बाबा नागार्जुन के जन्म दिन पर........
-- मनोज कुमार
बिहार के दरभंगा जिले के तरौनी गांव में 30 जून 1911 को बाबा नागार्जुन का जन्म हुआ था। एक मैथिल ब्राहृण परिवार में जन्मे बाबा का नाम वैद्यनाथ मिश्र था। तीन वर्ष की छोटी उम्र में ही मातृ -विहीन हो चुके इस महापुरूष का बचपन बहुत ही कष्ट में बीता। बुद्धि से कुशाग्र इस बालक के स्वप्रयास से अध्ययन चलता रहा। उन्हें न सिर्फ संस्कृत भाषा का अच्छा ज्ञान था बल्कि ‘पाली’ और ‘प्राकृत’ पर उनकी अच्छी पकड़ थी। इसके माध्यम से उन्होंने बौद्ध- साहित्य और दर्शन का गंभीर अध्ययन किया। वे राहुल सांकृत्यायन से बेहद प्रभावित थे।
“यात्री” उपनाम से उन्होंने मैथिली में लिखना शुरू किया। बाद में उन्होंने हिंदी में भी लिखना आंरभ कर दिया। बौद्ध धर्म में दीक्षित होने के कारण इन्होंने ‘बैद्यनाथ’ और ‘यात्री’ उपनाम छोड़कर अपना उपनाम नागार्जुन रखा।
नागार्जुन सीधे साधे व्यक्तित्व के स्वामी थे और खरी-खरी बात करते थे। तेवर उनका तल्ख था। इस व्यक्ति को हम एक संस्था कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उन्होंने जिन्दगी की सच्चाईयों को अपनी कविताओं में बड़े तल्ख तेवर के साथ प्रस्तुत किया है। सामाजिक चेतना और जनता के शोषण-उत्पीड़न के कारण इनका झुकाव मार्क्सवादी चिंतन की ओर हुआ। तद्ययुगीन कृषक नेता स्वामी सहजानंद के साथ इन्होंने बिहार के अनेक किसान आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के पहले एवं इसके बाद भी इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा। बाबा नागार्जुन ने कविताओं में ही नहीं बल्कि व्यावहारिक जीवन में भी अपने विद्रोह एवं क्रांतिकारिता का परिचय दिया है । इन्होंने किसी के सामने सिर नहीं झुकाया, तथा जीवन पर्यन्त मसिजीवी ही बने रहना पसंद किया।
इन्होनें अपनी काव्य चेतना के माध्यम से संपूर्ण भारत को समग्रता के साथ समाहित किया है। मिथिला जनपद से जुड़े होने के कारण इस अंचल विशेष के ग्रामीण परिवेश एवं तदयुगीन जमींदारों की सामंती प्रवृति पर भी कवि ने अपनी कलम चलाई है। अपने गद्य, खासकर उपन्यासों में उन्होंने ग्रामीण अंचल का वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया। उनके उपन्यास ‘बलचनमा’ और ‘रतिनाथ की चाची’ इसके गवाह है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जन कवि के रूप में इनका सर्वाधिक महत्व इनकी राजनीतिक कविताओं के माध्यम से उजागर हुआ है।
उन्होंने शासन द्वारा अपनाई गई हर जन विरोधी नीतियों का विरोध किया। उनकी कविताएं व्यवस्था पर चोट करती थी। उन्होंने ने न तो प्रथम प्रधानमंत्री स्व. जवाहरलाल नेहरू को छोड़ा न ही पूर्व प्रधानमंत्री स्व. इंदिरा जी को। जब नेहरू जी के निमंत्रण पर ब्रिटिश की महारानी भारत आई तो बाबा ने लिखा था-
“आओ रानी हम ढोएंगे पालकी,
यही हुई है राय जवाहर लाल की ”।
1975 में जब देश में आपात स्थिति लागू की गई तो उन्होंने उस समय की प्रधानमंत्री इंदिरा जी को भी अपनी कविता द्वारा संदेश पहुंचाया।
जय प्रकाश नारायण को जब उस दौरान लाठियों का प्रहार सहना पड़ा तो बाबा की कलम बोली-
“जय प्रकाश पर लाठियाँ लोकतंत्र की”!
उन्होंने जहां एक तरफ़ जनता की आवाज शासक वर्ग तक पहुंचाई वहीं दूसरी ओर अपने काव्य सृजन में प्रकृति का वर्णन भी किया है–
“अमल धवल गिरि के शिखरों पर बादल को घिरते देखा है”।
भारतीय शोषित एवं उत्पीडि़त जनता का इतना बड़ा पक्षधर कवि हिंदी में दूसरा नहीं हुआ। साहित्य की सेवा में सतत समर्पित रहने वाले जन कवि बाबा नागार्जुन हम सबको छोड़कर 1988 में पंचतत्व में विलीन हो गए।
इनकी निम्नलिखित रचनाएं हिंदी साहित्य की अनुपम धरोहर के रूप में अपना बर्चस्व अक्षुण्ण बनाए रखने में आज भी जीवंत दस्तावेज की प्रतिमुर्ति है –
संग्रह- ‘युगधारा’, ‘सतरंगी पंखो वाली’ ‘प्यासी पथराई आंखे’, ‘तलाब की मछलियां’, ‘चंदना’, ‘खिचड़ी विपल्व देखा हमने ’, ‘तुमने कहा था’ ‘पुरानी जूतियों का कोरस’, ‘हजार हजार बांहो वाली’, ‘चित्रा’, ‘पत्रहीन नग्न गांछ(मैथिली काव्य संग्रह)’ तथा धर्म लोक शतकम (संस्कृत वाक्य)
उपन्यासः ‘रतिनाथ की चाची’, ‘बलचनमा’, ‘बाबा बटेसरनाथ’, ‘दुखलोचन’, ‘करूण के बेटे’, ‘पारो तथा नई पौध’ आदि ।
उनके जन्मदिन पर हम उन्हें विनम्र श्रद्धा सुमन अर्पित करते है।