बुधवार, 26 सितंबर 2012

आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी

Anamika 7577 की प्रोफाइल फोटोआदरणीय गुणी जनों को  अनामिका का सादर प्रणाम  ! अगस्त माह  से मैंने एक नयी शृंखला  का आरम्भ किया है जिसमे आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवियों और  लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा शैली पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा  है और विश्वास करती हूँ कि आप सब के लिए यह एक उपयोगी जानकारी के साथ साथ हिंदी राजभाषा के साहित्यिक योगदान में एक अहम् स्थान ग्रहण करेगी.

लीजिये आज चर्चा करते हैं  आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी  जी की ...


आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी


जन्म  सं. 1921 ( सन 1864 ई.),  मृत्यु सं. 1995 ( सन 1938 ई.)

परिचय

गद्य की विविध विधाओं में भारतेंदु युग के साहित्यकार सृजन करते रहे,  किन्तु उनके स्वरुप गठन के लिए उनके पास अवकाश ही नहीं रहा. इस महत्वपूर्ण दायित्व की पूर्ती आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी जी ने की. श्री पदुमलाल बख्शी ने आचार्य द्विवेदी के लिए लिखा है -

यदि कोई मुझसे पूछे कि द्विवेदी जी ने क्या किया तो मैं उसे समग्र आधुनिक हिंदी साहित्य दिखलाकर कह सकता हूँ कि यह सब उन्हीं की सेवा का फल है. हिंदी साहित्य गगन में सूर्य, चंद्रमा और तारागणों का आभाव नहीं है. सूरदास, तुलसीदास, पद्माकर आदि कवि साहित्याकाश के देदीप्यमान नक्षत्र हैं. परन्तु मेघ की तरह ज्ञान - राशि देकर साहित्य के उपवन को हरा-भरा करने वालों में द्विवेदी जी की ही गणना होगी.

जीवन वृत्त

आचार्य महाबीर प्रसाद द्विवेदी जी का जन्म उत्तर प्रदेश के रायबरेली के दौलत पुर नामक ग्राम में बैशाख शुक्ल 4, सं. 1921 वि. में हुआ. इनके पिता का नाम पं. रामसहाय था. पं.  महाबीर प्रसाद द्विवेदी जी की शिक्षा उन्नाव में हुई और हाई स्कूल परीक्षा  उत्तीर्ण करने पर यह तार का काम सीख कर जी.आर. पी. रेलवे में नौकरी करने लगे. द्विवेदी जी बड़े अध्यवसायी थे और यही कारण है कि बंगला काव्य की शास्त्रीय बातों का ज्ञान इन्हें बचपन में ही हो गया था. इन्हें  पुस्तकें पढने की भी बहुत रूचि थी और यही कारण है  कि तार का काम करते समय भी इन्होंने अपना पुस्तक-प्रेम नहीं त्यागा. नौकरी के दिनों में इन्होंने अपने कुछ आदर्श निश्चित कर लिए कि यह समय की पाबंदी करेंगे, रिश्वत नहीं लेंगे, अपना कार्य इमानदारी से करेंगे और ज्ञान वृद्धि के लिए सतत प्रयत्न करते रहेंगे.

अपने इन्हीं आदर्शों के कारण यह रेलवे में पदोन्नति करते गए  और जहाँ कि यह पचास रूपए प्रतिमाह के लिए नियुक्त हुए थे वहां दस -बारह वर्षों में इनका वेतन दुगना हो गया.  इतने पर भी जब इन्हें रेलवे में अपने आत्म-सम्मान को धक्का लगता जान पड़ा तब इन्होने त्याग-पत्र दे दिया. कहा जाता  है  कि जब इनके ऑफिसर ने इन्हें कर्मचारियों सहित 8 बजे सुबह आने को कहा तो इन्होने स्पष्ट कह दिया कि " मैं आऊंगा पर औरों के आने को लाचार ना करूँगा.” इसी बात पर  बात बढ़ जाने से इन्होने सरकारी नौकरी छोड़ दी और केवल तेईस रुपये प्रति माह पर सरस्वती पत्रिका के सम्पादन का भार संभाला. इस प्रकार सरस्वती की सेवा से जो भी मासिक आमदनी इन्हें होती उसी में यह संतुष्ट रहने लगे.

सरस्वती पत्रिका की सहायता से द्विवेदी जी ने हिंदी साहित्य की जो सेवा की है , वह अतुलनीय है . साहित्य क्षेत्र में प्रविष्ट होते ही इन्होने हिंदी भाषा को एक नवीन मोड़ प्रदान किया जिसके फलस्वरूप हिंदी साहित्य के इतिहास में द्विवेदी युग को प्रसिद्धि मिली. इन्होने भारतेंदु युग की भाषा को नवीन संस्कार प्रदान किये और लेखकों को उनकी त्रुटियों से अवगत कराया. फलस्वरूप भाषा में एक नया निखार आ गया और उसकी शुद्धता पर बल दिया जाने लगा. इस प्रकार हिंदी भाषा को परिष्कृत, परिमार्जित कर इन्होने एक नवीन युग की प्रति-स्थापना की तथा अनेक नवीन लेखकों व् कवियों को प्रोत्साहित कर साहित्य-सृजन के लिए प्रवृत किया.

भाषा शैली -

द्विवेदी जी को हिंदी गद्य का निर्माता कहा जाता है , क्योंकि इन्होने हिंदी गद्य में उस समय लिखना प्रारंभ किया जब हिंदी-भाषा व्याकरण की अराजकता से आक्रान्त थी. व्याकरण - विरोधी शब्दों और अव्यवस्थित वाक्यविन्यास का प्रयोग बेधड़क हो रहा था तथा भाषा की शुद्धता, प्रांजलता व् व्याकरण की मर्यादा का  हिंदी लेखकों के सामने कोई आदर्श न था. द्विवेदी जी भाषा की शुद्धता और  व्याकरण के नियमों को  मर्यादा का आदर्श लेकर साहित्य जगत में अवतीर्ण हुए तथा इन्होने विरामादी  चिन्हों के प्रयोग, शब्द विधान, वाक्य गठन में व्याकरण के नियमो का पूर्णतः ध्यान रखा. स्वयं अपने गद्य को प्रांजल, परिष्कृत और साहित्यिक रूप प्रदान कर हिंदी गद्य को भी उसी  सांचे में ढाला.

साथ ही भाषा के सम्बन्ध में भी इनका दृष्टिकोण उदार और प्रगतिशील था. यह न तो संस्कृत बहुल भाषा के पक्षपाती थे और न उर्दू फ़ारसी व अप्रचलित शब्दों से बोझिल भाषा के. इन्होने भाव और विषय के अनुकूल  ही भाषा लिखी है तथा उनका शब्द विधान प्रसंग की उपयुक्तता के अनुकूल होता था. इनके निबंधों में न तो गूढ़ अर्थों से युक्त वाक्यों की अधिकता है और न एक-एक वाक्य में अनेक विचारों को ही भर दिया गया है. इन्होने तो हमेशा छोटे छोटे वाक्यों द्वारा ही कोई बात कहनी चाही है और ऐसा जान पड़ता है मानो कोई अध्यापक बालकों को समझा-समझा कर पढ़ा रहा हो. अर्थात इनकी भाषा में व्यावहारिकता व सूक्ष्मता  आदि गुण भी हैं.

