बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'

Anamika 7577 की प्रोफाइल फोटोप्रबुद्ध पाठकों को अनामिका का सादर  नमन ! जैसे एक ही उद्गम से निकलकर एक नदी अनेक रूप धारण कर लेती है वैसे ही हिंदी साहित्य का इतिहास भी प्रारंभिक अवस्था से लेकर अनेक धाराओं के रूप में प्रवाहित होता हुआ आधुनिक काल रूप में परिवर्तित होता है। तो आइये आधुनिक काल के प्रसिद्द कवियों और लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा-शैली पर प्रकाश डालते हुए आज चर्चा करते हैं पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी की...

अनामिका

पं गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही'



जन्म   संवत 1940 ( सन 1883 ई.) ,  मृत्यु  1972 ई.


जीवनवृत -

पं. गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' जी का जन्म श्रावण शुक्ल त्रयोदशी, सं 1940  चि.  में उन्नाव जिले के हडहा नामक ग्राम में हुआ। यह गाँव बैसवाड़ा क्षेत्र के अंतर्गत है। सनेही जी के पिता पं. अक्सेरीलाल शुक्ल बड़े साहसी और देशभक्त व्यक्ति थे।  1850 ई.  के स्वातंत्र्य संग्राम में उन्होंने भी जमकर भाग लिया और ब्रिटिश सरकार के कोपभाजन बने।  देशभक्ति और वीरभाव की यह परंपरा  सनेही जी को अपने पिता से ही प्राप्त हुई।

सनेही जी आरम्भ से ही मेधावी छात्र रहे। काव्यरचना का शौंक इन्हें बचपन से ही था। काव्यशास्त्र का सम्यक अनुशील इन्होने हडहा निवासी लाला गिरधारीलाल के चरणों में बैठकर किया. लालाजी रीतिशास्त्र के बड़े पंडित और ब्रजभाषा के सिद्धस्त कवि थे।

सनेही जी ने अपनी जीविका के लिए शिक्षक की वृति अपनाई। सन 1902 में ये शिक्षण पद्धति का प्रशिक्षण प्राप्त करने के  लिए दो वर्ष लखनऊ आकर रहे। यहाँ इनकी प्रतिभा का और भी विकास हुआ तथा ये ब्रजभाषा, खड़ीबोली एवं उर्दू के कवियों के संपर्क में आये। सनेही जी इन तीनों भाषाओं में काव्यरचना करते थे परन्तु रससिद्ध कविता की दृष्टि से ये प्रमुखतः ब्रजभाषा के ही कवि थे। इनकी प्रसिद्धि होने पर पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी ने इन्हें खड़ीबोली काव्यरचना की ओर  प्रेरित किया और इस क्षेत्र में भी सनेही जी का अद्वितीय स्थान रहा परन्तु ब्रजभाषा में भी ये आजीवन लिखते रहे। शिक्षा विभाग में नौकरी करने के कारण इन्होने अपनी राष्ट्रीय कवितायेँ  'त्रिशूल' उपनाम से लिखीं। सनेही नाम से ये परंपरागत और रससिद्ध कवितायें करते थे और त्रिशूल उपनाम से ये समाजसुधार और स्वाधीनता प्रेम की रचनाएं लिखते थे। 'तरंगी' और 'अलमस्त' ये दोनों भी सनेही जी के उपनाम हैं . असहयोग आन्दोलन के समय इन्होने टाउन स्कूल की हेड मास्टरी से त्यागपत्र दे दिया और कानपुर को अपना कर्मक्षेत्र बनाकर स्वाधीनता के कार्यों में अपने को खपा दिया।

सनेही जी की आरंभिक रचनाएं 'रसिक रहस्य', 'साहित्य सरोवर', 'रसिकमित्र ' आदि पत्रों में प्रकाशित होती थी। बाद में सरस्वती में भी लिखने लगे थे। 'प्रताप' में इनकी क्रांतिकारी रचनाएं प्रकाशित होती थी। 'दैनिक वर्तमान' के संस्थापकों में से ये एक थे। गोरखपुर से निकलनेवाले 'कवि' का संपादन इन्होने वर्षों किया। सन 1928 में इन्होने कविता प्रधान पत्र 'सुकवि' निकाला  संपादन, संचालन  सनेही जी 22  वर्षों तक करते रहे। इस पत्र में पुराने और नए - दोनों श्रेणियों के कवियों की रचनाएं प्रकाशित होती थीं। समस्यापूर्ति इसका स्थायी स्तम्भ था, जिसके कारण कविता का प्रचार, प्रसार तो हुआ ही, न जाने कितने सह्रदयों को सनेही जी ने रचनाकार भी बना दिया। सनेही जी ने अपने जीवन में असंख्य कवियों को काव्याभ्यास कराकर सत्काव्यरचना में प्रवृत किया। आज के अनेक प्रसिद्द कवि अपने को सनेही जी का शिष्य कहने में गौरव का अनुभव करते हैं। इन्होने कवि  सम्मेलनों की परंपरा का भी विकास किया और जीवन में शतशः कवि  सम्मेलनों का सभापतित्व भी किया।

सनेही जी का रचनाकाल और रचना का विषय क्षेत्र अत्यंत विस्तृत है। इनकी प्रकाशित रचनाओं में प्रेम पच्चीसी, कुसुमांजलि, कृषक क्रंदन, त्रिशूल तरंग, राष्ट्रीय मन्त्र, संजीवनी, राष्ट्रीय वाणी, कलामे त्रिशूल तथा करुणा -कादम्बिनी हैं। स्पष्ट है कि सनेही जी का रससिद्ध व्यक्तित्व उनके ब्रजभाषा काव्य में ही परागत हुआ है।

आचार्य पं रामचंद्र शुक्ल जी ने लिखा भी है - पं गयाप्रसाद शुक्ल 'सनेही' के प्रभाव से कानपुर में ब्रजभाषा काव्य के मधुस्त्रोत अब भी बराबर वैसे ही चल रहे हैं, जैसे 'पूर्ण' जी के समय में चलते थे .

सनेही जी की प्रथम कृति 'प्रेम्पच्चिसी' का प्रकाशन सन 1905 के आस-पास हुआ था। इसमें श्रृंगार रस के ब्रजभाषा में लिखे पच्चीस छंदों का संकलन किया गया था। 'प्रेमपच्चीसी' का एक छंद यहाँ प्रस्तुत है -

जेहि चाह सों चाह्यो तुम्हें प्रथमै

अबहूँ तेहि चाह सों चाहनौ है .

तुम चाहौ न चाहौ  लला हमको

कछु दीबो न याकौ  उराहनौ है .

दुःख दीजै कि कीजै दया दिल में

हर रंग तिहारौ सिराहनौ है .

मन भावै करौ मनभावन सो

हमें नेह कौ  नातौ  निभावनौ  है।

समय के साथ सनेही जी का ब्रजभाषा काव्य भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से समृद्धतर होता गया . प्रेमव्यंजना को इन्होने ब्रजभाषा काव्य में सर्वप्रमुख स्थान दिया है। इस प्रेम्वार्नन में ये भक्तिकाल के कवियों की अपेक्षा रीतिकाल के कवियों से अधिक प्रभावित हैं। इतना अवश्य है कि  इनमे रीतिकाल के अधिकाँश कवियों के सामान हृद्यानुभूति का अभाव और केवल कलात्मकता ही नहीं है, अपितु इनकी रचनाएं प्रसाद गुण लिए हुए अनुभूतियों का विषद वर्णन ही है।

प्रेम के विषय में श्रीकृष्ण की निस्संगता को आधार बनाकर सनेही जी ने विरहणी गोपियों की स्थिति को किस प्रकार आमने - सामने रखकर इस छंद को प्रस्तुत किया है, यह देखते ही बनता हैं।

नव नेह कौ  नेम निबाहत चातक, कानन ही में मवासौ रहै  .

