शुक्रवार, 31 दिसंबर 2010

नव वर्ष के अवसर पर...

-- हरीश प्रकाश गुप्त

नव वर्ष की शुभ्र ज्योत्सना,

द्युतिमय कर दे जीवन को

अजस्र उत्स सी बहे अहर्निश

वैभव, सुख, खुशियाँ भरने को,

 

अदिति-विवस्वत की छाया में

आगत ने अवसान कर दिया

विगत वर्ष का, अन्तराय का

गहन विवर में, शून्य विजन में,

 

नव वसंत की नूपुर ध्वनि-सी

स्मृतियाँ अवशेष रह गईं

मधुरिम-मधुरिम, सुखद सलोनी

मन आंगन के कोमल थल में,

 

अखिल शून्य के तारों के संग

दिन-ऋतु-प्रकृति मुक्त हँस खेली

जन-मन को अभिसिंचित करने

चहुँदिश में समृद्धि बिखेरी ।

000

बुधवार, 29 दिसंबर 2010

पुस्तक चर्चा :: ‘सीढ़ियों पर धूप में’ ... रघुवीर सहाय

पुस्तक चर्चा

‘सीढ़ियों पर धूप में’ ... रघुवीर सहाय

30 दिसंबर पुण्य तिथि पर

30 दिसंबर 1990 को नयी कविता के महत्त्वपूर्ण कवियों में से एक श्री रघुवीर सहाय का निधन हुआ था। उनकी पुण्य तिथि पर 1960 में प्रकाशित उनकी पहली पुस्तक ‘सीढ़ियों पर धूप में’ की चर्चा करते हैं। यह सहाय जी की पहली पुस्तक है जिसमें उनकी कविताएं, कहानियां और वैचारिक टिप्पणियां एक साथ संकलित हैं। इस पुस्तक का संपादन सच्चिदानंद वात्स्यायन अज्ञेय ने किया था। इस पुस्तक की रचनाएं पिछली शताब्दी के साठ के दशक की हैं। वह दौर नये साहित्य के आरंभ का दौर था। सहाय जी नये साहित्य के आरंभकर्त्ताओं में से रहे हैं। इस पुस्तक में दस कहानियां, ग्यारह लेख और अठहत्तर कविताएं हैं।

‘लेखक के चारों ओर’ पुस्तक का लेख खण्ड है जिसमें ‘लेखक की नोट बुक से’ शीर्षक आलेख में लिखते हैं,

“सबसे बड़ा आत्महनन जो किया जा सकता है वह है ‘लिखना’। अब हम कैसे बताएं कि लिखना कितना बड़ा दर्द है, कितना बड़ा त्याग है। बताना मुश्किल है क्योंकि वह कई एक ऐसी वस्तुओं का त्याग है जिन्हें साधारणतया कोई महत्त्व नहीं दिया जाता।”

इस पुस्तक की भूमिका में अज्ञेय जी कहते हैं, “नये हिन्दी के गद्य लेखकों में जिन्हें वास्तव में माडर्न कहा जा सकता है, उनमें रघुवीर सहाय अन्यतम हैं।” समय के बारे में सहाय जी की अवधारणा ‘लेखक की नोट बुक से’ में रखते हुए कहते हैं,

“रचना के लिए किसी-न-किसी रूप में वर्तमान से पलायन आवश्यक है। कोई-कोई ही इस पलायन को सुरुचिपूर्वक निभा पाते हैं, अधिकतर लोग अतीत के गौरव में लौट जाने की भद्दी ग़लती कर बैठते हैं और वह भूल जाते हैं कि वर्तमान से मुक्त होने का प्रयोजन कालातीत होना है, मृत जीवन का भूत बनना नहीं।”

यह एक पुस्तक एक साथ ही एक रचनाकार का पूरा प्रतिनिधित्व करती है और पाठकों को तृप्त भी करती है। उनकी कहानिओं के बारे में इस पुस्तक के संपादक अज्ञेय जी का कहना है, “आधुनिक हिन्दी कहानी के विकास की चर्चा में, यदि ‘आधुनिक’ पर बल दिया जा रहा हो, तो पहले दो-तीन नामों में अवश्यमेव उनका नाम लेना होगा : कदाचित्‌ पहला नाम ही उनका हो सकता है।” उनकी कहानी की चर्चा किसी दूसरे पोस्ट में किया जाएगा, आज कविताओं पर बात करते हैं।

भाषा में सहज प्रवाह उनकी कविता की प्रमुख विशेषता है। सहाय जी की भाषा, आधुनिक हिन्दी के काव्य की दृष्टि से सफल और एक अलग स्वाद रखती है। न्याय और बराबरी के आदर्श को बहुत ही सूक्ष्म स्तर पर कवि सहाय ने अपनी चेतना में आत्मसात किया। ‘हमने देखा’ शीर्षक कविता में कहते हैं,

जो हैं, वे भी हो जाया करते हैं कम

हैं ख़ास ढ़ंग दुख से ऊपर उठने का

है ख़ास तरह की उनकी अपनी तिकड़म

हम सहते हैं इसलिए कि हम सच्चे हैं

हम जो करते हैं वह ले जाते हैं वे

वे झूठे हैं लेकिन सब से अच्छे हैं

असमानता और अन्याय का प्रतिकार सहाय जी की रचनाओं का संवेदनात्मक उद्देश्य रहा है।

पानी का बिंब रघुवीर सहाय की कविताओं में बार-बार आया है। ‘पानी’ शीर्षक कविता में कहते हैं,

पानी का स्वरूप ही शीतल है

बाग़ में नल से फूटती उजली विपुल धार

कल-कल करता हुआ दूर-दूर तक जल

हरी में सीझता है

मिट्टी में रसता है

देखे से ताप हरता है मन का, दुख बिनसता है।

पानी न सिर्फ़ मनुष्य की पहली ज़रूरत है बल्कि समरसता और समता का प्रतीक भी। ‘आओ जल भरे बरतन’ कविता में कवि की अभिव्यक्ति है,

आओ, जल भरे बरतन में झांकें

सांस से पानी में डोल उठेंगी दोनों छायाएं

चौंक कर हम अलग-अलग हो जायेंगे

जैसे अब, तब भी न मिलायेंगे आंखें, आओ

‘जभी पानी बरसता है’ तो कवि सहाय को कुछ याद आता है। क्या?

जभी पानी बरसता है तभी घर की याद आती है

यह नहीं कि वहां हमारी प्रिया, बिरहिन, धर्मपत्नी है –

यह नहीं कि वहां खुला कुछ है पड़ा जो भीग जाएगा –

बल्कि यह कि वहां सभी कमरों-कुठरियों की दिवालों पर

उठी छत है।

उनके ‘पानी के संस्मरण’ कई हैं,

कौंध : दूर घोर वन में मूसलाधार वृष्टि

दुपहर : घना ताल : ऊपर झुकी आम की डाल

बयार : खिड़की पर खड़े, आ गयी फुहार

रात : उजली रेती के पार; सहसा दिखी

शान्त नदी गहरी

मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं।

रघुवीर सहाय उस काव्यतत्व का अन्वेषण करने पर अधिक ज़ोर देते थे जो कला की सौंदर्य परम्परा को आगे बढाता है। उनकी शुरु की कविताओं में भाषा के साथ एक खिलंदड़ापन मिलता है जो संवेदना के साथ बाद में काव्यगत विडंबना के लिए काम आता है। उनकी एक मशहूर कविता ‘दुनिया’ की भाषा में यही क्रीड़ाभाव देखा जा सकता है,

लोग या तो कृपा करते हैं या ख़ुशामद करते हैं

लोग या तो ईर्ष्या करते हैं या चुग़ली खाते हैं

लोग या तो शिष्टाचार करते हैं या खिसियाते हैं

लोग या तो पश्चात्ताप करते हैं या घिघियाते हैं

न कोई तारीफ़ करता है न कोई बुराई करता है

न कोई हंसता है न कोई रोता है

न कोई प्यार करता है न कोई नफ़रत

लोग या तो दया करते हैं या घमण्ड

दुनिया एक फंफुदियायी हुई सी चीज़ हो गयी है।

इसी तरह के भाषिक खिलंदड़ेपन की एक और कविता है जो मध्यमवर्गीय लोगों के बारे में है, ‘सभी लुजलुजे हैं’ जिसमें ऐसे चुने हुए शब्दों का इस्तेमाल किया गया है जो कविता में शायद ही कभी प्रयुक्त हुए हों,

खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्नाते हैं

चुल्लु में उल्लू हो जाते हैं

मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं

सो जाते हैं, बैठ रहते हैं, बुत्ता दे जाते हैं।

भाषा का यह खेल उनकी काव्य यात्रा में गंभीर होते हुए अपने जीवन की बात करते-करते एक और जीवन की बात करने लगता है, कविता ‘मेरा एक जीवन है’ में,

मेरा एक जीवन है

उसमें मेरे प्रिय हैं, मेरे हितैषी हैं, मेरे गुरुजन हैं

उसमें मेरा कोई अन्यतम भी है:

पर मेरा एक और जीवन है

जिसमें मैं अकेला हूं

जिस नगर के गलियारों फुटपाथों मैदानों में घूमा हूं

हंसा-खेला हूं

.....