सामान्यतः इनकी भाषा शैली में निम्न रूप दृष्टिगोचर होते हैं -

1. वर्णात्मक शैली

2. विचारात्मक शैली

3. व्यंग्यात्मक शैली

4. भावात्मक शैली

5. वक्तृतात्मक शैली

गद्य साधना

वस्तुतः द्विवेदी जी अपने युग की समस्त साहित्यिक प्रवृतियों के केंद्र थे, अतः हिंदी के बहुमुखी विकास के लिए इनकी  साधना ने साहित्य के सभी उपकारों का उपयोग किया है. यह  एक साथ कवि, आलोचक, निबंधकार , पत्रकार, साहित्य-परिष्कार-कर्ता और साहित्य शिक्षक के साथ-साथ कवि लेखक निर्माता भी थे. यों तो समीक्षकों ने द्विवेदी जी की साहित्य साधना का वास्तविक आधार इनकी पत्रकारिता को माना है और इसमें कोई संदेह नहीं कि पत्रकार के रूप में इन्होने हिंदी भाषा के प्रसार और उन्नयन में अभूतपूर्व कार्य किया है. सरस्वती के प्रथम अंक के साथ हिंदी में सच्ची पत्रकारिता का जन्म हुआ और द्विवेदी जी ने उस समय जबकि हिंदी पत्रों की कोई बूझ नहीं थी सरस्वती को  जन-समाज के गले का हार बना दिया. इन्होने अनेक नवीन लेखकों को भी प्रकाश में लाया और रामचंद्र शुक्ल, कामताप्रसाद गुरु, विश्वम्भरनाथ शर्मा 'कौशिक', पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी, मैथिलीशरण गुप्त तथा गोपालशरण सिंह आदि साहित्यकार सरस्वती के माध्यम से ही प्रसिद्द हुए.

कृतियाँ

आचार्य द्विवेदी जी सम्पादक होने के साथ साथ सुलेखक और कवि भी थे. संस्कृत, हिंदी, फ़ारसी, अंग्रेजी, बंगला, मराठी आदि भाषाओं के ज्ञाता होने के कारण इन्होने इन भाषाओँ के उपयोगी कृतियों का अनुवाद भी किया है. भामिनी विलास, अमृत लहरी, बेकन विचार रत्नावली शिक्षा, स्वाधीनता, जल चिकित्सा, हिंदी महाभारत, रघुवंश, वेणी-संहार, कुमार संभव, मेघदूत, किरातार्जुनीय प्राचीन पंडित और कवि तथा आख्यायिका सप्तक इनकी  अनूदित कृतियाँ हैं. इसके अतिरिक्त इन्होने पचास से भी ऊपर मौलिक रचनाएं हिंदी साहित्य को भेंट में दी हैं, जिनमे से उल्लेखनीय यह हैं - नैषध चरित चर्चा, हिंदी कालिदास की समालोचना, वैज्ञानिक कोष, नाट्य-शास्त्र, विक्र्मांक देव्चारित चर्चा, हिंदी भाषा की उत्पत्ति संपत्ति शास्त्र, कौटिल्य कुठार, कालिदास की निरंकुशता, वनिता-विलास, रसज्ञ -रंजन, कालिदास और उनकी कविता, सुकवि-संकीर्तन, अतीत समृति, साहित्य सन्दर्भ, अलोप, महिला मोड़, साहित्यालाप, कोविद कीर्तन, दृश्य दर्शन, आलोचना जालित चरित-चित्रण, समालोचना समुच्चय, पुरातत्व प्रसंग, साहित्य सीकर, विचार-विमर्श, विज्ञानं वार्ता आदि.

महत्त्व -

द्विवेदी जी को  युग निर्माता और युग प्रवर्तक होने का गौरव प्राप्त है. इनका युग हिंदी गद्य के परिष्कार का युग है. इसके लिए जिस निष्ठा, धैर्य एवं रूचि की आवश्यकता थी, हिंदी साहित्य की अराजकतापूर्ण अवस्था में इन्होने सरस्वती के माध्यम से व्यवस्था और संयम की सृष्टि की.

डा. रामचंद्र तिवारी के शब्दों में -

"चाहे यह गंभीर आलोचना न कर सकें हों, चाहे इनके निबंध 'बातों के संग्रह मात्र हों .' चाहे इनकी नीतिकता के रसात्मकता की सहायता को सिकता में बदल दिया हो, किन्तु यह स्वीकार करना होगा कि इन्होने हिंदी गद्य को मर्यादा दी, हिंदी भाषा को परिमार्जित किया और नवीन प्रयोगों को हिंदी साहित्य में संभव बनाया. इस दृष्टि से ये युग प्रवर्तक हैं.

द्विवेदी जी का देहांत सं. 1995 सन 1938 ई. में हो गया.

मंगलवार, 25 सितंबर 2012

गाँव : धूमिल

धूमिल

जन्म : वाराणसी जनपद के एक साधारण से गांव खेवली में 9 नवम्बर, 1936 को।

मृत्यु : 10 फरवरी, 1975, लखनऊ।

गाँव

मूत और गोबर की सारी गंध उठाए
हवा बैल के सूजे कंधे से टकराए
खाल उतारी हुई भेड़-सी
पसरी छाया नीम पेड़ की।
डॉय-डॉय करते डॉगर के सींगों में
आकाश फँसा है।

दरवाज़े पर बँधी बुढ़िया
ताला जैसी लटक रही है।
(कोई था जो चला गया है)
किसी बाज पंजों से छूटा ज़मीन पर
पड़ा झोपड़ा जैसे सहमा हुआ कबूतर
दीवारों पर आएँ-जाएँ
चमड़ा जलने की नीली, निर्जल छायाएँ।

चीखों के दायरे समेटे
ये अकाल के चिह्न अकेले
मनहूसी के साथ खड़े हैं
खेतों में चाकू के ढेले।
अब क्या हो, जैसी लाचारी
अंदर ही अंदर घुन कर दे वह बीमारी।

इस उदास गुमशुदा जगह में
जो सफ़ेद है, मृत्युग्रस्त है

जो छाया है, सिर्फ़ रात है
जीवित है वह - जो बूढ़ा है या अधेड़ है
और हरा है - हरा यहाँ पर सिर्फ़ पेड़ है

चेहरा-चेहरा डर लगता है
घर बाहर अवसाद है
लगता है यह गाँव नरक का
भोजपुरी अनुवाद है।

