आज का विचार::सफलता |
सफलता वह सौभाग्य है जो कि उच्चाकांक्षा, साहस, पसीना बहाने और प्रेरणा से प्राप्त होता है। |
सोमवार, 31 मई 2010
आज का विचार
रविवार, 30 मई 2010
शनिवार, 29 मई 2010
शुक्रवार, 28 मई 2010
आज का विचार
गुरुवार, 27 मई 2010
पर्वतांचल की नदियां
--- --- मनोज कुमार
पर्वतांचल की अधिकांश नदियां,
गर्मी आते ही सूख जाती हैं।
पहाड़ों से उतरने के पहले
अपनी
कल-कल, छल-छल,
कोमल-उज्ज्वल,
निश्छल धाराओं को
किन्ही ठंढ़ी गुफाओं में
छोड़ आती हैं।
पर्वतांचल की अधिकांश नदियां,
गर्मी आते ही सूख जाती हैं।
ताप इतना, कि जल भी जल जाए !
तब रेत और रंगीन पत्थर ही मन को भाए।
नीरस नदियां अश्रु बहाए,
पर बादल न दया दिखाए।
तप्त-गर्म धूप, तप्त-गर्म लू,
तृण-तृण को,
कण-कण को,
जन गण को
आग सी जलाती है।
ग्रीष्म ऋतु के आगमन के साथ,
सूख जाते सरिता के प्राण।
पूर्ण रूप से हो जाता उजाड़,
नव यौवन का हर उद्यान।
क्रूर, कठोर और निर्मम सत्य सा,
नदियां निज रूप दिखाती हैं।
कल-कल छल छल कहां गए
धाराएँ गई किस ओर ?
सूने कर पर्वत के आंचल
कहां गई तट-कूल छोर ?
तृष्णा के बंध्या अंचल में
मृगतृष्णा फैलाती हैं ।
जहां मचलती थी हरियाली
ककड़ी-खरबूजों के खेत,
आज पड़ी है वहां झुलसती
अंगारों सी जलती रेत।
उबड़-खाबड़ शुष्क शिलाएं
प्यास बहुत जगाती हैं।
कल थी केन्द्र केलि-क्रीड़ा की
आज पड़ी है यह मरघट सी,
आज वयोवृद्धा सी जर्जर
कल थी वयस्सन्धि नटखट सी।
भरी हुई उत्कट पीड़ाएं
नियति भी, कैसे खेल रचाती है।
दृग देख जहां तक पाते हैं,
नदियों की सूखी धारे हैं।
फिर भी इस पार खड़ा माझी,
नौका भी हैं, पतवारें हैं।
तृप्त नहीं हो पाती तृष्णा,
आंखें न अश्रु बहाती हैं।
प्रबल-प्रवाह लिए शीतलता,
जैसे नारि नवेली निकले।
फेनिल धारों पर मतवाले,
नाव लिए फिर नाविक पगले।
निर्मल-शीतल धवल स्रोत के,
अन्वेषण उल्लास जगाती है।
मैं पास खड़ा तुम भी आओ,
खेलो इन तीर, तरंगों में।
मन ही मन मैं मतवाला,
अपने ही हील उमंगों में।
मेरे मन की दुबिधाएं,
मुझको ही भरमाती हैं।
पहुँचूंगा मझधार में जब,
शायद न संगी साथी हो।
कलतक थी तट पर भीड़ बहुत,
पर मैं खड़ा आज एकाकी हो।
रेतों पर गिरती धाराएँ
मुझको पास बुलाती हैं।
*** *** ***
आज का विचार
बुधवार, 26 मई 2010
मंगलवार, 25 मई 2010
काव्य शास्त्र - 16
काव्यशास्त्र –१६
- आचार्य परशुराम राय
आचार्य क्षेमेन्द्र
आचार्य क्षेमेन्द्र कश्मीर वासी थे। इनका काल ग्यारहवीं शताब्दी है। कश्मीर नरेश अनन्तराज के शासन काल में इनका समय आता है। इसके अतिरिक्त अनन्त राज के बाद उनके पुत्र कलश के शासन काल में भी आचार्य क्षेमेन्द्र की उपस्थिति रही। कश्मीराधिपति अनन्तराज का शासनकाल 1028 से 1063 ई. तक माना जाता है और तदुपरान्त महाराज कलश का शासनकाल आता है।
आचार्य क्षेमेन्द्र के पिता प्रकाशेन्द्र एवं पितामह सिन्धु थे। इन्होंने आचार्य अभिनवगुप्त को अपना साहित्यशास्त्र या गुरू कहा है:-
श्रुत्वाभिनंवगुप्ताख्यात् साहित्यं बोधवारिधे: (वृहत्कथामंजरी)।
ये काव्यशास्त्र के इतिहास में 'औचित्यवाद' के प्रवर्तक हैं और औचित्यविचारचर्चा काव्यशास्त्र को इनकी अनुपम देन है।