पर इस हाहाहूती नगरी में अकेला हूं

सहाय जी हाहाहूती नगरी जैसे भाषिक प्रयोग से पूरी पूंजीवादी सभ्यता की चीखपुकार व्यक्त कर देते हैं, इसकी गलाकाट स्पर्धा का पर्दाफ़ाश कर देते हैं। कविता के अंत में वो कहते हैं,

पर मैं फिर भी जिऊंगा

इसी नगरी में रहूंगा

रूखी रोटी खाऊंगा और ठंडा पानी पियूंगा

क्योंकि मेरा एक और जीवन है और उसमें मैं अकेला हूं।

सहाय जी की भाषा संबंधी अन्वेषण के बारे में महेश आलोक के शब्दों में कहें तो, “सहाय निरन्तर शब्दों की रचनात्मक गरमाहट, खरोंच और उसकी आंच को उत्सवधर्मी होने से बचाते हैं और लगभग कविता के लिए अनुपयुक्त हो गये शब्दों की अर्थ सघनता को बहुत हल्के से खोलते हुए एक खास किस्म के गद्यात्मक तेवर को रिटौरिकल मुहावरे में तब्दील कर देते हैं।”

इस पुस्तक की कुछ कविताएं छन्द में भी हैं। हालाकि जिस समय इनका सृजन हुआ तब हिन्दी कविता छन्दमुक्त हो चुकी थी। सहाय जी यह मानते रहे कि कविता को श्रव्य भी होना चाहिए। और इसके लिए छन्द मददगार साबित होता है। ‘स्वागत-सुख’ में लिखा है,

जैसे जैसे यह लिखता हूं, छन्द बदन में नाच रहा है

मन जिस सुख को लिख आया है, फिर फिर उसको बांच रहा है

विह्वलता स्तम्भित होगी यह, रच जायेगा मन में नर्तन

इस से और सरलतर होगा इस स्वागत-सुख का अभिनन्दन।

‘मर्म’ कविता पर छायावाद युग के निराला का प्रभाव स्पष्ट है,

यह रिक्त अर्थ उन्मुक्त छन्द

संस्मरणहीन जैसे सुगन्ध,

यह तेरे मन का कुप्रबन्ध –

यह तो जीवन का मर्म नहीं।

उनकी कविताओं में लय का एक खास स्थान हमेशा रहा। उनके लय के संबंध में दृष्टि उनके इस कथन से मिलती है, “आधुनिक कविता में संसार के नये संगीत का विशेष स्थान है और वह आधुनिक संवेदना का आवश्यक अंग है।”

‘भक्ति है यह’ कविता उदाहरण के तौर पर लेते हैं,

भक्ति है यह

ईश-गुण-गायन नहीं है

यह व्यथा है

यह नहीं दुख की कथा है

यह हमारा कर्म है, कृति है

यही निष्कृति नहीं है

यह हमारा गर्व है

यह साधना है – साध्य विनती है।

रघुवीर सहाय की काव्य भाषा बोलचाल की भाषा है। पर इसी सहजपन में यह जीवन के यथार्थ को, उसके कटु एवं तिक्त अनुभव को पूरी शक्ति के साथ अभिव्यक्त करने में समर्थ है। साथ ही यह देख कर आश्चर्य होता है कि अनेक कविताएं पारंपरिक छंदों के नये उपयोग से निर्मित हैं।

सोमवार, 27 दिसंबर 2010

आह्वान


आह्वान मत करो
नए साल में खुशियों का
क्यों कि खुशियाँ तो
महज़ धोखा हैं ।
आह्वान करना है तो करो -
ख़ुद से ख़ुद को मिलने का
नए संकल्प करने का
ये वक्त मदमस्त हो
गंवाने का नही है
वक्त है
आंकलन करने का कि -
गए वर्ष में हमने
क्या खोया
क्या पाया है ।
ख़ुद में विश्वास जगाना है
वो सब पाने का
जो हम सोचते हैं कि
खो चुके हैं ।
आज करना है तो
अपने आत्मविश्वास का
आवाहन करो
नए वक्त को
अपने अनुरूप बनाओ
न कि वक्त के साथ
ढल जाओ ।
अपने लिए नही
दूसरों के लिए जियो
अपनो के लिए नही
देश के लिए कुछ करो .

संगीता स्वरुप

रविवार, 26 दिसंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-17 :: तेल जले तेली का आँख फटे मशालची का

कहानी ऐसे बनी-17
तेल जले तेली का आँख फटे मशालची का

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

जय हो ! जय हो.... !! आप सोच रहे होंगे हम इतना फुदक क्यों रहे हैं.... ? वजह वाजीब है। खरमास गया। अरे बाप रे बाप... ! इस बार जो शीतलहरी पड़ा है, पूछिये मत। एक पखवाड़ा तो पता ही नहीं लगा कि दिन है कि रात। गोसांई बाबा भी दोपहर में एक घड़ी के लिए उगते थे और धूप-अगरबत्ती दिखा के लापता! आदमी तो आदमी पशु-पक्षी सब का प्राण भी आफ़त में था। बिल में रहने वाला सांप सब जहां-तहां उलट गया। कितने बूढे-वृद्ध लटक गए... मगर यह हार कंपा के खून जमा देने वाली शीतलहरी में सतगामा खाने की हिम्मत नहीं हुई।

तिल-संक्रांति का चूरा-दही खा कर भी शीतलहरी नहीं गई। खोखाई ओझा पंचांग देख कर बोले फगुनाहट में भी उग्रास नहीं होगा। शनिचर वाम और मंगल दाहिना हैं। बिना हनुमान जी के अष्टयाम किये कोई उपाय नहीं है। 'मृखा न होहि देव रिसी बानी'। खोखाई ओझा भी कोई कम पहुंचे हुए महत्मा नहीं हैं। उनका ब्रह्म-बाक्‌ कभी झूठ नहीं हो सकता। ऐसे काल के पहरा से मुक्ति के लिए नवाह भी करना पड़े तो कम ही है।

गाँव के मानजन सब पीपल के नीचे बैठे। धनेसर चौधरी बोले कि पर-प्रसाद, और मंडली के पान-बीड़ी का खर्चा हम देंगे। भगलू दास ने मूलगैन मंडली को बुलाने का ठेका लिया। बचनुआ हजाम हवन के जुगार पर चला। खुरचन मांझी तिरपाल टांगने लगा। बड़का कोल्हू वाला भोजू फ्री में तेल देने के लिए तैयार हो गया। खोखाई झा फिर से पंचांग में शुभ मुहुर्त देख कर खद्दर वाला चादर ओढ़ कर संकल्प कराने बैठ गए। बाल-ब्रहमचारी मौजे पहलवान ने संकल्प लिया।

आठ घंटा अष्टयाम चला ही था कि रात का सब कुहासा गायब। भूरुकबा तारा झक-झक करने लगा। आम की लकड़ी वाली हवन की धुनी से जो गर्मी आई कि शीतलहरी का बाप भी सिर पर पैर रख कर भग खड़ा हुआ। खोखाई झा खे-खे कर कहने लगे, 'देखा भगवान के नाम का प्रभाव।' "भूत-पिशाच निकट नहीं आबे। महावीर जब नाम सुनाबे॥" हनुमान जी का नाम सुन कर यह शीत-पिचास भी भाग गया। बात हो ही रही थी कि घुप्प... धत्त तेरे कि मंडप के चारो कोने वाला बड़ा चौमुख दीप बारी-बारी से लुक-झुक-लुक-झुक करके बुझने लगा।

भोजू सेठ का मैनेजर बुझावन महतो मशालची बना था। वही कंजुस दीप सब में बूंद-बूंद तेल गिरा रहा था। सुखाई बाबा ने कितनी बार कहा कि अरे चौमुख भर न दो .... लेकिन नहीं .... कहता था भरने से तुरत धधक कर ख़तम हो जाएगा। लो .... सब दिया बुझ गया। सिर्फ़ मंडप के आगे वाला दिया टिमटिमा रहा था।

अष्टयाम का दिया बुझा देख लगे रामजी बाबा दहारने, "कहाँ गया बुझावना ? बदमाश, जैसा नाम वैसा काम ! सारा दिया बुझा दिया।"

बुझावन महतो दिया के बदले कान में तेल डाले चुप-चाप सुन रहा था। इतने में खखनु गोप तेल का कनस्तर उठा कर जैसे ही दिए में डालना चाहा कि बुझावन मशालची 'हा ! हा !! ज्यादा नहीं ! बर्बाद हो जाएगा...!!!' चिल्लाने लगा। खखनु से कनस्तर झपटते हुए, 'बोला अभी तो पहर रात बांकी है। इतना-इतना तेल डाले तो एक ही घंटा में ख़तम हो जाएगा.... फिर ??'

