शुक्रवार, 29 जून 2012

दोहावली ...... भाग -18 / संत कबीर


जन्म  --- 1398

निधन ---  1518

कागा काको धन  हरे, कोयल काको देय  

मीठे शब्द सुनाय के, जग अपनो कर लेय 171


कबिरा सोई पीर है, जो जा नैं पर पीर  

जो पर पीर जानइ, सो काफिर के पीर 172  



कबिरा मनहि गयन्द है, आकुंश दै-दै राखि  

विष की बेली परि रहै, अम्रत को फल चाखि 173


कबीर यह जग कुछ नहीं, खिन खिन खारा मीठ  

काल्ह जो बैठा भण्डपै, आज भसाने दीठ 174


कबिरा आप ठगाइए, और ठगिए कोय

आप ठगे सुख होत है, और ठगे दुख होय 175


कथा कीर्तन कुल विशे, भव सागर की नाव  

कहत कबीरा या जगत, नाहीं और उपाय 176


कबिरा यह तन जात है, सके तो ठौर लगा  

कै सेवा कर साधु की, कै गोविंद गुनगा 177


कलि खोटा सजग आंधरा, शब्द माने कोय  

चाहे कहूँ सत आइना, सो जग बैरी होय 178


केतन दिन ऐसे गए, अन रुचे का नेह  

अवसर बोवे उपजे नहीं, जो नहिं बरसे मेह 179



कबीर जात पुकारया, चढ़ चन्दन की डार

वाट लगाए ना लगे फिर क्या लेत हमार 180


क्रमश:

गुरुवार, 28 जून 2012

एक बार फिर स्वर दो !


आदरणीय  पाठक वृन्द को   अनामिका का नमस्कार  ! लीजिये साथियो शनैः शनैः दिनकर जी के साहित्यिक सफ़र की यह शृंखला अपने अंतिम पड़ाव पर आ पहुंचा है, देश आजाद हो गया  और आप सब के साथ यह शृंखला  सांझा करते करते वक़्त  कैसे बीत गया पता भी नहीं चला......चलिए आज जानते हैं दिनकर जी की देश के आजाद होने के बाद की दूरदर्शिता और गांधीवाद  के प्रति मोह...

दिनकरजी जीवन दर्पण -14


लीजिये चार पंक्तियाँ दिनकर जी के ही शब्दों में....
सुनूं क्या सिन्धु, मैं गर्जन तुम्हारा ?
स्वयं युगधर्मं की हुंकार हूँ मैं.
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय गांडीव की टंकार हूँ मैं.

दिनकरजी जिस कोटि  के कवि हैं, वह स्वभाव से ही विद्रोही होता है. उनका अपना भी वही विश्वास है कि  क्रोध सामाजिक काव्य का मूल रस है. संतुष्ट कवि कविता नहीं उपदेश और आराधना लिखता है.

स्वराज्य प्राप्ति के बाद भी दिनकरजी को संतोष नहीं हुआ. १९४७ में उन्होंने 'अरुणोदय' शीर्षक कविता लिखकर स्वाधीनता का स्वागत उन्मुक्त भाव से किया था. किन्तु स्वराज्य की पहली वर्षगाँठ के आते-आते उनका उत्साह मद्धिम पड़ गया और वे स्वाधीन भारत में भी असंतोष की कविता लिखने लगे.

किसने कहा, और मत बढो हृदय वह्नी के शर से,
भरो भुवन का अंग कुसुम से, कुंकुम से केसर से ?
कुंकुम लेपूँ किसे ? सुनाऊँ किसको कोमल गान ?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान !
फूलों की रंगीन लहर पर ओ इतरानेवालो!
ओ रेशमी नगर के वासी ! ओ छवि के मतवालो !
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है !
(समर शेष है )

और ग्रामों की दुखी जनता की विवशता और विस्मय का यह भाव 

पूछ  रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज;
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज ?

