बुधवार, 30 मार्च 2011

हिन्दी उपन्यास साहित्य : अनुदित

हिन्दी उपन्यास अनुदित

मेरा फोटोमनोज कुमार

इसी ब्लॉग पर हमने पहले हिन्दी साहित्य की विधाएं के अंतर्गत  संस्मरण और यात्रा-वृत्तांत पर पोस्ट डाला था। यहां देखें। अब इसी श्रृंखला के तहत प्रस्तुत करते हैं उपन्यास साहित्य।

प्रेमचंद ने उपन्यास के संबंध में लिखा है,

“मैं उप्न्यास को मानव-जीवन का चित्र समझता हूं। मानव-चरित्र पर प्रकाश डालना और उसके रहस्यों को खोलना ही उपन्यास का मूल तत्त्व है।”

उपन्यास ‘उप’ और ‘न्यास’ से मिलकर बना है। ‘उप’ का अर्थ समीप और ‘न्यास’ का अर्थ है रचना। अर्थात्‌ उपन्यास वह है जिसमें मानव जीवन के किसी तत्त्व को उक्तिउक्त के रूप में समन्वित कर समीप रखा जाए।

इसमें उपन्यासकार मानव जीवन से संबंधित सुखद एवं दुखद किन्तु मर्मस्पर्शी घटनाओं को निश्चित तारतम्य के साथ चित्रित करता है। उपन्यास एक ऐसी लोकप्रिय साहित्यिक विधा है जिसे मानव जीवन का यथार्थ प्रतिबिंब कहा जा सकता है। वस्तुतः उपन्यास में एक ऐसी विस्तृत कथा होती है जो अपने भीतर अन्य गौण कथाएं समेटे रहती है। इस कथा के भीतर समाज और व्यक्ति की विविध अनुभूतियां और संवेदनाएं, अनेक प्रकार के दृश्य और घटनाएं और बहुत प्रकार के चरित्र हो सकते हैं, और यह कथा विभिन्न शैलियों में कही जा सकती है।

उद्भव

उपन्यास के उद्भव के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ. गुलाब रॉय, शिवनारायण श्रीवास्तव आदि विद्वानों की धारणा है कि भारतीय उपन्यसों के अंकुर भारत की प्राचीनतम साहित्य में ही उपलब्ध हैं। वे कहीं बाहर से नहीं आए। किन्तु डॉ. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय, नलिनी विलोचन शर्मा तथा हजारी प्रसाद द्विवेदी इससे सहमत नहीं हैं। उनकी मान्यता है कि उपन्यास का संबंध संस्कृत की प्राचीनतम औपन्यासिक परंपरा से जोड़ना विडंबंना मात्र है। इस वाद विवाद के पंक न फंस इतना ही कहना है कि उपन्यास का प्रारंभ वहीं से मानना चाहिए जहां से मनुष्य ने एक दूसरे के पास और निकट आना सीखा।

इस प्रकार विचार पूर्वक देखा जाए तो उपर्युक्त सभी विद्वान हिन्दी उपन्यास का पश्चिमी साहित्य की देन मानते हैं। और यह ठीक ही प्रतीत होता है। क्योंकि 19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों में, भारतेन्दु युग में, जब हमारे यहां हिन्दी उपन्यासों का श्रीगणेश हुआ था, यह विधा पश्चिमी साहित्य में पूर्ण रूप से विकसित थी। ब्रिटिश साम्राज्य के प्रभाव के कारण सर्वप्रथम बांगला साहित्य, पश्चिमी साहित्य की इस पूर्ण विकसित विधा से प्रभावित हुआ। परिणामस्वरूप बंग्ला उपन्यासों की रचना हुई। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक बंगभाषा में बहुत अच्छे उपन्यास निकल चुके थे। बांग्ला साहित्य की इस साहित्यिक परिवर्धन से भारतेन्दु युगीन साहित्यकारों ने हिन्दी उपन्यासों की आवश्यकता को अपरिहार्य समझा। हिन्दी साहित्य के इस विभाग की शून्यता को जल्द हटाने के लिए आरंभ में बंग भाषा से अनुवाद होते रहे।

भरतेन्दु हरिश्चन्द्र ने ही अपने जीवन में बंगभाषा के एक उपन्यास के अनुवाद में हाथ लगाया था, पर पूरा न कर सके। पर उनके समय में ही प्रतापनारायण मिश्र और राधाचरण गोस्वामी ने कई उपन्यासों के अनुवाद किए। पं. राधाचरण गोस्वामी ने ‘बिरजा’, ‘जावित्री’ और ‘मृण्णमयी’ नामक उपन्यासों के अनुवाद बंगभाषा से किए।

बाद में 1873 में बाबू गदाधर सिंह ने बंग्ला के दो उपन्यासों ‘बंगविजेता’ और ‘दुर्गेशनंदिनी’ को हिन्दी में अनुदित किया। राधाकृष्णदास ने बंगला के दो उपन्यासों का हिन्दी में अनुवाद किया जैसे – ‘स्वर्णलता’, ‘मरता क्या न करता’। बाबू रामकृष्ण वर्मा ने ‘चित्तौरचातकी’ का बंगभाषा से अनुवाद किया। कार्तिकप्रसाद खत्री के किए अनेक बंगला उपन्यास के अनुवाद जैसे ‘इला’, ‘प्रमिला’, ‘जया’, ‘मधुमालती’ इत्यादि काशी के भारत जीवन प्रेस से निकले।

लाला श्रीनिवास दास के ‘परीक्षा गुरु’ को हिन्दी का प्रथम मौलिक उपन्यास माना जाता है।

‘परीक्षा गुरु’ के पश्चात मौलिक उपन्यासों की एक परंपरा सी चल पड़ी।

(ज़ारी…!)

सोमवार, 28 मार्च 2011

वर्तनी आयोग द्वारा मानकीकृत देवनागरी की नवीनतम वर्णमाला व लेखन विधि--डॉ. दलसिंगार यादव निदेशक राजभाषा विकास परिषद , नागपुर

डा० साहब ने  मेरी एक पोस्ट पर यह टिप्पणी की थी ---संगीता जी आपने अनुनासिक और अनुस्वार के बारे में भ्रम को दूर करने का अच्छा प्रयास किया है। आप विदुषी हैं और भाषा पर अच्छी पकड़ भी रखती हैं परंतु आपके इस लेख में कुछ भ्रम हैं। यह व्याकरण का विषय है इसलिए नियमों का प्रतिपादन स्पष्ट और निर्दोष होना चाहिए। इन पर टिप्पणी लिखी जाएगी तो शायद न्याय न हो सके। यदि आप अनुमति दें तो एक लेख लिखकर मेल से भेज देता हूं आप उसे पोस्ट कर लें। थोड़ा समय लगेगा।
 और यह मौका मैं चूकना नहीं चाहती थी …आज मैं उनके द्वारा भेजा हुआ लेख प्रकाशित कर रही हूँ …इससे हमें हिंदी की शुद्धता के बारे में विशेष जानकारी मिलेगी और हम सभी लाभान्वित होंगे …आभार
वर्तनी आयोग द्वारा मानकीकृत देवनागरी की नवीनतम वर्णमाला व लेखन विधि--
भाषा की मुख्य इकाई वाक्य है। वाक्य पदों से बनता है और पद प्रायः ध्वनि प्रतीकों से बनते हैं। पर भाषा में कुछ मूल ध्वनियाँ होती हैं जिनके स्वतंत्र प्रयोग द्वारा या उनके संयोजनों द्वारा पदों और फिर अंततः सार्थक पूर्ण इकाई – वाक्य की रचना की जाती है तथा वाक्य दर वाक्य आलेख की रचना की जाती है। भाषा के इन तीनों पहलुओं का ज्ञान व्याकरण कराता है। अतः व्याकरण में इन्हें क्रमशः वर्ण विचार, शब्द विचार और वाक्य विचार कहा जाता है। हम यहाँ हिंदी भाषा व्याकरण के बारे में बात करने जा रहे हैं जिसकी लिपि देवनागरी है।
देवनागरी मूलतः संस्कृत भाषा की लिपि है और अब इसे अनेक भाषाओं ने अपनाया है। हम इस लिपि की वर्णमाला के आधारभूत पक्ष, अर्थात्, मूल स्वर, संयुक्त स्वर, दीर्घ स्वरों, अनुस्वार, विसर्ग, स्पर्श व्यंजन, नासिक्य व्यंजन, अंतःस्थ व्यंजन और ऊष्म व्यंजनों का परिचय देंगे तथा इनके लेखन के मानक तरीकों पर चर्चा करेंगे।
1. मूल स्‍वर
अ इ उ ऋ
2. संयुक्‍त स्‍वर
अ + इ = ए
अ + उ = ओ
3. दीर्घ स्‍वर
आ ई ऐ औ
4. अनुस्‍वार
अं
5. विसर्ग
अः
6. नया जुड़ा स्वर


7. नुक़्ता
उत्क्षिप्त और अरबी फ़ारसी अंग्रेज़ी मूल की ध्वनियों के लिए
व्यंजन
क ख ग घ ङ
च छ ज झ ञ
ट ठ ड ढ ण
त थ द ध न
प फ ब भ म
8. अंतःस्थ
य र ल व
9. ऊष्म
श ष स ह
10. उत्क्षिप्त ध्वनियाँ
ड़ ढ़
11. विशेष संयुक्त व्यंजन
क्ष त्र ज्ञ
12. नासिक्य व्यंजन (व्यंजनों वर्गों के पंचम वर्ण)
ङ ञ ण न म
चूंकि हिंदी राजभाषा है और इसकी लिपि देवनागरी है तथा देश विदेश में व्यापक रूप से प्रयुक्त हो रही है इसलिए इसका मानकीकृत रूप में शिक्षण और लेखन न किया जाए तो अराजकता की स्थिति उत्पन्न हो सकती है। 1961 में वर्तनी आयोग का गठन किया गया था यद्यपि इससे पहले देवनागरी के मानकीकरण का सझाव लेने के लिए अनेक गैर सरकारी प्रयास (काका कालेलकर समिति 1941, नागरी प्रचारिणी सभा समिति 1945, आचार्य नरेंद्र देव समिति 1947) किए गए थे। परंतु समन्वय के अभाव में एकरूपता नहीं लाई सकी थी। अतः केंद्र सरकार से तत्ववधान में यह कार्य हुआ और 1980 में अंतिम सुझाव के साथ ही देवनागरी लिपि का मानकीकृत रूप जारी किया गया और सिफ़ारिश की गई की एकरूपता के दृष्टिकोण से इनका ही अनुसरण किया जाए।
उच्चारण
लिखित वर्ण या प्रतीक ध्वनियों के उच्चारण को प्रतिबिंबित करते हैं। अतः इनके लेखन नियम निर्धारित किए गए हैं जिनका परिचय हम यहाँ देने जा रहे हैं। जैसा कि आप जानते हैं कि उच्चारण स्वरों का ही होता है, व्यंजनों का नहीं। इसीलिए स्वर को अक्षर कहा गया है। व्यंजनों का उपयोग रूप परिवर्तन दिखाने के लिए किया जाता है जिससे विभिन्न शब्दों का निर्माण होता है। इसीलिए 'अक्षर' की परिभाषा, 'ऋग्वेद प्रातिशाख्यम्' के अनुसार इस प्रकार की गई है – सव्यंजनः (व्यंजन से युक्त) सानुस्वारः (अनुस्वार से सहित) शुद्धो (अनुस्वार रहित) वापि स्वरोçक्षरम् (स्वयं स्वर) अक्षर कहलाता है (18.32)।
अनुस्वार और हिंदी भाषा में इसका महत्व तथा लेखन नियम
वर्णमाला में केवल अनुस्वार और अनुनासिक का उल्लेख है। अनुस्वार स्वर है और अनुनासिक व्यंजन। अनुस्वार स्वर के उच्चारण का नासिक्यीकरण है तथा अनुनासिक पंचम वर्णों के उच्चारण में मुंह और नासिका का उपयोग दर्शाता है। संस्कृत में अंतःस्थ और ऊष्म वर्णों के साथ सर्वत्र अनुस्वार , अर्थात्, उच्चारण के स्थान के पूर्ववर्ती वर्ण के ऊपर केवल बिंदु का प्रयोग किया जाना था, जैसे, संयम, संशय, संहार, संश्लेषण, हंस, वंश। इन शब्दों में अनुनासिक का प्रयोग है। चंद्रबिंदु वाले अनुस्वार का रूप पहले नहीं था क्योंकि संस्कृत में ऊष्म और अंतःस्थ वर्णों के साथ ही अनुस्वार का प्रयोग होता था। स्वर रहित नासिक्य वर्णों (स्वर रहित पंचम वर्णों के साथ) का उपयोग ही सही माना जाता था, मात्र बिंदु का नहीं।
साँस, हँस, आँगन, नँद-नंदन, हैँ, मैँ इन शब्दों में नासिक्य व्यंजनों का उपयोग नहीं बल्कि व्यंजन ध्वनियों में स्वरों का नासिक्यीकरण है। शब्दों के अंत में, चाहे वे क्रिया हों या किसी शब्द का बहुवचनी रूप, उनमें नियमानुसार स्वर की ही नासिक्यीकृत उच्चारण होता है, जैसे, मैँ, हैँ, हूँ, सकूँ, गिरूँ, उठूँ आदि। एन.सी.आर.टी. की, प्रारंभिक शिक्षा की भाषा पुस्तकों में इसी प्रकार सिखाया जाता है ताकि बच्चों के मस्तिष्क में संकल्पना घर कर जाए कि स्वरों के नासिक्यीकरण तथा नासिक्य व्यंजनों के स्वर रहित प्रयोग में क्या अंतर है। बाद में चलकर ऊंची कक्षाओं की पाठ्य पुस्तकों में स्वरों के नासिक्यीकरण तथा नासिक्य व्यंजनों के स्वर रहित प्रयोग के लेखन में कोई अंतर नहीं रखा जाता है और दोनों के ही लिए अनुस्वार का ही प्रयोग किया जाता है। हंस और हँस जैसे शब्दों में अंतर एवं अर्थांतर का ज्ञान संदर्भ के अनुसार होता रहता है। नासिक्य व्यंजनों के स्वर रहित प्रयोग केवल वहीं करने की सिफ़ारिश की गई है जहाँ आवश्यक हो, जैसे, कन्या, संन्यासी, सम्मत आदि।
नुक़्ता का महत्व व उपयोग
अंग्रेज़ों ने देवनागरी पर आरोप लगाया था कि इसमें एफ़ और ज़ेड ध्वनियों को शुद्ध रूप में व्यक्त करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। अतः देवनागरी सुधार समिति ने सुझाव दिया कि हमारे पास, उत्क्षिप्त ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए ड और ढ के नीचे बिंदु लगाने की व्यवस्था है। अतः हम इसका उपयोग करने का नियम बना सकते हैं। इस प्रकार यह निर्णय किया गया कि अंग्रेज़ी के एफ़ और ज़ेड की ध्वनि उत्पन्न करने के लिए ज तथा फ के नीचे बिंदु लगाने का नियम नियत किया जा सकता है। इस प्रकार यह व्यवस्था की गई कि अंग्रेज़ी के एफ़ और ज़ेड की ध्वनि उत्पन्न करने के लिए ज तथा फ के नीचे बिंदु लगाया जाए, अर्थात्, इन्हें फ़ और ज़ (ज़ाल, ज़े, झ़े, ज़्वाद, ज़ोय) लिखा जाए। इसी प्रकार अरबी एवं फ़ारसी के शब्दों में तालव्य-दंत्य तथा कंठ्य (हल़की) ध्वनियाँ उत्पन्न करने के लिए नुक़्ता का उपयोग किया जाए, जैसे, जहाज़, सफ़र, क़ाग़ज़, ख़ानदान आदि।
सभी भारतीय भाषाओं की ध्वनियों के लिए मानक वर्धित देवनारी लिपि
अतः इसी प्रकार देवनागरी को सभी भाषाओं की सभी संभावित ध्वनियों को व्यक्त करने के लिए भी, जैसे, कश्मीरी, सिंधी, तमिल, तेलुगु, मलयालम, कन्नड़ विस्तारित औ समृद्ध किया गया है। ( ए बेसिक ग्रामर ऑफ़ मॉडर्न हिंदी; 1975; पृष्ठ 209-212; केंद्रीय हिंदी निदेशालय, नई दिल्ली, देखें।) इस प्रकार देवनागरी वैज्ञानिक, सरल तथा स्वयं पूर्ण लिपि बन गई है।
देवनागरी के बजाय रोमन लिपि – ख़तरनाक प्रयोग
आजकल कुछ लोग रोमन वर्णमाला और रोमन लिपि का उपयोग करके हिंदी में ब्लॉगिंग कर रहे हैं। यह ख़तरनाक प्रयोग है। रोमन लिपि अत्यंत दोषपूर्ण है जिसके लिए जॉर्ज बर्नार्ड शॉ जैसे विद्वान ने कहा है कि "English spelling is an international calamity." । जिन ध्वनियों का हम उपयोग कर सकते हैं उन्हें लिखने में नितांत असमर्थ है। जो लोग रोमन लिपि का इस्तेमाल करके हिंदी लिख रहे हैं या हिंदी लिखने के लिए रोमन प्रणाली का उपयोग करने की सलाह देते हैं वे जाने अनजाने हिंदी भाषा व संस्कृति का अहित कर रहे हैं। मुझे तो बड़ा आश्चर्य होता है जब हिंदी अधिकारी भी ट्रांसलिटरेशन पद्धति द्वारा हिंदी टाइप करने की सलाह देते हैं। मैं इसके सख्त ख़िलाफ़ हूं और अपने हर कार्यक्रम में हिंदी लिपि और लेखन पद्धति पर ही बल देता हूं। इस विषय पर व्यापक और गंभीरता से वैज्ञानिक चर्चा की ज़रूरत है।
--