उधर से बटेसर झा घुडके, "हूँ ! तेल जले तेली के। आँख फटे मशालची के॥ भोजू सेठ ने कहा जितना भी तेल लगे देगा ....... इस बुझावन मशालची को एक ही कनस्तर में आँख फट रहा है। मक्खी के ...... से घी निकाल के दाल में डालने वाला।"

हा...हा...हा............ ! क्या कहे झा जी.......... तेल जले..........हे.....हे.......... हो......... हा.............. मक्खी के.......... से घी......... खी......खी..........खी......... हु...हु....हु....हु.... !!! बटेसर झा जो लय में आगे पीछे अलंकार लगा के इस कहावत को पढ़े कि वहाँ बैठे सारा वृद्ध, जवान, बच्चे सब ठठा कर हंस पड़े। बुझावन बेचारा झेंप कर कहा, 'क्या सब कहते हैं पंडी जी !!"

बटेसर झा बोले, 'सही ही तो कहते हैं। भोजू दिल खोल कर कहा कि जितना तेल लगे सो लगे। अष्टयाम के चारो चौमुख से रौशनी होनी चाहिए। और तुम्हारे ऐसा मशालची.... बूंद-बूंद टपका कर ओस चटा कर प्यास मार रहा है। तेल जल रहा है, भोजू का और आँख फट रहा है बुझावन मशालची का।' बच्चा सब फिर से एक बार ताली दे के खिखिया दिया। बुझावन मशालची भनभना कर रह गए। और हम आप लोगों को सुनाने के लिए, एक कहावत सीख गए। "तेल जले तेली का। आँख फटे मशालची का॥"

अर्थात किसी कार्य में धन कोई व्यय कर रहा है और कंजूसी में हाय-तौबा कोई और मचा रहा है। ऐसा नहीं करना चाहिए। जब कोई ख़ुशी से अपना धन खर्च रहा है तो उस में दूसरा क्यों ना-नुकुर करे ? है कि नहीं ?? तो इसी बात पर बोल दीजिये, "पवनसुत हनुमान की जय !!"

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

कुरुक्षेत्र ... पंचम सर्ग .... भाग–2 --और --3 / रामधारी सिंह 'दिनकर'


प्रस्तुत भाग में युद्ध समाप्त होने पर जब युधिष्ठिर विजयी हो कर लौटते हैं और द्रौपदी उनकीअगवानी करने के लिए खड़ी हैं ... उस समय की उनकी मनोदशा को कवि ने अपने शब्दों में वर्णित किया है ...

इस काल – गर्भ में किन्तु , एक नर ज्ञानी
है खड़ा कहीं पर भरे दृगों में पानी ,
रक्ताक्त दर्प को पैरों तले दबाये ,
मन में करुणा का स्निग्ध प्रदीप जलाए ।
 
सामने प्रतीक्षा – निरत जयश्री बाला
सहमी सकुची है खड़ी लिए वरमाला ।
पर , धर्मराज कुछ जान नहीं पाते हैं ,
इस रूपसी को पहचान नहीं पाते हैं ।
 
कौंतेय भूमि पर खड़े मात्र हैं तन से ,
हैं चढ़े हुये अपरूप लोक में मन से ।
वह लोक , जहां विद्वेष पिघल जाता है
कर्कश , कठोर कालायस गल जाता है ;
 
नर जहां राग से होकर रहित विचरता ,
मानव , मानव से नहीं परस्पर डरता ;
विश्वास – शांति का निर्भय राज्य जहां है ,
भावना स्वार्थ की कलुषित त्याज्य जहां है ।
 
जन – जन के मन पर करुणा का शासन है
अंकुश सनेह का , नय का अनुशासन है ।
है जहां रुधिर से श्रेष्ठ अश्रु निज पीना ,
साम्राज्य  छोड़ कर भीख मांगते जीना ।
 
वह लोक जहां शोणित का ताप नहीं है ,
नर के सिर पर रण का अभिशाप नहीं है ।
जीवन समता की छांह – तले पलटा है ,
घर – घर पीयूष – प्रदीप जहां जलता है ।
 
अयि विजय ! रुधिर से क्लिन्न वासन है तेरा ,
यम दृष्टा से क्या भिन्न दशन है तेरा ?
लपटों की झालर झलक रही अंचल में ,
है धुआं ध्वंस का भरा कृष्ण कुंतल में ।
 
ओ कुरुक्षेत्र की सर्व-ग्रासिनी व्याली ,
मुख पर से तो ले पोंछ रुधिर की लाली ।
तू जिसे वरण करने के हेतु विकल है ,
वह खोज रहा कुछ और सुधामय फल है ।
 
वह देख वहाँ , ऊपर अनंत अंबर में ,
जा रहा दूर उड़ता वह किसी लहर में
लाने धरणी के लिए सुधा की सरिता ,
समता प्रवाहिनी , शुभ्र स्नेह – जल – भरिता ।
 
सच्छान्ति जागेगी इसी स्वप्न के क्रम से ,
होगा जग कभी विमुक्त इसी विध यम से ।
परिताप दीप्त होगा विजयी के मन में ,
उमड़ेंगे जब करुणा के मेघ नयन में ;
 
जिस दिन वधको वध समझ जयी रोएगा
आँसू से तन का रुधिर – पंक धोएगा ;
होगा पथ उस दिन मुक्त मनुज की जय का
आरम्भ भीत धरणी के भाग्योदय का ।
 
संहार सुते ! मदमत्त जयश्री वाले !
है खड़ी पास तू किसके वरमाला ले ?
हो चुका विदा तलवार उठाने वाला ,
यह है कोई साम्राज्य लुटाने वाला ।
 
रक्ताक्त देह से इसको पा न सकेगी
योगी को मद – शर मार जगा न सकेगी ।
होगा न अभी इसके कर में कर तेरा ,
यह तपोभूमि , पीछे छूटा घर तेरा ।
 
लौटेगा जब तक यह आकाश – प्रवासी ,
आएगा तज निर्वेद –भूमि सन्यासी ,
मद – जनित रंग तेरे न ठहर पाएंगे
तब तक माला के फूल सूख जाएँगे ।
 
क्रमश:
 


 भाग ----3 

प्रस्तुत भाग में  जब पितामह भीष्म युद्ध समाप्ति के बाद युधिष्ठिर को समझाते हैं कि यह युद्धआवश्यक था तो युद्ध के पश्चात के वीभत्स दृश्यों को देख युधिष्ठिर के मन के भावों का कवि ने सटीक वर्णन किया है ...

बुद्धि बिलखते उर का चाहे जितना करे प्रबोध ,
सहज नहीं छोड़ती प्रकृति लेना अपना प्रतिशोध ।

चुप हो जाए भले मनुज का हृदय युक्ति से हार ,
रुक सकता पर , नहीं वेदना का निर्मम व्यापार ।

सम्मुख जो कुछ बिछा हुआ है ,निर्जन, ध्वस्त ,विषण्ण ,
युक्ति करेगी उसे कहाँ तक आँखों से प्रच्छ्न्न ?

चलती रही पितामह- मुख से कथा अजस्र ,अमेय ,
सुनते ही सुनते , आँसू में फूट पड़े कौंतेय ।

हाँ , सब हो चुका पितामह , रहा नहीं कुछ शेष ,
शेष एक आँखों के आगे है यह मृत्यु - प्रदेश -

जहां भयंकर भीमकाय शव - सा निस्पंद , प्रशांत ,
शिथिल श्रांत हो लेट गया है स्वयं काल विक्रांत ।

रुधिर - सिक्त - अंचल में नर के खंडित लिए शरीर ,
मृतवत्सला विषण्ण  पड़ी है धरा मौन , गंभीर ।

सड़ती हुई विषाक्त गंध से दम घुटता सा जान ,
दबा नासिका निकाल भागता है द्रुतगति पवमान ।

सीत - सूर्य अवसन्न डालता सहम - सहम कर ताप ,
जाता है मुंह छिपा घनों में चाँद चला चुपचाप ।

वायस , गृद्ध , शृगाल, स्वान , दल के दल  वन - मार्जार ,
यम के अतिथि विचरते सुख से देख विपुल  आहार ।

मनु का पुत्र बने पशु - भोजन ! मानव का यह अंत !
भरत - भूमि के नर वीरों की यह दुर्गति , हा , हंत !