रट  'पी कहाँ ' 'पी  कहाँ ' की ही लगे, भरो नीर रहै पै उपासौ रहै .

तजि पूरबी पौन न संगी कोऊ, कछु देत हिए कौं दिलासौ रहै .

लगी डोर सदैव पिया सों रहै, चहे बारहु मॉस पियासौ रहै .

सरल और सहज अभिव्यक्ति होते हुए भी ब्रजभाषा कवियों की अलंकार प्रियता की रीति सनेही जी ने भी निबाही है। उक्त छंद में 'पियासौ' में यमक अलंकार कितना स्वाभाविक ढंग से आ बैठा है।

सनेही जी के काव्य में कलात्मकता भी कम नहीं है। समस्यापूर्ति के निमित्त लिखी गयी रचनाओं में चमत्कार का प्रदर्शन स्वभावतः अधिक होता है परन्तु सनेही जी का यह पांडित्य केवल शब्दों में न होकर उनकी कल्पनाशीलता में है, परिणामतः इनके छंद अनुभूति को ही विशेष रूप से जाग्रत करने में समर्थ होते हैं .

सनेही जी की ब्रजभाषा की रचनाओं में श्रृंगार रस के अतिरिक्त शांत, वीर, करुण, हास्य एवं अन्य रसों की भी कवितायें हैं।  इनकी भाषा में अवधि, बैसवाड़ी, बुन्देलखंडी प्रयोगों के साथ अरबी फारसी के शब्द भी प्रयाप्त मात्रा में पाए जाते हैं इसलिए इनकी भाषा विशुद्ध ब्रजभाषा नहीं कही जा सकती। यही नहीं खड़ी बोली का पुट  भी जहाँ तहां इनकी भाषा में मिलता है। इन सब प्रयोगों से इनकी ब्रजभाषा सरल और प्रसादगुण युक्त भी बनी है यही सनेही जी की विशेषता है। इनकी कथन भंगिमाएं सहज और विविध हैं, इनका अलंकार विधान स्वाभाविक  है, छंद योजना में ये प्रायः रीतिकाल के अनुवर्ती हैं।  अर्थात इस विवेच्य युग में भी सनेही जी ब्रज से बाहर रहकर भी ब्रजभाषा के एक बहुत बड़े स्तम्भ माने जाते हैं।

सनेही जी का इंतकाल 20 मई, 1972 में कानपुर में हो गया 

सोमवार, 29 अक्तूबर 2012

मधुशाला -- भाग -4 / हरिवंश राय बच्चन


जन्म -- 27 नवंबर 1907 
निधन -- 18 जनवरी 2003 


मधुशाला ..भाग - 4 


   
धर्म - ग्रंथ      सब    जला चुकी है 
जिसके   अंतर    की         ज्वाला 
मंदिर , मस्जिद , गिरजे - सबको 
तोड़   चुका        जो      मतवाला , 
                        पंडित , मोमिन , पादरियों के 
                       फंदों    को  जो   काट     चुका 
कर सकती है आज उसी का 
स्वागत मेरी      मधुशाला । 

लालायित  अधरों   से  जिसने 
हाय ,  नहीं   चूमी        हाला , 
हर्ष - विकंपित कर से  जिसने , 
हा , न   छुआ  मधु  का प्याला 
                   हाथ पकड़ लज्जित साकी का 
                    पास   नहीं    जिसने    खींचा 
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की 
उसने   मधुमय  मधुशाला । 

बने   पुजारी   प्रेमी   साकी , 
गंगाजल   पावन ,    हाला , 
रहे फेरता  अविरत  गति से 
मधु के   प्यालों   की माला , 
                  और लिए जा , और पिये जा - 
                   इसी   मंत्र      का   जाप करे , 
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूँ , 
मंदिर    हो  यह मधुशाला । 

बाजी न मंदिर में  घड़ियाली , 
चढ़ी न     प्रतिमा पर  माला 
बैठा अपने भवन  मुअज्जिन
देकर   मस्जिद   में     ताला 
                      लुटे  खजाने  नरपतियों के , 
                   गिरीं   गढ़ों    की     दीवारें ;
रहें    मुबारक पीने वाले 
खुली रहे यह मधुशाला । 

बड़े - बड़े परिवार मिटें यों ,
एक    न   हो    रोने वाला 
हो जाएँ सुनसान महल वे , 
जहां   थिरकती   सुरबाला 
                 राज्य उलट जाएँ , भूपों की 
                   भाग्य - सुलक्ष्मी सो जाये ;
जमे    रहेंगे   पीने वाले , 
जगा करेगी मधुशाला । 

सब मिट जाएँ  , बना रहेगा 
सुंदर   साकी  ,   यम काला , 
सूखें  सब रस  ,  बने   रहेंगे 
किन्तु , हलाहल , औ ' हाला ;
                  धूमधाम औ ' चहल - पहल  के 
                    स्थान    सभी   सुनसान   बने , 
जगा करेगा अविरत मरघट , 
जगा     करेगी     मधुशाला ।  
क्रमश: 




बुधवार, 24 अक्तूबर 2012

श्री पदमसिंह शर्मा

Anamika 7577 की प्रोफाइल फोटोप्रबुद्ध पाठकों को अनामिका का सादर  नमन ! जैसे एक ही उद्गम से निकलकर एक नदी अनेक रूप धारण कर लेती है वैसे ही हिंदी साहित्य का इतिहास भी प्रारंभिक अवस्था से लेकर अनेक धाराओं के रूप में प्रवाहित होता हुआ आधुनिक काल रूप में परिवर्तित होता है। तो आइये आधुनिक काल के प्रसिद्द कवियों और लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा-शैली पर प्रकाश डालते हुए आज चर्चा करते हैं श्री पदमसिंह शर्मा जी की...                  
अनामिका


श्री पदमसिंह शर्मा

जन्म   सन 1876 ई. ,  मृत्यु  सन 1932 ई.
जीवनवृत -

पं पदमसिंह शर्मा जी का जन्म उत्तर प्रदेश में बिजनौर जिले के नगवा नामक ग्राम में सन 1876 ई. में हुआ था। इनके पिता उमरावसिंह भूमिहार ब्राह्मण थे और अपने गाँव के मुखिया, नम्बरदार व् प्रभावशाली व्यक्ति थे। दस - बारह वर्ष की अवस्था में शर्माजी का विद्यारम्भ कराया गया और प्रारंभ में इन्हें उर्दू-फारसी की शिक्षा देने के उपरांत सारस्वत कौमुदी, रघुवंश आदि संस्कृत ग्रंथों का अध्ययन कराया गया। इन्होने अष्टाव्यायी भी पढ़ी और काशी, मुरादाबाद, लाहौर, जालंधर व ताजपुर आदि स्थानों में रहकर संस्कृत का अध्ययन किया। यह आरम्भ से ही वैदिक सिद्धांतों के पक्षपाती थे और भाषण कला पर इनका अपूर्व अधिकार था। अतः सन 1930 में उत्तरप्रदेश की आर्य प्रतिनिधि सभा में इन्हें उपदेशक नियुक्त किया गया।


यह 'सत्यवती' नामक  साप्ताहिक पत्र के सम्पादकीय विभाग में भी नियुक्त हुए और यहीं से इनकी संपादन व् लेखन कला का श्रीगणेश हुआ। सं. 1965 में यह अजमेर गए और 'परोपकारी' व् 'अनाथ रक्षक' का संपादन करने लगे पर एक वर्ष उपरान्त यहाँ से त्याग पत्र देकर ज्वालापुर चले गए तथा वहां के महाविद्यालय में आठ वर्ष तक अध्यापक रहे। पिता का स्वर्गवास हो जाने से इन्हें गाँव लौटना पड़ा पर वहां इनका जी न लगता था, अतः यह काशी  के ज्ञानमंडल कार्यालय के प्रकाशन विभाग में काम करने लगे।