इन्होंने लगभग 40 ग्रंथों का प्रणयन किया है लेकिन वे सभी उपलब्ध नहीं हैं। इनमें से भारतमञ्जरी, वृहत्कथामञ्जरी, औचित्यविचारचर्चा, कविकण्ठाभरण, सुवृत्ततिलक, समयमातृका आदि कुछ ही ग्रंथ मिलते हैं। अवसरसार, अमृततरंगकाव्य, कनकजानकी, कविकर्णिका, चतुर्वर्गसंग्रह, चित्रभारतनाटक, देशोपदेश, नीतिलता, पद्यकादम्बरी, बौद्धावदानकल्पलता, मुक्तावलीकाव्य, मुनिमतमीमांसा, ललितरत्नमाला, लावण्यवतीकाव्य, वात्स्यायनसूत्रसार, विनयवती और शशिवंश इन सत्रह ग्रंथों के केवल नाम यत्र-तत्र मिलते हैं।
सुवृत्ततिलक छंदशास्त्र पर लिखा गया ग्रंथ है। इस ग्रंथ में आचार्य ने छंदविशेष में कविविशेष के अधिकार की चर्चा की है, जैसे अनुष्टुप छंद में अभिनन्द का, उपजाति में पाणिनि का, वंशस्थ में भारवि का, मन्दाक्रान्ता में कालिदास, वसन्ततिलका में रत्नाकर, शिखरिणी में भवभूति, शार्दूलविक्रीडित में राजशेखर का। कविकण्ठाभरण को कविशिक्षापरक ग्रंथ मानना चाहिए।
'औचित्यविचारचर्चा' ग्रंथ काव्यशास्त्र से सम्बन्धित है। आचार्य क्षेमेन्द्र औचित्य को ही रस का प्राण मानते हैं। औचित्य को परिभाषित करते हुए वे लिखते हैं।:-
उचितं प्राहुराचार्या: सदृशं किल यस्य यत्। (औचित्य विचार चर्चा)
उचितस्य च यो भावस्तदौचित्य प्रचक्षते॥
आचार्य क्षेमेन्द्र अनौचित्य को रसभंग का सबसे बड़ा कारण मानते हैं या यों कहना चाहिए कि अनौचित्य को ही एक मात्र रसभंग का कारण कहा हैं:-
अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गञंस्य कारणम्।
- अर्थात अनौचित्य के अतिरिक्त रसभंग का दूसरा कोई कारण नहीं है।
आचार्य अभिनवगुप्त के एक और शिष्य क्षेमराज का नाम आता है जिन्होंने शैवदर्शन पर कई रचनाएं लिखी हैं। आचार्य अभिनवगुप्त के परमार्थसार नामक ग्रंथ पर टीका भी लिखी है। कुछ विद्वान क्षेमेन्द्र और क्षेमराज को एक ही व्यक्ति मानते हैं, जबकि कुछ इन दोनों को भिन्न व्यक्ति मानते हैं। भिन्न व्यक्ति मानने वाले विद्वान यह तर्क देते हैं कि क्षेमराज शैव थे और क्षेमेन्द्र वैष्णव क्योंकि आचार्य क्षेमेन्द्र ने भगवान विष्णु के विषय में दशावतारचरितम् लिखा है। जो दोनों को एक ही व्यक्ति मानते हैं, उनका तर्क है कि आचार्य क्षेमेन्द्र पहले शैव थे और बाद में आचार्य सोम से वैष्णव सम्प्रदाय में दीक्षा लिये। वैसे आचार्य क्षेमेन्द्र ने अपने ग्रंथ दशावतारचरितम में अपना एक नाम व्यासदास भी बताया है।
इत्येष विष्णोरवतारमूर्तें: काव्यामृतास्वादविशेषभक्या।
श्रीव्यासदासात्यतमाभिधेन क्षेमेन्द्रनाम्ना विहित: प्रबन्ध:॥
भारतीय काव्यशास्त्र को आचार्य क्षेमेन्द्र की देन सदा याद रखी जाएगी। इनके ग्रंथों में इनकी विद्वत्ता हर जगह मुखरित होती हुई देखी जा सकती है।
आचार्य भोजराज
धारा राज्याधिपति महाराज भोज का काल ग्यारहवीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध है। भारतीय इतिहास इन्हें विद्वानों के आश्रयदाता, उदार और दानशील राजा के रूप में प्रकाशित करता है। कश्मीर नरेश अनन्तराज और धारा नरेश भोजराज दोनों समकालीन थे। दोनों ही समान रूप से अपनी विद्वत्प्रियता के लिए प्रसिद्ध थे। कश्मीर राज्य के इतिहास ‘राजतरङ्गिणी’ में इस प्रकार उल्लेख मिलता है:-
स च भोजनरेन्द्रश्च दानोत्कर्षेण विश्रुतौ।
सूरी तस्मिन् क्षणे तुल्यंद्वावास्तां कविबान्धवौ॥
यहाँ 'स' सर्वनाम कश्मीरनरेश अनन्तराज के लिए प्रयोग किया गया है।