सोमवार, 24 सितंबर 2012

गरीब का सलाम ले / गोपाल सिंह नेपाली


जन्म - 11 अगस्त 1911 
निधन - 17 अप्रेल 1963 

कर्णधार तू बना तो हाथ में लगाम ले 
क्राँति को सफल बना नसीब का न नाम ले 
भेद सर उठा रहा मनुष्य को मिटा रहा 
गिर रहा समाज आज बाजुओं में थाम ले 
त्याग का न दाम ले 
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले 

यह स्वतन्त्रता नहीं कि एक तो अमीर हो 
दूसरा मनुष्य तो रहे मगर फकीर हो 
न्याय हो तो आर-पार एक ही लकीर हो 
वर्ग की तनातनी न मानती है चाँदनी 
चाँदनी लिए चला तो घूम हर मुकाम ले 
त्याग का न दाम ले 
दे बदल नसीब तो ग़रीब का सलाम ले । 

बुधवार, 19 सितंबर 2012

बाबू बालमुकुन्द गुप्त

Anamika 7577 की प्रोफाइल फोटोआदरणीय गुणी जनों को  अनामिका का सादर प्रणाम  ! अगस्त माह  से मैंने एक नयी शृंखला  का आरम्भ किया है जिसमे आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवियों और  लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा शैली पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा  है और विश्वास करती हूँ कि आप सब के लिए यह एक उपयोगी जानकारी के साथ साथ हिंदी राजभाषा के साहित्यिक योगदान में एक अहम् स्थान ग्रहण करेगी.

लीजिये आज चर्चा करते हैं  श्री बालमुकुन्द गुप्त  जी की ...

श्री बालमुकुन्द गुप्त



जन्म  सं. 1922 ( सन 1805 ई.),  मृत्यु सं. 1964 ( सन 1894 ई.)

परिचय

बाबू बालमुकुन्द गुप्त भारतेंदु युग और द्विवेदी युग को जोड़ने वाली कड़ी हैं. इनके निबंधों में यदि एक ओर भारतेंदु युग का राष्ट्र-प्रेम, जन जागरण और सामाजिक नव निर्माण की लालसा मुखरित हुई है तो दूसरी ओर द्विवेदी युगीन भाषा सौष्ठव भी विद्यमान है. इस प्रकार भारतेंदु युगीन आत्मा और द्विवेदी युगीन कलेवर को धारण कर इनके निबंध पार्दुभूर्त हुए हैं. इनकी प्रतिभा बहुमुखी थी. ये हिंदी के प्रमुख निबंधकार, पत्रकार, आलोचक तथा कवि थे. हिंदी गद्य के उन्नायकों में इनका गौरवशाली स्थान है.

जीवन वृत्त

श्री बालमुकुन्द गुप्त जी का जन्म सं. 1922 वि. में पंजाब के रोहतक जिले के गुरयानी नामक गाँव में हुआ. गुप्त जी के पिता का नाम लाला पूरनमल था और माता अत्यंत धर्मशील महिला थी तथा सत्संग आदि में विशेष रूचि रखती थीं, अतः गुप्त जी में भी अपने धर्म के प्रति बड़ी आस्था थी. इनकी प्रारंभिक शिक्षा ग्रामीण पाठशाला में ही हुई पर पांचवीं कक्षा में उत्तीर्ण होते ही इनकी पढाई रुक गयी, क्योंकि इसी वर्ष इनके पिता और पितामह की मृत्यु हो गयी. इन्होने घर पर ही उर्दू और फ़ारसी का अध्ययन किया तथा कुछ समय उपरान्त दिल्ली के एक हाई स्कूल से मिडिल की परीक्षा उत्तीर्ण की.

इन्होने प्रारंभ में उर्दू में लिखना आरम्भ किया और 22 वर्ष की आयु में मिर्जापुर से निकलने वाले उर्दू अखबार 'अखबारे-चुनर' का सम्पादन-भार संभाला तथा कुछ समय बाद लाहौर से निकलने वाले 'कोहेनूर' नामक पत्र के सम्पादक बनाये गए. पं. मदनमोहन मालवीय और पं. प्रतापनारायण मिश्र की प्रेरणा से यह हिंदी की ओर अग्रसर हुए और हिंदी का ज्ञान प्राप्त किया. यह अपने समय के सर्वाधिक अनुभवी संपादक थे और इन्होने हिन्दुस्तान, बंगवासी, भारत मित्र आदि पत्रों में कार्य किया. भारत मित्र के तो यह संपादक ही नहीं सर्वेसर्वा थे और इस पत्र द्वारा इन्होने आठ वर्षों से अधिक  हिंदी की सेवा की.

गद्य साधना

गुप्तजी एक सफल संपादक और पत्रकार के साथ साथ उत्कृष्ट निबंध लेखक भी थे और बालमुकुन्द निबंधावली तथा शिवशम्भू का चिटठा इनके निबंध संग्रह ही हैं. गुप्तजी ने राजनैतिक या सामाजिक समस्याओं पर निबंध लिखा हैं पर विचारात्मक और वर्णात्मक निबंधों की अपेक्षा भावात्मक और कथात्मक निबंधों की संख्या ही अधिक है. 'शिवशम्भू का चिटठा' के निबंध कथात्मक ही हैं और उन पर गुप्त जी की भावात्मकता की भी अनूठी छाप है. इनके विचारों में गंभीरता, दुरूहता और उलझन की अपेक्षा भावावेग की अधिक मात्र है तथा हास-परिहास व् व्यंग्य विनोद का भी प्रसंगानुकूल समावेश है.  इसी प्रकार इन्होने  तत्कालीन भाषा शैली  और साहित्यिक कृतियों के सम्बन्ध में साहित्यिक निबंध भी लिखे हैं तथा अंग्रेजी शासन की व्यंग्यात्मक आलोचना भी की है. इन्होने आत्माराम नाम से भी आलोचनाएँ प्रस्तुत की हैं और इनके विचारों का जनता में अच्छा स्वागत हुआ है.

भाषा शैली

गुप्तजी एक नूतन भाषा शैली के प्रवर्तक थे और इनकी भाषा सर्वथा व्याकरणनुमोदित   रही है. भारतेंदु युग में जो भाषा की अव्यवस्था, अनेकरूपता, अव्यावहारिकता व शिथिलता दीख पड़ती है और विराम चिन्हों का अशुद्ध प्रयोग मिलता है उन सबसे गुप्तजी की  भाषा बिलकुल अछूती है. चूंकि वह उर्दू से हिंदी में दीख पड़ती है और इनकी  भाषा में जाफरानी, मौल, ख्याली, तरक्की, करम, अमल, लिबास दिल्लगी, कलम, फरियाद, तबियत, तुल-अरज, आवाज आदि उर्दू, फ़ारसी शब्दों के साथ साथ अभ्रस्पर्शी, अनंत, नवजात आदि संस्कृत के तत्सम शब्द भी दृष्टिगोचर होते हैं. इन्होने मुहावरों का भी सफल प्रयोग किया है और भाषा में प्रवाह इनका प्रधान लक्ष्य था.