इसी बीच इनकी बिहारी सतसई की भूमिका-भाग प्रकाशित हुई और लगभग एक वर्ष 'सरस्वती' में सतसई 'संहार' पर लेखमाला प्रकाशित होती रही। इससे इन्हें हिंदी जगत में अत्यधिक ख्याति प्राप्त हुई और यह प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन  के सभापति निर्वाचित हुए तथा बिहारी सतसई सम्बन्धी प्रकाशित अंश पर इन्हें मंगलाप्रसाद पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। यह अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी बनाये गए।

भाषा-शैली -

शर्माजी मिश्रित भाषा के पक्षपाती थे और इन्होने हिंदी साहित्य सम्मेलन, मुरादाबाद के सभापति पद से दिए गए भाषण में अपना दृष्टिगोचर स्पष्ट करते हुए कहा भी है - "हिंदी लेखक प्रचलित और आम फहम फ़ारसी शब्दों का जो उर्दू में आ मिले हैं और उर्दू सूक्तियों का व्यवहार करना बुरा नहीं समझते, पर उर्दू-ए -मुअल्ला के पक्षपाती ठेठ हिंदी शब्दों को चुन-चुन कर उर्दू से बाहर कर रहे हैं। ----यह अच्छे लक्षण नहीं हैं।" इस प्रकार इन्होने संकृत के तत्सम शब्दों के साथ उर्दू फ़ारसी के तीमारदार, मुद्दत, शिद्दत, जबरदस्ती, कागज़, नुमायाँ, आफत, गनीमत, इन्तजार, अजीज तथा अंग्रेजी के रिक्वेस्ट, स्कीम, न्यू लीडर, स्प्रिट, विजिटिंग कार्ड, पार्टी, फीलिंग, फंड, स्पीड, ओरिएण्टल आदि अनेक शब्दों को अपनाया है। साथ ही प्रचलित मुहावरों का व्यवहार भी इन्होने बहुत अधिक किया है।

सामान्यतः इनकी गद्य रचनाओं में शैली के मूलतः दो रूप दृष्टिगोचर होते हैं और एक ओर  तो संस्कृत की तत्समता से संपन्न गंभीर विचारात्मक शैली के दर्शन होते हैं तथा दूसरी ओर  मिश्रित भाषा से संपन्न शैली का सशक्त , सप्राण, प्रभावशाली, प्रवाहमय रूप दीख पड़ता है जिसमे हास-परिहास व् व्यंग्य-विनोद की छटा भी है। यही शैली इनकी स्वाभाविक शैली है और इस पर इनके व्यक्तित्व की अमिट  छाप है।

कृतियाँ -

शर्माजी की बिहारी सतसई की भूमिका, पद्य पराग प्रबंध-मंजरी और हिंदी उर्दू हिन्दुस्तानी नामक चार रचनाये ही मिलती हैं। इनके पत्रों का संग्रह भी प्रकाशित हुआ है पर अभी भी इनके बहुत से लेख और व्याख्यान असंकलित ही हैं तथा इधर-उधर बिखरे पड़े हैं।

गद्य-साधना -

शर्माजी संपादक, टीकाकार, आलोचक और निबंधकार के रूप में हमारे सामने आते हैं पर हिंदी साहित्य में यह प्रधानतः आलोचक के रूप में ही अधिक प्रसिद्द हैं और तुलनात्मक आलोचना के तो यह जनक माने  जाते हैं। इनका आलोचक इनके निबंधकार से निस्संदेह श्रेष्ठ  है और इनके निबंध संग्रहों में भी आलोचनात्मक निबंधों की संख्या आधिक है। इन्होने साहित्य-समीक्षा, जीवनी, संस्मरण, श्रद्धांजलियां आदि विषयों पर निबंध लिखे हैं और इनके निबंध भावात्मक व विचारात्मक हैं।

निधन -

जीवन के अंतिम दिनों में यह गाँव में ही रहते थे और प्लेग की बीमारी से सन 1932 ई. में इनका स्वर्गवास हो गया।


सोमवार, 22 अक्तूबर 2012

मधुशाला ---- भाग -3 / हरिवंश राय बच्चन



जन्म -- 27 नवंबर 1907 
निधन -- 18 जनवरी 2003 


मधुशाला  भाग - 3 


जलतरंग बजता , जब चुंबन 
करता  प्याले   को     प्याला , 
वीणा   झंकृत   होती  चलती ,
जब  रुनझुन  साकी     बाला , 
              डांट- डपट  मधुविक्रेता  की 
              ध्वनित  पखावज  करती है , 
मधुरव से मधु की मादकता 
और  बढ़ाती      मधुशाला ।

मेहँदी - रंजीत मृदुल हथेली 
पर माणिक मधु का प्याला 
अंगूरी    अवगुंठन     डाले 
स्वर्ण - वर्ण    साकी- बाला 
              पाग बेंजनी जामा नीला 
              डाट - डटे    पीने    वाले 
इंद्रधनुष से होड़ लगाती 
आज रंगीली  मधुशाला । 

हाथों   में  आने से  पहले 
नाज़  दिखाएगा   प्याला 
अधरों पर आने  से पहले 
अदा    दिखाएगी    हाला 
              बहुतेरे   इंकार  करेगा 
              साकी   आने से  पहले 
पथिक , न घबरा जाना पहले 
मान   करेगी ,     मधुशाला । 

लाल   सुरा  की धार लपट सी 
कह   न   देना   इसे   ज्वाला 
फेनिल मदिरा है , मत इसको 
कह   देना   उर    की   छाला , 
              दर्द नशा है इस मदिरा का 
              विगत स्मृतियाँ  साकी हैं 
पीड़ा  में आनंद जिसे हो 
आए   मेरी   मधुशाला । 

जगती की शीतल हाला सी 
पथिक ,  नहीं  मेरी   हाला 
जगती   के ठंडे   प्याले सा , 
पथिक , नहीं मेरा प्याला , 
          ज्वाल - सुरा जलते  प्याले में 
          दग्ध  हृदय   की   कविता  है 
जलने से भयभीत न हो जो , 
आए     मेरी       मधुशाला । 

बहती हाला देखी , देखो 
लपट  उठाती अब हाला , 
देखो प्याला अब छूते ही 
होठ  जला   देने    वाला , 
            होठ नहीं , सब देह दहे , पर 
            पीने   को   दो   बूंद    मिले ,
ऐसे  मधु   के दीवाने को 
आज बुलाती  मधुशाला । 




बुधवार, 17 अक्तूबर 2012

बाबू श्यामसुन्दर दास

Anamika 7577 की प्रोफाइल फोटोप्रबुद्ध पाठकों को अनामिका का सादर  नमन । जैसे एक ही उद्गम से निकलकर एक ही नदी अनेक रूप धारण कर लेती है  वैसे ही हिंदी साहित्य का इतिहास भी प्रारंभिक अवस्था से लेकर अनेक धाराओं के रूप में प्रवाहित होता हुआ आधुनिक काल रूप में भी परिवर्तित होता है, तो आइये आधुनिक काल  के प्रसिद्ध कवियों और लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा शैली पर प्रकाश डालते हुए आज चर्चा  करते हैं श्री श्याम सुन्दर दास जी की .....                                               अनामिका




बाबू श्यामसुन्दर दास



                                    जन्म   संवत  1932 (सन 1875 ),  मृत्यु  सन 1945 ई.