तन के दोनों ओर झूलते थे जो शुंड विशाल ,
कभी प्रिया का कंठहार बन , कभी शत्रु का काल -

गरुड - देव के पुष्ट पक्ष - निभ दुर्दमनीय, महान ,
अभय नोचते आज उन्हीं को वन के जम्बुक , श्वान ।

जिस मस्तक को चंचु मार कर वायस रहे विदार ,
उन्नति - कोश जगत का था वह , स्यात ,स्वप्न -भांडार ।

नोच नोच खा रहा गृद्ध जो वक्ष किसी का चीर ,
किसी सुकवि का , स्यात , हृदय था स्नेह सिक्त गंभीर ।

केवल गणना ही नर की कर गया न कम विध्वंस ,
लूट ले गया है वह कितने ही अलभ्य  अवतंस ।

नर वरेण्य , निर्भीक , शूरता के ज्वलंत आगार ,
कला , ज्ञान , विज्ञान , धर्म के मूर्तिमान  आधार -

रण की भेंट चढ़े सब ; हृतरत्ना  वसुंधरा दीन ,
कुरुक्षेत्र से निकली है होकर अतीव श्रीहीन  ।

विभव , तेज , सौंदर्य , गए सब दुर्योधन के साथ ,
एक शुष्क कंकाल लगा    है मुझ पापी के हाथ ।

एक शुष्क कंकाल , मृतों के स्मृति - दंशन का शाप ,
एक शुष्क कंकाल , जीवितों के मन का संताप ।

एक शुष्क कंकाल , युधिष्ठिर की जय की पहचान ,
एक शुष्क कंकाल , महाभारत का अनुपम दान ।

  धरती वह , जिस पर कराहता है घायाल संसार ,
वह आकाश , भरा है जिसमें करुणा की चीत्कार।

महादेश वह  जहां सिद्धि की शेष बची है धूल ,
जलकर जिसके क्षार हो गए हैं समृद्धि के फूल ।

यह उच्छिष्ट प्रलय का , अहि - दंशित मुमूर्ष यह देश ,
मेरे हित श्री के गृह में , वरदान यही  था  शेष ।
 
क्रमश:

प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग –२ 
द्वितीय  सर्ग  --भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 
तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /ाग -२
चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ /भाग –6 /भाग –7 /भाग – 8 /भाग – 9
पंचम सर्ग ----भाग - 1



बुधवार, 22 दिसंबर 2010

भारतेन्दु युग की कविता

भारतेन्दु युग की कविता

मनोज कुमार

आज की कविता का अभिव्यंजना कौशल पर अपने विचार व्यक्त करते हुए श्री अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी ने कहा था

भारतेंदु युग की भाषा पर कुछ नहीं लिखा , वहाँ तो गजब सम्प्रेषणीयता का आग्रह है . और यह भी कि ' सवाल यह है कि आपने क्‍या कहा है? ' , का भी !!

भारतेन्दु युग में जहां ब्रजभाषा में साहित्य की रचना हो रही थी वहीं खड़ी बोली हिन्दी भी साहित्य की भाषा के रूप में स्थान ग्रहण कर रही थी।

1857 की क्रांति कुचल दी गई थी, और अंग्रेज़ी सत्ता की स्थापना के साथ विस्तार शुरु हो गया। सामंती भारत की की समाप्ति और औपनिवेशिक दासता का आगाज़ ... यानी शोषण ... शोषण ... और शोषण! इस शोषण के विरुद्ध राष्ट्रीय असंतोष को अपने ढंग से भारतेन्दु युग के रचनाकार पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से कर रहे थे। भारतेन्दु जी की ही पंक्तियां उद्धृत करें –

अंग्रेज़ी राज सुख साज सजे सब भारी।

पै धन विदेश चलिजात इहै अति ख्वारी॥

अंग्रेज़ राज के कारण भारत का बहुत बड़ा हित हुआ है लेकिन इस राज की सबसे बड़ी खराबी यह है कि देश का धन विदेश चला जाता है। उस काल की देशभक्ति को इस द्वन्द्व के संदर्भ में ही समझा सकता है। यहां यह भी स्पष्ट है कि इसके पहले के जो मुस्लिम शासक थे, वे चाहे जितने बुरे रहे हों, कम से कम देश का धन तो देश में ही रहता था। पर अगर गहराई से विश्लेषण करें तो पाते हैं कि भारतेन्दु की पहली पंक्ति एक रणनीतिक वक्तव्य है, असली मकसद तो उनका यह बताना है कि अंग्रेज़ भारत को लूट रहे हैं और बरबाद कर रहे हैं। तभी तो वो कहते हैं अंग्रेज़ी राज बाहर से चाहे जैसा भी क्यों न दिखता हो लेकिन वह देश का पूरा रस चूसने वाला है।

भीतर-भीतर सब रस चूसै,

हंसि हंसि के तन मन धन मूसे।

जाहिर बातन में अति तेज,

क्यों सखि साजन? नहिं अंग्रेज़॥

भारतेन्दु युग आधुनिक हिन्दी साहित्य का पहला चरण है। इस कालखण्ड के साहित्य को भारतेन्दु के व्यक्तित्व और कृतित्व की देन के कारण इसका नामाकरण भारतेन्दु युग हुआ। इस युग के गद्य को लेकर तो कोई दुविधा है ही नहीं। न कथ्य को लेकर न माध्यम भाषा को लेकर – क्योंकि इसके पहले गद्य की कोई पुष्ट परम्परा नहीं थी। हां, कविता को लेकर दुविधा है। पहले के भक्तिकाल एवं रीति काल की काव्य-परंपरा काफी सम्पन्न थी। इसे छोड़कर एकदम से नये कविता-पथ पर चल पड़ना उस युग के रचनाकारों, कवियों के लिए बड़ा ही असम्भव-सा काम था। इसलिए इस युग में भी भक्ति, श्रृंगार और नीति की कविताओं की भरमार है, भले ही भाषा ब्रजभाषा ही रही।

जहां, कवि परम्परा का ही अनुकरण कर रहे थे, वहीं कविता के नाम पर चमत्कार-सृष्टि भी कर रहे थे। महाराज कुमार बाबू नर्मदेश्वर प्रसाद सिंह ने ‘शिवा शिव शतक’ तथा स्वयं भारतेन्दु परम्परागत कविता लिख रहे थे। इन कविताओं में अनुभव की सजीवता और चमत्कार थे।

एक ही गांव में बास सदा, घर पास रहौ नहिं जानती हैं।

पुनि पाचएं-सातएं आवत-जात, की आस न चित में आनती हैं।

हम कौन उपाय करैं इनको, ‘हरिचंद’ महा हठ ठानती हैं।

पिय प्यारे तिहारे निहोरे बिना, आंखियां दुखिया नहिं मानती हैं॥

लेकिन जहां इस युग में एक तरफ़ अधिकांशतः परम्परागत कविताएं ही लिखी जा रही थी, वहीं दूसरी तरफ़ इस युग के कई कवियों ने परम्परा से हट कर नए विषयों को लेकर नई भाववस्तु वाली कविताएं भी प्रचुर मात्रा में लिखी। ऐसे-ऐसे विषयों पर कविताएं रची गई जिसके बारे में पूर्ववर्ती काल के कवि सोच भी नहीं सकते थे। ग़रीबी, भूख, अकाल, रोग, कलह, खुशामद, कायरता, टैक्स, देश की दुर्दशा, छुआछूत, व्यभिचार, कुप्रथा, अशिक्षा, कूपमण्डूकता, रिश्वतखोरी, सिफ़ारिश, बेकारी ...आदि विषयों पर कविताएं लिखी गईं। मतलब उस समय के जीवन से जुड़ा ऐसा कोई भी पक्ष बाक़ी न रह गया। ऐसा लगता है कवि रचनाओं को रज़मर्रा के जीवन से जोड़कर देखते थे ... रचते थे। हम कह सकते हैं कि उनका प्रयास था परलौकिक जीवन-दृष्टि को हटाकर लौकिक जीवन-दृष्टि को स्थापित करना, जिसमें वे सफल भी हुए।

अपने अतीत और वर्तमान के आलोक में कहीं न कहीं उनके मन में पीड़ा थी, क्षोभ था-...! एक तरफ़ था अतीत का गौरव, दूसरी तरफ़ थी वर्तमान की दुर्दशा। इस दुर्दशा को देख कर, विचार कर उसके कारणों को अपनी रचना में समाहित करते ये रचनाकार समाज की जड़ता, रूढिप्रियता और कुरीतियों पर प्रहार करते रहे। वे समाज सुधारना तो चाहरे थे लेकिन उनके सामने द्वन्द्व और दुविधा थे, क्योंकि बाल-विवाह, विधवा-विवाह पर मतैक्य नहीं था। कर्मकाण्ड का विरोध समाज को सहज स्वीकार्य नहीं था। जबकि अंग्रेज़ों का दमन और आर्थिक शोषण असह्य था। मध्यकालीन अराजकता के परिप्रेक्ष्य में अंग्रेज़ राज के सुख-साज इसलिए उन्हें अस्वीकार्य था कि सारा धन विदेश चला जा रहा था। भारतेन्दु ने 1874 में स्वदेशी आन्दोलन भी चलाया। ‘अंधेर नगरी’ में चूरन बेचने वाले के माध्यम से उन्होंने कहा,