गांधीवादी मार्ग से समाजवाद की स्थापना यदि नहीं हुई तो दिनकर जी देश के सामने हलचल और विप्लव से भरा हुआ भविष्य देखते हैं -

बाँध तोड़ जिस रोज फौज खुलकर हल्ला बोलेगी,
तुम दोगे क्या चीज़ ? वही जो चाहेगी सो लेगी !
स्वत्व छीनकर क्रांति छोडती कठिनाई के प्राण,
बड़ी कृपा उसकी, भारत में मांग रही वह दान !
(भूदान)

तोडना है पुण्य तो तोड़ो ख़ुशी से,
जोड़ने का मोह जी का काल होता !
अनसुनी करते रहे इस वेदना को,
एक दिन ऐसा अचानक हाल होगा -
वज्र की दीवार यह फट जायेगी -
लपलपाती आग या सात्विक प्रलय का रूप धरकर 
नीव की आवाज बाहर आएगी.
(नीव का हाहाकार)

इस देश में ऐसे भी लोग हैं, जो गांधीजी से समाजवाद की प्रेरणा लेते हैं, और ऐसे भी लोग हैं जो गांधीजी का उदाहरण पूंजीवादी व्यवस्था को कायम रखने के लिए देते हैं.  इस पिछले वर्ग के हथकंडों का अनुमान दिनकरजी को १९५३ में हो चुका था, और उन्होंने बड़ी ही दूरदर्शिता के साथ लिखा था कि मार्क्स की बवंडर लानेवाली बौछार से बचने के निमित्त गांधीवाद का छटा ओढना बेकार होगा. अनर्थपूर्ण संचय को न तो मार्क्सवादी टिकने देंगे, न शायद वे लोग जो गांधीवाद को ख्वाम-ख्वाह समाजवाद सिद्ध करने पर तुले हैं.

कहो, मार्क्स से डरे हुओं का गांधी चौकीदार नहीं है
सर्वोदय का दूत किसी संचय का पहरेदार नहीं है.
आशय में जिसके असत्य, हिंसा से जिसकी कुत्सित काया,
सत्य न देगा धूप, अहिंसा उसे न दे पाएगी छाया. 
(काँटों का गीत)

दुर्भाग्यवश दिनकरजी का यह अनुमान सत्य निकला और सचमुच ही लोग गांधीजी का उद्धरण पूंजीवाद के पक्ष में देने लगे. आज परिस्थिति यह है कि गांधीवाद  के स्वीकृत और अधिकारारूढ़ प्रतिपादक पूर्णरूप से प्रतिक्रियावादी और भ्रष्टाचारी हैं. इस स्थिति के पूर्वाभास से क्षुब्ध होकर उन्होंने १९६० में कवितायें लिखो जो क्रमशः 'कल्पना' और 'आजकल' में प्रकाशित हुई.  मार्क्स के भय से घबराया हुआ धनियों का समाज गांधी को अपना त्राता बनाना चाहता है, यह देश के लिए खतरे की  बात थी और गांधीवाद के लिए घातक, क्योंकि इस प्रकार उसकी कलई खुल गयी. कवि ने भविष्य दृष्टा   की दूरदर्शिता और आत्म-विश्वास के साथ ही गांधीवाद के प्रति कुछ मोह के साथ लिखा है -

ना, गाँधी सेठों का चौकीदार नहीं है,
न तो लोहमय छत्र जिसे तुम ओढ़ बचा लो,
अपना संचित कोष मार्क्स की बौछारों से.
इस प्रकार मत पियो, आग से जल जाओगे,
गांधी शरबत नहीं प्रखर, पावक-प्रवाह था,
घोल दिया यदि इतर कहीं अपनी शीशी का,
अन्लोदक दूषित अपेय यह हो जाएगा.
(तब भी आता हूँ मैं )

इसी भाव को कुछ और सीधे ढंग से उन्होंने एक दूसरी कविता में लिखा है -

कहो सर्वत्यागी वह संचय का संतरी नहीं था,
न तो मित्र उन सांपों का जो दर्शन विरच रहे हैं,
दंश मारने का अपना अधिकार बचा रखने को.
(एक बार फिर स्वर दो )

दिनकरजी का कहना है कि गांधीजी ने देश को स्वराज्य पथ पर अग्रसर किया, यह बड़ी बात हुई. पर गांधीवाद की असली विजय तब होगी जब उसके द्वारा समाजवाद की स्थापना हो जाए. गांधीवाद कसौटी पर चढ़कर खोता हुआ सिद्ध हो चुका है , फिर भी दिनकर को गांधीवाद से पूरी निराशा नहीं हुई थी.

उन्हें पुकारो जो गांधी के सखा-शिष्य सहचर हैं.
कहें, आज पावक मैं उनका कंचन पड़ा हुआ है.
प्रभापूर्ण होकर निकला यह तो पूजा जाएगा,
मलिन हुआ तो भारत की साधना बिखर जाएगी.
(एक बार फिर स्वर दो )

क्रमशः 

अब एक कविता दिनकर जी की एक बार फिर स्वर दो  


इस कविता में  कवि ने देश को आगाह किया है कि यदि गांधीवादी  ढंग से समता नहीं लायी जा सकी तो देश को विप्लव का सामना करना पड़ेगा..