बाबू श्यामसुंदर दास जी हिंदी के मूर्धन्य गद्यकारों में से हैं। बाबू जी का बहुमुखी व्यक्तित्व महान था। इन्होने हिंदी को समर्थ बनाने में जो कार्य किया उसे लक्ष्य कर मैथिलीशरण गुप्त जी ने ठीक ही लिखा है :-
"मातृभाषा के हुए जो विगत वर्ष पचास
नाम उनका एक ही है श्यामसुंदर दास।
"महावीर प्रसाद द्विवेदी ने भी लिखा खाई -
मातृभाषा के प्रचारक विमल बी ए  पास
सौन्दर्य शील विधान बाबू श्याम सुन्दर दास।



बाबू श्यामसुंदर दास जी का जन्म काशी के एक पंजाबी खत्री खन्ना परिवार में आषाढ़ शुक्ल 11, मंगलवार, संवत 1932 (सन 1875) को हुआ था। इनके पिता का नाम देविदास और माता का नाम देवकी था। इनकी प्रारंभिक शिक्षा बनारस में नीची बाग़ में बेसलियन मिशन स्कूल में हुई और कुछ समय तक वहां पढने के बाद यह बनारस में ब्रह्मनाल के हनुमान सेमिनरी में भर्ती  किये गये। वहां से सन 1890 ई. में इन्होने एंग्लो वर्नाक्युलर  मिडिल परीक्षा उत्तीर्ण की और इसके पश्चात क्वींस कालिजयेट स्कूल में पढने लगे सन 1893 ई. में इन्होने इंट्रेस  और सन 1894 ई. में इंटरमीडियेट परीक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद काशी में पढने का कोई साधन न होने से यह प्रयाग विश्वविद्यालय में पढने लगे पर सन 1896 ई. में अकस्मात् बीमार पड़  जाने के कारण यह बी. ए. की पढाई परीक्षा में सफल न हो सके। इसी वर्ष काशी क्वींस कालेज में बी. ए.  की पढाई का श्रीगणेश हुआ और यह प्रयाग से बनारस लौट आये तथा सन 1897 ई. में बी. ए.  पास किया। आर्थिक सुविधाओं का अभाव होने से इन्होने आगे पढना छोड़ दिया और काशी के तत्कालीन चंद्रप्रभा प्रेस में चालीस रूपए प्रति माह पर नौकरी कर ली।  इस कार्य में इनका जी न लगा और कुछ महीने वहां काम करने के पश्चात यह सन 1899 ई. में हिन्दू स्कूल के अध्यापक हो गए। कुछ समय बाद यह महाराजा कश्मीर के निजी कार्यालय में भी रहे और फिर सिंचाई विभाग में भी कार्य किया पर यह सब व्यवसाय इन्हें रुचिकर न प्रतीत हुए। तदन्तर यह लखनऊ में कालीचरण हाईस्कूल के प्रधानाध्यापक हो गए और बाद में महामना मदनमोहन जी मालवीय के अनुरोध पर काशी विश्वविद्यालय  में हिंदी विभाग के प्रधान नियुक्त हुए। इस पद पर रहकर इन्होने हिंदी साहित्य की महत्वपूर्ण सेवा की तथा अवकाश ग्रहण करने के बाद भी यह व्यक्तिगत रूप से साहित्य साधना में रत रहे !

विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रमों में हिंदी का स्थान दिलाने वाले यह प्रधान व्यक्ति थे और निम्न कक्षाओं से उच्च कक्षाओं तक के लिए हिंदी की पाठ्य पुस्तकें तैयार करने में इनका व्यक्तित्व बेजोड़ है -

भाषा विज्ञान, वैज्ञानिक शब्दकोष, सैद्धांतिक समीक्षा, हिंदी साहित्य का इतिहास, हिंदी भाषा का इतिहास आदि विषयों से सम्बंधित पुस्तकों की रचना कर इन्होने हिंदी साहित्य के एक खटकते हुए अभाव की पूर्ती की।

इनकी हिंदी सेवाओं के उपलक्ष्य में तत्कालीन अंग्रेजी सरकार ने इन्हें 1 जनवरी सन 1927 में रायसाहब की और सन 1933 में अखिल भारत-वर्षीय हिंदी साहित्य सम्मलेन ने 'साहित्य वाचस्पति' की उपाधि प्रदान की। काशी विश्वविद्यालय ने भी इन्हें डी.लिट्. की उपाधि देकर सम्मानित किया और यह भी उल्लेखनीय है कि  इन्हें यह उपाधि महात्मा गाँधी के हाथों प्रदान की गयी थी।

गद्य साधना -

श्यामसुंदर दास जी के समय में उपन्यास, नाटक, काव्य और कथा आदि क्षेत्रों में द्रुतगति से साहित्य निर्माण हो रहा था पर अनुसन्धान, भाषा विज्ञान  और साहित्यालोचन आदि विषयों पर किसी का ध्यान नहीं गया था। इस प्रकार इन्होने पहली बार इस क्षेत्र में पदार्पण कर हिंदी की आवश्यकताओं को पूर्ण किया। अंग्रेजी साहित्य के ज्ञाता होने के कारण  इन्होने अंग्रेजी साहित्य का आधार लेकर अनुसन्धान, भाषा विज्ञान , साहित्यालोचन, कवि समीक्षा और नाट्यशास्त्र जैसे गूढ़ और गंभीर विषयों पर हिंदी में लिखा। अंग्रेजी की समीक्षात्मक पुस्तकों का भावापहरण होने के कारण  इनके सैद्धांतिक ग्रंथों में भले ही मौलिकता की कमी हो पर विवेचना का ढंग तो सर्वथा इनका निजी है और तत्कालीन परिस्थितियों व् युग में इसके अतिरिक कोई मार्ग भी न था। इस प्रकार यह हिंदी के मौलिक आलोचक हैं।

भाषा शैली -

श्यामसुंदर दास  जी ने शुद्ध साहित्यिक हिंदी का प्रयोग किया है तथा विदेशी शब्दों को भी  हिंदी के सांचे में ढाल लिया है। इनकी भाषा में संस्कृत के तत्सम और प्रचलित तद्भव शब्दों की अधिकता है। उर्दू शब्दों को भी ग्रहण करने के पूर्व इन्होने हिंदी भाषा की प्रकृति के अनुसार उनके रूप और ध्वनि में परिवर्तन कर दिया है। इनकी भाषा क्लिष्ट और जटिल नहीं है तथा सर्वत्र सुगठित और सुलझी हुई है।

गूढ़ से गूढ़ विषयों के प्रतिपादन में इनकी भाषा सफल रही है। इनकी भाषा गंभीर और संयत होते हुए भी धारावाहिक प्रवाह लिए हुए है।

श्यामसुंदर दास जी ने शैली को भाषा का व्यक्तिगत प्रयोग माना है, अतः शैली विषयक उनका मंतव्य भाषा विवेचन के प्रसंग में आ गया है। इनकी शैली में सरलता और सुबोधता का सहज गुण है जो विषयानुरूप सर्वत्र यथावसर परिवर्तनशील रही है। इनके निबंध प्राय तीन प्रकार के हैं, तदनुरूप इनकी लेखनी शैली भी तीन प्रकार की हो गयी है - व्याख्यात्मक, विचारात्मक और गवेषणात्मक . किन्तु बाबू जी मूलतः व्यास शैली के लेखक हैं।

कृतियाँ -

श्यामसुंदर दास जी के कृतित्व को हम निम्न वर्गों में रख सकते हैं।

मौलिक - हिंदी कोविद रत्नमाला, साहित्यालोचन, भाषा-विज्ञान, हिंदी भाषा का विकास, गद्य कुसुमावली, भारतेंदु हरिश्चंद्र, हिंदी भाषा और साहित्य, गोस्वामी तुलसीदास, रूपक रहस्य, भाषा रहस्य, हिंदी गद्य के निर्माता, मेरी आत्म-कहानी।

संपादित - चन्द्रावती या नासिकेतोपाख्यान, छत्र-प्रकाश, रामचरित मानस, पृथ्वीराज रासो, वनिता-विनोद, हिंदी- वैज्ञानिक कोष, इन्द्रावती, हम्मीर रासो, शकुंतला नाटक, प्रथम हिंदी साहित्य सम्मलेन की लेखावली, बाल विनोद, हिंदी शब्द सागर, मेघदूत दीनदयाल गिरि , ग्रंथावली, परमाल रासो, अशोक की धर्म लिपियाँ, रानी केतकी की कहानी, भारतेंदु नाटाकावली, कबीर ग्रंथावली, राधा कृष्ण ग्रंथावली, सतसई सप्तक, द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ, रत्नाकर, बाल-शब्दसागर, त्रिधारा, नागरी प्रचारिणी पत्रिका (भाग 1-28), सरस्वती (1900-1902), मनोरंजन पुस्तकमाला के पचास ग्रन्थ .

