शनिवार, 30 अप्रैल 2011

प्रेमचंदोत्तर उपन्यास-2

clip_image001IMG_0130_thumb[1]                                        मनोज कुमार


सामाजिक यथार्थ के चित्रण और मनुष्य के चातुर्दिक विकास और हित पर विशेष बल देने वालों उपन्यास के परम्परा में शिवपूजन सहाय का नाम भी आता है। शिवपूजन सहाय का जन्म 1893 में बिहार के शाहाबाद ज़िले के उनवास गांव में हुआ था। हाई स्कूल की परीक्षा पास कर हिन्दी शिक्षक नियुक्त हो गए। हिन्दी की पत्रिकाओं ‘मतवाला’, ‘बालक’, ‘आदर्श’, ‘समन्वय’, ‘गंगा’, ‘जागरण’ और ‘साहित्य’ का सम्पादन कार्य किया। छपरा के राजेन्द्र कॉलेज के हिन्दी विभागाध्यक्ष पद को सुशोभित किया। 1960 में पद्मभूषण से सम्मनित किया गया। देहावसान 1963 में हुआ।


इनकी भाषा सहज और स्वाभाविक है। बोल-चाल के व उर्दू शब्दों का प्रयोग हुआ है। भाषा में अनुप्रासों व भाषण कला के दर्शन होते हैं।

इनकी प्रमुख रचनाएं हैं,

१. कहानी संग्रह : विभूति

२. जीवनियां : अर्जुन, भीष्म

३. उपन्यास : देहाती दुनिया

४. संस्मरण : बिहार का विहार

५. शिवपूजन रत्नावली चार खण्डों में।


सियारामशरण गुप्त (जन्म 1896) के ‘गोद’, ‘अंतिम आकांक्षा’, और ‘नारी’ में गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। इनमें व्यक्तिगत चिंतन और अनुभूति स्पष्ट है।


प्रतापनारायण श्रीवास्तव के ‘विजय’, ‘विकास’, ‘बयालीस’, ‘विदा’, ‘बेकसी का मज़ार’ और ‘विसर्जन’ जैसे उपन्यासों में गांधीवादी विचारधारा का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है।



प्रतापनारायण श्रीवास्तव के उपन्यासों की कथावस्तु से भारतीय आदर्श की झलक मिलती है। उनके उपन्यासों में यदि प्रेमचंद जैसी उपदेशात्मकता है तो प्रसाद जैसी दार्शनिकता भी है। वे आध्यात्मिक स्तर पर गांधीवाद, दृदय-परिवर्तन और आत्मपीड़न के सिद्धान्त को मान्यता देते हैं।


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मानवतावादी दृष्टि के उदर से ही उपन्यास के क्षेत्र में सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक शोषण से विद्रोह करनेवाली स्वच्छंदतावादी प्रेमधारा का भी जन्म हुआ। इस काल के उपन्यासों का स्वर शोषित के प्रति सहानुभूति का है। यह विश्वास जताया गया कि जो शोषित है वह यदि शोषण मुक्त हो जाएगा तो उसमें सब प्रकार के सद्गुणों का विकास हो जाता है।


इस परम्परा में वृन्दावन लाल वर्मा ने यदि हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यासों की नींव डाली तो ठीक इसके विपरीत चण्डी प्रसाद हृदयेश ने कल्पना प्रधान-भाव-मूलक उपन्यासों का प्रणयन किया। बाह्य और आभ्यांतर प्रकृति की रमणीयता का समन्वित रूप में चित्रण करने वाले सुंदर और अलंकृत पदविन्यासयुक्त उपन्यास ‘मंगल प्रभात’ उल्लेखनीय है।


वृन्दावनलाल वर्मा का जन्म झांसी के मऊ रानी पुर नामक गांव में 9 जनवरी 1889 में हुआ। पिता अयोध्या प्रसाद स्वतंत्रता संग्राम में मारे गए। परदादी द्वारा सुनाई गई वीरों की कथाएं उनके मन पर अंकित हो गईं। पुरातत्व, मनोविज्ञान, साहित्य, मूर्तिकला, चित्रकला, सितारवादन आदि में रुचि रखने वाले वर्मा जी शिकार के भी शौकीन थे। वकालत छोड़ झांसी में ही रहकर उन्होंने साहित्य साधना की। उनके उपन्यासों के कथानक आदर्श एवं रोमांस की पृष्ठभूमि पर आधारित हैं। जिसमें सांस्कृतिक चेतना राष्ट्रीय गौरव और अतीत के दिनों के कारनामों की स्पष्ट झांकी देखने को मिलती है। इनका देहावसान 23 फ़रवरी 1969 को हुआ। वर्मा जी की प्रमुख रचनाएं


१. ऐतिहासिक उपन्यास : गढ़ कुण्डार, विराटा की पद्मिनी, झांसी की रानी महारानी लक्ष्मी बाई, मुसाहिब जू, कचनार, मृगनैनी, छत्रसाल, सत्रह सौ उन्नीस, ललिता दिव्य, माधवजी सिंधिया टूटे कांटे, अहिल्या बाई।

२. सामाजिक उपन्यास : लगन, प्रेम की भेंट, कुंडली-चक्र, संगम, प्रत्यागत, हृदय की हिलोरें, कभी न कभी, अचल मेरा कोई, अमर बेल, सोना।

३. कहानी संग्रह : हरश्रृंगार, कलाकार का दण्ड, दबे पांव, शरणागत, तोषी।

४. नाटक : सेनापति, ऊदल, फूलों की दीवाली, कश्मीर का कांटा, झांसी की रानी, हंस मयूर, पूर्व की ओर, वीरबल, जहां दाराशाह, धीरे-धीरे, राखी की लाज, बांस की फांस, लो भाई पंचों लो, पीले हाथ, पायल, मंगल सूत्र, सगुन, खिलौनो की खोज, नीलकण्ठ, कनेर, विस्तार, देखादेखी, केवट।


इस परम्परा में जयशंकर प्रसाद (तितली), निराला (अप्सरा, अलका, प्रभावती), भगवती चरण वर्मा (तीन वर्ष, चित्रलेखा), और उषा देवी मित्रा (प्रिया) का योगदान उल्लेखनीय है।


हालाकि प्रेमचंद्रोत्तर काल में स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति का ह्रास हो गया था लेकिन यह ऐसी प्रवृत्ति है जो कभी मर नहीं सकती। विद्वानों का तो यह भी मानना है कि यह प्रवृत्ति मन्मथनाथ गुप्त, यशपाल और राहुल सांकृत्यायन जैसे लेखकों में भी मौज़ूद है। वैसे किसी रचना में किसी प्रवृत्ति का होना एक बात है और उसका प्रधान होना दूसरी बात।

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

मेरी कविताएं तो होंगी

मेरी कविताएं तो होंगी

प्रेमसागर सिंह


मेरे उस दिन न होने पर भी
मेरी कविताएं तो होंगी!

गीत होंगे !
सूरज की ओर मुंह किए खड़ा
कनैल का झाड़ तो होगा!


प्यार के दिनों में भींगी
पुरानी चिट्ठियां
पसंद के कपडे़ की तरह
सहेजी हुई होंगी तो !


मैं उस दिन न होउं तो भी
होंगी तो मेरी कविताएं!


पढ़ाई की मेज पर
मेरी प्रिय कविताएं
करीने से सजाई हुई होंगी
पहले की तरह
दोनों आंखों को स्पर्श करा देना
मेरी कविता को मेरी कापी को ।


तब धीरे ,बहुत धीरे
तुम्हारे हृदय से
बह चलेगी सुरभित हवा
मैं उस दिन न होंउँ तो भी
होंगी मेरी कविताएं
मेरे गीत।
__________________________________

प्रेमसागर सिंह

बुधवार, 27 अप्रैल 2011

राजभाषा विकास परिषद: सामान्य रूप से प्रयुक्त हिंदी शब्दों के निर्माण की प्रक्रिया

राजभाषा विकास परिषद: सामान्य रूप से प्रयुक्त हिंदी शब्दों के निर्माण की प्रक्रिया

उपन्यास साहित्य-प्रेमचंदोत्तर उपन्यास


    प्रेमचंदोत्तर उपन्यास


:

१. प्रेमचंद के निधन (1936) से स्वतंत्रता प्राप्ति (1947) तक

(क) सामाजिक एवं मानवतावादी उपन्यास :

इस चरण में उपन्यास साहित्य काफ़ी समृद्ध हुआ। यह एक बड़ी शक्ति के रूप में स्थापित होने लगा। उपन्यासकारों ने न सिर्फ़ समाज के विभिन्न रूपों, प्रवृत्तियों, आदि का विस्तृत प्रत्यक्षीकरण किया बल्कि साथ ही साथ उसके निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न किया। गांधी जी के नेतृत्व में स्वाधीनता संग्राम तो चल ही रहा था। मज़दूरों का अन्दोलन भी बढ रहा था। धीरे-धीरे राजनीति में वामपंथी विचारधारा का ज़ोर बढता गया। साहित्यकारों में भी हलचल दिखाई दी। 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। प्रेमचंद जी इसके सभापति हुए। फलस्वरूप साहित्य के संघटित रूप से आंदोलन और प्रचार शुरु हुआ, जिसे आगे चलकर प्रगतिवादी साहित्य नाम दिया गया।


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मानवतावादी लेखक मनुष्य को पशु-सामान्य धरातल से ऊपर का प्राणी मानता है। वह त्याग और तप को मनुष्य का वास्तविक धर्म मानता है। वह विश्वास करता है हालाकि मनुष्य में बहुत पशु-सुलभ वृत्तियां रह गई हैं, फिर भी वह पशु नहीं है। वर्षों की साधना से उसने अपने भीतर त्याग, तप, सौंदर्य-प्रेम और पर-दुख-कातरता जैसे गुणों का विकास किया है। ये गुण ही मनुष्य की निशानी हैं। उसके भीतर संभावनाएं अनेक हैं। इसी मर्त्यलोक को अद्भुत अपूर्व शांतिस्थल बनाने की क्षमता इस मनुष्य में है।

प्राचीन धर्मभावना में मनुष्य को परलोक में सुखी बनाने का संकल्प था। मानवतावदी दृष्टिकोण स्पष्ट रूप से प्राचीन धर्मभावना के विपरीतगामी था। परिणामस्वरूप आचारों, विश्वासों और क्रियाओं के मूल्य में अंतर आया। ईश्वर और मोक्ष को मानना गौण बात हो गई, मनुष्य को इसी लोक में सुखी बनाना मुख्य।

यह परम्परा मूलतः प्रेमचंद की ही परम्परा है, जिसमें सामाजिक यथार्थ के चित्रण को और मनुष्य के चतुर्दिक विकास और हित पर विशेष बल दिया गया है। प्रेमचंद जी का ‘सेवासदन’, ‘निर्मला’ और ‘गोदान’ पारस्परिक संबंधों की मार्मिकता पर प्रधान लक्ष्य रखने वाले उपन्यास हैं। प्रेमचंद ने अपने एक मौजी पात्र से कहलवाया है,

“जो यह ईश्वर और मोक्ष का चक्कर है इस पर तो मुझे हंसी आती है। यह मोक्ष और उपासना अहंकार है जो हमारी मानवता को नष्ट किए डालती है। जहां जीवन है, क्रीड़ा है, चहक है, प्रेम है, वहीं ईश्वर है, और जीवन को सुखी बनाना ही मोक्ष और उपासना है ज्ञानी कहता है होठों पर मुस्कराहट न आवे, आंखों में आंसू न आवे। मैं कहता हूं, अगर तुम हंस नहीं सकते, रो नहीं सकते, तो तुम मनुष्य नहीं पत्थर हो। वह ज्ञान जो मानवता को पीस डाले, ज्ञान नहीं कोल्हू है।”

विश्वंभर नाथ कौशिक के उपन्यासों में प्रेमचंद के ही सिद्धांत दृष्टिगोचर होते हैं, जैसे ‘मां’ और ‘भिखारिणी’। ‘कौशिक’ जी का जन्म 1891 में अम्बाला छावनी के निकट हुआ था। चार वर्ष की अवस्था में ही उनके कानपुर निवासी बाबा ने उन्हें दत्तक पुत्र बना लिया था। उनकी शिक्षा मैट्रिक तक ही हुई थी। घर पर ही उन्होंने हिन्दी और संस्कृत का अध्ययन किया था। वे पहले उर्दू में लिखते थे। बाद में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी की प्रेरणा से हिन्दी में लिखने लगे। उनकी सबसे पहली कहानी ‘रक्षाबन्धन’ 1911 में ‘सरस्वती’ मे प्रकाशित हुई थी। उनके कहानी संग्रह हैं : चित्रशाला, मणीमाला, गल्प मन्दिर, और कल्लोल। ‘दुबे जी का चिट्ठा’ उनकी हास्य-रस की रचना है।

कौशिक जी के अतिरिक्त इस युग के उपन्यासकारों में सियारामशरण गुप्त, पाण्डेय बेचन शर्मा उग्र, प्रतापनारायण श्रीवास्तव (‘विदा’, ‘विकास’, ‘विजय’), अमृतलाल नागर (बूंद और समुद्र, सुहाग के नुपूर), विष्णु प्रभाकर, उदय शंकर भट्ट, आचार्य चतुर सेन शास्त्री (हृदय की प्यास), भगवती चरण वर्मा (चित्रलेखा, तीन वर्ष), भगवती प्रसाद वाजपेयी, शिवपूजन सहाय, वृन्दावन लाल वर्मा, उषा देवी मित्रा, चण्डी प्रसाद हृदयेश, राजा राधिका रमण सिंह, अयोध्या सिंह उपाध्याय, ऋषभ चरण जैन, श्रीनाथ सिंह, अवधनारायण, गोविन्दवल्लभ पंत, अनूपलाल मंडल, नरोत्तम दास नागर, उदयशंकर भट्ट, राहुल सांकृत्यायन (सिंह सेनापति, जय यौधेय), मोहनलाल महतो वियोगी, धर्मेन्द्र, अंचल आदि ने भी उपन्यास लिख कर साहित्य की श्रीवृद्धि की।