गांधी अगर जीतकर निकले, जलधारा बरसेगी,
हारे तो तूफ़ान इसी उमस से फूट पड़ेगा.

एक बार फिर स्वर दो !

एक बार फिर स्वर दो !
जिस गंगा के लिए भागीरथ सारी आयु तपे थे,
और हुई जो विवश छोड़ अम्बर भू पर बहने को 
लाखों आंसुओं, करोड़ों के हाहाकारों से,
लिए जा रहा इंद्र कैद करने को उसे महल में.
सींचेगा वह गृहोद्यान अपना इसकी धारा से
और भागीरथ के हाथों में डंडा थमा कहेगा,
अगर मार्क्स को मार सके तुम, हम तुमको पूजेंगे,
हार गए तो, गंगा की धारा जो ले आये हो,
उसी धार में बोर-बोर हम तुम्हें मार डालेंगे.

एक बार फिर स्वर दो !
देख रहे हो, गांधी पर कैसी विपत्ति आई है ?
तन तो उसका गया, नहीं क्या मन भी शेष बचेगा ?
अगर चुरा ले गया भाव-प्रतिमा कोई मंदिर से 
उन अपार, असहाय, बुभुक्षित लोगों का क्या होगा,
जो अब भी हैं खड़े मौन गांधी से आस लगा कर ?

ना, गाँधी सेठों का चौकीदार नहीं है,
न तो लोहमय छात्र जिसे तुम ओढ़ बचा लो,
अपना संचित कोष मार्क्स की बौछारों से.
इस प्रकार मत पियो, आग से जल जाओगे,
गांधी शरबत नहीं प्रखर, पावक-प्रवाह था,
घोल दिया यदि इतर कहीं अपनी शीशी का,
अन्लोदक दूषित अपेय यह हो जाएगा.

कहो सर्वत्यागी वह संचय का संतरी नहीं था,
न तो मित्र उन सांपों का जो दर्शन विरच रहे हैं,
दंश मारने का अपना अधिकार बचा रखने को.

उन्हें पुकारो जो गांधी के सखा-शिष्य सहचर हैं.
कहें, आज पावक मैं उनका कंचन पड़ा हुआ है.
प्रभापूर्ण होकर निकला यह तो पूजा जाएगा,
मलिन हुआ तो भारत की साधना बिखर जाएगी.

एक बार फिर स्वर दो !
कहो, शांति का मन अशांत है, बादल घुमड़ रहे हैं,
तप्त, उम्सी हवा टहनियों में छटपटा रही है.
गांधी अगर जीतकर निकले, जलधारा बरसेगी,
हारे तो तूफ़ान इसी उमस से फूट पड़ेगा.
(परशुराम की प्रतीक्षा)

मंगलवार, 26 जून 2012

आज मुझसे बोल, बादल

आज मुझसे बोल, बादल


हरिवंशराय बच्चन

आज मुझसे बोल, बादल!

तम-भरा तू, तम-भरा मैं,
ग़म-भरा तू, ग़म भरा मैं,
आज तू, अपने हृदय से हृदय मेरा तोल, बादल!
आज मुझसे बोल, बादल!

आग तुझमें, आग मुझमें,
राग तुझमें,   राग मुझमें,
आ मिलें हम आज अपने द्वार उर के खोल, बादल!
आज मुझसे बोल, बादल!

भेद यह मत देख दो पल --
क्षार जल मैं, तू मधुर जल,
व्यर्थ मेरे अश्रु , तेरी बूंद है अनमोल, बादल!
आज मुझसे बोल, बादल!

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सोमवार, 25 जून 2012

कुरुक्षेत्र ... सप्तम सर्ग .... भाग -- 6 / रामधारी सिंह दिनकर


नहीं टूटती  तुझ पर सब के 
साथ विपद यह भारी , 
जाग मूढ़ , आगे के हित 
अब भी तो कर तैयारी । 

और , जगा , सचमुच मनुष्य 
पछतावे  से घबरा कर , 
लगा जोड़ने अपना  धन 
औरों की  आँख बचा कर । 

चला एक नर जिधर , उधर ही 
चले सभी नर - नारी , 
होने लगी आत्मरक्षा की 
अलग - अलग तैयारी  । 

 लोभ - नागिनी ने विष फूंका , 
शुरू हो गयी चोरी , 
लूट , मार , शोषण , प्रहार 
छीना - झपटी, बरजोरी । 

छिन्न - भिन्न हो गयी शृंखला 
नर - समाज की सारी , 
लगी डूबने  कोलाहल के 
बीच महि बेचारी  । 

