कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये
यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये
न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये
ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये
जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये
दुष्यंत कुमार
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शुक्रवार, 30 सितंबर 2011
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये… … दुष्यंत कुमार
गुरुवार, 29 सितंबर 2011
दुष्ट के साथ शादी क्यों की ?
दुष्ट के साथ शादी क्यों की?
अनामिका
सुधीजनों को अनामिका का प्रणाम. पिछले अंक में मैंने “तुम इतने बड़े होकर भी खो जाते हो रामा !.” शीर्षक से महादेवी जी के बचपन के प्रसंग प्रस्तुत किये थे...उन्ही को आगे बढ़ाते हुए कुछ और रोचक बातें......
एक बार पड़ोस से किसी कुत्ती ने बच्चे दिए . जाड़े की रात का सन्नाटा और ठंडी हवा के झोंको के साथ पिल्लों की कूँ - कूँ की ध्वनि करुणा का ऐसा संचार करने लगी जो इनके कोमल ह्रदय के लिए असह्य हो उठी. पिल्लों को घर उठा लाने के लिए ये इतना जोर -जोर से रोने लगीं कि सारा घर जग गया. अंत में पिल्ले घर लाये गए तभी ये शांत हुई . इनके इस स्वभाव में बाद में भी कोई परिवर्तन नहीं हुआ.
इस करुण-कोमल स्वभाव के कारण जीवन और जगत की किस करुण स्थिति में इनके ह्रदय का स्पंदन झंकृत नहीं हुआ ; सामने आई हुई किस रुक्षता को वे अपनी सहज स्निग्धता से सरस नहीं कर देना चाहतीं ; ऐसी कौन सी पाषाणी कठोरता है जो इनकी मूलाधार करुणा के स्पर्श से कांप नहीं उठती ; सत्य और समूह की रक्षा के लिए विद्रोह की किस ज्वाला को इन्होने अपनी त्यागमयी तपस्या की आंच नहीं दी - यह बता सकना कठिन है -
सजनी मैं उतनी करुण हूँ, करुण जितनी रात
सजनी मैं उतनी सजल जितनी सजल बरसात !
केवल सात वर्ष की अवस्था में ही पूजा आरती के समय माँ से सुने हुए मीरा, तुलसी आदि के तथा उनके स्वरचित पदों के संगीत से मुग्ध होकर इन्होंने पद - रचना प्रारम्भ कर दी थी. काव्य की प्रथम रचना का प्रारंभ इस प्रकार हुआ - 'आओ प्यारे तारे आओ, मेरे आँगन में छिप जाओ !' परन्तु इसके बाद की लिखी पूर्ण रचना बृजभाषा में समस्यापूर्ति है .
प्रयाग पढने आने के पहले से ही आप 'सरस्वती' पत्रिका से परिचित हो चुकी थीं. महाकवि गुप्तजी की रचनाएँ भी देख चुकी थीं. बोलने की भाषा में कविता लिखने की सुविधा इन्हें आकर्षित करने लगी थी. वस्तुतः इन्होने 'मेघ बिना जल वृष्टि भई है' को खड़ी बोली में इस प्रकार रूपांतरित किया -
हाथी न अपनी सूंड में यदि नीर भर लाता अहो,
तो किस तरह बादल बिना जलवृष्टि हो सकती कहो ?
'अहो', 'कहो' देखकर ब्रजभाषा प्रेमी इनके पंडित जी ने कहा - 'अरे ये यहाँ भी पहुँच गए !'
उनका आशय गुप्त जी से था ! परन्तु इन्होने इसे अनसुना कर दिया और ब्रजभाषा छोड़ खड़ी बोली को अपना लिया. खड़ी बोली की पूर्ण रचना अपने आठ वर्ष की अवस्था में लिखी थी, जो 'दीपक' पर है.
इसी समय एक ऐसी घटना घटी जिसने महादेवीजी को इतना प्रभावित किया कि वे उस वेदना से कभी मुक्त नहीं हो सकीं. नौकर ने पत्नी को इतना पीटा कि वह लहू-लुहान होकर रोती-चिल्लाती जिज्जी (माँ) के पास दौड़ आई अन्यथा वह उसे मार ही डालता. गर्भिणी स्त्री के लिए काम-काज का भारी बोझ और ऊपर से ऐसी मार ! जिज्जी ने सहानुभूति के साथ उसकी गाथा सुनी और नौकर को बहुत डांटा - फटकारा .
सब शांत हो जाने पर महादेवी जी ने कहा - 'हाय, कितना पीटा है ! यह भी क्यों नहीं पीटती ? '
जिज्जी ने सहज ही कह दिया - 'आदमी मारे भी तो औरत कैसे हाथ उठा सकती है ? '
'और अगर तुमको बाबू इसी तरह मारें तो ?
- ना, ना बाबू ऐसा नहीं कर सकते. आर्यसमाजी होकर भी मेरे साथ सत्यनारायण की कथा सुनते हैं, बड़े अच्छे आदमी हैं. कोई कोई आदमी दुष्ट होते हैं.'
तो फिर इसने दुष्ट के साथ शादी क्यों की ?
- पगली, शादी तो घर के बड़े-बूढ़े करते हैं, यह बेचारी क्या करे ? अब कोई उपाय नहीं. '
इसके बाद थोड़ी देर तक एक -दूसरे को देखती रहीं, फिर जिज्जी ने जाने क्यों दीर्घ साँस ली और महादेवी जैसे अपने भीतर डूब गयी.
क्रमशः
मैं नीर भरी दुख की बदली
मैं नीर भरी दुख की बदली
स्पंदन में चिर निस्पंद बसा,
क्रंदन में आहत विश्व हंसा,
नयनों में दीपक से जलते
पलकों में निर्झरिणी मचली !
मेरा पग पग संगीत भरा,
श्वासों से स्वप्न - पराग झरा,
नभ के नव रंग बनते दुकूल ,
छाया में मलय -बयार पली !
मैं क्षितिज-भ्रकुटी पर घिर धूमिल,
चिंता का भार बनी अविरल,
रज-कण पर जल-कण हो बरसी,
नवजीवन-अंकुर हो निकली !
पथ को न मलिन करता आना,
पद-चिन्ह न दे जाता आना,
सुधि मेरे आगम की जग में
सुख की सिहरन हो अंत खिली !
विस्तृत नभ का कोई कोना,
मेरा न कभी अपना होना,
परिचय इतना इतिहास यही
उमड़ी कल थी मिट आज चली !
बुधवार, 28 सितंबर 2011
हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी (अंक-2)
मंगलवार, 27 सितंबर 2011
हिंदी दिवस के बाद भी...