संकलित ग्रन्थ और पाठ्य पुस्तकें - मांस सूक्तावली, संक्षिप्त रामायण, हिंदी निबंध माला भाग 1-2, संक्षिप्त पद्मावत हिंदी निबंध रत्नावली, भाषा सार-संग्रह, भाषा-पत्र बोध, प्राचीन लेख मणिमाला, आलोक चित्रण, हिंदी पत्र  लेखन, हिंदी प्राइमर, हिंदी की पहली पुस्तक, हिंदी ग्रामर, गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया, हिंदी संग्रह, बालक विनोद, सरल संग्रह, नूतन संग्रह, अनुलेख माला, नयी हिंदी रीडर भात 6-7, हिंदी संग्रह भाग 1-2, हिंदी कुसुम संग्रह भाग 1-2, हिंदी कुसुमावली, साहित्य सुमन भाग 1-4, गद्य रत्नावली, साहित्य प्रदीप, हिंदी गद्य कुसुमावली 1-2, हिंदी प्रवेशिका पद्यावली, हिंदी प्रवेशिका गद्यावाली, हिंदी गद्य संग्रह, साहित्यिक लेख।

स्थान और महत्त्व - हिंदी निबंध-साहित्य के इतिहास में निबंध लेखकों की पंक्ति में बाबु श्यामसुंदर दास आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के बाद आते हैं। द्विवेदी युगीन निबंधकारों में आपका महत्वपूर्ण स्थान है। द्विवेदी युगीन विचारात्मक निबंधकारों में महत्वपूर्ण होते हुए भी हिंदी निबंध साहित्य में आचार्य रामचंद्र शुक्ल के पश्चात ही आपका स्थान है।

श्यामसुंदर दास जी जीवन के 71वें वर्ष में बीमार पड़े तो फिर उठ न सके और सं. 2002 में इनका स्वर्गवास हो गया !





सोमवार, 15 अक्तूबर 2012

मधुशाला ---- भाग -2 / हरिवंश राय बच्चन




जन्म -- 27 नवंबर 1907 
निधन -- 18 जनवरी 2003 


मधुशाला  ..... भाग -2 


मधुर  भावनाओं  की सुमधुर 
नित्य    बनाता    हूँ     हाला 
भरता  हूँ इस मधु  से अपने 
अंतर   का  प्यासा   प्याला ;
            उठा कल्पना के हाथों से 
            स्वयं   इसे   पी जाता हूँ 
अपने    ही में   हूँ      साकी , 
पीने    वाला ,     मधुशाला । 

मदिरालय    जाने  को  घर से 
चलता      है    पीने      वाला , 
किस पथ से जाऊँ? असमंजस 
में     है     वो       भोलाभाला ;
      अलग अलग पथ बतलाते सब 
      पर    मैं    यह   बतलाता   हूँ - 
राह   पकड़ तू एक चलाचल 
पा      जाएगा     मधुशाला । 

चलने ही चलने में कितना 
जीवन , हाय बिता डाला ! 
दूर अभी है , पर कहता है 
हर    पथ   बतलाने वाला 
       हिम्मत है न बढ़ूँ आगे को , 
       साहस    है न   फिरूँ पीछे ;
किंकर्तव्य विमूढ़  मुझे कर 
दूर  खड़ी    है    मधुशाला । 

मुख से तू अविरत  कहता   जा 
मधु , मदिरा ,    मादक   हाला 
हाथों में   अनुभव   करता  जा 
एक ललित    कल्पित  प्याला 
           ध्यान किए जा मन में सुमधुर , 
           सुखकर   सुंदर     साकी   का ;
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको 
 दूर          लगेगी      मधुशाला । 

मदिरा पीने की अभिलाषा 
ही   बन  जाये  जब हाला ,
अधरों की  आतुरता में ही 
जब आभासित हो प्याला ; 
              बने ध्यान ही करते करते 
              जब  साकी साकार , सखे 
रहे न हाला , प्याला , साकी 
तुझे   मिलेगी    मधुशाला । 

सुन कलकल , छल छल   मधु - 
घट से गिरती  प्यालों  में हाला , 
सुन ,   रुनझुन  रुनझुन   चल 
वितरण करती मधु साकीबाला ; 
            बस आ पहुंचे , दूर नहीं कुछ , 
            चार   कदम   अब  चलना है ;
चहक रहे , सुन , पीनेवाले , 
महक रही, ले , मधुशाला । 




बुधवार, 10 अक्तूबर 2012

श्री मैथिलीशरण गुप्त

Anamika 7577 की प्रोफाइल फोटोप्रबुद्ध पाठक गण आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवियों और लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा शैली पर प्रकाश डालते हुए आइये आज चर्चा  करते हैं श्री मैथिलीशरण गुप्त जी की .....

                                  अनामिका 

श्री मैथिलीशरण गुप्त 

 

जन्म   सन 1886,  मृत्यु  सन 1964

जीवनवृत -

 

आधुनिक हिंदी कवियों में श्री मैथिलिशरण गुप्त जी को सर्वाधिक लोक-प्रियता प्राप्त हुई है. इनका जन्म चिरगाँव  जिला झाँसी में सन 1886 में हुआ था और इनके पिता सेठ रामचरण धनी मानी वैश्य थे. यह कनकलता उप नाम से कविता किया करते थे और राम के विष्णुत्व में अटल आस्था रखते थे. गुप्त जी को कवित्व प्रतिभा और राम भक्ति पैतृक देन में मिली तथा यह बाल्यकाल में ही काव्य रचना करने लगे. पिता ने इनके एक छंद को पढ़ कर आशीर्वाद दिया कि 'तू आगे चलकर हमसे हजार गुनी अच्छी कविता करेगा' और यह आशीर्वाद अक्षरशः सत्य हुआ. चिरगांव में प्रारंभिक शिक्षा समाप्त करने के उपरान्त गुप्त जी झाँसी के मेकडॉनल हाईस्कूल में अंग्रेजी पढने के लिए भेजे गए पर वहां  इनका मन न लगा और दो वर्ष पश्चात ही घर पर इनकी शिक्षा का प्रबंध किया लेकिन पढने की अपेक्षा इन्हें चकई फिराना और पतंग उड़ाना अधिक पसंद था. इन्हें आल्हा पढने में भी बहुत आनंद आता था. इसी बीच यह मुंशी अजमेरी के संपर्क में आये और उनके प्रभाव से इनकी काव्य-प्रतिभा को प्रोत्साहन प्राप्त हुआ. अतः अब ये  दोहे, छपप्यों में काव्य रचना करने लगे जो कलकत्ते में प्रकाशित होने वाले 'वैश्योपकारक' पत्र में प्रकाशित हुई. आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जब झाँसी के रेलवे ऑफिस से चीफ कलर्क थे तब गुप्तजी अपने बड़े भाई के साथ उनसे मिलने गए और कालांतर में उन्हीं की छत्रछाया में मैथिलीशरण जी की काव्य प्रतिभा पल्लवित व् पुष्पित हुई. गुप्त जी द्विवेदी जी को अपना काव्य गुरु मानते थे और उन्हीं के बताये मार्ग पर चलते रहे तथा जीवन के अंत तक साहित्य साधना में रत  रहे. इन्होने राष्ट्रीय आंदलनों में भी भाग लिया और जेल यात्रा भी की तथा विश्व-वंध्य बापू का यह अत्यंत सम्मान करते थे. यह हिंदी के प्रसिद्द राष्ट्रीय कवि कहे जाते हैं और सन 1936 इन्हें काकी में अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट किया गया तथा इनकी साहित्य सेवाओं के उपलक्ष में आगरा व इलाहबाद विश्व-विद्यालय ने इन्हें डी. लिट. की उपाधि से विभूषित भी किया. साथ ही 'साकेत' महाकाव्य पर इन्हें मंगलाप्रसाद  पारितोषिक भी प्राप्त हुआ और यह भारतीय संसद के मनोनीत सदस्य भी रहे.