तब आयी तलवार  शमित 
करने को जगद्दहन को 
सीमा में बांधने मनुज की 
नयी लोभ नागिन को । 

और खड्गधर पुरुष विक्रमी 
शासक बना मनुज का 
दण्ड- नीति - धारी त्रासक 
नर- तन में छिपे दनुज का । 

तज समष्टि को व्यष्टि चली थी 
निज को सुखी  बनाने , 
गिरि गहन  दासत्व - गर्त  के 
बीच स्वयं अनजाने । 

नर से नर का सहज प्रेम 
उठ जाता नहीं भुवन से , 
छल करने में सकुचाता यदि 
मनुज कहीं परिजन से । 

रहता यदि विश्वास एक में 
अचल दूसरे नर का 
निज सुख चिंतन में न भूलता 
वह यदि ध्यान अपर  का । 

रहता याद उसे यदि , वह कुछ 
और नहीं है , नर है 
विज्ञ वंशधर मनु का , पशु - 
पक्षी से योनि इतर है  । 

तो न मानता  कभी मनुज 
निज सुख गौरव  खोने में , 
किसी राजसत्ता  के सम्मुख 
विनत दास होने में । 

सह न सका  जो सहज - सुकोमल 
स्नेह सूत्र  का बंधन , 
दण्ड - नीति के कुलिश - पाश में 
अब है बद्ध वही जन । 

दे न सका  नर को नर जो 
सुख - भाग प्रीति से , नय से 
आज दे रहा वही भाग वह 
राज - खड्ड  के भय से । 

अवहेला कर  सत्य- न्याय के 
शीतल उद्दगारों की 
समझ रहा नर आज भली विध 
भाषा तलवारों की  । 

इससे बढ़ कर मनुज - वंश का  
और पतन क्या होगा ?
मानवीय गौरव का बोलो 
और हनन क्या होगा ? 

नर - समाज को एक खड्डधर 
नृपति चाहिए भारी , 
डरा  करें जिससे  मनुष्य 
अत्याचारी , अविचारी । 

नृपति चाहिए , क्योंकि परस्पर 
मनुज लड़ा करते हैं 
खड्ड चाहिए , क्योंकि  न्याय से 
वे न स्वयं डरते हैं । 


रविवार, 24 जून 2012

पुस्तक परिचय - 32 ..... " अनुभूति " / अनुपमा त्रिपाठी


अनुभूति /  अनुपमा त्रिपाठी 

कुछ समय पूर्व  मुंबई प्रवास के दौरान अनुपमा त्रिपाठी जी से मिलने का अवसर  मिला ।उन्होने मुझे अपनी दो पुस्तकें  प्रेम सहित भेंट कीं । जिसमें से एक तो साझा काव्य संग्रह है  एक सांस मेरी  जिसका  सम्पादन सुश्री  रश्मि प्रभा  और श्री  यशवंत माथुर ने किया है ...इस पुस्तक के बारे में  फिर कभी .....

आज मैं आपके समक्ष लायी हूँ अनुपमा जी  की पुस्तक अनुभूति का परिचय । अनुभूति से पहले थोड़ा सा परिचय अनुपमा जी का ... उनके ही शब्दों में --- ज़िंदगी में समय से वो सब मिला जिसकी हर स्त्री को तमन्ना रहती है.... माता- पिता की दी हुयी शिक्षा , संस्कार  और अब मेरे पति द्वारा दिया जा रहा वो सुंदर , संरक्षित जीवन जिसमें वो एक स्तम्भ की तरह हमेशा साथ रहते हैं .... दो बेटों की माँ  हूँ और अपनी घर गृहस्थी में लीन .... माँ संस्कृत की ज्ञाता थीं उन्हीं की हिन्दी साहित्य की पुस्तकें पढ़ते पढ़ते हिन्दी साहित्य का बीज हृदय में रोपित हुआ  और प्रस्फुटित हो पल्लवित हो रहा है ...

साहित्य के अतिरिक्त इनकी रुचि गीत संगीत और नृत्य  में भी है । इन्होने शास्त्रीय संगीत और सितार की शिक्षा ली है । श्रीमती सुंदरी शेषाद्रि से भारतनाट्यम सीखा । युव वाणी : आल इंडिया रेडियो और जबलपुर आकाशवाणी से भी जुड़ी । 2010  में मलेशिया  के टेम्पल  ऑफ फाइन आर्ट्स  में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की शिक्षा भी दी .... आज भी नियमित शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम  देती रहती हैं .....
इनकी रचनाएँ पत्रिकाओं में भी स्थान पा चुकी हैं ....