महाराज भोज विद्वानों का आदर करने के साथ-साथ स्वयं एक उद्भट विद्वान भी थे। ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ और ‘शृंगारप्रकाश’ दोनों ही काव्यशास्त्र के उत्कृष्ट ग्रंथ हैं। ‘सरस्वतीकण्ठाभरण’ में पाँच परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेद में काव्य के गुण-दोषों का विवेचन करते हुए पद, वाक्य और व्याक्यार्थ के 16-16 दोष तथा शब्द और अर्थ के 24-24 गुण बताए गए हैं। द्वितीय परिच्छेद में शब्दालंकारों, तृतीय में अर्थालंकारों और चतुर्थ में उभयालंकारों का निरूपण किया गया है। पंचम परिच्छेद में रस, भाव, पञ्चसन्धि तथा वृत्तियों (शैलियों) की विवेचना मिलती है। चौदहवीं शताब्दी में महामहोपाध्याय रत्नेश्वर जी ने रत्नदर्पण नामक इस पर टीका लिखी।
‘शृंगारप्रकाश’ काव्यशास्त्र का शायद सबसे बड़ा ग्रंथ है। इसमें कुल 36 प्रकाश हैं। इनमें से प्रथम आठ प्रकाशों में शब्द और अर्थ पर अनेक वैयाकरणों के मतों का उल्लेख है। नवम और दशम प्रकाशों में गुण और दोषों का निरूपण है। ग्यारहवें और बारहवें प्रकाश में महाकाव्य और नाटक का विवेचन किया गया है। शेष प्रकाशों में उदाहरण सहित विस्तार से रसों का निरूपण मिलता है।
महाराज भोज द्वारा वर्णित शृंगार सामान्य शृंगार नहीं है। वह अपने में चारों पुरूषार्थों को समाविष्ट किए हुए है। इन्होंने श्रृंगार रस को ही रसराज कहा है। इसके अतिरिक्त इनके अन्य ग्रंथ भी हैं, यथा ‘मन्दारमरन्दचम्पू’ आदि।
आज का विचार
सोमवार, 24 मई 2010
आज का विचार
रविवार, 23 मई 2010
शनिवार, 22 मई 2010
आत्महत्या!!
बीतते समय के साथ हमारी जीवन शैली बदल गई है। हम तरह-तरह के प्रयास करते हैं ताकि स्वस्थ रह सकें। इसके साथ ही हम पाते हैं कि तरह-तरह की नई-नई बीमारियां भी हम पर हमला कर रही हैं। रोगियों की संख्यां में काफ़ी बढ़ोत्तरी हो रही है। लोगों का समुचित ईलाज हो सके उस दृष्टि से देखें तो हम पाते हैं कि इस परिस्थिति में हमारे सरकारी अस्पताल अब भी साधनहीन हैं।
लोग अत्याधुनिक उपकरणों से लैस निजी क्लीनिकों और पांचतारा होटलों जैसे दिखने वाले अस्पतालों की ओर रूख कर रहे हैं। महानगर तो महानगर मझोले और छोटे शहरों में भी अत्याधुनकि उपकरणों से लैस अनेकों अस्पताल खुल गए हैं जिनमें श्रेष्ठ चिकित्सकों के सेवाएं उपलब्ध हैं।
भारत में इस सेवा क्षेत्र का कारोबार 2 लाख करोड़ रूपये का हो गया है। स्वास्थ्य क्षेत्र एक उद्योग के रूप में तब्दील हो चुका है। इतने बड़े पैमाने पर चलने वाले इस उद्योग का भारत की अर्थव्यवस्था में बहुत अहम योगदान है। इस क्षेत्र का 80 प्रतिशत हिस्सा निजी क्षेत्र के हाथ में है। एक आंकड़े के अनुसार कुल 15,400 अस्पतालों में से 60 फीसदी निजी क्षेत्र के है। यह भी पता चला है कि इस वर्ष 3,500 करोड़ रूपये की लागत से 15 बड़े अस्पताल परियोजनाएं शुरू होने जा रही है।
निजी क्षेत्र में कई ऐसे अस्पताल है जो असमर्थ लोगों को भी सुविधाएं मुहैया कराती है। साथ ही सरकार की ओर से भी यह प्रयास किया जाना चाहिए कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा इतना चुस्त दुरूस्त और समर्थ हो कि समाज का हर तबका इनका लाभ लें। वरना ग़रीबों की सुनने वाल कौन है? उनकी बीमारियों का उपचार तो दूर, वो तो नित नई मौत मरने को बाध्य हैं।
पेश है एक कविता
आत्महत्या!!