चूरन अमले सब जो खावैं।

दूनी रुशवत तुरत पचावैं॥

चूरन साहब लोग जो खाता।

सारा हिन्द हजम कर जाता।

चूरन पुलिस वाले खाते।

सब कानून हजम कर जाते॥

कविता का यह अंश आज भी प्रासंगिक है।

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, प्रतापनारायण मिश्र, बालकृष्ण भट्ट, बालमुन्द गुप्त, श्रीधर पाठक, चौधरी बदरीनारायण ‘प्रेमधन’. राधाचरण गोस्वामी, आदि इस युग के प्रगतिशील कवि थे।

गद्य में तो इस युग में खड़ी बोली अपना ली गई, पर कविता में ब्रजभाषा ही चलती रही। जहां एक ओर भारतेन्दु का कहना था कि ‘ब्रजभाषा में ही कविता करना उत्तम है’, वहीं दूसरी ओर बालकृष्ण भट्ट का मानना था कि, ‘खड़ी बोली में एक प्रकार का कर्कशपन है, उसके साथ कविता में सरसता लाना प्रतिभावान के लिए कठिन है तब तुकबन्दी करने वाले की कौन कहे।’

लेकिन जाने-अनजाने ही सही भारतेन्दु युग के कवि नाटकों आदि में प्रयुक्त कविताओं में खड़ी बोली का उपयोग करते रहे। साथ ही कुछ मुज़फ़्फ़रपुर, बिहार, के अयोध्याप्रसाद खत्री जैसे भी थे जो खड़ी बोली पद्य का आन्दोलन चला रहे थे और उन्होंने ‘खड़ी बोली के पद्य’ भी प्रकाशित किया। बद में चलकर इसे आधुनिक हिन्दी कविता की भाषा में स्वीकृति तो मिली ही।

स्पष्ट है कि भारतेन्दु युग संक्रमण का काल था। हां, इस नए-पुराने की कदम ताल में पुराना पिछड़ रहा था, नया अगे बढ रहा था। अंतर्विरोध के रहते हुए भी इस युग ने नवयुग का मार्ग प्रशस्त किया। कविता को रोज़मर्रे के यथार्थ जीवन की समस्याओं से जोड़ा गया। जागरण का काम, भी इस युग की कविताओं ने किया। मध्यकालीन से आधुनिक बोध की तरफ़ प्रगतिशील क़दम भी इसी युग में बढे। अतः हम कह सकते हैं कि इस काल का साहित्य नवजागृत श्रेणी का साहित्य है।

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

समस्या और गोष्ठी ….


प्रदूषण की  समस्या पर 
सरकार कितना हल्ला मचा रही है
लाउडस्पीकर पर चिल्ला चिल्ला कर
ध्वनि प्रदूषण बढा रही है .




प्रदूषण दूर करने के लिए
जनता कितनी जागरूक है
कि  जनसंख्या पर
रोक  लगाने के बजाये
उपज अधिक करने के लिए
भूमि प्रदूषण  बढ़ाती  जा रही है .

 

गंगा  सफाई अभियान में
करोड़ों रुपया खर्च कर दिया
सफाई करनी है जल की
इसलिए
सारे शहर का कचरा
नदी में प्रवाहित कर दिया .


 

यातायात  के साधन आज
देश में इतने उपलब्ध  हैं
कि यातायात करने वालों के
इस ज़हरीली हवा में
दम  घुट  गए हैं .


आज चारों ओर
प्रदूषण कि समस्या पर
चर्चा हो रही है
इस समस्या से उभरने के लिए
विशेषज्ञों  की  गोष्ठी  हो रही है


 
पर प्रश्न है ...
क्या मात्र गोष्ठियों से
प्रदूषण दूर हो पाएगा
या ये बस एक नारा है
जिसमें आम आदमी
यूँ ही मारा  जायेगा |

 
संगीता स्वरुप

रविवार, 19 दिसंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-16 : छौरा मालिक बूढा दीवान

कहानी ऐसे बनी-16

छौरा मालिक बूढा दीवान

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी

रूपांतर :: मनोज कुमार

राम राम हजूर ! हमें भूले तो नहीं... ? हमें भूले तो भूले.... आज रविवार है, यह याद है न...... !! रवि याद है तो कहानी ऐसे बनी भी याद ही होगा ... हमें भूल भी गए तो कोई बात नहीं। वो क्या है कि हम पिछले पखवाड़े में अपने गाँव गए थे। रेवा-खंड। अब गाँव की बात तो समझते ही हैं... माटी में भी अपनापन झलकता है। गाछ-वृक्ष, खर-पतवार सब में एक अलग ही स्नेह दिखता है। जब भी बसंती बयार बहती है.... तो समझिये कि प्रेम एकदम से कसमसा कर रह जाता है।

दो दिनों तक अलमस्त पुरानी टोली के संग गाँव का चप्पा-चप्पा छान मारे। सब-कुछ तो वैसा ही था। वही गौरी पोखर, खिलहा चौर, काली-थान, खादी भण्डार, पागल महतो की चाय की दूकान, मिश्र जी का भीरा.... अरे हाँ.... एक चीज नहीं है... वो आंवला का बड़ा सा पेड़! ओह... क्या बड़ा-बड़ा आंवला होता था... छोटे आलू के आकार का। सुबह-सुबह हमलोग पहुँचते थे चुनने। गिरा हुआ मिला तो ठीक, नहीं तो एक-आध ढेला भी मार देते थे। उधर से धोती संभालते हुए मिश्र जी जब तक निकले .... तब तक तो ये गया वो गया ... सारे लड़के फरार। मिश्र जी कह रहे थे कि गए हथिया में जड़ से ही उलट गया था आंवला का पेड़।

भीरा के पास ही बमपाठ सिंह की हवेली है। पूरे जवार में नामी जमींदार है, बमपाठ बाबू। गंडक के इस पार देख रहे हैं ..... जहां तक आप की नजर जायेगी सब बमपाठ सिंह की ही जमीन है और उस पार भी बावन बीघा है। क्या कड़क पंच-फुटिया जवान थे..! बाबा कहते थे कि जवानी में तो एक खस्सी अकेले निपटा देते थे। हमने अपनी आँख से भी देखा हैं, दो-दो कबूतर तो नाश्ते में उड़ा दिए थे। बमपाठ सिंह हर साल काली पूजा में देसुआ अखाड़ा पर कुश्ती भी लड़ते थे। बमपाठ बाबू के पोते को हमने कुछ दिन पढाया भी था। इसीलिए कुछ ज़्यादा ही हेल-मेल था। सोचा कि जरा हवेली पर भी माथा टेक लें।

“है कहाँ वो बुड्ढा दीवान ..... आज छोड़ेंगे नहीं ! काम के न काज के ! सेर भर अनाज के... !! और....... यह ललबबुआ चला है मालिक बनने !!! आज हम सब मल्कियत और दीवानी निकालते हैं ........ आज तो सिसपेंड कर के ही छोड़ेंगे !!!” बाप रे बाप..... बमपाठ सिंह तो आपे से बाहर थे। कूद कर के दुर्खा और कूद के दालान...... ! लग रहा था झुर्रीदार चमरी से गुस्सा फट कर बाहर आ जाएगा। देखा उनका पोता लालबाबू बड़े संदूक पर केहुनी टिकाये खड़ा था। हमको देख के बोला, "प्रणाम माटसाब" और एक कुर्सी आगे कर दिया।

हमें देख बमपाठ सिंह बाहर आए। हमारे प्रणाम का जवाब भी नहीं दिए और गुस्से से तमतमाए सामने एक कुर्सी ऐसे खींच कर बैठे कि हम भी डर गए। सकपका कर पूछे, "लगता है कुछ बहुत बड़ी गड़बड़ी हुई है .... तभी सरकार इतने गुस्से में हैं ?"

सिंहजी के उफनते हुए गुस्से पर कुछ ठंडा पानी पड़ा। बेचारे फुंफकार छोड़े, "हूँ..."। संदूक की तरफ मुंह घुमा कर हम पूछे, "क्या हुआ है लालबाबू ?"

