सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (1911-1987)
:: जीवन परिचय ::
जन्म : ‘अज्ञेय’ जी का जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसया (कुशीनगर) नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ था। अज्ञेय जी के पिता श्री हीरानन्द पुरातत्व विभाग में उच्च पदाधिकारी थे। पिताजी उस समय खुदाई शिविर में रहते थे। वहीं ‘अज्ञेय’ जी का जन्म हुआ। इनका बचपन अधिकतर पिता के साथ श्रीनगर, लाहौर, पटना, नालंदा, लखनऊ, मद्रास, उटकमंड आदि बहुत से स्थानों में बीता। फलस्वरूप इनकी शिक्षा व्यवस्थित रूप से किसी एक स्थान पर नहीं हुई।
शिक्षा : इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा विद्वान पिता की देख-रेख में घर पर ही संस्कृत, फारसी, अँग्रेज़ी और बँगला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ हुई। अज्ञेय जी ने 1925 में पंजाब से एंट्रेंस, मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से विज्ञान में इंटर तथा 1929 में लाहौर के फॉरमन कॉलेज से बी एस सी की परीक्षा पास की। अंगरेज़ी विषय में एम.ए. पढाई करते समय दिल्ली षडयंत्र केस तथा अन्य अभियोग के सिलसिले में वे भूमिगत हुए पर बाद में पकड़े गए और दो वर्ष तक नज़रबंद रहे। इस तरह क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी। इन्होंने किसान आंदोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया। 1930 से 1936 तक के दौरान इनका अधिकांश समय विभिन्न जेलों में कटे।
कार्यक्षेत्र : अज्ञेय जी को 1936-1937 में `सैनिक' पत्रिका और पुनः कलकत्ता से निकलने वाले `विशाल भारत' के संपादन का दायित्व मिला। इसी पत्र के माध्यम से ये सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के नाम से साहित्य-जगत में प्रतिष्ठित हुए। `वाक्' और `एवरीमैंस' नामक पत्रिकाओं का भी आपने बड़ी कुशलता से संपादन किया। 1939 में उन्होंने ‘ऑल इंडिया’ रेडियो में नौकरी कर ली। लेकिन यह काम उन्हें बहुत उबाऊ लगा और इससे छुटकारा पाकर ये 1943 से 1946 तक अपने जीवन के तीन वर्ष ब्रिटिश सेना में बिताए। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इन्हें कुछ दिनों तक असम और बर्मा के मोर्चों पर भी रहना पड़ा। इसके बाद 1947 में इलाहाबाद से `प्रतीक' नामक पत्रिका का सम्पादन शुरु किया। 1955-1956 में ये यूनेस्को के आमंत्रण पर पश्चिमी यूरोप की यात्रा पर गए। 1957-58 तक पूर्वेशिया की यात्राएँ कीं। इसके बाद अनेक बार भ्रमण और अध्यापन के सिलसिले में अज्ञेय जी विदेश गए। 1961 में इन्हें केलिफोर्निया विश्वविद्यालय में भारतीय संकृति और साहित्य के अध्यापक के रूप में नियुक्ति मिली। यहां से इन्होंने पूरे अमेरिका का भ्रमण किया। 1966 में इन्होंने रूमामिया, यूगोस्लाविया, मंगोलिया, रूस आदि देशों की यात्राएं कीं। 1965 में इन्हें हिन्दी के प्रसिद्ध पत्र ‘दिनमान’ का संपादक नियुक्त किया गया। कुछ समय तक इन्होंने जोधपुर विश्वविद्यालय में हिंदी के निदेशक पद पर भी कार्य किया। इस प्रकार साहित्य के साथ ‘अज्ञेय’ जी ने हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।
