सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

अहम्


ये आसमान और मेरे अरमान
दूरी दोनों की एक जितनी सम्भव
जब - जब आसमान तक निगाह उठी
अरमानों का रेला सामने चला आता है।


ये तारे और मेरी चाहतें
दोनों की एक जितनी संख्या सम्भव
जब - जब तारे गिनने की कोशिश की
मेरी चाहतों का ढेर लग जाता है।






ये नदिया और मेरी कल्पनाएँ
दोनों का स्वभाव एक जैसा सम्भव
जब - जब लहरों को गिनना चाहा
मेरी कल्पना का समुद्र सामने आ जाता है ।




तुम और मैं , मैं और तुम
एक जैसे सम्भव
जब भी तुम तक पहुँचने की कोशिश की
मेरा " मैं " मेरे सामने आ जाता है|



संगीता स्वरुप

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

कलगी बाजरे की

आपको यह बताना चाहूंगा कि मैं भी भारतीय वायु सेना से Junior Warrant Officer के पोस्ट से रिटायर्ड होकर वर्तमान मे आयुध निर्माणी बोर्ड, कोलकाता, भारत सरकार, रक्षा मंत्रालय के राजभाषा विभाग में हिंदी अनुवादक के पद पर कार्यरत हूँ। एक सैनिक होने के नाते भी मेरा साहित्यिक मन बरबस ही उनसे जुड़ गया है क्योंकि साहित्य जीवन में पदार्पण करने के पूर्व ‘अज्ञेय’ जी भी एक सैनिक ही थे।
उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए आपके सुझाव एवं प्रतिक्रिया की आतुरता से प्रतीक्षा रहेगी। एक टिप्पणी देकर उस दिवंगत आत्मा को श्रद्धा-सुमन अर्पित करें। धन्यवाद।



कलगी बाजरे की

हरी बिछली घास।
दोलती कलगी छरहरे बाजरे की।

अगर मैं तुम को ललाती साँझ के नभ की अकेली तारिका
अब नहीं कहता,
या शरद के भोर की नीहार-न्हायी कुँई,
टटकी कली चम्पे की,वगैरह, तो
नहीं कारण कि मेरा हृदय उथला या सूना है
या कि मेरा प्यार मैला है।

बल्कि केवल यही :ये उपमान मैले हो गए हैं।
देवता इन प्रतीकों के कर गये हैं कूच।

कभी बासन अधिक घिसने से मुल्लमा छूट जाता हैं।
मगर क्या तुम नहीं पहचान पाओगी :
तुम्हारे रूप के – तुम हो, निकट हो, इसी जादू के -
निजी किसी सहज,गहरे बोध से,किस प्यार से मैं कह रहा हूँ –
अगर मैं यह कहूँ-
बिछली घास हो तुम
लहलहाती हवा में कलगी छरहरे बाजरे की ?

आज हम शहरातियों को
पालतू मालंच पर सँवरी जुही के फूल से
सृष्टि के विस्तार का-ऐश्वर्य का -औदार्य का-
कहीं सच्चा, कहीं प्यारा एक प्रतीक
बिछली घास है,
या शरद की साँझ के सूने गगन की पीठिका पर दोलती कलगी अकेली बाजरे की ।

और सचमुच, इन्हे जब-जब देखता हूँ
यह खुला विरान संसृति का घना हो सिमट आता है-
और मैं एकांत होता हूँ समर्पित।


शब्द जादू हैं -
मगर क्या यह समर्पण कुछ नही है !

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

स्वागत बसंत

स्वागत बसंत

-- करण समस्तीपुरी


स्वागत ! स्वागत !! स्वागत बसंत !!!
हे प्रेम पुंज ! हे आस रूप !!
ऋतुपति तेरी सुषुमा अनंत !!!
स्वागत ! स्वागत !! स्वागत बसंत !!!


कानन की कांति के क्या कहने !
किसलय कली कुसुम बने गहने !
अवनि शुचि पीत सुमन पहने !
मानो विधि की रचना जीवंत !!
स्वागत ! स्वागत !! स्वागत बसंत !!!



आम मंजरी की महक से,
और खगकुल की चहक से !
और अलिकुल की भनक से !
गूंजते हैं दिक् दिगंत !
स्वागत ! स्वागत !! स्वागत बसंत !!!


मन्मथ की मार बनी असहय !
कोकिल की कूक करुण अतिशय !
सुन विरही उर उपजे संशय !
विरहानल को भड़काने या,
करने आए हो सुखद अंत !
स्वागत ! स्वागत !! स्वागत बसंत !!!