 

काव्य सौन्दर्य -

गुप्त जी अपनी भाव रश्मियों से हिंदी साहित्य को प्रकाशित करने वाले युग कवि हैं.  चालीस वर्ष तक निरंतर इनकी रचनाओं में युग स्वर गूंजता रहा. इन्होने गौरवपूर्ण अतीत को प्रस्तुत करने के साथ साथ भविष्य का भी भव्य रूप प्रस्तुत किया :

"मैं अतीत नहीं भविष्यत् भी हूँ आज तुम्हारा "

गुप्त जी मानवतावाद के पोषक और समर्थक थे. इनकी भगवत भावना महान थी. इनके काव्य में निर्गुण नारायण ही पृथ्वी को स्वर्ग बनाने के लिए भूतल पर आते हैं.

'भव में नव वैभव व्याप्त कराने आया,

नर को ईश्वरता  प्राप्त  कराने आया.

सन्देश  यहाँ  मैं  नहीं स्वर्ग का लाया,

इस  भूतल ही को स्वर्ग बनाने  आया.

 

गुप्त जी का काव्य मानस की प्रेरणा और प्रवृति का स्त्रोत है. वर्तमान युग का यह समन्वित रूप है. मानवीय चरित्र की जितनी भी संभावनाए संभव हैं, उस सबकी सृष्टि राम का चरित्र है.

अपने साहित्यिक गुरु पं. महावीरप्रसाद द्विवेदी की प्रेरणा से गुप्त जी ने 'भारत-भारती' की रचना की. 'भारत-भारती' के प्रकाशन से ही गुप्त जी प्रकाश में आये. उसी समय से आपको राष्ट्र कवि के नाम से अभिनंदित किया गया. गुप्त जी की साहित्य साधना सन 1921 से सन 1964 तक निरंतर आगे बढती रही.

गुप्त जी युग-प्रतिनिधि राष्ट्रीय कवि थे. इस अर्ध-शताब्दी की समस्त सामाजिक, राजनैतिक, सांस्कृतिक और साहित्यिक हलचलों का प्रतिनिधित्व इनकी रचनाओं में मिल जाता है. इनके काव्य में राष्ट्र की वाणी मुखर हो उठी है. देश के समक्ष सबसे प्रमुख समस्या दासता से मुक्ति थी. गुप्त जी ने भारत-भारती  तथा अपनी अन्य रचनाओं के माध्यम से इस दिशा में प्रेरणा प्रदान की. इन्होने अतीत गौरव का भाव जगाकर वर्तमान को सुधारने की प्रेरणा दी. गुप्त जी अपनी अभिलाषा अभिव्यक्त करते हुए कहते हैं -

"मानव-भवन में आर्यजन, जिसकी उतारें आरती.

भगवान् भारतवर्ष में, गूंजे हमारी भारती. "

इस युग की प्रमुख समस्या हिन्दू मुसलामानों की एकता थी , गुप्त जी ने अपनी अनेक रचनाओं में दोनों की एकता पर बल दिया. 'काबा और कर्बला' में इन्होने मुसलामानों की सहानुभूति प्राप्त करने का प्रयास किया है.  इस प्रकार गुप्त जी ने समस्त समस्याओं का राष्ट्रीय दृष्टि से समाधान प्रस्तुत किया है.

 

भाषा शैली -

शैलियों के निर्वाचन में गुप्त जी ने विविधता दिखाई किन्तु प्रधानता प्रबंधात्मक इतिवृतमय शैली की है. गुप्त जी के अधिकांश काव्य इसी शैली में हैं - रंग में भंग, जयद्रथ वध, नहुष, सिद्धराज, त्रिपथक, साकेत आदि प्रबंध शैली में हैं. यह शैली दो प्रकार की है - खंड काव्यात्मक तथा महाकाव्यात्मक. साकेत महाकाव्य है तथा शेष सभी काव्य खंड काव्य के अंतर्गत आते हैं.

गुप्तजी की एक शैली विवरण शैली भी है. 'भारत-भरती' और 'हिन्दू' इस शैली में आते हैं.

तीसरी शैली गीत शैली है - इसमें गुप्तजी ने नाटकीय प्रणाली का अनुगमन किया है. 'अनघ' इसका उदाहरण है.

आत्मोदगार प्रणाली गुप्त जी की एक और शैली है जिसमे 'द्वापर की रचना की.

नाटक, गीत, प्रबंध, पद्य और गद्य सभी के मिश्रण एक मिश्रित शैली है जिसमे 'यशोधरा' की रचना हुई है.

इन सभी शैलियों में गुप्त जी को समान रूप से सफलता नहीं मिली. गुप्तजी की शैली की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उसमे इनका व्यक्तित्व झलकता है. पूर्ण प्रवाह है. भावों की अभिव्यक्ति में सहायक होकर उपस्थित हुई हैं.

भाषा -

गुप्तजी की काव्य भाषा खड़ी बोली है, इस पर इन्हें पूर्ण अधिकार है. भावों को अभिव्यक्त करने के लिए गुप्तजी के पास अत्यंत व्यापक शब्दावली है.

गुप्तजी की प्रारंभिक रचनाओं की भाषा तत्सम है. इसमें साहित्यिक सौन्दर्य कला नहीं है. 'भारत-भरती' की भाषा में खड़ी बोली की खडखडाहट है, किन्तु गुप्तजी की भाषा क्रमशः विकास करती हुई सरस होती गयी.

संस्कृत के शब्द भण्डार से ही गुप्तजी ने अपनी भाषा की भण्डार भरा है. लेकिन प्रिय प्रवास की भाषा में संस्कृत बहुला नहीं होने पायी इसमें प्राकृत रूप सर्वथा उभरा हुआ है. भाव व्यंजना को स्पष्ट और प्रभावपूर्ण  बनाने के लिए संस्कृत का सहारा लिया है.

संकृत के साथ गुप्तजी की भाषा पर प्रांतीयता का भी प्रभाव है. गुप्त जी का काव्य  भाव तथा कला पक्ष दोनों की दृष्टि से सफल है.

इनके काव्य की विशेषताएं इस प्रकार उल्लेखित की जा सकती हैं -

१.राष्ट्रीयता और गांधीवाद की प्रधानता.

२. गौरवमय अतीत के इतिहास और भारती  संस्कृति की महत्ता

३. पारिवारिक जीवन को भी यथोचित  महत्ता

४. नारी मात्र को विशेष महत्त्व

५. प्रबंध और मुक्तक दोनों में लेखन

६. शब्द शक्तियों तथा अलंकारों के  सक्षम प्रयोग के साथ मुहावरों का भी प्रयोग.