अरे मैं तो मुद्दे से भटक गया. हुआ यूं कि चीन की एक बड़ी रेडीमेड ब्रांड यिशिनो पिछले साल भारत के बाज़ार में आई है. अभी इस कंपनी के कोई दस स्टोर भारत के विभिन्न शहरों में हैं. जल्दी ही कम्पनी १०० नए स्टोर लाने वाली है. इस सिलसिले में उन्हें विज्ञापन कंपनी की जरुरत थी. कई प्रतुतिकरण के बाद हमें उनका काम करने का अवसर मिला. भारत में यिशिनो की मार्केटिंग मैनेज़र बोनी है. उस से मिलने के बाद मुझे भाषा के प्रति चीन के नज़रिए की एक झलक मिली जो मुझे तो प्रेरित कर गई.
बोनी एक २३-२४ साल की लड़की है. उसने चीन से फैशन में एम बी ए किया है. अंग्रेजी बोलती और समझती है. उच्चारण में थोड़ी समस्या है. पिछले छः महीनो से भारत में है. हिंदी भी समझने लगी है. हमारी पहली मीटिंग में उसने अपनी कंपनी का प्रोफाइल चीनी भाषा में ही दिया जिसमे चित्रों और सब टाईट्ल्स की वजह से समझ सका. लेकिन बोनी को कतई परेशानी नहीं थी कि चीनी भाषा में कार्पोरेट प्रेजेंटेशन से मैं चीज़ों को समझ नहीं सका हूं. और वो ठीक भी थी क्योंकि हमने उसके कार्पोरेट प्रेजेंटेशन को चीनी में अनुवाद कराया और फिर दूसरी मीटिंग में उसके लिए प्रिंट मीडिया की रणनीति लेकर गए थे. उसकी भाषा के प्रति स्वाभिमान ने हमें चीनी में अनुवाद करने पर मजबूर किया. और यिशिनो कोई सरकारी कंपनी नहीं है. वह एक लाभ कमाने वाली कंपनी है और भाषा के प्रति उसकी कोई जिम्मेदारी नहीं है. लेकिन चीन में ऐसा नहीं है. वहां आम चीनी में अपनी भाषा के प्रति सम्मान है.
दूसरी मीटिंग में उसने हमने अपनी कंपनी के विभिन्न स्टोरों और प्रोडक्ट की सूची दी जो द्विभाषी थी. ये अंग्रेजी और चीनी भाषा में थी . यह एक आश्चर्य कम न था मेरे लिए. अपने यहाँ केवल सरकार में द्विभाषी काम होता है. केवल संसद के काम हिंदी और अंग्रेजी में होते हैं. कार्पोरेट सेक्टर जो कि अपने उत्पाद तो हिंदी बोलने वाले के बीच खपाते हैं... हिंदी भाषी के बीच अपनी पैठ बनाने के लिए हिंदी में विज्ञापन करते हैं, लेकिन उन्हें किसी कारपोरेट को कार्यालय स्तर पर हिंदी में काम करते नहीं देखा है. यह जानते हुए कि हमें चीनी भाषा नहीं आती है बोनी ने अपनी भाषा को नहीं छोड़ा. बाद में उनके वाईस प्रेसिडेंट श्री ज्हाओ ज़ुज्हतो से मिलना हुआ. उनके साथ भी भाषाई अनुभव एक सा ही रहा. ज़ुज्हतो पहले चीनी भाषा में बोल रहे थे और बाद में उसे स्वयं ही अंग्रेजी में अनुवाद कर हमसे बात कर रहे थे. यिशिनो चीन की एक बड़ी रिटेल कंपनी है और दुनिया के बीसियों देशों में उसके रिटेल आउटलेट हैं. इस कंपनी से मिलने के बाद हिंदी में काम करने के प्रति मेरा नज़रिया बदला है और निश्चय और अधिक दृढ हुआ है.
अगली मीटिंग में बोनी मुस्कुरा रही थी. मेरा मीडिया प्लान भी द्विभाषी था.
हिंदी दिवस ख़त्म नहीं हुआ है. इसे हर रोज़ मनाइये.
सोमवार, 26 सितंबर 2011
राख का अम्बार और इंतज़ार
न जाने कितनी बार
मेरे हिस्से ज़हर आया है
जब -जब भी ज़िन्दगी ने
मंथन किया
मैंने विष ही पाया है।
इतना गरल पा कर भी
मन मेरा शिव नही बन पाया
क्यों कि ये ज़हर
मेरे कंठ में नही रुक पाया है।
उगल दिया मैंने सब
बिना ज़मीं देखे हुए
बंजर हो गई वो धरती
जहाँ प्रेम की पौध
उगा करती थी
जल गए वो दरख्त
जिनकी टहनी मिला करती थी
सूख गए वो अरमान
जो इन पेडों पर रहा करते थे
मर गए वो एहसास
जो इन पर
झूले झूला करते थे ।
आज बस रह गया है तो
एक राख का अम्बार है
इसे उड़ने के लिए हवा के
हल्के से झोंके का इंतज़ार है.
संगीतास्वरूप
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रविवार, 25 सितंबर 2011
प्रभावकारी अहिंसक शस्त्र
प्रेरक प्रसंग-4
प्रभावकारी अहिंसक शस्त्र
मनोज कुमार
गांधी जी प्रायः सप्ताह में एक दिन मौन धारण किया करते थे और दिन होता था सोमवार। इसके द्वारा वे अपने गले को सुरक्षित रखना चाहते थे और अपने शरीर में साम्य। अपना मौन वे दो ही परिस्थिति में तोड़ सकते थे, एक जब किसी अनिवार्य मसले पर किसी उच्च अधिकारी से बात करनी हो, या दूसरे किसी बीमार आदमी की देखभाल करनी हो। उपवास के दौरान गांधी जी पानी में चुटकी भर सोडियम बाइकार्बोनेट मिलाकर लेते थे। वे मानते थे कि ग़रीब और निसहाय लोगों के लिए उपवास सबसे मज़बूत शस्त्र है। जब भी वे विकट परिस्थित में होते थे, इसका इस्तेमाल करते थे। उनके जीवन में बड़ी बड़ी सफलताएं इसके प्रयोग से हासिल हुईं। अपने सम्पूर्ण जीवन में उन्होंने सोलह बार उपवास ग्रहण किया। दो बार उनका उपवास 21 दिनों तक चला। उनहोंने स्वीकार किया है कि सार्वजनिक जीवन में खुद पर आरोपित इस तरह की यातना बहुत ही प्रभावकारी अहिंसक शस्त्र सिद्ध हुआ। इसके प्रयोग के वे सारे संसार में सबसे बड़े सिद्धान्तकार कहलाए। लेकिन उनका कहना था कि उपवास का निश्चय कुछ खास परिस्थितियों में लिया जाना चाहिए।