पुरस्कार : (१) 1964 में `आँगन के पार द्वार' पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। (२) 1978 में 'कितनी नावों में कितनी बार' शीर्षक काव्य ग्रंथ पर भारतीय ज्ञानपीठ का सर्वोच्च पुरस्कार मिला।
मृत्यु : 4 अप्रैल 1987 को अज्ञेय जी का निधन हुआ।
:: प्रमुख रचनाएं ::
:: काव्य रचनाएँ :: भग्नदूत, चिंता, इत्यलम्, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करूणा प्रभामय, आंगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर-मुद्रा, सुनहरे शैवाल, महावृक्ष के नीचे, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं, और ऐसा कोई घर आपने देखा है इत्यादि उनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं।
:: उपन्यास :: शेखर: एक जीवनी (दो भागों में), नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी।
:: कहानी-संग्रह :: विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप आदि।
:: यात्रा वृत्तांत :: अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली।
:: निबंध संग्रह :: त्रिशंकु, आत्मनेपद, हिंदी साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य, सबरंग और कुछ राग, लिखि कागद कोरे, जोग लिखी, अद्यतन, आल-बाल, आदि।
:: संस्मरण :: स्मृति लेखा
:: डायरियां : भवंती, अंतरा और शाश्वती।
:: विचार गद्य :: संवत्सर
:: गीति-नाट्य :: उत्तर प्रियदर्शी
:: अनुवाद :: त्याग पत्र (जैनेन्द्र) और श्रीकांत (शरदचन्द्र) उपन्यासों का अंग्रेज़ी में अनुवाद।
उनका लगभग समग्र काव्य सदानीरा (दो खंड) नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध केंद्र और परिधि नामक ग्रंथ में संकलित हुए हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के साथ-साथ अज्ञेय ने तारसप्तक, दूसरा सप्तक, और तीसरा सप्तक जैसे युगांतरकारी काव्य संकलनों का भी संपादन किया तथा पुष्करिणी और रूपांबरा जैसे काव्य-संकलनों का भी। वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध-संग्रहों के भी संपादक हैं। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका-पुरूष थे जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।
:: साहित्यिक योगदान ::
अज्ञेय एक सफल कवि, उपन्यासकार, कहानीकार और आलोचक रहे हैं। इन सभी क्षेत्रों में वे शीर्षस्थ भी थे। छायावाद और रहस्यवाद के युग के बाद हिन्दी-कविता को नई दिशा देने में अज्ञेय जी का सबसे बड़ा हाथ है। हिन्दी के अनेक नए कवियों के लिए अज्ञेय जी प्रेरणा-स्रोत और मार्ग-दर्शक रहे हैं। आपकी रचनाओं का मूल स्वर दार्शनिक और चिन्तन-प्रधान है।