भगवती प्रसाद वाजपेयी का जन्म कानपुर के मंगलपुर नामक गांव में संवत्‌ १९५६ (1899 ई.) मे हुआ था। प्रारम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई। मिडल पास करने के बाद गाम के ही विद्यालय में पढाने लगे। किन्तु विद्याध्ययन नहीं छोड़ा। कुछ दिनों बाद नौकरी छोड़ होमरूल लीग पुस्तकालय के पुस्तकालयाध्यक्ष हो गए। यहां अंग्रेज़ी का ज्ञान प्राप्त किया। संसार नामक अखबार में पहले प्रूफ़रीडर का कम संभाला बाद में उसके प्रमुख संपादक भी हो गए। कुछ समय तक पुस्तक प्रकाशक और पुस्तक विक्रेता भी रहे। सिनेमा के लिए गीत और संवाद भी लिखा। उनका मानना था कि आज के मानव की मुक्ति पीड़ा में नहीं है, जीवन की आर्थिक विषमताओं को दूर करने में है।
उनकी प्रमुख रचनाएं हैं,

१. उपन्यास : प्रेमपथ, मीठी चुटकी, अनाथ पत्नी, त्यागमयी, प्रेम निर्वाह, पतिता की साधना, पिपासा, दो बहनें, निमन्त्रण, गुप्त धन, चलते-चलते, पतवार, धरती की सांस, मनुष्य और देवता।

२. कहानी संग्रह : मधुपर्व, दीप, मालिका, हिलोर, पुष्करिणी, खाली बोतल, मेरे सपने, ज्वार भाटा, कला की दृष्टि, उपहार, अंगारे, उतार-चढ़ाव।

३. नाटक : छलना।

४. कविता संग्रह : ओस के बूंद।

५. बाल साहित्य : आकास-पाताल की बातें, बालकों के शिष्टाचार, शिवाजी, बालक प्रह्लाद, बालक ध्रुव, हमारा देश, नागरिक शास्त्र की कहानियां, प्रौढ़ शिक्षा की योजना।

६. संपादित : प्रतिनिधि कहानियां, हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियां, नव कथा, नवीन पद्य संग्रह, युगारम्भ।

सोमवार, 25 अप्रैल 2011

राजभाषा विकास परिषद: संप्रेषण (कम्यूनिकेशन) और भाषा की भूमिका

राजभाषा विकास परिषद: संप्रेषण (कम्यूनिकेशन) और भाषा की भूमिका

‘रश्मिरथी’ के रचयिता ‘दिनकर’

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी की पुण्य तिथि 24 अप्रैल के अवसर पर हमने कल एक आलेख प्रस्तुत किया था। आज प्रस्तुत है


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[19012010014[4].jpg]डॉ. रमेश मोहन झा

मो. नं. 09433204657

डॉ० रमेश मोहन झा जे.एन.यू नई दिल्ली से एम.ए, एम.फिल प्राप्त प्रसिद्द आलोचक प्रो० नामवर सिंह के निर्देशन में पीएच.डी कर संप्रति हिंदी शिक्षण योजना, राजभाषा विभाग, गृह मंत्रालय, कोलकाता से संबद्ध हैं !! वागर्थ, दस्तावेज, प्रतिविम्ब, कथादेश, कथाक्रम, साक्षात्कार प्रभृति हिंदी पत्र-पत्रिकाओं में आलेख समीक्षा आदि का नियमित प्रकाशन!


आधुनिक हिन्दी काव्य के पुरोधा, मिट्टी की सुगंध के अमर गायक, प्राची के आलोकधन्वा और युगधर्म की हुंकार राष्ट्रकवि स्वर्गीय रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का ‘रश्मिरथी’ कथावस्तु, शील निरुपण और संवाद योजना की दृष्टि से एक लब्ध प्रतिष्ठित प्रबंध काव्य ही नहीं अपितु काव्य प्रयोजन की दृष्टि से भी स्वयं युगधर्म की हुंकार माना जा सकता है। छायावाद की कुहेलिका को चीरकर आधुनिक हिन्दी काव्य कमल को जीवन की वास्तविकता एवं मिट्टी की गंध से परिपूरित करने वाले मानवतावादी ‘दिनकर’ का हृदय ‘कुरुक्षेत्र’ में युद्ध के लिए युद्ध का तांडव करने के कारण घबड़ा गया। तब उन्होंने रश्मिरथी के कर्ण के बहाने दलितों, पीड़ितों के उद्धार का आदर्श प्रस्तुत करके अपने को पीड़ा मुक्त करने का प्रयास किया है। ‘रश्मिरथी’ का प्रयोजन या उद्देश्य तो सूर्य के प्रकाश या चांद की चादनी या फूलों की ख़ुश्बू या धन्वा की टंकार के समान इस काव्य के नायक महारथी महादानी कर्ण के शील संदेश और आदर्श में सन्निहित है। काव्य के चतुर्थ सर्ग में देवराज इन्द्र के संदर्भ में कर्ण ने जो अपने संदेश और आदर्श की व्याख्या की है, वही वस्तुतः इस काव्य का उद्देश्य या प्रयोजन की रीढ़ की हड्डी है।


फिर कहता हूं नहीं व्यर्थ राधेय यहां आया है,

एक नया संदेश विश्व के हित वह भी लाया है।

मैं उनका आदर्श कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,

पूछेगा जग किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे।

जिनका निखिल विश्व में, कोई कहीं न अपना होगा,

मन में उमंग लिए चिरकाल कल्पना होगा।

वस्तुतः यही वह मूल प्रयोजन है जो इस पौराणिक काव्य की आधुनिक युग जीवन को गौरव और अर्थकत्ता प्रदान करता है। साथ ही आर्थिक विषमता, रंगभेद, नीति, जाति, कुल सम्प्रदाय एवं साम्राज्यवाद से पीड़ित विश्व-मानव से रिश्ता जोड़ता है।

‘रश्मिरथी’ एक ऐसी रचना है जिसके पौरुष में पुनीत अनल में जातिवाद, संप्रदायवाद जलकर खाक हो जाते हैं। यह काव्य दैववाद के प्रत्याख्यान की जगह मानवतावाद की स्थापना का पुण्य प्रयास है, नियतिवाद का विरोध और कर्मवाद का जयघोष है। मानवीय उद्यम के द्वारा पृथ्वी पर स्वर्ग उतारने की सफल साधना है। इस स्वार्थपूर्ण सृष्टि से आत्मदान का शंखनाद एवं मानव की उच्चाभिलाषा एवं कर्म का दर्प-स्फीत जयगान है।

विप्र वेशधारी छली देवराज इन्द्र को कवच-कुंडल दान के पूर्व महादानी कर्ण ने अपनी करूण जीवन गाथा का वर्णन करते हुए विश्व को एक नया संदेश और आदर्श प्रदान किया है। जीवन जय के लिए कर्ण ने शूरधर्म पर प्रकाश डालते हुए कहा है –


“कि शूर जो चाहे कर सकता है,

और नियति भाल पर पुरुष पांव निज धर सकता है।”

मानवशक्ति का निवास स्थान, वंश या कुल नहीं अपितु वीर पुरुषों का पृथुल वक्ष है। इस काव्य में उन्होंने संदेश दिया है कि चाहे धर्म धोखा दे या पुण्य ज्वाला बन जाए, लेकिन “मनुष्य तब भी न कभी सुपथ से टल सकता है।” विजय मानव का लक्ष्य है। लेकिन विजय तिलक लिए कुपथ पर चलना पाप है।

इस प्रकार ‘रश्मिरथी’ मानवतावाद की स्थापना पर ज़ोर देते हुए भाग्यवाद की जगह कर्मवाद का शंखनाद है। देवराज इन्द्र को चुनौती देते हुए कर्ण ने कहा है,


विधि ने था क्या लिखा भाग्य में यह खूब जानता हूं मैं,

बाहों को कहीं भाग्य से बलि मानता हूं मैं,

महाराज, उद्यम से विधि का अंक उलट जाता है,

किस्मत का पासा पौरूष से हार पलट जाता है।

‘रश्मिरथी’ समता और मानवता के धरातल पर खड़ा महाकवि ‘दिनकर’ का युगधर्मी शंखनाद है जिसकी गूंज से विषमताओं और रूढ़ियों की बेड़ियां खुल जाती हैं और वसुंधरा पर कर्ण के सपनों के अनुसार एक नए समाज के सूर्योदय की संभावना बढ़ जाती है।

रविवार, 24 अप्रैल 2011

दिनकर जी की पुण्य तिथि पर …

रामधारी सिंह ‘दिनकर’

जन्म : रामधारी सिंह दिनकर का जन्म बिहार के मुंगेर (अब बेगूसराय) ज़िले के सिमरिया गांव में बाबू रवि सिंह के घर 23 सितम्बर 1908 को हुआ था।

शिक्षा और कार्यक्षेत्र : ढाई वर्ष की उम्र में पिता जी का देहांत हो गया। गांव से लोअर प्राइमरी कर मोकामा से मैट्रिक किया। 1932 में पटना विश्वविद्यालय के पटना कॉलेज से इतिहास में बी.ए. (प्रतिष्ठा) की परीक्षा पास करने के बार वे कुछ दिनों के लिए बरबीघा उच्च माध्यमिक विद्यालय में प्रधानाध्यापक का काम किए। उसके बाद सरकारी नौकरी में चले आए और निबन्धन विभाग के अवर-निबंधक के रूप में 1934 से 1942 तक रहे। 1943 से 1945 तक सांग पब्लिसिटी ऑफीसर, फिर जनसम्पर्क विभाग के उपनिदेशक पद पर 1947 से 1950 तक रहे। उसके बाद उन्होंने 1950 से 1952 तक लंगट सिंह महाविद्यालय, मुज़फ़्फ़रपुर के हिन्दी प्रध्यापक के अध्यक्ष पद को संभाला।

स्वंत्रता मिली और पहली संसद गठित होने लगी तो वे कांग्रेस की ओर से भारतीय संसद के सदस्य निर्वाचित हुए और राज्यसभा के सदस्य के रूप में 1952 से 1963 तक रहे। 1963 से 1965 तक भागलपुर विश्वविद्यालय के उपकुलपति भी रहे। अंततः 1965 से 1972 तक भारत सरकार के गृह-विभाग में हिन्दी सलाहकार के रूप में हिन्दी के संवर्धन और प्रचार-प्रसार के लिए काफ़ी काम किया।

पुरस्कार व सम्मान :

१. कुरूक्षेत्र के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा, उत्तरप्रदेश सरकार और भारत सरकार सम्मान मिला

२. ‘संस्कृति के चार अध्याय’ के लिए उन्हें 1959 में साहित्य अकादमी से सम्मानित किया गया।

३. 1959 में भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उन्हें पद्म विभूषण से किया विभूषित किया।

४. भागलपुर विश्वविद्यालय के तात्कालीन कुलाधिपति और बिहार के राज्यपाल जाकिर हुसैन, जो बाद में भारत के राष्ट्रपति बने, ने इन्हें डी. लिट. की मानद उपाधि प्रदान की।

५. 1972 में ‘उर्वशी’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ के सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

मृत्यु : 24 अप्रैल 1974 को हृदय गति रुक जाने से उनका देहांत हो गया।


 

:: प्रमुख रचनाएं ::

:: काव्य रचनाएँ :: चक्रवाल, रेणुका , हुंकार, द्वन्द्वगीत, रसवंती, सामधेनी, कुरुक्षेत्र, बापू, धूप और धुआं, रश्मिरथी, नील कुसुम, नये सुभाषित, उर्वशी, परशुराम की प्रतीक्षा, हाहाकार,आत्मा की आंख, हारे को हरिनाम, संचयिता तथा रश्मि लोक।

:: गद्य रचनाएं :: मिट्टी की ओर, अर्द्धनारीश्वर, भारतीय संस्कृति के चार अध्याय, शुद्ध कविता की खोज, रेती के फूल, उजली आग, काव्य की भूमिका, प्रसाद, पंत और मैथिली शरण गुप्त, लोकदेव नेहरू, हे राम, देश-विदेश, साहित्यमुखी।

:: साहित्यिक योगदान ::

‘दिनकर’ जी के मानस पर तुलसीदास जी के ‘रामचरितमानस’ और मैथिलीशरण गुप्त और माखनलाल चतुर्वेदी की रचनाओं का काफ़ी प्रभाव पड़ा। देश का स्वतंत्रता संग्राम, विश्व-स्तर पर स्वातन्त्र्य-कामियों के संघर्ष, गांधी जी के कार्य और विचार, लेनिन के नायकत्व में निष्पादित क्रान्ति, भगत सिंह की और गणेश शंकर विद्यार्थी की शहादतें, स्वामी सहजानन्द सरस्वती का किसान आन्दोलन, स्वामी विवेकानन्द, राजा राममोहन राय, स्वामी दयानन्द सरस्वती, द्वितीय विश्वयुद्ध, आदि ने उनके मन पर गहरी छाप छोप छोड़ा।

‘दिनकर’ जी का मुख्य आधार है कविता। बारदोली सत्याग्रह के दौरान उनकी सर्वप्रथम प्रकाशित रचना ‘बारदोली विजय’ रीवां (मध्य प्रदेश) की ‘छात्र-सहोदर’ नामक पत्रिका में छपी थी, जिसमें राष्ट्रीयता के गीत थे।

1929 में पुस्तक रूप में ‘प्रणभंग’ नामक पहलाखण्ड-काव्य प्रकाशित हुआ, जिसमें उन्होंने लिखा था,