उपवास के दौरान उन्हें किसी चीज़ की ज़रूरत होती या कुछ सूचना देनी होती, तो काग़ज़ के टुकड़े पर लिखकर बताते थे। लेकिन काग़ज़ का यह टुकड़ा भी नया या कोरा नहीं होता था। बापू आए हुए पत्रों के पीछे, जिन पर कुछ लिखा हुआ न हो या लिफ़ाफों को खोलकर उनके अन्दर की ओर के बिना लिखे या बिना छपे वाले हिस्से पर लिखा करते थे। बापू का कहना था,
“हमें आवश्यकता से तनिक भी ज़्यादा उपयोग नहीं करना चाहिए। और हर चीज़ का इस्तेमाल किफ़ायत से करना चाहिए।”
शनिवार, 24 सितंबर 2011
अरे अब ऐसी कविता लिखो
अरे अब ऐसी कविता लिखो
अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि जिसमें छंद घूमकर आय
घुमड़ता जाय देह में दर्द
कहीं पर एक बार ठहराय
कि जिसमें एक प्रतिज्ञा करूं
वही दो बार शब्द बन जाय
बताऊं बार-बार वह अर्थ
न भाषा अपने को दोहराय
अरे अब ऐसी कविता लिखो
कि कोई मूड़ नहीं मटकाय
न कोई पुलक-पुलक रह जाय
न कोई बेमतलब अकुलाय
छंद से जोड़ो अपना आप
कि कवि की व्यथा हृदय सह जाय
थामकर हंसना-रोना आज
उदासी होनी की कह जाय ।
शुक्रवार, 23 सितंबर 2011
दिनकर की सौंदर्य और प्रेम भावना
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ के जन्म दिवस पर
दिनकर की सौंदर्य और प्रेम भावना
मनोज कुमार
दिनकर जी राष्ट्रवादी स्वर की कविताओं के साथ भिन्न प्रकार की कविताएँ भी लिखते रहे। ‘रसवंती’ और ‘द्वन्द्वगीत’ में इस प्रकार की कविताएं सम्मिलित हैं। प्रेम और श्रृंगार के प्रति आकर्षण उनमें शुरु से ही देखा जा सकता है। लेकिन उनके उच्च्गर्जन भरे राष्ट्रवादी स्वर के नीचे यह दब सा जाता रहा है। प्रेम, सौन्दर्य और श्रृंगार के प्रति आकर्षण आगे चलकर उनके प्रसिद्ध काव्य ‘उर्वशी’ मे दिखलाई पड़ता है। लेकिन यह एक पुरुषकवि द्वारा नारी को मात्र भोग्या या श्रृंगार की सामग्री समझकर नहीं लिखा गया। इसमें आध्यात्मिकता का भी स्पर्श है। इसमें प्रेम भावना और सहज काम-वासना के बीच द्वंद्व चलता है। क्या काम से मनुष्य को मुक्ति मिलती है? ऐसे प्रश्न दिनकर जी की कविताओं में उठाए गए हैं।
‘हुंकार’ आदि कविताएं कविताएं लिखने के बाद दिनकर जी पर आरोप लगाया जाता रहा कि उनमें जोश अधिक और बौद्धिकता कम है। अपने ऊपर लगे आरोपों का जवाब देते हुए उन्होंने कहा,
“मैं भी चाहता था कि गर्जन-तर्जन छोड़कर कोमल कविताओं की रचना करूं, जिनमें फूल हों, सौरभ हों, रमणी का सुंदर मुख और प्रेमी पुरुष के हृदय का उद्वेग हो और ऐसी अनेक रचनाएं ... रेणुका, रसवन्ती और द्वन्द्वगीत में प्रकाशित हुआं।”
मेरी भी यह चाह विलासिनी
सुंदरता को सीस झुकाऊं।
जिधर-जिधर मधुमयी बसी हो
उधर वसन्तानिल बन जाऊं।
सौंदर्य और प्रेम की भावनाओं की यह अभिव्यक्ति दिनकर जी के मूल स्वभाव के अनुकूल थी। आगे चलकर यही धारा ‘उर्वशी’ काव्य में ज़ोरों से फूटी। ‘उर्वशी’ 1953 से 1961 के बीच लिखी गई थी। इस रचना पर उन्हें प्रतिष्ठित ज्ञानपीठ पुरस्कार भी मिला था। इसमें व्यक्त सौन्दर्य, प्रेम और काम को देख कई लोगों को झटका भी लगा था। यह तो दिनकर जी की प्रचलित और स्वीकृत छवि थी ही नहीं।
‘उर्वशी’ में एक एक मिथकीय आख्यान को लेकर उसकी पुनर्रचना की गई है। पुरूरवा चंद्रवंशी राजकुल का प्रवर्तक था, उर्वशी स्वप्नलोक की अप्सरा। मित्र और वरुण देवताओं के शाप के कारण उसे पृथ्वी पर उतरना पड़ा। यहां उसे पुरूरवा ने देखा और उस पर आसक्त हो गया। उर्वशी भी उसके सौंदर्य, सच्चाई, भक्ति और उदारता जैसे गुणों पर मोहित हो गई। दोनों पति-पत्नी बन गये। बहुत दिनों तक साथ रहकर उर्वशी एक पुत्र को जन्म देकर स्वर्ग चली गई। पुरूरवा उसके वियोग में पागल-सा हो गया। उर्वशी द्रवित होकर वापस आ गई और एक पुत्र को और जन्म दिया। इस तरह उनके पांच पुत्र हुए। उर्वशी बार-बार स्वर्ग चली जाती। पुरूरवा उसे जीवन-संगिनी बनाना चाहता था। उसने यज्ञ किया और उसका मनोरथ पूरा हुआ।
‘उर्वशी’ काव्य की नयिका स्वर्ग की अप्सरा है और उसे अक्षय सौंदर्य मिला है। देवलोक की यह नर्तकी चिरयुवती, वारविलासिनी, अनंत यौवनमयी और चिररहस्यमयी है। वह तो रूपमाला की सुमेरू ही है।
एक मूर्ति में सिमट गयीं किस भांति सिद्धियां सारी?
कब था ज्ञान मुझे इतनी सुन्दर होती हैं नारी?
आगे वर्णन है –
जग भर की माधुरी अरुण अधरों में धरी हुई-सी,
आंखों में वारुणी रंग निद्रा कुछ भरी हुई-सी!
