शनिवार, 31 जुलाई 2010

ठूंठ (एक कविता, मनोज कुमार)

ठूंठ


IMG_0155मनोज कुमार

कल रात वर्षा हुई

ख़ूब हुई

ज़ोर-ज़ोर से

मूसलाधार

मेरे घर के सामने की सड़क

बेलेवेडियर रोड के किनारे

एक बड़ा पेड़ था

तन कर खड़ा।

 

 

गिर पड़ा बेचारा!

असहाय सा।

कुछ देर बाद ...

उसके तने काट दिए गए

सड़क साफ़ हो गई

आवाजाही बहाल हो गई

सड़क के किनारे

बच रहा

ठूंठ बस!

आज का विचार :: अनुकरणीय

आज का विचार

::

अनुकरणीय

अच्‍छा वक्‍ता तो कोई भी बन सकता है, परन्‍तु दूसरों के लिए अनुकरणीय श्रेष्‍ठ जीवन कितने लोग जीते हैं।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

उदात्त काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है :: काव्य लक्षण-14 (पाश्‍चात्य काव्यशास्त्र-2)

उदात्त काव्य

भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है

::

काव्य लक्षण-14 (पाश्‍चात्य काव्यशास्त्र-2)

यूनानी काव्यशास्त्र में अरस्तू के बाद जो सबसे आदर के साथ याद किए जाते हई वो हैं लांजाइनस। उन्होंने “पोरिइप्सुस” की रचना की थी। इसका अर्थ है काव्य में उदात्त तत्व। उनका मानना है कि काव्य का प्राण-तत्व है उसका उदात्त तत्व।


काव्य की अंतर्वस्तु (कन्टेन्ट्स) और अभिव्यंजना (एक्सप्रेशन) दोनों में ही उदात्त तत्व की सही व्याप्ति से ही रचना उत्कृष्ट बनती है। उनका कहना था कि महानतम कवियों की रचना में औदात्य अभिव्यंजना का उत्कर्ष देखने को मिलता है। उदात्त भाषा क प्रभाव श्रोता के मन पर ही नहीं उसके भावों के रूप में भी पड़ता है। उदात्त सिद्धि रचना के समूचे ताने-बाने पर होनी चाहिए। प्रकृति ही सृजन-शक्ति का मूल है। कला इसके सौंदर्य का ही रूप है। उनका यह भी कहना था कि अपने से पहले के महान कवियों का न सिर्फ़ अनुकरण करना चाहिए वरन उनसे स्पर्धा भी रखनी चाहिए।
इस प्रकार लांजाइनस का काव्य लक्षण बनता है -

उदात्त काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है। उदात्त महान आत्मा की प्रतिध्वनि है।

आज का विचार :: सहन

आज का विचार :: सहन

जब आप यह महसूस करते हैं कि आपको बहुत सहन करना पड़ रहा है, तो इसका अर्थ है कि आप अभी भी सहन करने का प्रयास कर रहे हैं।

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है :: काव्य लक्षण-13 (पाश्‍चात्य काव्यशास्त्र-1)

काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है

::

काव्य लक्षण-13 (पाश्‍चात्य काव्यशास्त्र-1)

पाश्‍चात्य काव्यशास्त्र की शुरुआत प्लेटो से होती है। प्लेटो का काल है 427 ई.पूर्व से 347 ई.पूर्व का। हालाकि प्लेटो ने काव्य की परिभाषा देने की कोशिश नहीं की पर इस पर विवेचना अवश्य किया। उनके मतानुसार काव्य प्रकृति का अनुकरण है और प्रकृति सत्य का अनुकरण।

प्लेटो की विवेचना में अनुकरण का अनुकरण है। इस तरह यह सत्य से दूर हो जाता है। अरस्तु ने भी काव्य की परिभाषा नहीं की, किन्तु जो विचार व्यक्त किए उसके आधार पर काव्य लक्षण का निर्धारण किया जा सकता है।

 

प्लेटो के शिष्य थे अरस्तु। उन्होंने अपने ही गुरु के विचारों का तर्कों के आधार पर खंडन किया। उन्हें लगा कि प्लेटो की विवेचना में अनुकरण का अनुकरण है। इस तरह यह सत्य से दूर हो जाता है। अरस्तु ने भी काव्य की परिभाषा नहीं की, किन्तु जो विचार व्यक्त किए उसके आधार पर काव्य लक्षण का निर्धारण किया जा सकता है।

 

अरस्तु का मानना था कि काव्य एक कला है। कवि अनुकर्ता है। उनके अनुसार यह अनुकरण नकल न होकर पुनर्सृजन है। काव्य प्रकृति का अनुकरण है। यह अनुकरण सृजनात्मक प्रेरणा का अनुक्रम या सिलसिला है।

इस प्रकार अरस्तु के अनुसार काव्य लक्षण का निर्धारण इस प्रकार होता है, 

 

“काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है।”

डॉ. नगेन्द्र का भी यही मानना था कि काव्य भाषा के माध्यम से प्रकृति का अनुकरण है। आधुनिक शब्दावली में अगर कहें तो

“काव्य भाषा के माध्यम से अनुभूति और कल्पना द्वारा जीवन का पुनःसृजन है।”

(चित्र : आभार गूगल खोज)

आज का विचार :: संयम

आज का विचार

::

संयम

संयम संस्कृति का मूल है। विलासिता निर्बलता और चाटुकारिता के वातावरण में न तो संस्कृति का उद्भव होता है और न विकास। – काका कालेलकर

बुधवार, 28 जुलाई 2010

काव्य लक्षण – 12 :: रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्‌

काव्य लक्षण – 12 :: रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्‌

शुरु से ही यह विवाद चला आ रहा था कि काव्य शब्द में होता है या अर्थ में अथवा शब्द और अर्थ दोनों में। इस विवाद का ध्यान रखते हुए पंडितराज ने कहा कि काव्य शब्द में होता है।

रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्

अर्थात्‌ रमणीयतार्थ प्रतिपादक शब्द काव्य है। रसगंगाधर में पंडितराज ने तीन काव्य लक्षणों को प्रस्तुत किया है। ये हैं सामान्य, परिष्कृत और फलित। सामान्य लक्षण के अनुसार रमणीय (सुंदर, मनोहर) अर्थ का प्रतिपादक शब्द ही काव्य है। पंडितराज के शब्द की विशेषता थोड़ा अलग है। प्रायः भाषा के सभी शब्द अर्थ प्रतिपादक होते हैं, निरर्थक शब्दों का भाषा में कोई स्थान नहीं होता। सामान्य भाषा के शब्दों के प्रतिपाद्य अर्थ से काव्य का प्रतिपाद्य अर्थ भिन्न होता है। जिसे पंडितराज रमणीय कहते हैं। सामान्य शब्द या भाषा-शब्द तो सामान्य अर्थ का ही प्रतिपादन करते हैं। किन्तु काव्य-भाषा के शब्द एक चमत्कारी आह्लाद्‌ की सृष्टि करते हैं। यानी भाषा-शब्दों के सामान्यतः प्रतिपाद्य अर्थ काव्य के रमणीय अर्थ के बीच होते हैं।

अर्थ या तो सूक्ष्म होते हैं या स्थूल। दोनों ही अर्थ में रमणीयार्थ प्रतिपादन निहित है। किन्तु पंडितराज का मानना है कि रमणीय वस्तु हमारे ज्ञान से  काव्यानुभूति में आकर आह्लाद्‌ की सृष्टि करते हैं। इसलिए रमणीय अर्थ का धरातल स्थूल या भौतिक नहीं है, बल्कि यह सूक्ष्म या मानसिक है। ज्ञान गोचरता तो मानसिक धरतल पर ही हो सकती है। इसलिए रमणीय काव्यार्थ शुद्ध मानसिक धरातल पर ही प्राप्त होता है।