अज्ञेय जी की काव्य चेतना का मूल स्वर आत्मनिष्ठ और व्यक्तिवादी है। सैनिक सेवा और किसान आंदोलन से जुड़े रहकर भी वे सामान्य जनजीवन के साथ अपने को जोड़ नहीं पाए। सामाजिक जीवन से गहन रागात्मकता उनके काव्य में कहीं दिखाई नहीं देती। उनके प्रथम काव्य-संग्रह ‘भग्नदूत’ में प्रणय की अतृप्त आकांक्षा भविष्य की ‘अंधेरे की चिंताएं’ बनकर प्रकट हुई है। 1942 में प्रकाशित ‘चिंता’ प्रसाद की ‘कामायनी’ के चिंता सर्ग की गहरी छाप लिए हुए है। इसमें उन्होंने पुरुष और नारी के परस्पर संबंध को पति-पत्नी के सामाजिक संबंध तक सीमित न रखकर चिरंतन पुरुष और चिरंतन नारी के गतिशील संबंध के रूप में स्वीकार किया है। ‘इत्यलम्’ की भी यही स्थिति है।
अज्ञेय ‘मैं’ से दूरी बनाकर चलते हैं, लेकिन व्यक्तित्व की स्वतंत्रता का बोध पाठक को कराते हैं। एक स्तर पर उनकी कविता ही व्यक्तित्व की खोज की कविता का रूप ले लेती है। उनके आधुनिक बोध के मूल में व्यक्तित्व की खोज है। व्यक्तित्व की खोज बहुत कुछ अभिव्यक्ति की खोज है।
‘हरी घास पर क्षण भर’ (1949), ‘बावरा अहेरी’ (1954)और ‘इंद्र धनु रौंदे हुए’ (1957) रचनाओं में अज्ञेय जी की व्यक्ति-चेतना निरंतर एक दर्शन के रूप में संघनित होते हुए दिखाई देती है। ‘अरी ओ करूणा प्रभामय’ के द्वारा ‘आंगन के पार द्वार’ (1961) तक आते-आते ‘अज्ञेय’ जी का व्यक्ति चिंतन भारत के विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की तत्व-विचार संबंधी अवधारणओं के सार को अपने मनोनुकूल ढालकर एक नया दर्शन खड़ा करता है। इस संग्रह की ‘असाध्य वीणा’ शीर्षक कविता कवि ने बौद्ध कालीन परिवेश की सृष्टि कर जगतव्यापी मौन की एकात्मकता का प्रतिपादन किया है। इस कविता का वीणा वादक ‘केश कंबली’ भारतीय दर्शन का प्रसिद्ध अजित केशकंबली है, जो भौतिकवादी और सामाजिक विषमता को रेखांकित करने के लिए विख्यात है। लेकिन उसे ‘अज्ञेय’ जी ने अपनी व्यक्तिवादी चेतना की पुष्टि के लिए सामाजिक समता का अग्रदूत बना दिया है। उसकी वीणा की झंकृति से राजा-रानी, किसान-मज़दूर, जनता, तिजोरियां भरकर रखने वाले सेठ-साहूकार और रंक-भिखारी सभी समान रूप से आह्लादित होते हैं।
जिस उच्च मध्यवर्गीय वैयक्तिक चेतना को अज्ञेय ने अपने काव्य की विषयवस्तु बनाया है, उसका सीधा असर उनकी कविताओं के संरचना-शिल्प पर भी पड़ा है। भाषा की दृष्टि से प्रायः उन्होंने बोल-चाल की भाषा का ही प्रयोग अधिक किया है। लेकिन इन साधारण शब्दों में एक विशेष प्रकार की सांकेतिकता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, बिम्बधर्मिता आदि का समावेश किया है, वह इनकी काव्य-प्रतिभा का सशक्त प्रमाण है। ‘कलंगी बाजरे की’ शीर्षक कविता में नये उपमानों की आवश्यकता रेखांकित किया है। अज्ञेय आधुनिक युग के कवि थे। वे आधुनिक भाव-बोध के कवि के रूप में जाने जाते हैं। उनकी दृष्टि में कविता का बहुत सारी चीज़ों के साथ संबंध बदल गया है। कविता में सिद्धांत के तौर पर अज्ञेय व्यक्तित्व से दूरी बनाने की बात करते हैं। आधुनिक भाव-बोध पहले से चले आ रहे काव्य-विधान से संभव नहीं था-
“ये उपमान मैले हो गए हैं
देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच!
कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है”
अपने समूचे काव्य में इन्होंने नवनिर्मित उपमानों के प्रयोग का जो कौशल दिखलाया है, वह पाठक को पूरी तरह चमत्कृत कर देता है।
‘पति-सेवा रत
सांझ
उचकता देख पराया चांद
ललाकर ओट हो गयी’
‘उड़ गयी चिड़िया
कांपी फिर
थिर
हो गयी पत्ती’
‘चांद चितेरा
आंक रहा है शरद नभ में
एक चीड़ का खाका’
अज्ञेय आधुनिक भावबोध के ऐसे कवि हैं जिन्होंने काव्यभाषा और काव्यशिल्प की दृष्टि से खड़ी बोली की हिन्दी कविता को नयी समृद्धि दी है। उन्होंने छायावादी संस्कारों के प्रभाव से मुक्त होने में वह नई काव्यभाषा अर्जित की जिससे प्रयोगवाद और आगे नयी कविता की पहचान बनी।
अज्ञेय ‘प्रयोगवाद’ नामक काव्य-आंदोलन के प्रवर्तक थे। साथ ही नयी कविता के अग्रणी कवि के रूप में उनका महत्व निर्विवाद है। उनकी रचनाओं में चमत्कारपूर्ण प्रयोग मिलता है। सामाजिक सरोकार तो है ही, साथ ही वैक्तिकता और सामाजिकता का द्वंद्व भी स्पष्ट है-
“यह दीप अकेला स्नेह-भरा
है गर्व-भरा मदमाता पर
इसको भी पंक्ति दे दो।”
वे एक “सांचे ढले समाज” की जगह “अच्छी कुंठा रहित इकाई” के पक्ष में हैं।
संवेदना के कवि के रूप में उनकी एकदम अलग पहचान है। उनकी कविता में प्रकृति, प्रेम, आत्मदान, मृत्यु जैसे अनुभव आधुनिक बोध और संवेदना का हिस्सा बन कर आते हैं-
“पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में
डगर चढती उमंगों-सी।
बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।
विहग-शिशु मौन नीड़ों में
मैंने आंख भर देखा।”
अधिकतर कवि सत्य को पहले से प्राप्त मानते हैं। वे सत्य को कहने के लिए शब्द को साधन के रूप में देखते हैं। परन्तु अज्ञेय तो कविता को सबसे पहले शब्द मानते हैं। वे सत्य को अन्वेषण का विषय मानते हैं और शब्द को भी। फिर मानते हैं कि दोनों शब्द और सत्य में निरंतर द्वंद्व की स्थिति बनी रहती है। परस्पर टकराकर नया काव्यत्व प्राप्त करते हैं। तनाव और द्वन्द्व की स्थिति में ही अज्ञेय को नया काव्योन्मेष उपलब्ध हो पाता है।
“ये दोनों जो
सदा एक-दूसरे से तनकर रहते हैं
कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में
इन्हें मिला दूं –
दोनों जो हैं बंधु, सखा, चिर सहचर मेरे।”
अज्ञेय निर्वैयक्तिक संवेदना को महत्व देते हैं। अज्ञेय की प्रकृति, प्रेम, आत्मदान, मृत्यु संबंधी कविताओं में सब कुछ नयी प्रश्नशील निगाह से देखा जा रहा है। प्रकृति केवल अलंकरण तक सीमित नहीं है।
बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढती है।
उसकी कलियां हैं मेरी आंखें,
कोपलें मेरी अंगुलियों में अंकुराती हैं,
फूल-अरे, यह दिल में क्या खिलता है।
प्रेम ढर्रे से अलग है। वे कहते हैं प्रेम के क्षण दुहराए नहीं जाते। प्रेम बिना आशा, आकांक्षा के ही संभव है। यह आधुनिक बोध है प्रेम का।
“ओ प्यार! कहो, है इतना धीरज,
चलो साथ
यों: बिना आशा-आकांक्षा
गहे हाथ?”