दर्पण, जिसमें प्रकृति रूप अपना देखा करती है,
वह सौंदर्य, कला जिसका सपना देखा करती है।
नहीं, उर्वशी नारि नहीं, आभा है अखिल भुवन की,
रूप नहीं, निष्कलुप कल्पना है स्रष्टा के मन की।
वहीं दूसरी तरफ़ उर्वशी पुरूरवा के शरीर के सौंदर्य को कुसुमायित पर्वत की उपमा देती है। नारी स्वयं कोमल है, अतः कठोर वरण करती है। उसके मन में पुरुषाकृत्ति की उदात्त छवि समाई हुई है-
यह ज्योतिर्मय रूप! प्रकृति ने किसी कनक-पर्वत से
काट पुरुष-प्रतिमा विराट् निज मन के आकारों की
महाप्राण से भर उसको, फिर भूपर गिरा दिया है।
इन अंशों में दिनकर की भावसमृद्धि, कल्पनावैभव और शब्दशक्ति उच्चशिखर का स्पर्श करती है। इस अर्धमानवी और अर्धदिव्या नारी के सौंदर्य का चित्रण स्थूल और रंगों के मिश्रण से होना स्वाभाविक है। कहीं मांसलता है, तो कहीं सूक्ष्म-लावण्य की अभिव्यक्ति, कहीं इंद्रधनुषी रंगों का मिश्रण है, तो कहीं धूप-छाहीं रंग। वह स्थूल भी है, सूक्ष्म भी। कवि ने सौंदर्य को कल्पना-बल से रूपायित किया है, जहां देहांकन और विदेहांकन दोनों है।
पहले प्रेम स्पर्श होता है,
तदन्तर चिन्तन भी;
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है,
तब वायव्य गगन भी।
देह-सीमा से स्वानुभूतिमय परिचय कर लेने के बाद विदेहभाव धारण करना अधिक निरापद और न्याय्य होता है। राग से परिचय पाने के बाद विराग धारण ही व्यक्ति का स्वाभाविक विकास है। प्रेम का जन्म काम में होता है; किन्तु, उसकी परिणति काम के अतिक्रमण में होनी चाहिए। प्रेम इतना पवित्र और महार्घ तत्त्व है कि उस पर दैहिक स्खलनों के दाग नहीं पड़ते। ‘सेक्स’ की अनुभूति में शारीरिक अनुभूति होती है, किंतु, प्रेम की अनुभूति में शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक – तीनों अनुभूतियां समन्विर होती हैं, जब प्रेम में अनासक्ति का समावेश होने लगता है।
नहीं इतर इच्छाओं तक ही अनासक्ति सीमित है
उसका किंचित् स्पर्श प्रणय को भी पवित्र करता है।
देह से उत्थित होने वाले प्रेम को ही दिनकर जी ने रहस्य-चिंतन तक पहुंचा दिया है। यह फ़्रायड के मनोवैज्ञानिक ‘सब्लिमेशन’ की तरह एक ‘आध्यात्मिक उन्नयन है। कवि ने प्रेम को मनोमय लोक में पहुंचा दिया है। पुरूरवा का अंतिम विकल्प कामाध्यात्म की ओर है। तभी तो हजारी प्रसाद द्विवेदी कहते हैं,
“‘उर्वशी’ विश्वब्रह्मांडव्यापी मानस की नित्य-नवीन सौंदर्य-कल्पना के रूप में ऐसी बिखरी है कि आश्चर्य होता है। निश्चय ही, यह समाधिस्थ चित्त की रचना है – समाधिस्थ चित्त जो विराट् मानस के साथ एकाकार हो गया था।”
दिनकर जी ने कालिदास की ‘विक्रमोर्वशीयम्’ और रवीन्द्रनाथ ठाकुर की रचना ‘उर्वशी’ पढ़ी थी। इनमें प्रेम और कामाकर्षण की कथा है। आगे चलकर उन्होंने महर्षि अरविन्द की उर्वशी पढ़ी। इसमें उन्हें इसका एक आध्यात्मिक पक्ष भी दिखलाई पड़ा। दिनकर के ‘उर्वशी’ में इन रचनाओं का दुहराव नहीं है। दिनकर के रचना में बीसवीं शताब्दी के पुरूरवा और उर्वशी हैं, जिन्हें क्रमशः सनातन नर और नारी का प्रतीक माना जा सकता है। इसमें एक द्वन्द्व चलता रहता है। पुरूरवा पूछता है,
रूप की आराधना का मार्ग
आलिंगन नहीं, तो और क्या है?
स्नेह का सौंदर्य को उपहार
रस-चुंबन नहीं, तो और क्या है?
‘उर्वशी’ में पुरुष और स्त्री के बीच प्राकृतिक आकर्षण, काम-भावना के कारण उत्पन्न प्रेम और फिर इस प्रेम के विस्तार को मापने की कोशिश की गई है। काम का ललित पक्ष प्रेम है और प्रेम संतानोत्पादन के साथ-साथ आनंद का उत्कर्ष भी है। वह शारीरिक होने के साथ-साथ रहस्यवादी अनुभूति भी है। प्रेम का यह पक्ष कवि को अपनी ओर खींचता है। एक आत्मा से दूसरी आत्मा का गहन संपर्क अध्यात्म की भूमिका बन सकता है, यह उर्वशी काव्य का गुणीभूत व्यंग्य है।
उर्वशी प्रेम की अतल गहराई का अनुसंधान करती हुई रचना है। ‘उर्वशी’ में यह प्रेम शारीरिक आकर्षण से कहीं आगे जाता है। यह प्रेम की अतीन्द्रियता का आख्यान है और यही आख्यान उसका आध्यात्मिक पक्ष है। फिर भी हम पाते हैं कि ‘उर्वशी’ में प्रेम के ऐंद्रिय पक्ष भी स्पष्ट हैं, पुरूरवा की उक्ति देखिए,
फिर अधर-पुट खोजने लगते अधर को।
कामना छूकर त्वचा को फिर जगाती है।
रेंगने लगते सहस्रों सांप सोने के रूधिर में,
चेतना रस की लहर में डूब जाती है।
रूप के सौन्दर्य, प्रेम और श्रृंगार की अनुभूतियों की खुली अभिव्यक्ति ‘उर्वशी’ में मिलती है। इसपर भारी साहित्यिक विवाद भी हुआ। उस समय की प्रसिद्ध पत्रिका ‘कल्पना’ में यह विवाद काफ़ी दिनों तक चलता रहा। मुक्तिबोध ने तो यहां तक कहा कि कवि कामात्मक मनोरति और संवेदनाओं में डूबना-उतराना चाहते हैं, साथ ही इस गतिविधि को सांस्कृतिक-आध्यात्मिक श्रेष्ठत्व का प्रतिपादन करना चाहते हैं। डॉ. नामवर सिंह ने भी इस पर सहमति जताई। लेकिन जब हम ‘उर्वशी’ को पढ़ते हुए दिनकर जी की पहली रचनाओं को ध्यान में रखते हैं तो पाते हैं कि दिनकर जी की प्रत्येक घटना या मनोभाव अथवा अनुभूति के सांस्कृतिक पक्ष पर यह आरोप असंगत और अन्यायपूर्ण है कि ‘कामात्मक मनोरति और संवेदनाओं में डूबना-उतराना चाहते हैं’।
श्रृंगारिक वार्णनों के रहने पर भी ‘उर्वशी’ अपने उदात्त विचारों के कारण एक सर्वतोभद्र काव्य है। कारण, पकी उम्र में कवि ने श्रृंगार और प्रेम को अपना विषय बनाया, अतः किशोरवय की सहज बिछलन और ऐंद्रियता के अतिरेक से वह बच गया तथा श्रृंगार के सांस्कृतिक स्तर से नीचे नहीं उतरा। ‘उर्वशी’ में प्रेम को एक बोधात्मक विषय (कॉग्निटिव कंटेंट) के रूप में स्वीकार किया गया है और उसे भारतीय ढ़ंग मे उन्नयन (सब्लिमेशन) के सहारे ‘वासना’ से दर्शन तक पहुंचाया गया है –