“रमयणीयता च लोकोत्तराल्हादजनक ज्ञान गोचरता।”

पंडितराज के अनुसार काव्यार्थ की रमणीयता विषयगत (वस्तुपरक/Objective) और विषयिगत (आत्मपरक/Subjective), दोनों है। काव्य का आह्लाद्‌ लौकिक नहीं लोकोत्तर है, यानी लोक का परिष्कृत आनंद है। लोकोत्तर आनंद में चमत्कार है। यह चमत्कार कौतूहल नहीं है काव्यानुभूति की अपूर्वता है।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि पंडितराज के अनुसार काव्य लक्षण “चमत्कारी आह्लाद्‌ से पूर्ण रमणीय अर्थों के प्रतिपादक शब्द काव्य हैं।” और यह आत्मपरक है। यह आत्मपरकता सहृदयमूलक है, कविमूलक नहीं। भारतीय काव्य-विवेचन का प्रतिमान है – सहृदय या सामाजिक। यह सहृदय बाहरी व्यक्ति न होकर भीतरी व्यक्ति है – काव्य से अभिन्न।

आचार्य विश्‍वनाथ रस को काव्य की आत्मा मानते हैं। पंडितराज ने रस के स्थान पर रमणीयता शब्द का प्रयोग किया है। यह विश्‍वनाथ के दृष्टिकोण की सीधी अस्वीकृति है। केवल रसादि-ध्वनि ही काव्य की अत्मा नहीं है। ध्वनि सिद्धांत के अनुसार रस-ध्वनि  के अलावा वस्तु-ध्वनि और अलंकार-ध्वनि भी है। रस-ध्वनि भावनात्मक आनंद, वस्तु-ध्वनि बौद्धिक आनंद और अलंकार-ध्वनि कल्पनात्मक आनंद प्रदान करती है। गजानन माधव मुक्तिबोध ने यह मत प्रस्तुत किया कि गली के अंधेरे में उगे पौधे में भी सौंदर्य होता है – पतझड़ के वृक्षों में भी एक तरह का सौंदर्य होता है। बौद्धिक अनुभूतियों से प्राप्त सौंदर्य की चरम परिणति रसात्मक नहीं होती, चैन तोड़ने वाली होती है। हर संघर्ष का अपना सौंदर्य होता है।

पंडितराज का काव्य लक्षण आपनी व्यापकता के कारण आज भी ग्राह्य है। उनकी रमणीयता की अर्थ सीमा बहुत खुला क्षेत्र देती है। सभी ललित कलाओं का सौंदर्य इसमें आ जाता है। चित्र, मूर्ति, वास्तु, काव्य, संगीत ये सारी कलाएं रमणीय अर्थ देती हैं। इसलिए हम कह सकते हैं कि आज भी पंडितराज का काव्य लक्षण नकारने की चीज़ नहीं है, नए युग के संदर्भ में विचार करने की चीज़ है।

आज का विचार :: छुटकारा

आज का विचार :: छुटकारा

अपने शत्रुओं से छुटकारा पाने का सबसे अच्‍छा उपाय यह है कि उन्‍हें अपना मित्र बना लीजिए।

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

काव्य लक्षण – 11 :: गुणवदलंकृतं च वाक्यमेव काव्यम्‌

काव्य लक्षण – 11

::

गुणवदलंकृतं च वाक्यमेव काव्यम्‌

आचार्य राजशेखर के बारे में आप पढ चुके हैं। (लिंक यहां है)

आचार्य राजशेखर ने अपने ग्रंथ काव्य-मीमांसा में काव्य के लिए कहा है -

गुणवदलंकृतं च वाक्यमेव काव्यम्‌!

अर्थात्‌ गुणों और अलंकारों से युक्त वाक्य का नाम काव्य है। उनका यह मानना था कि काव्य में अतिशयोक्ति का समावेश हो सकता है। उनके अनुसार अतिशयोक्तिपूर्ण होने से न तो कोई काव्य त्याज्य होता है न ही असत्य! इस कथन के पीछे उनका तर्क यह था कि काव्य में जो अतिशयोक्ति होती है उसका समर्थन शास्त्र और लोक दोनों करते हैं।

काव्य में श्रृंगार भी होता है। इसके रसात्मक अभिव्यक्ति में, खास कर पुरुष-नारी के मिलन के वर्णन को कुछ लोग अश्‍लील मानते हैं। इस विषय पर आचार्य राजशेखर का कहना था कि काव्य में जीवन की समग्रता को अभिव्यक्ति दी जाती है। तो उसमें संयोग कैसे वर्जित रहेगा! कलावाद की दृष्टि से यदि देखेण तो श्‍लील-अश्‍लील का विवाद ही नहीं होना चाहिए।

आज का विचार :: प्‍यार

आज का विचार :: प्‍यार

IMG_0189 यह आशा मत कीजिए कि दूसरे आपसे प्‍यार करेंगे व आप पर ध्‍यान दें। इसके बजाय आप दूसरों से प्‍यार करें व उनका ध्‍यान रखें।

सोमवार, 26 जुलाई 2010

ई-मेल से संदेश का प्रेषण

ई-मेल से संदेश का प्रेषण

ई-मेल भेजने की प्रक्रिया बहुत सहज है । सर्वप्रथम माउस से इन्‍टरनेट एक्सप्लोरर ओपन करें तथा वांछित साइट पर लॉग ऑन करें । अब ई-मेल आई.डी. एवं पासवर्ड अपेक्षित स्थान पर टाइप कर ''ओ.के.'' पर सिलेक्‍ट  कर दें। ऐसा करते ही आपका ई-मेल एकाउन्‍ट ओपन हो जाएगा।   
        बहुत संभव है कि आपने जिस फॉन्ट में संदेश टाइप किया है वह उस व्यक्ति के पास न हो जिसे आप संदेश भेजना चाह रहे हों । ऐसी स्थिति में हम उस फॉन्ट जिसमें संदेश टाइप किया गया है को उपयोगकर्ता की सुविधा हेतु मेल द्वारा संदेश सहित भेज सकते हैं । आजकल तो अधिकांश सॉफ्‌टवेयर कम्पनियों ने हिन्दी  ई-मेल भेजने में आसानी हो इसलिए अपने सॉफ्‌टवेयर अर्थात वेब ब्राउज़ में ही यूनिकोड एन्‍कोडिंग में टाइपिंग की सुविधा उपलब्‍ध करवाई है।
 