गुप्तजी की शैली  में सामान्यतः तीन रूप दीख पड़ते हैं -

- आलोचनात्मक शैली

- व्यंग्यात्मक शैली

- परिचयात्मक शैली

कृतियाँ

गुप्त जी के मौलिक ग्रंथों में स्फुट कविता, शिव शम्भू का चिटठा, हिंदी भाषा, चिट्ठे और ख़त, खिलौना, खेल तथा तमाशा  तथा सर्पाघात चिकित्सा का उल्लेखनीय स्थान है. इनके  निबंधों का एक संग्रह 'बालमुकुन्द गुप्त निबंधावली' नाम से प्रकाशित भी हो चुका है. इसके अतिरिक्त माडेल-भागिनी, हरिदास, रत्नावली नाटिका आदि इनकी अनूदित कृतियाँ हैं.

बाबू बालमुकुन्द गुप्त जी का हिंदी गद्य के उन्नायकों में एक विशिष्ट स्थान है. हिंदी साहित्य करण में भारतेंदु जी के अस्त होने और महावीर प्रसाद द्विवेदी के उदय होने के मध्य की संक्रमण बेला में ये शुक्र तारे की भाँती चमके और सर्वत्र अपना आलोक विकीर्ण किया. हिंदी के साहित्यिक इतिहास में गुप्त जी सदा स्मरणीय रहेंगे. हिंदी को प्रवाहमयी और सर्वरूप बनाने की दिशा में इनके योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण हैं. गुप्त जी की मृत्यु सं. 1964 ( सन 1894 ई.) में हुई.

मंगलवार, 18 सितंबर 2012

आईना–केदारनाथ सिंह

आईना

केदारनाथ सिंह

केदारनाथ सिंहमैं उनकी तरफ़ से बोल रहा हूं

जो चले गए हैं काम पर

यह कहकर कि लौटने में हो सकती है देर

उस परछाईं की तरफ़ से

जो अब भी टँगी हवा में

उस स्त्री के तमतमाकर चले जाने के बाद

उस चाय की तरफ़ से

जो सिर्फ़ आधी पी गई थी

क्योंकि पीनेवाले की होठों की

छूट रही थी बस

 

बोलते-बोलते कई बार

मैं बोल जाता हूं अचानक

मोढ़े की ऊब

झाड़ू की उदासी

राख की यातना

और यहां तक कि उन दीवारों की ओर से भी

जिनमें ख़ुद मैं बन्द हूं

और यद्यपि इस छोटे से घर का

एक छोटा-सा गवाह हूं

पर जब भी बोलता हूं

लगता है बोल रहा हूं उस चिउँटी की तरफ़ से

जो बच गई थी अकेली

नागासाकी में

 

मेरे निर्माता का आदेश है

देखो और बोलो

बोलो और टँगे रहो

और देखिए न मेरी मुस्तैदी

कि मैं सबकी ओर से बोलता हूं

और बोलता हूं अपने भीतर की सारी सच्चाई के साथ

पर मेरे नेक निर्माता ने

मुझे दी नहीं अनुमति

कि कभी बोल सकूं अपनी तरफ़ से

सोमवार, 17 सितंबर 2012

त्रिवेणियाँ / गुलज़ार

जन्म -- 18 अगस्त 1936 

1.
उड़ के जाते हुए पंछी ने बस इतना ही देखा
देर तक हाथ हिलती रही वह शाख़ फ़िज़ा में 

अलविदा कहने को ? या पास बुलाने के लिए ?

2.
क्या पता कब कहाँ मारेगी ?
बस कि मैं ज़िंदगी से डरता हूँ

मौत का क्या है, एक बार मारेगी


3.
सब पे आती है सब की बारी से 
मौत मुंसिफ़ है कम-ओ-बेश नहीं 

ज़िंदगी सब पे क्यों नहीं आती ?

4.
भीगा-भीगा सा क्यों है अख़बार
अपने हॉकर को कल से चेंज करो 

"पांच सौ गाँव बह गए इस साल"

5
चौदहवें चाँद को फिर आग लगी है देखो 
फिर बहुत देर तलक आज उजाला होगा 

राख हो जाएगा जब फिर से अमावस होगी  

Triveni.jpg



शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

14 सितम्बर- हिंदी दिवस !