लूट! लूट!! लूट!!!
टीवी पर भारी छूट!
मोबाइल सस्ता!!
कार दौड़ेगी,
हर गली, हर रस्ता!!
बढ़ गया दाम
सस्ता नहीं आम
जुते रहो कोल्हू में
भैया राम गुलाम।
कहते हैं
मंहगाई की मार तो
झेलेंगे ही आम जन
इस सब से परे
देख रहे सुधिजन
आंखें मटक-मटक
सेंसेक्स की उछाल
स्टॉक एक्स्चेंज की उठा-पटक!
ग़रीबों की,
ग़रीब किसानों की,
क्या है हस्ती
जीना मंहगा
मौत सस्ती!
भीकू महात्रे हो
या हो सत्या
करते रहे हैं
करते रहेंगे
आत्महत्या!!
आज का विचार
शुक्रवार, 21 मई 2010
आज का विचार
गुरुवार, 20 मई 2010
हाइकू :: हरीश प्रकाश गुप्त
हुआ मधु विस्फोट
फूटी कविता ।
उतर गई
अन्तस में, नैनन
पढ़ कविता ।
मेरी कविता
मेरे मन का गीत
सुर संगीत।
रात निठल्ली
सोई, दिन ने थक
बेबस ढोई ।
अचल बिंदु
के इर्द-गिर्द घूम
रहा बेसूध ।
गली-गली में
घूमा, ठहरा, सोचा
लेकिन कहॉं?
कुत्ता ले भागा
रोटी, नुक्कड़ वाले
भिखमंगे की ।
दरक गया
शीशे-सा जब देखा-
सच, सपना
शीशे में देखा
चेहरा, अपना या
कुछ उनका ।
गली में शाम
नुक्कड़ में रोशनी
मीना बाजार ।
आज का विचार
बुधवार, 19 मई 2010
काव्य शास्त्र-१५
आचार्य कुन्तक
आचार्य कुन्तक आचार्य राजशेखर के परवर्ती और आर्चा महिमभट्ट के पूर्ववर्ती है । इनका काल दसवीं शताब्दी का अन्तिम भाग माना जाता है । क्योंकि कुंतक ने अपने ग्रंथ वक्रोवित जीवित में आचार्य राजशेखर के नाम का उल्लेख किया है और आचार्य महिमभट्ट ने अपने ग्रंथ व्यक्तिविवेक में आचार्य कुन्तक का । आचार्य कुन्तक के पारिवारिक जीवन के विषय में प्रायः इतिहासकारों की प्रिय सामग्री का अभाव है ।
आचार्य कुन्तक का एक मात्र ग्रंथ वक्रोवित जीवित है और वे भारतीय काव्ययशास्त्र में वक्रोवित सम्प्रदाय के प्रवर्तक है । इनका यह ग्रंथ काव्यशास्त्र का बड़ा ही सशक्त ग्रंथ माना जाता है । आचार्य महिमाभट्ट आदि के अतिरिक्त अन्य आचार्यो ने भी इनकी प्रशंसा की है । आचार्य गोपाल भट्ट अपने ग्रंथ साहित्य सौदामिनी में इनकी प्रशंसा करते हुए लिखते हैं
वकानुरिञ्जनीमुक्तिं शुक इव मुखे वहन ।
कुन्तक क्रीडति सुखं कीर्तिस्फटिकपजरे ।।
वक्रोवितजीवित में कारिका, वृत्ति और उदाहरण है । आचार्य ने इसे चार उन्मेषों में विभक्त किया है । प्रथम उन्मेष में काव्य का प्रयोजन, लक्षण और अपने प्रतिपाद्य छः वक्रताओं का उल्लेख किया है । दूसरे उन्मेष में वर्ण विन्यासवक्रता, पदपूर्वाद्धवक्रता ओर प्रत्ययवक्रता इन तीन वक्रताओं का प्रतिपादन मिलता है । तीसरे में वाक्यवक्रता का विवेचन करते हुए अलंकारों का इसी के अंतर्गत अन्तर्भाव माना गया है । चौथे उन्मेष में शेष दो वक्रताओं अर्थात प्रकरणवक्रता और प्रबंधकर्ता का प्रतिपादन किया गया है ।
आचार्य कुन्तक अभिद्यावाद के समर्थक है । ये लक्ष्यार्थ और व्यंगार्थ का वाच्यार्थ में ही अर्न्तभाव होने की बात करते हैं ।
आचार्य महिमभट्ट
