है, जिसमें बताया गया है कि तीन अग्नि, तीन वेद, तीन देव और तीन गुणों के समान आचार्य दण्डी के तीन प्रबंध (ग्रंथ) तीन लोकों में प्रसिद्ध हैं:

त्रयोऽग्नयस्त्रयो वेदा त्रयो देवास्त्रयो गुणाः।

त्रयोदण्डिप्रबंधाश्च त्रिषुलोकेषु विश्रुताः ।।

‘दशकुमारचरित’ काव्यादर्श और ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ इन तीन ग्रंथों की रचना आचार्य दण्डी ने की, ऐसा लगभग सभी विद्वान मानते हैं। ‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ के विषय में लोगों को अभी (बीसवीं शताब्दी के आरम्भ में) जानकारी मिली है, अन्यथा इनके तीसरे ग्रंथ के विषय में केवल अटकलें लगायी जा रही थीं। तीसरे ग्रंथ (अवन्तिसुन्दरीकथा) की पाण्डुलिपि मद्रास (अब चेन्नैई) के राजकीय हस्तलिखित ग्रंथालय में मिली जिसमें स्वयं आचार्य दण्डी ने अपने को महाकवि भारवि का प्रपौत्र बताया है। कुछ विद्वान ‘दशकुमारचरित’ को इनका ग्रंथ नहीं मानते क्योंकि अपने ग्रंथ ‘काव्यादर्श’ में वे दोषयुक्त काव्य के प्रति बड़े कठोर हैं:-

तदल्पंमपि नोपेक्ष्यं काव्ये दुष्टं कथञ्चन।

स्याद्वपुः सुन्दरमपि श्वित्रेणैकेन दुर्भगम्।।

अर्थात् थोड़ा सा भी दोष काव्य के सौन्दर्य को उसी तरह नष्ट कर देता है, जैसे चरक के एक दाग से शरीर (मुख) की सुन्दरता नष्ट हो जाती है।

वैसे हर रचनाकार की यही इच्छा होती है कि उसकी रचना निर्दोष हो, लेकिन यह रचना धर्म का आदर्श है। यथार्थ रुप में बिल्कुल निर्दोष रचना करना लगभग असम्भव है, यह कटु सत्य है।

वैद्य रोगी को पथ्य अवश्य बताता है, लेकिन स्वयं वह सदा पथ्य का सेवन नहीं करता। वैसे ही, यदि आचार्य दण्डी काव्य का निरुपण कर रहे हैं, तो कभी भी दोषयुक्त काव्य को उत्तम काव्य नहीं कह सकते और ‘दशकुमारचरितम्’ उनका आरभिक काव्य है। जैसे ‘ऋतुसंहार’ महाकवि कालिदास की अन्य रचनाओं की तरह प्रौढ़ नहीं है, क्योंकि वह उनकी आरम्भिक रचना है। अतएव केवल उपर्युक्त तथ्य के आधार पर यह कहना सर्वथा गलत होगा कि ‘दशकुमारचरितम्’ दण्डी की रचना नहीं है।

दूसरा तर्क दिया जाता है कि ‘दशकुमारचरितम्’ की शैली बहुत क्लिष्ट और समासबहुल है। वहीं काव्यादर्श की शैली सरल और समाम रहित है। अतएव यह (दशकुमारचरितम्) उनकी रचना नहीं हो सकती। किन्तु ऐसे विचारक यह भूल जाते हैं कि‘काव्यादर्श’ पद्यशैली में लिखा काव्यशास्त्र का ग्रंथ है, जबकि‘दशकुमारचरितम्’ गद्यशैली में लिखा कथाकाव्य है। आचार्य दण्डी स्वयं ‘काव्यादर्श’ में समासबहुल ओज को गद्य का जीवन मानते हैं:

ओजः समासभूयस्वमेतद्गद्यस्य जीवितम्।

अतएव ‘दशकुमारचरितम्’, ‘काव्यदर्श’ और‘अवन्तिसुन्दरीकथा’ तीनों ग्रंथ निर्वाद रुप से आचार्य दण्डी के ही हैं।

दण्डी केवल काव्यशास्त्र के आचार्य ही नहीं, एक महाकवि भी हैं। किसी कवि ने तो बाल्मीकि और व्यास के बाद तीसरे महाकवि के रूप में इन्हें याद किया हैः

जाते जगति बाल्मीकौ कविरित्यभिधाऽभवत्।

कवी इती ततो व्यासे कवयस्तवयि दण्डिनि।।

इसमें दो राय नहीं कि यह अतिशयोक्ति है, लेकिन इससे इतना सत्य अवश्य निकलता है कि दण्डी महाकवि के रुप में भी प्रसिद्ध हैं। वैसे भी, महाकवि दण्डी अपने पदलालित्य के लिए जाते हैं, महाकवि कालिदास उपमा के लिए, महाकवि भारवि अर्थगौरव के लिए और महाकवि माघ तीनों के लिएः

उपमा कालिदासस्य भारवेरर्थगौरवम्।

दण्डिनः पदलालित्यं माघे सन्ति त्रयो गुणाः।।

उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट है कि आचार्य दण्डी का काव्यशास्त्र का ग्रंथ ‘काव्यादर्श’ कितना महत्वपूर्ण है।‘काव्यादर्श’ में तीन परिच्छेद है। लेकिन प्रोफेसर रंगाचार्य द्वारा सम्पादित ग्रंथ में दोषनिरूपण को अलग करके चौथा परिच्छेद बनाया गया है।

‘काव्यादर्श’ का दक्षिणी भारत में अधिक प्रभाव होने के कारण (कन्नड़ भाषा में काव्यशास्त्र पर लिखे ग्रंथों में ‘काव्यादर्श’ का प्रभाव दिखाई पड़ता है) तथा स्वयं इनके द्वारा दक्षिणात्यों की प्रशंसा करने के कारण आचार्य दण्डी को लोग दक्षिणी भारत का मानते हैं।

काव्यादर्श पर कई टीकाएँ लिखी गयी हैं। टीकाकारों में प्रेमचन्द्र तर्कवागीश, तरुणवाचस्पति, महामहोपाध्याय हरिनाथ, कृष्णकिंकर तर्कवागीश, वादिङ्घल और मल्लिनाथ मुख्य हैं। इससे स्पष्ट है कि ‘काव्यादर्श’ काफी लोकप्रिय ग्रंथ रहा है।

आज का विचार

आज का विचार :: विश्वास

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विश्वास वह पक्षी है जो प्रभात के पूर्व अंधकार में ही प्रकाश का अनुभव करता है और गाने लगता है।                         -रवींद्रनाथ ठाकुर

सोमवार, 26 अप्रैल 2010

काव्य शास्त्र-6 :: आचार्य भामह

आचार्य भामह :: -- आचार्य परशुराम राय

आचार्य भामह का काल निर्णय भी अन्य पूर्ववर्ती आचार्यों की तरह विवादों के घेरे में रहा है। आचार्य भरतमुनि के बाद प्रथम आचार्य भामह ही हैं जिनका काव्यशास्त्र पर ग्रंथ उपलब्ध है। आचार्य भामह के काल निर्णय के विवाद को निम्नलिखित मतों में विभाजित कर सकते हैः-

1. कालिदास पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

2. माघ पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

3. भाष पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

4. भट्टि पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

5. दण्डी पौर्वापर्य (पूर्ववर्ती/परवर्ती) मत

आचार्य भामह ने ‘अयुक्तिमत्’ दोष के उदाहरण में मेघ आदि निर्जीव चीजों को दूत बनाने उल्लेख किया है। इसके आधार पर कतिपय विद्धान महाकवि कालिदास द्वारा विरचित खण्डकाव्य ‘मेघदूतम्’ से सम्बन्ध जोड़ते हुए आचार्य भामह को महाकवि कालिदास का उत्तरवर्ती आचार्य मानते हैं। वैसे डॉ टी. गणपति शास्त्री आदि अनेक विद्वान इस मत से सहमत नहीं हैं। इसके लिए प्रमाण स्वरूप इनका कहना है कि आचार्य भामह ने मेधावी, रामशर्मा, अश्मकवंश, रत्नाहरण आदि कवियों/आचार्यों के नामों का उल्लेख अपने ग्रंथ में किया है और यदि कालिदास उनके पूर्ववर्ती होते तो वे उनके नाम का भी उल्लेख अवश्य करते। इस आधार यह दल आचार्य भामह को महाकवि कालिदास का पूर्ववर्ती मानता है। अन्य साक्ष्यों के परिप्रेक्ष्य में अन्तिम मत अधिक सशक्त है।

महाकविमाघ कृत ‘शिशुपालवधम्’ महाकाव्य के एक श्लोक में उन्होंने लिखा है कि जिस प्रकार सत्कवि शब्द और अर्थ दोनों की अपेक्षा करता है, वैसे ही राजनीतिज्ञ भाग्य और पौरुष दोनों चाहता है। आचार्य भामह ने काव्य को परिभाषित करते हुए ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’लिखा है। इसी आधार पर कुछ विद्वान आचार्य भामह को महाकवि माघ का पूर्ववर्ती मानते हैं। ऐसे ही अन्य युक्तियाँ दी गयीं हैं। ऐसी युक्तियों के आधार पर पूर्ववर्ती या उत्तरवर्ती होने का निर्णय न्याय संगत नहीं हैं।

ऐसी ही युक्तियों को आधार मानकर कुछ विद्वान आचार्य भामह को नाटककार भास का उत्तरवर्ती मानते हैं। क्योंकि आचार्य भामह ने वत्सराज उदयन की कथा का उल्लेख किया है और इसी कथा का वर्णन महाकवि भास द्वारा विरचित नाटिका ‘प्रतिज्ञायौगन्धरायण’ में आया है। जबकि इस कथा के अलावा अनेक कथाएँ ‘वृहत्कथा’ में मिलती हैं। हो सकता है कि आचार्य भामह ने‘वृहत्कथा’ के आधार पर वत्सराज उदयन की कथा का उल्लेख किया हो। क्योंकि ‘वृहत्कथा’ अत्यन्त प्रसिद्ध ग्रंथ-कथा साहित्य है। इसलिए मात्र इस आधार पर आचार्य भामह को भास का उत्तरवर्ती नहीं माना जा सकता।

इसी प्रकार अन्य मत भी ऐसी ही युक्तियों पर आधारित हैं। विभिन्न साक्ष्यों के आधार पर आचार्य भामह का कालनिर्णय छठवें विक्रमसंवत माना गया है। आचार्य भामह के माता-पिता, गुरु आदि के विषय में कोई प्रामाणिक विवरण उपलब्ध नहीं है।