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

बाबा

डाउनलोड करेंअरुण जी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। कुछ दिनों पूर्व उनसे उनकी कविता पर बातें कर रहा था तो उनसे पूछ बैठा  इतनी गंभीर गहन काव्य की रचना के प्रेरणास्रोत कौन है। तो अरुण जी अपना एक संस्मरण सुनाने लगे, जब उनकी मुलाक़ात बाबा नागार्जुन से हुई थी और उन्हें उन्होंने अपनी एक कविता भेंट की थी। तब बाबा ने अपने करकमलों से उन्हें शुभकामना देते हुए कहा था कि इतनी अच्छी समीक्षा मेरे उपन्यास की किसी ने नहीं की है। बाबा ने भारतीय परम्पराओं का पालन अपनी रचनाओं में करने के साथ-साथ शोषण विरोधी व सर्वहारा के पक्ष की बात की, यही हमे अरुण की रचनाओं में मिलती है। नागार्जुन की तरह ही अरुण भी मानवीय अनुभूतियों के कवि हैं। हमने अरुण जी से आग्रह किया था कि अपनी उस कविता को राजभाषा हिन्दी के लिए दें। उन्होंने हमारा आग्रह माना। हम उनके आभारी हैं। तो आज पेश है अरुण जी की वही कविता – “बाबा”। …. ….. ….मनोज कुमार
मेरा फोटो“बाबा नागार्जुन अप्रैल १९९२ में धनबाद (अब झारखण्ड) आये थे.  मेरी बहुत इच्छा थी कि बाबा से मिलू .. बहुत डर भी रहा था कि बाबा मिलेंगे कि नहीं. मेरे पास कुछ था नहीं अर्पित करने को उन्हें. बस कुछ कवितायें और उनके उपन्यास का अध्यनन था मेरे पास. तुरंत बारहवी किया था और साथ ही 'बाबा बटेसरनाथ' पढ़ रहा था. उस उपन्यास के कथानक और चरित्रों का मन पर गहरा छाप था. सोचा इन्ही चरित्रों पर एक कविता लिख कर ले चालू बाबा के पास. लगभग बीस वर्ष बाद अभी बाबा नागार्जुन का यह जन्मशताब्दी वर्ष है. मेरे पास फिर कुछ नहीं है अर्पित करने को उन्हें.. उस कविता के अतिरिक्त जिसे बाबा ने अपने मोटे मेग्निफायिंग लेंस से पढ़ा था और अपने कांपते हाथों से टिप्पणी भी की थी... अपने साथ रहने का अनुरोध भी किया था लेकिन मेरा दुर्भाग्य.... प्रस्तुत है कविता "बाबा" .. ” अरुण चन्द्र रॉय
Nagarjun
बाबा
डाउनलोड करें (4)बाबा
अपनी दिव्य दृष्टि मेरी ओर भी डाल
मैं तुम्हारा हूँ 'जय किशुन'


याद नहीं तुम्हे
वही जय किशुन
राउत का बेटा
जिसे तुमने बताया था
अपना अतीत
उसका और उसके पूर्वजों का किस्सा
तुमने ही तो समझाया था
जय किशुन को मुक्ति-मार्ग
और पाकर तुम्हारा अदृश्य वरदहस्त
संघर्षशील हो गया था, वह.
तुमने ही तो उसके अंग अंग में
संघर्ष का बीज बोया था
वही 'जय किशुन ' हूँ, मैं
बाबा.


तुम तो सिखा गए मुझे
'टुनाई  पाठक' और
'जय नारायण झा' से मुक्ति का मार्ग
और मैंने वह पाया भी था.
किन्तु आज फिर
असंख्य  टुनाई और जयनारायण
हो गएँ हैं पैदा और
फिर रहे हैं हाथों में उठाये
शस्त्र-अस्त्र .


तुमने जिस टुनाई पाठक और जय नारायण झा की
चर्चा सुनायी थी
वह तो गैरमजरुआ जमीन
डाउनलोड करें (3)हथियाना चाहता था
लेकिन आज का टुनाई और जयनारायण
मेरी और अपनी माओं की कोख पर
चाहता है ग्रहण लगाना.
वह पाठक तो
बेवा कर गया अपनी बहिन को भी
और तुम्हारा वह जयनारायण
अपने ही भाइयों के खून से रंगे हुए है हाथ
क्योंकि अभी भी
जिंदा है 'भीम झा'
वह बहरूपिया है
भेष बदल लिया है उसने
अब तो खाखी वर्दी भी पा ली है
सच कहता हूँ
वह अब भी जिंदा है
और उतना ही क्रूर है
बाबा.


तुमने ही तो संतोष दिया था कि
छट गया है अँधेरा
सूर्य पुनः प्रकाशित हो उठा है
तुमने ही तो कहा था
जीत मेरी होगी
बस मेरी.
किन्तु तुम क्या जानो मेरा दर्द
उस समय तो गोरे, फिरंगी
लूटते थे हमें
किन्तु आज तो
हमारा 'जीवनाथ' , अपना 'वीरभद्र'
हत्यारा बना बैठा
बाबा.


आज मैं बिल्कुल अकेला हूँ
मेरा जीवनाथ छूट गया है
बहुत पीछे
और हो गया हूँ मैं
चलता फिरता, साँसे भरता जिंदा लाश .



मैं उस समय परेशान हो
तुम्हारी शरण में आया था
और तुमने ही बताया था
मुक्ति मार्ग
आज उस से अधिक विषम स्थिति में
पड़ा हूँ मैं
और बस तुम ही बता सकते हो
मुक्ति मार्ग
बाबा.
मैं कोई और नहीं, तुम्हारा जय किशुन
राउत का बेटा जय किशुन .
डाउनलोड करें

बंदिशें और ज़िंदगी

बंदिशें ज़िन्दगी में
हर पल कुछ यूँ
हावी हो जाती हैं
चाहता है कुछ मन
पर ख्वाहिशें
पूरी नही हो पाती हैं ।
यूँ तो हम सब
ज़िन्दगी जी ही लिया करते हैं
सुख के पल भी ज़िन्दगी में
अनायास ही पा लिया करते हैं ।
हंस लेते हैं महज़ हम
इत्तफाक से कभी कभी
खुश हो लेते हैं यह सोच
कि ज़िन्दगी में कोई कमी तो नही ।
पर गायब हो जाती है मुस्कान
ये सोच कि -
हम कौन सा पल
अपने लिए जिए ?
अब तक तो मात्र
सबके लिए फ़र्ज़ पूरे किए।
ढूंढे से भी नही मिलता वो एक पल
जो हमने अपने लिए जिया हो
बंदिशों के रहते
किसी पल को भी अपना कहा हो।
रीत जाती है ज़िन्दगी
बस यूँ ही चलते - चलते
बीत जाती है ज़िन्दगी 
बंदिशों में ढलते - ढलते |