शनिवार, 26 मार्च 2011

महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना

२६ मार्च, उनके जन्म दिवस पर प्रस्तुत है

महादेवी वर्मा की काव्य संवेदना

महादेवी वर्मा छायावाद की एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर हैं। काव्य रचनाओं में वे प्रायः अंतर्मुखी रही हैं। अपनी व्यथा, वेदना और रहस्य भावना को ही उन्होंने मुखरित किया है। उनकी कविता का मुख्य स्वर आध्यात्मिकता है। महादेवी ने एक दिव्य सत्ता के दर्शन हर कहीं, हरेक उपादान में किए हैं। उस अलौकिक प्रिय से मिलन की इच्छा ने उन्हें उद्वेलित किया। रहस्य के आवरण मे इसकी अभिव्यक्ति हुई।

महादेवी के काव्य का मूल भाव प्रणय है। उनकी कविताओं में उदात्त प्रेम का व्यापक चित्रण मिलता है। अलौकिक प्रिय के प्रति प्रणय की भावना, नारी सुलभ संकोच और व्यक्तिगत तथा आध्यात्मिक विरह की अनुभूति उनके प्रणय के विविध आयाम है। उनका प्रणय व्यापार एक महारास का रूप ले लेता है और उसमें रहस्यात्मकता आ जाती है।

अंधेरों से झरता स्मित पराग

प्राणों में गूंजा नेह-राग,

सुख का बहता मलयज समीर!

घुल-घुल जाता यह हिम-दुराव,

गा-गा उठते चिर मूक भाव,

आली सिहर-सिहर उठता शरीर!

उनकी कविताओं में सौन्दर्य के विविध रूपों का भी मनोहर चित्रण हुआ है। वे सत्य को प्राप्र्ति का साधन मानती हैं। उनकी सौन्दर्यानुभूति प्रकृति तथा मानव जीवन दोनों की ओर आकृष्ट होती है। वे प्रकृति के विभिन्न रूपों में विराट के सौन्दर्य का दर्शन करती हैं। उनकी जीवन दृष्टि मानवीय गुणों से सम्पृक्त और संवेदनाओं से अनुप्राणित हैं। महादेवी जी की रचनाओं में मुक्ति की उड़ान स्पष्ट, असीम और अनंत है, भाषा और शिल्प के स्तर पर भी। उनके गीत काव्य में संवेदना का सहज प्रत्यक्षीकरण हुआ है। अभिव्यक्ति के स्तर पर उन्होंने प्रतीक का सहारा लिया है। काव्य संवेदना की निर्मिति में उनके व्यक्तिगत एकाकीपन की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। वेदना के विविध रूपों की उपस्थिति उनके काव्य जगत की विशिष्टता है। उन्होंने अखिल ब्रह्मांड में सौन्दर्य के दर्शन किए। उसे अपने गीतों में स्थान दिया। सौन्दर्य की अभिव्यंजना द्वारा आनंद की सृष्टि सफलतापूर्वक किया। व्यथा-वेदना से आनंद की ओर यह प्रस्थान उनकी काव्य-यात्रा का सार है। सम्यक्‌ वेदनानुभूति का प्रस्फुटन आनंद में होता है।

हंस देता जब प्रात, सुनहरे अंचल में बिखरा रोली।

लहरों की बिछलन पर जब मचली पड़ती किरणें भोलीं।

तब कलियां चुपचाप उठा कर पल्लवों के घुंघट सुकुमार,

छलकी पलकों से कहती हैं कितना मादक है संसार!

उनकी वेदना के उद्गम के बारे में निश्चित तौर पर कहना संभव नहीं है।

“शलभ मैं शापमय वर हूं, किसी का दीप निष्ठुर हूं”

उनके अंतस में लगता है अथाह पीड़ा पल रही थी। विचित्र सा सूनापन था। स्वेच्छा से चयन किया गया एकाकीपन था। पीड़ा का साम्राज्य ही उनके काव्य संसार की सौगात है।

“साम्राज्य मुझे दे डाला, उस चितवन ने पीड़ा का”

विफल प्रेम का रुदन उनके काव्य की अंतर्वस्तु है। पीड़ा उनका प्रारब्ध है,

मेरी मदिरा मधुवाली, आकर सारी ढुलका दी

हंस कर पीड़ा से भर दी, छोटी जीवन की प्याली

अपनी पीड़ानुभूति को बहुत ही सहजता से वे व्यक्त करती हैं

“रात सी नीरव व्यथा, तन सी अगम कहानी”

दुख और वेदना के भाव आरोपित बिल्कुल नहीं हैं। इनका वरण तो कवयित्री ने स्वयं किया है। किन्तु यह वेदना नितांत व्यैक्तिक भी नहीं है। उनके वेदना का महल आध्यात्मिक और मानवतावादी भावभूमि पर टिका हुआ है। महादेवी ने दुख को आध्यात्मिक स्तर पर ही अपनाया। किसी दार्शनिक की तरह वे कहती हैं,

विजन वन में बिखरा कर राग, जगा सोते प्राणों की प्यास,

ढालकर सौरभ में उन्माद नशीली फैलाकर विश्वास,

लुभाओ इसे न मुग्ध वसन्त! विरागी है मेरा एकान्त!

और, तथागत की महाकरुणा का प्रभाव देखिए

अश्रुकण से डर सजाया त्याग हीरक हार,

भीख दुख की मांगने जो फिर गया प्रति द्वार

शूल जिसने फूल छू चन्दन किया सन्ताप,

सुनो जगाती है उसी सिद्धार्थ की पदचाप,

करुणा के दुलारे जाग!

महादेवी की कविताओं में रहस्यानुभूति के प्रत्येक चरण की अभिव्यक्ति मिलती है। वह प्रकृति व्यापार में विराट सत्ता का दर्शन करती हैं। उसके साथ रागात्मक संबंध स्थापित करती हैं, ‘जब असीम से हो जाएगा, मेरी लघु सीमा का मेल’

जो तुम आ जाते एक बार!

कितनी करुणा कितने संदेश

पथ में बिछ जाते बन पराग।

गाता प्राणों का तार-तार

अनुराग भरा उन्माद राग,

आंसू लेते वे पग पखार।

किन्तु उन्हें यथार्थ विरोधी रहस्यलोक में ही रहे आना कभी स्वीकार नहीं हुआ। वे अपनी संवेदनाओं को शोषित-उपेक्षित वर्ग से जोड़कर चलीं। उन्होंने अपने युग की मुक्ति आकांक्षा को अपनी रहस्यानुभूति में स्थान दिया। यह मुक्ति उनके लिए नारी मुक्ति भी थी।

तोड़ दो यह क्षितिज, मैं भी देख लूं उस ओर क्या है!

जा रहे जिस पंथ से युग-कल्प उसका छोर क्या है!

बुधवार, 23 मार्च 2011

महादेवी वर्मा की गद्य कृतियां

महादेवी वर्मा के जन्म दिवस 26 मार्च पर हम इस ब्लॉग पर महादेवी जी से संबंधित पोस्ट डालेंगे। आज इस शृंखला की पहली प्रस्तुति है …

महादेवी वर्मा की गद्य कृतियां

संस्कृत की एक उक्ति है, ‘गद्यं कवीनां निकषं वदन्ति।’ गद्य को कवियों की कसौटी माना जा सकता है। भामह ने ‘गद्यं च पद्यं च’ के रूप में काव्य को विभाजित किया था। दण्डी आदि आचार्यों ने भी गद्य को रचनात्मक महत्त्व दिया। हिन्दी साहित्य का आधुनिक युग धीरे-धीरे इतना गद्यमय हो गया कि कविता के लिए अस्तित्व का संकट आ गया। मुक्त-छंद और छंद-मुक्ति की जड़े बहुत गराई तक समाई गई। आज तो ऐसा ही लगता है कि साहित्य को कविता के ही लिए नहीं वरन्‌ अपने अस्तित्व के लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग के बाद हिन्दी साहित्य छायावाद युग तक आया। इस युग में काव्य-प्रधान आन्दोलन दिखाई दिया। इस युग में कविता के साथ-साथ गद्य की समग्र विधाओं में भी योगदान हुआ। प्रसाद, निराला और पन्त के साथ-साथ महादेवी वर्मा के गद्य को इनके काव्य से कम करके नहीं आंका जा सकता।

· श्रीमती महादेवी वर्मा का जन्म फ़र्रुख़ाबाद (उत्तर प्रदेश) में होली के दिन 26 मार्च सन्‌ 1907 में हुआ था।

· सन्‌ 1933 में प्रयाग विश्वविद्यालय से एम.ए. की उपाधि प्राप्त कर इन्होंने प्रयाग महिला विद्यापीठ की आचार्य का पदभार ग्रहण किया।

· विविध साहित्यिक,शैक्षिक और सामाजिक सेवाओं के लिए भारत सरकार ने उन्हें “पद्म भूषण” अलंकार से सम्मानित किया।

· महादेवी जी छायावाद की प्रतिनिधि रचनाकार हैं। इनकी कविताओं में वेदना का स्वर प्रधान है। इनकी कविताओं में भाव, संगीत तथा चित्र का अपूर्व संयोग है। उनकी गद्य रचनाओं में चिन्तन की सृजनशीलता स्पष्ट दिखाई देती है। ऐसा कहीं नहीं दिखता कि कविता कुछ दूसरी बात कहती हो और गद्य दूसरी दिशा में प्रवर्तित हुआ हो। गद्य में उनकी वैचारिक दृष्टि स्पष्ट रूप से सामने आती है। उनके गद्य में क्रान्ति और आक्रमण के बीज भी मिलते हैं जो निराला में स्पष्ट मुखर हुआ। नारी होने के कारण उन्हें सामान्यतया कोमलता और वेदना का प्रतीक माना जाता है। परन्तु इनके गद्य साहित्य को देखने से पता चलता है कि इसमें कोमलता और कठोरता का अद्भुत सन्तुलन है। सैद्धान्तिक विभेद का उत्तर उन्होंने अपने तर्कों द्वारा सटीक रूप से दिया। किन्तु अगर समग्र रूप में उनके गद्य साहित्य को देखें तो पाते हैं कि उन्होंने भारतीय संस्कारों में ही अपनी पहचान बनाई और शक्ति अर्जित की। महादेवी की दृष्टि आंसू और हंसी दोनों को एक साथ देखती थी जैसा उनके स्वभाव में था। संवेदन की गहराई और व्याप्ति पर उनकी निगाह एक साथ जाती है। उनका गद्य किसी प्रकार उनकी कविता से कम नहीं है। कुछ जगह तो वह कविता से भी ऊपर उठ जाता है। संस्कृति, देश, भाषा, साहित्य, समाज, नारी जीवन, राष्ट्रीयता सब कुछ को अपनी लेखनी में समेटा है उन्होंने। ऐसा कोई भी विषय नहीं जिस पर उनकी नज़र न गई हो।