फिर से बमपाठ सिंह दहाड़े, “यह मुँहचुप्पा क्या बतायेगा... ? अरे हम से न सुनो। कहता नहीं है, "छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ-बिहान !!" सिंह जी गुस्से में भी इतना अलाप कर यह कहावत कहे कि हमारे तो अंदर ही अंदर हंसी छूट गई। हमने थोड़ी हिम्मत की और पूछे, "क्या बोले ... क्या बोले...?”

फिर सिंह जी विस्तार से समझाने लगे, छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ-बिहान !!" देखते नहीं हैं, इस ललबबुआ को ... यह सवा सौ बीघा की जमींदारी संभालेगा... ! एक तो आज-कल रैय्यत और बटीदार भी क़ानून बकता है और ये महाराज भोलानाथ ! हाये रे मालिक... जिस किसी ने कोई बात कह दी .. उसी में बह गए। एक तो ई करेला उस पर से वो नीम चढ़ा बूढा दीवान। एकदम सठिया गया है। अब न उसका शरीर काम करता है न दिमाग... ससुरा दही-घी के लोभ में दरबार भी नहीं छोड़ता है। और ये मालिक साहेब सब कुछ दिवान जी पर ही छोड़े हुए हैं। ये दोनों "छौरा मालिक और बूढा दीवान" मिल कर दो साल में जो चपत लगाया है कि क्या-क्या बताएं माटसाब !!!”

गुस्सा के मारे सिंह जी की लाल-लाल आँखों के ऊपर खिचड़ी हो चोकी भौंह फरक रही थी। बदन की एक-एक झुर्री काँप रही थी। "पिछले साल इसको कुछ समझ में आया नहीं और दीवानजी को आज-कल का आलस लगा रहा... सारा पटुआ पानी में ही सड़ गया। तम्बाकू भेजना था पुर्णियां मंडी और भेज दिया सातनेपुर में। पचासों हज़ार का घाटा लगवाया ... इन दोनों ने मिल कर। कितना जतन से हम अरजे ..... ! ये सब पानी जैसे बहा रहा है। रोसड़ा लीची बगान का पट्टा लेने में कितना पापड़ बेलना पड़ा था, वह ये ललबबुआ नहीं जानता है। दीवानजी तो साथ-साथ ही थे। उस दीवान को तो चश्मा से भी नहीं सूझता है। और ये ललबबुआ .... शाही लीची को बेच दिया औने-पौने दाम में। हम कहते हैं, माटसाब, एक-एक पेड़ हम परियार साल दो-दो सौ टका में बेचे थे, सुखार था तब। इस साल ये पचहत्तर रुपैए में ही गाछ बेच दिया।"

गुस्से में आगबबूला सिंहजी गिनाये जा रहे थे, "वही हाल जलकर का किया। हाकिम-हुक्काम सब को चुका कर भी लाख टका मछली से आ जाता था.... इस बबुसाहेब को कुछ बुझाया ही नहीं .... और दीवान जी तो आजकल सब कुछ भूल ही जाते हैं। जब तक हम देख रहे थे तो वही साले-साल जलकर का रसीद कटाते थे। और ये इस साल रसीदे कटना ही भूल गए। जिसका मन हुआ मछली मार के ले गया, एक पैसा घर नहीं आया.... उलटे जीरा डालने की पूंजी भी गई पानी में। ईंख बेचा सो पैसा अभी तक लटका हुआ है.... हथिया नच्छत्तर में धान का बिचरा गिराया.... परिणाम हुआ कि समय पर बिचरा तो खरीदना ही पड़ा जमीन भी खा-म-खा फंसा रह गया।"

लगता है आज बमपाठ सिंह सारा हिसाब कर देंगे, "पटपरा वाला रैय्यत के यहाँ से साल भर से एक दना नहीं आया है। मालगुजारी पर भी आफत है। दीवान बूढा एकदम सठिया गया है। जवानी में एक-एक अक्किल ऐसा लगाता था कि रैय्यत पैर पकड़ के झूलें अब रैय्यत के द्वार पर अपने झूलते रहता है। और इनको देखो.... बड़ा खून का गर्मी दिखाने गए थे। कहते हैं साहब, खून की गर्मी से कहीं राज चला है। एक पैसा का आमद तो हुआ नहीं... उलटे मार-पीट कर लिहिस। जो रैय्यत हमारे बाबा-पुरखा का पैर पूजता था हमारे पोता पर लाठी पूज दिया। रैय्यत से अक्किल लगा कर माल निकलवाना था कि लाठी से... ? हम कहते हैं क्या जरूरी था पर-गाँव में जा कर रंगदारी करने का.. ? पता नहीं है कि अब सरकार की आँख जमींदार सब पर लगी हुई है। अब लो मार भी खाया और मुक़दमा भी लड़ो। बाबू साहब तो लड़ लिए, दीवान जी के भरोसे कि सब कुछ फरिया ही देंगे लेकिन उस बूढे से अब कुछ होता है ... निखट्टू एक थानेदार तक को नहीं पटा पाया। लोअर कोर्ट में मरा हुआ वकील पकड़ा और अब जाओ हाई कोर्ट।"

"मालिक है जवान तो इसका दिमाग नहीं चलता है .... अल के बल औडर दे देता है। अपना दिमाग कुछ लगाता ही नहीं है। ज़ूम मे आकर सब बेदिमागी फैसला करता है। और दीवान जी बुढा गए हैं तो उनका देह ही नहीं चलता है। दौड़-भाग का कोई भी काम नहीं होता है। चश्मे से भी दिखाई नहीं देता है और दिमाग भी सठिया गया है। इसीलिए न कहते हैं, "छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ बिहान !!"

मालिक को बूढा रहना चाहिए ताकि वो अपने अनुभव से काम ले। और दीवान मतलब कार्यकारी को जवान रहना चाहिए ताकि वह तन और मन दोनों लगा कर पूरे जोश से काम करे। और नहीं जो उल्टा हो गया तो लो... "मामला बिगड़े सांझ बिहान!"

इतना कह के बमपाठ सिंह तुरत ऐलान कर दिए कि राज-पाट वो फिर से अपने हाथ में ले रहे हैं। अब छौरा मालिक नहीं रहेगा। सामने हमको भी जवान देखे और अक्किल बुद्धि से तो पहिले ही परिचित थे। लगे हाथ हमें ही दीवान में बहाल कर लिए। कहे कि अब न रहेगा छौरा मालिक, ना रहेगा बूढा दीवान और ना ही मामला बिगड़ेगा सांझ बिहान !! समझे, इसीलिए पिछले सप्ताह भेंट नहीं हुई। लेकिन हम तो ठहरे रमता जोगी बहता पानी, दरबारी कमाने में हमरा मन नहीं लगेगा न .... ! उधर मामला मुक़दमा फिट हुआ और इधर हम अपना झोली-डंडा उठाए और चले आये आपको ये कहानी ऐसी बनी सुनाने ! बोलो हरि !!!

शुक्रवार, 17 दिसंबर 2010

पहले मेरी माँ है !