अन्य ग्रंथों में आये उद्धरणों से पता चलता है कि इन्होने‘काव्यालंकार’ के अलावा छंद-शास्त्र और काव्यशास्त्र पर अन्य ग्रंथों की रचना की थी। किन्तु दुर्भाग्य से इनका केवल ‘काव्यालंकार’ ही मिलता है। राघवभट्ट ने‘अभिज्ञान-शाकुन्तलम्’ की टीका करते समय पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण आचार्य भामह के नाम से उद्धृत किया है जो काव्यालंकार’ में नहीं मिलता। इससे माना जाता है कि ‘काव्यालंकार’ के अलावा काव्यशास्त्र पर आचार्य भामह ने दूसरे ग्रंथ का भी प्रणयन किया था। लेकिन इस तर्क से सभी विद्वान सहमत नहीं हैं। यहाँ उन लक्षणों को उद्धृत किया जाता है।

पर्यायोक्तं प्रकारेण यदन्येनाभिधीयते।

वाच्य-वाचकशक्तिभ्यां शून्योनावगमात्मना।।

(भामह के नाम से राघवभट्ट द्वारा उद्धृत पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण (परिभाषा)

पर्यायोक्तं यदन्येन प्रकारेणाभिधीयते।

उवाच रत्नाहरणे वैद्यं शार्ङ्गधनुर्यथा।।

(उक्त अलंकार का लक्षण काव्यालंकार’ के अनुसार)

उक्त दोनों आरिकाओं के पूर्वाद्ध थोड़ा अन्तर के साथ समान हैं। इसमें एक सम्भावना बनती है कि काव्यालंकार की जो प्रति राघवभट्ट के हाथ लगी हो उसमें ‘पर्यायोक्त’ का लक्षण उस रूप में दिया गया हो। क्योंकि वर्तमान ‘काव्यालंकार’ में मिलने वाला पर्यायोक्त अलंकार का लक्षण अधूरा लगता है। अतएव लगता है कि दूसरी पंक्ति प्रतिलिपि करने में छूट गयी हो, जिसके आधार पर वर्तमान काव्यालंकार प्रकाशित हुआ है।

इस प्रकरण में जो दूसरा अन्तर देखने में आता है कि उक्त अलंकार के उदाहरण में ‘हयग्रीववधस्थ’ के एक श्लोक को उदाहरण के रूप में आचार्य भामह द्वारा उद्धृत करने का उल्लेख राघवभट्ट द्वारा किया गया है। परन्तु वर्तमान ‘काव्यालंकार’ में नहीं मिलता। इस सम्बन्ध उपर्युक्त उक्ति सार्थक लगती है, अर्थात् वर्तमान काव्यालंकार की पाण्डुलिपि करने में छूट गया हो।

आचार्य भामह के काव्यालंकार पर आचार्य उद्भट ने‘भामहविवरण’ नामक टीका लिखी थी, जो आज उपलब्ध नहीं है। केवल अन्य ग्रंथों में आए उद्धरणों से ही इसकी जानकारी मिलती है।

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आज का विचार

आज का विचार :: शिक्षा

 

See full size imageशिक्षा ही एक ऐसा दान है, जो जितना बाटोगे उतना ही बढ़ेगा।

रविवार, 25 अप्रैल 2010

काव्यशास्त्र-5 :: काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी

काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी :: आचार्य परशुराम राय

आचार्य भरतमुनि के बाद साहित्यशास्त्र के इतिहास पटल पर आचार्य भामह का काल छठवें विक्रम सम्वत का पूर्वार्ध माना गया। आचार्य भरतमुनि और आचार्य भामह के बीच लगभग छः- सात सौ वर्षों का एक लम्बा अन्तराल आता है। अन्य शास्त्रों में इस अवधि में अनेक ग्रंथों का प्रणयन हुआ, तो साहित्यशास्त्र का क्षेत्र सूना नहीं रहा होगा। निश्चित रूप से कई आचार्य हुए होंगे और कई ग्रंथ रचे गए होंगे। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि इस काल के कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। आचार्य मेधाविरुद्र द्वारा उपमालंकार के दोषों का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है, जिसका उल्लेख आचार्य भामह ने स्वयं अपने काव्यालंकार में उपमा अलंकार के दोषों को दर्शाते हुए किया है। उन्होंने आचार्य मेधावी के नाम का भी उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त वामन, दण्डी, रूद्रट, राजशेखर आदि आचार्यों ने भी अपने ग्रंथों में आचार्य मेधावी के नाम का उल्लेख करते हुए इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की चर्चा की है।

वर्तमान में आचार्य मेधावी का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। चूंकि आचार्य भामह ने अपने ग्रंथ में इनके नाम का उल्लेख किया है, तो यह निश्चित है कि ये उनके पूर्ववर्ती आचार्य हैं। इनके जीवन काल के सम्बन्ध में केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे आचार्य भरत और आचार्य भामह के बीच में आते हैं।

परवर्ती आचार्यों ने आचार्य मेधावी को निम्नलिखित तीन सिद्धांतों के निरूपण हेतु याद किया हैः

1.उपमादोष निरूपण

2.यथासंख्य अलंकार को उत्प्रेक्षा से अलग अलंकार मानना।

3.पाँच के स्थान पर केवल चार शब्द विभाग मानना अर्थात नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात।

(शब्द के पाँच विभाग हैं- नाम, आख्यात (क्रिया), उपसर्ग, निपात, कर्मप्रवचनीय - वे उपसर्ग या अव्यय, जो क्रियाओं के साथ सम्बद्ध न होकर संज्ञाओं का शासन करते हैं।)

आचार्य मेधावी अन्तिम विभाग अर्थात् कर्मप्रवचनीय को नहीं मानते। निरुक्तकार महर्षि यास्क का मत भी यही है।

आचार्य मेधाविरुद्र के ग्रंथों की अनुपलब्धि साहित्यशास्त्र के लिए बहुत बड़ी क्षति है।

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आज का विचार

 

आज का विचार :: क्रोध

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जो मन की पीड़ा को स्पष्ट रूप से कह नहीं सकता उसी को क्रोध अधिक आता है।

शनिवार, 24 अप्रैल 2010

गंगावतरण भाग चार

भगीरथ घर छोड़कर हिमालय के क्षेत्र में आए। इन्‍द्र की स्‍तुति की। इन्‍द्र को अपना उद्देश्‍य बताया। इन्‍द्र ने गंगा के अवतरण में अपनी असमर्थता प्रकट की। साथ ही उन्‍होंने सुझाया कि देवाधिदेव की स्‍तुति की जाए। भागीरथ ने देवाधिदेव को स्‍तुति से प्रसन्‍न किया। देवाधिदेव ने उन्‍हें सृष्टिकर्ता की आराधना का सुझाव दिया। क्योंकि गंगा तो उनके ही कमंडल में थी।

दिलीप के पुत्र भागीरथ ने गोकर्ण नामक तीर्थ में जाकर ब्रह्मा की कठिन तपस्या की। तपस्या करते करते कितने ही वर्ष बीत गये। ब्रह्माजी ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर गंगा जी को पृथ्वी पर लेजाने का वरदान दिया।

प्रजापति ने विष्‍णु आराधना का सुझाव दिया। विष्‍णु को भी अपनी कठिन तपस्‍या से भागीरथ ने प्रसन्‍न किया। इस प्रकार ब्रह्मा, विष्‍णु और महेश तीनों ही भगीरथ के प्रयत्‍न से संतुष्‍ट हुए। और अंत में भगीरथ ने गंगा को भी संतुष्‍ट कर मृत्‍युलोक में अवतरण की सम्‍मति मांग ली।

विष्‍णु ने अपना शंख भगीरथ को दिया और कहा कि शंखध्‍वनि ही गंगा को पथ निर्देश करेगी। गंगा शंखध्‍वनि का अनुसरण करेगी। इस प्रकार शंख लेकर आगे-आगे भगीरथ चले और उनके पीछे-पीछे पतितपावनी, त्रिपथगामिनी, शुद्ध सलिल गंगा।

ब्रह्म लोक से अवतरण के समय, गंगा सुमेरू पर्वत के बीच आवद्ध हो गयी। इस समय इन्‍द्र ने अपना हाथी ऐरावत भगीरथ को दिया। गजराज ऐरावत ने सुमेरू पर्वत को चार भागों में विभक्‍त कर दिया। जिसमें गंगा की चार धाराएं प्रवाहित हुई। ये चारों धाराएं वसु, भद्रा, श्‍वेता और मन्‍दाकिनी के नाम से जानी जाती है। वसु नाम की गंगा पूर्व सागर, भद्रा नाम की गंगा उत्तर सागर, श्‍वेता नाम की गंगा पश्चिम सागर और मंदाकिनी नाम की गंगा अलकनन्दा के नाम से मृत्‍युलोक में जानी जाती है।

DecentoftheGanga सुमेरू पर्वत से निकल कर गंगा कैलाश पर्वत होती हुई प्रबल वेग से पृथ्वी पर अवतरित होने लगी। वेग इतना तेज था कि वह सब कुछ बहा ले जाती। अब समस्या यह थी कि गंगाजी के वेग को पृथ्वी पर कौन संभालेगा? ब्रह्माजी ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के अलावा और किसी में इस वेग को संभालने की शक्ति नही है। इसलिये गंगा का वेग संभालने के लिये भगवान शंकर से अनुग्रह किया जाये। महाराज भागीरथ ने एक अंगूठे पर खडे होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकरजी अपनी जटाओं में गंगाजी को संभालने के लिये तैयार हो गये। गंगा के प्रबल वेग को रोकने के लिए महादेव ने अपनी जटा में गंगा को धारण किया। इस प्रकार गंगा अपने अहंभाव के चलते बारह वर्षों तक शंकर की जटा में जकड़ी रही।

 DSCN0464 भगीरथ ने अपनी साधना के बल पर शिव को प्रसन्‍न कर कर गंगा को मुक्‍त कराया। भगवान शंकर पृथ्वी पर गंगा की धारा को अपनी जटा को चीर कर बिन्‍ध सरोवर में उतारा। यहां सप्‍त ऋषियों ने शंखध्‍वनि की। उनके शंखनाद से गंगा सात भागों में विभक्‍त हो गई। मूलधारा भगीरथ के साथ चली। महाराज भागीरथ के द्वारा गंगाजी हिमालय की घाटियों से कल कल का विनोद स्वर करतीं हुई मैदान की तरफ़ बढीं। आगे आगे भागीरथ जी और पीछे पीछे गंगाजी। यह स्‍थान हरिद्वार के नाम से जाना जाता है।