संगीता स्वरुप 

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

इस बार मैं ‘अज्ञेय’ जी की निम्नलिखित कविता प्रस्तुत कर रहा हूं, इस आशा और विश्वास के साथ कि अन्य कविताओं की तरह यह कविता भी आपके दिल में उनके तथा मेरे प्रति भी थोड़ी सी जगह पा जाए। जाने वाले चले जाते हैं, केवल उनकी यादें ही रह जाती हैं। उनको याद करने के बहाने ही सही, अपनी टिप्प्णी देकर उनको श्रद्धा-सुमन अर्पित करना ही हम सब के लिए दिवंगत आत्मा के प्रति एक समर्पण होगा एक सच्ची विनम्र श्रद्धांजलि होगी अन्यथा हम सब के लिए हिंदी ब्लाग से जुड़ा रहना अर्थहीन सिद्ध होगा।सुझाव है-इस क्षेत्र में प्रवेश करते समय हमें इस वास्तविक को स्वीकार करना पड़ेगा कि हम अपने प्रकाशस्तम्भों के चिर-सामीप्य में रहकर ही साहित्य की सच्ची सेवा कर सकते हैं।

कितनी नावों में कितनी बार

कितनी दूरियों से कितनी बार
कितनी डगमग नावों में बैठकर
मैं तुम्हारी ओर आया हूं
ओ मेरी छोटी सी ज्योति !
कभी कुहासे में तुम्हे न देखता भी
पर कुहासे की ही छोटी-सी रूपहली झलमल में
पहचानता हुआ तुम्हारा ही प्रभा-मंडल

कितनी बार मैं,
धीर, आश्वस्त, अक्लांत-
ओ मेरे अनबुझे सत्य ! कितनी बार
और कितनी बार कितने जगमग जहाज
मुझे खींच कर ले गए हैं कितनी दूर
किन पराए देशों की बेदर्द हवाओं में
जहाँ नंगे अंधेरों को
और भी उघाड़ता रहता है
एक नंगा, तीखा, निर्मम प्रकाश-
जिसमें कोई प्रभा-मंडल नही बनते
केवल चौधियाते हैं तथ्य, तथ्य-तथ्य -
सत्य नही अंतहीन सच्चाइयां.......
कितनी बार मुझे
खिन्न, विकल, संत्रस्त......
कितनी बार!

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शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

नवगीत :: गुप्त गोदावरी होकर बहो मुझमें बहो!

नवगीत

गुप्त गोदावरी होकर बहो मुझमें बहो!

Sn Mishraश्यामनारायण मिश्र

गुप्त गोदावरी होकर,

बहो मुझमें

बहो भीतर बहो!

 

हम उजड़े तट हैं,

अपनी पहचान यही

कंधों पर शव

       वक्ष पर चिता है,

पर्वत हैं वे

नदियों को फेंकना-पटकना

आता है इनको

       ये पिता हैं,

झरने से झील हो

सर पटकती रहो!

गुप्त गोदावरी होकर,

बहो मुझमें

बहो भीतर बहो!

रेत-रेत होकर

घुलना, फिर बहना तुममें

सदा-सदा साथ-साथ

             बहने के प्रण हम।

नित्य  नए मेलों पर

पर्वों पर उत्सव पर

छोटी सी पंखुरी

             छोटे से कण हम।

तुम्हें भी कुछ याद है,

याद है तो कहो

कुछ तो कहो!

गुप्त गोदावरी होकर,

बहो मुझमें

बहो भीतर बहो!

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011


अपने पिछले पोस्टों में मैने ‘अज्ञेय” जी की रचनाओं को पोस्ट किया था एव लोगों ने इस प्रयास को सराहा था। इस बार मैं सुदामा प्रसाद ,’धूमिल’ जी की बहुचर्चित रचना ‘कविता’ पोस्ट कर रहा हूं, इस आशा और विश्वास के साथ की यह रचना भी अन्य रचनाओं की तरह आपके अंतर्मन को सप्तरंगी भावनाओं के धरातल पर आंदोलित करने के साथ उनके तथा मेरे प्रति भी आप सब के दिल में थोड़ी सी जगह पा जाए। मुझे आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप सब अपना COMMENT देकर मुझे प्रोत्साहित करने के साथ-साथ अपनी प्रतिक्रियाओं को भी एक नयी दिशा और दशा देंगे। धन्यवाद।।
……………………………………………………………………..
कविता

उसे मालूम है कि शव्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
और हत्या अब लोगों की रूचि नही-
आदत बन चुकी है

वह किसी गँवार आदमी की उब से
पैदा हुई थी और
एक पढ़े लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी

एक संपूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान की क्रिया से गुजरते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाश है
लगातार बारिस में भींगते हुए
उसने जाना कि हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है और कविता।
हर तीसरे पाठ के बाद

नही-अब वहां अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हाँ, हो सके तो बगल से गुजरते हुए आदमी से कहो-
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलुस के पीछे गिर पड़ा था
इस वक्त इतना ही काफी है

वह बहुत पहले की बात है
जब कही, किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब-
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है।
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011


मैं सुदामा प्रसाद ,’धूमिल’ जी की बहुचर्चित रचना ‘कविता’ पोस्ट कर रहा हूं, इस आशा और विश्वास के साथ की यह रचना आपके अंतर्मन को सप्तरंगी भावनाओं के धरातल पर आंदोलित करने के साथ उनके तथा मेरे प्रति भी आप सब के दिल में थोड़ी सी जगह पा जाए। मुझे आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि आप सब अपना COMMENT देकर मुझे प्रोत्साहित करने के साथ-साथ अपनी प्रतिक्रियाओं को भी एक नयी दिशा और दशा देंगे। धन्यवाद।।