 

कृतियाँ -

गुप्त जी का रचनाकाल सं. 1964 से प्रारंभ होता है और इनकी पहली काव्यकृति 'रंग में भंग' सं. 1937 में प्रकाशित हुई. तब से अब तक इनकी 52 से अधिक काव्य रचनाएं प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमे से कुछ अनुदित भी हैं. इन्होने 'मधुप' उपनाम से विरहणी ब्रजांगन, पलासी का युद्ध और मेघनाद वध नामक बंगला काव्य कृतियों का अनुवाद किया है तथा कुछ संस्कृत नाटकों के अनुवाद भी किये. इसी प्रकार 'रुबाइयात उमरखय्याम; भी  उमर खयाम की रुबाइयों का हिंदी रूपान्तर है. इनकी उल्लेखनीय मौलिक रचनाओं की तालिका में - रंग में भंग, जयद्रथ वध, पद्य प्रबंध, भारत भरती, शकुंतला, तिलोत्तमा, चंद्रहास, पत्रावली, वैतालिका, किसान, अनघ, पंचवटी, स्वदेश संगीत, हिन्दू, विपथगा, शक्ति विकटभट, गुरुकुल, झंकार, साकेत, यशोधरा, सिद्धराज, द्वापर, मंगलघट, नहुष, कुणालगीत , काबा और कर्बला, प्रदक्षिणा, जयभारत, विष्णुप्रिया आदि आते हैं.

सन 1964 में गुप्त जी के स्वर्गवास से हिंदी साहित्य को जो महान क्षति पहुंची उसकी पूर्ती संभव नहीं है.

सोमवार, 8 अक्तूबर 2012

मधुशाला / हरिवंश राय बच्चन


आज राजभाषा हिन्दी ब्लॉग के पाठकों के लिए मैं  ले कर आई हूँ  "  मधुशाला "। 
हरिवंश राय  बच्चन जी की मधुशाला लगभग 7 दशक से लोकप्रियता के सर्वोच्च  शिखर पर  विराजमान है । सर्वप्रथम 1935 में यह प्रकाशित हुयी थी । 
तब से अब तक कई लाख प्रतियाँ पाठकों तक पहुँच चुकी हैं ।  महाकवि पंत के शब्दों में --- " मधुशाला की  मादकता अक्षय है।  "



जन्म -- 27 नवंबर 1907 
निधन -- 18 जनवरी 2003 

कुछ लोग शायद यह सोचते हैं कि  मधुशाला में मय और मैखाने की  ही बात होगी .... पर ऐसा नहीं है ....मधुशाला में हाला , प्याला , मधुबाला और मधुशाला के चार  प्रतीकों के माध्यम से  कवि ने अनेक क्रांतिकारी , मर्मस्पर्शी , रागात्मक और रहस्यपूर्ण  भावों को  वाणी दी है । हम पाठकों  को मधुशाला की मस्ती  और मादकता में खो जाने के लिए आमंत्रित करते हैं ....

कवि ने सम्बोधन में लिखा है ---

मेरे मादक , .... ( अर्थात उनकी रचनाओं के पाठक )  तो पेश है ---------

मधुशाला -----

मृदु    भावों  के अंगूरों  की 
आज  बना  लाया      हाला 
प्रियतम , अपने ही हाथों से 
आज   पिलाऊंगा   प्याला ;
               पहले भोग लगा लूँ तेरा 
               फिर प्रसाद जग पाएगा ;
सबसे पहले तेरा स्वागत 
करती    मेरी मधुशाला । 

प्यास तुझे तो , विश्व तपा कर 
पूर्ण      निकालूँगा       हाला 
एक   पाँव  से  साकी बन कर  
नाचूंगा       लेकर     प्याला 
              जीवन की मधुता तो  तेरे 
              ऊपर  कब का  वार चुका , 
आज निछावर कर दूंगा मैं 
तुझ पर जग की मधुशाला । 

 प्रियतम   तू   मेरी हाला है 
 मैं   तेरा  प्यासा    प्याला 
अपने को मुझमें भर कर तू 
बनता   है ,    पीने वाला  ; 
        मैं तुझको छक छलका करता, 
         मस्त    मुझे   पी    तू  होता ; 
एक  दूसरे को हम दोनों 
आज परस्पर मधुशाला । 

भावुकता    अंगूर   लता  से 
खींच   कल्पना  की    हाला 
कवि साकी बन कर आया है 
भर  कर कविता का प्याला ; 
         कभी न कण  भर खाली होगा , 
         लाख  पिएं , दो  लाख    पिएं 
पाठकगण  हैं पीने वाले 
पुस्तक मेरी मधुशाला । 

क्रमश: 


बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

बाबू जगन्नाथ प्रसाद 'रत्नाकर'

बाबू जगन्नाथ प्रसाद 'रत्नाकर' 
Anamika 7577 की प्रोफाइल फोटोप्रबुद्ध पाठक गण आधुनिक काल के प्रसिद्ध कवियों और लेखकों के जीवन-वृत्त, व्यक्तित्व, साहित्यिक महत्त्व, काव्य सौन्दर्य और उनकी भाषा शैली पर प्रकाश डालते हुए आइये आज चर्चा  करते हैं बाबू जगन्नाथ प्रसाद 'रत्नाकर' जी की.....

बाबू जगन्नाथप्रसाद 'रत्नाकर' 

                                      जन्म  सं. 1923 ( सन 1866 ई.),  मृत्यु सं. 1989 ( सन 1932 ई.)

जीवनवृत -

बाबू जगन्नाथ प्रसाद 'रत्नाकर' का जन्म संवत 1923 भाद्रपद शुक्ल पंचमी को काशी में हुआ. इनके पिता पुरुषोत्तमदास दिल्ली वाले अग्रवाल वैश्य थे और पूर्वज पानीपत के रहने वाले थे तथा उनका मुग़ल दरबारों में बड़ा सम्मान था. लेकिन परिस्थितिवश उन्हें काशी आकर रहना पड़ा. पुरुषोत्तम दास फारसी के अच्छे विद्वान थे और हिंदी फ़ारसी कवियों का बड़ा सम्मान करते थे. भारतेंदु हरिश्चंद्र उनके मित्र थे और इनके यहाँ बहुधा आया करते थे. रत्नाकर ने बाल्यावस्था में भारतेंदु का सत्संग भी किया था और उन्होंने  कहा भी था कि किसी दिन यह बालक हिंदी की शोभा वृद्धि करेगा.

रत्नाकर ने सन 1891 में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की, जिसमे अंग्रेजी के साथ दूसरी भाषा फारसी भी थी. यह फ़ारसी में एम्.ए. की परीक्षा देना चाहते थे पर कुछ कारणों से न दे सके. इधर इसी बीच 'जकी' उपनाम से इन्होने फ़ारसी में कवितायें लिखना प्रारंभ किया और इस सम्बन्ध में इनके उस्ताद मुहम्मद हसन फायज थे.

रत्नाकर प्रारंभ में  अवागढ़ में खजाने के निरीक्षक  पद पर नियुक्त हुए पर जलवायु अनुकूल न होने से दो ही वर्षों में इन्होने नौकरी छोड़ दी और काशी चले  आये. . इसी बीच इन्होने हिंदी काव्य का अभ्यास प्रारंभ किया और ब्रजभाषा में काव्य रचना की. सन 1902 में यह अयोध्या नरेश के प्राईवेट सेक्रेटरी नियुक्त हुए और सन 1906 में महाराजा का स्वर्गवास हो गया, पर इनकी सेवाओं से प्रसन्न हो महारानी ने इन्हें अपना प्राईवेट सेक्रेटरी नियुक्त किया तथा मृत्युपर्यंत  रत्नाकर जी इस पद पर रहे.