· ‘स्मृति की रेखाएं’, ‘अतीत के चलचित्र’, ‘मेरा परिवार’ में उनका कविहृदय गद्य के माध्यम से व्यक्त हुआ है। इन ग्रंथों में उन्होंने कुछ उपेक्षित प्राणियों के चित्र अपनी करुणा से रंजित कर इस प्रकार प्रस्तुत किया है कि हम उनके साथ आत्मीयता का अनुभव करने लगते हैं। संस्मराणत्मक कहानियां’ कह कर एक नयी विधा का सूत्रपात उन्होंने किया। कवि और कहानीकार के सम्मिलन से जो साहित्य की सृष्टि हुई है उसका उद्देश्य है – जीवन की मार्मिकता का संवेदनात्मक उद्घाटन। जन साधारण और साहित्यकार का यथार्थ एक नहीं होता। महादेवी की यथार्थ-दृष्टि आदर्श को ऐसे स्थापित करती है जैसे पृथ्वी पर आकाश। ‘मेरा परिवार’ में निरूपित संस्मरणों में आत्मीयता और सूक्ष्म चित्रण विशेष रूप से प्रभावित करता है। ‘अतीत के चलचित्र’ में उन्होंने अपने अतीत से सम्बद्ध आत्मीय व्यक्तियों की मार्मिक छवि अंकित की है। ‘सत्यम्‌ शिवं सुन्दरम्‌’ को विलोम क्रम से उन्होंने प्रस्तुत किया है। ममता सुन्दरता का प्रतीक है, शिव सरलता का स्वरूप तथा सत्य मनुष्यता का द्योतक। चलचित्रों के स्मरणीय पात्र सामान्य जीवन से लेकर विशिष्ट जीवन का स्मरण दिलाते हैं। उनमें कथात्मकता से अधिक संवेदनशीलता है।

· अपने पात्रों के रेखाचित्र में तो वे इतनी चित्रोपमता ला देती हैं कि पात्र प्रत्यक्ष सा खड़ा हो जाता है। महादेवी के शब्द चित्र असाधारण रूप से स्मरणीय बन गये हैं। भाव-स्मृति से उभरती हुई रूप-स्मृति सजग-असजग दोनों प्रकार से प्रकट की गयी है। कुछ उदाहरण देखिए

o धूप से झुलसा हुआ मुख ऐसा जान पड़ता है, जैसे किसी ने कच्चे सेव को आग की आंच पर पका लिया हो।

o कुत्ते के पिल्ले के समान ही वह घुटनों के बल खड़ा रहा और हंसने रोने की विविध मुद्रा का अभ्यास करता।

· ‘पथ के साथी’ में उस युग के प्रमुख साहित्यकारों के अत्यंत मार्मिक व्यक्ति-चित्र संकलित हैं। विश्वकवि रवीन्द्र के प्रति प्रणाम निवेदन के साथ हिन्दी कवि मैथिली शरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, निराला, जयशंकर प्रसाद, पन्त, तथा सियारामशरण गुप्त के संस्मरणों का आत्मीय संग्रह है। महादेवी ने इन साहित्यकारों की स्वनिर्मित रेखा-छवियां भी संकलन में संलग्न किया है जिससे उनकी प्रकॄति के साथ आकृति भी सामने आ जाती है।

· ‘शृंखला की कड़ियां’ में आधुनिक नारी की समस्याओं को प्रभावपूर्ण भाषा में प्रस्तुत कर उन्हें सुलझाने के उपायों का निर्देश किया गया है। इसमें नारी-संवेदना के बौद्धिक एवं सामाजिक पक्ष का उद्घाटन हुआ है। रूढिवादी समाज और पुरुष-प्रधान परम्परावादी दृष्टिकोण का उन्होंने तीव्र प्रतिवाद किया है। स्त्रियों के अधिकारों की लड़ाई में वे योद्धा की भांति सक्रिय हुईं। इस संग्रह में भारतीय नारी की विषम परिस्थितियों को अनेक बिन्दुओं से देखने का प्रयास किया है। इस संग्रह के द्वारा उन्होंने इस देश की नारी को सामाजिक स्तर पर रूढियों से मुक्त करने की घोषणा की।

· महादेवी जी की गद्य शैली प्रभावपूर्ण, चित्र्रत्मक तथा काव्यमयी है। इनकी भाषा संस्कृत-प्रधान है।

o उनकी विशिष्ट शैली के दो स्पष्ट रूप हैं – विचारात्मक और भावात्मक।

§ विचारात्मक गद्य में तर्क और विश्लेषण की प्रधानता है।

भावात्मक गद्य में कल्पना और अलंकृत वर्णनों की प्रधानता है।

सोमवार, 21 मार्च 2011

"हिंदी में बिंदी और चन्द्र बिंदु की महिमा....."


 आज मैं  जिस विषय को ले कर आई हूँ , इसके बारे में सभी ने स्कूल में पढ़ा होगा ,लेकिन पढने के बाद भी बहुत सी बातें दिमाग से निकल जाती हैं..आज उनको ही तरोताजा करने का प्रयास कर रही हूँ . आशा है कि आप इसे पसंद करेंगे.
Hindi Swar Chart
हिंदी में स्वर को कई आधार पर विभाजित किया गया है .
आज हम चर्चा कर रहे हैं उच्चारण के आधार पर स्वर के भेद की.  उच्चारण के आधार पर स्वर को दो भागों में विभक्त किया जाता है .
१ अनुनासिका
२ निरनुनासिका



निरनुनासिका स्वर वे हैं जिनकी ध्वनि केवल मुख से निकलती है .
अनुनासिका स्वर में ध्वनि मुख के साथ साथ नासिका द्वार से भी निकलती है .अत:  अनुनासिका को प्रकट करने के लिए शिरो रेखा के ऊपर बिंदु या चन्द्र बिंदु का प्रयोग करते हैं . शब्द के ऊपर लगायी जाने वाली रेखा को शिरोरेखा कहते हैं .


बिंदु या चंद्रबिंदु को हिंदी में क्रमश: अनुस्वार और अनुनासिका कहा जाता है .

अनुस्वार और अनुनासिका में अंतर -----

१- अनुनासिका स्वर है जबकि अनुस्वार मूलत: व्यंजन .
२- अनुनासिका ( चंद्रबिंदु ) को परिवर्तित नहीं किया जा सकता जबकि अनुस्वार को वर्ण में बदला जा सकता है .
३- अनुनासिका का प्रयोग केवल उन शब्दों में ही किया जा सकता है जिनकी मात्राएँ शिरोरेखा से ऊपर न लगीं हों. जैसे अ , आ , उ ऊ ,
उदाहरण के रूप में --- हँस , चाँद , पूँछ
४ शिरोरेखा से ऊपर लगी मात्राओं वाले शब्दों में अनुनासिका के स्थान पर अनुस्वार अर्थात बिंदु का प्रयोग ही होता है. जैसे ---- गोंद , कोंपल , जबकि अनुस्वार हर तरह की मात्राओं वाले शब्दों पर लगाया जा सकता है.

आज का मुख्य चर्चा का विषय है कि जब अनुस्वार को व्यंजन मानते हैं तो इसे वर्ण में किन नियमों के अंतर्गत परिवर्तित किया जाता है....इसके लिए सबसे पहले हमें सभी व्यंजनों को वर्गानुसार जानना होगा.......

(क वर्ग ) क , ख ,ग ,घ ,ड.
(च वर्ग ) च , छ, ज ,झ , ञ
(ट वर्ग ) ट , ठ , ड ,ढ ण
(त वर्ग) त ,थ ,द , ध ,न
(प वर्ग ) प , फ ,ब , भ म
य , र .ल .व
श , ष , स ,ह


अब आप कोई भी अनुस्वार लगा शब्द देखें.....जैसे ..गंगा , कंबल , झंडा , मंजूषा, धंधा
यहाँ अनुस्वार को वर्ण में बदलने का नियम है कि जिस अक्षर के ऊपर अनुस्वार लगा है उससे अगला अक्षर देखें ....जैसे गंगा ...इसमें अनुस्वार से अगला अक्षर गा है...ये ग वर्ण क वर्ग में आता है इसलिए यहाँ अनुस्वार क वर्ग के पंचमाक्षर अर्थात ड़ में बदला  जायेगा.. ये उदहारण हिंदी टाइपिंग में नहीं आ रहा है...दूसरा शब्द लेते हैं. जैसे कंबल –
यहाँ अनुस्वार के बाद ब अक्षर है जो प वर्ग का है ..ब वर्ग का पंचमाक्षर म है इसलिए ये अनुस्वार म वर्ण में बदला जाता है
कंबल..... कम्बल
झंडा ..---- झण्डा
मंजूषा --- मञ्जूषा
धंधा --- धन्धा
ध्यान देने योग्य बात ----
१ अनुस्वार के बाद यदि य , र .ल .व
श ष , स ,ह वर्ण आते हैं यानि कि ये किसी वर्ग में सम्मिलित नहीं हैं तो अनुस्वार को बिंदु के रूप में ही प्रयोग किया जाता है .. तब उसे किसी वर्ण में नहीं बदला जाता...जैसे संयम ...यहाँ अनुस्वार के बाद य अक्षर है जो किसी वर्ग के अंतर्गत नहीं आता इसलिए यहाँ बिंदु ही लगेगा.
२- जब किसी वर्ग के पंचमाक्षर एक साथ हों तो वहाँ पंचमाक्षर का ही प्रयोग किया जाता है. वहाँ अनुस्वार नहीं लगता . जैसे सम्मान , चम्मच ,उन्नति , जन्म आदि.
४- कभी कभी जल्दबाजी में या लापरवाही के चलते हम अनुस्वार जहाँ आना चाहिए नहीं लगाते ,तब शब्द के अर्थ बदल जाते हैं – उदहारण देखिये –
चिंता -------- चिता
गोंद ----------- गोद
गंदा-------------- गदा ....आदि



आशा है कि आज अनुस्वार ( बिंदु ) और अनुनासिका ( चंद्रबिंदु ) के विषय पर आपका पुन: परिचय हो गया होगा.


आपकी प्रतिक्रियाएं ही इसकी सफलता को इंगित करेंगी. धन्यवाद |

गुरुवार, 17 मार्च 2011

नवगीत :: महकी फागुन की भोर

मित्रों! फागुन की हवा से मन रंग में डूबा है। हर तरफ़ रंग-गुलाल और प्रेम-उत्साह का माहौल है। होली का त्योहार दस्तक दे चुका है। हर दिशा रंगीन है। हर भोर एक भीनी खुश्बू से सराबोर है। रंगों का त्योहार तो खुशियां बांटने का त्योहार है। बैर भाव मिटाने का त्योहार है। एक दूसरे से गले मिल कर मुंह मीठा करने का त्योहार है। इस पर्व को याद करते मुझे स्मरण हो आता है श्याम नारायण मिश्र जी से सुना एक नवगीत .. तो आज उसे ही पेश करते हैं!

महकी फागुन की भोर

Sn Mishraश्यामनारायण मिश्र

Indian-motifs-11

पोर-पोर महकी

फागुन की भोर,

        पिया बांसुरी बजाओ।

Indian-motifs-24

आंखों में सपने

आंज रहे काजल

पांवों में थिरकन

बांध रही पायल।

पुरवा में फहरे

आंचल का छोर,

        पिया बांसुरी बजाओ।

Indian-motifs-26

कई-कई जन्मों की

अंतर में आग।

बीत कहीं जाये न

प्यासे की फाग।

ओत-प्रोत मन हो,

देह सराबोर।

        पिया बांसुरी बजाओ।

Indian-motifs-57

पावों को पंख मिले

कंठ को सुधा।

खुल जाये चेतन का

आवरण रुंधा।

फागुन हो सावन,

मन मेरा मोर।

        पिया बांसुरी बजाओ।

बुधवार, 16 मार्च 2011

नुक्कड़ नाटक और ‘औरत’

नुक्कड़ नाटक और ‘औरत’

मनोज कुमार

‘औरत’ एक नुक्कड़ नाटक (Street Play) है। इसकी रचना दिल्ली के जन नाट्य मंच (जनम) ने सफ़दर हाशमी के नेतृत्व में सामूहिक रूप रूप से की थी। 1973 में जनम की शुरुआत की गई थी। सफ़दर हाशमी ‘जनम’ के ही एक अन्य नाटक ‘हल्ला बोल’ का प्रदर्शन करते हुए कुछ गुंडों द्वारा मारे गए थे।

नुक्कड़ नाटक एक ऐसी विधा है जो नई है। आरंभ में साहित्य और नाटकों के विद्वानों ने इसे नाट्य विधा मानने से ही इंकार कर दिया था। लेकिन पिछले तीन-चार दशकों में यह नाट्य-रूप काफ़ी लोकप्रिय हुआ है। इसमें रंगमंचीय और लोक नाट्य दोनों की विशेषताओं का व्यवहार होता है। इसमें नाटक मंडली जनता के बीच जाकर बिना किसी बाहरी तामझाम के अपना नाटक पेश करती है। यह किसी भी सड़क, गली, चौराहे पर या फ़ैक्ट्री के गेट पर पेश किया जा सकता है। इसे आमतौर पर उसी रूप में पेश किया जाता है जैसे सड़क पर मदारी अपना खेल दिखाने के लिए मजमा लगाते हैं। वैसे तो यह नाट्य विधा पुरानी है, पाश्चात्य देश में तो यह काफ़ी पहले से प्रचलन में था, लेकिन भारत में इस विधा का उद्भव 1967-1977 के दौरान हुआ। यह वह समय था जब देश में राजनीतिक स्थिति संघर्षपूर्ण थी। जन-संघर्ष का दौर था। इसी संघर्ष की अभिव्यक्ति नुक्कड़ नाटकों के रूप में हुई। इस देश में आपात काल के समय सत्ता पक्ष द्वारा किए जा रहे अत्याचार के प्रति विरोध प्रदर्शित करने हेतु नुक्कड़ नाटक का प्रचलन भारत में बढा, ताकि जनता को सत्य का पता चले।