प्रेम सागर सिंह
……………………………………………………………………..
कविता

उसे मालूम है कि शव्दों के पीछे
कितने चेहरे नंगे हो चुके हैं
और हत्या अब लोगों की रूचि नही-
आदत बन चुकी है

वह किसी गँवार आदमी की उब से
पैदा हुई थी और
एक पढ़े लिखे आदमी के साथ
शहर में चली गयी

एक संपूर्ण स्त्री होने के पहले ही
गर्भाधान की क्रिया से गुजरते हुए
उसने जाना कि प्यार
घनी आबादीवाली बस्तियों में
मकान की तलाश है
लगातार बारिस में भींगते हुए
उसने जाना कि हर लड़की
तीसरे गर्भपात के बाद धर्मशाला हो जाती है और कविता।
हर तीसरे पाठ के बाद

नही-अब वहां अर्थ खोजना व्यर्थ है
पेशेवर भाषा के तस्कर-संकेतों
और बैलमुत्ती इबारतों में
अर्थ खोजना व्यर्थ है
हाँ, हो सके तो बगल से गुजरते हुए आदमी से कहो-
लो, यह रहा तुम्हारा चेहरा,
यह जुलुस के पीछे गिर पड़ा था
इस वक्त इतना ही काफी है

वह बहुत पहले की बात है
जब कही, किसी निर्जन में
आदिम पशुता चीखती थी और
सारा नगर चौंक पड़ता था
मगर अब-
अब उसे मालूम है कि कविता
घेराव में
किसी बौखलाए हुए आदमी का
संक्षिप्त एकालाप है।
++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++++

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

मुखरित मौन


जब व्यापता है
मौन मन में
बदरंग हो जाता है
हर फूल उपवन में
मधुप की गुंजार भी
तब श्रव्य होती नहीं
कली भी गुलशन में
कोई खिलती नहीं ।
शून्य को बस जैसे
ताकते हैं ये नयन
अगन सी धधकती है
सुलग जाता है मन ।
चंद्रमा की चांदनी भी
शीतलता देती नहीं
अश्क की बूंदें भी
तब शबनम बनती नहीं ।
पवन के झोंके आ कर
चिंगारी को हवा देते हैं
झुलसा झुलसा कर वो
मुझे राख कर देते हैं .

हो जाती है स्वतः ही
ठंडी जब अगन
शांत चित्त से फिर
होता है कुछ मनन
मौन भी हो जाता है
फिर से मुखरित
फूलों पर छा जाती है
इन्द्रधनुषी रंजित
अलि की गुंजार से
मन गीत गाता है
विहग बन गगन  में
उड़ जाना चाहता है ..

संगीता स्वरुप

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

कहानी ऐसे बनी 21 : घर भर देवर.....

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

पुराने लिंक

1. कहानी ऐसे बनी-१ :: नयन गए कैलाश ! 2. कहानी ऐसे बनी- 2 : 'न राधा को नौ मन घी होगा... !' 3. कहानी ऐसे बनी – 3 "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!" 4. कहानी ऐसे बनीं-४ :: जग जीत लियो रे मोरी कानी ! … 5. कहानी ऐसे बनी–५ :: छोड़ झार मुझे डूबन दे ! 6. कहानी ऐसे बनी– 6 -"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?" 7. कहानी ऐसे बनी– 7 :: मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!  8. कहानी ऐसे बनी– 8 :: न कढी बना न बड़ी! 9. कहानी ऐसे बनी-९ :: गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े ! 10. कहानी ऐसे बनी-१०::चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे। 11 कहानी ऐसे बनी-११ :: मियाँ बीवी के झगड़ा ! 12  कहानी ऐसे बनी-१२ :: बिना बुलाये कोहबर गए 13 कहानी ऐसे बनी-१३ :: लंक जरे तब कूप खुनाबा 14 मान घटे जहँ नित्यहि जाय 15 भला नाम ठिठपाल  16 छौरा मालिक बूढा दीवान 17तेल जले तेली का आँख फटे मशालची का 18 सास को खांसी बहू को दमा 19 वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले.... 20 बिना ब्याहे घर नहीं लौटे..... !

हैलो जी ! लीजिये, आ गई 14 फरवरी ! मत दिखाइए हरबड़ी !! और सुनिए एक ताज़ी कहानी कैसे बनी !!! अब क्या बताएं .... यह तो आप भी जानते ही होंगे। जैसे ही गोसाईं बाबा पर संक्रांति का तिल-गुड़ चढ़ता है, बस सारा पर्व-त्यौहार पसर जाता है। हम तो एक ही बात जानते हैं भैय्या ! जब जब बसंती बयार बहेगा तो मनवा में हिलोर तो मारेगा ही। पर्व-त्यौहार का बहाना कर के लोग मन का उल्लास बहराते हैं। अब देखिये न आज-कल गाँव-कस्बा से लेकर शहर-बाजार तक खाली पर्व-त्यौहार हो रहा है।