तोड़ी प्रतिज्ञा कृष्ण ने, विजयी बनाने पार्थ को

अघ ने क्या, नय छोड़ना लखकर स्वजन के स्वार्थ को।

‘रे रोक युधिष्ठिर को न यहां, जाने दे उनको स्वर्ग धीर, पर, फिरा हमें गाण्डीव-गदा, लौटा दे अर्जुन-भीम वीर।’ पंक्तियों के रचयिता राष्ट्रकवि के रूप में प्रसिद्ध दिनकर जी को राष्ट्रीयता का उद्घोषक और क्रान्ति का उद्गाता माना जाता है। उन्होंने आज़ादी के आंदोलन के दौतान लिखना शुरु किया था। ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘सामधेनी’ आदि की कविताएं स्वतंत्रता सेनानियों के लिए बड़ी प्रेरक साबित हुईं।

श्वानों को मिलता दूध-वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,

मां की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं।

युवती के लज्जा-वसन बेच जब व्याज चुकाये जाते हैं,

मालिक जब तेल-फुलेलों पर पानी-सा द्रव्य बहाते हैं,

पापी महलों का अहंकार तब देता मुझको आमंत्रण,

झन-झन-झन-झन-झन-झनन-झनन।

1935 में प्रकाशित ‘रेणुका’ में ‘दिनकर’ जी के राष्ट्रीय चेतना के प्रखर स्वर के साथ ही रोमांटिकता और कोमल भावनाओं की क्षीण धारा भी प्रकट हुई है।

फूलों की क्या बात? बांस की हरियाली पर मरता हूं।

अरी दूब, तेरे चलते, जगती का आदर करता हूं।

वह कोमल भावना ‘रसवन्ती’ में सुविकसित होती है। यह इनकी वैयक्तिक भावनाओं से युक्त श्रृंगार परक काव्य-संग्रह है।

पड़ जाता चस्का जब मोहक, प्रेम-सुधा पीने का,

सारा स्वाद बदल जाता है, दुनिया में जीने का।

मंगलमय हो पंथ सुहागिनी, यह मेरा वरदान,

हरसिंगार की टहनी-से, फूलें तेरे अरमान।

वही कोमल भावना ‘उर्वशी’ के रूप में मनमोहिनी सिद्ध हुई। ‘उर्वशी’ हिन्दी साहित्य का गौरव-ग्रन्थ है। यह कामाध्यात्म संबंधी महाकाव्य है, जिसमें प्रेम या काम भाव को आध्यात्मिक भूमि पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया गया है।


 

जब से हम-तुम मिले, न जानें कितने अभिसारों में


 

रजनी कर श्रृंगार सितासित नभ में घूम चुकी है,

जानें, कितनी बार चन्द्रमा को, बारी-बारी से,

अमा चुरा ले गयी और फिर ज्योत्सना ले आयी है।

राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रीय स्वाभिमान का सबसे ज्वलन्त रूप प्रकट हुआ है उनकी सुविख्यात लम्बी कविता ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ में। इसमें कवि ने राष्ट्रीय गौरव की रक्षा के लिए भारतीय जनता के शौर्यभाव को जगाने के लिए अत्यंत ओजभाव से युक्त वाणी का प्रयोग किया है।

वे देश शांति के सबसे शत्रु प्रबल हैं,

जो बहुत बड़े होने पर भी दुर्बल हैं,

हैं जिनके उदर विशाल, बांह छोटी है,

भोथरे दांत, पर जीभ बहुत मोटी है।

औरों के पाले जो अलज्ज पलते हैं,

अथवा शेरों पर लदे हुए चलते हैं।

युद्ध और शान्ति की समस्या का द्वन्द्व ‘कुरुक्षेत्र’ में व्यक्त हुआ है।

क्षमा शोभती उस भुजंग को जिसके पास गरल हो

उसको क्या जो दंतहीन विषहीन विनीत सरल हो

गद्य में भी वे अप्रतिम रहे हैं। उनका गहन अध्ययन और सुगम्भीर चिन्तन गद्य में मार्मिक अभिव्यक्ति पाता है। उनके गद्यों में विषयों की विविधता और शैली की प्रांजलता के सर्वत्र दर्शन होते हैं। उनका गद्य साहित्य काव्य की भांति ही अत्यंत सजीव और स्फ़ूर्तिमय है तथा भाषा ओज से ओत-प्रोत। उन्होंने अनेकों अनमोल ग्रंथ लिखकर हिन्दी साहित्य की वृद्धि की। साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ‘संस्कृति के चार अध्याय’ एक महान ग्रंथ है। इसमें उनकी गहन गवेषणा, सूक्ष्म अन्वेषण, भारतीय संस्कृति से उद्दाम प्रेम प्रकट हुआ है।

मानवता के प्रति प्रतिबद्धता, दलितों की दुर्दशा पर उत्साहपूर्ण रोष, गहन भारत-प्रेम और भारत-धर्म के परिपूर्णतम अभिव्यक्ति उनके साहित्य के सुन्दरतम लक्षण हैं।

दलित हुए निर्बल सबलों से, मिटे राष्ट्र उजड़े दरिद्र जन,

आह! सभ्यता आज कर रही असहायों का शोणित शोषण।

क्रान्ति-धात्रि कविते! जाग उठ, आडम्बर में आग लगा दे;

पतन, पाप, पाखण्ड जलें, जग में ऐसी ज्वाला सुलगा दे।

उन्होंने काव्य, संस्कृति, समाज, जीवन आदि विषयों पर बहुत ही महत्वपूर्ण प्रश्न उठाए हैं।

ऋण-शोधन के लिए दूध-घी बेच-बेच धन जोड़ेंगे,

बूंद-बूंद बेचेंगे, अपने लिए नहीं कुछ छोड़ेंगे।

शिशु मचलेंगे, दूध देख, जननी उनको बहलाएगी,

मैं फाड़ूंगा हृदय, लाज से आंख नहीं रो पायेगी।

इतने पर भी धनपतियों की उनपर होगी मार,

तब मैं बरसूंगी बन बेबस के आंसू सुकुमार।

उनका अन्तिम कविता-संग्रह ‘हारे को हरि नाम’ 1971 में प्रकाशित हुआ।

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

राजभाषा विकास परिषद: दूरदर्शन व आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारणों की हिंदी भाषा- कठिनता और समझ में आने के आरोप और परख की कसौटी

राजभाषा विकास परिषद: दूरदर्शन व आकाशवाणी के राष्ट्रीय प्रसारणों की हिंदी भाषा- कठिनता और समझ में आने के आरोप और परख की कसौटी

प्रेमचंद साहित्यिक योगदान - 3

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                                                   मनोज कुमार

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यथार्थवाद से तात्पर्य उस दृष्टिकोण का है जिसमें कलाकार अपने व्यक्तित्व को यथासंभव तटस्थ रखते हुए वस्तु को, जैसी वह है वैसी ही देखता है और चित्रित करता है – अर्थात्‌ यतार्थवाद के लिए वस्तुगत दृष्टिकोण अनिवार्य है।


 


कलाकार जब वस्तु पर अपने भाव और कल्पना का आरोप कर देता है और उसको स्वप्नों के रंगीन आवरण में लपेटकर देखता है और चित्रित करता है, तो उसका दृष्टिकोण रोमानी हो जाता है।


कलाकार जब वस्तु पर अपने भाव और विवेक का आरोप कर देता है और उसे अपने आदर्श के अनुकूल गढ़ता है उसका दृष्टिकोण आदर्शवादी बन जाता है।


प्रेमचंद का व्यक्तित्व साधारण और व्यावहारिक था। साथ ही उनके जीवन के आदर्श भी प्रत्यक्ष और सुनिश्चित थे। अतएव उन्होंने व्यावहारिक धरातल पर ही आदर्शवाद की प्रतिष्ठा की है। उनका आदर्शवाद रोमानी आदर्शवाद नहीं है, व्यावहारिक आदर्शवाद है। उन्होंने बहुत विस्तृत क्षेत्र का चित्रण किया है। निम्न और मध्यम श्रेणी के पात्रों के चित्रण में उन्हें सफलता मिली। यथार्थ और आदर्श के चित्रण के समन्वय से इस चित्रण में एक स्वाभाविकता है। उनका मानना था कि यथार्थवाद हमारी आंखें खोल देता है तो आदर्शवाद ऊंचा उठाकर किसी मनोरम स्थान पर पहुंचा देता है। किसी देवता की कामना करना मुमकिन है लेकिन उसमें प्राण-प्रतिष्ठा करना मुश्किल है। यथार्थ और आदर्श के समन्वय से उन्होंने अपने पात्रों में सच्ची प्राण-प्रतिष्ठा की। मानवीय दुर्बलता उनके पात्रों में मिलती है। लेकिन ऐसी दुर्बलताएं ही मनुष्य को मनुष्य बनाती है। अन्यथा निर्दोष चरित्र तो देवताओं में ही मिल सकता है। साहित्य में होरी, धनिया और गोबर जैसे 'सर्वहारा' पात्रों को स्थान दिलाने का श्रेय भी प्रेमचंद को ही है।

पुरातन काल से चले आ रहे आदर्श साहित्य को प्रगतिवाद का यथार्थ मुँह चिढाने लगा था। प्रेमचंद ने प्रगतिवादी साहित्य को नयी दिशा दी --
आदर्शोन्मुख यथार्थवाद।

सेवासदन की कुलीन नायिका सुमन अभाव और कुरूतियों के दंश से तबायफ हो जाती है किन्तु देह का सौदा नहीं करती। यही था प्रेमचंद का आदर्शोन्मुख यथार्थवाद।

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प्रेमचंद का साहित्य ग़रीब जनता का साहित्य है। उन्होंने जीवन को बहुत नज़दीक से देखा था। गरीबी, संघर्ष व त्‍याग का जीवन अपनाते हुए उन्‍होंने कई बार बड़े से बड़े प्रलोभन ठुकरा दिए। देहाती किसान के रूप में सादा जीवन व्‍यतीत करने वाले प्रेमचंद में अंहकार नाम मात्र का भी नहीं था। जीवन की सभी प्रकार की कटुता सहकर भी वे हमेशा प्रसन्‍नचित आगे बढ़ते रहे। वे गरीबी में जन्‍में, अभावों में पले बढ़े और दरिद्रता से जूझते हुए ही संसार से चले गए।

उनके उपन्यासों में निम्न और मध्यम श्रेणी के गृहस्थों के जीवन का बहुत सच्चा रूप मिलता है। ग्रामीण जीवन को उन्होंने बिना किसी वाद की ओर देखे अपने उपन्यासों में चित्रित किया है। वे अपने पात्रों को ऐसा सजीव चित्र देते हैं कि पाठक की उससे सहानुभूति सहज ही प्राप्त हो जाती है। पुरुष-पात्रों के साथ-साथ उन्हें नारी-पात्र के चरित्र चित्रण में भी सफलता मिली है। सच तो यह है कि समाज के सभी वर्ग के पात्रों का चरित्र अपने-अपने अनुरूप समान स्थान पाता है।

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उनका सबसे प्रधान गुण है उनकी व्यापक सहानुभूति। उनके व्यक्तित्व का मानव पक्ष अत्यंत विकसित था। इनके उपन्यास और कहानियों में समाज के हर वर्ग का प्रतिनिधित्व है, चाहे अभिजात वर्ग हो या उच्च वर्ग हो, चाहे मध्यम वर्ग और दलित वर्ग हो। सत्‌ और असत्‌, भला और बुरा दो सर्वथा भिन्न वर्ग करके पात्र निर्माण करने की अस्वाभिक प्रथा को उन्होंने तोड़ा।

डॉ. नगेन्द्र का मत है,

“इसका अर्थ यह नहीं कि उनको सत्‌-असत्‌ की चेतना नहीं थी। नहीं, यह चेतना उनकी सर्वथा निर्भ्रांत थी और इस विषय में उनका दृष्टिकोण पूर्णतया निश्चित और स्थिर था। परंतु उनके मन में घृणा नहीं थी। उनके मन में मानव के प्रति सहज आत्मीय भाव था। वे उसके पाप से अवगत थे। पाप का उन्होंने निर्मम होकर तिरस्कार किया है, परन्तु पाप को छोड़ उन्होंने कभी पापी से घृणा नहीं की।”

इस संदर्भ में राजेन्द्र यादव के भी विचार सामने रख लें,

“मूलतः उनकी समस्या तत्कालीन दृष्टि से वांछनीय-अवांछनीय, शुभ-अशुभ के चुनाव की है। परिणति वांछनीय और शुभ की ओर उन्मुख होने की है। वह समस्या और उसका हल साथ ही देते हैं।”

रूढ़ियों की छाया में उनके मानसिक विकारों और धार्मिक भावनाओं के शरणागत शोषण के विकृत व्यवहारों आदि का सजीव चित्रण देखने को मिलता है। उन्होंने पूंजीवादियों और ज़मींदारों के दोषों को क्षमा नहीं किया, किंतु साथ ही उनकी तकलीफ़ों के प्रति भी वे निर्मम नहीं थे। एक ओर उन्हें होरी आदि के शोषण की चिन्ता है, तो दूसरी ओर रायसाहब के शोषण की भी। हर वर्ग अपने ऊपर वाले वर्ग से शोषण का शिकार है। यदि एक वर्ग अपने को दुखी और शोषित समझता है, तो शोषक वर्ग उससे परे नहीं है। हर वर्ग के अपने-अपने आदर्श के बहाने हैं। उनकी अलग-अलग कुण्ठाएँ हैं। प्रेमचन्द उन सबके प्रति सजग हैं। समग्र भारतीय समाज उनका पात्र है। उनके मनोवैज्ञानिक चित्रण पाठक को झकझोरते हैं।