एटैचमेन्ट प्रक्रिया
ई-मेल में  एटैचमेन्ट  के रूप में  वर्ड, एक्‍सेल, पी.पी.टी. अथावा मीडिया फाइल भी भेजने की व्‍यवस्‍था है।  कई बार हमें पावक अ‍र्थात जिसे ई-मेल संदेश भेज रहे होते हैं को हार्ड डिस्‍क में संचित की हुई बड़ी फाइलें भी भेजनी पड़ सकती हैं। इसे  ई-मेल एटैचमेन्ट  के रूप में सहजता से प्रेषित किया जा सकता है। इसके लिए उपर्युक्त अनुसार कम्पोस या न्‍यू विन्डो में संदेश टाइप कर लेने पर एटैच बटन क्लिक करें। तदुपरान्त एटैचमेन्ट विन्डो ओपन होगा, जिसमें आपके स्क्रिन पर एटैचमेन्ट हेतु विकल्प आएंगे जिसके अनुसार अब आप उस फाइल ,जिसमें आपने हिन्दी में संदेश  टाइप किया है, का पाथ टाइप अथाव ब्राउज बठन क्लिक कर एटैचमेन्‍ट के रूप में भेजे जानेवाले फाइल/फाइल्‍स को सिलेक्‍ट करें । उदाहरणः डीः/डाक्‍यूमेंट एण्‍ड सेटिंग/संतोष.doc । अब ओ.के. बटन सिलेक्‍ट  करें । ऐसा करते ही फाइल ''अपलोडिंग'' प्रक्रिया आरम्भ हो जाएगी । उक्त ''अपलोडिंग प्रक्रिया'' के समर्थन में पुष्टि  संदेश  स्क्रिन पर आने पर ''ओ.के.'' बटन को सिलेक्‍ट  कीजिए । तदुपरान्त ''डन'' बटन को भी सिलेक्‍ट  करें । ऐसा करते ही एटैचमेन्ट विन्डो बन्द हो जाएगा ।  ई - मेल भेजने के आखरी चरण के अन्तर्गत कम्पोस या न्‍यू पेज पर एटैच्ड फाइलों की सूची प्रदर्शित हो जाएगी।   

ई – मेल एकाउन्‍ट कैसे तैयार करें

ई – मेल एकान्‍ट कैसे तैयार करें 
     नित नई वैज्ञानिक प्रगति के कारण रोजाना नए - नए यांत्रिक उपकरणों का आविष्‍कार हो रहा  है । इसका लाभ राजभाषा  के प्रचार - प्रसार के रूप में भी दिखाई दे रहा है । उदाहरण के लिए टाइपराटर मशीन को ही लीजिए। दो दशक पहले तक इसका प्रयोग खुब होता था किन्तु अब इसका स्थान कम्प्यूटर ने ले लिया है इससे लाभ यह हुआ कि अब टंकण तथा अन्य गम्भीर त्रुटियों को सुधारने के लिए हमें पुनः दस्तावेज को टाइप नहीं करना पड़ता है । ऐसा करने के लिए मात्र हमें संचित (सेव ) फाइल में आवश्‍यक  संशोधन करना होता है । इसके अतिरिक्त स्टेंसिल की प्रतियां तैयार करना मैन्यअल टाइपराइटर की अपेक्षा आसान हो गया है। इसके लिए डॉट  मैट्रिक्स प्रिन्टर में साधारण स्टेंसिल लगा कर कम्प्यूटर में उस दस्तावेज के लिए प्रिन्ट का आदेश देते ही प्रिन्टिर प्रिन्टिन्ग कार्य निष्‍पादित  कर देता है । संचार क्रांति के इस युग में अब संदेश  मात्र डाक तार से ही नहीं भेजे जाते हैं बल्कि इन्‍टरनेट,फैक्स मॉडम आदि जैसे अत्याधुनिक उपकरणों का बखुबी से प्रयोग होने लगा है । इस दिशा में केन्द्र सरकार तथा सभी प्रदेशों की राज्य सरकारें ई - गर्वनेन्स को बढ़ावा देने में प्रयासरत रहीं है । इसी क्रम में ई - मेल द्वारा संदेश  भेजने का चलन बढ़ गया है क्योंकि इससे भेजना बहुत सरल है तथा यह संचार के अन्य साधनों की अपेक्षा कम खर्चीला भी है । इसके अतिरिक्त एक अन्य कारण यह है कि इन्‍टरनेट द्वारा प्रेषित  संदेशों की गोपनीयता बरकरार रहती है क्योंकि इसके संचालन हेतु पासवर्ड की जरूरत पड़ती है ।
 ई.मेल आई.डी बनाना
सर्वप्रथम किसी भी वेब ब्राउज़र अर्थात इन्‍टरनेट एक्‍सप्‍लोरर, औपेरा, मोजिला आदि को माउस से क्लिक कर ओपन करें तथा यू.आर.एल. में अपनी पसंद के अनुसार इन्‍टरनेट कम्‍पनी का साइट एड्रेस टाइप करें। यहॉं उदाहरण के लिए ओपेरा वेब ब्राउज़र को क्लिक कर याहू इन्‍टरनेट साइट में ई-मेल आई.डी. बनाया गया है।  ऐसा करते ही जिस कम्‍पनी के साइट का एड्रेस टाइप किया है उसका साइट ओपन हो जाएगा जिसमें ‘’क्रीएट न्‍यू एकाउन्‍ट’’ प्रेस बटन को माउस द्वारा क्लिक करें। 
 अगले चरण में प्रदर्शित वेबपेज पर क्रमश: नाम, लिंग, जन्‍मतिथि तथा देश आदि रिक्तियों को भर कर ‘’सिलेक्‍ट एन आई.डी. एण्‍ड पासवर्ड’’ हेडिंग के अन्‍तर्गत अपनी पंसद व रूचि का ई.मेल. आई.डी. एवं पासवर्ड भर दें। यहा उदाहरण के लिए आई.डी. के रूप में freegupta2009 रखा गया है। उल्‍लेखनीय है पासवर्ड गोपनीय होता है तथा इसे किसी स्थिति में बताना नहीं चाहिए। अब ‘’इन केस यू फारगेट  आई.डी. ऑर पासवर्ड’’हेडिंग के अन्‍तर्गत वांछित जानकारियों को सिलेक्‍ट/टाइप कर दें। रजिस्‍ट्रेशन प्रक्रिया के आखिरी चरण में ‘’टाइप दि कोड शोन’’आगे विद्यमान रिक्‍त बॉक्‍स में नीचे प्रदर्शित अक्षरों को हुबहु टाइप कर दें। ध्‍यान रहे कि अक्षरों के कैपिटल एवं स्‍माल अक्षरों के अन्‍तर ई-मेल के पंजीकरण में बाधा उत्‍पन्‍न करते हैं। अत: इसे टाइप करने में पूर्ण सावधानी बरतनी चाहिए। उदाहरण के लिए यहॉं ‘’टाइप दि कोड शोन’’आगे विद्यमान रिक्‍त बॉक्‍स में नीचे प्रदर्शित अक्षरों rscBsBnB को हुबहु टाइप किया गया है। तदुपरान्‍त माउस से ‘’क्रीएट माय एकाउन्‍ट’’ प्रेस बटन को क्लिक कर दें। ऐसा होते ही आपका ई-मेल एकाउन्‍ट तैयार हो जाएगा तथा पुष्टि स्‍वरूप स्‍क्रीन पर नया वेबपेज प्रदर्शित हो जाएगा जिसमें संक्षेप आपके ई-मेल एकाउंट संबंधी जानकरी प्रदर्शित होंगी। अब उक्‍त वेबपेज पर विद्यमान कन्‍टीन्‍यूप्रेस बटन को माउस से क्लिक कर अपने ई-मेल इन-बॉक्‍स में जा सकते हैं।

काव्यशास्त्र – 25 :: आचार्य रूपगोस्वामी और आचार्य केशव मिश्र

काव्यशास्त्र – 25

::

आचार्य रूपगोस्वामी

और

आचार्य केशव मिश्र

मेरा फोटो

आचार्य परशुराम राय

आचार्य रूपगोस्वामी

आचार्य रूपगोस्वामी का काल पन्द्रहवीं शताब्दी का अन्त और सोलहवीं शताब्दी माना जाता है। आचार्य रूपगोस्वामी के एक और भाई थे जिनक नाम सनातन गोस्वामी था। दोनों भाई चैतन्य महाप्रभु के शिष्य थे। चैतन्य महाप्रभु की इच्छा के अनुसार दोनों भाई बंगाल छोड़कर वृन्दावन आकर बस गए। आचार्य जीव गोस्वामी, जो उक्त दोनों आचार्यों के भतीजे थे, वे भी इनके साथ हो लिए। ये तीनों उद्भट विद्वान और वैष्णव सम्प्रदाय के प्रसिधद्ध आचार्य थे।