शहर में तो आज-कल भोलंटाइन बाबा की पूजा की तैय्यारी चल रही है। सब नुक्कड़-चौराहे पर न्योता का रंगीन कार्ड और भोलंटाइन बाबा पर चढ़ाया जाने वाला ताजा-ताजा लाल गुलाब का फूल मिल जाएगा। अब आप सोच रहे होंगे कि भोलंटाइन बाबा की पूजा क्या होती है ? अरे भाई, अँगरेज़ मुल्क में प्रेम के देवता को 'भोलंटाइन' कहते हैं। और अपने मुल्क में सबसे ज्यादा प्रेम फागुन में ही हुलसता है न। सो जवान-अधजवान लड़का-लड़की सब फागुन महीना में 14 फरबरी को भोलंटाइन बाबा की पूजा करते हैं। समझे ??? अब पार्क-वार्क में गला-वला मिलते तो देखते हैं लेकिन भोलंटाइन बाबा की पूजा का ज्यादा विध-विधान हमको पता नहीं है। हम ठहरे देहाती लोग। गांव में रहने वाले। गाँव में तो हमारे जैसे एकाध पढ़े-लिखे आदमी ही भोलंटाइन बाबा का नाम जानते हैं। बांकी को तो पता भी नहीं है। सब 'भोलंटाइन बाबा की पूजा' मनायेंगे और हम यहाँ अकेले बोर होंगे.... सो अच्छा है चल रे मन 'रेवा-खंड'। कुछ भी है तो अपना गाँव, स्वर्ग से भी सुन्दर!

लेकिन यह मत समझिये कि गाँव में सुन्ना उपवास है। भाई, पर्व तो गांव में भी हो रहा है। हमारा तो गाँव से पुराना प्रेम है। गाँव से दूर रहे तो फागुन में जब कोयलिया कूकती है तो विरहिन के हिरदय में जैसे हूक उठता है, वैसे ही हमारे कलेजे में टीस मारता है। अचानक लगा कि गाँव की एक-एक पगडण्डी विरह में बसंती राग गा रही है, "एलई फगुआ बहार..... हो बबुआ काहे न आइला..... !!" फिर हम से बर्दाश्त नहीं हुआ और बोरिया विस्तार समेटे और पकड़ लिए रेवा-खंड का रास्ता।

अभी झखना गाछी पार भी नहीं किये थे कि दूर से ही मृदंग के थाप पर झांझ की झंकार सुनाई दिया। भगलू दास गा रहा था, "गोरिया तोड़ देबौ गुमान..... अबके फगुआ में !" समझिये कि इतना सुनते ही हमारे पैर का गियर अपने-आप चेंज हो गया। धर-फर करते घर पहुंचे। बड़े-बुजुर्ग के पायं लागे और गठरी पटक कर फटाक से दौड़ गए चौपाल पर। फिर तो खूब हुआ जोगीरासा...रा...रा...रा...रा... !!

नयी दुल्हन की तरह कुसुम रंग चुनर ओढ़े हमारा गाँव फागुन मद में मदमाता हुलास भर रहा था। शहर-बाजार, दूर-देश में रहने वाले भी होली खेलने 'रेवा-खंड' आ गए थे। चारो तरफ गुलजार था। बड़का कक्का के आंगन में तो दो दिन पहले ही से झमाझम रंग बरस रहा था। पीरपैंती वाली भौजी और पुर्णिया वाले पाहून आये हुए थे। दरभंगा से बड़की दीदी भी आयी थी। रगेदन भाई का ब्याह हुआ था पिछले लगन में। उनकी लुगाई, मतलब नवादा वाली भौजी की पहली होली थी ससुराल में।

लगता है कक्का के आँगन में फागुनी पूर्णिमा पहले ही आ गया है। काकी भोर से तान छोडी हुई है,"केशिया संभारि जुड़वा बाँध ले बहुरिया..... होली खेले आएतो देवर-ननदोसिया !!'

उधर ढोरिया अलग ही राग अलाप रहा था, "ऐसे होली खेलेंगे..... नयकी भौजी के संग...रंग...!"

हम भी चट से हजूम में शामिल हो गए। दीदी, भौजी, पाहून, भैया, सुखाई, चमन लाल सब मिल कर लगे फगुआ के रंग लूटने। पुर्णिया वाले पाहून डफली पीट-पीट कर कूद रहे थे। बड़की भौजी देकची पर ताल दे रही थी। बांकी लोग ताली पीट-पीट कर होली गा रहे थे।

इधर तो आँगन में होली की धूम मची थी लेकिन रगेदन भाई की लुगाई ओसारे पर से गुम-सुम देख रही थी। हम भी कम उकाथी नहीं हैं। लगे उनकी तरफ इशारा कर के गाने, "जियरा उदास भौजी सोचन लागी ! आँगन टिकुली हेराय हो..... जियरा.... !!"

हमको लगा कि भौजी इस गीत पर आयेगी अंगना में। लेकिन यह क्या ...... भौजी तो नहीं ही आयीं, उन का इशारा पाकर रगेदन भाई भी अन्दर चले गए। हमलोग समझे कि अच्छा कोई बात नहीं, भौजी की पहली-पहली होली है, सो शरमा रही हैं। रगेदन भाई अपने साथ लेकर आयेंगे।

एक गीत पास हुआ। दूसरा हुआ। फिर जोगीरा सा...रा....रा....रा....रा.... !! लेकिन न रगेदन भाई आये ना भौजी। हमलोग सोचने लगे कि क्या बात है? तभी अन्दर से टेप-रिकॉर्डर पर फिल्मी होली बजने की आवाज़ आई ....... 'चाभे गोरी का यार बलम तरसे.... रंग बरसे....!'

अच्छा तो ये बात है ........ अन्दर में ही प्रोग्राम चल रहा है। वाह रे वाह .... भौजी तो अन्दर में खिलखिला कर हंस रही हैं। अब तो इसी बात पर काकी खिसिया गयी। बोली, "देखो रे बाबू नया जमाना के कनिया..... ! इसी को कहते हैं 'घर भर देवर, पति से ठट्ठा !!'

गुस्से में काकी ऐसे अलाप के बोलीं थीं कि पूरी मंडली को हंसी आ गयी। काकी फेर चौल करते हुए बोली, "हाँ रे बाबू ! देखते नहीं हो ? यहाँ आँगन में ननद-ननदोई, देवर फैले हुए हैं और दुल्हिन रगेदेन के साथ ही हंसी ठिठोली कर रही है। अब इस पर तो कहेंगे ही न, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !"