चित्र गूगल के साभार 
                    देवनागरी लिपि में लिखी हिंदी भाषा को 14 सितंबर, 1949 को भारतीय संविधान सभा ने अखण्ड भारत की प्रशासनिक भाषा घोषित किया गया था । यही वजह है कि हर वर्ष सितंबर माह में कहीं हिंदी माह, हिंदी पखवारा और कहीं हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन  यही राजभाषा आज देश में किस जगह पर खड़ी  हुई है इससे हम सब अनभिज्ञ नहीं है। आज देश की यही राज भाषा स्वयं अपने अस्तित्व की तलाश कर रही है। अंग्रेजी के प्रसार-प्रचार ने मानों हिंदी से उसका अधिकार छीन लिया है। हिंदी में लिखने वाले और बोलने वाले हेय दृष्टि से देखे जाते हैं। जबकि इसा दृष्टि से देखने वाले खुद भी हिंदी भाषी है , वे उसी घर से आये हैं जहाँ पर हिंदी ही बोली जाती हैं। 
                    अब तो इस को  बात ज्यादा पढ़े लिखे लोग भले ही इसको तवज्जो न दें लेकिन जो वर्ग अभी अर्धशिक्षित या अशिक्षित है वह अधिक तवज्जो दे रहा है कि  उसके बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में ही पढ़ें भले ही वे खुद उनके काम को देख कर अर्थ न समझ सकें . अपने बच्चे को कुछ बता न सकें . उसके लिए वे महंगे महंगे ट्यूशन लगा कर उन्हें अंग्रेजों की तरह से अंग्रेजी बोलते हुए देखना चाहते हैं। अधकचरे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों की बाढ़ सी आ गयी है। जिस गली कूचे में निकलिए आपको यही मिलेगा . क्या इनको नहीं समझाया जा सकता है कि  अंग्रेजी के आगे जहाँ और भी हैं। इस हिंदी के सहारे ही बच्चे आगे बढ़ गए हैं और बढ़ रहे हैं। कम से कम प्रारंभिक  तौर पर अपनी मातृभाषा का अच्छा ज्ञान तो होना ही चाहिए . इसके लिए अपको कोई विशेष प्रयास नहीं करना पड़ता है ये तो घर में ही आप सीख सकते हैं लेकिन सीखें तो तब जब हम उनको सिखाना चाहे। 
               मैं सिर्फ अपने अनुभव की बात करती हूँ . आई आई टी में हिंदी विभाग है - जिसकी जिम्मेदारी दिखती है कि  रोज 'आज का विचार' और 'आज का शब्द' जरूर बोर्ड पर सजा हुआ दिखलाई देता है। हाँ हिंदी माह में कई प्रतियोगिताएं आयोजित की जाती हैं लेकिन उनका स्तर  क्या होता है ? ये तो वही जान  सकता है जो उसको देखता है। इसमें भाग लेने वाले सस्थान  के ही कर्मी होते हैं। वे सब विदेश से पढ़ कर आये हैं ऐसा नहीं है लेकिन कुछ ऐसी हस्तियाँ मैंने देखी हैं कि  उनके हिंदी ज्ञान और बोलचाल को देख कर शर्म आती है। 
             मेरे पास हिंदी अधिकारी ने अपने दो कर्मी भेजे कि वहां पर जाकर मशीन अनुवाद कैसे काम करता है ये सीख कर आइये . उनके पास अनुवाद में कोई सर्टिफिकेट था या डिग्री थी  लेकिन उन्हें हिंदी के कुछ शब्दों के सही अर्थ नहीं आते थे। उन हिंदी भाषी लोगों के हिंदी के विषय में ज्ञान नगण्य था। उन्हें प्रारंभिक जानकारी मैंने दी और उसके बाद वे गायब। एक हफ्ते तक कोई खबर नहीं . उसके बाद हिंदी अधिकारी ने पूछा कि  - 'मैडम क्या हम इनसे अपने अंग्रेजी के कुछ लेख मशीन अनुवाद से हिंदी में करवा सकते हैं ? इतना तो अपने उन्हें सिखा ही दिया होगा ' 
   मैंने उन्हें बताया की मेरे पास कोई भी एक दिन के बाद आया ही नहीं तो  मैं क्या सिखा सकती हूँ? '
वे लोग हिंदी भाषा में रूचि नहीं रखते थे और उनकी समझ ही नहीं आया कि  इसको कैसे किया जाय? इसी लिए वे फिर नहीं आये थे। 
                   वहां पर कई दक्षिण भारतीय प्रदेशों के प्रोफेसर हैं और उनके लिए हिंदी कुछ अपरिचित सी हो सकती है लेकिन सभी हिंदी बोल सकते हैं और ऑफिस में काम करने वालों से बात करते भी हैं। वही  कुछ अधकचरे लोग अपने को क्या साबित करना चाहते हैं ? वे हिंदी की टांग तोड़ कर बोलेंगे शायद ये दिखने के लिए की वे यहाँ काम करते हैं तो उन्हें हिंदी आती ही नहीं है। 
                     आज  सरकारी स्तर  पर तो इस काम को बढ़ाव़ा मिल ही रहा है। सारी  प्रवेश परीक्षाओं में हिंदी का विकल्प आरम्भ होचुका है और छात्र इस माध्यम से बहुत अच्छे परिणाम भी ले रहे हैं। फिर हम हिंदी को कमतर क्यों आँक रहे हैं? 
                   अगर हिंदी के प्रयोग और उसकी लोकप्रियता पर एक नजर डालें तो हिंदी फिल्में, हिंदी समाचार पत्र , हिंदी पत्रिकाएं प्रकाशन के क्षेत्र में जितनी  लोकप्रिय  हैं उतनी अंग्रेजी की नहीं। । हिंदी चैनल जितने देखे जाते हैं और उनके सीरियल जितने पसंद किये जाते हैं वे इसी बात का प्रतीक हैं कि इस भाषा में इतना सामर्थ्य है कि  वह देश के लिए जोड़ने वाली भाषा बन रही है और वैश्वीकरण में इस भाषा ने एक सेतु का काम किया है। । यह विश्व की सबसे अधिक बोली जाने वाली  दूसरे स्थान पर आने वाली भाषा है। करीब 50 करोड़ लोग हिंदी बोलते हैं और 90 करोड़ लोग हिंदी को समझ सकते हैं। हिंदी की 30 अधिक बोलियाँ उत्तरएवं मध्य  भारत के शहरी कस्बाई और ग्रामीण इलाके में ही बोली जाती हैं। फिर हम शान से क्यों नहीं कह सकते हैं कि हम हिंदी भाषा की उन्नति और समृद्धि में अपना योगदान देंगे . हम हिंदी में लिखेंगे, हिंदी बोलेंगे और इसके प्रचार और प्रसार में अपना योगदान देंगे। यही हमारी मातृभाषा के प्रति सच्ची कृतज्ञता है।

बुधवार, 12 सितंबर 2012

पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

Anamika 7577 की प्रोफाइल फोटोआदरणीय गुणी जनों को  अनामिका का सादर प्रणाम  ! अगस्त माह  से मैंने एक नयी शृंखला  का आरम्भ किया है जिसमे आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवियों और  लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा शैली पर प्रकाश डालने का प्रयास किया जा रहा  है और विश्वास करती हूँ कि आप सब के लिए यह एक उपयोगी जानकारी के साथ साथ हिंदी राजभाषा के साहित्यिक योगदान में एक अहम् स्थान ग्रहण करेगी.

लीजिये आज चर्चा करते हैं  पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय 'हरिऔध' जी की ...


पं. अयोध्यासिंह  उपाध्याय 'हरिऔध'

          जन्म  सं. 1922 ( सन 1865 ई.),  मृत्यु सं. 2004 ( सन 1947 ई.)

 

जीवन वृत्त

पं. अयोध्यासिंह उपाध्याय  'हरिऔध' का जन्म बैशाख कृष्ण तृतीया संवत 1922 में हुआ. इनके पिता का नाम पं. भोलासिंह उपाध्याय और माता का नाम रुक्मणि देवी था. यद्यपि इनके पूर्वज बदायूं के रहने वाले थे परन्तु लगभग अढाई तीन सौ वर्षों में आजमगढ़ के समीप तमसा नदी के किनारे निजामाबाद कसबे में आ बसे थे. उपाध्याय जी पर पिता से अधिक चाचा ब्रह्म सिंह का जो कि ज्योतिष के बड़े विद्वान थे प्रभाव पड़ा और उन्ही की  देख-रेख में इनकी शिक्षा भी आरम्भ हुई. पांच वर्ष की अवस्था में उन्होंने इनका विद्यारम्भ प्रारम्भ किया और घर पर छोटी छोटी पुस्तकें पढ़ते रहे. सात वर्ष की अवस्था में वह निजामाबाद के मिडिल स्कूल में भरती किये गए जहाँ से सं. 1936 में इन्होने मिडिल वर्नाक्युलर की परीक्षा उत्तीर्ण की. इसके उपरान्त यह बनारस के क्वींस कालेज में प्रविष्ट हुए परन्तु स्वास्थ्य बिगड़ जाने के कारण यह आगे न पढ़ सके और घर पर ही संस्कृत, फ़ारसी, उर्दू, गुरुमुखी व पिंगल का अध्ययन करते रहे. सं. 1939 में इनका विवाह अनंतकुमारी देवी के साथ हुआ और सं. 1941 में यह निजामाबाद के तहसील स्कूल में अध्यापक नियुक्त हुए. निजामाबाद में यह बाबा सुमेरसिंह से विशेष प्रभावित हुए और 'हरिऔध' उपनाम इसी बीच रखा गया. सं. 1946 में इन्होने कानूनगो की परीक्षा उत्तीर्ण की और कानूनगो का स्थायी पद प्राप्त किया, जिसमे यह निरंतर उन्नति करते रहे. 1 नवम्बर सन 1923 में पेंशन लेकर हिंदी काशी  विश्व विद्यालय में अवैतनिक अध्यापक का काम करते रहे और निरंतर हिंदी साहित्य की सेवा में रत रहे.  हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी बनाये गए और 'प्रियप्रवास' पर इन्हें मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया तथा सम्मेलन की 'साहित्य वाचस्पति' उपाधि से भी विभूषित किये गए.