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प्रेमचन्द पहले रचनाकार हैं जिन्होंने सामाजिक जीवन के विभिन्न चरित्रों को मनोवैज्ञानिक तरीके से चित्रित किया और उनके पात्र मानवीय संवेदना की प्रतिमूर्ति लगने लगे। उनकी कहानियाँ मनोरंजन के उद्देश्य से ऊपर उठकर सम्पूर्ण समाज के यथार्थ को उजागर करती हुई सामने आईं। उनकी कहानियों में आदर्श और यथार्थ का अन्तर्द्वन्द्व है। अपनी प्रारम्भिक कहानियों में वे आदर्शों से नियंत्रित होने वाले रचनाकार लगते हैं। लेकिन बाद की कहानियों में उन्होंने यथार्थ का चित्रण करते हुए, हालांकि ये कहानियाँ समस्यामूलक रही हैं, आदर्श समाधान प्रस्तुत करना बन्द कर दिया। यह उनकी रचनाओं में रिक्ति नहीं बनी बल्कि ये वैचारिक मंथन के रूप में पाठकों को झकझोरने लगीं और ये रचनाएं अपने उत्कर्ष को प्राप्त करती अधिक प्रभावशाली साबित हुईं। ‘पूस की रात’ और 'कफन' जैसी कहानियों में उनकी बदली हुई वैचारिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट देखा जा सकता है। उनकी बाद की कहानियाँ घटना प्रधान न होकर चरित्र प्रधान हैं जिनमें पात्रों की मनोवृत्तियों का वास्तविक चित्रण नितांत सहज रूप में देखने को मिलता है। उनका स्वयं कथन है -
'कोई घटना तब तक कहानी नहीं होती जब तक कि वह किसी मनोवैज्ञानिक सत्य को व्यक्त न करे।'
इस कथन से उनकी कहानियों में आए विकास को समझा जा सकता है।

'कफन' कहानी उनके इस वैचारिक विकास का उत्कर्ष है। इसमें ग्रामीण कृषक की दुरावस्था का चित्रण है। किसानों की आर्थिक विपन्नता जमीदारों - साहूकारों के शोषण का नतीजा नहीं है बल्कि यह आर्थिक विषमता मूलक समाज की संरचना है। यह कहानी उस सामाजिक व्यवस्था पर करारा व्यंग्य करती है जो मनुष्य के जिन्दा रहने पर उसका शोषण होने देती है और मर जाने पर खोखली नैतिकता का जामा पहन उसके अंतिम संस्कार के लिए उपाय करती है, सहयोग करती है।

मुख्य पात्र जो कि निकम्मे हैं, कोई काम-धाम नहीं करते। उनकी सोच है कि जो निकम्मे नहीं है उनकी भी स्थिति कमोवेश यही है, बेहतर नहीं। वे इस फलसफे पर जीवन यापन करते हैं कि जी-तोड़ मेहनत करके मरना कहाँ की बुद्धिमानी है। यह कहानी कर्मफल के सिध्दांतों पर प्रश्न उठाती है। भौतिकतावादी जीवन के चरम पर आज मानवीय संवेदना आत्मकेन्द्रित होकर शून्य होती जा रही है। प्रेमचन्द ने इसे आज से पचहत्तर वर्ष पूर्व ही चित्रित कर दिया था। यह प्रेमचन्द की सर्वाधिक त्रासदपूर्ण कहानी है जो जीवन की व्यर्थता और निस्सारता को व्यंजित करती है। एक व्यक्ति जिसका जीवन पशु से भी बदतर है उसके लिए जीवन का सबसे बड़ा सच भूख है। और भूख का मनोविज्ञान उसे कितना संवेदना शून्य बना सकता है, वह इस कहानी के माध्यम से अभिव्यक्त है। राजेन्द्र यादव इसे बुधिया के कफन की कहानी नहीं बल्कि मृत नैतिकबोध के कफन की कहानी मानते हैं।

प्रेमचन्द का मनोविज्ञान अन्य मनोविश्लेषणात्मक विचाराधारा के लेखकों से कदाचित भिन्न है। उनका मनोविश्लेषण समाधान मूलक नहीं है, बल्कि वे जीवन के सत्य को उद्धाटित करते हुए मानसिक परिस्थितियों का चित्रण करने में मनोवैज्ञानिक स्पर्श देते हैं। उनकी इस शैली से कहानी की मूल संवेदना प्रखर होती जाती है।

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मुंशी प्रेमचंद अपनी सरल भाषा और व्‍यावहारिक लेखन के कारण पाठकों में शुरू से ही प्रिय रहे हैं। उनकी सी चलती और पात्रों के अनुरूप रंग बदलने वाली भाषा पहले नहीं देखी गई। उर्दू और हिन्दी के कृत्रिम भेद-भाव को दूर करके सरल शब्दों और मुहावरों का प्रयोग किया। प्रेमचंद की भाषा सरल, सजीव, और व्‍यावहारिक है। उसे साधारण पढ़े-लिखे लोग भी समझ लेते हैं। उसमें आवश्‍यकतानुसार अंग्रेज़ी, उर्दू, फारसी आदि के शब्‍दों का भी प्रयोग है, प्रेमचंद की भाषा भावों और विचारों के अनुकूल है।

डॉ. नागेन्‍द्र के अनुसार उनके उपन्‍यासों की भाषा की खूबी यह है कि शब्‍दों के चुनाव एवं वाक्‍य योजना की दृष्टि से उसे सरल एवं बोलचाल की भाषा कहा जाता है। पर भाषा की इस सरलता को निर्जीवता, एकरूपता एवं अकाव्‍यत्‍मकता का पर्याय नहीं समझा जाना चाहिए।

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प्रेमचंद कालजयी रचनाकार थे। उन्‍होंने समाज के विभिन्‍न वर्गों की विषमता को अपने साहित्य में दिखाया है साथ ही मानवीय संवेदना को भी साहित्‍य से जोड़ने की कोशिश की है। शिक्षा में हो रहे भ्रष्‍टाचार से लेकर स्‍त्री विमर्श के विषय को बड़े ही सरल ढंग से साहित्‍य के माध्‍यम से उन्होंने उठाने की चेष्‍टा की है। प्रेमचंद ने जो कुछ भी लिखा है उसे आज के बुद्धिजीवी सिर्फ प्रासंगिक मानकर अपना पल्‍ला झाड़ने की कोशिश कर रहे हैं। उनके यर्थाथवाद को कोई समझने की कोशिश नहीं करता।

सेवासदन के गांधीवादी प्रेमचंद गबन में मार्क्सवादी विचारधारा में ढलते दीखते हैं लेकिन गोदान तक आते-आते वामपंथ से भी उनका मोहभंग हो चुका है। मंगलसूत्र पूरा नहीं हुआ... वरना क्या पता इसमें समाजवाद की भी पोल खुल जाती। जीवन के अंत में मृत्यु-शैय्या पर पड़े प्रेमचंद का जैनेन्द्र से यह कहना कि “अब आदर्श से काम नहीं चलेगा” शायद उनकी आशाओं और दृढ़ विश्वासों के स्खलन का सूचक है।

हिन्दी साहित्य का यह प्रकाश स्‍तंभ, जो जीवन मूल्‍यों को बताता था आज हमारे बीच नहीं है पर यह तो निश्चित है कि वे देश के महान व सर्वोत्तम रत्‍न थे। उन्‍होंने जनवादी लेखनी को नया आयाम दिया। हिंदी साहित्‍य में उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। जीवन को कसौटी पर कसने के लिए उन्‍होंने एक मापदंड दिया। उनके साथ खड़े होने का मतलब मुक्ति के साथ खड़ा होना है। वे लेखनी के माध्‍यम से भविष्‍य का मार्ग दर्शन भी करते थे। उनके दिखाए जीवन का मूल्‍य भुलाया जा रहा है। उनका मानना था कि साहित्य को राजनीति से आगे होना चाहिए लेकिन आज ऐसा नहीं है। प्रेमचंद का साहित्य आज भी प्रासंगिक है। उनकी कहानियों में आम आदमी की संवेदना है। प्रेमचंद ने अपने साहित्‍य के माध्‍यम से मानवीय मूल्‍यों को स्‍थापित करने का गंभीर प्रयास किया। प्रेमचंद के उपन्‍यासों में आम आदमी का चरित्र दिखाई देता है।

प्रेमचंद का साहित्‍य साम्राज्‍यवाद और उपनिवेशवाद का विरोधी था अंग्रेजी शासन की शोषणमूलक नीतियों के विरूद्ध उन्‍होंने आवाज उठाई। उन्होंने अपनी कहानियों में समय को ही पूर्ण रूप से चित्रित नहीं किया वरन भारत के चिंतन व आदर्शों को भी वर्णित किया है। तभी तो उन्हें क़लम का सिपाही, कथा सम्राट, उपन्यास सम्राट आदि अनेकों नामों से पुकारा जाता है।

                ***             

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

प्रेमचंद साहित्यिक योगदान-2

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                                                IMG_0568                           मनोज कुमार

 

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प्रेमचंद के साहित्य पर सर्वत्र शिव का शासन है – सत्य और सुंदर शिव के अनुचर होकर आते हैं। उनकी कला स्वीकृत रूप में जीवन के लिए थी और जीवन का अर्थ भी उनके लिए वर्तमान सामाजिक जीवन था। वे कभी वर्तमान से दूर नहीं गए। प्रेमचंद ने जीवन का गौरव राग नहीं गाया, न ही भविष्‍य की हैरत-अंगेज कल्‍पना की। उन्होंने न तो अतीत के गुण गाए और न ही भविष्य के मोहक सपनों का भ्रमजाल अपने पाठकों के सामने फैलाया। वे ईमानदारी के साथ वर्तमान काल की अपनी वर्तमान अवस्था का विश्लेषण करते रहे। उन्होंने देखा कि बंधन भीतर का है, बाहर का नहीं। एक बार अगर ये किसान, ये ग़रीब, यह अनुभव कर सकें कि संसार की कोई भी शक्ति उनको दबा नहीं सकती तो वे निश्चय ही अजेय हो जाएंगे। अपने मौजी पात्र (मेहता) से कहलवाते हैं,

“मैं भूत की चिंता नहीं करता, भविष्य की परवाह नहीं करता। भविष्य की चिंता हमें कायर बना देती है। भूत का भार हमारी कमर तोड़ देता है। हममें जीवनी शक्ति इतनी कम है कि भूत और भविष्य में फैला देने से वह क्षीण हो जाती है। हम व्यर्थ का भार अपने ऊपर लाद कर रूढ़ियों और विश्वासों तथा इतिहासों के मलबे के नीचे दबे पड़े हैं। उठने का नाम नहीं लेते।”


 

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समय के सच्चे और ईमानदार कलाकार थे। उन्होंने समाज की विषमताओं पर कुठाराघात किया।

हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा था,

“अगर आप उत्तर भारत की समस्‍त जनता के आचार-व्‍यवहार, भाषा-भाव, रहन सहन, आशा-आकांक्षा, दुःख-सुख और सूझ बूझ को जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आप को नहीं मिल सकता। समाज के विभिन्‍न आयामों को उनसे अधिक विश्‍वसनीयता दिखा पाने वाले परिदर्शन को हिंदी-उर्दू की दुनियां नहीं जानती।”

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आर्यसमाज और गांधी जी के सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक आन्दोलन को उन्होंने अपने उपन्यासों में स्थान दिया। रंगभूमि का सूरदास गांधीवादी विचारधारा का प्रतीक है। डॉ. नगेन्द्र के अनुसार

``गांधी-दर्शन के अहिंसा-संबंधी अतिवादों को प्रेमचंद ने सदैव अपनी यथार्थ दृष्टि द्वारा अनुशासित रखा है और उसकी आध्यात्मिकता को ठोस भौतिक सिद्धांतो द्वारा।”


 

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प्रेमचंद का साहित्‍य सामाजिक जागरूकता के प्रति प्रतिबद्ध है उनका साहित्य आम आदमी का साहित्‍य है। सामाजिक सुधार संबंधी भावना का प्रबल प्रवाह उन्हें कभी-कभी एक कल्पित यथार्थवाद की ओर खींच ले जाता है फिर भी कल्पना और वायवीयता से कथासाहित्य को निकालकर उसे समय और समाज के रू-ब-रू खड़ा करके वास्तविक जीवन के सरोकारों से जोड़ा। इनकी कहानियों में जहां एक ओर रूढियों, अंधविश्‍वासों, अंधपरंपराओं पर कड़ा प्रहार किया गया है वहीं दूसरी ओर मानवीय संवेदनाओं को भी उभारा गया है। अपने जीवन काल में वे विभिन्न सुधारवादी और पराधीनता की स्थितिजन्य नव जागरण प्रवृत्तियों से प्रभावित रहे हैं, यथा - आर्यसमाज, गाँधीवाद, वामपंथी विचारधारा आदि। लेकिन समाज की यथार्थगत भूमि पर उसकी सहज प्रवृत्ति में ये प्रवृत्तियाँ जितनी समा सकती है, उतनी ही मिलाते हैं, ठूस कर नहीं भरते। इसीलिए चित्रण में जितनी स्वाभाविकता प्रेमचन्द में देखने को मिलती है, अन्यत्र दुर्लभ है। 'गोदान' में तो यह अपनी पराकष्ठा पर पहुँच गई है। यदि प्रेमचन्द युग का आरम्भ 'सेवासदन' में है, तो उसका उत्कर्ष 'गोदान' में। आदर्शों और विचारधाराओं को वे अपने पात्रों पर थोपते नहीं हैं, बल्कि अन्तर्मन या अन्तरात्मा की आवाज की तरह स्वाभाविक रूप से प्रस्फुटित होने देते हैं।