हम भी लगे-लगे दुहरा दिए, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !" फिर पूछे, "लेकिन काकी ! इस कहावत का अर्थ क्या होता है ?”

काकी देहाती भाषा में जो इसका अर्थ बताई वह आपकी समझ में आयेगा कि नहीं यह तो पता नहीं। मगर हम अपनी तरफ से समझाने का कोशिश करते हैं। "घर भर देवर, पति से ठट्ठा" का मतलब हुआ, 'हंसुआ का ब्याह में खुरपी का गीत' अवसर है कुछ का और कर रहे हैं कुछ। दूसरा, गाँव घर में आज भी रिश्तों में काफी अनुशासन बरता जाता है। वहाँ पर हर रिश्ते के लिए अलग-अलग भाव, स्नेह, प्रेम और सम्मान है। हंसी मजाक का रिश्ता है देवर से। मान लिया कि कहीं देवर नहीं रहे तो कोई बात नहीं। जब देवर की प्रचुरता है, तब कोई पति से ही ठट्ठा मतलब मजाक करे तो कहाबत सही ही है, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !"

अब इसका भावार्थ ये हुआ कि 'उचित संसाधन की उपलब्धता के बावजूद जब कोई व्यक्ति, वस्तु या संबंधों का दुरूपयोग करे तो काकी की कहावत याद रहे, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !"

तो यह थी आज की कहानी ऐसे बनी ........ पसंद आया तो दे ढोलक पर ताल....... और बोलिए, जय हो भोलंटाइन बाबा की ............ !!!!

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

नवजागरण काव्य और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

नवजागरण काव्य और भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

मनोज कुमार

आधुनिक हिन्दी कविता का प्रारंभ उन्नीसवीं सदी में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से माना जाता है। इस समय अंग्रेज़ मिशनरियां भारत में अपने पैर जमा रही थीं। ईस्ट इंडिया कम्पनी धीरे-धीरे व्यापारिक मकसद से अपना राज स्थापित कर रही थी। वे राजाओं को आपस में लड़वा रहे थे और जनता का शोषण कर यहां का धन अपने देश ले जा रहे थे। इस शोषण और लूट-पाट के कारण देश की जनता ग़रीबी की मार झेल रही थी। स्वाधीनता संग्राम के रूप में सन्‌ 1857 में अंग्रेज़ों की इस साजिश के प्रति विस्फोट हुआ। यह सुनियोजित न होने के कारण विफल रहा। किन्तु जो सबसे बड़ी बात थी, वह यह कि इसमें सभी वर्गों, सम्प्रदायों, भाषा-भाषियों ने एक साथ भाग लिया। इसकी विफलता के बाद देश की बागडोर ईस्ट इंडिया कम्पनी के हाथ से निकल कर ब्रिटिश संसद के हाथ में आ गई, जिसकी मुखिया महारानी विक्टोरिया थी।

इस आधुनिक युग में कविता के स्वरूप में भी व्यापक परिवर्तन आया। रीतिकालीन कविता के विपरीत इस युग की कविता विषय, रूप, भाव, भाषा के स्तर पर नया रूप धारण करने का प्रयास करने लगी। कविता पहली बार दरबार से बाहर निकली। उसका जनता के साथ सीधा संबंध स्थापित हुआ। इस कोशिश में भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने नाटक, निबंध, कविता आदि के माध्यम से साहित्य और समाज के बीच के संबंधों को नये ढंग से समझने-समझाने का प्रयास किया।

पश्चिम बंगाल सबसे पहले पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क में आया। फलस्वरूप बंगाल में नए विचारों का प्रादुर्भाव हुआ। मध्यकालीन रूढिवादिता, संकीर्णता, अंधविश्वासी चेतना में जकड़े समाज को झकझोर कर जगाने का काम राजा राम मोहन राय, ईश्वरचंद विद्यासागर, केशवचंद्र सेन, देवेन्द्रनाथ ठाकुर, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद जैसे विद्वानों ने अपने हाथ में लिया। 1828 में ब्रह्म समाज की स्थापना हुई। बाल-विवाह पर रोक, विधवा विवाह की अनुमति, नारी शिक्षा, अंध विश्वासों के प्रति आवाज़ उठाना इनके प्रमुख क्रिया कलाप थे। इनके प्रयासों से देश के विभिन्न भागों में भी क्रांति के स्वर गूंजने लगे। समाज सुधार का आन्दोलन चल पड़ा।

इन सब से प्रेरित हो कर भारतेन्दु अपने छोटे से जीवन में क्रांति की यह ज्योति अपनी रचनाओं में ले आए और खुलकर सामाजिक सुधारों का झंडा उठा लिया। स्वतंत्र कविताओं के अलावा नाटकों के लिए लिखी गई कविताओं में भी समाज सुधार के उनके विचार अभिव्यक्त हुए हैं। समाज की रूढिवादिता का विरोध उनका मकसद था। वे चाहते थे कि लोग अंग्रेज़ी शिक्षा ग्रहण करें ताकि विश्व के ज्ञान-विज्ञान से उनका परिचय हो।

लखहुं न अंगरेजन करी उन्नति भाषा मांहि।

सब विद्या के ग्रंथ अंगरेजिन मांह लखहिं॥

इसका मतलब यह कदापि नहीं था कि वे अपनी भाषा को छोड़ने की बात करते थे। वे निजभाषा का भी ज़ोर-शोर से पक्ष लेते हैं।

निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के मिटत न हिय को सूल॥

भारतेन्दु ने हिन्दी प्रचार-प्रसार के साथ ही नवजागरण और समाजसुधार का अभियान भी चलाया। धार्मिक अंधविश्वास, सामाजिक रूढिवादिता, छुआ-छूत, ऊंच-नीच की भावना के विरोध में उन्होंने कविताओं आदि के माध्यम से अभिव्यक्ति दी। उन्होंने काव्य को जनता के साथ जोड़ा।

रचि बहुविधि के वाक्य पुरानन मांहि घुसाए।

शैव शाक्त वैष्णव अनेक मत प्रगटि चलाए।।

जाति अनेकन करी नीच अरु ऊंच बनायो।

खान-पान संबंध सबन सों बरजि छुड़ायो॥

वे नारी शिक्षा के हिमायती थे। वेश्यागमन के ख़िलाफ़ थे। नारी को पुरुष के बराबर मानने के पक्षधर थे। स्त्री के लिए उपयोगी पत्रिका “बालाबोधिनी” का प्रकाशन भी उन्होंने शुरु किया। इसके मुख्यपृष्ठ पर लिखा रहता था,

“जो हरि सोई राधिका जो शिव सोई शक्ति।

जो नारी सोई पुरुष यामैं कछु न विभक्ति॥”

उन्होंने विधवा विवाह के पक्ष में “वैदिकी हिंसा न भवति” में लिखा,

नष्टे मृते प्रवजिते क्लीवे च पतिते पतौ।

पंच स्वायत्सु नारीणां पतिरुयो विधीयते॥

अर्थात्‌ पति के नष्ट हो जाने, मर जाने, लापता हो जाने, नपुंसक हो जाने पर, इन पांच प्रकार की विपत्तियों में पड़ी स्त्रियों के लिए दूसरे पति का विधान है। ईश्वरचंद्र विद्यासागर से वे काफ़ी प्रेरित थे। उन्होंने कविता में भी इस तरह की आवाज़ दी है,

सुंदर बानी कहि समुझावै।

बिधवागन सों नेह बढावै।

दयानिधान परम गुन-आगर।

सखि सज्जन नहिं विद्यासागर।

भारतेन्दु की रचनाओं में देशभक्ति की भावना भी उजागर हुई है। उन्होंने अंग्रेज़ी शासन और भारतीय जनता के बीच उपस्थित अंतर्विरोध को समझा और इसे अभिव्यक्त करते हुए लिखा,

अंगरेज राज सुख-साज सज्यौ है भारी,

पै धन विदेश चलि जात इहै अति ख्वारी।

उन्होंने ब्रिटिश शासन की व्यावसायिक वृत्ति को भारत की दुर्दशा का कारण भी माना है। स्वदेशी का समर्थन करते हुए लिखा है,

धन विदेश चलि जात, तऊ जिय होत न चंचल।

जड़ समान ह्वै रहत अकिलहत रचत सकल कल॥

जीवत विदेस की वस्तु लै ता बिन कछु नहिं कर सकत।

पुनर्जागरण के ऐसे समय में जब देश में समाज एक ओर धर्मांधता, रूढिवादिता और समाजविमुख परंपरा से लड़ने के लिए तैयार हो रहा था और दूसरी ओर साम्राज्यवादी ताकत का मुकाबला करने के लिए भी तैयार होना चाहता था, ऐसे में भारतेन्दु का साहित्य विशेषकर उनका काव्य इन अन्तर्विरोधों को अपनी रचना-प्रक्रिया का अंग बनाकर सृजन के धरातल पर आया। उन्होंने अपने युग की वस्तु-स्थिति को समझा। उसके सामाजिक अंतर्विरोधों को पहचाना। राष्ट्रीय-जागरण की आवश्यकता महसूस किया। इसके साथ ही एक जागृत विवेक के साथ साहित्य को आम जनता के साथ कुशलतापूर्वक जोड़ा।

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

मन-मस्तिष्क सितार हो गए–कविता श्यामनारायण मिश्र

वसन्त का आगमन हो चुका है. १४फ़रवरी भी निकट ही है. ऐसे में वातावरण में एक संगीत सा रच बस गया है. ऐसे में  मुझे श्यामनारायण मिश्र जी की एक छोटी कविता याद आ रही है. उसे ही आज पेश करता हूं.
मन-मस्तिष्क सितार हो गए
तुमने नेह-नज़र से देखा
    सब अभाव अभिसार हो गए.
मनु के एकाकी जीवन में
    श्रद्धा के अवतार हो गए.

हर मौसम वसंत का मौसम
             रात चांदनी रात हो गई.
कांटों के जंगल में जैसे
            फूलों की बरसात हो गई.
जब से छेड़ दिया है तुमने
      मन-मस्तिष्क सितार हो गए.
तुमने नेह-नज़र से देखा
    सब अभाव अभिसार हो गए.
मनु के एकाकी जीवन में
    श्रद्धा के अवतार हो गए.