IMG_5924 हरिद्वार के बाद गंगा की मूलधारा भगीरथ का अनुसरण करते हुए त्रिवेणी, प्रयागराज, वाराणसी होते हुए जह्नु मुनि के आश्रम पहुँची। भगीरथ की बाधाओं का यहां भी अंत न था। संध्‍या के समय भगीरथ ने वहीं विश्राम करने की सोची। परन्‍तु भगीरथ को अभी और परीक्षा देनी थी। संध्‍या की आरती के समय जह्नु मुनि के आश्रम में शंखध्‍वनि हुई। शंखध्‍वनि का अनुसरण कर गंगा जह्नु मुनि का आश्रम बहा ले गई। ऋषि क्रोधित हुए। उन्‍होंने अपने चुल्‍लु में ही भर कर गंगा का पान कर लिया। भगीरथ अश्‍चर्य चकित होकर रह गए। उन्‍होंने ऋषि की प्रार्थना शुरू कर दी। प्रार्थना के फलस्‍वरूप गंगा मुनि के कर्ण-विवरों से अवतरित हुई। गंगा यहां जाह्नवी के नाम से प्रसिद्ध हुई।

यह सब देख, कोतुहलवश जह्नुमुनि की कन्‍या पद्मा ने भी शंखध्‍वनि की। पद्मा वारिधारा में परिणत हो गंगा के साथ चली। मुर्शिदाबाद में घुमियान के पास भगीरथ दक्षिण मुखी हुई। गंगा की धारा पद्मा का संग छोड़ शंखध्‍वनि से दक्षिण मुखी हुई। पद्मा पूर्व की ओर बहते हुए वर्तमान बांग्लादेश को गई। दक्षिण गामिनी गंगा भगीरथ के साथ महामुनि कपिल के आश्रम तक पहुँची। ऋषि ने वारि को अपने मस्‍तक से लगाया और कहा, हे माता पतित28032010104पावनी कलि कलुष नाशिनी गंगे पतितों के उद्धार के लिए ही आपका पृथ्‍वी पर अवतरण हुआ है। अपने कर्मदोष के कारण ही सगर के साठ हजार पुत्र क्रोधग्नि के शिकार हुए। आप अपने पारसरूपी पवित्र जल से उन्‍हें मुक्ति प्रदान करें। मां वारिधारा आगे बढ़ी। भस्‍म प्‍लावित हुआ। सगर के साठ हजार पुत्रों का उद्धार हुआ। भगीरथ का कर्मयज्ञ सम्‍पूर्ण हुआ। वारिधारा सागर में समाहित हुई। गंगा और सागर का यह पुण्‍य मिलन गंगासागर के नाम से सुप्रसिद्ध हुआ। 28032010110

आज का विचार

आज का विचार :: अहंकार

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जो भी मनुष्य अहंकार करता है उसका एक न एक दिन पतन अवश्य होगा।

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

गंगावतरण – भाग - ३

राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े। उन्‍होंने पूरी पृथ्वी छान मारी, किन्तु यज्ञ के घोड़ा का पता न लग सका। थक हार कर वे अयोध्‍या वापस लौट आए। उन्होंने राजा को पूरा वृतांत सुनाया। राजा सगर ने उन्‍हें पाताल लोक में खोजने का आदेश दिया। पुत्रों ने आज्ञा का पालन किया। पाताल लोक में खोजते-खोजते वे एक निविड़, शांत और पवित्र स्‍थल पर पहुंचे। उन्‍होंने देखा एक दिव्‍य साधु अपनी साधना में लीन है। उसी आश्रम में उन्हें यज्ञ का घोड़ा भी दिखा। उनके आश्‍चर्य का ठिकाना न रहा। सगर के पुत्रों को लगा कि इसी व्‍यक्ति ने घोड़े को चुरा कर यहां बांध रखा है। अब चोरी पकड़ी गई है तो युद्ध करने के भय से समाधि लगाने का ढोंग कर रहा है। सगर के पुत्रों को यह थोड़े ही पता था कि यह साधु साक्षात वासुदेव है। सगर के पुत्रों ने यह समझ कर कि घोड़े को महामुनि कपिल ही चुरा लाये हैं, कपिल मुनि को कटुवचन सुनाना आरम्भ कर दिया। राजा के पुत्रों ने कपिल मुनि को चोर चोर कहकर पुकारना शुरु कर दिया उन्‍होंने तरह-तरह के अत्‍याचार करना शुरू कर दिया। पर मुनि तो तपस्‍यारत थे। मुनि की तरफ से कोई उत्तर न पाकर वे क्रोधित हुए। सगर पुत्रों ने महामुनि की समाधि भंग कर दी। इससे महामुनि के क्रोध का पारावार न रहा। आग्‍नेय नेत्रों से उन्‍होंने सगर पुत्रों को देखा। अपने निरादर से कुपित हो चुके महामुनि की क्रोधाग्नि ने सगर के साठ हजार पुत्रों को जलाकर भस्‍म कर दिया!

45489 इधर शोक में डूबे राजा सगर के व्‍याकुलता की सीमा न रही। न पुत्र लौटे, न ही यज्ञ का घोड़ा। उन्‍होंने असमंज के पुत्र अंशुमान को यज्ञ का घोड़ा और साठ हजार पुत्रों का पता लगाने को कहा। अंशुमान आज्ञा का पालन करने हेतु निकल पड़ा। अंशुमान ढूंढते-ढूंढते पाताललोक में महामुनि कपिल के आश्रम पहुंचा। वहां पर मुनि को साधनारत देख हाथ जोड खड़े रहे। जब महा‍मुनि का ध्‍यान टूटा तो अपना परिचय देकर अपने आने का कारण और उद्देश्‍य बताया। अंशुमान की विनयशीलता एवं मृदु व्यवहार ने महामुनि कपिल को प्रभावित किया। उन्‍होंने सारी घटना अंशुमान को बताया। यह सुनते ही अंशुमान का दिल बैठ गया। दुख, व्‍यथा और आंसू भरे नयनों से अंशुमान ने मुनि को प्रणाम किया और बोले कि मुने! कृपा करके हमारा अश्व लौटा दें और हमारे दादाओं के उद्धार का कोई उपाय बतायें।

ऋषि ने कहा भष्‍म में परिवर्तित हो चुके सगर के साठ हजार पुत्रों की आत्‍मा की मुक्ति के लिए त्रिलोक तारिणी, त्रिपथ गामिनी गंगा का पृथ्‍वी पर अवतरण जरूरी है। गंगा की पुण्‍य वारिधारा ही सगर के पुत्रों को मुक्ति दिला सकती है। तुम्हारे दादाओं का उद्धार केवल गंगा के जल से तर्पण करने पर ही हो सकता है।

राजा सगर की पत्‍नी सुमति या शैव्‍या गरूड़ की सगी बहन थी। पक्षिराज गरूड़ ने भी अपने भांजों के कल्‍याण के लिए पतितपावनी गंगा के अवतरण की बात ही कही। उन्होने अंशुमान को बताया कि अगर उनकी मुक्त चाहिये तो गंगाजी को पृथ्वी पर लाना पडेगा। इस समय यज्ञ के घोडे को ले जाकर पिता का यज्ञ पूरा करवाओ, इसके बाद गंगा को पृथ्वी पर लाने का कार्य करना।

यज्ञ के घोड़े को लेकर अंशुमान अयोध्‍या वापस आया। सारी बातों से उसने राजा सगर को अवगत कराया। राजा सगर ने अपने यज्ञ पूरा किया। यज्ञ पूर्ण होने पर राजा सगर अंशुमान को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये उत्तराखंड चले गये। इस प्रकार अपने जीवन का शेष समय उन्‍होंने गंगा के पृथ्‍वी पर अवतरण हेतु साधना में लगाया। पर सफल न हो सके।

राजा सगर के बाद उनके पौत्र अंशुमान सत्तासीन हुए। अंशुमान के पुत्र का नाम दिलीप था। दिलीप के बड़े होने पर अंशुमान भी दिलीप को राज्य सौंप कर गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के उद्देश्य से तपस्या करने के लिये चले गये किन्तु वे भी गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफल न हो सके।

अंशुमान के बाद उनके पुत्र दिलीप भी अपनी सारी उर्जा गंगा को मृत्‍युलोक में अवतरण कराने के प्रयास में लगा दिया। पर सगर, अंशुमान और दिलीप के प्रयास गंगा को पृथ्‍वी पर लाने में सफलता नहीं दिला पाया।

राजा दिलीप निःसंतान थे। उनकी दो रानियां थी। वंश ही न खत्‍म हो जाए इस भय से दोनों रानियों ने ऋषि और्व के यहां शरण ले ली। ऋषि के आदेश से दोनों रानियों ने आपस में संयोग किया जिसके परिणामस्‍वरूप एक रानी गर्भवती हुई।

smalltiled_lizard_scales प्रसव के बाद एक मांसपिण्‍ड का जन्म हुआ। इस मांसपिण्‍ड का कोई निश्चित आकार नहीं था। रानी ने ऋषि और्व को सारी बात बताई। ऋषि ने आदेश दिया कि मांसपिण्‍ड को राजपथ पर रख दिया जाए। ऐसा ही किया गया।

अष्टवक्र मुनि स्‍नान करके अपने आश्रम लौट रहे थे। राजपथ पर उन्‍होंने मांसपिण्‍ड को फड़कते देखा। उन्‍हें लगा कि यह मांसपिण्‍ड उन्‍हें चिढ़ा रहा है। उन्‍होंने शाप दिया, “यदि तुम्‍हारा आचारण, स्‍वाभाव सिद्ध हो, तो तुम सर्वांग सुन्‍दर होओ और यदि मेरा उपहास कर रहे हो तो मृत्‍यु को प्राप्त हो।”