आचार्य जीवगोस्वामी के एक ग्रंथ 'लघुतोषिणी' (आचार्य सनातनगोस्वामी द्वारा भागवत महापुराण पर विरचित टीका का संक्षिप्त रूप) में आचार्य रूपगोस्वामी द्वारा विरचित सत्रह ग्रंथों के नाम दिए गए हैं। इनमें आठ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं हंसदूत, उद्धवसन्देश, विदग्धमाधव, ललितमाधव, दानकेलिकौमुदी, भक्तिरसामृतसिन्धु, उज्जवलनीलमणि और नाटक चन्द्रिका। इनमें से प्रथम दो काव्य हैं, बाद के दो नाटक, पाँचवा भाणिका और अन्तिम तीन काव्यशास्त्र से सम्बन्धित ग्रंथ हैं। जिसके कारण आचार्य रूपगोस्वामी भारतीय काव्यशास्त्र के इतिहास में हमेशा याद किए जाएँगें।

'भक्तिरसामृतसिन्धु' और 'उज्जवलनीलमणि' दोनों में रसों का निरूपण किया गया है। भक्तिरसामृतसिन्धु में चार विभाग हैं - पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण। प्रत्येक विभाग लहरियों में विभक्त है। इसमें भक्ति रस को रसराज कहा गया है। 'पूर्व' विद्या में भक्ति का स्वरूप, लक्षण (परिभाषा) आदि का निरूपण है। 'दक्षिण' विभाग में भक्ति रस के विभाव अनुभाव, व्यभिचारीभाव तथा स्थायीभावों का विवेचन है। 'पश्चिम' विभाग में भक्ति रस के विभिन्न भेदों का प्रतिपादन किया गया हैं। 'उत्तर' विभाग में अन्य रसों का निरूपण पाया जाता है। दूसरा ग्रंथ 'उज्जवलनीलमणि' 'भक्तिरसामृतसिन्धु' का पूरक है और इसमें मधुर शृंगार का प्रतिपादन है। 'नाटकचन्द्रिका' आचार्य भरतकृत 'नाटयशास्त्र'और आचार्य शिंगभूपालकृत 'रसार्णवसुधाकर' के आधार पर लिखा गया नाटयशास्त्र का ग्रंथ है।

'भक्तिरसामृतसिन्धु' और 'उज्जवलनीलमणि' पर इनके भतीजे आचार्य जीवगोस्वामी द्वारा क्रमश: 'दुर्गमसंगिनी' और 'लोचनरोचनी' नामक टीकाएँ लिखी गयीं हैं।

आचार्य केशव मिश्र

आचार्य केशव मिश्र का काल भी सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध है और ये दिल्ली के निवासी थे। इन्होंने कांगड़ा नरेश माणिक्यचन्द्र के अनुरोध पर 'अलंकारशेखर' नामक ग्रंथ की रचना की। राजा माणिक्यचन्द्र महाराज धर्मचन्द्र के पुत्र थे और 1563 ई0 में काँगड़ा की गद्दी पर बैठे। इनका शासन-काल दस वर्षों तक ही रहा।

'अलंकारशेखर' में कारिकाएँ हैं और उन पर वृत्ति भी स्वयं आचार्य केशव मिश्र ने लिखी है। यह आठ रत्नों में विभक्त है। प्रथम रत्न में काव्य का लक्षण, द्वितीय में रीति, तृतीय में शब्द शक्ति, चतुर्थ में पद दोष, पंचम में वाक्य दोष, षष्ठ में अर्थदोष, सप्तम में शब्दगुण, अर्थगुण, दोषों का गुणभाव और अष्टम रत्न में अलंकार तथा रूपक (नाटक) आदि विषयों का प्रतिपादन किया गया है।

आचार्य ने लिखा है कि इन्होंने 'अलंकारशेखर' ग्रंथ की रचना भगवान शौद्धोदनि द्वारा विरचित किसी काव्यशास्त्र विषयक ग्रंथ के आधार पर की है। लेकिन अब तक भगवान शौद्धोदनि और उनके द्वारा विरचित किसी ग्रंथ का पता नहीं चल पाया है।

*****

आज का विचार :: शान्ति

आज का विचार :: शान्ति

Clear Day Bkgrd यदि आपको अपने ही अन्‍दर शान्ति नहीं मिल पाती तो भला इस विश्‍व में कहीं और कैसे पा सकते हैं।

रविवार, 25 जुलाई 2010

काव्य लक्षण – 10 :: वाक्यं रसात्मकं काव्यम्

PH02412K काव्य लक्षण – 10

::

वाक्यं रसात्मकं काव्यम्

आचार्य विश्‍वनाथ के बारे में आप पढ चुके हैं (लिंक यहां है)। इनका ग्रंथ 'साहित्यदर्पण' काव्यशास्त्र का बड़ा ही प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रंथ है। वे रसवादी आचार्य हैं। काव्य लक्षण की परिभाषा करते हुए उन्होंने कहा था, वाक्यं रसात्मकं काव्यम्”अर्थात् रसयुक्त वाक्य काव्य है।

J0182689 आचार्य विश्‍वनाथ ने ’काव्यत्व’ के लिए ’रसत्व’ का आधार ग्रहण किया। उनके अनुसार गुण, अलंकार, वक्रोक्ति, ध्वनि आदि सभी रस के पोषक हैं। आचार्य विश्‍वनाथ का मानना था कि रसात्मक वाक्य में शब्द और अर्थ दोनों समाहित हैं।

रसात्मक एक कठिन अवधारणा है। इसे समझना सहज नहीं है। आचार्य विश्‍वनाथ ने भामह के “शब्दार्थौ सहितौ काव्यम” के स्थान पर  वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” का प्रयोग किया। वाक्य में काव्य शरीर तथा रसात्मक में काव्य की आत्मा समाहित है। रसात्मकता के आधार पर प्रतिपादित काव्य लक्षण की इस परिभाषा के आधार पर हम कह सकते हैं कि काव्यात्मा और काव्यात्मकता दोनों में रस का महत्व है।

 

म्

आज का विचार :: विराम

J0099160 आज का विचार :: विराम

J0099161 आपको भाषा का अल्‍प विराम व पूर्ण विराम लगाना आता है परन्‍तु क्‍या व्‍यर्थ संकल्‍पों पर भी पूर्ण विराम लगाना आता है?