भाषा शैली -

हरिऔध जी का भाषा पर व्यापक अधिकार है. इन्होने ब्रज और खड़ी बोली दोनों भाषाओँ में समानाधिकार से रचनाएं की हैं. ये जैसी सफलता से संस्कृतमयी भाषा में अभिव्यक्ति करते हैं; उतनी ही सफलता से बोल-चल की मुहावरेदार हिंदी में भी रचनाएं करते हैं.

हरिऔध जी की ब्रज भाषा में सरलता, प्रांजलता, सरसता आदि गुण मिलते हैं. इनकी रचनाओं में ना तो क्लिष्टता है और न ही शब्दों की तोड़-मरोड़ ही है.

खड़ी बोली हिंदी में हरिऔध जी के 'प्रियप्रवास', 'वैदेही-बनवास' और 'चोखे चौपदे' प्रमुख ग्रन्थ हैं. 'प्रियप्रवास'  और 'वैदेही-बनवास' की भाषा संस्कृत निष्ठ है. कहीं पर तो यदि हिंदी क्रियाओं को निकाल दिया जाय तो भाषा हिंदी के स्थान पर विशुद्ध संस्कृत ही बन जाती है.

काव्य की विशेषताएं -

काव्यधारा  - हरिऔध जी की काव्यधारा युग की परम्पराओं और मान्यताओं की सच्चाई को  साथ लेकर प्रवाहित हुई है. इसमें बुद्धिवादी युग का नपा जीवन-दर्शन मानवीय दृष्टिकोण और प्रगतिशील विचारधारा का समन्वय हुआ है. 'रस कलश', 'प्रियप्रवास' और वैदेही बनवास' में पुरानी कथा वस्तु इन्होने आधुनिक बुद्धिवादी जीवन दर्शन की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत की है.

विविधता - इनके काव्य में विषयवस्तु, भाषा और शैली की दृष्टि से विविधता मिलती है. शैली की दृष्टि से इन्होने मुक्तक और प्रबंध दोनों ही प्रकार के काव्य लिखे हैं. शुद्ध साहित्यिक और संस्कृत तत्समता प्रधान भाषा में रचनाएँ की हैं.

ब्रज भाषा - हरिऔध जी की काव्य साधना का प्रारंभ ब्रज भाषा से होता है तो इन्होने प्रारंभ में श्री कृष्ण की भक्ति सम्बन्धी रचनाएं लिखीं. 'रस-कलश' ब्रजभाषा में इनकी प्रौढ़तम रचना है. यह रीति ग्रन्थ है. इसमें अलंकार और नायिका भेद आदि का निरूपण है. नायिका वर्णन के साथ इनका ऋतू वर्णन भी बहुत सुन्दर है. प्रेमाकर्षण का आधार शारीरिक सौन्दर्य मात्र न होकर मानसिक सौन्दर्य और उदात्त विचार है.

खड़ी बोली - आगे चलकर हरिऔध जी का मोह ब्रजभाषा में नहीं रहा और खड़ी बोली की ओर आ गए. पहले इन्होने बोलचाल की खड़ी बोली में उर्दू छंदों को अपनाया. इसके पश्चात पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से संस्कृत  वर्ण वृतों और संस्कृत की समस्त पदावली में महाकाव्य 'प्रिय-प्रवास' की रचना की. 'प्रिय-प्रवास' में  इन्होने प्रकृति चित्रण बड़े विस्तार से किया है. 'वैदेही-बनवास' में प्रकृति का संश्लिष्ठ चित्रण अधिक मिलता है.

रस योजना - हरिऔध जी के काव्य में मुख्य रूप से श्रृंगार और वात्सल्य रस की अभिव्यक्ति हुई है. 'रस-कलश' में श्रृंगार रस का विस्तार से विवेचन हुआ है. इसमें संयोग श्रृंगार के बड़े ही सुन्दर चित्र मिलते हैं. इनमे वासना की गंध नहीं है. एक गोपी कहती है -

"मन्द मन्द समंद की सी चालन सों,

    ग्वालन लै लालन हमारी गली आइये ! "

इनकी रचनाओं  में करुण विप्रलंब बहुत ही गहरा है. ब्रज बालाओं के वियोग में विप्रलंब करुण है, वहाँ माता यशोदा का वात्सल्य अकुलाहट और टीस में करुणा की सीमा में पहुँच गया है.

छंद योजना -

हरिऔध जी के काव्य में अनेकों छंदों का प्रयोग मिलता है. इनके काव्य में ग्रामीण छंद जैसे चुभते चौपदे और चौखे चौपदे हैं. रीतिकाल छंदों में कवित्त-सवैया छंद, मात्रिक छंद अर्थात वैदेही बनवास में प्राचीन और नवीन छंदों पर समान अधिकार मिलता है. और प्रिय प्रवास में संस्कृत के वर्णवृत छंद मिलते हैं.

अलंकार योजना - इन्होने शब्दालंकारों और अर्थालंकारों का सफल प्रयोग किया है. यमक, शलेश, अनुप्रास, उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, विभावना आदि हरिऔध जी के प्रिय अलंकार हैं. इनकी नजर में अलंकारो का आश्रय कल्पना की उड़ान नहीं थी बल्कि सर्वत्र इसका सीधा साधा प्रयोग करना था.  एक रूपक का उदाहरण देखिये -

"ऊधो मेरा हृदय तल था एक उद्यान न्यारा !

शोभा देती अमित उसमे कल्पना क्यारियाँ थीं !

प्यारे प्यारे कुसुम कितने भाव के थे अनेकों !

उसके विपुल विटपी मुग्धकारी महा थे".

कृतियाँ

हरिऔध जी प्रतिभा बहुमुखी थे और इन्होने कविता, उपन्यास, नाटक, निबंध व् समालोचना सभी क्षेत्रों में अत्यधिक कार्य किया.

काव्य - प्रियप्रवास, वैदेही बनवास, रस-कलश, पद्य-प्रसून, चोखे-चौपदे, चुभते चौपदे, बोलचाल, प्रेमाम्बु-प्रश्रवन, प्रेमाम्बु वारिधि, प्रेमाम्बु प्रवाह, प्रेम-पुष्पोहार, प्रेम-प्रपंच, कल्पलता, पारिजात औत सतसई आदि.

उपन्यास - अनुवाद - वेनिस का बांका, रिपवान विकल,

मौलिक - ठेठ हिंदी का ठाठ, अधखिला फूल

नाटक - रुक्मिणी परिणय और प्रद्युम्न विजय व्यायोग !