ऋषि का वचन सुनते ही मांसपिण्‍ड सर्वांग सुन्‍दर युवक में बदल गया। वह युवक चूंकि दोनों रानियों के संयोग से जन्‍म लिया था इसलिए उसका नाम हुआ भागीरथ।

sunrise माता ने भागीरथ के पूवर्जों की कथा सुनाई। भगीरथ चिंता में पड़ गए। किस तरह पूर्वजों का उद्वारा किया जाए? उनके सामने दुविधा थी, एक तरफ सांसरिक बंधन, तो दूसरी तरहफ पूर्वजों की मुक्ति का प्रश्‍न। उन्‍होंने पूर्वजों का उद्वारा को श्रेयस्‍कर समझा। इस हेतु प्राप्ति के लिए राज्य का भार मंत्रियों पर छोड़ वंश-उद्वार के लिए निकल पड़े।

आज का विचार

आज का विचार
जब तक तुम्हें अपना सम्मान और दूसरों का अपमान सुख देता रहेगा तब तक तुम अपमानित होते रहोगे।

गुरुवार, 22 अप्रैल 2010

गंगावतरण – भाग-२

श्रीमद भगवत में गंगावतरण की कथा है। प्राचीन काल की बात है। अयोध्‍या में इक्ष्‍वाकु वंश के राजा सगर राज करते थे। वे बड़े ही प्रतापी, दयालु, धर्मात्‍मा और प्रजा हितैषी थे।

सगर का शाब्दिक अर्थ है विष के साथ जल। हैहय वंश के कालजंघ ने सगर के पिता वाहु को एक संग्राम में पराजित कर दिया था। राज्‍य से हाथ धो चुके वाहु अग्नि और्व ऋषि के आश्रम चले गए।

इसी समय वाहु के किसी दुश्‍मन ने उनकी पत्‍नी को विष खिला दिया। जब उन्‍हें जहर दिया गया तो वो गर्भवती थी। ऋषि और्व को जब यह पता चला तो उन्‍होंने अपने प्रयास से वाहु की पत्‍नी को विषमुक्‍त कर जान बचा ली। इस प्रकार भ्रूण की रक्षा हुई और समय पर सगर का जन्‍म हुंआ। विष को गरल कहते हैं। चूकिं बालक का जन्म गरल के साथ हुआ था इस लिए वह स + गर = सगर कहलाया।

सगर के पिता वाहु का और्व ऋषि के आश्रम में ही निधन हुआ। सगर बड़े होकर काफी बलशाली और पराक्रमी हुए। उन्‍होंने अपने पिता का खोया हुआ राज्‍य वापस अपने बल और पराक्रम से जीता। इस प्रकार सगर ने हैहयों को जीत कर अपने पिता की हार का बदला लिया।

ऋषि अग्नि अर्व हैहयों के परंपरागत शत्रु थे। उन्‍होंने भी सगर को हैहयों के विरूद्ध संग्राम में हर प्रकार की सहायता प्रदान की। सगर की दो पत्‍नियां थी वैदर्भी और शैव्या। राजा सगर ने कैलाश पर्वत पर दोनों रानियों के साथ जाकर भगवान शंकर की कठिन तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उनसे कहा कि तुमने पुत्र प्राप्ति की कामना से मेरी आराधना की है। अतएव मैं तुम्हें वरदान देता हूँ कि तुम्हारी एक रानी के साठ हजार पुत्र होंगे किन्तु दूसरी रानी से तुम्हारा वंश चलाने वाला एक ही सन्तान होगा।

वैदभी के गर्भ से मात्र एक पुत्र था उसका नाम था असमंज। वे बड़े दुष्‍ट और प्रजा को दुख पहुंचाने वाले थे। जबकि सगर अत्यंत ही धार्मिक सहिष्‍णु और उदार थे। सगर के लिए असमंज का व्‍यवहार बड़ा ही दुख देने वाला था। जब उसकी आदतें नहीं सुधरी तो सगर ने असमंज को त्‍याग दिया।

असमंज के औरस से अंशुमान का जन्‍म हुआ। वह बहुत ही पराक्रमी था। अंशुमान ने अश्‍वमेघ और राजसूय यज्ञ सम्‍पन्‍न कराया और राजर्षि की उपाधि प्राप्‍त की।

शैव्‍या के गर्भ से साठ हजार पुत्र उत्‍पन्‍न हुए। सभी काफी वीर और पराक्रमी थे। उनके ही बल पर सगर ने मध्‍यभारत में एक विशाल साम्राज्‍य की स्‍थापना की।

सगर न सिर्फ बहुबली और पराक्रमी थे, बल्कि धार्मिक प्रकृति के व्‍यक्ति भी थे। वे ऋषियों महर्षियों का काफी आदर सत्‍कार और सम्‍मान किया करते थे। वशिष्‍ठ मुनि ने सगर को सलाह दी की अश्‍वमेघ यज्ञ का अनुष्‍ठान करें ताकि उनके साम्राज्‍य का विस्तार हो।

ऐसी मान्‍यता है कि प्राचीन काल में किए जाने वाले यज्ञानुष्‍ठानों में अश्‍वमेघ यज्ञ और राजसूय यज्ञ सर्वश्रेष्‍ठ थे। उन दिनों बड़े व प्रतापी और पराक्रमी सम्राट ही अश्‍वमेघ यज्ञ का आयोजन करते थे। इस यज्ञ में 99 यज्ञ सम्‍पन्‍न होने पर एक बहुत अच्‍छे गुणों वाले घोड़े पर जयपत्र बांध कर छोड़ दिया जाता था। उस पत्र पर लिखा होता था कि घोड़ा जिस जगह से गुजरेगा वह राज्‍य यज्ञ करने वाले राजा के अधीन माना जाएगा। जो राजा या जगह स्‍वामी अधीनता स्‍वीकार नहीं करते थे, वे उस घोड़े को रोक लेते थे और युद्ध करते थे।

घोड़े के साथ हजारों सैनिक साथ साथ चलते थे। एक वर्ष पूरा होने पर घोड़ा वापस लौट आता था। इसके बाद उसकी बलि देकर यज्ञ पूर्ण होता था। महाराजा सगर ने अपने यज्ञ के घोड़े श्यामकर्ण की सुरक्षा के लिए हजारो सैनिकों की व्‍यवस्‍था की थी। वीर बाहुबलि सैनिक घोडे़ के साथ निकले, और आगे बढ़ते रहे। सगर का प्रताप चतुर्दिक फैल रहा था। जगह जगह उनके बल-पराक्रम और शौर्य की चर्चा होने लगी।

इससे देवराज इन्‍द्र को शंका हुई। सगर के इस अश्वमेघ यज्ञ से भयभीत होकर इन्‍द्र यह सोचने लगे कि अगर यह अश्‍वमेघ यज्ञ सफल हो गया तो यज्ञ करने वाले को स्‍वर्गलोक का राजपाट मिल जाएगा। इन्‍द्र ने यज्ञ के घोड़े को अपने मायाजाल के बल पर चुरा लिया। इतना ही नहीं उन्‍होंने इस घोड़े को पाताललोक में तपस्‍यारत महामुनि कपिल के आश्रम में छिपा दिया। उस समय मुनि गहन साधना में लीन थे। फलतः उन्‍हें पता ही नहीं लगा कि क्‍या हो रहा है?

एक साल पूरा होने को जब आया तो घोड़ा न लौटा सगर चिन्‍तित हो उठे। राजा सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को यज्ञ के घोड़े की खोज कर लाने का आदेश दिया। ये पुत्र यज्ञ के घोड़े की खोज में निकल पड़े।

आज का विचार

 

भलाई

बुराई करने के अवसर तो दिन में सौ बार आते हैं, पर भलाई का अवसर वर्ष में एक बार आता है।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

गंगावतरण - भाग-एक

सर्वत्र पावनी गंगा त्रिषु स्थानेषु दुर्लभा।

गंगा द्वारे, प्रयागे च गंगासागर संगमे॥

image गंगासागर की यात्रा की चर्चा के क्रम में हमने आपका सागर द्वीप से परिचय कराया था। हमारे लिये गंगा मात्र एक नदी ही नहीं, हमारे देश की आत्मा है। हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक है। हम तो उसे अपने देश की अस्मिता के साथ जोड़कर देखते हैं। भारत की राष्ट्र-नदी गंगा जीवन ही नहीं, अपितु मानवीय चेतना को भी प्रवाहित करती है। ग्रंथों में गंगा का वर्णन अनेक रूपों में मिलता है। भगीरथनंदिनी, विष्णुपदसरोजजा और जाह्न्वी के रूप में गंगा नर-नागों, देवताओं और ऋषिओं मुनियों के लिए वंदनीय है। गंगा के उद्भव (विष्णुपद), वास (ब्रह्म कमण्डल), विकास (भगीरथ नंदिनी), प्रवाह(जाह्न्वी) एवं प्रभाव (कल्पथालिका) का वर्णन है।

गंगा नदी के महत्व को सभी स्वीकार करते हैं; क्योंकि गंगा किसी में कोई भेद नहीं करती है। सभी को एक सूत्र में पिरोती है और एक सूत्र में बाँधे रखने का संकल्प प्रदान करती है गंगा।

हम उसे मां कहते हैं – गंगा मैय्या! गंगा जीवन तत्त्व है, जीवन प्रदायिनी है, इसीलिए माँ है। तभी तो उसे पवित्रतम नदी की संज्ञा देते हैं। गंगा को पुण्य सलिला, पाप-नाशिनी, मोक्ष प्रदायिनी, सरित् श्रेष्ठा एवं महानदी कहा गया है। आज उस नदी की जीवन्तता पर प्रदूषण से बहुत बड़ा खतरा मंडरा रहा है। हम उसके विनाश का कारण न बनें। कितनी मुश्किलों से हमारे पूर्वजों ने गंगा को पृथ्वी पर लाया।

image गंगा का पृथ्वी पर अवतरण की अनेक कथाएं प्रचलित हैं। ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार गंगा को लक्ष्मी और सरस्वती के साथ विष्णु की पत्नी मना गया है। ऐसा बताया गया है कि आपसी कलह और शत्रुता के कारण ये तीनों मृत्युलोक में नदी के रूप में चली आईं। ये तीन नदियां हैं – गंगा, पद्मा और सरस्वती।

एक अन्य कहानी के अनुसार गंगा के पृथ्वी पर अवतरण में नारद जी का हाथ है। कहा गया है कि महर्षि नारद को अपने संगीत के ज्ञान पर काफ़ी घमंड था। उनको लगता था कि उनके जैसा पहुंचा हुआ संगीतज्ञ कोई और नहीं है। घमंड में चूर वो संगीत का उलटा-पुलटा अभ्यास करते थे। न राग का ख़्याल था उन्हें न रागिनियों का। पूरा संगीत शास्त्र ही उन्होंने विकृत कर रखा था।