पहले प्रेम स्पर्ष होता है,
तदन्तर चिन्तन भी।
प्रणय प्रथम मिट्टी कठोर है,
तब वायव्य गगन भी।
इसलिए दिनकर की उर्वशी एक ओर अपार्थिव सौंदर्य का पार्थिव संस्करण है, तो दूसरी ओर पार्थिव सौंदर्य (नारी) का अपार्थिव उन्नयन भी। फलस्वरूप ‘उर्वशी’ में प्रेम के प्रति वैष्णवभाव है, जिसे हम प्रेम का आधुनिक ‘सहजियाकरण’ कह सकते हैं।
*** **** *****
जन्म : रामधारी सिंह दिनकर का जन्म बिहार के मुंगेर (अब बेगूसराय) ज़िले के सिमरिया गांव में बाबू रवि सिंह के घर 23 सितम्बर 1908 को हुआ था।
शिक्षा और कार्यक्षेत्र : ढाई वर्ष की उम्र में पिता जी का देहांत हो गया। गांव से लोअर प्राइमरी कर मोकामा से मैट्रिक किया। 1932 में पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज से इतिहास में बी.ए. (प्रतिष्ठा) की परीक्षा पास करने के बाद वे कुछ दिनों के लिए बरबीघा उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाध्यापक का काम किए। उसके बाद सरकारी नौकरी में चले आए और निबन्धन विभाग के अवर-निबंधक के रूप में 1934 से 1942 तक रहे। 1943 से 1945 तक सांग पब्लिसिटी ऑफीसर, फिर जनसम्पर्क विभाग के उपनिदेशक पद पर 1947 से 1950 तक रहे। उसके बाद उन्होंने 1950 से 1952 तक लंगट सिंह महाविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर के हिन्दी प्रध्यापक के अध्यक्ष पद को संभाला।
स्वंत्रता मिली और पहली संसद गठित होने लगी तो वे कांग्रेस की ओर से भारतीय संसद के सदस्य निर्वाचित हुए और राज्यसभा के सदस्य के रूप में 1952 से 1963 तक रहे। 1963 से 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। अंततः 1965 से 1972 तक भारत सरकार के गृह-विभाग में हिन्दी सलाहकार के रूप में हिन्दी के संवर्धन और प्रचार-प्रसार के लिए काफ़ी काम किया।
पुरस्कार व सम्मान :
१. ‘कुरूक्षेत्र’ के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार सम्मान मिला
२. ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया।
३. 1959 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें पद्म विभूषण से किया विभूषित किया।
४. भागलपुर विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने इन्हें डी. लिट. की मानद उपाधि प्रदान की।
५. 1972 में ‘उर्वशी’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
मृत्यु : 24 अप्रैल 1974 को हृदय गति रुक जाने से उनका देहांत हो गया।
:: प्रमुख रचनाएं ::
:: काव्य रचनाएँ :: चक्रवाल, रेणुका , हुंकार, द्वन्द्वगीत, रसवंती, सामधेनी, कुरुक्षेत्र, बापू, धूप और धुआं, रश्मिरथी, नील कुसुम, नये सुभाषित, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार,आत्मा की आंख, हारे को हरिनाम, संचयिता तथा रश्मि लोक।
:: गद्य रचनाएं :: मिट्टी की ओर, अर्द्धनारीश्वर, भारतीय संस्कृति के चार अध्याय, शुद्ध कविता की खोज, रेती के फूल, उजली आग, काव्य की भूमिका, प्रसाद, पंत और मैथिली शरण गुप्त, लोकदेव नेहरू, हे राम, देश-विदेश, साहित्यमुखी।
गुरुवार, 22 सितंबर 2011
तुम इतने बड़े होकर भी खो जाते हो रामा !
तुम इतने बड़े होकर भी खो जाते हो रामा !
अनामिका
साथियो, नमस्कार!
१६ सितम्बर, २०११ , शुक्रवार को इसी राजभाषा पर मैंने एक पोस्ट 'यह व्यथा की रात का कैसा सवेरा है ?' शीर्षक से महादेवी वर्मा जी की जीवन के कुछ रोचक प्रसंग प्रस्तुत किये थे. उन्ही को आगे बढ़ाते हुए आगे के लेखन को विस्तार देती हूँ.....
पांच वर्ष की होते होते आपको भोपाल तथा इंदौर की यात्रा करनी पड़ी, जहाँ 'अतीत के चलचित्र' का 'रामा' इन्हें मिला. छोटे भाई की स्पर्धा में रामा को आप साम-दाम-दंड-भेद के द्वारा केवल अपने लिए 'राजा भैया' कहने के लिए किस तरह बाध्य कर देती थीं, इसकी भी एक रोचक कहानी है. वय की गति के साथ जीवन विस्तार की छाया में यह घर की शिशु कुशलता बगीचे के फूलों और पड़ोसियों के घर तक पहुँचने लगी.
माँ ने चाहा कि बेटी को कुछ समय खिलौनों-गुड़ियों में उलझाये रखें और कुछ समय गृह कार्य की शिक्षा दें, यदि यह ना हो सके तो पाटी पकड़ा कर स्कूल ही भेज दें. महादेवी जी इन सब चक्करों में नहीं पड़ना चाहती थीं. फूल, तितली, हरी दूब और फर्श पर या दीवार पर कुछ उकेरने के लिए कोयला और सिन्दूर के अतिरिक्त उन्हें और कुछ भी ना चाहिए था. परेशान होकर छोटे भाई और बहन की ओर संकेत करते हुए माँ ने कहा – “खेलना छोटों का काम है, बड़ों का पढना या काम करना.”
इन्होंने पढना पसंद किया. आर्य समाजी संस्कारों के साथ इन्हें मिशन स्कूल में भेज दिया गया. घर में हिंदी, उर्दू, संगीत और चित्रकला के अध्ययन का प्रबंध कर दिया गया.
अध्ययनारम्भ के दिन ही आप थोड़ी देर तक अध्यापक के पास बैठी रहीं और फिर छुट्टी की मांग पेश की. आवश्यकता पूछे जाने पर तपाक से उत्तर दिया – “फूल तोड़ लाऊं, नहीं तो माली तोड़कर बाबू (पिताजी) के फूलदान में लगा देगा, जहाँ वे सूख जाते हैं.”
'तो क्या तुम्हारे तोड़ने से नहीं सूखते ?'
“सूखते तो हैं, पर भगवानजी पर चढ़ने के बाद फिर जिज्जी (माँ) उन्हें नदी भेजवा देती है. माली कूड़े में फेंक देता है और बाबू उन्हें उठाने भी नहीं देते.”