                       आज मेरी माँ ने अंतिम साँस ली, फिर तो सारा घर दौड़ने लगा यह क्या हो गया? वह दादी माँ जिसने हमेशा उसको दुत्कारा था, पास बैठी रोने का नाटक कर रही थी। वह ताई जिसने उसको कभी चैन से रहने नहीं दिया। मेरे सर पर हाथ फिरा रही थी और वह हाथ मुझे हथोडे की तरह लग रहा था। मेरी बुआ तो मुझे लगता है कि अब कभी डांटेगी ही  नहीं और माँ के लिए नई साड़ी जो भी आती उसको खुद रख लेती , आज उनमें से के साड़ी लाकर माँ के पास रख दी थी. माँ की सारी चीजें जो कभी उसकी नहीं रहने दी, अब कभी उन पर नजर नहीं डालेगी।
                           सारे माहौल में गमी नजर आ रही थी और मेरे पिता तो कुर्सी पर मुंह लटकाए बैठे थे, लोग उनको सांत्वना दे रहे थे। यह वही पिता हैं जिन्होंने मेरी माँ को कभी इज्जत दी ही नहीं, एक नौकरानी की तरह उसको इस्तेमाल करते रहे और कभी उसने अपनी बात करने की कोशिश की तो एक ही जवाब था , तुमसे पहले मेरी माँ है, मेरी भाभी है और मेरी बहन है। तुम बहुत बाद में आई हो और इस लिए अपनी जगह वही रखो जहाँ पर मैं रखता हूँ।
               ये शब्द मेरी कानों में हमेशा पिघले हुए शीशे की तरह जाते रहे , जब से समझ आई है दिन में एक या दो बार यह शब्द सुनता ही रहा हूँ। मेरी माँ ने इसको कितना सुना होगा इसका हिसाब मेरे पास नहीं है। वो निर्दोष और निश्छल भाव से सबकी सेवा ही करती रही और उसको क्या मिला? आज इस उम्र में ही अपनी जिन्दगी पूरी करके और मुझे छोड़ कर चल दी। सब मुझे प्यार करते हैं। इनका अगर बस चलता तो और वे एक नौकरानी की कमी पूरी न कर रही होती तो कब की इस घर से धक्के मारकर निकाल दी जाती।
              सब सामान  इकठ्ठा हो चुका है , उनको अब ले जाना है। उनको बढ़िया साड़ी पहनाई  गई और सजाया भी जा रहा है। इतनी सुंदर लगते तो मैंने अपनी माँ को कभी नहीं देखा। कई कई दिन तक बाल बनाने का समय ही नहीं मिलता था। एक की फरमाइश पूरी कर रही है तो दूसरे ने अपनी फरमाइश उछाल दी । जल्दी जल्दी हाथ चला रही है और सबके ताने भी सुन रही है। माँ के घर कुछ किया भी था कि बस बैठी ही रही, हरामखोरी की आदत पड़ गई है।
               सब लोग उनको उठा कर जाने लगे, मुझे जाना है, यह सोच कर मैं सबके आते ही आगे चल दिया। उनकी चिता सजा रहे थे सब, उस पर लिटा दिया गया । अब सब कहने लगे की पिताजी मुखाग्नि दें। चल दिए अपने फर्ज को पूरा करने लेकिन पहले मेरी माँ हैं न। मुझमें न जाने कहाँ से साहस आ गया और मैं उनकी तरफ बढ़ा और आग से जलती हुई लकडी उससे ले ली,
            'अरे यह क्या करते हो? वह तो अब चली गई यह तो सिर्फ मिटटी रह गई है।' बड़े बूढे मुझे समझाने लगे लेकिन मेरी आंखों में अंगारे निकल रहे थे।
                'मैंने पिताजी को पीछे करते हुए कहा - 'यह पहले मेरी माँ है और इसको मैं ही भस्म करूंगा। आपकी माँ हमेशा आपके लिए पहले रही है तो आप उसके लिए बचे रहिए।
                    मैंने सच ही तो कहा है, यह सच मैं बचपन से आज तक सुनता रहा वही तो मैंने दुहराया है और अपनी माँ के आसुंओं और सिसकियों का गवाह में ही तो था। सो उसकी इस पीड़ा के अंत भी मैं ही करूगा। अलविदा मेरी माँ।

बुधवार, 15 दिसंबर 2010

आज की कविता का अभिव्‍यंजना कौशल

आज की कविता का अभिव्‍यंजना कौशल

088मनोज कुमार

आज की कविताओं में भाषिक खिलंदड़ापन और ऐसे ऐसे शब्‍दों का इस्‍तेमाल होता है जो कविता में शायद ही कभी प्रयुक्‍त हुए हों। एक उदाहरण लेते हैं, रघुवीर सहाय की कविता ‘सभी लुजलुजे हैं’ -

खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्‍नाते हैं

चुल्‍लु में उल्‍लू हो जाते हैं

मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं

सो जाते हैं, बैठ जाते हैं, बुत्ता दे जाते हैं

झांय झांय करते है, रिरियाते हैं,

टांय टांय करते हैं, हिनहिनाते हैं

गरजते हैं, घिघियाते हैं

ठीक वक़्त पर चीं बोल जाते हैं

सभी लुजलुजे हैं, थुलथुल है, लिब लिब हैं,

पिलपिल हैं,

सबमें पोल है, सब में झोल है, सभी लुजलुजे हैं।

(सीढि़यो पर धूप, रघुवीर सहाय)

काव्‍यभाषा के विकास का क्रम जारी है, जीते जागते यथार्थ को प्रभावी और विश्‍वसनीय तरीके से पेश करने के लिए शब्‍द गढ़े जा रहे हैं, ढूंढे जा रहे हैं, तराशे जा रहे हैं।

काव्‍यभाषा का प्रयोग सावधानी से किया जाना चाहिए। भाषा की सीमाएं भी कवि को मालूम होना चाहिए। शब्‍द यथार्थ की इमेज तो होता है लेकिन फिर भी उसमें असलियत को पूरी तरह चित्रित करने की क्षमता नहीं होती। साठोत्तर की कविताओं में भाषा को साधारण बोलचाल की भाषा के निकट लाने की कोशिश रही है। बोलचाल की नाटकीयता, वक्रता, लोच, यह कविता की भाषा हो गई, बोली के काफी क़रीब। रचनाकार परंपरागत काव्‍य-भाषा के अलंकृत, बहुलार्थक (एम्‍बीगुअस) रूप से अलग ऐसी काव्य-भाषा रचने लगे जो ठीक-ठीक वही कह सके जो उनका प्रयोजन था। यानी काव्‍य-भाषा किताबीपन या रीतिवादिता से मुक्‍त रहे। वह छद्म हिंदी न हो, यानी भाषा के दोमुंहेपन से बचा जाए। देखिए रघुवीर सहाय की कविता --

कोने में खटिया पर जा करके पहुड़ रही

वह पहुड़ी रही साल भर तक फिर गुजर गयी

औरतें उठी घर धोया मर्द गए बाहर

अर्थी लेकर।

कवि, नयी और जीवित भाषा की तलाश की लंबी प्रक्रिया से गुजरना चाहता हो या नहीं, पर एक अलग तरह की भाषा की खोज जरूर की गई जो सामाजिक संकट और समाज के विकास को चित्रित करने में कारगर हो। यहां यह बताना शायद उपयोगी होगा कि भाषा की प्रतीकात्‍मक जड़ता को लगभग निर्णयक रूप से ध्‍वस्‍त करने का यह उपक्रम किसी नई भाषिक तरकीब की तरह नहीं देखा जाना चाहिए। यह कोई नया शिल्‍पजगत पूर्वग्रह नहीं बल्कि उस फासले को कम करने की कोशिश रही जो रचनाकार के संज्ञान और यथार्थ की गतिविधि के बीच सहज ही बन जाता है।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने रानी और कानी, खजोहरा, गर्म पकौड़ी, कुत्ता भौंकने लगा, झींगुर डर कर बोला, मंहगू मंहगा रहा, वह तोड़ती पत्थर, आदि कविताओं द्वारा चित्रात्‍मकता को फाड़कर बीहड़ मगर सच्‍चा दृश्‍य उपस्थित करना शुरू कर दिया था। निराला, नागार्जुन, मुक्तिबोध के बाद साठोत्तरी कविताओं में नवीन काव्‍याभिरूचि, नवीन सौंदर्यबोध तथा नये संवेदन ने प्रवेश किया। इस दौर की कविता मुख्‍यतः साधारण आदमी की पहचान और उस पहचान की तलाश की कविता है। इस दौर में निषेध, नकार, विद्रोह, आक्रोश एवं अस्‍वीकृति के तेवर थे। वर्तमान परिवेश की विसंगति को उजागर करके उसके प्रति निषेध, नकार और अस्‍वीकृति के भाव को अभिव्‍यक्ति दी जाने लगी। एक वर्ग ऐसा भी रहा जो व्‍यवस्‍था के विरूद्ध विद्रोह एवं आक्रोश को अपना विषय बनाने लगा। नयी रचनाओं में प्रखर सामाजिक चेतना व प्रतिबद्धिता के कारण रचनात्‍मकता का मानदण्‍ड जीवन हो गया और जीवन ही उसे दिशा प्रदान करता है।

किसी वस्तु, भाव या स्थिति का हृदय पर जो प्रभाव पड़ता है और उसकी जो प्रतिक्रिया होती है, उसे ही संवेदना कहते हैं। आज के दौर में संवेदना इकहरी नहीं जटिल हो गई है। काव्य के सौंदर्य-शास्त्र में परिवर्तन आया है। जीवन का क्षूद्रतम अंश भी कविता के लिए पवित्र है तथा जीवन का प्रत्येक कण कवि की संवेदना को जगाने में सक्षम। एक उदाहरण देखिए जिसमें एक मादा सूअर धूप में पसर कर अपने छौनों को दूध पिला रही है – वह भी नागार्जुन की संवेदना का हक़दार है क्योंकि यह भी तो मादरे-हिंद की बेटी है।

‘पैने दांतों वाली’

धूप में पसरकर लेटी है

मोटी-तगड़ी, अधेड़, मादा सूअर...

जमना-किनारे

मखमली दूबों पर

पूस की गुनगुनी धूप में

पसरकर लेटी है

यह भी तो मादरे-हिंद की बेटी है

भूरे-भूरे बारह थनों वाली!