उनके इस व्यवहार से राग-रागिनियां अत्यंत दुखी हो गयीं। उन्होंने अपने विचार नारद मुनि को बताया। पर नारद तो घमंड में चूर थे। उन्हें लगता कि वे जो भी कर रहे हैं सब ठीक है। अपनी ग़लती वो पकड़ ही नहीं पा रहे थे। संगीत का समान्य ज्ञान था नारद के पास। पर उतने पर ही वे अहंकारी हो गये थे। अपने अल्प ज्ञान पर किसी को अहंकारी नहीं होना चाहिए। बल्कि उसे तो और अधिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए सतत प्रयत्नशील रहना चाहिए। संगीत साधना कोई छोटी-मोटी साधना नहीं है। इसे नादब्रह्म कहा गया है। संगीत साधना हो या अन्य कोई साधना – हमें सदैव अहंकार से दूर रहना चाहिए। सधना में जितनी विनम्रता होगी हम उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त कर सकेंगे। अहंकार से तो नाश ही होता है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हैं नारद, जिनके जैसे साधक को भी पतन का सामना करना पड़ा।

image इधर राग-रागिनियां नारद के अहंकारी स्वभाव के चलते विकलांग होती गयी थीं। यह ख़बर देवताओं तक पहुंची। तब यह निश्चय हुआ कि यदि देवाधिदेव महादेव संगीताभ्यास करें तो राग-रागिनियां सामान्य हो सकेंगी। महादेव राज़ी हो गये। वो देवसभा में राग-रागिनियों के कल्याण हेतु गा रहे थे। पर उनके संगीत का स्तर काफ़ी शास्त्रीय था, उच्च था। उनके इस रस-गांभीर्य को समझने की क्षमता किसमें थी?! कुछ हद तक विष्णु की समझ में आ रहा था। पुराण में यह वर्णित है कि महादेव के गायन से जो संगीत-लहरी उठी उससे विष्णु भगवान के पैर का अंगुठा गल कर जल बन गया। और उस जल से पूरा देवलोक प्लावित हो गया। इस द्रव को ब्रह्मा जी ने अत्यंत सावधानी के साथ, अपने कमंडल में भरकर रख लिया। इसी जल को, जो ब्रह्मा के कमंडल में था, भगीरथ अपनी अथक तपस्या के बल पर पृथ्वी पर लाए ताकि सगर के पुत्रों का कल्याण हो सके। चूंकि यह जल विष्णु के पैर के विगलित होने से बना था, इसी कारण से गंगा का एक नाम विष्णुपदी भी है। विष्णुपदी गंगे सभी लोकों को पवित्र करने वाली, अघ ओघ की बेड़ियों को काटने वाली, पतितों का उद्धार करने वाली तथा दुःखों को विदीर्ण करने वाली है।

आज का विचार

अध्ययन

मस्तिष्क के लिए अध्ययन की उतनी ही आवश्यकता है जितनी शरीर को व्यायाम की।

मंगलवार, 20 अप्रैल 2010

सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार .......भाग -चार - कर्दम ऋषि

कर्दम ऋषि को ब्रह्माजी का मानसपुत्र माना जाता है। ब्रह्मा जी के अंश से कर्दम मुनि हुए। वे प्रजापतियों में गिने जाते हैं। उन्‍हें ब्रह्माजी ने आदेश दिया था कि तुम प्रजा की सृष्टि करो। योग्‍य संतान प्राप्‍त हो इसके लिए उन्‍होंने कठोर तपस्‍या की। गुजरात अहमदाबाद के निकट प्रसिद्ध तीर्थ स्‍थल है बिन्‍दुसार। यही ऋषि कर्दम की तपोभूमि है। इस तप से प्रसन्‍न हो शब्‍दब्रतरूप स्‍वयं नारायण अवतरित हुए। कर्दम ऋषि की तपस्‍या और साधना को देखकर भगवान की आंखों से आनन्‍द के आंसू गिरे। उससे बिन्‍दु सरोवर पवित्र हो गया।

भगवान ने कर्दम ऋषि से कहा “चक्रवर्ती सम्राट मनु, पत्‍नी शपरूपा के साथ अपनी पुत्री देवहूति को लेकर तुम्‍हारे ज्ञान आश्रम में आएंगे। उसका पाणिग्रहण कर लेना। ”

कालान्‍तर में वैसा ही हुआ। सबसे पहले मनु ( स्वयंभू मनु ) और उनकी पत्नी शतरूपा ब्रह्मा जी के अलग अलग दो भागो से प्रगट हुए। इनकी तीन बेटिया हुई। आकूति , प्रसूति और देवहूति। आकूति का विवाह रुचि प्रजापति से हुआ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति से हुआ। ये वही दक्ष हैं जो माता पार्वती के पूर्वजन्म में उनके पिता थे और भगवान् शिव के पार्षद वीरभद्र ने जिनका यज्ञ विध्वंश किया था।

कर्दम मुनि का विवाह मनु जी की तीसरी बेटी देवहूति से हुआ। राजकुमारी देवहूति ने कर्दम ऋषि के साथ उस तपोवन में रहकर पति की सेवा करती रही। राजपुत्री होने का जरा भी उन्‍हें अभिमान नहीं था। कर्दम ऋषि काफी प्रसन्‍न एवं संतुष्‍ट हुए। उन्‍होंने पत्‍नी देवहूति को देवदुर्लभ सुख प्रदान किया।

परम तेजस्वी दम्पति के गृहस्‍थ धर्म में पहले नौ कन्याओं का जन्म हुआ। इन नौ कन्याओं का विवाह ब्रह्मा जी के अंश से उत्पन्न नौ ऋषिओं से हुआ ।

(1) कला - मरीचि ऋषि के साथ विवाहित

(2) अनुसूया - अत्रि ऋषि के साथ विवाहित

(3) श्रद्धा - अड्गिंरा ऋषि के साथ विवाहित

(4) हविर्भू - पुलस्‍त ऋषि के साथ विवाहित

(5) गति - पुलह ऋषि के साथ विवाहित

(6) क्रिया - क्रत्तु ऋषि के साथ विवाहित

(7) ख्‍याति - भृगु ऋषि के साथ विवाहित

(8) अरूंधति - वशिष्‍ठ ऋषि के साथ विवाहित

(9) शान्ति देवी - अथर्वा ऋषि के साथ विवाहित

कर्दम ऋषि ने सन्‍यास लेना चाहा तो ब्रह्माजी ने उन्‍हें समझाया कि अब तुम्‍हारे पुत्र के रूप में स्‍वयं मधुकैटभ भगवान कपिलमुनि पधारने वाले हैं। प्रतीक्षा करो।

कर्दम एवं देवहूति की तपस्‍या के फलस्‍वरूप भगवान श्री कपिलमुनि उनके गर्भ से प्रकट हुए।

बाद में पिता के वन चले जाने के पश्‍चात कपिलमुनि ने अपनी माता देवहूति को सांख्‍यशास्‍त्र के बारे में जानकारी दी और उन्‍हें मोक्षपद की अधिकारिणी बनाया।

आज का विचार – 28

आज का विचार – 28 :: मार्गदर्शन

प्रत्येक व्यक्ति में, अपना अच्छा-बुरा सोचने की क्षमता होती है। लेकिन जीवन को सही रास्ते पर ले जाने के लिये किसी योग्य व्यक्ति का अनुभवी मागदर्शन भी ज़रूरी है। आख़िर एकलव्य को भी श्रेष्ठ धनुर्धर बनने के लिये मूर्ति ही सही, लेकिन गुरु की आवश्यकता तो पड़ी ही थी।

सोमवार, 19 अप्रैल 2010

सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार .......भाग -तीन - सांख्‍य दर्शन

भारतीय दर्शन के छ प्रकारों संख्या, योग, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा, न्याय एवं वैशेषिक में से एक है सांख्य। 'सांख्य' का शाब्दिक अर्थ है - 'संख्या सम्बन्धी'। सांख्य दर्शन के रचयिता कपिल मुनि माने जाते हैं। सांख्य दर्शन में सृष्टि की उत्पत्ति 'भगवान' के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है कि सृष्टि अनेक परिवर्तनों से गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है।

जीव की दुर्गति का कारण है --- आध्‍यात्मिक, अधिदैविक एवं अधिभौतिक पाप। भगवान कपिल ने इन तीनों दुःखों से मुक्ति का उपाय बतलाया है। सांख्य का अर्थ होता है ज्ञान।

सांख्‍य के अनुसार मूल तत्‍व 25 है। ये है

१. प्रकृति, २. महत् ३. अंहकार, ४. 11 इन्द्रियां, ५. पांच तन्मात्राएं, ६. पांच महाभूत और ७. पुरूष।

१. प्रकृति :

सत्व, रजः, तमः – इन तीन गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहा जाता है। इस अवस्था में प्रकृति निष्क्रिय रहती है। इन तीनों गुणों में जब कभी कमी आती है या बढोत्तरी होती है, तब उस विषमता से प्रकृति का संतुलन बिगड़ता है। उसमें विकृति आती है। प्रकृति की विकृति से ही जीव और जगत की सृष्टि होती है।

जीव और जगत अव्यक्त रूप में प्रकृति में विद्यमान रहते हैं। इसी कारण से प्रकृति का एक और नाम “अव्यक्त” है। सृष्टि आदि क्रिया में प्रकृति ही प्रधान है। वह प्रकृतरूप में काम करती है। प्रकृति बना है प्र और कृति के संयोग से। प्र का अर्थ है प्रकर्ष और कृति का अर्थ है निर्माण करना। जिन मूल तत्वों से मिलकर बाकी सब कुछ बनता है, उसे प्रकृति कहते हैं। इसी कारण से “प्रकृति” नाम पड़ा -- “प्रकरोरीति प्रकृतिः।”

२. महतः

प्रकृति का प्रथम परिणाम महत्तत्व या बुद्धितत्व है।

३. अहंकार:

महत्तव की विकृति अहंकारतत्व है।

४. ग्‍यारह इन्द्रियां:

अंहकार तत्‍व के परिणाम हैं इन्द्रिय --- विषय।

इन्द्रियां दो प्रकार की है –

(क) बाह्य इन्द्रियां – दो प्रकार की होती है –

(अ) ज्ञानेन्‍द्रियां

1 चक्षु

2 कर्ण

3 नासिका

4 जिह्वा

5 त्‍वक्

(आ) कर्मेन्द्रियां

1 वाक्

2 पाणि

3 पाद

4 पायु

5 उपस्‍थ

(ख) अन्‍तरेन्द्रिय – मन

(5) पंच मात्राएं

पंत्रतम्‍मात्रा अहंकारतत्‍व का एक परिणाम है। पांच तम्‍मात्राएं है --

1 रूप

2 रस

3 गन्‍ध

4 स्‍पर्श और

5 शब्‍द

(6) पंच महाभूत

उपर्युक्‍त वर्णित पंचतमात्रओं से ही पांच स्‍थूल त‍त्‍वों की उत्‍पति होती है। ये हैं –

1 क्षिति,

2 अप् (जल)

3 तेज (पावक)

4 व्‍योम (गगन , आकाश ) और

5 मरूत् (समीर)

(7) पुरूष

सांख्‍य मत के अनुसार इन 25 तत्‍वों का सम्‍यक ज्ञान ही पुरूषार्थ है।

  • सांख्‍य मत में, जीव और जगत की सृष्टि में ईश्‍वर को प्रमाणरूप में नहीं माना जाता।
  • जगत के दो भाग हैं -पुरुष और प्रकृति।
  • पुरूष और प्रकृति के अविभक्‍त संयोग से सृष्टि की क्रिया निष्‍पन्‍न होती है।
  • पुरूष और प्रकृति दोनों ही अनादि है।
  • पुरूष चेतन है, प्रकृति जड़।
  • पुरुष मनुष्य का चेतन तत्व है।
  • प्रकृति शेष जगत है।
  • पुरूष निष्क्रिय है, प्रकृति क्रियाशील।
  • चेतन पुरूष के सान्निध्‍य से प्रकृति भी चैतन्‍यमयी लगती है।
  • पुरूष केवल भोक्‍ता है, कर्ता नहीं।
  • पुरुष का यह भोग औपचारिक है।
  • पुरूष सर्वदा ही दुखवर्जित है।
  • दुःख तो बुद्धि का विकार है।
  • दुख का कारण अज्ञानतावश पुरुष और प्रकृति में भेद नहीं कर पाना है।
  • दुःखबुद्धि पुरूष में प्रतिबिम्‍बित मात्र होती है।

सांख्‍य मत

  • सांख्य ईश्वर की सत्ता को नहीं मानता है।
  • शरीर के भेद में आत्‍मा और पुरूष बहु है। पुरूष और प्रकृति 24 तत्‍व से स्‍वतन्‍त्र है।
  • संसार के दुखों और सुखोंका विश्लेषण इन्हीं चौबीस तत्वों और पुरुष के संयोग के आधार पर किया जाता है।
  • अज्ञानतावश, न जानने के कारण ही जीव को बन्‍धन में बंधना पड़ता है। अर्थात दुख और संसार में आवागमन के चक्र में फंसना पड़ता है।
  • प्रकृति पुरूष को अपने हाव-भाव छल-कौशल द्वारा बांधकर रखती है। प्रकृति मानों नाटक की नर्तकी है।
  • इसके कारण ही वह भोग की वस्तुओं को ही अपना लक्ष्य मान लेता है और काम, क्रोध, मद, मोह आदि में ही आनंद प्राप्त करता है। यही दुख का कारण है।
  • इसी भेद को ठीक-ठीक नहीं समझ पाने के कारण पुरुष अपने को प्रकृति ही समझ लेता है। यही मिथ्या ज्ञान है।
  • मनमोहिनी उसके इस हाव-भाव, नाच-नृत्‍य, छल कौशल को पुरूष जिस दिन पकड़ लेता है, उसी दिन वह मुक्‍त हो जाता है, अर्थात सारे बंधन तोड़ देता है।
  • पुरुष निरंतर अपने बारे में चेतना प्राप्त करता है और इसी क्रम में अपने और प्रकृति के अस्तित्व के भेद का ज्ञान प्राप्त करता है।
  • प्रकृति से पुरूष की स्‍वतंत्रता या मुक्ति के विवेक को “ज्ञान” कहा जाता है।
  • “ज्ञानामुक्ति”! अर्थात ज्ञान ही मुक्ति है।
  • कठोर साधना द्वारा प्रकृति पुरूष के भोग्‍या-भोक्‍ता भाव का उच्‍छेद ही पुरूषार्थ या आत्‍यन्तिक “दुखनिवृत्ति” है।
  • अर्थात् प्रकृति को तलाक देकर ही पुरूष के जीवन में मुक्ति की प्राप्ति होती है। इस प्रकार से प्रकृति से सम्‍पूर्ण रूप से स्‍वतन्त्र होने का नाम ही पुरूष का “कैवल्‍य” है।
  • कैवल्य की अवस्था जब पुरुष इस चैतन्य को प्राप्त कर ले और अपने आप को शुद्ध पुरुष के रूप में समझ ले, तो इस अवस्था को कैवल्य कहते हैं। कैवल्य की अवस्था में मनुष्य सुख और दुख से ऊपर उठ जाता है।
  • चेतना के स्तर पर पहुंच जाने से दुखों की निवृत्ति हो जाती है और इसे ही मोक्ष कहते हैं।
  • मुक्‍त पुरूष को प्रकृति अपने छल बल से रिझाने नहीं आती। जिस प्रकार सभा समाप्‍त हो जाने के पश्‍चात नर्तकी पुर्णतः निढ़ाल हो जाती है और नाचने के लिए नहीं उठती, उसी प्रकार की स्थिति यह है।
  • सांख्य के अनुसार मोक्ष की प्राप्ति का उपाय पूजा-पाठ या किसी ईश्वर की उपासना नहीं है, बल्कि अपनी चेतना के असली स्वरूप को समझ लेना ही है।

पुरूषार्थ प्राप्ति

सांख्‍यकारों ने इसके लिए ध्‍यान, धारणा, अभ्‍यास, वैराग्‍य तपश्‍चरण आदि का पालन करने का उपदेश दिया है। सांख्‍य के साथ योग का घनिष्‍ठ संबंध है।

आज का विचार - 27

आज का विचार - न्याय मार्ग

“न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः”

                                            --- --- निति

न्या मार्ग पर चलते हुए धैर्यवान व्यक्ति के क़दम डगमाते नहीं, विचलित नहीं होते!

रविवार, 18 अप्रैल 2010

सारे तीर्थ बार-बार गंगासागर एक बार .......भाग -दो - कपिल मुनि

पिछ्ले पोस्ट सारे तीर्थ बार बार, गंगा सागर एक बार में हमने गंगासागर तीर्थ स्थल के यात्रा की चर्चा की थी। गंगासागर तीर्थ के साथ-साथ आदि संख्‍याचार्य कपिलमुनि का नाम भी समभाव से संलग्‍न है। भागवत के अनुसार भगवान कपिलदेव विष्णु के अन्यतम अवतार थे। कर्दम प्रजापति के औरस एवं मनुकन्‍या देवहुति के गर्भ से इनका जन्‍म हुआ था। नौ कन्याओं के बाद भगवान् कपिल मुनि का जन्म हुआ । ये आजन्म ब्रह्मचारी रहे। कपिल के आविर्भाव के समय ब्रह्मा ने कर्दम से कहा था हे मुनि! आपका यह पुत्र साक्षात ईश्वर के स्वरूप हैं। स्वयं भगवान माया का रूप धारण कर कपिल के रूप में आपके यहां अवतरित हुए हैं।

पद्मपुराण के अनुसार महामुनि कपिल को सांख्ययोग का प्रणेता माना जाता है। श्रीमद्भागवत में भी इस आशय का उल्लेख है। उनका जन्म बिन्दु सरोवर आश्रम में हुआ था जो गुजरात में स्थित है। ऐसा कहा गया है कि स्‍वयं ब्रह्मा ने कहा था, सांख्‍यज्ञान का उपदेश देने के लिए परब्रह्म ने स्‍वयं भगवान के सत्त्वअंश से जन्म लिया है। गीता (1016) में भगवान श्रीकृष्‍ण कहते हैं -

सिद्धानां कपिलो मुनिः।

अर्थात सिद्धगणों के बीच प्रधान। श्‍वेताश्‍वतर (5/2) उपनिषद में भी कपिल का नाम मिलता है। श्वेताश्वर श्रुति में कपिल को वासुदेव का अवतार कहा गया है।

ग्रंथों में यह वर्णित है कि महर्षि कर्दम ने मनुकन्या देवहुति को भविष्यवाणी करते हुए बताया कि मैं जब तपस्या में लीन रहूँगा तब तुम भगवान विष्णु को पुत्ररूप में प्राप्त करोगी। वो तुम्हें परब्रह्म के तत्व को समझाएंगे और तुम्हें मुक्ति (मोक्ष) का पथ बतलाएंगे। कपिल के जन्म के पश्चात कर्दम मुनि चले गए और देवहूति को बताकर गए कि उनका पुत्र कपिल ही देवहूति का उद्धार करेगा। सांख्ययोज्ञाचार्य कपिल ने अपनी माता देवहुति को सिद्धपुर में सांख्ययोग की शिक्षा दी थी। यह स्थान गुजरात के पाटन के नज़दीक है। संसार की सृष्टि व जीवात्मा का गूढ़ रहस्य का तत्व सांख्यदर्शन में दिया है।

महर्षि कपिल ने अपनी मां को अहं का भाव, अहंकार त्याग करने की दीक्षा दी। साथ ही भक्तिमार्ग पर अनुगमन करने को कहा और मंत्र प्रदान किया। भक्ति से शरीर और ज्ञान से मन की शुद्धि होती है। इससे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। जब आत्मज्ञान प्राप्त हो जाए तो लक्ष्य यानी मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।

देवहुति भगवान विष्णु को पुत्र रत्न के रूप में पाकर धन्य हुई। उनके द्वारा बताए गए विधि अनुसार पूजा-पाठ, जप-तप, ध्यान-योग में रम गईं। इस प्रकार अपनी मां को योग, मीमांसा, तत्व आदि की व्याख्या करने के पश्चात कपिल मुनि ने आश्रम का त्याग किया और एकाग्रचित्त होकर तपस्या करने के उद्देश्य से पाताललोक (सागरद्वीप) चले आये। यहां पर अपना आश्रम बनाया।

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अतः कपिल एवं उनके द्वारा प्रतिपादित सांख्‍यदर्शन की प्राचीनता के विषय में कोई संदेह होना उपयुक्‍त नहीं है। सांख्‍यवादियों का मानना है कि कपिलमुनि ही विश्‍व के आदि विद्वान और उपदेशक हैं। वे स्‍वयंभु ज्ञानी थे। उनका कोई गुरू अथवा उपदेशक नहीं था। सत्त्‍वज्ञान लेकर ही उनका आविर्भाव हुआ था।

सुतंरा सांख्‍ययोग को विश्‍व का आदि उपदेश माना जाता है। प्राचीन सांख्‍यवादियों के बीच आसुरि पंचशिख आदि के नाम प्रसिद्ध है। रामायण में भी उल्‍लेख है कि कपिलमुनि पाताल लोक के क्षेत्र में तपस्‍यारत थे। वाल्मीकी रचित रामायण से साबित होता है कि गंगासागर क्षेत्र ही महर्षि कपिल का आश्रम था। अतः कलुषनाशिनी सुरेश्‍वरी गंगा का सागर में मिलन और नारायणावतार महायोगी, महातपस्‍वी, आदि महाज्ञानी कपिलमुनि के आश्रम वाले क्षेत्र

गंगासागर में सर्वत्र मोक्ष है – जल, थल और अंतरिक्ष में।

भगवान विष्णु व महादेव जी गंगा-सागर में नित्य निवास करते है उसका प्रमाण है

स्नात्व य: सागरे मर्त्यो दृष्ट्वा च कपिल हरिम् । ब्र.पु.