पंडित जी को ज्ञात हुआ कि बालिका केवल बातचीत में ही नहीं, पढने-लिखने में भी पर्याप्त प्रवीण है. लड़कियां और हो ही क्या सकती हैं, पढ़ाकू या लड़ाकू . महादेवी जी ने दोनों रूपों में दक्षता प्राप्त की है. लड़ाकू रूप उनके सामाजिक विद्रोह और नारी विषयक निबंधों में शतश: मुखरित है और पढ़ाकू रूप तो जग - जाहिर है.
'रामा' नामक संस्मरण - रेखाचित्र में इन्होने अपने बचपन की अनेक मनोरंजक घटनाओं का उल्लेख किया है, जिनसे इनके स्वभाव और प्रबुद्धता का पता चलता है. दशहरे के मेले में जाने के लिए रामा ने एक को कंधे पर बिठाया और दूसरे को गोद में ले लिया. इन्हें उँगली पकडाते हुए बार - बार कहा – “उंगरिया जिन छोड़ियो राजा भैया .” सिर हिलाकर स्वीकृति देते हुए भी इन्होने अंगुली छोड़कर मेला देखने का निश्चय कर लिया. भटकते भूलते और दबने से बचते बचते जब इन्हें भूख लगी तब रामा का स्मरण अनिवार्य हो उठा.
एक मिठाई की दूकान पर खड़े होकर अपनी सारी उद्दिग्नता छिपाते हुए इन्होने सहज भाव से प्रश्न किया – “क्या तुमने रामा को देखा है ? वह खो गया है .”
बूढ़े हलवाई ने वात्सल्य मुग्ध होकर पूछा – “कैसा है तुम्हारा रामा ?.”
इन्होने ओठ दबाकर धीरज के साथ कहा – “बहुत अच्छा है .”
हलवाई इस उत्तर से क्या समझता ? अंततः उसने आग्रह के साथ विश्राम करने के लिए वहीँ बिठा लिया. महादेवी जी ने लिखा है - ' मैं हार तो मानना नहीं चाहती थी, परन्तु पाँव थक चुके थे और मिठाईयों से सजे थालों में कुछ कम निमंत्रण नहीं था. इसीसे दुकान के कोने में बिछे टाट पर सामान्य अतिथि की मुद्रा में बैठकर मैं बूढ़े से मिठाई रुपी अर्ध्य को स्वीकार करते हुए उसे अपनी महान यात्रा की कथा सुनाने लगी.' संध्या समय जब सबसे पूछते पूछते बड़ी कठिनाई से रामा उस दुकान के सामने पहुंचा, तब इन्होने विजय-गर्व से फूलकर कहा – “तुम इतने बड़े होकर भी खो जाते हो रामा !.”
छाया की आंखमिचौनी
छाया की आंखमिचौनी
मेघों का मतवालापन,
रजनी के श्याम कपोलों
पर ढरकीले श्रम के कन ;
फूलों की मीठी चितबन
नभ की ये दीपावलियाँ,
पीले मुख पर संध्या के,
वे किरणों की फुलझड़ियाँ ;
विधु की चांदी की थाली
मादक मकरंद भरी सी,
जिसमे उजियारी रातें,
लुटती घुलतीं मिसरी सी !
भिक्षुक से फिर आओगे,
जब लेकर यह अपना धन,
करुणामय तब समझोगे
इन प्राणों का महंगापन !
क्यों आज दिए देते हो
अपना मरकत - सिंहासन ?
यह है मेरे मरू-मानस
का चमकीला सिकता कन !
आलोक यहाँ लुटता है
बुझ जाते हैं तारागण,
अविराम जला करता है
पर मेरा दीपक सा मन !
जिसकी विशाल छाया में
जग बालक सा सोता है,
मेरी आँखों में वह दुःख
आंसू बनकर खोता है !
जग हंसकर कह देता है
मेरी आँखे हैं निर्धन,
इनके बरसाए मोती
क्या वह अब तक पाया गिन ?
मेरी लघुता पर आती
जिस दिव्य लोक को ब्रीड़ा
उसके प्राणों से पूछो
वे पाल सकेंगे पीड़ा ?
उनसे कैसे छोटा है
मेरा यह भिक्षुक जीवन
उनमे अनंत करुणा है
इसमें असीम सूनापन !
बुधवार, 21 सितंबर 2011
हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
हिन्दी के पाणिनि – आचार्य किशोरीदास वाजपेयी
आचार्य परशुराम राय
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी, एक ऐसे स्वनामधन्य और हिन्दी के पाणिनि कहे जानेवाले व्यक्ति, पर कुछ लिखने के लिए मेरी लेखनी सहम रही है। क्योंकि महापण्डित राहुल सांकृत्यायन जैसे अनेक मूर्धन्य विद्वानों ने इनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। इनकी की गयी उपेक्षा पर राहुल जी काफी व्यथित थे। वे लिखते हैं-
“क्या यह दुनिया एक क्षण के लिए भी बर्दाश्त करने लायक है, जिसमें अनमोल प्रतिभाओं को काम करने का अवसर न मिले और ऐरे-गैरे-नत्थूखैरे गुलछर्रे उड़ाते राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय मंच पर अपना नाच दिखाएँ?”
आचार्य जी की पुस्तक भारतीय भाषाविज्ञान की भूमिका में राहुल जी लिखते हैं- “आचार्य वाजपेयी हिन्दी के व्याकरण और भाषाविज्ञान पर असाधारण अधिकार रखते हैं। वे मानों इन्हीं दो विधाओं के लिए पैदा हुए हैं। ................. मेरा बस चलता, तो वाजपेयी जी को अर्थचिन्ता से मुक्त करके, उन्हें सभी हिन्दी (आर्य भाषा वाले) क्षेत्रों में शब्द-संचय और विश्लेषण के लिए छोड़ देता। उन पर कोई निर्बन्ध (कार्य करने की मात्रा का) न रखता। जिसके हृदय में स्वतः निर्बन्ध है, उसे बाहर के निर्बन्ध की आवश्यकता नहीं।“
आचार्य किशोरीदास वाजपेयी के स्नेही और प्रेरक व्यक्तित्वों में पं.अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी, पं.कामताप्रसाद गुरु, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, महापंडित राहुल सांकृत्यायन और डॉ. अमरनाथ झा के नाम उल्लेखनीय हैं। अपनी पुस्तक हिन्दी शब्दानुशासन को समर्पित करते हुए आचार्य जी लिखते हैं-
जो इस कृति के प्रेरक कर्ता,
जो हैं इस चिन्तन के बीज;
उन्हें छोड़ फिर और किसे यह,
करूँ समर्पित उनकी चीज ?