कवित्व -

'रत्नाकर' जी का भावों का वैभव है. इनके काव्य-विषय विशुद्ध पौराणिक हैं. आपने इन कथानकों में नवीनता भर कर उन्हें नवीन रूप प्रदान किया. 'रत्नाकर' जी ने प्रबंध और मुक्तक दोनों प्रकार के काव्य लिखे. रत्नाकर जी विशेषतया श्रृंगार के कवि हैं; परन्तु इनके श्रृंगार में न तो रीतिकाल की अफीमची मादकता है और न नायिका भेद की बारीकी ही. इनका श्रृंगार भक्ति-परक होकर मर्यादित रूप में सामने आया. विशुद्ध श्रृंगार में भी ह्रदय की अनुभूति पूर्ण भावनाओं ही का तीव्र वेग है.  कृष्ण-राधा के हृदय में स्वाभाविक प्रेम के उदय पर रत्नाकर जी कलम का एक दृष्टव्य -


आवन लगी है दिन द्वैक ते हमारे धाम,

रहे बिनु काम काज आई अरुझाई है.

कहैं रत्नाकर खिलौननी सम्हारि राखि,

बार-बार जननी चितावत कन्हाई है .

देखी सुनु ग्वारिनी किती ब्रजवासिन  पै,

राधा सी न और अभिहारिन लखाई है .

हेरत ही हेरत हरयौ तौ है हमारो कछु,

काहि धौं हिरानी पै न परत जनाई है .


विरह विरहिरिनों के हृदय को विदीर्ण कर देता है. विरह-विपत्ति का झेलना अत्यंत कठिन है. इसीकी अनुभूति पूर्ण अवस्था का एक उदाहरण देखिये -


पीर सों धीर धरावत वीर, कटाक्ष हूँ कुंतल सेल नहीं है

ज्वाल न याकी मिटे रत्नाकर, नेह कछू तिल तेल नहीं है

जानत अंग जो झेलत हैं, यह रंग गुलाल की झेल नहीं है.

थामे थमें न बहें अंसुवा, यह रोयबो है, हंसी-खेल नहीं है.

श्रृंगार के पश्चात 'रत्नाकर' जी के काव्य में वीर रस को प्रमुख स्थान मिला है. करुण रस की सुन्दर व्यंजना 'हरिश्चंद्र' में हुई है. इसके अतिरिक्त वीभत्स तथा वात्सल्य आदि रसों का यथास्थान सफलता से चित्रण हुआ है.

रत्नाकर जी को भावों के चित्रण में विशेष सफलता मिली है. क्रोध, हर्ष, उत्साह, शोक, प्रेम, घृणा आदि मानवीय व्यापारों की अभिव्यंजना रत्नाकर जी ने बड़ी सफलता से की है.

आधुनिक युग के होते हुए भी रत्नाकर जी ने भक्ति काल एवं रीति काल के आदर्शों को अपनाया. इनके काव्य में भक्ति कवियों के भाव की सी भावुकता, रसमग्नता तथा रीति कालीन कवियों जैसा शब्द-कौशल तथा चमत्कार प्रियता मिलती है. इनके काव्य पर आधुनिक युग के बुद्धिवाद का भी प्रभाव है. इनकी 'उद्धवशतक', गंगावतरण', हरिश्चंद्र' आदि रचनाये प्राचीन युग का उच्चादर्श उपस्थित करती हैं.


भाषा शैली -

रत्नाकर जी की काव्य भाषा नवीनता से परिपूर्ण है. इन्होने ब्रज भाषा को संयत और परिष्कृत रूप प्रदान किया है. ब्रज भाषा के अप्रचलित प्रयोगों को इन्होने सर्वथा छोड़ दिया. इस प्रकार ब्रजभाषा को खड़ी बोली के समान प्रतिष्ठित करने का इनका सराहनीय प्रयास रहा. इनकी शब्द योजना सर्वथा दोष मुक्त है. इनकी भाषा क्लिष्ट भावों की चेरी बन कर चलती है. इनकी भाषा में इतनी सरलता और स्वाभाविकता है कि भावों को समझने में कठिनाई नहीं पड़ती. इनकी भाषा में ओज और माधुर्य  गुण मिलता है. भाषा में कहीं भी शिथिलता नहीं है. अनुप्रास योजना भाषा को स्वाभाविकता प्रदान करती है.

रत्नाकर जी की कविता में संस्कृत के तत्सम शब्दों का प्रयोग खुल कर हुआ है परन्तु इससे इनकी भाषा में कृत्रिमता और शिथिलता नहीं आने पायी. साहित्यिक स्वरूप में घनानंद की भाषा ही रत्नाकर जी की भाषा की समता कर सकती है. रत्नाकर जी को आधुनिक ब्रजभाषा का पद्माकर कहा जा सकता है.

रत्नाकर जी ने जिस शैली को अपनाया उसमे मावीय व्यापारों को सफलतापूर्वक चित्रित किया गया है. इनकी शैली में सर्वत्र ही कलात्मकता और स्वाभाविकता मिलती है.


कृतियाँ  -

रत्नाकर जी ने हिंडोला, हरिश्चंद्र, कलकाशी, रत्नाश्क, वीराश्टक, धनाक्षरी, नियम रत्नाकर, गंगा लहरी, विष्णु लहरी, श्रृंगार लहरी, उद्धवशतक और गंगावतरण नामक ग्रन्थ रचे. 'समालोच्नादर्ष' इनका अनुदित ग्रन्थ है तथा 'बिहारी सतसई  ' की सबसे सुन्दर व् उत्कृष्ट टीका भी इन्होने 'बिहारी रत्नाकर' नामक लिखी. साथ ही बहुत अधिक परिश्रम और अपना बहुत सा धन व्यय कर यह 'सूरसागर' का सम्पादन भी कर रहे थे पर उसका केवल तीन चतुर्थांश ही पूर्ण कर सके. बहुत अधिक संख्या में इनकी स्फुट रचनाएं भी मिलती हैं और नागरी प्रचारिणी सभा काशी ने इन स्फुट कविताओं व् उक्त सभी काव्यकृतियों का एक सुन्दर संग्रह 'रत्नाकर' नामक प्रकाशित किया है.

महत्त्व -

हिंदी साहित्य में 'रत्नाकर' जी एक निर्माता के रूप में स्मरण करने योग्य हैं. ये नवीन और प्राचीन को साथ लेकर चले हैं. इन्होने आधुनिक हिंदी साहित्य के तीनों काल देखे थे, पर किसी भी युग विशेष से प्रभावित नहीं हो सके. द्विवेदी युग में होने वाली खड़ी बोली के आन्दोलन ने इनको तनिक भी आकर्षित नहीं किया और ये ब्रज भाषा की उपासना - अराधना में लगे रहे. रत्नाकर जी हिंदी के स्वर्ण-युग (मध्य-युग) के पुजारी थे.  सं. 1989 में हरिद्वार में इनका देहावसान हो गया.

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

सच क्षितिज का .....



द्वंद्व में घिरा मन
कब महसूस कर पाता है
किसी के एहसासों को ?
और वो एहसास
जो भीगे - भीगे से हों
मन सराबोर हो
मुहब्बत के पैमाने से
लब पर मुस्कराहट के साथ
लगता है कि -
प्यार के अफ़साने
लरज रहे हों।
नही समझ पाता ये मन -
कुछ नही समझ पाता ,
ख़ुद के एहसास भी
खो से जाते हैं
सारे के सारे अल्फाज़
जैसे रूठ से जाते हैं
कैसे लिखूं
अपने दिल की बात ?
न मेरे पास
आज नज़्म है , न शब्द
और न ही लफ्ज़
खाली - खाली आंखों से
दूर तक देखते हुए
बस क्षितिज दिखता है ।
जिसका सच केवल ये है कि
उसका कोई आस्तित्व नही होता ।