शनिवार, 24 जुलाई 2010

काव्य लक्षण – 9 :: तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि

काव्य लक्षण – 9 :: तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि

आचार्य मम्मट ने काव्य-प्रकाश में काव्य लक्षण की चर्चा करते हुए कहा है

तद्दोषौ शब्दार्थौ सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि

अर्थात दोष रहित, गुणसहित और कभी-कभार अनलंकृत शब्द और अर्थमयी रचना काव्य है। इस परिभाषा में हम पाते हैं कि इसमें दोषों के अभाव और गुणों के भाव को प्रधानता दी गई है। इसमें अलंकारों को बहुत आवश्यक नहीं माना गया है।

आचार्य विश्‍वनाथ ने मम्मट के इस मत की आलोचना की है। उन्होंने कहा कि श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कविताओं में कभी-कभार दोष तो निकल ही आता है। और जब दोष निकल आता है तो उसे हम कविता की श्रेणी से थोड़े ही हटा देते हैं।

इस प्रकार “दोष रहित”, काव्य का एक नकारात्मक लक्षण है।

इसके अलावा अलंकार कविता के लिए ज़रूरी नहीं है यह तो मम्मट ने कहा पर न ही रस का संकेत दिया और न ही ध्वनि या वक्रोक्ति का। उनकी परिभाषा में केवल गुण का संकेत है।

इसके बावज़ूद भी मम्मट का काव्य लक्षण काफी प्रसिद्ध रहा। इसका प्रमुख कारण था इसका काफी सरल होना। हालाकि इसमें मौलिकता कम और समझौता अधिक है। वे अलंकारवादियों को भी ख़ुश रखना चाहते थे साथ ही गुणवादियों को भी। साथ ही साथ वे रस और ध्वनिवादियों का भी विरोध नहीं करते।

आज का विचार : उदारता, हैसियत

image

image

शुक्रवार, 23 जुलाई 2010

काव्‍य लक्षण-8 :: वक्रतामय कवि-कौशलयुक्‍त मर्मस्‍पर्शी शब्‍दार्थ काव्‍य है

काव्‍य लक्षण-8

वक्रतामय कवि-कौशलयुक्‍त मर्मस्‍पर्शी शब्‍दार्थ काव्‍य है

आचार्य कुन्‍तक ने आनन्‍दवर्धन और अभिनवगुप्त द्वारा प्रतिपादित काव्‍य दर्शन की व्‍याख्‍या करते हुए कहा कि “वक्रोक्ति” ही काव्‍य का व्‍यापक गुण है। यही काव्‍य की आत्मा है।

उनका मानना था कि कवि कर्म सामान्‍य आदमी के रास्‍ते से अलग है। कवि की शब्‍दाववली वक्र हो, तो उसमें कल्‍पना की उड़ान भरने के लिए काफी जगह होती है। आचार्य कुन्‍तक ने वक्रता को सुरूचि सम्‍पन्‍न व्‍यक्ति के द्वारा किसी बात को कहने का विशेष गुण माना। उन्‍होंने वक्रोक्तिजीवितम् में काव्‍य के लक्षण की चर्चा करते हुए कहा –

शब्‍दार्थौ सहितौ वक्र कवि व्‍यापारशालिनि।

बन्धे व्‍यवस्थितौ काव्‍यं तद्विदाह्लादकारिणी।।

इसमें काव्‍य के भाव पक्ष की व्‍याख्‍या की गई है। इसे समझने के लिए हमें वक्रोक्ति को समझना होगा। आचार्य कुन्‍तक का मानना था,

“वक्रतामय कवि-कौशलयुक्‍त मर्मस्‍पर्शी शब्‍दार्थ काव्‍य है।”

वक्रोक्ति से तात्‍पर्य यह है कि किसी विशेष अर्थ को अभिव्‍यक्‍त करने के लिए भाषा में अनेक शब्‍द होते हैं, किन्‍तु कवि उसी शब्‍द का प्रयोग करता है जो उस अर्थ-विशेष को व्‍यक्‍त करने में सबसे ज्‍यादा समर्थ हो।

आचार्य कुन्‍तक का मानना था कि काव्‍यार्थ सहृदय होता है। अर्थ और ध्‍वनित शब्द दोनों ही काव्‍य के अलंकार्य हैं, ये स्‍वयं अलंकार नहीं है। अलंकार तो काव्‍य की शोभा बाहर से बढ़ाते हैं। अलंकार शब्‍द और अर्थ दोनों को अलंकृत कर सकते हैं। जो रचना अलंकृत होगी उसका सौंदर्य अद्भुत होगा। कुन्‍तक वक्रोक्ति से अभिव्‍यंजना के सौन्दर्य का अर्थ लेते हैं। काव्य में जिस विषय का वर्णन किया जा रहा है, वक्रोक्ति,  उसमें नवदीप्ति उत्‍पन्‍न कर सकता है।

आचार्य कुंतक का मानना था कि वक्रोक्ति अभिव्‍यंजना की सीमा का अतिक्रमण कर जाती है। कुन्‍तक ने काव्य के वर्ण्‍य-पक्ष पर कम बल दिया और अभिव्‍यंजन पक्ष पर विशेष बल दिया। यही कारण है कि उनकी वक्रोक्ति विषय की अवधारणा बहुत ज्‍यादा प्रसिद्धि नहीं पा सकी ।

आज का विचार :: मनुष्‍यता

image

image

बुधवार, 21 जुलाई 2010

काव्य लक्षण- 7 :: काव्य की आत्मा - ध्वनि

काव्य लक्षण- 7

::

काव्य की आत्मा – ध्वनि

अलंकारवादी आचार्यों ने काव्य के लक्षण के संबंध में चर्चा करते हुए काव्य के शरीर पक्ष की चर्चा की। दूसरे शब्दों में हम कह सकते हैं कि उन्होंने काव्य के बाहरी सौन्दर्य को ही प्रधानता दी। इसके परिणामस्वरूप ऐसा प्रतीत होता है कि काव्य के आंतरिक सौन्दर्य की कहीं न कहीं उपेक्षा हुई। वे काव्य के अन्य लक्षण रस, रीति, गुण को भी अलंकार के माध्यम से ही समझाते रहे।

नवीं शताब्दी में अचार्य आनन्दवर्धन ने काव्य लक्षण की एक नई व्याख्या प्रस्तुत की। उन्होंने अब तक स्थापित परंपराओं का विरोध किया। उनके इस वैचारिक क्रांति का दस्तावेज़ है “ध्वन्यालोक” ग्रंथ। उनके मतानुसार काव्य की आत्मा ध्वनि है। उन्होंने कहा कि अलंकार और अलंकार्य अलग-अलग हैं। उन्होंने रस को भी काफ़ी महत्व दिया। इस प्रकार उनके द्वारा एक  नए ढ़ंग से काव्य लक्षण की परंपरा शुरु हुई।

पिछले भाग
१.कविता क्या है?॥, ॥२.काव्य का लक्षण॥, ॥३.शब्दार्थौ सहितौ काव्यम॥, ॥४.शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवछिन्ना पदावली॥, ॥५.काव्यशब्दोsयं गुणालंकार संस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तर्ते॥, ॥६.ननु शब्दार्थौ काव्यम

आज का विचार :: दान

image

image

मंगलवार, 20 जुलाई 2010

ननु शब्दार्थौ काव्यम

ननु शब्दार्थौ काव्यम

काव्य लक्षण

आचार्य भामह ने कहा था “शब्दार्थौ सहितौ काव्यम”। तब से यह विवाद चलता रहा कि काव्य शब्द में है या अर्थ में या दोनों में। इस विवाद कि एक निर्णयात्मक मोड़ दिया आचार्य रुद्रट ने। उन्होंने काव्य का लक्षण करते हुए कहा,

ननु शब्दार्थौ काव्यम”।

अर्थात शब्दार्थ निश्चय ही काव्य है। यह विवाद आगे भी चलता रहा। हेमचन्द्र, विद्यानाथ, वाग्भट्ट, जयदेव, भोज आदि शब्दार्थ के सौंदर्य को काव्य मानते रहे। हां यह स्पष्ट था कि ये सभी भामह और मम्मट के काव्य लक्षण को थोड़े बहुत फेर-बदल के साथ प्रस्तुत करते रहे।

बाद में अग्निपुराणकार ने कहा,

“ध्वनि, वर्ण, पद और वाक्य का ही नाम वाँगमय है जिसके अंतर्गत शास्त्र, इतिहास तथा काव्य का समावेश होता है। किन्तु अमिधा के कारण काव्य शास्त्र और इतिहास से अलग होता है। काव्य लक्षण को उन्होंने पारिभाषित करते हुए कहा,

