आदरणीय पाठक वृन्द को अनामिका का नमस्कार ! लीजिये साथियो शनैः शनैः दिनकर जी के साहित्यिक सफ़र की यह शृंखला अपने अंतिम पड़ाव पर आ पहुंचा है, देश आजाद हो गया और आप सब के साथ यह शृंखला सांझा करते करते वक़्त कैसे बीत गया पता भी नहीं चला......चलिए आज जानते हैं दिनकर जी की देश के आजाद होने के बाद की दूरदर्शिता और गांधीवाद के प्रति मोह...
लीजिये चार पंक्तियाँ दिनकर जी के ही शब्दों में....
सुनूं क्या सिन्धु, मैं गर्जन तुम्हारा ?
स्वयं युगधर्मं की हुंकार हूँ मैं.
कठिन निर्घोष हूँ भीषण अशनि का
प्रलय गांडीव की टंकार हूँ मैं.
दिनकरजी जिस कोटि के कवि हैं, वह स्वभाव से ही विद्रोही होता है.
उनका अपना भी वही विश्वास है कि क्रोध सामाजिक काव्य का मूल रस है. संतुष्ट कवि कविता नहीं उपदेश और आराधना लिखता है.
स्वराज्य प्राप्ति के बाद भी दिनकरजी को संतोष नहीं हुआ. १९४७ में उन्होंने 'अरुणोदय' शीर्षक कविता लिखकर स्वाधीनता का स्वागत उन्मुक्त भाव से किया था. किन्तु स्वराज्य की पहली वर्षगाँठ के आते-आते उनका उत्साह मद्धिम पड़ गया और वे स्वाधीन भारत में भी असंतोष की कविता लिखने लगे.
किसने कहा, और मत बढो हृदय वह्नी के शर से,
भरो भुवन का अंग कुसुम से, कुंकुम से केसर से ?
कुंकुम लेपूँ किसे ? सुनाऊँ किसको कोमल गान ?
तड़प रहा आँखों के आगे भूखा हिन्दुस्तान !
फूलों की रंगीन लहर पर ओ इतरानेवालो!
ओ रेशमी नगर के वासी ! ओ छवि के मतवालो !
सकल देश में हालाहल है, दिल्ली में हाला है,
दिल्ली में रौशनी, शेष भारत में अंधियाला है !
(समर शेष है )
और ग्रामों की दुखी जनता की विवशता और विस्मय का यह भाव
पूछ रहा है जहाँ चकित हो जन-जन देख अकाज;
सात वर्ष हो गए राह में अटका कहाँ स्वराज ?
गांधीवादी मार्ग से समाजवाद की स्थापना यदि नहीं हुई तो दिनकर जी देश के सामने हलचल और विप्लव से भरा हुआ भविष्य देखते हैं -
बाँध तोड़ जिस रोज फौज खुलकर हल्ला बोलेगी,
तुम दोगे क्या चीज़ ? वही जो चाहेगी सो लेगी !
स्वत्व छीनकर क्रांति छोडती कठिनाई के प्राण,
बड़ी कृपा उसकी, भारत में मांग रही वह दान !
(भूदान)
तोडना है पुण्य तो तोड़ो ख़ुशी से,
जोड़ने का मोह जी का काल होता !
अनसुनी करते रहे इस वेदना को,
एक दिन ऐसा अचानक हाल होगा -
वज्र की दीवार यह फट जायेगी -
लपलपाती आग या सात्विक प्रलय का रूप धरकर
नीव की आवाज बाहर आएगी.
(नीव का हाहाकार)
इस देश में ऐसे भी लोग हैं, जो गांधीजी से समाजवाद की प्रेरणा लेते हैं, और ऐसे भी लोग हैं जो गांधीजी का उदाहरण पूंजीवादी व्यवस्था को कायम रखने के लिए देते हैं. इस पिछले वर्ग के हथकंडों का अनुमान दिनकरजी को १९५३ में हो चुका था, और उन्होंने बड़ी ही दूरदर्शिता के साथ लिखा था कि मार्क्स की बवंडर लानेवाली बौछार से बचने के निमित्त गांधीवाद का छटा ओढना बेकार होगा. अनर्थपूर्ण संचय को न तो मार्क्सवादी टिकने देंगे, न शायद वे लोग जो गांधीवाद को ख्वाम-ख्वाह समाजवाद सिद्ध करने पर तुले हैं.
कहो, मार्क्स से डरे हुओं का गांधी चौकीदार नहीं है
सर्वोदय का दूत किसी संचय का पहरेदार नहीं है.
आशय में जिसके असत्य, हिंसा से जिसकी कुत्सित काया,
सत्य न देगा धूप, अहिंसा उसे न दे पाएगी छाया.