'सेवासदन' और 'कायाकल्प' में जहाँ साम्प्रदायिक समस्या उठाई गई है, वहीं 'सेवासदन', 'रंगभूमि', 'कर्मभूमि' और 'गोदान' में अन्तर्जातीय विवाह की। समाज में नारी की स्थिति और अपने अधिकारों के प्रति उनकी जागरूकता इनके लगभग सभी उपन्यासों में देखने को मिलती है।'गबन' और 'निर्मला' में मध्यम वर्ग की कुण्ठाओं का बड़ा ही स्वाभाविक और सजीव चित्रण किया गया है। हरिजनों की स्थिति और उनकी समस्याओं को 'कर्मभूमि' में सर्वोत्तम रूप से उजागर किया गया है।



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जीवन की काममूलक ग्रंथियां कहीं अधिक विषम और सूक्ष्म-गहन होती हैं। साहित्य में कामाश्रित स्वप्न-कल्पनाओं का असाधरण योग रहता है। प्रेमचंद ने इस विषय में अद्भुत स्वास्थ्य का परिचय दिया है। उनके अनुसार काम जीवन की एक प्रमुख प्रवृत्ति है परंतु वह समग्र जीवन नहीं है, और न जीवन का साध्य ही। काम को उन्होंने तिरस्कार नहीं किया, परंतु उसको प्रतिपाद्य का दर्ज़ा कभी नहीं दिया। स्वस्थ-साधारण जीवन के लिए कामोपभोग आवश्यक है, परंतु वह जीवन का उद्देश्य किसी भी रूप में – और किसी भी दशा में नहीं हो सकता, व्यक्ति को उसमें खो नहीं जाना चाहिए। ऐसा करने पर स्वास्थ्य नष्ट हो जाता है।


 

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प्रेमचंद पावन प्रेम के उपासक थे। ऐसा प्रेम जो मानसिक गंदगी को दूर करता है, जो मिथ्याचार को हटा देता है, जो अपनी ज्योति से तामसिकता का ध्वंस करता है। उनके अनुसार यह प्रेम ही मनुष्य को सेवा और त्याग की ओर बढ़ाता है। जहां सेवा और त्याग नहीं है वहां प्रेम भी नहीं है। सच्चा प्रेम त्याग में ही अभिव्यक्ति पाता है।

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प्रेमचंद के जीवन-दर्शन का मूल तत्व है मानववाद। यह मानववाद सर्वथा व्यावहारिक है। उनका मानववाद एकांत नैतिक है। उनका मानववाद सुधारवाद से आगे नहीं बढ़ पाया। वे स्वभाव से विचारक और कर्मठ थे। उनके चेतना का धरातल व्यावहारिक रहा। उन्होंने अपने युग जीवन का व्यावहारिक दृष्टि से अर्थात्‌ सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक दृष्टि से अध्ययन किया और उसी दृष्टि से उसके समाधान की भी खोज की।

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अपनी कहानियों में प्रेमचन्द ने अपनी स्वाभाविक भूमि की विरासत को वैसे ही सुरक्षित रखा जैसे अपने उपन्यासों में। उनके सजग द्रष्टापन की उपस्थिति वहाँ भी है। वे 'कफन' के घीसू और माधव हों या 'ईदगाह' का हामिद हो या 'बूढ़ी काकी', उनकी यथार्थ मानसिकता के प्रति प्रेमचन्द जी पूरी तरह सजग हैं। चाहे हामिद ने भले ही अपनी तार्किक प्रतिभा से अपने चिमटे को अन्य बच्चों के खिलौनों से श्रेष्ठ सिद्ध कर दिया हो, लेकिन उन खिलौनों के प्रति उसकी ललक प्रेमचन्द से छुपी नहीं है। घटनाक्रम की स्वाभाविकता का कोई जवाब नहीं

 

 

 
ज़ारी …..!

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मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

भारत में हिंदी का वर्तमान और इंग्लैंड में अंग्रेज़ी का अतीत एक जैसा-अंग्रेज़ों के भाषा प्रेम तथा समर्पणभाव का अनोखा उदाहरण


भारत में हिंदी का वर्तमान और इंग्लैंड में अंग्रेज़ी का अतीत एक जैसा-अंग्रेज़ों के भाषा प्रेम तथा समर्पणभाव का अनोखा उदाहरण
राइटली एक्सप्रेस्ड के ललित कुमार जी ने अपने एक लेख लिखा है कि "ईमानदारी से कहूँ तो मैं आज तक नहीं समझ पाया कि हिंदी सेवाआखिर है क्या चीज़? मैंने कभी अंग्रेज़ी सेवाया फ़्रेंच सेवातो नहीं सुना।" उनके उस लेख के बाद मैं बहुत विचलित हुआ कि हिंदी सेवा या हिंदी प्रेम नामक कोई भावना नहीं होती है। इसका मतलब तो यही है कि भारत केवल एक राष्ट्र है जिससे प्रेम करना, राष्ट्रप्रेम, या देशसेवा, देश प्रेम जैसी कोई चीज़ ही नहीं है। हिंदी भाषा तो ऐसी चीज़ है जिससे अपना काम तो चला लिया जाए, हिंदी में पुस्तकें लिखकर बेच लिया जाए परंतु उससे कोई लगाव न रखा जाए। इसी प्रकार माँ केवल माँ शब्द है उससे प्रेम करना या उसकी सेवा करने जैसा कुछ भी नहीं है। ललित जी हिंदी भाषी हैं, हिंदी उनकी मातृभाषा है परंतु इससे उनको कोई लगाव नहीं है। यह मात्र संप्रेषण का माध्यम है।
ललित जी का कहना है कि भाषा से प्रेम करने का उदाहरण कहीं नहीं या किसी भाषा के संदर्भ में नहीं मिला। इसलिए ललित जी के उसी विचार के संदर्भ में मैंने उसी अंग्रेज़ी का उदाहरण लेते हुए जिससे हिंदी का संघर्ष है, एक लंबा लेख लिखा है जिसमें हिंदी भाषा की तुलना अंग्रेज़ी भाषा के इतिहास से की गई है। अंग्रेज़ी भाषा के प्रेमियों ने अपने ही देश में अंग्रेज़ी के लिए जो संघर्ष किया क्योंकि उन्हें अपनी भाषा से प्रेम और लगाव था। मैं चाहता हूं कि इस लेख पूरा पढ़ें और अपनी प्रतिक्रिया भी लिखें
-डॉ. दलसिंगार यादव