आचार्य महिमभट्ट का काल आचार्य कुन्तक के तुरंत बाद आता है ये आचार्य मुकुलभट्ट, धनंजय, भट्टनायक,कुन्तक आदि की तरह ध्वनि विरोधी आचार्य है । ये नयायिक है और इन्होंने ध्वनि के सभी रूपों का न्यायशास्त्र के अनुरूप अनुमान के अर्न्तगत अन्तर्भाव किया है ।
ये कश्मीरवासी थे । इनके पिता श्रीधैर्य और गुरू श्यामल थे । इन्होंने दो ग्रंथ लिखे- व्यक्तिविवेक और तत्वोक्तिकोश । इनमें दूसरा उपलब्ध नहीं है । इस ग्रंथ का उल्लेख व्यक्तिविवेक में स्वयं उन्होंने ही किया है । इनका केवल व्यक्तिविवेक ही मिलता है ।
व्यक्तिविवेक में कुल तीन विमर्श है । पहले विमर्श में ध्वनि-सिद्धांत का खंडन करके ध्वनि के सभी उदाहरणों का अनुमान में अन्तर्भाव दिखाया गया है । दूसरे विमर्श में काव्य-दोषों का निरूपण है । तीसरे में ध्वनि के 40 उदाहरणों का अनुमान में अन्तर्भाव दिखाया गया है । इन्होंने अनौचित्य को काव्य का मुख्य दोष कहा है । और इसे शब्दगत और अर्थगत या अन्तरंग ओर बहिरंग दो भागों में बांटा है । अन्तरंग अनौचित्य के अन्तर्ग रसदोषों को समाविष्ट किया गया है तथा बहिरंग अनौचित्य के पांच भेद विधेयाविमर्श प्रक्रमभेद, क्रमभेद, पौनरूक्त्य और वाच्यावचन बताए गए हैं । ानुरि त्र
मंगलवार, 18 मई 2010
चिठियाना टिपिआना वाद-विवाद .... आंखों देखा हाल .... लाईव फ़्रॉम ब्लॉगियाना मंच ---- कमेंटेटर -- छदामी लाल और खदेरन
चिठियाना टिपिआनावाद-विवाद.... आंखों देखा हाल.... लाईव फ़्रॉमब्लॉगियाना मंच --कमेंटेटर -- छदामी लालऔर खदेरन |
नमस्कार दोस्तों! मैं छदामी लाल आपका वेलकम करता हूँ। ब्लॉगियाना मंच पर आपका स्वागत है। अद्भुत, अनोखा और अभूतपूर्व खेल यहां खेला जाने वाला है। हम सब उस ऐतिहासिक घड़ी का गवाह बनेंगे। सामने मंच पर अभी हरा पर्दा पड़ा हुआ है जो कुछ ही क्षणों में उठेगा और आज की कार्रवाई शुरु हो जाएगी।
मैं खदेरन आपको नमस्कार करता हूं। मंच के ठीक सामने दो सोफा लगे हैं जिस पर मुख्य अतिथि बस पधारने ही वाले हैं। पीछे श्रोताओं के खड़े होने का इंतज़ाम किया गया है। पूरा दर्शकदिर्घा खचाखच भरा हुआ है। दोनों मुख्य अतिथियों के समर्थकों के लिए हॉल के दोनों ओर दो शामियाने लगे हुए हैं। अभी उसमें कोई खास चहल-पहल नहीं है। छदामी मैं पीछे देख रहा हूं कि मुख्य द्वार से कोई पूरे आराम से चहलकदमी करते हुए आ रहा है। आप कुछ कहना चाहेंगे उनके बारे में।
जी हां खदेरन। ये हैं आज के पहले मुख्य अतिथि चिठियाना।
चिठियाना … कौन चिठियाना?
खदेरन जी इनकी अलमस्त चाल पर नहीं जाइए, ये हमारे ब्लॉगियाना मंच के बहुत पुराने और पहुंचे हुए खिलाड़ी हैं! हां थोड़ा आराम तलबी हैं पर एक बार खेल शुरु हुआ नहीं कि एक से एक धांसू आइडिआ फेंक देते हैं और सारा ब्लॉगियाना उसे पकड़ते-जकड़ते, खांसते-बांचते रहते हैं।
ओह! पर उस दूसरे गेट से कौन आ रहा है?