समालोचनात्मक - हिंदी भाषा और साहित्य का विकास, कबीर वचनावली की भूमिका, साहित्य सन्दर्भ !

सं. 2004 (सन 1947 ई.) में यह चमकता सितारा हमारे साहित्य की सेवा करते करते विलुप्त हो गया.

सोमवार, 10 सितंबर 2012

नारी एक शमा




मैं ,
शमा - दान की
अधजली शमा हूँ ।
जब अँधेरा होता है तो 
जला ली जाती हूँ मैं
और उजेरा होते ही 
एक फूँक से
बुझा दी जाती हूँ मैं
ओ ! रोशनी के दीवानों
क्या पाते हो ऐसे तुम
क्यों नही जलने देते पूरा
क्षण - क्षण
जला - बुझा कर तुम
मत यूँ बुझाओ मुझको
ज्यादा दर्द होता है
कि पिघलता हुआ मोम
ज्यादा गर्म होता है ।
पिघलने दो उसे
यूँ बुझा कर ठंडा न करो
जलते हुए मिलने वाले
उस सुख को न हरो
चाहती हूँ मैं कि
मुझे एक बार जला दो
कि उस आग को 
भड़कने के लिए
बस थोडी सी हवा दो
मैं एक बार पूरी तरह
जलना चाहती हूँ
अपनी ज़िन्दगी इसी तरह
पूरी करना चाहती हूँ ।
मैं ,
हलकी सी फूँक का
बस एक तमाशा हूँ ।
मैं शमा - दान की
अधजली शमा हूँ.


रविवार, 9 सितंबर 2012

नारी ब्लॉग के माध्यम से एक विचार-विमर्श का आयोजन

नारी ब्लॉग के माध्यम से एक विचार-विमर्श का आयोजन किया जा रहा है। यह एक प्रशंसनीय प्रयास है। इसे प्रतियोगिता का रूप दिया गया है जिसमें 15 अगस्त 2011 से 14 अगस्त 2012 के बीच में पब्लिश की गयी ब्लॉग प्रविष्टियाँ आमंत्रित की गई हैं।

इस आयोजन के लिए विषय हैं –

1. नारी सशक्तिकरण

2. घरेलू हिंसा

3. यौन शोषण

ऐसी सूचना दी गई है कि यदि आयोजक के पास 100 ऐसी पोस्ट के लिंक आ जाते हैं तो हमारे 4 ब्लॉगर मित्र जज बनकर उन प्रविष्टियों को पढ़ेगे . प्रत्येक जज 25 प्रविष्टियों मे से 3 प्रविष्टियों को चुनेगा . फिर 12 प्रविष्टियाँ एक नये ब्लॉग पर पोस्ट कर दी जायेगी और ब्लॉगर उसको पढ़ कर अपने प्रश्न उस लेखक से पूछ सकता हैं। उसके बाद इन 12 प्रविष्टियों के लेखको को आमंत्रित किया जायेगा कि वो ब्लॉग मीट में आकर अपनी प्रविष्टियों को मंच पर पढ़े , अपना नज़रिया दे और उसके बाद दर्शको के साथ बैठ कर इस पर बहस हो। दर्शको में ब्लॉगर होंगे . कोई साहित्यकार या नेता या मीडिया इत्यादि नहीं होगा . मीडिया से जुड़े ब्लॉगर और प्रकाशक होंगे . संभव हुआ तो ये दिल्ली विश्विद्यालय के किसी  कॉलेज के ऑडिटोरियम में मीट का आयोजन किया जाएगा ताकि नयी पीढ़ी की छात्र / छात्रा ना केवल इन विषयों पर अपनी बात रख सके अपितु ब्लोगिंग के माध्यम और उसके व्यापक रूप को समझ सके . इसके लिये ब्लोगिंग और ब्लॉग से सम्बंधित एक व्याख्यान भी रखा जायेगा .

12 प्रविष्टियों मे से सर्वश्रेष्ठ 3 का चुनाव उसी सभागार में होगा दर्शको के साथ .

ब्लॉग मीट दिसंबर 2012 में रखने का सोचा जा रहा हैं लेकिन ये निर्भर होगा की किस कॉलेज मे जगह मिलती हैं .

आप से आग्रह हैं अपनी ब्लॉग पोस्ट का लिंक  इस लिंक (नारी ब्लॉग) के कमेन्ट मे छोड़ दे।

नारी ब्लॉग और इस कार्यक्रम के आयोजक की कोशिश हैं कि हर चार महीने मे एक बार विविध सामाजिक मुद्दों पर इसी तरह के विचार-विमर्श का सिलसिला चलता है।

आप अपने विचार और इस आयोजन में भाग लेने के लिए कृपया इस लिंक पर जाएं और अधिक से अधिक संख्या में भाग लेकर आयोजन को सफल बनाएं –

http://indianwomanhasarrived.blogspot.in/2012/09/15-2011-14-2012.html    नारी ब्लॉग

शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

आँच, आलोचना और मेरी अज्ञानता


आँच, आलोचना और मेरी अज्ञानता
-        सलिल वर्मा

एक धर्मगुरू किसी निर्जन टापू पर फंस गया. वहाँ से निकलने का कोई रास्ता न पाकर वह वहीं भटकता हुआ लौटने की जुगत लगाने लगा, जैसे आग जलाकर धुआँ उत्पन्न कर किसी जहाज को सांकेतिक सन्देश देना. भटकते-भटकते उसने देखा कि कुछ जंगली वहाँ अपने परमात्मा की उपासना कर रहे थे. उनकी प्रार्थना अजीब थी और उस धर्म गुरू के धर्म में बतायी गयी प्रार्थना से सर्वथा भिन्न थी. ऐसे लोग विपत्ति के समय भी अपना स्वभाव नहीं छोडते हैं, अतः उसने अपने धर्म-प्रचार का यह अवसर गंवाना उचित नहीं समझा या कहें कि उसका सदुपयोग ही कर लेना चाहा. वे जंगली लोग आक्रामक नहीं थे. उस गुरू ने देखा कि तीन व्यक्ति उन जंगलियों की उस प्रार्थना की अगुआई कर रहे थे.

धर्म-गुरू ने उन तीनों को अलग बुलाया और उनसे बात की. उसने उन्हें यह भी बताया कि उनकी प्रार्थना-पद्धति सही नहीं है.  वे तीनों उस गुरू की प्रार्थना सीखने को तैयार हो गए. गुरू ने बड़े जतन से उन्हें पूरी पद्धति और विधि-व्यवहार समझाया. संयोग से जिस दिन उनकी पूजा-विधि का व्यावहारिक प्रयोग करने का समय आया, उसी दिन उस गुरू को ढूँढता हुआ एक जहाज उस द्वीप के तट पर आ पहुंचा और धर्म-गुरू को उन जंगलियों को विदा कहना पड़ा. द्वीप से लौटते समय उसके मन में एक संतोष था कि वहाँ बिताए कुछ दिन व्यर्थ नहीं गए, प्रभु के प्रति समर्पित रहे.