मृत्यु भय नहीं देती। उनके यहां मृत्यु का वरण है। डर नहीं है। प्रेम और मृत्यु अभिन्न हो जाते हैं यहां।
“सागर को प्रेम करना
मरण की प्रच्छन्न कामना है
मरण अनिवार्य है
प्रेम
स्वच्छंद वरण है”
एक ओर अहं का विलयन अज्ञेय का ज़रूरी सरोकार है तो दूसरी ओर व्यक्तित्व का तेजस अंश बचाए रखने की चिंता उन्हें सबसे अलग प्रमाणित करती है। जब वे लिखते हैं ‘सखि आ गये नीम को बौर’ तो वे परंपरा से हटते हैं। आम के पेड़ से बौर का संबंध न जोड़कर, नीम से जोड़ने के पीछे अभिव्यक्ति की नई आज़ादी का बोध है। अज्ञेय की स्वाधीन चिंता के निहितार्थ अनेक हैं।
मेरे छोटे घर – कुटीर का दिया
तुम्हारे मंदिर के विस्तृत आंगन में
सहमा-सा रख दिया।
अज्ञेय की कई कविताएं काव्य-प्रक्रिया की ही कविताएं हैं। उनमें अधिकतर कविताएं अवधारणात्मक हैं जो व्यक्तित्व और सामाजिकता के द्वंद्व को, रोमांटिक आधुनिक के द्वंद्व को प्रत्यक्ष करती है।
दु:ख सबको मांजता है
और –
चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह न जाने, किन्तु
जिनको मांजता है
उन्हें सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।
जिजीविषा अज्ञेय का अधिक प्रिय काव्य-मूल्य है। वह संघर्ष की सार्थकता का पर्याय है। यह उन्हें एक नए मानववाद के कवि के रूप में देखने के लिए प्रेरित करती है। यह सजग काव्य-बोध है।
“तू अंतहीन काल के लिए फलक पर टांक दे –
क्योंकि यह मांग मेरी, मेरी, मेरी है कि प्राणों के
एक जिस बुलबुले की ओर मैं हुआ हूं उदग्र, वह
अंतहीन काल तक मुझे खींचता रहे --------”
इस प्रकार के प्रतीकों, बिंबों और लाक्षणिक प्रयोगों से अज्ञेय ने अपनी शैली को अत्यंत आकर्षक बनाया है। शिल्प के संबंध में अज्ञेय जी की सबसे बड़ी विशेषता है, मौन का प्रयोग। हालाकि यह विशेषता उन्होंने पाश्चात्य काव्यधारा के प्रभाव से ग्रहण की है, फिर भी अपनी कविता में अवकाश-अंतराल छोड़कर मौन का अत्यंत मौलिक और कुशल प्रयोग भी किया है। ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं’ शीर्षक काव्य संग्रह में इस सन्नाटे या मौन का अत्यंत सफल प्रयोग अज्ञेय जी ने किया है। अझेय का काव्य आधुनिक अकेलेपन में जीना सिखाता है। उनके काव्य में शब्द का महत्व है और मौन का भी। मौन से ही सम्पूर्ण विश्व और प्रकृति के विराट संगीत से जुड़ाव की स्थिति बनती है।
श्रेय नहीं कुछ मेरा :
मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में –
वीणा के माध्यम से अपने को मैंने
सब कुछ को सौंप दिया था –
सुना आपने जो वह मेरा नहीं,
न वीणा का था :
वह तो सब कुछ क्र तथता थी
महाशून्य
वह महामौन
अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय
जो शब्दहीन
“सब में गाता है।”
अज्ञेय जी का काव्य का संरचना शिल्प अत्यंत आकर्षक और प्रभावशाली है, जो इन्हें एक सजग रूपवादी कलाकार सिद्ध करता है। उन्होंने हिन्दी को नया रूप दिया लेकिन उनकी काव्य परंपरा विकसित नहीं हो पाई। अज्ञेय को दरकिनार करके हिन्दी साहित्य को नहीं पढा जा सकता। अज्ञेय को समझने के लिए एक तटस्थ दृष्टि से समझने की आवश्यकता है। उनकी कविता का चिंतन पक्ष समझने की ज़रूरत है, वरना छंद और मौन के प्रति उनका विचार अधूरा रहेगा। उनकी काल संबंधी अवधारणाएं भारतीय हैं या यूरोपीय, यह भी देखना होगा। अधुनिकतावाद के बाद छायावाद आता है और अज्ञेय का काव्य उसको ब्रेक लगाने का काम करता है। लगातार यात्राओं के कारण अज्ञेय ने ट्रेन में चलते हुए कविताएं लिखीं। ‘अज्ञेय’ जी किसी एक स्थान पर स्थिर न रह पाने के बावज़ूद निरंतर साहित्य-रचना मे निरत रहे। हिंदी में सर्वाधिक रचना का श्रेय इन्हें प्राप्त है।