वो हमारे दूसरे मुख्य अतिथि हैं टिपियाना।
छदामी जी उनके बारे में भी हमारे श्रोताओं को कुछ बताइए।
अरे! खदेरन जी ये तो बड़े ही प्रसिद्ध खिलाड़ी हैं। न सिर्फ़ सारा ब्लॉगियाना इनके ऊपर फ़िदा है बल्कि ये भी अपने प्यार से सबको सम्मोहित किए रहते हैं। सबके घर जा-जा कर उनसे गले मिलते हैं, दिल से उन्हें चाहते हैं, अपना हाल-चाल सुनाते हैं और उनकी खोज-खबर लेते रहते हैं!
हूं! अभी मैं देख रहा हूं कि दोनों ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया है। दोनों के चेहरे पर प्रसन्नता भी है, गाम्भीर्य भी। उनका आपस में बतियाना ज़ारी है। उधर मंच से पर्दा धीरे-धीरे उठ रहा है और वहां पधार रहे हैं आज के कार्यक्रम के संचालक। हालाकि इस कर्यक्रम का आयोजन भी उन्होंने ही किया है। उन्होंने घोषणा करनी शुरु कर दी है। बता रहे हैं कि विद्वानों, सुधि जनों और बुद्धिजीवियों की इस सभा में एक वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन किया गया है।
इस वाद-विवाद प्रतियोगिता का विषय है कौन है नम्बर वन – चिठियाना या टिपियाना? लोग अपने विचार या तो विषय के पक्ष में या फिर विपक्ष में रख सकते हैं। पर ये मैं क्या देख रहा हूँ? ज्यों ही विषय का ऐलान हुआ, हॉल में मौज़ूद ब्लॉगियना दो दलों में बंट गये हैं। एक दल चिठियाना शामियाने की ओर देख कर बढ-बढ़ कर, चढ़-चढ़ कर आवाज़ लगा रहे हैं। तो वहीं दूसरा दल टिपियाने की ओर देख कर बढ-बढ़ कर, चढ़-चढ़ कर आवाज़ लगा रहे हैं।
छदामी जी क्या इसी को कहते हैं वाद और विवाद?
जी हां खदेरन जी आप देख ही रहे हैं एक तरफ़ है वाद और दूसरी तरफ़ है विवाद। और … और … बीच में … बीच में
छदामी जी! बीच मे फंस गया है संवाद। जी हां दोस्तों, कुछ .. कुछ तीव्र बुद्धि वाले ब्लॉगियाना ने तटस्थता की स्थिति बना रखी है, और वे संवादहीनता की दिव्य भावना से ग्रस्त हैं। अब आगे का हाल छदामी जी बताएंगे।
हां दोस्तों! दोनों खेमा अपने-अपने शामियाने में समा, .. नहीं जमा हो चुके हैं। बीच में बुद्धिमान श्रोता वर्ग है जो इस पूरे आयोजन को बड़े मनोयोग से देख रहा है। वाद-विवाद अपने पूर शवाब पर है। दोनों तरफ़ से तर्कों का एक-से-बढ़कर शब्द वाण फेंके जा रहे हैं। ऐसा रंग जमा है कि देखते बनता है। यहां तक कि अब मुख्य अतिथि भी अपने आप को रोक नहीं पा रहे हैं। खदेरन जी बिल्कुल उनके पास पहुंच गये हैं और वहीं से बता रहे हैं … …
मैं मंच के सामने हूँ और देख रहा हूं कि मुख्य अतिथि का आपस में बतियाना बंद हो चुका है। वे अब सोफ़े पर से उठ चुके हैं और अपने-अपने तंबू की और जमा अपने समर्थकों से शांत होकर वार्तालाप करने की अपील कर रहे हैं। उन्हों ने भोंपू भी पकड़ रखी है। दोनों अपने अपने विचारों का प्रासार भोंपू से कर रहे हैं। उधर क्या हाल है छदामी जी?
खदेरन जी इधर का हाल तो पूरा बेकाबू है। श्रोताओं ने अपने-अपने पक्ष का न सिर्फ़ ज़ोर-शोर से प्रचार किया बल्कि अपने नेता से सामने आकर उनके समर्थन में कुछ कहने का आग्रह भी किया है। खदेरन जी मैं देख रहा हूं उधर मंच की तरफ़ कुछ हलचल है।
जी हां छदामी जी! इधर मंच पर चिठियाना आ चुके हैं और उन्होंने एक लंबा भाषण दे डाला है।
क्या कहा है उन्होंने?