जहाज महासागर में निकल पड़ा और लगभग चार-पाँच घंटे की यात्रा में उस द्वीप से मीलों दूर निकल आया. अचानक समुद्र की ओर निहारते हुए उस गुरू को समुद्र की सतह पर दौडती हुई तीन आकृतियाँ दिखाई दीं. जब वे आकृतियाँ पास आईं तो उसने देखा कि पानी पर भूमि की समतल सतह की तरह दौड़ते हुए वे तीनों वही जंगली थे. वह गुरू आश्चर्य-चकित था, इस चमत्कार पर. जब वे तीनों जहाज के समीप पहुंचे तो उन्होंने धर्म-गुरू से पूछा, “श्रीमान! आपके जाते ही हम आपकी बतायी प्रार्थना भूल गए. कृपया एक बार पुनः बताने का कष्ट करें. यही जानने के लिए हमें इतनी दूर आपके पास आना पड़ा! क्षमा चाहते हैं!”
धर्म-गुरू ने अपने दोनों हाथ जोड़ कर उनसे कहा, “महोदय! मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई. ईश्वर से संवाद के लिए कोई पद्धति निश्चित नहीं होती. और अपने मन की बात ईश्वर से कहने के लिए किसी भाषा और विधि-विधान की आवश्यकता नहीं. आप जिस पद्धति से अपनी पूजा किया करते थे, वैसे ही करें.”

एक अज्ञानी बेचारा क्या करे, उसे तो यह भी पता नहीं होता कि वह जो कर रहा है उसे उपासना, प्रार्थना या पूजा कहते हैं.  ऐसे में उस अज्ञानी को क्षमा याचना करनी चाहिए. इसीलिये ज्ञानियों ने अज्ञानियों की क्षमा की भी व्यवस्था कर रखी है. वे कहते हैं कि तुम देवी-देवताओं से कहो कि

आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि। यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे॥

परमात्मा ने एक बार एक देवदूत को पृथ्वी पर उन लोगों की सूची बनाने भेजा जो ईश्वर से प्रेम करते थे. वो देवदूत घर घर जाकर अपनी पुस्तिका में उन प्रविष्टियाँ करने लगा. अबू नामक एक व्यक्ति ने देखा कि वह देवदूत कुछ लिख रहा है तो उसने पूछ लिया कि आप क्या लिख रहे हैं. देवदूत ने बताया कि उन लोगों के नाम लिख रहा है जो प्रभु को प्यार करते हैं. अबू निराश हुआ, क्योंकि उसने तो कभी प्रभु से प्यार नहीं किया था. उसका नाम उस सूची में था भी नहीं. उसने देवदूत से अनुरोध किया , “यदि आप ऐसे लोगों की सूची बनाएँ जो प्रभु की बनायी हर वस्तु तथा व्यक्ति से प्यार करता है, तो मेरा नाम अवश्य लिखें.” देवदूत चला गया. किन्तु अगले दिन वह पुनः अबू के घर आया. अबू ने पूछा कि क्या ये कल वाली ही सूची है. देवदूत ने कहा, “ हाँ! किन्तु आज इस सूची में तुम्हारा नाम सर्वप्रथम है!”

बस और क्या ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उसकी भक्ति के ज्ञान से तो उसके बनाए मानव जाति की सेवा  की अज्ञानता ही सबसे बड़ी भक्ति है.

एक दिन एक चाय की दुकान पर रेडियो पर एक गीत बज रहा था. अज्ञानी रामबिलास उस गीत को सुनकर आनंदित हुआ जा रहा था. उसके साथ बैठे एक ज्ञानी सज्जन ने उससे कहा कि तुम्हें पता भी है कि यह गीत राग भैरवी में रूपक ताल पर संगीतबद्ध किया गया है.
रामबिलास बोला,  “महाराज ई गाना सुनकर हमको लगता है कि स्वर्ग का आनंद भी इसके आगे फीका है. हमको आपका राग अउर ताल के बारे में कुच्छो नहीं मालूम. हम ठहरे गंवार, मगर ई जानते हैं कि हमरे किसोरी चचा के गला में सुरसती का बास था. ई गाना जो रेडियो में बज रहा है, किसोरी चचा के गाना से निकाला हुआ है. अब आपको का बताएं कि हमरे किसोरी चचा थे अंगूठा छाप. उनको आपके जइसा सुर, ताल, राग, मात्रा, ठुमरी, दादरा का जानकारी नहीं था, मगर उनके आगे बइठकर कोनो करेजा से उठने वाला गाना का राग छेडिए त तनी, उनका आँख से लोर टपकने लगेगा. अरे संगीत त करेजा से निकलकर करेजा में समा जाने वाला चीज है.”

कमाल का (अ)ज्ञानी था रामबिलास. साइकिल के आगे रेडियो लटकाए घूमता रहता था. संगीत प्रेमी था कि संगीत साधक, पता नहीं.

वही बात कविता के ज्ञान पर कहना चाहता हूँ... क्षमा चाहता हूँ अज्ञान पर. एक चाँद जो किसी वैज्ञानिक को कोई आकाशीय पिंड दिखाई देता है, किसी कवि को उसकी प्रेमिका का मुख, किसी भूखे को रोटी का टुकड़ा, किसी भिखारी को अठन्नी. वैसे ही कविता का अर्थ कोई कैसे ग्रहण करता है यह तो पाठक पाठक पर निर्भर करता है, जब तक कि कवि स्वयं उस कविता के अर्थ पर अपनी टीका की गाँठ न लगा दे. फिर भी दूसरों के द्वारा ग्रहण किये गए अर्थों को ‘डिलीट’ करना तो उस कवि के बस की भी बात नहीं. तभी तो श्रीमद्भागवत गीता की अनगिनत व्याख्याएं उपलब्ध है.

अंत में, कविता के अपने ज्ञान के विषय में कुछ ज्ञानी कवियों के वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूँ.

यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें ।
पर प्रतिमा--अरे, वह तो
जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें । (अज्ञेय)
या फिर

कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे । (रघुवीर सहाय)

और एक तुकबंदी जहाँ शब्दों की फिजूलखर्ची साफ़ दिखाई देती है जिसे पढकर सड़क पर भागते पहिये का नहीं रेलगाड़ी के पहियों का दृश्य और उसकी गति का अनुमान स्वतः ही हो जाता है...

फुलाए छाती, पार कर जाती,
आलू रेत, बालू के खेत
बाजरा धान, बुड्ढा किसान
हरा मैदान, मंदिर मकान
चाय की दुकान
पुल पगडंडी, टीले पे झंडी,
पानी का कुण्ड, पंछी का झुण्ड,
झोपड़ी झाडी, खेती बाड़ी,
बादल धुआँ, मोट कुआं,
कुँए के पीछे, बाग बगीचे...   (डॉ. हरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय)

इति!