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

पुण्य की पोटली छू अधोगामी हुए

पुण्य की पोटली छू अधोगामी हुए

श्यामनारायण मिश्र

यहां, ऊंचे स्वार्थ के पर्वत

और सूखी झील है संवेदना की,

             बहुत हुआ तीर्थ, चल वापस लौट चल।

 

जो बोकर आए थे पीछे सब सूख गया।

हाथ पर साधा नहीं, ओठों पर चूक गया।

श्रद्धा से सूंघ मत,

मीरा का शाल नहीं,

कंचुकि है पूतना की,

             बहुत हुआ तीर्थ, चल वापस लौट चल।

 

पाप की ही सही निष्ठा से ढोने का अपना सुख था।

अपने ही हाथ, अपना ही दर्पण, अपना ही मुख था।

पुण्य की,

यह पोटली छू अधोगामी हुए,

और अपनी ही सतत्‌ अवमानना की,

             बहुत हुआ तीर्थ, चल वापस लौट चल।

 

किस पर है कितना, वयौहर पर छोड़ गुणा-भाग।

ठंडा मत होने दे प्राणों का अलाव, सांसों की आग।

किस-किसके लिए किए आत्महंत अनुष्ठान

आहुतियां दे डाली भावना की,

             बहुत हुआ तीर्थ, चल वापस लौट चल।

बुधवार, 2 फ़रवरी 2011

आधुनिक हिन्दी काव्य

मनोज कुमार

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र से लेकर समकालीन कविता तक की विकास यात्रा विभिन्न चरणों से गुज़री है। नवजागरण, छायावदी, छायावादोत्तर, प्रगतिशील, नयी कविता के दौर से गुज़रते हुए हिन्दी कविता ने परिपक्वता की कई मंज़िलें तय की है। हर युग, हिन्दी कविता के बदलते मिजाज़, सम्प्रेषण की नयी-नयी विधियां, भाव-भाषा-संरचना के नये-नये प्रयोग के साथ, अपनी विशिष्ट पहचान और लक्षणों को लिए थे।

नवजागरण काव्य आधुनिक हिन्दी काव्य का शुरुआती दौर था, जिसके प्रमुख कवि भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और मैथिलीशरण गुप्त थे। प्रसाद, निराला, पंत और महादेवी वर्मा का काल छायावादी काव्य का काल रहा जबकि राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा के प्रमुख कवि रामधारी सिंह दिनकर छायावादोत्तर काव्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। नागार्जुन, गजानन माधव मुक्तिबोध और सुदामा प्रसाद पाण्डेय ‘धुमिल’ को हिन्दी कविता के प्रगतिशील काव्य का प्रतिनिधित्व करते हैं। शमशेर बहादुर सिंह, रघुवीर सहाय तथा श्रीकांत वर्मा का दौर नयी कविता का दौर रहा।

भारतेन्दु युग से पहले हिन्दी की जिस कविता से हमारा परिचय होता है, उसे रीति काव्य के नाम से जाना जाता है। इस युग का काव्य अपने स्वरूप और संरचना की दृष्टि से रुढिबद्ध, श्रृंगारपरक और सामंत वर्ग का अनुरंजन (दिल-बहलाव) करने वाला काव्य था। इस काल की कविताओं का सृजन, अधिकांशतः दरबारियों, राजाओं और मनसबदारों की चाटुकारिता, स्तुति गायन और उन्हें प्रसन्न करने के लिए वीरता की झूठी प्रशंसा हेतु

किया गया। काव्य का सृजन हंसाने, चमत्कृत करने और उनकी रंगरेलियों को और अधिक मधुर बनाने के लिए काव्य के परंपरागत लक्षणों के आधार पर होता रहा। समाज के व्यापक भावबोध से ये कविताएं कटी हुयी थीं। सीधे शब्दों में कहें तो साहित्य का संबंध समाज से नहीं था। इसलिए इनका ऐतिहासिक महत्त्व भले हो, किंतु इनमें सामाजिक और सांस्कृतिक चिंताओं के न होने से इनका महत्त्व कम जाता है। हालाकि भक्ति, वीर और नीति काव्य की रचनाएं भी इस दौर में हुईं, पर मुख्य धारा रीति बद्धता की रही।

आधुनिक हिन्दी कविता का आरंभ 19वीं शती के उत्तरार्द्ध में हुआ था। यह वह समय था जब भारतेन्दु हरिश्चन्द्र सक्रिय थे। इस समय बंगाल, महाराष्ट्र और पंजाब में सामाजिक-सांस्कृतिक सुधार आन्दोलन की गूंज चारों दिशाओं में फैल रही थी। इस धर्म-समाज सुधारक आन्दोलन की गतिविधियों से हिन्दी साहित्य भी काफ़ी प्रभावित हुआ। कविताओं के माध्यम से नवजागरण यानी फिर से सजग होने की अवस्था या भाव, की अभिव्यक्ति हुई। भारतेन्दु युग और द्विवेदी युग की रचनाएं नवजागरण का स्रोत और माध्यम रही हैं। यह युग हिन्दी के मध्य से सर्वथा भिन्न था और आधुनिक युग के रूप में अपनी नयी पहचान बना सका। हिन्दी की आधुनिक कविता की प्रक्रिया इसी युग से शुरु होती है।

इस युग की कविताओं में भारतीय नवजागरण के प्रमुख तत्त्व – प्राचीन संस्कृति पर निर्भरता, ईश्वर की जगह मानव केन्द्रीयता और जातीय राष्ट्रीय भाषा के रूप में हिन्दी खड़ी बोली की स्वीकृति, मिलते हैं। नवजागरण की दृष्टि से यह युग नवजागरण का काल था। इस काल में नये-पुराने के बीच संघर्ष की स्थिति थी। जहां एक ओर प्राचीन के प्रति बरकरार मोह और नये का तिरस्कार था, वहीं दूसरी ओर नये के प्रति आकर्षण और पुराने के तिरस्कार वाली स्थिति भी थी।

इस युग का हिन्दी साहित्य में काफ़ी महत्त्व रहा है। भारतेन्दु और द्विवेदी युग प्रकारान्तर से हिन्दी खड़ी बोली के काव्य भाषा में विकसित होने का युग रहा है। यह रास्ता आसान नहीं रहा। ब्रजभाषा के स्थान पर हिन्दी खड़ी बोली को काव्य भाषा के पद पर प्रतिष्ठित कराने में काफ़ी संघर्ष का सामना करना पड़ा।