“जिस वाक्य समूह में अलंकार स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हों तथा जो गुणों से युक्त और दोषों से मुक्त हो उसे काव्य कहते हैं।”

आज का विचार :: विचार

image

image

सोमवार, 19 जुलाई 2010

काव्यशास्त्र – 24 :: आचार्य शारदातनय,आचार्य शिंगभूपाल और आचार्य भानुदत्त

काव्यशास्त्र – 24 :: आचार्य शारदातनय,आचार्य शिंगभूपाल और आचार्य भानुदत्त

मेरा फोटो
आचार्य परशुराम राय

imageआचार्य शारदातनय का काल 13वीं शताब्दी माना जाता है। इनके वास्तविक नाम का पता नहीं है। हो सकता है कि इनकी माँ का नाम शारदा रहा हो और उसी के आधार पर ये अपने को शारदातनय के रूप में कहने और लिखने लगे हों तथा यही नाम प्रसिद्ध हो गया हो। सन् 1320ई0 के लगभग आचार्य शिङ्गभूपाल हुए हैं जिनके विषय में आगे लिखा जाएगा। इन्होंने अपने ग्रंथ 'रसार्णवसुधाकर'में आचार्य शारदातनय के मतों का उल्लेख किया है। अतएव इनका काल उसके पहले निश्चित होता है।

आचार्य शारदातनय, नाट्यशास्त्र के आचार्य हैं और इन्होंने 'भावप्रकाशन' नामक ग्रंथ लिखा है जिसमें कुल दस अधिकार (अध्याय) हैं। इनमें क्रमश: भाव, रसस्वरूप, रसभेद, नायक-नायिका निरूपण, नायिकाभेद, शब्दार्थसम्बन्ध, नाटयेतिहास, दशरूपक, नृत्यभेद एवं नाट्य-प्रयोगों का प्रतिपादन किया हैं इस ग्रंथ में आचार्य भोज के 'शृंगारप्रकाश' तथा आचार्य मम्मट द्वारा विरचित'काव्यप्रकाश' से अनेक उद्धरण मिलते हैं।

image आचार्य शिंगभूपाल भी नाट्यशास्त्र के आचार्य हैं। अपने ग्रंथ 'रसार्णवसुधाकर' नामक ग्रंथ के अंत में पुष्पिका में अपना परिचय देते हुए लिखते हैं:-

'श्रीमदान्ध्रमण्डलाधीश्वरप्रतिगण्डभैरवश्रीअन्नप्रोतनरेन्द्रनन्दनभुजबलभीमश्रीशिङ्गभूपालविरचिते रसार्णवसुधाकरनाम्नि नाट्यलङ्कारे रञ्जकोल्लासो नाम प्रथमो विलास:।

उक्त कथन से लगता है कि ये आंध्र के राजा अन्नप्रोत की संतान और आंध्र मण्डल के अधीश्वर थे। ये अपने को शूद्र लिखते हैं। 'रसार्णवसुधाकर' के आरम्भ में अपने वंश आदि का उल्लेख करते हुए इन्होंने जो विवरण दिया है उससे पता चलता है कि ये 'रेचल्ला' वंश में उत्पन्न हुए। इनके छ: पुत्र थे तथा इनका शासन विन्ध्याचल से लेकर श्रीबोल पर्वत के मध्य भाग तक फैला हुआ था। इनकी राजधानी 'राजाचल' थी।

'रसार्णवसुधाकर' में कुल तीन उल्लास हैं - रञ्जकोल्लास, रसिकोल्लास और भावोल्लास। प्रथम उल्लास में नायक-नायिका विवेचन, दूसरे में इसका निरूपण तथा तीसरे में रूपकों (नाटकों) के वस्तुविन्यास का विस्तार से प्रतिपादन मिलता है। आचार्य शिंगभूपाल की भाषा सरल और सुबोध है। इसके अतिरिक्त संगीतनाट्य के आचार्य शार्गदेव द्वारा विरचित 'संगीतरत्नाकर' पर इन्होंने'संगीतसुधाकर' नामक टीका भी लिखी है।

image14वीं शताब्दी में ही आचार्य भानुदत्त का काल आता है और ये मिथिला के निवासी थे। इनके पिता का नाम गणेश्वर था, जो मंत्री थे। धर्मशास्त्र एक ग्रंथ 'विवादरत्नाकर' मिलता है जिसके प्रणेता आचार्य चण्डेश्वर हैं। इन्होंने भी अपने पिता का नाम गणेश्वर बताया है। अतएव लगता है कि आचार्य भानुदत्त और आचार्य चण्डेश्वर दोनों भाई-भाई थे। ऐसा उल्लेख मिलता है कि आचार्य चण्डेश्वर 1315ई0 में अपना तुलादान करवाया था। 1428ई0 में आचार्य गोपाल ने आचार्य भानुदत्त की पुस्तक 'रसमञ्जरी' पर 'विकास' नामक टीका लिखी। अतएव निर्विवाद रूप से आचार्य भानुदत्त का काल 14वीं शताब्दी माना जा सकता है। 'रसमञ्जरी' के अन्तिम श्लोक में अपना परिचय देते हुए इन्होंने इस प्रकार लिखा है:-

तातो यस्य गणेश्वर: कविकुलालङ्कारचूडामणि:।

देशो यस्य विदेहभू: सुरसरित्कल्लोलकिमीरिता॥

आचार्य भानुदत्त के तीन ग्रंथ मिलते हैं - रसमञ्जरी, रसतरङ्गिणी और गीतगौरीपति'रसमञ्जरी'काव्यशास्त्र की पुस्तक है। 'रसतरङ्गिणी' रसमञ्जरी का ही संक्षिप्त रूप में लिखा गया ग्रंथ है और'गीतगौरीपति' आचार्य जयदेवकृत 'गीतगोविन्द' की भाँति गीतिकाव्य है।

आज का विचार :: चिन्‍ता

image

image

रविवार, 18 जुलाई 2010

काव्यशब्दोsयं गुणालंकार संस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तर्ते।

08102009151मनोज कुमार

image

काव्य शब्द में है या अर्थ मे? भामह ने तो कहा था “शब्दार्थो सहितौ काव्यम”। आचार्य वामन को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। परन्तु उनके मन में यह प्रश्‍न तो था ही कि क्या सामान्य शब्द और अर्थ ही काव्य हैं?

वामन का मनना था कि शब्दालंकार और अर्थालंकार से युक्त काव्य शब्दार्थ काव्य है। अपने काव्यालंकार सूत्र में उन्होंने कहा था

काव्यशब्दोsयं गुणालंकार संस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्तर्ते। वचनोsत्र गृह्यते।

हालाकि वे यह मानते थे कि अलंकार तत्व के कारण ही काव्य ग्राह्य होता है, किन्तु वे “सौंदर्यमलंकारः” की भी बात करते हैं।
“काव्यः शोभायाः कर्तारो धर्मा हुणाः।”

उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम पाते हैं कि वामन ने काव्य की ग्राह्यता को सौंदर्य से जोड़ दिया। वामन के अनुसार दोष-रहित, सगुण, सालंकार शब्दार्थ काव्य है। विद्वानों का मानना है कि वामन न तो काव्य का शास्त्रीय लक्षण ही कर पाए न अलंकारवादियों की कतार में बैठ सके। जहां एक तरफ़ रसवादी गुण का संबंध रस से जोड़ते हैं वहीं दूसरी तरफ़ वामन गुण का संबंध अर्थ और शब्द से जोड़ते हैं। कुल मिलाकर देखा जाए तो वामन ने दण्डी के मार्ग को नए ढ़ंग से विस्तार दिया और अलंकार से आगे गुण की चर्चा की।