नुक्कड़ नाटक में वर्तमान समाज, राजनीति, संस्कृति आदि से संबंधित विषय होते हैं। ये विषय हमारे वर्तमान जीवन से संबंधित होते हैं। जन साधारण के ऊपर हो रहे अन्याय और उत्पीड़न को कला के रूप में बदल कर लाखों-करोड़ों अनपढ, अशिक्षित किसानों, मज़दूरों और महिलाओं में जागरूकता लाने के लिया इसका ब-खूबी इस्तेमाल किया गया।

नुक्कड़ नाटक में रंगमंच, पर्दे आदि की ज़रूरत नहीं होती। इसमें न तो अंक परिवर्तन होता है और न दृश्य परिवर्तन। इसमें कोई नायक नहीं होता। सबके सब साधारण पात्र होते हैं। इसके संवाद न साहित्यिक और न ही क्लिष्ट भाषा में होते हैं। बल्कि ये जनता की भाषा में होते हैं, ताकि इसे सब समझ सकें। यह ग्रामीणों की भाषा होती है, मज़दूरों की भाषा होती है। इसके पात्र समाज के साधारण सदस्य होते हैं, आम आदमी होते हैं। खुले स्थान पर बिना किसी साज-ओ-सज्जा के इसे पेश किया जाता है। दर्शक और अभिनेताओं के बीच कोई दूरी नहीं होती। नाट्य प्रस्तुति का यह रूप जनता से सीधे संवाद स्थापित करने में मदद करता है।

नुक्कड़ नाटक का मुख्य उद्देश्य है सम्प्रेषण। श्रोता या पाठक इसे आसानी से समझ सके। इसका आस्वादन कर सके। और इसके मर्म को अपने हृदय में ग्रहण कर सके। हम कह सकते हैं कि इसका उद्देश्य होता है आम जनता तक अपनी बातों को, अपने उद्देश्य को पहुंचाना। जनता को धूर्त, चालाक, शोषक राजनेताओं से सचेत करना। नुक्कड़ नाटक, कलाकार और दर्शक को एक-दूसरे के आसपास लाकर खड़ा कर देता है, जिससे वे अपने आपसे और अपने परिवेश से जीवंत साक्षात्कार कर सकें। नुक्कड़ नाटक का सामाजिक उद्देश्य भी होता है, अंध विश्वास, रीति रिवाज़, ग़लत प्रथा के प्रति जागरूक करना।

सड़क पर खड़े और बैठे दर्शकों के लिए धैर्य रखना मुश्किल न हो जाए इसलिए नुक्कड़ नाटकों की अवधि प्रायः 30-40 मिनट की होती है। इसमें थोड़े कलाकारों से विभिन्न पात्रों का का काम ले लिया जाता है। संवादों में कई तरह के प्रयोग की गुंजाइश होती है। गीत, संगीत और कविता के प्रयोग पर भी बल रहता है।

‘औरत’ नुक्कड़ नाटक जनम द्वारा 1979 में पहली बार उत्तर भारत की असंगठित कामगार महिलाओं के पहले सम्मेलन के मध्यांतर के दौरान खेला गया। यह हमारे मौज़ूदा हालात से उपजा नाटक है जो एक सामजिक पहलू को उजागर करता है। औरत देश की आधी जनसंख्या है, और समाज पुरुष प्रधान। औरतों को देवी, पूजनीय आदि उपाधि देकर यह पुरुष प्रधान समाज उनका शोषण करता रहा है। कोमलांगी, तन्वी, फैशनेबुल, घर की देवी, अप्रतिम आकर्षण वाली सलज्ज कामिनी आदि उपमा देकर घर की चार दीवारी में उन्हें क़ैद कर दिया है। यह नाटक औरत की गहरी अंतर्व्यथा को प्रस्तुत करने की कलात्मक कोशिश है। औरत के जीवन की वास्तविकताओं को इस नाटक में कई कोणों से देखने की कोशिश की गई है। मेहनत करती औरत, शोषण की चक्की में पिसती औरत और पुरुष मानसिकता का शिकार औरत की जो तस्वीर पूंजीवादी-उपभोक्तावादी समाज में पेश की जाती है उससे अलग हटकर नारी का चित्र इस नुक्कड़ नाटक में प्रस्तुत किया गया है।

जो अपने हाथों से फ़ैक्ट्री में

भीमकाय मशीनों के चक्के घुमाती है

वह मशीनें जो उसकी ताक़त को

ऐन उसकी आंखों के सामने

हर दिन नोंचा करती है

एक औरत जिसके ख़ूने जिगर से

खूंखार कंकालों की प्यास बुझती है,

एक औरत जिस का खून बहने से

सरमायेदार का मुनाफ़ा बढता है।

वर्गों में बंटे समाज में हर वर्ग की स्त्री शोषण और उत्पीड़न का शिकार होती हैं। लेकिन जो स्त्री ग़रीब है उसे स्त्री होने के साथ-साथ ग़रीब होने की पीड़ा भी झेलनी पड़ती है। इस नाटक में शोषण और उत्पीड़न के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद किया गया है।

मैं खुद भी एक मज़दूर हूं

मैं खुद भी एक किसान हूं

मेरा पूरा जिस्म दर्द की तस्वीर है

मेरी रग-रग में नफ़रत की आग भरी है

और तुम कितनी बेशर्मी से कहते हो

कि मेरी भूख एक भ्रम है

और मेरा नंगापन एक ख्वाब

एक औरत जिसके लिए तुम्हारी बेहूदा शब्दावली में

एक शब्द भी ऐसा नहीं

जो उसके महत्व को बयान कर सके।

मानव सभ्यता के आरंभिक काल से लेकर आज की तथाकथित विकसित सामाजिक व्यवस्था तक के विभिन्न चरणों में स्त्री जीवन के यअथार्थ को गतिशील रूप में यह नाटक प्रस्तुत करता है। ज्यों-ज्यों धन का मूल्य बढता गया, व्यक्ति आत्म-केन्द्रीत होता गया, समाज में औरतों का अवमूल्यन हुआ, और उन्हें भोग की वस्तु माना जाने लगा। घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं। उसके विचार, उसकी इच्छा को महत्व नहीं दिया जाता था। वे अपने अधिकार से वंचित रहीं।

यही स्थिति मध्य काल तक रही। ऐश्वर्य और विलासिता का जीवन जीने वाले मध्यकालीन शासक के शासन काल में उनके शोषण का आयाम बदल गया। पर्दा-प्रथा आया। इस काल में स्त्रियों के कारण कई युद्ध हुए। युद्धोपरांत उन्हें उपहार स्वरूप दिया जाने लगा।

ऐसी स्थिति में नारियों ने यह महसूस किया कि नारियों को स्वयं ही अपनी परतंत्रता की बेड़ियों को काटना होगा। ध्रुवस्वामिनी में यह बताया गया है। वह उपहार की वस्तु बनने के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ बुलंद करती है। महाभारत में द्रौपदी पूछती है – क्या अधिकार था पाण्डव को हमें दांव पर लगाने का? अन्धा युग में भी अधिकार के लिए प्रश्न पूछा गया है। पति गौतम द्वारा निरपराध अहिल्या को शाप दिया गया। एक पुरुष को नारी की शुद्धता चाहिए। सीता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी। अग्नि परीक्षा से सफलतापूर्वक गुज़रने के बाद भी उसे घर से निकाल दिया गया। वह भी उस परिस्थिति में जब वह मां बनने वाली थी। सीता अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकी, धरती में समा गई। अर्थात्‌ समाज से ओझल हो गई।

जब सतयुग में नारी की अवस्था यह थी तो आज पूंजीवादी व्यवस्था में तो स्थिति और भी भयावह हो गई है। धन आज सर्वोपरि है। पूंजीपति की रक्षा के लिए पूरी व्यवस्था है। ‘औरत’ में यही प्रश्न उठाया गया है कि इस युग में नारी कहां है? उसका क्या मूल्य है? उत्तर बड़ा भयावह है – उसकी स्थिति ‘माइनस ज़ीरो’ है। रीतिकालीन लोगों की तरह उसे देखा जा रहा है। आज वह निराश्रित है। उसके साथ दुहरा व्यवहार किया जा रहा है। पराया धन का तमगा उसके ऊपर बचपन से ही लगा दिया जाता है। आज भी दहेज की प्रथा शान की प्रतीक बनी हुई है। लड़कियों का अवमूल्यन हुआ है। कामकाज़ी महिलाओं को कार्य-स्थल पर दोयम दर्ज़े की स्थिति है। यौन शोषण के केस सामने आते रहते हैं। काम करने की उसकी शारीरिक क्षमता पर विश्वास नहीं है।

तुम्हारी शब्दावली उसी औरत की बात करती है

जिसके हाथ साफ़ हैं।

जिसका शरीर नर्म है

जिसकी त्वचा मुलायम है और जिसके बाल ख़ुशबूदार हैं।

हालाकि आज वे हर क्षेत्र में आगे हैं। फिर भी पुरुष प्रधान समाज उनकी प्रगति में अवरोध पैदा करता है। वस्तु स्थिति यह है कि उनकी मानसिक, शारीरिक, नैतिक और बौद्धिक क्षमता में कोई कमी नहीं है। फिर भी उनकी स्थिति शोचनीय बनी हुई है। नारी चाहे बच्ची हो, लड़की हो, पत्नी हो, मां हो, उसे क़दम-क़दम पर शोषण और उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है। उसे भाई की तुलना में अधिक काम करना पड़ता है। उसकी पढने-लिखने और आगे बढने की आकांक्षाओं का गला घोंट दिया जाता है। कारखानों में उसे कम वेतन और छंटनी का शिकार होना पड़ता है। ससुराल में दहेज के लिए प्रताड़ित किया जाता है। सड़कों पर अपमानित होना पड़ता है। यह माना जाता है कि उसका सौंदर्य और यौवन उपभोग के लिए है। एक इंसान के रूप में उसकी क़ीमत कुछ भी नहीं है। नारी जीवन की इन्हीं विडंबनाओं को इस नुक्कड़ नाटक की विषय वस्तु का आधार बनाया गया है।

बाप के भाई के और खाविन्द के

ताने तिश्नों को सुनना तमाम उमर।

बच्चे जनना सदा, भूखे रहना सदा, करना मेहनत हमेशा कमर तोड़ कर

और बहुत से जुलमों सितम औरत के हिस्से आते हैं

कमज़ोरी का उठा फ़ायदा गुण्डे उसे सताते हैं।

दरोगा और नेता-वेता दूर से यह सब तकते हैं

क्योंकि रात के परदे में वह खुद भी यह सब करते हैं।

औरत की हालत का यह तो जाना-माना किस्सा है

और झलकियां आगे देखो जो जीवन का हिस्सा है।

सम्पूर्ण स्त्री समाज की वास्तविक स्थिति को दर्शाने वाले इस नुक्कड़ नाटक का कथ्य विचार के रूप में यह है कि औरत के बारे में हमारे समाज का दृष्टिकोण बदलना चाहिए, उसे बराबरी का दर्ज़ा मिलना चाहिए और उसकी महत्ता को स्वीकार किया जाना चाहिए। नाटक यह संदेश देता है कि स्त्री पराधीनता से मुक्ति का सवाल जनतांत्रिक अधिकारों के आंदोलन और विकास के साथ ही संभव होगा। सिफ़ारिश, कृपा और भीख मांगने के बजाय संघर्ष की चेतना और संघर्ष का आह्वान ही समानता और उन्नति का बंद द्वार खोल सकेगा। जब तक संगठित होकर औरत अपने अधिकार के लिए संघर्ष नहीं करेगी तब तक वह प्रताड़ित होती रहेगी। समाज के सृजन में नारी की सबसे बड़ी भूमिका होती है। परन्तु उसके महत्त्व को नहीं समझा जाता है। औरत की स्वतंत्रता के नारे ज़रूर बुलंद किए जाते हैं। परन्तु औरत की स्वतंत्रता का यह मतलब नहीं है कि उसे उपभोग की वस्तु के रूप में देखा जाए।

इस नाटक का उद्देश्य समाज में स्त्री की वास्तविक दशा का करुण चित्रण प्रस्तुत कर जागृति पैदा करना है ताकि उनका शोषण और उत्पीड़न न हो और वे स्वयं इसके विरुद्ध संगठित होकर संघर्ष करने के लिए आगे आएं। औरत और पुरुष के भेद मिटाकर औरत को समान दर्ज़ा देने का संदेश नाटक का मर्म है। नाटक स्त्री की जिजीविषा, संघर्षशीलता और भविष्य के प्रति गहरी आशा का संदेश देते हुए समाप्त होता है।

भेड़िये से रहम की उम्मीद छोड़ दे

अपनी इन सदियों पुरानी बेड़ियों को तोड़ दे

आ चुका है वक्त अब इस पार या उस पार का

राज़ जाहिर हो चुका है असली जिम्मेदार का

नाटक की भाषा बोलचाल की है। इसे समझने में कोई दिक़्क़त नहीं होती। भाव के अनुकूल भाषा का मिज़ाज़ बदलता है। भाषा और भाव भंगिमा का गहरा रिश्ता ‘औरत’ नाटक में मौज़ूद है। इस नाटक में पुरुष वर्चस्व और पितृसत्तात्मक संगठन के पुरुषवादी सामंती मूल्यों को निःसंदिग्ध रूप से चुनौती दी गई है। साथ ही स्त्री मुक्ति के प्रश्न को एक व्यापक संदर्भ भी दिया गया है।

प्रश्न :: नुक्कड़ नाटक में ‘औरत’ की किस सामाजिक स्थिति पर प्रकाश डाला गया है। नारियों की सामाजिक स्थिति में किस प्रकार से परिवर्तन लाया जा सकता है।

शनिवार, 12 मार्च 2011

कहानी ऐसे बनी-22 :: दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

कहानी ऐसे बनी-22

 दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!