पुस्तक में समर्पण के इन शब्दों के नीचे उपर्युक्त महानुभावों के नाम दिए गए हैं और ऊपर उनकी फोटो। इसके अतिरिक्त भी अपने समकालीन हिन्दी एवं अन्य विद्वद्वरों के प्रति भी आचार्यजी का और उनके प्रति उन विद्वद्वरों का सम्मान था। जिस क्षेत्र में आचार्यजी काम कर रहे थे, उसमें उनका कोई सानी नहीं था। ऐसा भी नहीं था कि उनके विरोधी नहीं थे। आचार्यजी एक अक्खड़ स्वभाव के व्यक्तित्व थे और अपने सिद्धांत के कट्टर। इसलिए उनका विरोध स्वाभाविक था। उन्हें चाहने वाले भी उनके साथ असहज हो जाया करते थे। एक अवसर पर सांकृत्यायन जी ने उन्हें दुर्वासा की संज्ञा दी है।
आचार्यजी मात्र एक वैयाकरण ही नहीं, बल्कि एक सशक्त आलोचक भी थे। अपनी पुस्तक हिन्दी निरुक्त के प्रथम संस्करण की भूमिका में (1949) वे लिखते हैं कि “…………. इस देश के अनेक आधुनिक “आचार्य” लोगों ने यह लिख दिया कि भाषा-विज्ञान का उदय सर्वप्रथम यूरोप में हुआ! यही बात आलोचनात्मक साहित्य के लिए भी कही और लिखी गयी थी, पर जब मैंने, अब से दस-पन्द्रह वर्ष पहले “माधुरी” में ‘आलोचना का जन्म और विकास’ शीर्षक लेख छपाकर उस भ्रांत धारणा का निराकरण किया, तब लोगों ने वैसा लिखना बन्द किया!“
आचार्यजी की लेखनी जिस पथ पर चली, मौलिकता की छाप छोड़ गयी। उन्होंने भाषा को निरूपित करने के अतिरिक्त पत्रकारिता, काव्यशास्त्र, इतिहास आदि विषयों को अपनी लेखनी से आयाम दिया है। पर, हिन्दी भाषा को दिए गए योगदान के लिए वे अधिक याद किए जाते हैं और शायद इसीलिए लोग उन्हें हिन्दी का पाणिनि कहते हैं।
अपनी लेखनी से मील का पत्थर खींचने वाले आचार्य किशोरीदास वाजपेयी का जीवनवृत्त कहीं एक स्थान पर उपलब्ध नहीं है। इस सम्बन्ध में महापंडित राहुल सांकृत्यायन जा का एक लेख हिन्दी शब्दानुशासन की पूर्वपीठिका के रूप में आचार्य किशोरीदास वाजपेयी शीर्षक से लिखा है। इसमें हिन्दी के लिए आचार्यजी द्वारा की गयी सेवाओं का उल्लेख किया गया है। सम्भवतः वे आचार्यजी के जीवन-वृत्त पर प्रकाश डालना भी चाहते थे, जो इतिहासकारों को बहुत प्रिय है। अतएव उन्होंने पत्र लिखकर उनसे उनकी जन्मतिथि आदि पूछी, जिसका उल्लेख करते हुए राहुल जी लिखते हैं कि “इस लेख को उनकी छोटी-सी जीवनी नहीं बनाना चाहता, फिर भी जन्मतिथि और जन्मस्थान दे देना चाहता था। जानता था कि वे ऊपर ही ऊपर मेरा कुछ लिखना पसन्द न करेंगे। पर मैं दुर्वासा के अभिशाप को सिर-माथे पर चढ़ाने के लिए तैयार था। उन्होंने मेरी जिज्ञासा की पूर्ति निम्न पंक्तियों में की (26-0754)”- ‘आपने मेरी जन्मतिथि पूछी है, जो मुझे मालूम नहीं; क्योंकि वह सब बताने वाले मेरे माता-पिता मुझे दस वर्ष का छोड़ स्वर्गवासी हो गए थे। अन्दाजा यह है कि इस सदी से दो-तीन वर्ष आगे हूँ। ..... मैं 56-57 का होऊँगा। पर यह सब आप किस लिए पूछ रहे हैं? मेरा व्यक्तित्व जो कुछ है, सब जानते हैं। कहीं कुछ छपाना अनावश्यक है”।
कुल मिलाकर यह कि आचार्यजी ने कभी अपनी पब्लिसिटी नहीं देखनी चाही। हाँ, वे अपने व्यक्तित्व के प्रति सजग अवश्य थे। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि सनातनी होने के कारण या किसी और कारण से वे अक्खड़ स्वभाव के थे। राहुल जी इसी लेख में दसवीं सदी के अपभ्रंश के महान कवि पुष्पदन्त से आचार्यजी की तुलना करते हुए लिखते हैं कि- ‘गर्व करता है’, ‘झगड़ालू है’ आदि कह कर हम किशोरी दास जी जैसी प्रतिभाओं की उपेक्षा कर के आने वाली पीढ़ियों के सामने मुँह नहीं दिखा सकते।............ वाजपेयी जी भी ‘अभिमानमेरु’ हैं।
इन सब बातों को पढ़कर ऐसा लगता है कि आचार्य किशोरीदास वाजपेयी भले ही एक व्यवहारकुशल व्यक्ति न रहे हों, किन्तु उनकी रचनाओं को देखने से लगता है कि वे लोगों के युक्ति-संगत विचारों को कितनी नम्रता से स्वीकार करते थे। जिनके विचारों को उन्होंने स्वीकार नहीं किया, तो उसके पीछे उनके अकाट्य तर्क थे, जिसका उल्लेख आगे अवसर आने पर किया जाएगा।
इन्टरनेट पर उपलब्ध सामग्री के अनुसार संक्षेप में उनका जीवन-वृत्त यों है-
आचार्यजी का जन्म कानपुर के मंधना के पास रामनगर नामक गाँव में सन् 1897 या 1898 में हुआ था। इनकी प्रारम्भिक शिक्ष-दीक्षा गाँव मे हुई। इसके बाद इनकी संस्कृत की पढ़ाई भगवान कृष्ण की क्रीड़ा-भूमि वृन्दावन में हुई। फिर वाराणसी से प्रथमा की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद पंजाब विश्वविद्यालय से विशारद और शास्त्री की परीक्षा सम्मान सहित उत्तीर्ण की। हिमाचल प्रदेश के सोलन में इन्होंने अध्यापक के रूप में अपना जीवन प्रारम्भ किया। संस्कृत के विद्वान होते हुए भी इनका झुकाव हिन्दी भाषा में काम करने की ओर हुआ। हिन्दी में कार्य करने के लिए सम्भवतः प्रकृति ने इन्हें नियुक्त किया था। अतएव हिन्दी साहित्य सम्मेलन, इलाहाबाद से इन्होंने हिन्दी की विशारद और उत्तमा (साहित्य रत्न) की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कीं।