चिठियाना ने काफ़ी लंबा वक्तव्य रखा है। उसका सारंश यही है कि इस ब्लॉगियना में पहले वो आये हैं। उनका अस्तित्व सबसे ऊपर है। वो हैं तो टिपियाने की ज़रूरत पड़ती है। इसलिए चिठियाना बड़ा है। उधर का आप बताएं छदामी जी।
इधर तो हलचल और बढ़ गई है। टिपियाना पक्ष भी टिपियाना से पुरज़ोर अपील कर रहा है कि इधर से भी वक्तव्य रखा जाए और ये क्या टिपियाना भी मंच की तरफ़ प्रस्थान कर गये हैं। खदेरन जी ज़रा मंच से हाल बताएं।
छदामी जी मंच से टिपियाना ने ऐलान किया है कि बिना टिपियाने के द्वारा स्तुति गायन के चिठियाना की हैसियत दो कौड़ी का है। इसलिए टिपियाना बड़ा है।
खदेरन जी इस बयान के आ जाने के बाद दोनों पक्ष के समर्थक एक-दूसरे पर फिर से पिल पड़े हैं। स्थित्ति हाथ से बाहर जाते दिख रही है।
छदामी जी इधर मंच पर मैं देख रहा हूं कि चिठियाना और टिपियाना दोनों एक दूसरे से बतियाने में मशगुल हैं।
खदेरन जी दोनों को बतियाते देख इधर समर्थक एक बार फिर से अपने-अपने तंबू में चले गए हैं।
अच्छा! छदामी जी लगता है इस स्थिति से प्रफुल्लित हो चिठियाना और टिपियाना ने अपना-अपना पैंतरा बदल लिया है। चिठियाना ने मंच से टिपियाना के सम्मान में आरती गाना शुरु किया है। जय टिप्पा भैया, तुम सबके रक्षक, पार लगओ नैया। जय टिप्पा भैया। उनकी आरती गायन की समाप्ति पर टिपियाना की तरफ़ से ज़ोरदार तालियों की आवाज़ आई है। अब टिपियाना ने चिठियाना को माला पहनाया और फिर भजन गाया है त्वमेव माता च पिता त्वमेव। त्वमेव सर्वं मम देव देवः। और कहा है हम तो आपके शागिर्द हैं जी, बच्चे के समान हैं।
खदेरन जी इस हार्दिक मिलन के अवसर पर दोनों पक्ष के समर्थक हतप्रभ हैं। ठगे से महसूस कर रहे हैं। और जो तटस्थ दर्शक थे लुटे-पिटे अपने-अपने रास्ते लौट रहे हैं
हां छदामी जी, आख़िर दोनों पक्षों की वार तो वो ही झेल रहे थे।
पर खदेरन जी मैं देख रहा हूं, इस वाद-विवाद के आयोजक मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं।
छदामी जी ये क्या? चिठियाना तो अपनी क़ीमती गाड़ी में आराम से लेटकर इस स्थान से प्रस्थान कर गये हैं।
हां खदेरन जी। टिपियाना भी अपनी गाड़ी में बैठ चुके हैं और उनकी गाड़ी देखते ही देखते हवा से बातें करने लगी है।
बुद्धिजीवी ब्लॉगियाना वर्ग किं-कर्त्व्यविमूढ़ है।
आयओजक ने पर्दा गिरा दिया है।
पटाक्षेप
*** ***
नेपथ्य से आवाज़ आती है -- “नाटक अभी बाक़ी है दोस्तों!”
दृश्य परिवर्तन
समय – गोधूलि
स्थल – ब्लॉगियाना सितारा होटल
पात्र – चिठियाना, टिपियाना, और आयोजक-संचालक।
क्रिया कलाप --
ठंढ़े पेय पदार्थों के बीच गंभीर किंतु सहज ढ़ंग से विचारमग्न! तीनों मान रहे हैं कि आयोजन सफल रहा। सफल नहीं “हिट!!!” अब उन्हें तीन बातों का निर्णय लेना है
१. ब्लॉगियाना उथल-पुथल को कौन सी दिशा दी जाए?
२. अगले वाद-विवाद की तिथि का निर्धारण।
३. इस बार संचालन की भूमिका कौन निभाएगा?
(बत्ती धीरे-धीरे डिम होती जाती है!)