आज का विचार :: सम्‍मान

image

image

शनिवार, 17 जुलाई 2010

शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवछिन्ना पदावली

image

आचार्य दण्डी की चर्चा इस ब्लॉग पर आप पढ़ चुके हैं। यदि नहीं पढ़ा तो (यहां) क्लिक कीजिए। आचार्य दण्डी का मत है कि

शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवछिन्ना पदावली”।

शब्दों के समूह से पदावली बनती है। दण्डी के अनुसार शब्दों का वह समूह जो सरसता से भरा हो और कवि-प्रतिभा से युक्त सुंदर पदावली से अलग किया हो, को काव्य-शरीर कहा जा सकता है। उन्होंने काव्य-शरीर पर विचार किया। उनके अनुसार जिन पदों में वाक्यत्व की योग्यता हो उन्हें काव्य कहा जा सकता है। साथ ही पदावली ईष्टार्थ युक्त होना चाहिए। इसमें योग्यता के अलावा आकांक्षा और आसक्ति जैसी विशेषतएं भी होनी चाहिए। तभी काव्य के अर्थ में चमत्कार की सृष्टि होगी। दण्डी के इस कथन में अलंकार के साथ रस की अपेक्शा भी है। किन्तु उनका रस भावात्मक आनंद के लिए न होकर अलंकार के चमत्कार से उत्पन्न आनंद के लिए है। दण्डी के अनुसार सभी अलंकारों का उद्देश्य रस की सृष्टि करना है। वे काव्यानंद के लिए शब्दालंकार-अर्थालंकार के साथ रसवद अलंकार को भी शामिल करते हैं। उनके अनुसार शब्द-अर्थ-रस-सौंदर्य के मेल से बनी विशिष्ट पदावली ही काव्य है।

अदम गोंडवी

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

इन रोम डू ऐज रोमन डू

इन रोम डू ऐज रोमन डू


  बात उन दिनों की है जब मैं एम.ए. की परीक्षा उत्‍तीर्ण कर मैं मुम्‍बई विश्‍वविद्यालय के गरवारे इन्स्ट्टियूट में पत्रकारिता एवं जनसंचार का एक वर्षीय पी.जी डिप्‍लोमा कर रहा था। इस दौरान मैंने आयुध निर्माणी संगठन के मशीनी औजार आदिरूप निर्माणी, अम्‍बरनाथ में कनिष्‍ठ हिन्‍दी अनुवादक पद के लिए परीक्षा दी थी। चँकि मैं लिखित परीक्षा उत्‍तीर्ण हो गया था तथा मेरा साक्षात्‍कार भी बहुत अच्‍छा रहा था अत: मैं अपनी सफलता के प्रति बहुत ही आशान्वित था ।

हर दिन मैं नई उम्‍मीद के साथ सवेरे जागता और मन ही मन चयन पत्र पाने की कामना करता। इस दौरान मैं नियमित रूप से पत्रकारिता के क्‍लास में उपस्थित होता रहा। इसके लिए मुझे अप.04:00 बजे अम्‍बरनाथ से कुर्ला के लिए निकलना पड़ता था और गरवारे इन्स्ट्टियूट में शाम 06:00 बजे से रात 08:30 बजे तक कक्षा अटेंड पड़ता था। अम्‍बरनाथ से कुर्ला स्‍टेशन तक की लोकल यात्रा जितनी आरमदायक थी, वहीं कुर्ला से अम्‍बरनाथ तक की वापसी यात्रा उतनी ही कष्‍टदायी होती थीं क्‍योंकि मुम्‍बई में काम करने वाले अधिकांश लोग उपनगरों में रहते हैं तथा अल सवरे ही लोकल से मुम्‍बई अपनी रोजी-रोटी के जुगाड़ में निकल जाते हैं तथा शाम 05:00 बजे से लोगों का हुजुम लोकल ट्रेनों से उपनगर स्थित अपने घरों की और लौटता है। ऐसे में कुर्ला स्‍टेशन में रात 09:00 बजे लोकल ट्रेन में बैठने के लिए जगह पाना तो दूर घुस पाना भी जंग जीतने की तरह था।

बहरहाल किसी तरह मैंने अपने आप को परिस्थितियों के अनुरूप ढाल लिया और नियमित रूप से कक्षाएं अटेन्‍ड करने लगा । इसी दौरान एक दिन शाम को चिरप्रतीक्षित समाचार प्राप्‍त हुआ । यह समाचार था आयु निर्माणी में मेरी नियुक्ति का । लगभग 15 दिनों में चरित्र सत्‍यापन तथा मेडिकल परीक्षण संबंधी औपचारिकताएं पूर्ण होने के उपरान्‍त मैं शासकीय सेवा में आ गया।   

अब मेरी दिनचर्या बदल गई थी । सुबह 08:00 बजे से शाम 05:00 बजे तक मुझे निर्माणी में अनुवाद तथा राजभाषा कार्यान्‍वयन संबंधित कार्य करना होता था। यहॉं मेरे लिए सीखने के लिए बहुत कुछ था किन्‍तु कार्यालय से निकलतेनिकलते शाम 05:30 बज ही जाते थे। ऐसे में पत्रकारिता की कक्षा में उपस्थित होना नामुनकिन हो जाता था। इसे लेकर मैं बहुत परेशान था। एक दिन मेरी परेशानी को भॉंपते हुए मेरे हिन्‍दी अधिकारी, श्री चन्‍द्रभान मौर्य जी ने इसका कारण पूछा तो मैंने उन्‍हें सारी बातें बता दी। इस पर हिन्‍दी अधिकारी महदोय ने कहा ’’ यह पाठ्यक्रम तो हम राजभाषा कार्मिकों के लिए बहुत लाभप्रद है। इस पाठ्यक्रम को तुम अवश्‍य पूरा करो, मैं तुम्‍हें हरसंभव सहुलियत दूँगा। उनकी सलाह पर मैंने ओपनिंग ड्यूटी ले ली तथा कार्यालय आधे घण्‍टे पहले आने लगा जिससे मुझे शाम 04:30 बजे ही कार्यालय से निकलने की सहुलियत प्राप्‍त हो गई। इसप्रकार मैं अब कार्यालय के साथ-साथ पूर्वोक्‍त कोर्स भी करने लगा।

अब मैं किसी तरह 06:30 तक अपने गरवारे संस्‍थान पहुँच जाता था और क्‍लास अटेन्‍ड कर रात 10:30 बजे तक अम्‍बरनाथ लौट आता था। मैं पहले ही बता चुका हूँ कि शाम को सी.एस.टी.स्‍टेशन से उपनगर की ओर लौटने वाली लोकल ट्रेनों में असहनीय भीड़ होती है तथा कोई नौसिखिया आदमी चाहते हुए भी इन लोकल ट्रेनों में घुस नहीं पाता है। किसी तरह मैं अपनी दिनचर्या में ढलने की कोशिश करने लगा और कुछ दिनों बाद चलती ट्रेन को कुर्ला प्‍लेटफार्म पर रूकने से पूर्व ही पकड़ने के जोखिमपूर्ण कला में मुझे माहरत हासिल हो गयी। अब क्‍लासेस समाप्‍त करके लोकल ट्रेन में यात्रियों की भीड़ से जद्दोजहद करते हुए घर आना मेरे लिए कोई कठिन काम नहीं रहा।