हिन्दी में भाषा के क्षेत्र में इनका अपूर्व योगदान रहा है। इसके अतिरिक्त इन्होंने आलोचना, काव्यशास्त्र, पत्रकारिता आदि क्षेत्रों में भी योगदान दिया। पर हिन्दी भाषाविज्ञान, व्याकरण, वर्तनी, हिन्दी शब्दों का विश्लेषण आदि के क्षेत्र में इनका इतना अभूतपूर्व योगदान रहा कि लोग इन्हें हिन्दी का पाणिनि की संज्ञा से विभूषित करना अधिक उपयुक्त समझे। इसके अतिरिक्त स्वतंत्रता आन्दोलनों, अन्य सामाजिक एवं राजनीतिक गतिविधियों में भी आचार्यजी आवश्यकता के अनुसार अपनी भूमिका निभाने में पीछे नहीं रहे। इन्होंने घर छोड़ने के बाद अपने जीवन का अधिकांश समय हरिद्वार के पास कनखल में बिताया और वहीं 12 अगस्त, 1981 को अपनी इहलीला समाप्त की।
अगले अंक में इनकी रचनाओं पर प्रकाश डालने का प्रयास रहेगा।
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मंगलवार, 20 सितंबर 2011
कुपथ रथ दौड़ाता जो
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की कविताएं-2
कुपथ रथ दौड़ाता जो
कुपथ कुपथ रथ दौड़ाता जो
पथ निर्देशक वह है,
लाज लजाती जिसकी कृति से
धृति उपदेश वह है।
मूर्त दंभ गढ़ने उठता है
शील विनय परिभाषा,
मृत्यु रक्तमुख से देता
जन को जीवन की आशा।
जनता धरती पर बैठी है
नभ में मंच खड़ा है,
जो जितना है दूर मही से
उतना वही बड़ा है।
सोमवार, 19 सितंबर 2011
संध्या-सुंदरी
दिवसावसान का समय
मेघमय आसमान से उतर रही है
वह संध्या-सुंदरी परी-सी
धीरे-धीरे-धीरे,
तिमिरांचल में चंचलता का नहीं कहीं आभास,
मधुर मधुर हैं दोनों उसके अधर,
किन्तु गंभीर, -- नहीं है उनमें हास-विलास।
हँसता है तो केवल तारा एक
गुँथा हुआ उन घुँघराले काले-काले बालों से,
हृदय-राज्य की रानी का वह करता है अभिषेक।
अलसता की-सी लता
किंतु कोमलता की वह कली,
सखी नीरवता के कंधे पर डाले बाँह,
छाँह-सी अंबर-पथ से चली।
नहीं बजती उसके हाथों में कोई वीणा,
नहीं होता कोई अनुराग-राग आलाप,
नूपुरों में भी रूनझुन-रूनझुन नहीं,
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा "चुप चुप चुप"
है गूँज रहा सब कहीं-
व्योम मंडल में - जगतीतल में -
सोती शांत सरोवर पर उस अमल कमलिनी-दल में --
सौन्दर्य-गर्विता सरिता के अतिविस्तृत वक्षः स्थल में --
धीर वीर गंभीर शिखर पर हिमगिरि-अटल-अचल में --
उत्ताल-तरंगाघात-प्रलय-घन-गर्जन-जलधि-प्रबल में --
क्षिति में--जल में--नभ में अनिल अनल में --
सिर्फ़ एक अव्यक्त शब्द-सा "चुप चुप चुप"
है गूँज रहा सब कहीं --
और क्या है? कुछ नहीं।
मदिरा की वह नदी बहाती आती,
थके हुए जीवों को वह सस्नेह
प्याला एक पिलाती
सुलाती उन्हें अंक पर अपने,
दिखलाती फिर विस्मृति के वह कितने मीठे सपने।
अर्द्धरात्रि की निश्चलता में हो जाती जब लीन,
कवि का बढ़ जाता अनुराग,
विरहाकुल कमनीय कंठ से
आप निकल पड़ता तब एक विहाग।
कुछ नन्हीं नज्में ….
बारिश
बिखरे वजूद के
अक्स को समेट लरजती हुई साँसों से घायल से जज़्बात लिए एक छटपटाती सी नज़्म तैर गयी है मेरी सूनी आँखों में , इस बार बारिश नहीं हुई
सौगातें
मैंने महज़ तुझसे
प्यार माँगा था मैंने बस तुझसे वफ़ा चाही थी मैंने तेरी ही खुशियों के लिए अपनी झोली फैलाई थी पर तूने भेज दीं हैं सौगातें मेरे हिस्से की जिसमें हैं तेरी नफरत , रुसवाई औ बेवफाई.
आईना
रख दिया है
फिर से एक नया आईना मैंने ख़्वाबों के सामने और बिखरे से ख्वाब लगें हैं सजने फिर आईने में.
संगीता स्वरुप
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रविवार, 18 सितंबर 2011
ग़रीबों को याद कीजिए
प्रेरक प्रसंग-3
ग़रीबों को याद कीजिए
ग़रीब लोग बापू के दिमाग में सबसे पहले आते थे। ईश्वर की सेवा का अर्थ उनके लिए ग़रीबों की सेवा था। उन दिनों मलेरिया महामारी के रूप में फैल जाती थी। लाखों लोग इससे जान गंवा बैठते थे। आश्रम में भी यह बीमारी हर साल आती थी। साबरमती आश्रम में एक बार बापू ने डॉक्टरों से पूछा कि मलेरिया की महामारी से कैसे छुटकारा पाया जा सकता है?”
डॉक्टरों ने सलाह दी, “मच्छरदानी लागाइए।”
बापू ने कहा, “डॉक्टर साहब, सभी लोगों को मच्छरदानी कहां मिलेगी? क्या कोई ऐसा तरीक़ा नहीं है जिससे ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी फ़ायदा उठा सके?”
डॉक्टर ने एक तरीक़ा सुझाते हुए कहा, “शरीर को चादर से ढक कर और मुंह पर मिट्टी का तेल मल कर सोइए। इससे मच्छर नहीं आएंगे।”
बापू ने इस राय को मान लिया। उन्होंने उसी दिन से मच्छरदानी लगाना छोड़ दिया। सोते समय अपने मुंह पर मिट्टी का तेल मलना शुरु कर दिया। और ज़मीन पर सोने लगे। एक विदेशी ने उन्हें ज़मीन पर सोये देख कर पूछा, “बापू, आप ज़मीन पर क्यों सोते हैं? मोटा गद्दा क्यों नहीं बिछाते?”
बापू ने जवाब दिया, “इसलिए कि मैं इस देश के लाखों ग़रीबों के साथ अपने को जोड़ सकूं।”
उन्होंने कहा था, “जब आपको किसी कार्य के बारे में दुविधा हो, उस समय आप देश के उस सबसे ग़रीब व्यक्ति के चेहरे की याद कीजिए जिसे आपने कभी देखा है और अपने से प्रश्न कीजिए कि जो कदम आप उठाने जा रहे हैं, उससे कोई लाभ होगा या नहीं?”
बापू ग़रीबों के लिए ही जिए और मरे।