जय राम जी की !

सोचते-सोचते शनिवार हो गया और हम अभी तक सोच ही रहे हैं कि कहानी ऐसी बनी में आज आप लोगों के सामने क्या लेकर हाज़िर होएं .... क्योंकि आप तो पाठक लोग राजा हैं और कहावत है,"राजा-जोगी-पेखना (मेला) ! खाली हाथ न देखना !!" सो खाली हाथ डोलाते कैसे सामने आयें इसी उधेरबुन में पड़े थे कि एक और कहावत याद आ गयी। हमारी दादी हमेशा कहती थी, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' आईये आपको इसके पीछे की कहानी बताते हैं। हमें दादी ने कही थी, आपको हम ही कह देते हैं।

हमारे गाँव की बात है। एक घर में दो ही भाई बचे थे। खदेरन और रगेदन। दोनों निहायत गरीब। घर में पूंजी के नाम पर एक चूल्हा रह गया था वह भी सांझ-के सांझ उपवास रहता था। मांग-चांग कर कितना दिन चलता।

एक दिन खदेरन बोला, "ए भाई रगेदन ! रेवाखंड के राजा बड़ा दानी हैं। साक्षात्‌ दानवीर कर्ण। चल उन्ही से कुछ मांग लेते हैं। रोज-रोज कहाँ हाथ फैलाएं ? चल न... राजाजी कुछ दे देंगे तो जिन्दगी बीत जाएगी।

रगेदन सब कुछ सुन कर एक बार होंठ को गोल-गोल इधर-उधर घुमाया और फिर बोला, "भाई ! 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' मिलना अगर होगा तो घर मे भी मिल जाएगा नहीं तो राजा क्या करेगा ?"

वैसे यह कोई पहिली बार की बात नहीं थी। जब भी खदेरन राजा से कुछ मांगने की बात करता रगेदन वही कहावत कह देता था।

कुछ दिन बीते। दोनों की हालत और पतली होने लगी। एक-दिन खदेरन गरमा गया। बोला, 'आखिर तुमको राजा के पास चलने में क्या जाता है? गाँव-जंवार में सब उनके दरबार में शीश नवा कर कितना हंसी-खुशी आते हैं। राजा बटुआ भर-भर मोहर लुटाते हैं। आज तक कोई खाली हाथ नहीं लौटा.... ! हम अब कुछ भी नहीं सुनेंगे। चलना है तो चलना है।'

रगेदन बेचाने मन-मसोस कर कहा, “ठीक है। चलते हैं मगर हमरी बात याद रखना।”

दोनों राज-दरबार में पहुचे। राजा उनकी व्यथा-कथा सुन के बहुत द्रवित हुए। बोले, "आ..हा...हा... ! तुमलोग इतना दुखी-दुर्बल हो गए.... कितना कष्ट उठाया.... पहले क्यों नहीं आए हमरे पास ?"

राजा की बात खतम भी नहीं हुई थी कि खदेरन आँख में आंसू भर के फट से बोला, "माई-बाप ! हम तो कब से कह रहे थे कि चलो अपना राजा सक्षात्‌ दानवीर कर्ण है। वही जाने से हमारा कल्याण होगा। राजाजी को आँख फेरने के देरी है फिर कोई कष्ट नहीं रह जाएगा। मगर देखते नहीं हैं.... यह हमरा भाई जो है मुँहचुप्पा ! अभी कैसे होंठ सी के खड़ा है। और जब भी हम कहते थे आपके पास चलने के लिए तो कहता था, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!'

राजा ने बात की तहकीकात की। रगेदन से पूछा, "क्या जी तुम यह बात बोलते थे।"

रगेदन लाख गरीब था मगर अपनी बात से नहीं डिगने वाला था। एकदम राजा के मुंह पर खरा-खरा बोल दिया,"हाँ, सरकार !! कोई झूठ नहीं कहते हैं। 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' मिलना होगा तो मिलेगा। नहीं तो नहीं। आप राजा हैं तो क्या ... जो किस्मत में लिखा होगा वह थोड़े ही बाँट लीजियेगा।"

लेकिन राजा बड़ा दयालु था, सच में। रगेदन ने मुंह पर खरा-खरा कह दिया फिर भी उसने दोनों को कुछ-कुछ उपहार दिया। रगेदन को थोड़ा चावल-दाल दिया और खदेरन को एक कद्दू और फिर दूसरे दिन दरबार में आने को कहा। दोनों भाई चले आए वापस। रस्ते भर खदेरन मन-ही-मन सोच रहा था,'धत्त ! यह कद्दू लेकर क्या करेंगे ? रगेदना तो आराम से आज भात-दाल खायेगा।'

घर पहुँचते ही उसने तरकीब लगाई। रगेदन से बोला, "ए भाई रगेदन ! राजाजी ने तो दोनों आदमी को उपहार दिया है। दोनों वस्तु एक ही है। सो चलो न हम दोनों भाई आपस में तोहफा बदल लेते हैं।'

रगेदन तैयार हो गया। बोला, 'कोई बात नहीं है। लाओ कद्दू। लेलो चावल-दाल।'

खदेरन गया आँगन में आराम से बहुत दिन के बाद चावल-दाल बना के खाया और राजा का गुणगान करते हुए खटिया पर पसर गया। उधर रगेदन भी अपना कद्दू लेकर गया आँगन में। सोचा आज इसी को उबाल के खाया जाए। लेकिन यह क्या ....? जैसे ही उसनेद्दू काटा .... उसमें से भरभरा कर सोना-अशरफी, हीरा-जवाहिरात निकला। रगेदन बात समझ गया। उसने आधे कद्दू को गमछे में बाँध कर रख दिया।

अगले दिन फिर दोनों पहुंचे राजा के पास। राजा खदेरन को देख कर मुस्कुरा रहे थे। खदेरन के चेहरे पर भी रात के भात-दाल की रौनक अभी तक कायम थी। फिर राजा ने रगेदन से पूछा, "क्या रे रगेदन ! तुम्हारा विचार कुछ बदला कि अभी भी वही सोचते हो.....?"

रगेदन ने जवाब कुछ नहीं दिया। चुपचाप गमछे से आधा कद्दू निकाल कर राजा के सामने रख दिया। अब तो अचरज के मारे राजा की आँख भी फटी की फटी रह गयी। उसने पूछा,“यह कद्दू तुमको कैसे मिला ? रगेदन खदेरन का मुँह देखने लगा। फिर खदेरन बोला, "मालिक ! वो क्या है कि हमने सोचा खाली कद्दू ले कर क्या करेंगे ? चावल-दाल मिल गया तो आराम से भात-दाल पका कर खा लेंगे .... इसीलिये इससे बदल लिया। मगर हमें क्या मालूम ........!" हाय ! कह कर खदेरन ने अपना माथा ठोक लिया।

राजा बेचारा कद्दू को हाथ में उठा कर बोला, " सच कहता है रगेदन। 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' हमने तो तुमको यह सोना-अशरफी दिया था, लेकिन हमरे देने से क्या हुआ? कपाल (किस्मत) में था रगेदन के य्ह हीरा-मोती तो तुमको कहाँ से मिलता।" इतना कहकर राजा ने रगेदन को और भी इनाम दिया और खदेरन को खाने-पीने का समान।

कहानी तो ख़तम हुई। पर कहने का मतलब यही था कि 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' अर्थात किस्मत में जो लिखा होगा वही मिलेगा।

व्यक्ति चाहे जितना भी शक्तिशाली-प्रभावशाली क्यों नहीं हो.... कपाल के लेख को नहीं बदल सकता। देवेच्छा सबसे प्रबल होती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अपना प्रयास (कर्म) छोड़ देना चाहिए। अरे किस्मत का लिखा तो कर्म करने से मिलेगा न.....! खदेरन और रगेदन राजा के पास नहीं जाते तो जो भी मिला वह मिलता क्या .... ? नहीं ना... ! लेकिन एक बात है, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' किस्मत को तो राजा भी नहीं बदल सकता है।

पुराने लिंक

1. कहानी ऐसे बनी-१ :: नयन गए कैलाश ! 2. कहानी ऐसे बनी- 2 : 'न राधा को नौ मन घी होगा... !' 3. कहानी ऐसे बनी – 3 "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!" 4. कहानी ऐसे बनीं-४ :: जग जीत लियो रे मोरी कानी ! … 5. कहानी ऐसे बनी–५ :: छोड़ झार मुझे डूबन दे ! 6. कहानी ऐसे बनी– 6 -"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?" 7. कहानी ऐसे बनी– 7 :: मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!  8. कहानी ऐसे बनी– 8 :: न कढी बना न बड़ी! 9.कहानी ऐसे बनी-९ :: गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े ! 10. कहानी ऐसे बनी-१०::चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे। 11 कहानी ऐसे बनी-११ :: मियाँ बीवी के झगड़ा ! 12  कहानी ऐसे बनी-१२ :: बिना बुलाये कोहबर गए 13 कहानी ऐसे बनी-१३ :: लंक जरे तब कूप खुनाबा 14 मान घटे जहँ नित्यहि जाय 15भला नाम ठिठपाल  16 छौरा मालिक बूढा दीवान 17तेल जले तेली का आँख फटे मशालची का 18 सास को खांसी बहू को दमा 19 वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले.... 20बिना ब्याहे घर नहीं लौटे..... ! 21 कहानी ऐसे बनी 21 : घर भर देवर.....

गुरुवार, 10 मार्च 2011

अज्ञेय जी की जन्मशती पर -- कुछ उनके द्वारा लिखी क्षणिकाएं


सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन "अज्ञेय"



जन्म: 07 मार्च 1911
निधन: 1987
 

धूप

सूप-सूप भर
धूप-कनक
यह सूने नभ में गयी बिखर:
चौंधाया
बीन रहा है
उसे अकेला एक कुरर।

काँपती है

पहाड़ नहीं काँपता,
न पेड़, न तराई;
काँपती है ढाल पर के घर से
नीचे झील पर झरी
दिये की लौ की
नन्ही परछाईं।
 

छन्द


मैं सभी ओर से खुला हूँ
वन-सा, वन-सा अपने में बन्द हूँ
शब्द में मेरी समाई नहीं होगी
मैं सन्नाटे का छन्द हूँ।

आगन्तुक

आँख ने देखा पर वाणी ने बखाना नहीं।
भावना ने छुआ पर मन ने पहचाना नहीं।
राह मैनें बहुत दिन देखी, तुम उस पर से आए भी, गए भी,
--कदाचित, कई बार--
पर हुआ घर आना नहीं।

बुधवार, 9 मार्च 2011

तुम्हारे रंग भींज रहे

तुम्हारे रंग भींज रहे

Sn Mishraश्यामनारायण मिश्र

झरे अबीरन बादली

बरस रहे रंग मेह,

           तुम्हारे रंग भींज रहे।

भींज   रहे मन - देह

          तुम्हारे रंग भींज रहे।

 

नैनन बरसे बादली

अंतर   बरसे   मेह

अमृत बरसे बादली

मेहन   बरसे   नेह

भींज रहे घर-गेह

           तुम्हारे रंग भींज रहे।

 

अनुदिन बरसे बादली

युग-युग बरसे मेह

यौवन सींचे बादली

चेतन   सींचे   मेह

बरसे सुधा –सनेह

           तुम्हारे रंग भींज रहे।


सोमवार, 7 मार्च 2011

‘अज्ञेय’ जी के जन्म दिन पर (जन्मशती)

सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ (1911-1987)

:: जीवन परिचय ::

जन्म : ‘अज्ञेय’ जी का जन्म 7 मार्च 1911 को उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले के कसया (कुशीनगर) नामक ऐतिहासिक स्थान में हुआ था। अज्ञेय जी के पिता श्री हीरानन्द पुरातत्व विभाग में उच्च पदाधिकारी थे। पिताजी उस समय खुदाई शिविर में रहते थे। वहीं ‘अज्ञेय’ जी का जन्म हुआ। इनका बचपन अधिकतर पिता के साथ श्रीनगर, लाहौर, पटना, नालंदा, लखनऊ, मद्रास, उटकमंड आदि बहुत से स्थानों में बीता। फलस्वरूप इनकी शिक्षा व्यवस्थित रूप से किसी एक स्थान पर नहीं हुई।

शिक्षा : इनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा विद्वान पिता की देख-रेख में घर पर ही संस्कृत, फारसी, अँग्रेज़ी और बँगला भाषा व साहित्य के अध्ययन के साथ हुई। अज्ञेय जी ने 1925 में पंजाब से एंट्रेंस, मद्रास क्रिश्चियन कॉलेज से विज्ञान में इंटर तथा 1929 में लाहौर के फॉरमन कॉलेज से बी एस सी की परीक्षा पास की। अंगरेज़ी विषय में एम.ए. पढाई करते समय दिल्ली षडयंत्र केस तथा अन्य अभियोग के सिलसिले में वे भूमिगत हुए पर बाद में पकड़े गए और दो वर्ष तक नज़रबंद रहे। इस तरह क्रांतिकारी गतिविधियों में हिस्सा लेने के कारण पढ़ाई पूरी न हो सकी। इन्होंने किसान आंदोलन में भी सक्रिय रूप से भाग लिया। 1930 से 1936 तक के दौरान इनका अधिकांश समय विभिन्न जेलों में कटे।