गंगासागरसंयोगे संगमेश इति स्मृत: ।। शि.पु.

प्रस्तुतकर्ता

मनोज कुमार

आज का विचार - 26

आज का विचार – नैतिकता

धन आता है और ख़र्च हो जाता है। जबकि नैतिकता आती है और बढ़ती जाती है। यदि आप नैतिक और सात्विक शिक्षा प्राप्त करते हैं और उस पर अमल करते हैं तो आप दूसरों के लिये एक आदर्श और उदाहरण सिद्ध होते हैं, साथ ही उत्तरदायित्व स्वीकार करने में सक्षम हो जाते हैं।

 

शनिवार, 17 अप्रैल 2010

सारे तीर्थ बार बार गंगा सागर एक बार

आदिकाल से बहती आ रही हमारी पाप विमोचिनी गंगा अपने उद्गम गंगोत्री से भागीरथी रूप में आरंभ होती है। यह महाशक्तिशाली नदी देवप्रयाग में अलकनंदा से संगम के बाद गंगा के रूप में पहचानी जाती है। लगभग 300 किलोमीटर तक नटखट बालिका की तरह अठखलियां करती, गंगा तीर्थनगरी हरिद्वार पहुंचती है। तीर्थनगरी में कुंभस्‍नान तो हम पिछले महीने कर आए थे। अब घर के सदस्‍यों का विचार हुआ गंगा का सागर से संगम भी हो आया जाय। हर साल मकर सक्रांति पर्व पर महाकुंभ जैसा पर्व यहां लगता है। तीर्थस्‍थल गंगासागर श्रेष्‍ठ तीर्थ क्षेत्र है। पहले यहां आने जाने की सुविधा उतनी नहीं थी। अतः यह लोकोक्ति प्रचलित हो गई।

सारे तीर्थ बार बार |

गंगा सागर एक बार||

यह तीर्थ एक समय अत्‍यंत दुर्गम था। उस समय यंत्र चालित नाव नहीं थी। बिजली, पानी, आश्रम एवं परिवहन संवा का अभाव था। आज ऐसी बात नहीं है। पथ की वह दुर्गमता अब नहीं रही। यातायात के अनेक साधन का विकास हुआ है। जिससे यात्रा सहज हो गई है। इस जनविरल तीर्थ में अनेक आश्रम स्‍थापित हो चुके हैं पक्‍के रास्‍तों का निर्माण बसों का आवागमन आदि आंरभ हो चुका है।

अब तो यातायात के कई साधन हो चुके हैं। कोलकाता से गासागर जाने की सड़क भी काफी अच्‍छी और चौड़ी है। सरकारी व गैर सरकारी बस के द्वारा लट नम्‍बर 8 तक पहूँचा जा सकता है। हमने तो अपनी गाड़ी से ही यात्रा आरंभ की। कोलकाता से लट नं 8 तक की दूरी लगभग 100 किलोमीटर की है। बीच में लगभग 40 किलोमीटर की दूरी तय करने पर डायमंड हारबर आता है। यहां पर सड़के के किनारे गंगा का फैलाव एवं दृश्‍य बड़ा ही मनोरम है। गाड़ी से उतर कुछ देर यहां का आनंद लिया फिर आगे की यात्रा पर निकल पड़े

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डायमंड हारबर

लट नं; 8 तक पहूँचने में लग्‍भग दो घंटे लगे। यहां से जलयान द्वारा कचुबेडि़या द्वीप के लिए जाया जाता है। यह दूरी लगभग 8 किलोमीटर की है और जलयान द्वारा इसे तय करने में 25 से 30 मिनट लगते हैं। सुबह छह बजे से ही जलयान या फेरी सेवा शुरू हो जाती है, जो रात के नौ बजे तक चलती रहती है।

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कहते हैं कि पहले कोचुबेडि़या द्वीप और घोड़ामारा द्वीप एक था बाद में जल के कटाव से दोनों अलग हो गए।

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बंगाल के सुदूर दक्षिणी छोर पर विश्‍वविख्‍यात सुंदरवन है। सागर द्वीप उसी सुन्दर वन का एक महत्‍वपूर्ण भाग है। यह द्वीप 30 किलोमीटर लम्‍बा और औसत 10-12 किलोमीटर चौडा है। यह लगभग 5000 वर्ष पुराना है। यह दक्षिण 24 परगना जिले में आता है। कोचुबेडि़या से गंगासागर तट तक दूरी 30 किलोमीटर है और यहां बस, ट्रेकर अथवा प्राइवेट गाड़ी से जाया जा सकता है। हमने यह यात्रा टाटा सूमो से तय की। रास्‍ता काफी अच्‍छा है।

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तट पर का मनोरम दृश्‍य देख कर हम तो अत्‍यंत प्रसन्‍नचित हुए। जलनिधि का किल्‍लोल, रूपहले बालू कण और महामुनि कपिल का प्राचीन मन्दिर।

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गंगासागर की छवि की छटा निराली है। ऊपर नील गगन का विस्‍तार, नीचे श्‍वेत, फेनिल जलधि तरंगे, और धरा पर रजत बालूका कणों का फैलाव ऊपर से सूरज की सुनहली किरणें – इस स्‍थल की शोभा को असीमित विस्तार देते हैं। दक्षिण की ओर फेनिल समुद्र है समुद्र की उत्ताल लहरें दूर दूर तक शुभ्र वालुकामय सुविस्‍तृत स्‍थलखण्‍ड का विस्‍तार है। चारो ओर फैले हुए हरे भरे बन इसकी शोभा में चार चांद लगाते हैं। चारो ओर प्राकृतिक सौन्दर्य से आच्‍छादित है गंगासागर की पुण्‍यभूमि।

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गंगासागर पाताल (अर्थात नदी और समुद्र से घिरा जल-जंगल परिपूर्ण निम्‍नभूमि क्षेत्र) लोक के अंतिम छोर पर है जहां भगवान विष्‍णु के पांचवे अवतार महा‍मुनि कपिल का प्रादुर्भाव हुआ। ऐसा माना जाता है कि कपिल मुनि महर्षि कर्दम और मनुकन्या देवहुति के यहां पुत्र रूप में अवतरित हुए। कपिलमुनि के उपदेश सांख्‍यदर्शन के रूप में जगत विख्‍यात है। संसार की सृष्टि व जीवात्‍मा का गूढ़ रहस्‍य का तत्‍व उस दर्शन में दिया गया है। इसके बारे में विस्‍तार से फिर कभी।

यहां पर कपिल मुनि का आश्रम है। परंपराओं की माने तो महामुनि कपिल का आश्रम सागर और गंगा के मिलन के पहले से ही प्रतिष्ठित था। पर बारम्‍बार समुद्र द्वारा ग्रास किए जाने के कारण अपना स्‍थान बदलता रहा। हालांकि ईसा के 437 वर्ष पूर्व यहां पर एक प्राचीन मंदिर के अस्तित्‍व की चर्चा मिलती है , पर वह मंदिर सागर के गर्भ में समा गया। वर्तमान अवस्थित मंदिर का निर्माण सन 1974 हमें हुआ। यह सांतवां मंदिर है।

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श्री गंगासागर संगम प्रवाह में गोता लगाकर और सिद्धेश्‍वर श्री कपिलमुनि का भाव भरे नेत्रों से दर्शन और अनुराग भरे हृदय से अर्चन वन्‍दन और आत्‍मनिवेदन कर हमने अपने मानव जीवन को कृतार्थ किया।

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इस मंदिर में कई विग्रह है। कपिल मुनि पद्मासन में अपने आसन पर आरूढ़ है। उनका श्रीमुख जटाओं से मंडिंत है। उनके बांए हाथ में कमण्‍डल है। दाहिने हाथ में जपमाला। शीर्ष भाग में बने पंचनाग छत्‍त्रवत् उनपर छाया करते हैं। यह मूर्ति हमें संदेश देती है कि अगर कैवल्‍य या मुक्ति की कामना करते हो तो जप, तप, अराधना में लीन रहो। भगवान कपिल के दाहिने भाग में मां गंगा की मुर्ति है। ये चतुर्भुजा और मकरवाहिनी है। इनके हाथ शंख, चक्र, रत्‍नकुंभ एवं वरमुद्रा है। देवी के अंक में महातपस्‍वी भगीरथ विद्यमान है। देवी गंगा से कुछ दूरी पर विराजमान है हनुमान जी, जिनके एक हाथ में गदा और दूसरे में गंदमादन पर्वत है। कपिलदेवके बाएं में राजा सगर है। इनके बाएं में अष्‍टभुजा सिंहारूढ देवी विशालाक्षी अधिष्ठित है। मां के करकमलों में त्रिशुल, खड्ग चक्र आदि आयुध और कमल पुष्‍प हैं। इनके बाई ओर इन्‍द्रदेव है जिनके दाहिने हाथ में धनुष, बाएं में यज्ञ के अश्‍व की वल्‍गा एवं बाएं स्‍कन्‍ध में तरकस है। इन्‍द्रदेव के बगल में देवाधिदेव महादेव है। साथ ही राधा-कृष्‍ण के युगल की मूर्ति भी है। सभी मूर्तियां सिन्‍दूर से मण्डित हैं। प्रतिदिन पांच बार मंदिर में पूजा होती है। रात 2 ½ बजे मंगल आरती और 4 बजे श्रृंगार आरती, दोपहर 2 बजे भोग आरती, संध्‍या 7 बजे संध्‍या आरती एवं रात 8 ½ बजे शयन आरती|