अनुभूति पढ़ते हुये अनुभव हुआ कि अनुपमा जी जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक दृष्टिकोण  रखती हैं  .....   अपनी बात में वो लिखती हैं ---

जाग गयी चेतना
अब मैं देख रही प्रभु लीला
प्रभु लीला क्या , जीवन लीला
जीवन है संघर्ष तभी तो
जीवन का ये महाभारत
युद्ध के रथ पर
मैं अर्जुन तुम सारथी मेरे
मार्ग दिखाना
मृगमरीचिका नहीं
मुझे है जल तक जाना ।

इस पुस्तक में उनकी कुल 38 कवितायें प्रकाशित हैं .... सभी कवितायें पढ़ कर एक सुखद एहसास हुआ कि  कहीं भी कवयित्रि के मन में नैराश्य  का भाव नहीं है .... हर रचना में जीवन  में आगे बढ़ने की ललक और परिस्थितियों  से संघर्ष करने का उत्साह दिखाई देता है

मंद मंद था हवा का झोंका
हल्की सी थी तपिश रवि की
वही दिया था मन का मेरा
जलता जाता
जीवन ज्योति जलाती जाती
चलती जाती धुन में अपनी
गाती जाती बढ़ती जाती ।

कवयित्री  क्यों कि  संगीत से बेहद जुड़ी हुई हैं तो बहुत सी कविताओं में विभिन्न रागों का ज़िक्र भी आया है ... राग के नाम के साथ जिस समय के राग हैं उसी समय को भी परिलक्षित किया है ..... कहीं कहीं रचना में शब्द ही संगीत की झंकार सुनाते प्रतीत होते हैं ---

जंगल में मंगल हो कैसे
गीत सुरीला संग हो जैसे
धुन अपनी ही राग जो गाये
संग झाँझर झंकार सुनाये
सुन सुन विहग भी बीन बजाए
घिर घिर  बादल रस बरसाए
टिपिर टिपिर सुर ताल मिलाये ।

ईश्वर के प्रति गहन आस्था इनकी  रचनाओं में देखने को मिलती है ---

प्रभु मूरत बिन /चैन न आवत /सोवत खोवत / रैन गंवावत /
या ---
बंसी धुन मन मोह लयी /सुध बुध मोरी बिसर गयी /
या
प्रभु प्रदत्त / लालित्य से भरा ये रूप / बंद कली में मन ईश स्वरूप ।

कहीं कहीं कवयित्रि आत्ममंथन करती हुई दर्शनिकता का बोध भी कराती है

जीवन है तो चलना है / जग चार दिनों का मेला है / इक  रोज़ यहाँ ,इक रोज़ वहाँ / हाँ ये ही रैन बसेरा है ।
सामाजिक सरोकारों को भी नहीं भूली हैं । प्रकृति प्रदत्त रचनाओं का भी समावेश है ---- आओ धरा  को स्वर्ग बनाएँ 

कविताओं की विशेषता है कि  पढ़ते पढ़ते जैसे मन खो जाता है और रचनाएँ आत्मसात सी होती जाती हैं .... कोई कोई रचनाएँ संगीत की सी तान छेड़ देती हैं लेकिन कुछ रचनाएँ ऐसी भी हैं जिनमे गेयता का अभाव है ... लेकिन मन के भावों को समक्ष रखने में पूर्णरूप से सक्षम है । पुस्तक का आवरण  पृष्ठ सुंदर है .... छपाई स्पष्ट है .... वर्तनी अशुद्धि भी कहीं कहीं दिखाई दी .... ब्लॉग पर लिखते हुये  ऐसी अशुद्धियाँ नज़रअंदाज़ कर दी जाती हैं  लेकिन पुस्तक में यह खटकती हैं .... प्रकाशक क्यों कि  हमारे ब्लॉगर साथी ही हैं  इस लिए उनसे विनम्र  अनुरोध है  इस ओर थोड़ी सतर्कता बरतें ।

कुल मिला कर यह पुस्तक पठनीय और सुखद अनुभूति देने वाली है .... कवयित्री को मेरी हार्दिक  बधाई और शुभकामनायें ।



पुस्तक का नाम अनुभूति

रचना कार --    अनुपमा त्रिपाठी

पुस्तक का मूल्य 99 / मात्र

आई  एस बी एन 978-81-923276-4-8

प्रकाशक -  ज्योतिपर्व प्रकाशन / 99, ज्ञान खंड -3 इंदिरापुरम / गाजियाबाद 201012 ।


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