कार्यक्षेत्र : अज्ञेय जी को 1936-1937 में `सैनिक' पत्रिका और पुनः कलकत्ता से निकलने वाले `विशाल भारत' के संपादन का दायित्व मिला। इसी पत्र के माध्यम से ये सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के नाम से साहित्य-जगत में प्रतिष्ठित हुए। `वाक्' और `एवरीमैंस' नामक पत्रिकाओं का भी आपने बड़ी कुशलता से संपादन किया। 1939 में उन्होंने ‘ऑल इंडिया’ रेडियो में नौकरी कर ली। लेकिन यह काम उन्हें बहुत उबाऊ लगा और इससे छुटकारा पाकर ये 1943 से 1946 तक अपने जीवन के तीन वर्ष ब्रिटिश सेना में बिताए। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय इन्हें कुछ दिनों तक असम और बर्मा के मोर्चों पर भी रहना पड़ा। इसके बाद 1947 में इलाहाबाद से `प्रतीक' नामक पत्रिका का सम्पादन शुरु किया। 1955-1956 में ये यूनेस्को के आमंत्रण पर पश्चिमी यूरोप की यात्रा पर गए। 1957-58 तक पूर्वेशिया की यात्राएँ कीं। इसके बाद अनेक बार भ्रमण और अध्यापन के सिलसिले में अज्ञेय जी विदेश गए। 1961 में इन्हें केलिफोर्निया विश्वविद्यालय में भारतीय संकृति और साहित्य के अध्यापक के रूप में नियुक्ति मिली। यहां से इन्होंने पूरे अमेरिका का भ्रमण किया। 1966 में इन्होंने रूमामिया, यूगोस्लाविया, मंगोलिया, रूस आदि देशों की यात्राएं कीं। 1965 में इन्हें हिन्दी के प्रसिद्ध पत्र ‘दिनमान’ का संपादक नियुक्त किया गया। कुछ समय तक इन्होंने जोधपुर विश्वविद्यालय में हिंदी के निदेशक पद पर भी कार्य किया। इस प्रकार साहित्य के साथ ‘अज्ञेय’ जी ने हिंदी की साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में भी अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया।

पुरस्कार : (१) 1964 में `आँगन के पार द्वार' पर उन्हें साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ। (२) 1978 में 'कितनी नावों में कितनी बार' शीर्षक काव्य ग्रंथ पर भारतीय ज्ञानपीठ का सर्वोच्च पुरस्कार मिला।

मृत्यु : 4 अप्रैल 1987 को अज्ञेय जी का निधन हुआ।

:: प्रमुख रचनाएं ::

:: काव्य रचनाएँ :: भग्नदूत, चिंता, इत्यलम्‌, हरी घास पर क्षण भर, बावरा अहेरी, इंद्र धनु रौंदे हुए ये, अरी ओ करूणा प्रभामय, आंगन के पार द्वार, कितनी नावों में कितनी बार, क्योंकि मैं उसे जानता हूँ, सागर-मुद्रा, सुनहरे शैवाल, महावृक्ष के नीचे, पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं, और ऐसा कोई घर आपने देखा है इत्यादि उनकी प्रमुख काव्य रचनाएँ हैं।

:: उपन्यास :: शेखर: एक जीवनी (दो भागों में), नदी के द्वीप, अपने अपने अजनबी।

:: कहानी-संग्रह :: विपथगा, परंपरा, कोठरी की बात, शरणार्थी, जयदोल, ये तेरे प्रतिरूप आदि।

:: यात्रा वृत्तांत :: अरे यायावर रहेगा याद, एक बूंद सहसा उछली।

:: निबंध संग्रह :: त्रिशंकु, आत्मनेपद, हिंदी साहित्य: एक आधुनिक परिदृश्य, सबरंग और कुछ राग, लिखि कागद कोरे, जोग लिखी, अद्यतन, आल-बाल, आदि।

:: संस्मरण :: स्मृति लेखा

:: डायरियां : भवंती, अंतरा और शाश्वती।

:: विचार गद्य :: संवत्‍सर

:: गीति-नाट्य :: उत्तर प्रियदर्शी

:: अनुवाद :: त्याग पत्र (जैनेन्द्र) और श्रीकांत (शरदचन्द्र) उपन्यासों का अंग्रेज़ी में अनुवाद।

उनका लगभग समग्र काव्य सदानीरा (दो खंड) नाम से संकलित हुआ है तथा अन्यान्य विषयों पर लिखे गए सारे निबंध केंद्र और परिधि नामक ग्रंथ में संकलित हुए हैं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के संपादन के साथ-साथ अज्ञेय ने तारसप्तक, दूसरा सप्तक, और तीसरा सप्तक जैसे युगांतरकारी काव्य संकलनों का भी संपादन किया तथा पुष्करिणी और रूपांबरा जैसे काव्य-संकलनों का भी। वे वत्सलनिधि से प्रकाशित आधा दर्जन निबंध-संग्रहों के भी संपादक हैं। निस्संदेह वे आधुनिक साहित्य के एक शलाका-पुरूष थे जिसने हिंदी साहित्य में भारतेंदु के बाद एक दूसरे आधुनिक युग का प्रवर्तन किया।

:: साहित्यिक योगदान ::

अज्ञेय एक सफल कवि, उपन्यासकार, कहानीकार और आलोचक रहे हैं। इन सभी क्षेत्रों में वे शीर्षस्थ भी थे। छायावाद और रहस्यवाद के युग के बाद हिन्दी-कविता को नई दिशा देने में अज्ञेय जी का सबसे बड़ा हाथ है। हिन्दी के अनेक नए कवियों के लिए अज्ञेय जी प्रेरणा-स्रोत और मार्ग-दर्शक रहे हैं। आपकी रचनाओं का मूल स्वर दार्शनिक और चिन्तन-प्रधान है।

अज्ञेय जी की काव्य चेतना का मूल स्वर आत्मनिष्ठ और व्यक्तिवादी है। सैनिक सेवा और किसान आंदोलन से जुड़े रहकर भी वे सामान्य जनजीवन के साथ अपने को जोड़ नहीं पाए। सामाजिक जीवन से गहन रागात्मकता उनके काव्य में कहीं दिखाई नहीं देती। उनके प्रथम काव्य-संग्रह भग्नदूत’ में प्रणय की अतृप्त आकांक्षा भविष्य की ‘अंधेरे की चिंताएं’ बनकर प्रकट हुई है। 1942 में प्रकाशित ‘चिंता’ प्रसाद की ‘कामायनी’ के चिंता सर्ग की गहरी छाप लिए हुए है। इसमें उन्होंने पुरुष और नारी के परस्पर संबंध को पति-पत्नी के सामाजिक संबंध तक सीमित न रखकर चिरंतन पुरुष और चिरंतन नारी के गतिशील संबंध के रूप में स्वीकार किया है। ‘इत्यलम्‌’ की भी यही स्थिति है।

अज्ञेय मैं से दूरी बनाकर चलते हैं, लेकिन व्यक्तित्व की स्वतंत्रता का बोध पाठक को कराते हैं। एक स्तर पर उनकी कविता ही व्यक्तित्व की खोज की कविता का रूप ले लेती है। उनके आधुनिक बोध के मूल में व्यक्तित्व की खोज है। व्यक्तित्व की खोज बहुत कुछ अभिव्यक्ति की खोज है।

‘हरी घास पर क्षण भर’ (1949), बावरा अहेरी’ (1954)और इंद्र धनु रौंदे हुए’ (1957) रचनाओं में अज्ञेय जी की व्यक्ति-चेतना निरंतर एक दर्शन के रूप में संघनित होते हुए दिखाई देती है। ‘अरी करूणा प्रभामय’ के द्वारा आंगन के पार द्वार (1961) तक आते-आते ‘अज्ञेय’ जी का व्यक्ति चिंतन भारत के विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों की तत्व-विचार संबंधी अवधारणओं के सार को अपने मनोनुकूल ढालकर एक नया दर्शन खड़ा करता है। इस संग्रह की ‘असाध्य वीणा’ शीर्षक कविता कवि ने बौद्ध कालीन परिवेश की सृष्टि कर जगतव्यापी मौन की एकात्मकता का प्रतिपादन किया है। इस कविता का वीणा वादक ‘केश कंबली’ भारतीय दर्शन का प्रसिद्ध अजित केशकंबली है, जो भौतिकवादी और सामाजिक विषमता को रेखांकित करने के लिए विख्यात है। लेकिन उसे ‘अज्ञेय’ जी ने अपनी व्यक्तिवादी चेतना की पुष्टि के लिए सामाजिक समता का अग्रदूत बना दिया है। उसकी वीणा की झंकृति से राजा-रानी, किसान-मज़दूर, जनता, तिजोरियां भरकर रखने वाले सेठ-साहूकार और रंक-भिखारी सभी समान रूप से आह्लादित होते हैं।

जिस उच्च मध्यवर्गीय वैयक्तिक चेतना को अज्ञेय ने अपने काव्य की विषयवस्तु बनाया है, उसका सीधा असर उनकी कविताओं के संरचना-शिल्प पर भी पड़ा है। भाषा की दृष्टि से प्रायः उन्होंने बोल-चाल की भाषा का ही प्रयोग अधिक किया है। लेकिन इन साधारण शब्दों में एक विशेष प्रकार की सांकेतिकता, लाक्षणिकता, प्रतीकात्मकता, बिम्बधर्मिता आदि का समावेश किया है, वह इनकी काव्य-प्रतिभा का सशक्त प्रमाण है। ‘कलंगी बाजरे की’ शीर्षक कविता में नये उपमानों की आवश्यकता रेखांकित किया है। अज्ञेय आधुनिक युग के कवि थे। वे आधुनिक भाव-बोध के कवि के रूप में जाने जाते हैं। उनकी दृष्टि में कविता का बहुत सारी चीज़ों के साथ संबंध बदल गया है। कविता में सिद्धांत के तौर पर अज्ञेय व्यक्तित्व से दूरी बनाने की बात करते हैं। आधुनिक भाव-बोध पहले से चले आ रहे काव्य-विधान से संभव नहीं था-

ये उपमान मैले हो गए हैं

देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच!

कभी बासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है”

अपने समूचे काव्य में इन्होंने नवनिर्मित उपमानों के प्रयोग का जो कौशल दिखलाया है, वह पाठक को पूरी तरह चमत्कृत कर देता है।

‘पति-सेवा रत

सांझ

उचकता देख पराया चांद

ललाकर ओट हो गयी’

‘उड़ गयी चिड़िया

कांपी फिर

थिर

हो गयी पत्ती’

‘चांद चितेरा

आंक रहा है शरद नभ में

एक चीड़ का खाका’

अज्ञेय आधुनिक भावबोध के ऐसे कवि हैं जिन्होंने काव्यभाषा और काव्यशिल्प की दृष्टि से खड़ी बोली की हिन्दी कविता को नयी समृद्धि दी है। उन्होंने छायावादी संस्कारों के प्रभाव से मुक्त होने में वह नई काव्यभाषा अर्जित की जिससे प्रयोगवाद और आगे नयी कविता की पहचान बनी।

अज्ञेय प्रयोगवाद नामक काव्य-आंदोलन के प्रवर्तक थे। साथ ही नयी कविता के अग्रणी कवि के रूप में उनका महत्व निर्विवाद है। उनकी रचनाओं में चमत्कारपूर्ण प्रयोग मिलता है। सामाजिक सरोकार तो है ही, साथ ही वैक्तिकता और सामाजिकता का द्वंद्व भी स्पष्ट है-

यह दीप अकेला स्नेह-भरा

है गर्व-भरा मदमाता पर

इसको भी पंक्ति दे दो।

वे एक सांचे ढले समाज की जगह अच्छी कुंठा रहित इकाई के पक्ष में हैं।

संवेदना के कवि के रूप में उनकी एकदम अलग पहचान है। उनकी कविता में प्रकृति, प्रेम, आत्मदान, मृत्यु जैसे अनुभव आधुनिक बोध और संवेदना का हिस्सा बन कर आते हैं-

पार्श्व गिरि का नम्र, चीड़ों में

डगर चढती उमंगों-सी।

बिछी पैरों में नदी ज्यों दर्द की रेखा।

विहग-शिशु मौन नीड़ों में

मैंने आंख भर देखा।

अधिकतर कवि सत्य को पहले से प्राप्त मानते हैं। वे सत्य को कहने के लिए शब्द को साधन के रूप में देखते हैं। परन्तु अज्ञेय तो कविता को सबसे पहले शब्द मानते हैं। वे सत्य को अन्वेषण का विषय मानते हैं और शब्द को भी। फिर मानते हैं कि दोनों शब्द और सत्य में निरंतर द्वंद्व की स्थिति बनी रहती है। परस्पर टकराकर नया काव्यत्व प्राप्त करते हैं। तनाव और द्वन्द्व की स्थिति में ही अज्ञेय को नया काव्योन्मेष उपलब्ध हो पाता है।

ये दोनों जो

सदा एक-दूसरे से तनकर रहते हैं

कब, कैसे, किस आलोक-स्फुरण में

इन्हें मिला दूं

दोनों जो हैं बंधु, सखा, चिर सहचर मेरे।”

अज्ञेय निर्वैयक्तिक संवेदना को महत्व देते हैं। अज्ञेय की प्रकृति, प्रेम, आत्मदान, मृत्यु संबंधी कविताओं में सब कुछ नयी प्रश्नशील निगाह से देखा जा रहा है। प्रकृति केवल अलंकरण तक सीमित नहीं है।

बेल-सी वह मेरे भीतर उगी है, बढती है।

उसकी कलियां हैं मेरी आंखें,

कोपलें मेरी अंगुलियों में अंकुराती हैं,

फूल-अरे, यह दिल में क्या खिलता है।

प्रेम ढर्रे से अलग है। वे कहते हैं प्रेम के क्षण दुहराए नहीं जाते। प्रेम बिना आशा, आकांक्षा के ही संभव है। यह आधुनिक बोध है प्रेम का।

प्यार! कहो, है इतना धीरज,

चलो साथ

यों: बिना आशा-आकांक्षा

गहे हाथ?