सम्भवतः भारत में बहुत थोड़े लोग यह जानते हैं कि जिस प्रकार आज हम विदेशी भाषा अंग्रेज़ी के प्रभाव से आक्रांत होकर स्वदेशी भाषाओं की उपेक्षा कर रहे हैं उसी प्रकार किसी समय इंग्लैंड भी विदेशी भाषा फ़्रेंच के प्रभाव से इतना अभिभूत था कि केवल सारा सरकारी कामकाज फ़्रेंच भाषा में होता था बल्कि उच्च वर्ग के लोग अंग्रेज़ी में बात करना भी अपनी शान के खिलाफ़ समझते थे। किंतु आगे चलकर फ़्रेंच के स्थान पर अंग्रेज़ी लागू की गई तो उसका भारी विरोध हुआ और उसके विषय में सारे वे ही तर्क दिए गए जो आज हमारे यहाँ हिंदी के विरोध में दिए जा रहे हैं। फिर भी कुछ राष्ट्रभाषा प्रेमी अंग्रेज़ों ने विभिन्न प्रकार के उपायों से किस प्रकार अंग्रेज़ी का मार्ग प्रशस्त किया इसकी कहानी केवल अपने आप में रोचक है बल्कि हमारी आज की हिंदी विरोधी स्थिति के निराकरण के लिए भी उपयुक्त्त मार्ग सुझा सकती है।
इंग्लैंड में अंग्रेज़ी का पराभव क्यों?
वैसे अंग्रेज़ी इंग्लैंड की अत्यंत प्राचीन भाषा रही है। यहाँ तक कि जब इस देश का नाम इंग्लैंड के रूप में विख्यात नहीं हुआ था तब भी इंग्लैंड भाषा का अस्तित्व था। वस्तुतः इंग्लिश नाम इंग्लैंड के आधार पर नहीं पड़ा, इंग्लिश भाषा के प्रचलन के कारण ही इस भूभाग को इंग्लैंड की संज्ञा प्राप्त हुई तथा दसवीं शताब्दी तक यह समूचे राष्ट्र को बहुमान्य भाषा के रूप में प्रचलित थी। परंतु ग्यारहवीं में सदी के उत्तरार्ध में एकाएक ऐसी घटना घटित हुई जिसके कारण इंग्लैंड में ही अंग्रेज़ी का सूर्य अस्त होने लगा। बात यह हुई कि नार्मंस लोगों का इंग्लैंड पर आधिपत्य हो गया। उनका नायक ड्यूक ऑफ़ विलियम इंग्लैंड के तत्कालीन शासक हेराल्ड को युद्ध में पराजित करके स्वयं सिंहासनारूढ़ हो गया और तभी से इंग्लैंड पर फ़्रेंच भाषा एवं फ़्रांसीसी संस्कृत के प्रभाव की अभिवृद्धि होने लगी क्योंकि स्वयं नार्मंस की भाषा और संस्कृति पूर्णतः फ़्रेंच थी।
जब शासक वर्ग की भाषा फ़्रेंच हो गई तो स्वभावतः न केवल सारा राजकाज फ़्रेंच में होने लगा बल्कि शिक्षा, धर्म और समाज ने भी अंग्रेज़ी के स्थान पर फ़्रेंच प्रतिष्ठित होने लगी। उच्च वर्ग के जो लोग सरकारी पदों के अभिलाषी थे या जो शासक वर्ग से मेल-जोल बढ़ा कर अपने प्रभाव में वृद्धि करना चाहते थे वे बड़ी तेज़ी से फ़्रेंच सीखने लगे तथा कुछ ही वर्षों में यह स्थिति आई कि धनिकों, सामंतों शिक्षकों, पादरियों, सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों आदि सबने फ़्रेंच को ही अपना लिया और अंग्रेज़ी केवल निम्न वर्ग के अशिक्षित लोगों, किसानों और मजदूरों की भाषा रह गई। अपने आपको शिक्षक कहने या कहलवाने वाले लोग केवल फ़्रेंच का ही प्रयोग करने लगे और अंग्रेज़ी जानते हुए भी अंग्रेज़ी बोलना अपनी शान के खिलाफ़ समझने लगे। दूसरी बात यह कि कभी-कभी उन्हें अपने अनपढ़ नौकरों या मज़दूरों से बात करते समय अंग्रेज़ी जैसी हेय भाषा में भी बोलने को विवश होना पड़ता था। आगे चलकर इंग्लैंड नार्मंस के आधिपत्य से तो मुक्त हो गया किंतु उनकी भाषा के प्रभाव से फिर भी मुक्त्त नहीं हो पाया। इसका कारण यह था कि जिन अंग्रेज़ी राजाओं का इंग्लैंड में शासन था वे स्वयं अपने फ़्रेंच के प्रभाव से अभिभूत थे। इतना ही नहीं, उनमें से कुछ का ननिहाल फ़्रांस में था तो कुछ की ससुराल पेरिस में थी। अनेक राजकुमारों और सामंतों ने बड़े यत्न से पेरिस में रह कर फ़्रेंच भाषा सीखी थी जिसे बोलकर वे अपने आपको उन लोगों की तुलना में श्रेष्ठ समझते थे जो बेचारे केवल अंग्रेज़ी ही बोल सकते थे। दूसरे, उस समय फ़्रेंच भाषा और संस्कृति सारे यूरोप में आदर की दृष्टि से देखी जाती थी। फिर अंग्रेज़ी की तुलना में फ़्रेंच का साहित्य इतना समृद्ध था कि उसे विश्व ज्ञान की खिड़की ही नहीं दरवाज़ा कहा जाता था। ऐसी स्थिति में भले ही इंग्लैंड स्वतंत्र हो गया हो पर वहाँ अंग्रेज़ी की प्रतिष्ठा कैसे संभव थी?  
इंग्लैंड में फ़्रेंच भाषा के आधिपत्य को बनाए रखने में कुछ राजाओं ने व्यक्तिगत कारणों से भी बड़ा योगदान दिया। उदाहरण के लिए हेनरी तृतीय (1216-1272) का विवाह फ़्रांस की राज कुमारी से हुआ था जो अपने साथ भारी दान दहेज़ के अलावा अपने साथ मामाओं, सैकड़ों रिश्तेदारों और उनके सेवकों की पलटन भी लेकर आई थी जिन्हें उच्च पदों पर प्रतिष्ठित करना हेनरी के लिए आवश्यक था। भला ऐसा न करके वह अपनी नव विवाहिता दुल्हन का मन कैसे दुखा सकता था? इसका परिणाम यह हुआ कि एक बार पुनः सभी सरकारी महकमों एवं कार्यालयों पर फ़्रेंच का पूरी तरह अधिकार हो गया। जो लोग फ़्रेंच बोल सकते थे, लिख सकते थे या उस भाषा में लिखवा सकते थे उन्हीं की सरकार में सुनवाई हो सकती थी। ऐसी स्थिति में अंग्रेज़ी पढ़ना पढ़ाना बेकार था। इसलिए सामान्य पाठशालाओं में भी अंग्रेज़ी की अपेक्षा फ़्रेंच की ही अधिक पढ़ाई होती थी। किंतु 14वीं सदी में इन स्थितियों में परिवर्तन की प्रक्रिया आरंभ हुई तथा धीरे-धीरे अंग्रेज़ी का वर्चस्व बढ़ने लगा। इसके कई कारण थे, एक तो यह की 1337 से 1453 तक इंग्लैंड और फ़्रांस के बीच युद्ध चला जिसे इतिहासकारों ने शतवर्षीय युद्ध की संज्ञा दी है। इस युद्ध के फलस्वरूप अंग्रेज़ों में फ़्रेंच भाषा और फ़्रेंच संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह की भावना पनपने लगी।
अंग्रेज़ी का पुनः अभ्युदय
अब फ़्रेंच को शत्रु जाति की भाषा के रूप में देखा जाने लगा। दूसरे, इसी शताब्दी में निम्नवर्ग एवं मध्यम वर्ग में नवजागरण की लहर आई। ये लोग अपने स्वत्व एवं अधिकारों के लिए संघर्ष करने लगे। 1381 में मज़दूरों ने अधिक वेतन के लिए आंदोलन किया जिसके फ़लस्वरूप उनकी स्थिति में सुधार हुआ। देश के विभिन्न संगठनों ने अपनी अन्य माँगों के साथ-साथ अपनी स्वभाषा अंग्रेज़ी को भी मान्यता देने की माँग की। दूसरी ओर, मध्य वर्ग के लोग भी लोग भी जो अपने बच्चों को पेरिस नहीं भेज पाते थे तथा गाँव के स्कूलों में ही पढ़ा कर संतुष्ट हो जाते थे अंग्रेज़ी के समर्थक बन गए। उच्च वर्ग में भी अब शुद्ध फ़्रेंच बोलने वाले बहुत कम रह गए थे। सही बात तो यह है कि जिस प्रकार हमारे यहाँ लंदन रिटर्न लोग अंग्रेज़ी के बड़े-बड़े प्रॉफ़ेसरों पर भी अपने अंग्रेज़ी ज्ञान एवं उच्चारण की धाक जमाते रहे हैं, वैसे ही लंदन ने कुछ पेरिस रिटर्न लोगों की धाक थी। पेरिसनुमा फ़्रेंच बोलने वाले अपने ही देश इंग्लैंड के उन लोंगों की खिल्ली उड़ाते थे जो स्थानीय विद्यालयों महाविद्यालयों में पढ़कर टूटी-फूटी या अशुद्ध फ़्रेंच बोलते थे।
धीरे-धीरे अंग्रेज़ी के पक्ष में लोकमत जागृत हुआ और 1362 में पार्लियामेंट में एक अधिनियम "स्टेच्यूट ऑफ़ प्लीडिंग" (अधिवक्त्ताओं का अधिनियम) पारित हुआ जिससे इंग्लैंड के न्यायालयों में अंग्रेज़ी का प्रवेश संभव हो गया। हालाँकि इस अधिनियम का भी उस समय के बड़े-बड़े अधिवक्त्ताओं ने भारी विरोध किया क्योंकि अंग्रेज़ी में न्याय और कानून संबंधी पुस्तकों का सर्वथा अभाव था। फिर भी तर्क दिया गया कि ऐसी स्थिति में कैसे बहस की जा सकेगी और कैसे न्याय सुनाया जाएगा? एक देशी भाषा के लिए न्याय की हत्या की जा रही है। स्थति यह थी कि वैधानिक दृष्टि से भले ही अंग्रेज़ी को मान्यता मिल गई परंतु कचहरियों का अधिकांश कार्य काफ़ी समय फ़्रेंच भाषा में ही चलता रहा।
चौदहवीं शती में न्यायालयों के अतिरिक्त विद्यालयों और महाविद्यालयों में भी अंग्रेज़ी का पठन-पाठन प्रचलित हुआ। ऑक्सफ़ोर्ड के कुछ अध्यापकों ने भी लैटिन के अतिरिक्त अंग्रेज़ी की शिक्षा देने की व्यवस्था की।
अंग्रेज़ी लिखना ग़ुनाह - अतः अंग्रेज़ी में सृजन कार्य के लिए क्षमा याचना
यद्यपि इस प्रकार इंग्लैंड के जन साधारण में अंग्रेज़ी का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा था फिर भी उच्च वर्ग के विद्वानों एवं विद्वत्ता की भाषा वह अभी तक नहीं बन पाई थी। फ़्रेंच का प्रभुत्व थोड़ा कम हुआ तो उसका स्थान लैटिन और ग्रीक ने ले लिया। पंद्रहवीं शती के पुनर्जागरण युग में ये शास्त्रीय भाषाएं समस्त यूरोप में ज्ञान-विज्ञान की भाषाओं के रूप में प्रतिष्ठित हो गई थीं। ऐसी स्थिति में अंग्रेज़ी में लिखने वाले लोग प्रायः हेय दृष्टि से देखे जाते थे। इसका प्रमाण इसी युग की अनेक रचनाओं की भूमिका से मिलता है जहां उसके रचयिता ने अंग्रेज़ी में लिखने के लिए अपनी सफ़ाई दी है। उदाहरण के लिए ज्यादा 14वीं शती के आरंभ में ही एक अंग्रेज़ी पुस्तक के रचयिता ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा है कि "भले ही भाषा की दर से मैं हीन समझा जाऊं फिर भी मेरे मन में जो कुछ है उसे अवश्य बता देना चाहता हूँ। मैं सोचता हूँ कि अगर अंग्रेज़ी में लिखा जाए तो उसी सब लोग समझ सकते हैं। सही बात तो यह है कि उन क्लर्कों को (सरकारी कर्मचारियों) की अपेक्षा जो फ़्रेंच जानते हैं उस बेचारे जनसाधारण को दिव्य ज्ञान की अधिक आवश्यकता है जो केवल अंग्रेज़ी ही जानते हैं। अतः मैं सोचता हूँ कि यदि अंग्रेज़ी में कोई अच्छी चीज लिखी जाए तो यह एक पुण्य का कार्य होगा।"
इसी प्रकार एश्कम नामक लेखक ने अपनी पुस्तक "टांक्सो पिलस" की भूमिका में स्पष्ट किया है कि उसके लिए ग्रीक या लैटिन में लिखना अधिक आसान था फिर भी उसने सर्व साधारण के हित को ध्यान में रखकर ही अंग्रेज़ी में लिखने का दुस्साहस किया है। पर इससे भी महत्वपूर्ण वक्तव्य 16वीं शती के एक अन्य लेखक की इलिएट का है। इसमें अपनी चिकित्सा शास्त्र की पुस्तक कलस ऑफ़ हेल्थ अर्थात् "स्वास्थ्य का कवच" की भूमिका में अंग्रेज़ी में लिखने के लिए क्षमा याचना करते हुए लिखा है – "यदि चिकित्सक लोग मुझ पर इसलिए कुपित हैं कि मैंने अंग्रेज़ी में क्यों लिखा तो मैं उन्हें बता देना चाहता हूँ कि अगर ग्रीक लोग ग्रीक में लिखते हैं, रोमन लोग स्वभाषा लैटिन में लिखते हैं तो फिर यदि हम लोग अपनी भाषा अंग्रेज़ी में लिखे तो इसमें क्या बुराई है?"
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि किस प्रकार पंद्रहवीं से सोलहवीं शती में अंग्रेज़ी में ज्ञान विज्ञान की पुस्तकें लिखना विद्वानों की दृष्टि से हेय समझा जाता था तथा जो ऐसा करने का प्रयास करते थे वे अपनी सफाई में कोई न कोई तर्क देने को विवश होते थे। इसकी तुलना हमारे मध्य कालीन में हिंदी के आचार्य केशव दास की मनःस्थिति से भी की जा सकती है जिन्होंने अपनी एक रचना में लिखा था - हाय जिस कुल के दास भी भाषा (हिंदी) बोलना नहीं जानते अर्थात ये भी संस्कृत में बोलते हैं उसी कुल में मेरे जैसा मतिमंद कवि हुआ जो भाषा (हिंदी) में काव्य-रचना करता है। वस्तुतः जब कोई राष्ट्र विदेशी संस्कृति एवं भाषा से आक्रांत हो जाता है तो उस स्थिति में स्वदेशी भाषा एवं संस्कृति के उन नायकों में आत्मलघुता या हीनता की भावना का आ जाना स्वाभाविक है।
प्रेयसियों के प्रेम पत्रों की दुहाई
यद्यपि सोलहवीं शती में अनेक विद्वान अंग्रेज़ी को अपनाने लगे थे फिर भी अंग्रेज़ी और विदेशी भाषाओं का विवाद शांत नहीं हुआ था। अब भी उच्च वर्ग में ऐसे अनेक लोग थे जो युक्तियों व तर्कों से इंग्लैंड में फ़्रेंच का वर्चस्व बनाए रखने के हिमायती थे, जैसे जॉन बटन ने फ़्रेंच को प्रचलित रखने के पक्ष में तीन तर्क दिए थे। उनके अनुसार, एक तो न केवल अपने देश में बल्कि आसपास के पड़ोसी राज्यों से सम्पर्क बनाए रखने के लिए फ़्रेंच आवश्यक है। दूसरे, ज्ञान विज्ञान और कानून की सारी पुस्तकें फ़्रेंच में ही हैं। तीसरे, इंग्लैंड की सभी सुशिक्षित महिलाएँ एवं भद्रजन अपने प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान फ़्रेंच में ही करते हैं। यह तीसरा तर्क सचमुच रोचक है जो कुछ लोगों को हास्यास्पद प्रतीत हो सकता है किंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। कई बार ऐसी भी स्थितियाँ होती हैं जब कि वर्ग विशेष की रुचि या अनुकंपा के कारण कोई भाषा अपना अस्तित्व बनाए रखती है। उदाहरण के लिए पंजाब में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व पूर्व पुरुषों की भाषा प्रायः उर्दू थी जबकि महिलाओं की शिक्षा दीक्षा हिंदी में होती थी। इसलिए कहा जाता है कि पुरुष वर्ग को हिंदी केवल इसलिए पढ़नी पड़ती थी कि वे अपनी पत्नियों तथा माताओं/बहनों के साथ पत्राचार कर सकें। इसलिए पंजाब में हिंदी की परंपरा जीवित रखने का श्रेय वहां की महिलाओं को जाता है।