इसी तरह एक दिन मैं क्‍लास अटेन्‍ड कर कुर्ला स्‍टेशन पर अम्‍बरनाथ लोकल ट्रेन आने का इंतजार कर रहा था। इस बीच मैंने स्‍टेशन पर सफेद कुर्तापयजामा पहने लगभग 40 वर्षीय नेत्रहीन व्‍यक्ति को देखा जो डंडा पकड़े हुए प्‍लेटफार्म पर मुझसे कुछ फासले पर खड़ा था। उसके बाल करीने से कटे हुए थे तथा वह किसी अच्‍छे घर का व्‍यक्ति जान पड़ता था। यात्रियों की भीड़ बिना उसकी परवाह किए हुए उसके अगल-बगल से बड़ी तेजी से निकल रही थी। इससे उसे चोट लगने की प्रबल सम्‍भावना थी। उसकी स्थिति पर मुझे दया भी आ रही थी पर इसके पहले मैं उसके लिए मैं कुछ कर पाता की अम्‍बरनाथ के लिए लोकल ट्रेन आ गई । मैं बिना समय गवाए ट्रेन के रूकने से पहले ही उसके साथ भागते हुए एक कम्‍पार्टमेन्‍ट में चढ़ गया और भीड़ के बावजूद सीट पर कब्‍जा जमाने में कामयाब रहा । मैंने देखा की बहुत सारे लोग अब भी ट्रेन में चढ़ने की कोशिश कर रहे थे, पर उनसे मुझे क्‍या ! मैं तो सीट पा गया था । यह फास्‍ट ट्रेन थी इसलिए कुछ सीमित स्‍टेशनों पर ही रूकती थी। कुछ देर में ट्रेन चल पड़ी सभी लोग जैसे-तैसे अपने को टिकाने का प्रयास कर रहे थे इस बीच मुझे वहीं कुर्तापयजामा वाला नेत्रहीन व्‍यक्ति भीड़ में अपनी जगह बनाने के प्रयास में कसमसाता हुआ दिखाई दिया । मुझे लोगों के साथ-साथ अपने पर भी क्रोध आया कि एक नेत्रहीन व्‍यक्ति की तकलीफों की लोग किस तरह उपेक्षा कर रहे हैं और मैं कैसे यह सब बैठे-बैठे देख रहा हूँ। आखिर हमें स्‍कूल, परिवार तथा समाज से कुछ सीख तो मिली है ! समाज के कमजोर वर्गों एवं उपेक्षित व अपंग लोगों के प्रति हमारी कुछ तो जिम्‍मेदारी होनी चाहिए। यह सोचते हुए मैं अपनी सीट से ऊठा और उसे आवा दी ''अरे, यार। यहॉं आओ, मेरी सीट पर बैठ जाओ।'' मेरे अगल-बगल बैठे सज्‍जनों में कुछ लोग मुझे ऐसा करते देख मुस्‍कराने लगे तथा कुछ लोग पहले की भॉंति ऑंखें मुंदे बैठे रहे जैसे कि यदि उन्‍होंने ऑंखें खोली तो कोई उन्‍हें उनकी सीट से ऊठा देगा। कुछ लोग प्रशंसा से मेरी ओर देखने लगे। मैं उन लागों के बीच में एक मात्र दानवीर कर्ण बना रहा। इसका परिणाम यह रहा कि ''मुलंड'' स्‍टेशन पर कई लोगों ने स्‍वयं खड़े होकर मुझे बैठने के लिए अपनी सीट देने की पेशकश की, पर मुझे तो उस दिन दानवीर कर्ण और शक्तिमान बनने का भूत सवार था इसलिए मैंने विनम्रतापूर्वक उनके प्रस्‍ताव को टाल दिया। 
    
इस बीच मुम्‍बई उपनगर का पहला स्‍टेशन ‘’थाणे’’ आ गया । लोगों का हुजुम ट्रेन से उतरा और चढ़ा पर अब ट्रेन में पहले की अपेक्षा भीड़ कुछ कम हई । मुझे बैठने के लिए आरामदायक तो नहीं पर ठीक-ठाक सीट मिल गई, लोग भी फैलफैल कर बैठ गए, अब ट्रेन सीधे 35 मिनट बाद एक अगले स्‍टेशन ‘’डोम्बिवली’’ पर रूकने वाली थी ।

हम सभी जानते है जब तक हम व्‍यक्तिगत रूप से किसी व्‍यक्ति विशेष को नहीं जानते तब तक उसके प्रति हमारा नजरिया बहुत कुछ उसके बाहरी रंग-रूप या यों कहे दिखावट पर निर्भर करता है। शायद यही कारण था कि कॉलेज के दौरान पूर्ण ईमानदारी से रेल पास निकाल कर अम्‍बरनाथ से उल्‍हासनगर तक ट्रेन यात्रा करने पर भी प्राय: हर सप्‍ताह टिकट चेकर मेरा ही पास चेक करता और वहीं मेरे गोर-चिट्टे, सुडौल चेहरे वाले मित्र जिन्‍होंने कॉलेज के दौरान शायद ही कभी रेलवे पास अथवा टिकट निकाला हो को, किसी टिकट चेकर ने टिकट पुछा । कहने का तात्‍पर्य यह है कि कि मैं स्‍वयं को रंग-रूप में ''बिलो-ऐवरेज'' मानता हूँ क्‍योंकि आज से 10 वर्ष पहले मैं काफी दूबलापतला, गहरे काले रंग वाला अनाकर्षक युवक लगता था और बिना शेविंग के तो मैं चरसी या छटा हुआ गुंडा ही दिखाई देता था।   

ट्रेन अब भी चल रही थी, अगले स्‍टेशन ‘’डोम्बिवली’’ के आने में अभी 20 मिनट का समय था। सभी लोग आराम से अपने सीट पर टिके हुए थे कि यकायक कुर्तापयजामा वाला नेत्रहीन युवक अपने सीट से ऊठा और कम्‍पार्टमेंट के आखिरी छोर पर सहजता से चला गया, मेरी नज़रें उस पर जम गई थी। मैं देखना चाहता था वह चलती ट्रेन में क्‍या करना चाहता है। मैंने देखा कि उसने अपने कुर्तें की जेब में हाथ डाला और एक छोटी कटोरी निकालने के साथ ही बेसुरा हिन्‍दी फिल्‍मी गीत गाते हुए लोगों से भीख माँगने लगा। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता वह भीख मॉंगते-मॉंगते हुए मेरी सीट के पास पहुँच गया।

अब तक जिन लोगों की ऑंखों में मैंने कुछ समय पहले अपनी दानवीरता एवं नेकनीयती के लिए प्रशंसा देखी थी उन्‍हीं में हिकारत देख रहा था। मैंने अनुभव किया कि चंद सेकंड पहले मैं अपनी सीट पर संकुचित अवस्‍था में बैठा था पर अब बहुत खुला - खुला महसुस कर रहा था। ऐसा भीड़ कम नहीं होने के बावजूद हो रहा था। अंतत: मैंने देखा जो लोग मेरे अगल-बगल बैठे थे वह अब वहॉं से उठ कर अन्‍यत्र बैठ गए। मैं शर्म के मारे उपनी जगह पर गड़ा जा रहा था। लोगों की घुरती नजरें मुझ पर लगी हुई थी और मैं उनसे ऑखें नहीं मिला पा रहा था, मैं गर्दन झुकाए ''डोम्बिवली'' स्‍टेशन के आने का इंतजार करने लगा। जैसे ही ट्रेन ने ''डोम्बिवली'' स्‍टेशन के प्‍लेटफार्म को छूआ, मैं अपनी कम्‍पार्टमेंट से कूद पड़ा और सबसे नज़र बचाते हुए आखिरी कम्‍पार्टमेन्‍ट में जा चढा । 

अब तक मैं समझ चुका था कि क्‍यों आज भी ‘’ इन रोम डू ऐज रोमन डू’’ कहावत प्रासंगिक हैं।