मृत्यु भय नहीं देती। उनके यहां मृत्यु का वरण है। डर नहीं है। प्रेम और मृत्यु अभिन्न हो जाते हैं यहां।

सागर को प्रेम करना

मरण की प्रच्छन्न कामना है

मरण अनिवार्य है

प्रेम

स्वच्छंद वरण है

एक ओर अहं का विलयन अज्ञेय का ज़रूरी सरोकार है तो दूसरी ओर व्यक्तित्व का तेजस अंश बचाए रखने की चिंता उन्हें सबसे अलग प्रमाणित करती है। जब वे लिखते हैं सखि गये नीम को बौर तो वे परंपरा से हटते हैं। आम के पेड़ से बौर का संबंध न जोड़कर, नीम से जोड़ने के पीछे अभिव्यक्ति की नई आज़ादी का बोध है। अज्ञेय की स्वाधीन चिंता के निहितार्थ अनेक हैं।

मेरे छोटे घर कुटीर का दिया

तुम्हारे मंदिर के विस्तृत आंगन में

सहमा-सा रख दिया।

अज्ञेय की कई कविताएं काव्य-प्रक्रिया की ही कविताएं हैं। उनमें अधिकतर कविताएं अवधारणात्मक हैं जो व्यक्तित्व और सामाजिकता के द्वंद्व को, रोमांटिक आधुनिक के द्वंद्व को प्रत्यक्ष करती है।

दु: सबको मांजता है

और

चाहे स्वयं सबको मुक्ति देना वह जाने, किन्तु

जिनको मांजता है

उन्हें सीख देता है कि सबको मुक्त रखें।

जिजीविषा अज्ञेय का अधिक प्रिय काव्य-मूल्य है। वह संघर्ष की सार्थकता का पर्याय है। यह उन्हें एक नए मानववाद के कवि के रूप में देखने के लिए प्रेरित करती है। यह सजग काव्य-बोध है।

तू अंतहीन काल के लिए फलक पर टांक दे

क्योंकि यह मांग मेरी, मेरी, मेरी है कि प्राणों के

एक जिस बुलबुले की ओर मैं हुआ हूं उदग्र, वह

अंतहीन काल तक मुझे खींचता रहे --------

इस प्रकार के प्रतीकों, बिंबों और लाक्षणिक प्रयोगों से अज्ञेय ने अपनी शैली को अत्यंत आकर्षक बनाया है। शिल्प के संबंध में अज्ञेय जी की सबसे बड़ी विशेषता है, मौन का प्रयोग। हालाकि यह विशेषता उन्होंने पाश्चात्य काव्यधारा के प्रभाव से ग्रहण की है, फिर भी अपनी कविता में अवकाश-अंतराल छोड़कर मौन का अत्यंत मौलिक और कुशल प्रयोग भी किया है। ‘पहले मैं सन्नाटा बुनता हूं’ शीर्षक काव्य संग्रह में इस सन्नाटे या मौन का अत्यंत सफल प्रयोग अज्ञेय जी ने किया है। अझेय का काव्य आधुनिक अकेलेपन में जीना सिखाता है। उनके काव्य में शब्द का महत्व है और मौन का भी। मौन से ही सम्पूर्ण विश्व और प्रकृति के विराट संगीत से जुड़ाव की स्थिति बनती है।

श्रेय नहीं कुछ मेरा :

मैं तो डूब गया था स्वयं शून्य में –

वीणा के माध्यम से अपने को मैंने

सब कुछ को सौंप दिया था –

सुना आपने जो वह मेरा नहीं,

न वीणा का था :

वह तो सब कुछ क्र तथता थी

महाशून्य

वह महामौन

अविभाज्य, अनाप्त, अद्रवित, अप्रमेय

जो शब्दहीन

“सब में गाता है।”

अज्ञेय जी का काव्य का संरचना शिल्प अत्यंत आकर्षक और प्रभावशाली है, जो इन्हें एक सजग रूपवादी कलाकार सिद्ध करता है। उन्होंने हिन्दी को नया रूप दिया लेकिन उनकी काव्य परंपरा विकसित नहीं हो पाई। अज्ञेय को दरकिनार करके हिन्दी साहित्य को नहीं पढा जा सकता। अज्ञेय को समझने के लिए एक तटस्थ दृष्टि से समझने की आवश्यकता है। उनकी कविता का चिंतन पक्ष समझने की ज़रूरत है, वरना छंद और मौन के प्रति उनका विचार अधूरा रहेगा। उनकी काल संबंधी अवधारणाएं भारतीय हैं या यूरोपीय, यह भी देखना होगा। अधुनिकतावाद के बाद छायावाद आता है और अज्ञेय का काव्य उसको ब्रेक लगाने का काम करता है। लगातार यात्राओं के कारण अज्ञेय ने ट्रेन में चलते हुए कविताएं लिखीं। ‘अज्ञेय’ जी किसी एक स्थान पर स्थिर न रह पाने के बावज़ूद निरंतर साहित्य-रचना मे निरत रहे। हिंदी में सर्वाधिक रचना का श्रेय इन्हें प्राप्त है।

रविवार, 6 मार्च 2011

गुगल ट्रांस्लिट्रेशन आई.एम.ई. स्‍टैण्‍ड एलोन वर्जन


 
गुगल ट्रांस्लिट्रेशन आई.एम.. स्‍टैण्‍ड एलोन वर्जन


गुगल ट्रांस्लिट्रेशन आई.एम.ई. एक प्रकार का इनपूट मेथड़ है जो कि रोमन की-बोर्ड के माध्‍यम से यूनिकोड समर्थित भाषा में टंकण करने की स्‍वतंत्रता प्रदान करता है। इसके द्वारा उपयोगकर्ता लैटिन लिपि की ध्‍वनि अर्थात उच्‍चारण अनुरूप किसी शब्‍द या वाक्‍यांश विशेष को वांछित भाषा में टंकित कर सकता है। उदाहरण के लिए अंग्रेजी के "hamesha" शब्‍द को यह आई.एम.ई. हिन्‍दी में "हमेशा" के रूप में प्रदर्शित करेगा।

गुगल ट्रांस्लिट्रेशन आई.एम.ई. अम्‍हेरिक, अरबी, बंगाली, फारसी, ग्रीक, गुजराती, हीब्रू, हिन्‍दी, कन्‍नड़, मलयालम, मराठी, नेपाली, ओरिया, पंजाबी, रूसी, संस्‍कृत, सर्बियन, सिंहली, तमिल, तेलगु, तिघरियन तथा उर्दू जैसे कुल 22 भिन्‍न भाषाओं में नि:शुल्‍क उपलब्‍ध है। 

मूलत: यह ऑन-लाइन टाइपिंग टूल है  तथा दिनो-दिन लोकप्रिय होता जा रहा है किन्‍तु  इसके इन्‍स्‍टालेशन हेतु इंटरनेट कनेक्‍शन की अनिवार्यता एक बहुत बड़ी समस्‍या बनी हुई है क्‍योंकि यह टूल  केवल उसी कम्प्‍यूटर में इंस्‍टाल किया जा सकता है जो इंटरनेट से जुड़ा हुआ हो। इस प्रक्रिया में वस्‍तुत:  इन्‍स्‍टालर एक्जिक्‍यूट होनेवाला एक रैपर स्‍टब डाउनलोड करता है। जब आप इस फाइल को रन करते हैं  तो यह आपको अद्यतन इन्‍स्‍टालर डाउनलोड कर सिस्‍टम पर आई.एम.ई. संस्‍थापित करने देता है और सफल संस्‍थापना उपरान्‍त स्‍वयं को डिलिट कर देता है। ऐसा करके गुगल कंपनी यह सुनिश्चित करना चाहती है कि  प्रयोगकर्ता को सदैव गुगल ट्रांस्लिट्रेशन टूल का नवीनतम संस्‍करण उपलब्‍ध होता रहे परन्‍तु गुगल कंपनी की यही दृष्टिकोण ऐसे सभी कंप्‍यूटर जो इन्‍टरनेट से नहीं जुड़े हैं, में देशी भाषा के संस्‍थापना में बाधक हो रही है। उदाहरण के लिए भारत जैसे विकासशील देश में जहॉं अब भी बहुत सारे कंप्‍यूटर इंटरनेट से नहीं जुड़े हैं। गुगल द्वारा उक्‍त टाइपिंग टूल का स्‍टैंडएलोन ऑफ-लाइन संस्‍करण उपलब्‍ध नहीं करवाए जाने के कारण भारत में लोग इस टाइपिंग टूल को अपने स्‍वतंत्र पर्सनल कम्‍प्‍यूटर सिस्‍टम में इंस्‍टाल कर पाने में असमर्थ हैं।

समाधान

इस समस्‍या का समाधान गुगल ट्रॉंस्लिट्रेशन टाइपिंग टूल के ऑन-लाइन वर्जन के वास्‍तविक आई.एम.ई. इंस्‍टालर की क्रमश: लोकेशन ज्ञात कर स्‍टैंडएलोन ऑफ-लाइन संस्‍करण में परिवर्तित कर निकाला जा सकता है। चूँकि वास्‍तविक ट्रॉंस्लिट्रेशन आई.एम.ई. आपके सिस्‍टम में स्‍टब डाउनलोडर के माध्‍यम से डाउनलोड होता है अत: आप उसका लोकेशन सहजता से ज्ञात कर सकते हैं तथा उसका प्रयोग कर स्‍वतंत्र कम्‍प्‍यूटर में पूर्वोक्‍त टाइपिंग टूल इंस्‍टाल कर सकेंगे। इंस्‍टालेशन विधि निम्‍नानुसार है :-

  1. सर्वप्रथम एडमिनिस्‍ट्रेटिव प्रिविलेजयुक्‍त विंडोज कम्‍प्‍यूटर को इंटरनेट से कनेक्‍ट कर हिन्‍दी टंकण हेतु गुगल ट्रांस्लिट्रेशन आई.एम.ई. युनिकोड एप्लिकेशन को डाउनलोड करने के लिएwww.google.com/ime/transliteration बेबसाइट ओपन करें।
  2. आवश्‍यकता अनुसार क्रमश: ड्रॉपडाउन मेन्‍यू से आई.एम.ई. भाषा तथा कम्‍प्‍यूटर की आवश्‍यकता अनुरूप रेडियो बटन का प्रयोग कर 32 बिट अथवा 64 बिट का चयन कर ”Download Google IME”प्रेस बटन को दबा दें। सामान्‍यत: आम प्रयोग के पर्सनल कम्‍प्‍यूटर 32 बिट वाले ही होते हैं।   

          
  1. ऐसा करते ही स्‍क्रीन पर googlehindiinputsetup.exe. नामक एक फाइल उभर आएगा जिसे सेव फाइल प्रेस बटन दबा कर अपने सिस्‍टम में सेव कर लें। मेरे द्वारा दिनांक 16 जूलाई, 2010 को डाउनलोडेड इस फाइल की साइज 554 KB (567,624 bytes) थी। 
 
.
  1. अब अपने कम्‍प्‍यूटर पर डाउनलोड हुए googleinputsetup.exe फाइल की लोकेशन ज्ञात कर माउस डबल क्लिक से इन्‍स्‍टालर को सक्रिय करें। इस दौरान यह सुनिश्चित करें कि आपका कम्‍प्‍यूटर इंटरनेट से जुड़ा रहे ।

  1. विंडोज मशीन के आपके सीक्‍यूरिटी सेटिंग के अधार पर आपको “do you want to run this file?” नामक सीक्‍यूरिटी वार्निंग प्राप्‍त हो सकता है । ऐसी स्थिति में माउस से रन प्रेस बटन को क्लिक कर दें।  

  1. अब इंस्‍टालर इंटरनेट से कनेक्‍ट हो जाएगा तथा वास्‍तविक इंस्‍टालर फाइल डाउनलोड करना आरंभ कर देगा।

   7.      डाउनलोड समाप्‍त होते ही गुगल स्‍टब इंस्‍टालर वास्‍तिवक इंस्‍टालर आरम्‍भ कर देगा तथा प्रथम स्क्रिन के रूप में एंड यूजर लाइसेंस एग्ररमेंट प्रदर्शित हो जाएगा।

   8.  कृपया नेक्‍सट’’ प्रेस बटन को क्लिक नहीं करें क्‍योंकि हम आई.एम.ई. को इस रूप में इंस्‍टाल नहीं करना चाहते हैं। अब हमे विंडोज मशीन पर वास्‍विक इंस्‍टालर का लोकेशन ज्ञात करना होगा।

गुगल ट्रॉस्लिट्रेशन आई.एम.ऑफलाइन इन्स्टालर लोकेट करने की पहली पद्धति

1.         अपने कम्‍प्‍यूटर में गुगल निर्मित सॉफ्टवेयर डायरेक्‍टरी को खोजें। यदि आप पहले से ही गुगल कम्‍पनी द्वारा निर्मित कोई उत्‍पाद अर्थात सॉफ्टवेयर प्रयोग में ला रहे हैं तो उसके इन्‍स्‍टालेशन डायरेक्‍टरी को खोजें। मेरे कम्‍प्‍यूटर में गुगल कम्‍पनी के उत्‍पाद अर्थात सॉफ्टवेयर c:\Program Files\google डायरेक्‍टरी में इन्‍स्‍टाल्‍ड है। मैं इसी डायरेक्‍टरी का प्रयोग अगली कार्रवाई हेतु करूँगा। 

2.         c:\ ड्राइव के अर्न्‍तगत बने क्रमश:Program Files\google फोल्‍डर से होते हुए Update\ Download. फोल्‍डर को लोकेट कर लें।

3.         अब आप c:\Program Files\google\ Update\ Download फोल्‍डर के अन्‍तर्गत अत्‍यन्‍त लम्‍बा नामवाला डायरेक्‍टरी बना पाएंगे जो कि ‘’{‘’ चिह्न से आरम्‍भ होकर ‘’ }‘’  चिह्न से समाप्‍त होगा तथा इस डायरेक्‍टरी के नाम में चार ‘’-‘’ चिह्न बने होंगे है। उदाहरण के लिए मेरे कम्‍प्‍यूटर में इस डायरेक्‍टरी का नाम {0FF3CE40-F329-483C-A3F5-03BFCC07A90C}है।

4.         अंतिम चरण में पूर्वोक्‍त डायरेक्‍टरी में आप .exe एक्‍सेटशन युक्‍त googlehindiinputsetup.exe फाइल बना पाएंगे। आप पाएंगे कि इस .exe एक्‍सेटशन युक्‍त फाइल का नाम तथा आप द्वारा पूर्व में डाउनलोड किए गए स्‍टब इन्‍स्‍टालर का नाम एक ही है किन्‍तु इसका साइज पहले डाउनलोड किए गए फाइल की अपेक्षा बड़ा होगा। मेरे कम्‍प्‍यूटर में इस फाइल की संख्‍या 3.18 MB (3,337,200 बाइट्स) है।