ख़ैर, इन परिस्थितियों के होते हुए भी राष्ट्रभाषा-प्रेमी अंग्रेज़ों ने हिम्मत नहीं हारी। वे स्वीकार करते थे कि फ़्रेंच, लैटिन और ग्रीक की तुलना में अंग्रेज़ी भाषा और उसका साहित्य नगण्य है, तुच्छ है। फिर अंततः वह उनकी अपनी भाषा है। ये दूसरों की माताएँ अधिक सुंदर और संपन्न हों तो क्या हम अपनी मां को केवल इसलिए ठुकरा देंगे कि वह उनकी तुलना में असुंदर और अकिंचन है। कुछ ऐसी ही भाषा में अंग्रेज़ी भाषा के कट्टर समर्थक रिचर्ड मुलकास्टर ने 1582 में लिखा -
"आई लव रोम, बट लंडन बेटर, आई फ़ेवर इटली, बट इंग्लैंड मोर, आई ऑनर लैटिन, बट आई वर्शिप द इंग्लिश।"   
अर्थात्, मैं रोम को प्यार करता हूँ पर लंदन को उससे भी अधिक, मैं लैटिन का समर्थक हूं पर इंग्लैंड का उससे भी अधिक समर्थन करता हूँ और मैं लैटिन का सम्मान करता हूँ पर अंग्रेज़ी की पूजा करता हूं। क्या हमें हिंदी के बारे में ऐसी ही धारणा नहीं रखनी चाहिए?
कहने का तात्पर्य यह है कि अंग्रेज़ी के समर्थकों ने अपने आंदोलन को तर्क और विवाद के बल पर नहीं बल्कि भावना के बल पर सफ़ल बनाया। उन्होंने अपने देशवासियों के मस्तिष्क को नहीं उनके हृदय को झकझोरकर उनके स्वाभिमान और राष्ट्र-प्रेम को उद्वेलित किया। इसी का परिणाम था कि इस सदी के अंत तक उच्च वर्ग का भी दृष्टिकोण अंग्रेज़ी के प्रति पर्याप्त अनुकूल हो गया। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि एक ओर तो रिचर्ड जैसे विद्वान ने 1595 में अंग्रेज़ी भाषा की उच्चता पर लेख लिख कर उसका ज़ोरदार समर्थन किया तो दूसरी ओर, सर फ़िलिप सिडनी जैसे विद्वान ने घोषित किया कि यदि भाषा का लक्ष्य अपने हृदय और मस्तिष्क की कोमल कल्पनाओं को सुन्दर एवं मधुर शब्दावली में व्यक्त करना है तो निश्चय  ही अंग्रेज़ी भाषा भी इस लक्ष्य की पूर्ति की दिशा से उतनी ही सक्षम है जितनी की विश्व की अन्य भाषाएँ।
सत्रहवीं शती के आरंभ तक इंग्लैण्ड में अंग्रेज़ी के विरोध का वातावरण तो शांत हो गया तथा आम धारणा बन गई कि स्वदेशी भाषा को हर कीमत पर अपनाना है किंतु जब इसे एक व्यावहारिक रूप दिया जाने लगा तो सबसे बड़ी कठिनाई शब्दावली की आई। अंग्रेज़ी को समृद्ध करने के लिए ज्ञान विज्ञान के ग्रंथ कैसे लिखे जा सकते थे जबकि तद्विषयक शब्दावली का उसमें सर्वथा अभाव था। ज्ञान विज्ञान की  बात तो दूर, उस समय शब्द संपदा की दृष्टि से अंग्रेज़ी इतनी दरिद्र थी कि प्रशासन, कला, समाज, धर्म और दैनिक जीवन से संबंधित सामान्यत शब्द भी उसके पास अपने नहीं थे, फ़्रेंच या अन्य भाषाओं से उधार लिए हुए थे। उदाहरण के लिए, प्रशासनिक शब्दावली में अंग्रेज़ी के पास अपने केवल दो शब्द थे- किंग (राजा) और क्वीन (रानी)। शेष सारे शब्द फ़्रेंच भाषा से आयातित थेगवर्नमेंट, क्राउन, स्टेट, एंपायर, रॉयल, कोर्ट, काउंसिल, पार्लियामेंट, असेंबली, स्टैच्यूट, वार्डन, मेयर, प्रिंस, प्रिंसेस,ड्यूक,  मिनिस्टर, मैडम आदि। इसी प्रकार न्यायालय और कानून संबंधी सारी शब्दावली भी प्रायः फ़्रेंच से आयातित है, जैसे, जस्टिस, क्राइम, वार, ऐडवोकेट, जज, प्ली, सूट, पेटीशन, कॉम्प्लेंट, समन,एविडेंस, प्रूफ़, प्लीडेड, प्रॉपर्टी, एस्टेट। ये शब्द भी अंग्रेज़ी के अपने नहीं हैं।  फिर कला और साहित्य संबंधी अधिकांश शब्द अंग्रेज़ी के पास नहीं थे। अतः आर्ट, पेंटिंग, म्यूजिक, ब्यूटी, कलर, फ़िगर, इमेज, ऐप्रोच, रोमांस, स्टोरी, ट्रैजडी, प्रिफ़ेस, टाइटिल, चैप्टर, पेपर जैसे शब्द भी फ़्रेंच से लेने पड़े। इतना ही नहीं एक इतिहासकार ने तो यहां तक कहा है कि फ़्रेंच शब्दावली के अभाव में कोई भी अंग्रेज़ अपने रहन-सहन से लेकर खान-पान तक की भी कोई क्रिया संपन्न नहीं कर सकता था क्योंकि उसे ड्रेस, फसल, गारमेंट, कॉलर, पेटीकोट, बूट, बटन, ब्लू, ब्राउन, डिनर, सुपर, टेस्ट, फ़िश, बीफ़, मटन, टोस्ट, स्किट, क्रीम, शूगर, ग्रेप, ऑरेंज, लेमन, चेरी जैसे शब्दों के लिए भी फ़्रेंच पर निर्भर करना पड़ता है। "ए हिस्टरी ऑफ़ द इंग्लिश लैंग्वेज" के लेखक अलबर्ट सी. बॉफ़ के अनुसार लगभग दस हजार से ज़्यादा शब्द तो अकेले फ़्रेंच से ही अंग्रेज़ी में अपनाया लिए गए थे परंतु आगे चलकर विश्व की अन्य भाषाओं से भी हजारों शब्द ग्रहण किए गए। उनके मतानुसार यह कहना अत्युक्त्ति न होगी कि अंग्रेज़ी में इस समय लगभग पचास से भी अधिक भाषाओं से हजारों शब्द ग्रहण किए जा चुके थे जिनमें अधिकांश फ़्रेंच-लैटिन-ग्रीक-इटैलियन और स्पैनिश से थे।
हिंदी की भाँति अंग्रेज़ी भाषा के विरुद्ध क्लिष्टता का शोर मचा था
जब अंग्रेज़ी में विभिन्न भाषाओं से बड़ी संख्या में ऐसे शब्दों को स्वीकार किया गया जो पहले से अंग्रेज़ी में प्रचलित नहीं थे तो यह स्वाभाविक था कि जन सामान्य के लिए वह अत्यंत दुर्बोध एवं क्लिष्ट हो गई। इसके अतिरिक्त विदेशी शब्दों के अधिक मिश्रण से स्वभाषा की शुद्धता का भी प्रश्न उपस्थित हुआ। अतः विद्वानों के एक वर्ग ने शुद्धता एवं क्लिष्टता के दृष्टिकोण से विदेशी शब्दों के बहिष्कार का आंदोलन छेड़ा। किंतु इसके प्रत्युत्तर में अनेक विद्वानों ने कठिन शब्दों के शब्दकोश तैयार करके क्लिष्टता की समस्या को हल करने की चेष्टा की। इस प्रकार के प्रयासों में एन. वैलो की "यूनिवर्सल एटिमॉलॉजिकल इंग्लिश डिक्शनरी" (1719), राबर्ट काडरो का "द अल्फ़ाबेटिकल टेबल ऑफ़ हाई वर्ड्स" तथा एडवर्ड फ़िलिप की "न्यूवर्ड ऑफ़ वर्ड्स" जैसी कृतियां उल्लेखनीय हैं। क्या उन लोगों के कार्य अपनी भाषा की सेवा नहीं हैं?
जहां तक भाषा की शुद्धता की बात है, अधिकांश लेखकों और साहित्यकारों ने भी इस संबंध में उदार दृष्टिकोण का परिचय देते हुए विदेशी शब्दों को ग्रहण किए जाने का समर्थन किया। हिंदी के समर्थकों की भी यही राय है।
आगे चल कर स्वदेशी एवं विदेशी शब्दों का झगड़ा सदा के लिए तब समाप्त हो गया था जब 1755 में डॉक्टर जॉनसन द्वारा प्रकाशित अंग्रेज़ी के प्रथम प्रामाणिक शब्दकोश "ए डिक्शनरी ऑफ़ इंग्लिश लैंग्वेज" में उन सारे शब्दों को समेट लिया गया जो अंग्रेज़ी में प्रयुक्त हो सकते थे भले ही वे मूल अंग्रेज़ी के हों या विदेशी भाषाओं से आयातित। इस प्रकार इन शब्दों पर अंग्रेज़ी का लेबल लगाकर उसे एक अत्यंत सम्पन्न भाषा का रूप दे दिया गया। यह दूसरी बात है कि जॉनसन के विरोधी अब भी बराबर कहते रहे कि उनके शब्दकोश में पंद्रह प्रतिशत शब्दों को छोड़कर शेष सारे विदेशी हैं। पर इससे कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा। जब भाषा की अभिव्यंजना शक्ति की समस्या हल हो गई तो उसमें ज्ञान विज्ञान के साहित्य की रचना के मार्ग में खड़े सारे अवरोध स्वतः दूर हो गए। अंग्रेज़ जाति ने अपने राष्ट्रभाषा प्रेम की प्रगाढ़ का परिचय देते हुए विदेशी भाषाओं की खिड़कियों के माध्यम से प्राप्त होने वाले ज्ञान पर निर्भर न रहकर स्वभाषा के द्वार सबके लिए खोल दिए। इससे सभी देशों की सभी वर्गों के लिए ज्ञान का आवागमन उपयुक्त्त रूप से होने लगा और साथ ही इससे स्वभाषा के उन सहस्रों लोगों को भी रोज़गार मिला जो विभिन्न भाषाओं के ज्ञान विज्ञान की पुस्तकों और उनके मूल विचारों अथवा उनका अविकल अनुवाद अंग्रेज़ी में प्रस्तुत करने में सक्षम थे। वस्तुतः अंग्रेज़ी भाषा के अभ्युदय का इतिहास इस बात का प्रमाण है कि यदि कोई जाति सच्ची राष्ट्रीयता का सुदृढ़ संकल्प एवं पूरी शक्ति से जुट जाए तो वह किस प्रकार सर्वथा गंवारू, अपरिष्कृत, दरिद्र एवं अधम कही जाने वाली भाषा को भी एक दिन विश्व की श्रेष्ठ भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर सकती है।
हिंदी की इस स्थिति से तुलना
यदि अंग्रेज़ी भाषा की प्रतिष्ठा के इस संघर्षपूर्ण इतिहास से हिंदी की स्थिति की तुलना करें तो दोनों में अनेक समानताएँ दृष्टि गोचर होती हैं – (1) यद्यपि दोनों ही अपने-अपने देश की अत्यंत बहुप्रचलित भाषाएं थीं फिर भी विदेशी भाषा भाषी लोगों के प्रशासन काल में दोनों का ही पराभव होना आरंभ हुआ और वे शीघ्र ही अपने गौरवपूर्ण पद से वंचित हो गईं तथा उनका स्थान शासक वर्ग की विदेशी भाषा ने ले लिया। (2) शासक वर्ग की विदेशी भाषा को अपनाने में उच्च वर्ग के धनिकों, सामंतों एवं शिक्षितों ने बड़ी तत्परता का परिचय दिया। (3) विदेशी भाषा के प्रभाव से दोनों ही देशों (इंग्लैंड और भारत) के लोग इतने अभिभूत हो गए कि वे स्वदेशी भाषा को अत्यंत ही हेय एवं उपेक्षा योग्य मानते हुए उसमें बात करना भी अपनी शान के खिलाफ़ समझने लगे। (4) विदेशी शासकों के प्रति विद्रोह की भावना एवं स्वभाषा के प्रति अनुराग की प्रेरणा से ही अंग्रेज़ी और हिंदी के पुनः अभ्युत्थान की प्रक्रिया आरंभ हुई।(5) दोनों ही देशों में पार्लियामेंट द्वारा स्वदेशी भाषाओं को मान्यता मिल जाने के बाद भी उनका व्यावहारिक प्रयोग बड़ी कठिनाई से आगे बढ़ा। (6) विदेशी भाषा के समर्थक एक ओर तो अभिव्यंजना शक्त्ति और साहित्यिक समृद्धि का गीत गाते रहे, तो दूसरी ओर स्वदेशी भाषा की हीनता और दरिद्रता का ढिंढोरा पीटते रहे तथा (7) जब स्वदेशी भाषा को समृद्ध करने के लिए नए शब्दों का प्रचलन किया जाने लगा तो उसके विरोधी उसपर क्लिष्टता और दुर्बोधता का आरोप लगाने लगे।
इस प्रकार अंग्रेज़ी और हिंदी के पराभव एवं पुनरुत्थान की कहानी परस्पर बहुत मिलती-जुलती है। परंतु दोनों में थोड़ा अंतर भी है जिसके कारण हिंदी की प्रगति में आज तक बाधाएं उपस्थित हो रही हैं। एक, अँग्रेज़ जाति में राष्ट्रीयता की भावना जितनी दृढ़ और गंभीर है, उतनी स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले तो हममें रही किंतु उसके बाद वह बिखरती चली गई। सम्भवतः इसका प्रमुख कारण यह है कि हमने अपने संविधान को अमरीका की नकल पर ढालने के लिए भारत के उप प्रदेशों और प्रान्तों को भी राज्यों की संज्ञा देकर यह भ्रम उत्पन्न कर दिया मानो भारत एक सुगठित देश न होकर अनेक राज्यों का समूह या संघ है। इससे निश्चय ही क्षेत्रवाद को बढ़ावा मिला जो राष्ट्रीय एकता के लिए घातक है। इसके कारण हिंदी का विरोध केवल अंग्रेज़ी के हिमायतियों द्वारा ही नहीं बल्कि अन्य प्रान्तीय या क्षेत्रीय भाषाओं के समर्थकों द्वारा भी होने लगा जबकि हिंदी की प्रतिद्वंद्विता अंग्रेज़ी से है न कि भारत की अन्य भाषाओं से। ऐसी स्थिति में हम हिंदीतर क्षेत्रों में न सही, केवल हिंदी भाषी क्षेत्रों में ही जो राजस्थान से लेकर बिहार तक और हिमाचल प्रदेश से लेकर मध्य प्रदेश तक फैला हुआ है, पूरी तरह हिंदी लागू कर दें तो यह भी कम महत्व की बात नहीं होगी। किंतु स्वयं हिंदी भाषा भाषी वर्ग में भी अभी अब अंग्रेज़ी के प्रति मोह बना हुआ है। इसका एक अन्य कारण यह भी है कि न केवल केंद्र में, बल्कि हिंदी भाषा भाषी राज्यों में भी सरकारी अधिकारियों और उच्च प्रतियोगिताओं, परीक्षाओं तथा ज्ञान-विज्ञान की उच्च शिक्षा के क्षेत्र में अभी तक अंग्रेज़ी का ही प्रचलन है। अतः जो अंग्रेज़ी की उपेक्षा करते हैं कि वे अपने भविष्य के निर्माण की दृष्टि से घाटे में रहते हैं। इसलिए पिछले कुछ वर्षों में जनसाधारण में अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में पढ़ाने का फ़ैशन और भी ज़ोरों से फैला है।