आज कविताओं में ऐसे शब्‍दों का प्रवेश हो गया जो पहले अवांछनीय माने जाते थे। धूमिल ने “मूतना”, गर्भ, गदगद औरत, मासिक धर्म, नेकर का नाड़ा, आदि शब्‍दों का प्रयोग किया। कविताओं के शीर्षक कुत्ता, एक बुढ़ा मैं, मोचीराम होने लगे। कवि, ‘हर लड़की तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है’ कहने का साहस पा लेता है।

कवि और रचनाकार चुनौतियों को स्‍वीकार कर अपना अलग व्‍यक्तित्‍व बनाए रखने पर जोर देने लगा। कवि जड़ता का विरोधी होकर जड़ता को तोड़ने के लिए ऐसे-ऐसे शब्‍द गढ़ने लगे। वर्जित शब्‍द, जो पहले माने जाते थे, उनका प्रयोग भिन्‍न संदर्भ और भिन्‍न ढंग में किया जाने लगा। ‘सुरूचिभंजक’ शब्‍द कविताओं में स्‍थान पाने लगे।

इन सबसे ऐसी रचनाओं का सृजन होने लगा जिसमें न सिर्फ जिंदगी के मर्मस्‍पर्शी अक्‍स ने स्थान पाया बल्कि समाज की स्थिति, गतिहीनता, जर्जरता, विकृतियां और विडम्‍बनाओं को बखूबी दर्शाया और समझाया गया है। आज के रचनाकार अपने परिवेश से न सिर्फ जुड़ा होता है बल्कि यथार्थ की ठोस धरती पर खड़ा रहता है। तब उसकी कविता संत्रस्‍त प्रपीडि़त मानव का दर्द मुखरित करती हैं जो टूटता हुआ है, घुटता हुआ जीने की यंत्रणा को वहन करता है। लगता है आज मनोरंजन कविता का उद्देश्‍य नहीं, उसका एकमात्र उद्देश्‍य आज के आदमी की व्‍यथा कहना है। आज के कवि की वेदना रोमानी वेदना नहीं है। कविताओं में दर्द किसी प्रेम पात्र के स्‍मरण में कसक के रूप में उत्‍पन्‍न नहीं होता, न ही पश्‍चाताप के रूप में।

आज की विषमताग्रस्त स्थिति में, जबकि प्रत्‍येक व्‍यक्ति संघर्षरत है, कविता ही उसे विश्राम दे सकती है, उसके दर्द और संघर्ष की थकान को दूर कर सकती है, इसलिए व्‍यावहारिकता और संवेदनाओं का संघर्ष ही कविता में मुखरित होता है। वास्‍तव में व्‍यक्तियों का परिस्‍थितयों से संघर्ष और परिस्थितियों को अपने अनुकूल बनाने की भावनाओं की उपेक्षा ही तो कविता में अभिव्‍यक्‍त होती है ।

निराला ने काव्‍य-भाषा को इतना आगे बढ़ा दिया था कि उसके अनेकानेक अपरिचित स्‍वरूपों के नवोन्‍मेषों से अचकचाकर कुछ लोगों ने उनकी बौद्धिक संघटना को ही विकृत घोषित कर दिया। नागार्जुन ने जीवन की क्षुद्रता को ऐश्वर्य दिया। मुक्तिबोध ने फेंटेसी, बिम्‍ब, कल्‍पना और आत्‍मसंघर्ष की सूक्ष्‍मता कथ्‍यों के उपयुक्‍त बनाकर आधुनिक हिंदी-कविता की भाषा की संवेदना के जर्रे जर्रे खोलकर रख देने की क्षमता दी। धूमिल ने डिक्शन दिया। यानी आज संवेदना इतनी व्यापक है कि कविताओं में सब कुछ के लिए स्थान है, कुछ भी वर्जित नहीं है, कुछ भी त्याज्य नहीं है।

साठोत्तरी कविताओं में सही शब्‍दों की तलाश दिखती है। अब तक कविता के लिए विशिष्‍ट काव्‍य भाषा प्रचलित रही। इसके चलते हिंदी अत्‍यधिक समृद्ध भी हुई। किन्‍तु ऐसा महसूस किया जाने लगा कि इस काव्‍य-भाषा के कारण ‘वस्‍तु’ और ‘व्‍यक्ति’ के बीच, कविता की भाषा एक दीवार बन गई है। मतलब यह है कि भाषा और काव्‍य-भाषा का अंतर स्‍पष्‍ट किए बिना सच्‍चाई तक जाना कदापि संभव नहीं। क्‍यों‍कि चली आ रही काव्‍य-भाषा ने आधुनिक रूचि बोध को एक ग़लत दिशा दी। कविता पढ़ने के पहले ऐसा लगता था कि हम कविता पढ़ने बैठे हैं। इस तरह अनजाने ही लोग “काव्‍य-भाषा” के आतंक के शिकार हो जाते थे। इसलिए साठोत्तरी कवि ने एक नई भाषा दी। यह अनुभव किया जाने लगा कि कवि का पहला काम कविता को भाषाहीन करना है। साथ ही यह भी समझा गया कि अनावश्‍यक बिम्‍बों और प्रतीकों से भी कविता को मुक्‍त करना है। एक बड़ी अच्‍छी पंक्ति है उद्धत करना चाहूंगा-

‘कभी कभी या अधिकांशतः प्रतीकों और बिम्‍बों के कारण कविता की स्थिति उस औरत जैसे हास्‍यापद हो जाती है, जिसके आगे एक बच्‍चा हो, गोद में एक बच्चा हो और एक बच्‍चा पेट में हो।’

प्रतीक और बिम्‍ब जहां सूक्ष्‍म सां‍केतिक और सहज संप्रेषणीयता में सहायक होते हैं वहीं अपनी अधिकता से कविता को ग्राफिक बना देते हैं। आज महत्‍व शिल्‍प का नहीं कथ्‍य का है। सवाल यह नहीं कि आपने किस तरह कहा है, सवाल यह है कि आपने क्‍या कहा है?

इसके लिए आदमी की जरूरतों के बीच की भाषा का चुनाव करना और जीवन की हलचलों के प्रति सजग दृष्टिकोण कायम रखना अत्‍यंत आवश्‍यक है। भाषा कविता और पाठक के बीच दीवान बनकर खड़ी न हो इसलिए आज कवि कविता को भाषाहीन कर इस दीवार को तोड़ते नजर आते हैं।

धूमिल ने लिखा है,

छायावाद के कवि शब्‍दों को तोलकर रखते थे,

प्रयोगवाद के कवि शब्दों को टटोल कर रखते थे,

नयी कविता के कवि शब्दों को गोल कर रखते थे,

सन्‌ साठ के बाद के कवि शब्दों को खोलकर रखते हैं।

आज कवि अपनी कविताओं के लिए कठोर और नुकीले शब्‍द चुनता है, उन पर धार देता है, उन्‍हें पैना करता है और वाक्‍यों में बांधकर फेंकता रहता है, आपनी तरफ से पूरी ताकत लगाकर! उस आदमी को मारता है ---

जो आदमी के भेष में

शातिर दरिंदा है

जो हाथों और पैरों से पंगु हो चुका है

मगर नाखून में जिंदा है

जिसने विरोध का अक्षर-अक्षर

अपने पक्ष में तोड़ लिया है।

इसलिए आज कविताऒ में आक्रोश, विद्रोह, युयुत्सा, टूटन, अनास्था, विसंगति, विरोध और लड़ाई का स्वर मुखरित होकर सामने आ पाया है। शब्द चमत्कार पैदा करने के लिए कविताओं में प्रयुक्त नहीं होते बल्कि धरती से जुड़ा होना उसका लक्ष्य है, यही शब्‍दावली समकालीन कविता को अपनी एक अलग पहचान कायम करती है।

आज कवि शब्‍दों के चयन को विशेष महत्‍व प्रदान करता है। भले ही वह शब्‍दों को तराशने अथवा भारी भरकम बनाने की अपेक्षा सहज प्रयोग पर बल देता है, किंतु कवि कविता में शब्‍दों अक्षरों के माध्‍यम से “कथ्‍य” का रंग किस प्रकार भरा जाता है, इसकी प्रतीति निम्‍न पंक्तियों में देखी जा सकती है –

शब्‍द किस तरह

कविता बनते हैं

इसे देखो

अक्षरों के बीच गिरे हुए

आदमी को पढ़ो

क्‍या तुमने सुना कि यह

लोहे की आवाज है या

मिट्टी में गिरे खून

का रंग।

इस तरह हम कह सकते हैं कि आज के कवि या रचनाकार ने कविता को अपनी अभिव्यक्ति भंगिमा से एक नया जीवन और रूप प्रदान किया है। समकालीन कवियों ने काव्य-भाषा को संचरणशील गतिमत्ता, त्वरा, ऊर्जा और उर्वरता देने में बहुत योगदान दिया है और हिंदी कविता को एक नयी भाषा से सम्पन्न किया है।