अंतिम चरण में पूर्वोक्‍त फाइल को किसी भी एक्‍सटरनल मीडिया जैसे की पेन ड्राइव या सी.डी. में कॉपी कर स्‍वतंत्र पी.सी. में डबल क्लिक कर रन कर दें। इस फाइल के रन होते ही संबंधित कम्‍प्‍यूटर में गुगल आई.एम.ई. इंस्‍टाल हो जाएगा।



विंडोज रजिस्टरी का प्रयोग कर गुगल ट्रॉस्लिट्रेशन आई.एम.ऑफ-लाइन इन्स्टालर लोकेटकरने की द्धितीय पद्धति

1.         यदि किसी कारणवश उस डायरेक्‍टरी विशेष को लोकेट नहीं कर पाते हैं जिसमें गुगल सॉफ्टवेयर इंस्‍टाल्‍ड है तो आप विंडोज रजिस्‍टरी एडिटर का प्रयोग कर ऑफ-लाइन स्‍टैण्‍ड एलोन आई.एम.ई. इन्‍स्‍टालर को लोकेट कर सकते हैं।

2.         कमाण्‍ड प्राम्‍पट में  “regedit” टाइप कर माउस से ओ.के. प्रेस बटन दबा दें। ऐसा करते ही रजिस्‍टरी एडिटर ओपन हो जाएगा।


3.         अब क्रमश: एडिट तथा फाइंड को माउस से सक्रिय कर MUIcache. खोजें।


 4.         अब रजिस्‍टरी में MUIcache key हाईलाइट होकर प्रदर्शित हो जाएगा।  तदुपरान्‍त MUIcache पर राइट क्लिक कर माउस से एक्‍स्‍पोर्ट कमांड क्रियान्वित करें।


5.         रजिस्‍ट्ररी के MUIcache ब्रान्‍च को टेक्‍स्‍ट फाइल में MUIcache.txt नामक एक्‍स्‍टेंशन फाइल से सेव करें।

6.   अब MUIcache.txt  को नोटपेड जैसे किसी भी टेक्‍स्‍ट एडिटर सॉफ्टवेयर में ओपन कर \Update\Download\. वाक्‍यांश को सर्च करें।  उक्‍त वाक्‍यांश सर्च करने के उपरान्‍त उसके पूर्ण पॉथ का अनुसरण करते हुए standalone Hindi IME installer को कॉपी कर लें । पूर्वोक्‍त फाइल को किसी भी एक्‍सटरनल मीडिया जैसे की पेन ड्राइव या सी.डी. में कॉपी कर स्‍वतंत्र पी.सी. में डबल क्लिक कर रन कर दें। इस फाइल के रन होते ही संबंधित कम्‍प्‍यूटर में गुगल आई.एम.ई. इंस्‍टाल हो जाएगा।



न्‍स्‍टॉलेशन :- इस आई.एम.ई. को इन्‍स्‍टॉल करने हेतु सर्वप्रथम अपने सिस्‍टम को इंटरनेट से कनेक्‍ट कर गुगल ट्रांस्लिट्रेशन आई.एम.ई. इंस्‍टालेशन वेबपेज ओपन कर लें। तदुपरान्‍त कम्‍प्‍यूटर के ऑपरेटिंग सिस्‍टम के अनुरूप ड्रॉप डाउन मेन्‍यू अपेक्षित विकल्‍प का चयन करें। ऐसा करते ही डेस्‍कटॉप पर ‘’गुगल हिन्‍दी इनपूट सेटअप विजार्ड’’ नामक विन्‍डो ओपन हो जाएगा। अब उपयोगकर्ता उक्‍त विजार्ड में विद्यमान एन्‍ड यूजर लाइसेंस एग्रीमेन्‍ट सूचक चेक बॉक्‍स में माउस से क्लिक कर क्रमश: नेक्‍स्‍ट तथा फिनिश प्रेस बटन दबा दे। अब सिस्‍टम में गुगल ट्रांस्लिट्रेशन आई.एम.ई. स्‍वत: ही इन्‍स्‍टॉल हो जाएगा। उल्‍लेखनीय है कि एक ही सिस्‍टम पर एक से अधिक भाषाओं के लिए आई.एम.ई. इन्‍स्‍टॉल किया जा सकता है। 

कॉंफिगरेशन :- गुगल ट्रांस्लिट्रेशन आई.एम.ई. को नोटपैड जैसे किसी भी एप्लिकेशन के साथ प्रयोग में लाए जाने हेतु सर्वप्रथम नोटपैड को ओपन कर डेस्‍कटॉप पर विद्यमान लैग्‍वेज बार में से गुगल आई.एम.ई. लैग्‍वेज ऑयकन को क्लिक करें । ऐसा करते ही आप नोटपैड में टंकण करने में सक्षम हो जाएंगे।

लैग्वेज बार एनेबल अर्थात सक्रिय किया जाना:- विंडोज एक्‍स.पी. में यदि कम्‍प्‍यूटर में लैग्‍वेज बार एनेबल अर्थात सक्रिय नहीं किया गया है तो उक्‍त को निम्‍नानुसार सक्रिय किया जा सकता है:-

1.      अपने कम्‍प्‍यूटर के क्रमश: स्‍टार्ट एवं प्रोग्राम मेन्‍यू से होते हुए कन्‍ट्रोल पैनल में जाऍं। वहॉं 'रिजनल एण्‍ड लैंग्‍वेज ऑप्‍शन' को सक्रिय करते हुए 'लैंग्‍वेज' टैब को क्लिक करें। 

2.      तदुपरान्‍त 'इन्‍स्‍टॉल फाइल्‍स फार काम्‍पेलेक्‍स स्क्रिप्‍ट चेक बॉक्‍स' के सम्‍मुख प्रदर्शित चेक बॉक्‍स को क्लिक कर 'ओ.के.' प्रेस बटन को दबाएं। यदि आपके कम्‍प्‍यूटर में विंडोज एक्‍स.पी. पूर्ण रूप से इन्‍स्‍टॉल किया गया होगा तो सिस्‍टम स्‍वत: ही कॉम्‍प्‍लेक्‍स स्क्रिप्‍ट हेतु वांछित फाइल्‍स इन्‍स्‍टॉल कर देगा अन्‍यथा विन्‍डोज एक्‍स.पी. सी.डी. को सीडी.रॉम में डाले जाने संबंधी निदेश स्‍क्रीन पर प्रदर्शित करेगा। सीडी.रॉम में वांछित सी.डी. डाले जाने पर कम्‍प्‍यूटर स्‍वत: ही आवश्‍यक फाइल्‍स ग्रहण कर लेगा। ऐसा होते ही इन्डिक लैंग्‍वेज सपोर्ट आपके कम्‍प्‍यूटर परइन्‍स्‍टॉल हो जाएगा। इन्‍स्‍टॉलेशन के अन्तिम चरण में कम्‍प्‍यूटर को 'रिस्‍टार्ट' करें।

3.      गुगल ट्रांस्लिट्रेशन आई.एम.ई. की-बोर्ड जोड़ना:  पूर्वोक्‍त विधि द्वारा क्रमश: स्‍टार्ट, सेटिंग्‍स तथा कन्‍टोल पैनल मैन्‍यू से होते हुए रिजनल एण्‍ड लैंग्‍वेज ऑप्‍शन डायलॉग बॉक्‍स के 'लैंग्‍वेज' टैब को सक्रिय कर 'डिटेल' प्रेस बटन को क्लिक करें। ऐसा करते ही 'टेक्‍स्‍ट सर्विस एण्‍ड इनपूट लैंग्‍वेज सर्विस डायलॉग बॉक्‍स' प्रदर्शित हो जाएगा जिसमें आपके सिस्‍टम में विद्यमान विविध की-बोर्ड तथा उन्‍हें जोड़ने और हटाने हेतु 'ऐड' व 'रिमूव' प्रेस बटन दिखाई देंगे।  'ऐड' बटन को माउस द्वारा प्रेस कर 'इनपूट लैंग्‍वेज' सूची में 'हिन्‍दी' तथा प्रदर्शित 'की-बोर्ड ले-आउट' में 'गुगल आई.एम.ई. की-बोर्ड ले-आउट' को चुन कर 'अप्‍लाय' व 'ओ.के.' बटन को क्लिक करें। ऐसा होते ही गुगल आई.एम.ई. की-बोर्ड आपके कम्‍प्‍यूटर से जुड़ जाएगा।

4.      भाषा परिवर्तन हेतु कुँजी सैट करना: उपरोक्‍त डायलॉग बॉक्‍स में विद्यमान की-सेटिंग्‍स प्रेस बटन को क्लिक कर आवश्‍यकता एवं रूचि अनुसार अंग्रेजी से हिन्‍दी तथा हिन्‍दी से अंग्रेजी में भाषा परिवर्तन हेतु कुँजियों को नए सिरे से सैट किया जा सकता है। सामान्‍यत: भाषा परिवर्तन के लिए ALT+SHIFT को डिफाल्‍ट सेटिंग्‍स के रूप में रखा गया है। भाषा परिवर्तन संबंधी कुँजी सेट करने के उपरान्‍त ओ.के. प्रेस बटन को क्लिक कर दें।

5.      पूर्वोक्‍त क्रिया की समाप्ति के साथ ही कम्‍प्‍यूटर मॉनिटर की दाँयी ओर नीचे एक टास्‍कबार पर ‘स्‍टेटस विंडो’ बना पाएंगे जिसमें भाषा परिवर्तन, चयनित भाषा विशेष के अक्षर संबंधी ले-आउट, मैक्रो सहायता आदि विकल्‍प उपयोगकर्ता के त्‍वरित संदर्भ हेतु मिलेंगे।

टंकण विधि :- इस आई.एम.ई. द्वारा उपयोगकर्ता लैटिन लिपि की ध्‍वनि अर्थात उच्‍चारण अनुरूप किसी शब्‍द या वाक्‍यांश विशेष को नोटपैड, वर्ड पैड, एम.एस. वर्ड, एम.एस. पावर पाइंट, एम.एस. एक्‍सेल आदि टेक्‍स्‍ट एडिटिंग सॉफ्टवेयर में टंकित कर सकता है। जैसे ही उपयोगकर्ता की बोर्ड पर विद्यमान लैटिन अक्षर टाइप करेगा उस स्‍थान विशेष के बगल में ‘एडिट विन्‍डो’ प्रदर्शित हो जाएगा जिसमें टंकित अक्षर के समतुल्‍य हिन्‍दी में विविध संभावित शब्‍द प्रदर्शित हो जाएंगे। इनमें से वांछित शब्‍द को प्रयोगकर्ता क्रमश: ऐरो तथा तदुपरान्‍त एण्‍टर कुँजी का प्रयोग अपने टेक्‍स्‍ट एडिटिंग सॉफ्टवेयर में समाहित कर सकेगा। 

की-बोर्ड शार्टकट :- अपेक्षित अक्षर न मिलने की स्थिति में उपयोगकर्ता के सुविधा हेतु चयनित भाषा विशेष के वर्णमाला संबंधी ले-आउट को स्‍टेटस विंडो में उपलब्‍ध फ्लेक्सिबल की-बोर्ड माउस से सक्रिय कर प्राप्‍त किया जा सकता है अथवा इस कार्य हेतु नियत की-बोर्ड शार्टकट CTRL+K प्रेस क पाया जा सकता है।  

मैक्रो :- किसी निर्धारित शब्‍द या वाक्‍यांश को बारम्‍बार टंकण करने से बचने हेतु गुगल आई.एम.ई. में उपयोगकर्ता अपनी आवश्‍यकता एवं रूचि के अनुरूप ‘मैक्रो’ तैयार  कर सकता है । इसके लिए स्‍टेटस विंडो में उपलब्‍ध माउस द्वारा मैनेज मैक्रो विकल्‍प को माउस से सक्रिय किया जा सकता है। ऐसा करते ही मैनेज मैक्रो विंडो ओपन हो जाएगा । अब उपयोगकर्ता ऐड बटन को क्लिक कर दे जिससे मैक्रो टैक्‍स्‍ट व मैक्रो टारगेट कॉलम  में एक खाली रो बन जाएगी। अब मैक्रो टैक्‍स्‍ट कॉलम के नीचे बने सेल को डबल क्लिक कर उसमें लैटिन अक्षर या शब्‍द टाइप करें। इसी प्रकार मैक्रो टारगेट कॉलम के नीचे बने सेल को डबल क्लिक कर उसमें उस लैटिन अक्षर या शब्‍द का समतुल्‍य हिन्‍दी अक्षर या शब्‍द टाइप कर ‘’सेव’’ प्रेस बटन को माउस से क्लिक कर दें।
मैक्रो संपादन :- पूर्वोक्‍त प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए पहले से बनाए गए मैक्रो का संपादन किये जाने की भी व्‍यवस्‍था है । इसके लिए सेल को डबल क्लिक कर उसमें विद्यमान शब्‍द को संपादित कर ‘’सेव’’ प्रेस बटन को माउस से क्लिक कर दें। बनाए गए मैक्रो को स्‍थाई रूप से हटाने के लिए सेल विशेष को सिलेक्‍ट कर की-बोर्ड में विद्यमान ‘’डिलिट’’ बटन को प्रेस करें।

अन् सुविधाएं :- इस आई.एम.ई. में पेज सेटअप तथा एडिट विन्‍डो प्रदर्शित होनेवाले शब्‍दों के फॉन्‍ट तथा साइज, को भी अपनी रूचि के अनुरूप उपयोगकर्ता बदल सकता है। इसके अतिरिक्‍त स्किम विकल्‍प के अन्‍तर्गत .scm एक्‍सटेशन का प्रयोग कर नई भाषाओं को भी टंकित करने सुविधा प्राप्‍त होती है।  

नोट :- हिन्‍दी टंकण हेतु गुगल ट्रांस्लिट्रेशन आई.एम.ई. युनिकोड एप्लिकेशन कोwww.google.com/ime/transliteration बेबसाइट से नि:शुल्‍क इन्‍टरनेटयुक्‍त पी.सी. पर लोड कर उपयोग में लाया जा सकता है।