(काँटों का गीत)
दुर्भाग्यवश दिनकरजी का यह अनुमान सत्य निकला और सचमुच ही लोग गांधीजी का उद्धरण पूंजीवाद के पक्ष में देने लगे. आज परिस्थिति यह है कि गांधीवाद के स्वीकृत और अधिकारारूढ़ प्रतिपादक पूर्णरूप से प्रतिक्रियावादी और भ्रष्टाचारी हैं. इस स्थिति के पूर्वाभास से क्षुब्ध होकर उन्होंने १९६० में कवितायें लिखो जो क्रमशः 'कल्पना' और 'आजकल' में प्रकाशित हुई. मार्क्स के भय से घबराया हुआ धनियों का समाज गांधी को अपना त्राता बनाना चाहता है, यह देश के लिए खतरे की बात थी और गांधीवाद के लिए घातक, क्योंकि इस प्रकार उसकी कलई खुल गयी. कवि ने भविष्य दृष्टा की दूरदर्शिता और आत्म-विश्वास के साथ ही गांधीवाद के प्रति कुछ मोह के साथ लिखा है -
ना, गाँधी सेठों का चौकीदार नहीं है,
न तो लोहमय छत्र जिसे तुम ओढ़ बचा लो,
अपना संचित कोष मार्क्स की बौछारों से.
इस प्रकार मत पियो, आग से जल जाओगे,
गांधी शरबत नहीं प्रखर, पावक-प्रवाह था,
घोल दिया यदि इतर कहीं अपनी शीशी का,
अन्लोदक दूषित अपेय यह हो जाएगा.
(तब भी आता हूँ मैं )
इसी भाव को कुछ और सीधे ढंग से उन्होंने एक दूसरी कविता में लिखा है -
कहो सर्वत्यागी वह संचय का संतरी नहीं था,
न तो मित्र उन सांपों का जो दर्शन विरच रहे हैं,
दंश मारने का अपना अधिकार बचा रखने को.
(एक बार फिर स्वर दो )
दिनकरजी का कहना है कि गांधीजी ने देश को स्वराज्य पथ पर अग्रसर किया, यह बड़ी बात हुई. पर गांधीवाद की असली विजय तब होगी जब उसके द्वारा समाजवाद की स्थापना हो जाए. गांधीवाद कसौटी पर चढ़कर खोता हुआ सिद्ध हो चुका है , फिर भी दिनकर को गांधीवाद से पूरी निराशा नहीं हुई थी.
उन्हें पुकारो जो गांधी के सखा-शिष्य सहचर हैं.
कहें, आज पावक मैं उनका कंचन पड़ा हुआ है.
प्रभापूर्ण होकर निकला यह तो पूजा जाएगा,
मलिन हुआ तो भारत की साधना बिखर जाएगी.
(एक बार फिर स्वर दो )
क्रमशः
अब एक कविता दिनकर जी की एक बार फिर स्वर दो
इस कविता में कवि ने देश को आगाह किया है कि यदि गांधीवादी ढंग से समता नहीं लायी जा सकी तो देश को विप्लव का सामना करना पड़ेगा..
गांधी अगर जीतकर निकले, जलधारा बरसेगी,
हारे तो तूफ़ान इसी उमस से फूट पड़ेगा.
एक बार फिर स्वर दो !
एक बार फिर स्वर दो !
जिस गंगा के लिए भागीरथ सारी आयु तपे थे,
और हुई जो विवश छोड़ अम्बर भू पर बहने को
लाखों आंसुओं, करोड़ों के हाहाकारों से,
लिए जा रहा इंद्र कैद करने को उसे महल में.
सींचेगा वह गृहोद्यान अपना इसकी धारा से
और भागीरथ के हाथों में डंडा थमा कहेगा,
अगर मार्क्स को मार सके तुम, हम तुमको पूजेंगे,
हार गए तो, गंगा की धारा जो ले आये हो,
उसी धार में बोर-बोर हम तुम्हें मार डालेंगे.
एक बार फिर स्वर दो !
देख रहे हो, गांधी पर कैसी विपत्ति आई है ?
तन तो उसका गया, नहीं क्या मन भी शेष बचेगा ?
अगर चुरा ले गया भाव-प्रतिमा कोई मंदिर से
उन अपार, असहाय, बुभुक्षित लोगों का क्या होगा,
जो अब भी हैं खड़े मौन गांधी से आस लगा कर ?
ना, गाँधी सेठों का चौकीदार नहीं है,
न तो लोहमय छात्र जिसे तुम ओढ़ बचा लो,
अपना संचित कोष मार्क्स की बौछारों से.
इस प्रकार मत पियो, आग से जल जाओगे,
गांधी शरबत नहीं प्रखर, पावक-प्रवाह था,
घोल दिया यदि इतर कहीं अपनी शीशी का,
अन्लोदक दूषित अपेय यह हो जाएगा.
कहो सर्वत्यागी वह संचय का संतरी नहीं था,
न तो मित्र उन सांपों का जो दर्शन विरच रहे हैं,
दंश मारने का अपना अधिकार बचा रखने को.
उन्हें पुकारो जो गांधी के सखा-शिष्य सहचर हैं.
कहें, आज पावक मैं उनका कंचन पड़ा हुआ है.
प्रभापूर्ण होकर निकला यह तो पूजा जाएगा,
मलिन हुआ तो भारत की साधना बिखर जाएगी.
एक बार फिर स्वर दो !
कहो, शांति का मन अशांत है, बादल घुमड़ रहे हैं,
तप्त, उम्सी हवा टहनियों में छटपटा रही है.
गांधी अगर जीतकर निकले, जलधारा बरसेगी,
हारे तो तूफ़ान इसी उमस से फूट पड़ेगा.
(परशुराम की प्रतीक्षा)