दूसरे, अंग्रेज़ी के समर्थकों ने अपनी भाषा की शब्द संपदा और अभिव्यंजना शक्त्ति में वृद्धि करने के लिए विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं के बहुप्रचलित शब्दों को उन्मुक्त्त भाव से अपनाया, भले ही कट्टरवादियों की दृष्टि में इसमें एक ऐसी अशुद्ध भाषा बन गई जिसमें अधिकांश शब्द विदेशी हैं। परंतु इससे अंग्रेज़ी में ज्ञान विज्ञान की पुस्तकों की रचना और अनुवाद के कार्य में तेज़ी से प्रगति हुई। इसकी तुलना में हम पहले कृत्रिम ढंग से विदेशी शब्दालियों तथा पारिभाषिक शब्दों के हिंदी पर्यायवाची शब्द गढ़ने के बखेड़े में पड़ गए जो कभी भी समाप्त न होने वाली स्थिति है क्योंकि जब तक हम पचास वर्ष में आज की प्रचलित शब्दावली का अनुवाद करेंगे तब तक उतने ही नए शब्द सामने आ जाएँगे। विज्ञान की जिस गति से प्रगति हो रही है उसे देखते हुए यह स्वाभाविक है। फिर इस प्रकार कृत्रिम ढंग से बनी हुई शब्दावली को प्रचलित करना और प्रयोग में लाना अब भी अपने आप में टेढ़ी खीर है। पिछला अनुभव हमें बता रहा है कि ऐसे नव निर्मित शब्दों के अधिकांश शब्दकोश केवल सरकारी अलमारियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। वे वास्तविक प्रयोग में बहुत कम आ रहे हैं। अतः इससे अच्छा यह है कि हम ज्ञान विज्ञान की अंतरराष्ट्रीय शब्दावली को ज्यों का त्यों अपना लें और यदि उसके साथ-साथ सहज रूप में अपनी शब्दावली भी विकसित होती हो तो उसे भी अपनाते रहें। पर यदि हम अपनी नई शब्दावली की ही प्रतीक्षा करते रहेंगे तो सम्भवतः यह कार्य कभी समाप्त नहीं होगा। उस स्थिति में यही कहना पड़ेगा कि न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी।
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग द्वारा हिंदी की उपेक्षा और अंग्रेज़ी भाषा का प्रचार
देश में वर्ष 2005 में राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का गठन किया गया था। यह आयोग योजना आयोग के माध्यम से प्रधान मंत्री के सीधे प्रभार में रखा गया था। इस आयोग के अध्यक्ष सैम पित्रोदा थे। इसके सदस्य थे, डॉ. अशोक गांगुली, रिज़र्व बैंक के बोर्ड में निदेशक और कई प्राइवेट कंपनियों के बोर्डों में सदस्य हैं, डॉ. जयति घोष, जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं, डॉ. दीपक नैयर, जवाहर लाल नेहरू विश्व विद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं , डॉ. पी. बलराम, भारतीय विज्ञान संस्थान, बंगलौर के निदेशक हैं, डॉ. नंदन निलेकनी, कंप्यूटर विज्ञानी हैं, डॉ. शुजाता रामदोई, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामेंटल रिसर्च में गणित के प्रोऱेसर हैं, डॉ. अमिताभ मट्टू, जम्मू विश्व विद्यालय के उप कुलपति हैं। इनमें से कोई भी हिंदी का समर्थक नहीं है, हालांकि हिंदी बोल सकते हैं। मैंने पित्रोदा जी को हिंदी बोलते सुना है। राष्ट्रीय ज्ञान आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट 2009 में प्रस्तुत कर दी है और उसके कार्यान्वयन का काम शुरू हो गया है।
राष्ट्रीय ज्ञान आयोग का उद्देश्य ज्ञान के क्षेत्र में देश को 21 वीं शताब्दी में सबसे आगे ले जाने के लिए शिक्षा और अनुसंधान हेतु आधारभूत और मज़बूत ढांचा तैयार करना है। आयोग ने अपनी सिफ़रिश में कहा है कि देश में अंग्रेज़ी की पढ़ाई पहली कक्षा से शुरू की जाए और दो भाषाएं, अर्थात, अंग्रेज़ी तथा क्षेत्रीय भाषा पढ़ाई जाए। आयोग ने हिंदी की सिफ़ारिश नहीं की है और न कि त्रिभाषा सूत्र को लागू करने की बात की है। प्नधान मंत्री ने भी इसे स्वीकार कर ली है और राष्ट्रीय ज्ञान आयोग की सिफ़रिशों को लागू कराने की प्रक्रिया शुरू करा दी है। क्या भारत के सभी स्कूलों में अंग्रेज़ी की स्तरीय पढ़ाई शुरू हो जाएगी और सभी विद्यार्थी फ़र्राटे से अंग्रेज़ी बोलने लग जाएंगे या उन्हीं लोगों को आगे आने का अवसर देने की सुनियोजित चाल है जो धनाढ्य, संपन्न और शहर में रहकर शिक्षा पाने में सक्षम हैं?
त्रिभाषा सूत्र ही सरलतम हल
देश की भाषा समस्‍या जनता जनित नहीं है बल्कि यह जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों द्वारा जनित है। जन प्रतिनि‍धियों ने ही इसे 1947 में ही स्‍वीकार कर लिया था कि देश में एक संपर्क भाषा हो और वह भारत की ही भाषा हो कोई विदेशी भाषा न हो। संवि‍धान लागू होने के बाद पंद्रह साल का समय भाषा परिवर्तन के लिए रखा गया था और वह समय केवल केंद्र सरकार की भाषा के लिए ही नहीं बल्कि भारत संघ के सभी राज्‍यों के लिए भी रखा गया था कि उस दौरान सभी राज्‍य सरकारें अपने-अपने राज्‍यों में अपनी राजभाषा निर्धारित कर लेंगी एवं उन्‍हें ऐसी सशक्‍त बना लेंगी कि उनके माध्‍यम से समस्‍त सरकरी काम काज किए जाएंगे तथा राज्‍य में स्थित शिक्षा संस्‍थाएं उनके माध्‍यम से ही शिक्षा देंगी। यह निर्णय 1949 में ही किया गया था राज्‍यों ने अपनी-अपनी राजभाषा नीति घोषित कर दी थी। यद्यपि वहां भी पूरी मुस्‍तैदी से काम नहीं हुआ क्‍योंकि राज्‍यों के सामने शिक्षा से ज़्यादा महत्वपूर्ण अन्‍य आवश्‍यक समस्‍याएं थीं जिनपर अविलंब ध्‍यान देना था। उस चक्‍कर में राज्‍य सरकारों ने राजभाषाओं की समस्‍या को टाल दिया था परंतु किसी भी सरकार ने अंग्रेज़ी को राजभाषा के रूप में अनंत काल तक बनाए रखने की मंशा नहीं व्‍यक्‍त की। अतः राज्यों ने अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार अपनी राजभाषाओं को प्रचलित करने के लिए अपने यहां भाषा विभागों की स्‍थापना की और कार्यालयी भाषा की शिक्षा देना प्रारंभ किया, भाषा प्रयोग की समीक्षा करने लगे तथा प्रशासनिक शब्‍दावली बनाने की प्रक्रिया प्रारंभ की। राज्‍य सरकारों ने उसी निर्धारित समय में अपनी भाषाओं को संवर्धित किया और आज नागालैंड के सिवाय सभी राज्‍यों ने अपनी राज्‍य भाषाओं में काम करना प्रारंभ कर दिया है। ऐसे में यह और भी  आवश्‍यक हो गया है कि देश में राज्‍यों के बीच संपर्क भाषा के रूप में हिंदी को स्‍थापित किया जाए।
अनेक समितियां और आयोग बने परंतु किसी ने भी हिंदी के प्रश्न को समय सीमा से परे रखने की सिफ़ारि‍श नहीं की है। राजभाषा आयोग, विश्‍व विद्यालय अनुदान आयोग, केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड, सभी ने हिंदी व क्षेत्रीय भाषाओं में ही शिक्षा दीक्षा देने की सिफ़ारिश की है। तब संविधान में हिंदी को अनिश्चित काल के लिए टालने की बात कहां से आई? यह निश्चित रूप से कोई सोची समझी चाल तथा प्रच्‍छन्‍न विद्वेष की भावना लगती है। इसे समझने और ग्रासरूट स्तर पर चेतना जागृत करने की आवश्‍यकता है। 
हिंदी को वास्‍तविक रूप में कामकाज की भाषा बनाना हो तो देश में त्रिभाषा सूत्र सच्‍चे मन से तथा कड़ाई से लागू करना होगा। त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्‍वयन की कठिनाइयों पर शिक्षा आयोग (1964-66) ने विस्‍तार से विचार किया है। व्‍यावहारिक रूप से त्रिभाषा सूत्र के कार्यान्‍वयन की कठिनाइयों में मुख्य है स्‍कूल पाठ्यक्रम में भाषा में भारी बोझ का सामान्‍य विरोध, हिंदी क्षेत्रों में अतिरिक्‍त आधुनिक भारतीय भाषा के अध्‍ययन के लिए अभिप्रेरण (मोटिवेशन) का अभाव, कुछ हिंदीतर भाषी क्षेत्रों में हिंदी के अध्‍ययन का विरोध तथा पांच से छह साल तक, कक्षा छठी से दसवीं तक दूसरी और तीसरी भाषा के लिए होने वाला भारी खर्च और प्रयत्न। शिक्षा आयोग ने कार्यान्‍वयन की कठिनाइयों का उल्‍लेख करते हुए कहा है कि गलत योजना बनाने और आधे दिल से सूत्र को कार्यान्वित करने से स्थिति और बिगड़ गई है। अब वह समय आ गया है कि सारी स्थिति पर पुनर्विचार कर स्‍कूल स्‍तर पर भाषाओं के अध्‍ययन के संबंध में नई नीति निर्धारित की जाए। अंग्रज़ी को अनिश्चित काल तक, भारत की सहचरी राजभाषा के रूप में स्‍वीकार किए जाने के कारण यह बात और भी आवश्‍यक हो गई है।
आस्था और भाषा के प्रति निष्ठा
अतः ऐसी परिस्थिति में कार्यालयों में हिंदी को प्रचलित करने तथा स्‍टाफ़ सदस्‍यों को सक्षम बनाने के लिए सतत और सत्‍यनिष्‍ठा के साथ शिक्षण प्रशिक्षण का हर संभव प्रयास करना होगा एवं हिंदी की सेवा से जुड़े हर व्‍यक्ति को अपने अहम् को दूर रखकर प्रयास करना होगा। गुरु रवींद्र नाथ टैगोर की चार पंक्‍ति‍यां उल्‍लेखनीय हैं
सांध्‍य रवि बोला कि लेगा काम अब यह कौन,
सुन निरुत्‍तर छबि लिखित सा रह गया जग मौन,
मृत्तिका दीप बोला तब झुकाकर माथ,
शक्ति मुझमें है जहां तक मैं करूंगा नाथ।।    
हर व्‍यक्ति को अपनी शक्ति के मुताबिक प्रयास करना होगा। ऐसे में हम यह चाहते हैं कि हर व्‍यक्ति अपने आप से यह प्रश्‍न करे कि यह बड़ा और दुष्‍कर कार्य कैसे होगा और उसका उत्‍तर भी स्‍वयं ढूंढे, कुछ इस प्रकार
बड़ा काम कैसे होता है, पूछा मेरे मन ने,
बड़ा लक्ष्‍य हो, बड़ी तपस्‍या, बड़ा हृदय, मृदुवाणी,
किंतु अहम् छोटा हो जिससे सहज मिलें सहयोगी,
दोष हमारा श्रेय राम का, यह प्रवृत्ति कल्‍याणी।।
फ़र्क़ शब्दावलियों के अपनाने का
इंग्लैंड में अंग्रेज़ी लागू करने में नई शब्दावली की प्रतीक्षा नहीं की गई। ज्ञान विज्ञान के सारे साहित्य को अनूदित किए बिना ही शिक्षा के माध्यम के रूप में अंग्रेज़ी को लागू कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ इस स्वतः ही विश्व का सारा ज्ञान विज्ञान रूपांतरित होकर मौलिक रूप में अंग्रेज़ी में अवतरित हो गया। आवश्यकता आविष्कार की जननी है। जब प्रकाशकों ने देखा कि शिक्षा का माध्यम अब अंग्रेज़ी हो गया है तो उन्होंने रातों-रात भाग दौड़ करके उन लेखकों को पकड़ा जो अपने ज्ञान विज्ञान को विदेशी भाषा में व्यक्त कर सकते। व्यापारियों की पारस्परिक प्रतिस्पर्धा के कारण हर विषय की एक से एक अच्छी पुस्तक बाजार में आने लगी। सरकार को इसके लिए विशेष प्रयास नहीं करना पड़ा। परंतु हिंदी में हम इसके विपरीत चल रहे हैं। हम सोचते हैं कि पहले सारा ज्ञान विज्ञान हिंदी में आ जाए फिर उसे शिक्षा का माध्यम बनाएं। ऐसा कभी होने वाला नहीं है। जब तक ज्ञान विज्ञान की पढ़ाई अंग्रेज़ी में होती रहेगी तब तक क्यों कोई लेखक हिंदी में पुस्तक लिखेगा और क्यों कोई प्रकाशक उसे छापेगा? और यदि उसे छाप भी लिया तो कोई उससे क्यों खरीदेगा? केवल सरकार ही ऐसा कर सकती है जिसके पास पैसे की कमी नहीं है। अपनी अकादमियों के माध्यम से सरकार के इस प्रकार के प्रयास का परिणाम यह हुआ कि आज प्रत्येक राज्य को हिंदी अकादमियों के भंडारों में ऐसी पुस्तकों से भरे पड़े हैं जो बिना विशेष रुचि या परिश्रम के, पारिश्रमिक की लालच में हिंदी में अनूदित एवं प्रकाशित हैं। माँग तो तब हो जब उसके अनुकूल परिस्थितियां पैदा हों। अतः पहले हिंदी को शिक्षा एवं शासन के माध्यम के रूप में लागू किया जाए तो फिर तद्विषयक हिंदी पुस्तकों की माँग स्वतः ही उत्पन्न होगी। किंतु हम इसके विपरीत प्रतीक्षा कर रहे हैं कि पहले तैरना सीख लें फिर पानी में उतरें जबकि वास्तविकता का क्रम इस से उल्टा है।
इसी तरह एक वर्ग ऐसा है जो अंग्रेज़ी की खिड़की पर मुग्ध होकर अपनी भाषा के द्वार को बंद किए हुए है। वह यह नहीं समझता है कि खिड़की आख़िर खिड़की ही है। वह द्वार का स्थान कभी नहीं ले सकती। जब तक हम स्वभाषा के ज्ञान के द्वार का उपयोग खुलकर नहीं करेंगे तब तक विश्व ज्ञान के अबाध आदान प्रदान के लिए हमें एक खिड़की पर ही निर्भर करना पड़ेगा।
ऐसी स्थिति में हमारा विश्वास है कि अंग्रेज़ी के अभ्युत्थान की प्रक्रिया से हम कोई सबक ले सकें तो वह हमारी राजभाषा की प्रगति में सहायक सिद्ध हो सकता है और हमारी तद्विषयक अनेक समस्याओं के समाधान का उपाय सुझा सकता है।
­-डॉ. दलसिंगार यादव
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