गंगा सागर आज नित्‍यतीर्थ बन चुका है। फिर भी मकर सक्रांति के अवसर पर गंगा सागर तीर्थस्‍थान परम पुण्‍यादायक है। त्रिपथगामिनी (त्रिपथ अर्थात इड़ा, पिंगला, सुषुम्‍ना ग्रंथियों) गंगा भगीरथ के अभूतपूर्व तपस्‍या से इहलोक में अवतीर्ण हुई जो मानवमात्र के लिए मुक्तिप्रदायिणी व कल्‍याणकारी है। गंगा के पृथ्‍वी पर आने की अनेक कथाएं प्रचलित है। इसमें एक है राजा सगर के साठ हजार पुत्रों की महामुनि कपिल की क्रोधग्नि से जलकर भस्मिभूत हो जाना और सगर के पौत्र अंशुमान द्वारा भगीरथ के अक्‍लान्‍त परिश्रम और चेष्‍टा के बाद उनका उद्धार करने की प्रक्रिया में गंगा का पृथ्‍वी पर लाया जाना। इसकी भी विस्‍तृत चर्चा फिर कभी।

आज तो यही कहूँगा कि त्रिपथगामिनी स्‍वर्ग से मंदाकिनी, पाताल से भगवती और जो धारा मर्त से अवतीर्ण हुई वह भगीरथ द्वारा आनयन होने के कारण भागीरथ नाम से आख्‍यात, त्रिलोकपावनी गंगा का नाम स्‍मरण करने में समस्‍त पाप कट जाते हैं। जिनके दर्शन और स्‍थान से सप्‍तकुल पवित्र हो जाते हैं। गंगासागर तीर्थ की महिमा अपरिसीम और अनिर्वचनीय है।

इन धार्मिक आध्‍यात्मिक बातों के अलावा गंगा भारतवर्ष की चेतना, दर्शन और संस्‍कृति की धरोहर है। इसके तट पर न सिर्फ ऋषि, मुनि, साधक, तपस्‍वी अपनी साधना के चरम शिखर पर पहुंच कर सिद्धि प्राप्‍त किए बल्कि इसके तटभूमि में अनन्‍त याय योज्ञ शास्‍त्र पाठ, पुष्‍यानुष्‍ठान का आयोजन होते रहा है।

सागरद्वीप ब्रहम्‍पुत्र के डेल्‍टा के दक्षिण-पश्चिम छोर पर है। इस का क्षेत्रफल 205 वर्ग किमी है। इसके 9 ग्रामपंचायत है। 2001 की जनगणना के आधार पर यहां की जनसंख्‍या 1,85,630 थी। यहां पर एक महाविद्यालय, 6 उच्‍च माध्‍यमिक विद्यालय, 13 माध्‍यमिक विद्यालय, 12 निम्‍न माध्‍यमिक विद्यालय, 123 प्राथमिक विद्यालय, 16 गैरसरकारी के.जी एवं नर्सरी स्‍कूल, 63 शिशु केंद्र है। इससे सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि स्‍थानीय सरकार यहां पर शिक्षा के प्रति कितनी सजग है। इसका परिणाम है कि यहां की साक्षरता 90 प्रतिशत से भी अधिक है। स्‍वास्‍थ्य के प्रति भी इस जनविरल क्षेत्र में काफी जागरूकता दिखी। यहां एक ग्रामीण अस्‍पताल, प्राथमिक स्‍वास्‍थ्य केंद्र एवं 35 उप स्‍वास्‍थ्‍य केंद्र हे। पेय जल की भी व्‍यवस्था की गई है। 600 नलकूप, 5 बोरिंग है खेल के दर्जन भर मैदान है। 7 सरकारी बैंक है। कृषि समिति, दुग्‍ध समिति मत्‍सय समिति आदि यहां की सक्रियता संबंधी जानकारी देते हैं। 35 किलोमीटर की पिचढलाई सड़क और 120 किलोमीटर की ईटं निर्मित सड़क यहां के परिवहन व्‍यवस्‍था को गति प्रदान करते हैं।

विधुत परिसेवा की कमी है। 17 डिजल इंजिन चालित जेनरेटर से प्रतिदिन शाम 5.30 से 9.30 तक 4 घंटा तक बिजली रहती है। सौरशक्ति से 10 गांवों को बिजली पहुंचाई जाती है। पवन चक्की से भी ऊर्जा का उत्पादन किया जाता है।

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यहां पर बिजली पहुंचे इसकी परियोजना पर काम चल रहा है। और अनुमान है कि दो वर्षों में यह काम पूरा हो जाएगा।

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दोपहर दो बजे तक हमारी वापसी की यात्रा शुरू हो चुकी थी। जलयान द्वारा कोचु‍बेडि़या से लट नं. 8 वापस आए। वहां से पुनः अपनी गाड़ी से शाम छह बजे तक कोलकाता के अपने आवास तक पहुंच गए।

लौटते समय मन में यही भाव थे –

मातः शान्‍तति शम्‍भुसंगमिलिते मौलो निधायां‍जलिं।

त्‍वत्तीटे वपुषोsवसानसमये नारायणांध्रिद्वयम्।।

त्‍वन्‍नाथ समरतो भविष्यति मम प्राणप्रयाणोत्‍सवे।

भूयाद्भक्तिरविच्युता हरिहराद्वैतात्मिका शाश्‍वतौ।।

हे मातः! तुम शंभु का निजस्‍व हो, उनके अंग से एकात्‍म हो। तुम्‍हारा प्रसाद जिसे मिला, वह मृत्‍युंजय हुआ। तुम्हारे तीर पर मरण के वरण से आनन्द और मुक्ति का लाभ होता है। इसी कारण मस्‍तक पर करबद्ध प्रणाम करके कहता हूँ--- मां, मेरे अन्तिम समय में तुम्‍हारा पुण्‍य सलिल मेरे शरीर पर पडे़, मैं नारायण का नाम लेता-लेता एवं तुम्‍हारा स्‍मरण करता-करता ही अद्वैत हरिहरात्‍मक ब्रह्मा की परमभक्ति में, अचला भक्ति में लीन हो जाउँ। मुझे परमगति की प्राप्ति हो।

आज का विचार-25

आज का विचार- दुष्ट व्यक्ति से बचें

दुर्जनेन समं सख्य वैरंचापि न कास्येत।

उष्णो दहति चांगारः शीतः कृष्णायते करम॥

                                                    --हितोपदेश

अर्थात

 

दुष्ट प्रकृति के मनुष्य के साथ न मित्रता करनी चाहिए न वैर। क्योंकि दुष्ट व्यक्ति दोनों ही स्थितियों में अनिष्ट करता है। जैसे कोयला जलता हुआ हो तो स्पर्श करने पर हाथ जला देता है और ठंडा हो तो हाथ काले कर देता है।

बुधवार, 14 अप्रैल 2010

आज का विचार-24

अभिदर्गात्राणि शुद्धयन्ति मन: सत्येन शुद्धयति।
विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्धयति।।

---- मनु स्मृति
जल से शरीर शुद्ध होता है, सत्य से मन शुद्ध होता है, विद्या और तप से आत्मा शुद्ध होती है और बुद्धि ज्ञान से शुद्ध होती है।

मंगलवार, 13 अप्रैल 2010

काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी

काव्यशास्त्र के मेधाविरुद्र या मेधावी

-आचार्य परशुराम राय

आचार्य भरतमुनि के बाद साहित्यशास्त्र के इतिहास पटल पर आचार्य भामह का काल छठवें विक्रम सम्वत का पूर्वार्ध माना गया। आचार्य भरतमुनि और आचार्य भामह के बीच लगभग छः- सात सौ वर्षों का एक लम्बा अन्तराल आता है। अन्य शास्त्रों में इस अवधि में अनेक ग्रंथों का प्रणयन हुआ, तो साहित्यशास्त्र का क्षेत्र सूना नहीं रहा होगा। निश्चित रूप से कई आचार्य हुए होंगे और कई ग्रंथ रचे गए होंगे। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि इस काल के कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। आचार्य मेधाविरुद्र द्वारा उपमालंकार के दोषों का सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है, जिसका उल्लेख आचार्य भामह ने स्वयं अपने काव्यालंकार में उपमा अलंकार के दोषों को दर्शाते हुए किया है। उन्होंने आचार्य मेधावी के नाम का भी उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त वामन, दण्डी, रूद्रट, राजशेखर आदि आचार्यों ने भी अपने ग्रंथों में आचार्य मेधावी के नाम का उल्लेख करते हुए इनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांतों की चर्चा की है।
वर्तमान में आचार्य मेधावी का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। चूंकि आचार्य भामह ने अपने ग्रंथ में इनके नाम का उल्लेख किया है, तो यह निश्चित है कि ये उनके पूर्ववर्ती आचार्य हैं। इनके जीवन काल के सम्बन्ध में केवल इतना ही निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वे आचार्य भरत और आचार्य भामह के बीच में आते हैं।
परवर्ती आचार्यों ने आचार्य मेधावी को निम्नलिखित तीन सिद्धांतों के निरूपण हेतु याद किया हैः
1.उपमादोष निरूपण
2.यथासंख्य अलंकार को उत्प्रेक्षा से अलग अलंकार मानना।
3.पाँच के स्थान पर केवल चार शब्द विभाग मानना अर्थात नाम, आख्यात, उपसर्ग, निपात।
(शब्द के पाँच विभाग हैं- नाम, आख्यात (क्रिया), उपसर्ग, निपात, कर्मप्रवचनीय - वे उपसर्ग या अव्यय, जो क्रियाओं के साथ सम्बद्ध न होकर संज्ञाओं का शासन करते हैं।)
आचार्य मेधावी अन्तिम विभाग अर्थात् कर्मप्रवचनीय को नहीं मानते। निरुक्तकार महर्षि यास्क का मत भी यही है।
आचार्य मेधाविरुद्र के ग्रंथों की अनुपलब्धि साहित्यशास्त्र के लिए बहुत बड़ी क्षति है।