अंधेरा गहराता जाता है।
पूर्ण प्रकाश। मंच पर कोई नहीं है।
आज का विचार
सोमवार, 17 मई 2010
अनुवाद और संप्रेषणीयता
अनुवाद और संप्रेषणीयता---- मनोज कुमार |
कोई भी शब्द अपने आप में सरल या कठिन नहीं होता। किसी शब्द का सरल या कठिन होना वाक्य संरचना में प्रयोग के आधार पर निर्भर करता है।
हिंदी भाषा में विविधता है। यह विकासशील भाषा है। बीतते समय में इसकी प्रकृति, शब्दावली आदि में निरंतर परिवर्तन होते रहे हैं। अनेक भाषा के शब्द इसमॆं समाहित हो गए हैं।
आपको मालुम होगा कि हमारे संविधान के अनुच्छेद 351 में यह परिकल्पना की गई है कि हिंदी एक ऐसी भाषा होगी जिसमें भारत की सामासिक संस्कृति की झलक मिले।
उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए यह कहना चाहूंगा कि अनुवादकों से हमारी अपेक्षा बहुत अधिक होती है। हम चाहते हैं कि अनुदित सामग्री में भी वही भाव हो जो स्रोत भाषा में है। इसके साथ ही अनुवादकों को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि अनुदित सामग्री को पढने वाले मूल सामग्री के पढने वाले से अलग होते हैं। दोनों वर्गों के रहन-सहन, रिति-रिवाज़ और बौद्धिक स्तर में फ़र्क़ हो सकता है। इसे अनुवादकों को समझना चाहिए। इसलिए जब वे अनुवाद करते हैं तो न सिर्फ़ उपर्युक्त बातों का ध्यान रखें बल्कि पात्र, देशकाल एवं परिस्थिति के अनुसार भाषा के प्रयोग की अपेक्षा को भी ध्यान में रखें।
विभिन्न भाषाओं से संदर्भ के अनुसार शब्द लेते हुए संप्रेषणीय अनुवाद करना एक अनुवादक का दायित्व है। आज के बदलते परिदृष्य में अनुवादकों की भूमिका न सिर्फ़ महत्वपूर्ण है बल्कि बहुत ही चुनौती भरी है। एक बात जो सबसे चुनौती भरी है वह यह कि अनुवादक को लक्ष्य भाषा में मौज़ूद कई समान अर्थ रखने वाले शब्दों में से सबसे अधिक उपयुक्त शब्द का चुनना। इसके साथ ही वे ऐसी वाक्य संरचना करें कि कठिन शब्द भी सरल लगे और आसानी से समझ में आए।
इस चुनौती का सामना करने के लिए अनुवादक को भाषा के इतिहास, भाषा विज्ञान, व्याकरण आदि का समुचित ज्ञान होना चाहिए। इस प्रकार वे लोगों को अपनाने लायक अनुवाद कर पाएंगे। जो सर्वग्राह्य होगा वही सफल अनुवाद कहलाएगा।
अनुवादकों को हिंदी प्रौद्योगिकी की भी सहायता लेनी चाहिए। अनुवाद कर्य और अनुवाद कर्मियों के लिए विकिपीडिया (http://hi.wikipedia.org/wiki/) के बंधु प्रकल्प में विकि-शब्दकोश, विकिताबें, विकिक्वोट, विकिस्रोत, विकिस्पीशीज आदि विषय दिए गए हैं। विकि-शब्दकोश में सामान्य शब्दों के साथ ही विभिन्न तकनीकी विषयों के शब्दों को अंग्रेज़ी में अर्थ सहित दिया गया है।
आज का विचार
रविवार, 16 मई 2010
लड़की
लड़की |
हरीश प्रकाश गुप्त, हिन्दी अनुवादकआयुध उपस्कर निर्माणी, कानपुर |
खेलती है गली में नुक्कड़ में, बच्चों के साथ, उसे छूट है खेलने की । गुड्डे और गुड़िया से सजाती और शृंगार करती है फिर कराती है शादी दोनों की । घरौदा- मिट्टी का, अपने मकान के एक कोने में- एक घर, रंगती है पोतती है सजाती है बिठा देती है उसमें गुड्डे और गुड़िया को । अब नहीं खेलती गुड्डे और गुड़िया से घरौंदे से, उसकी बड़ी समझ में अब इनकी कोई जरुरत नहीं, उसका बनाया घरौंदा अब भी खड़ा है- भर दी जाती हैं उसमें आलू, प्याज और सब्जियाँ |
आज का विचार
शनिवार, 15 मई 2010
एक गहरी श्वांस लेकर
इस सप्ताह माहौल नाटकीयता की हद को पार कर गया। मेरा मन छुब्ध हो गया। बस इसी मनसिकता में दो पोस्ट लिख डाली। एक थी आज़ादी अभिव्यक्ति की और दूसरी तिमिर घना है। इसमें बहुत नकारात्मक ऊर्जा से भरे शब्द थे। मेरे इस पोस्ट को पढकर आदरणीय डा. डंडा लखनवी जी ने निम्न लिखित उद्गार प्रकट किए
- डॉ० डंडा लखनवी said...
-
मनोज जी!
आपकी रचना को पढ़ मुझे लगा कि
आप का मनोबल और धैर्य विचलित
हो रहा है-उसे संभालिए। जीवन का दूसरा
नाम संघर्ष है। मैं आप जैसी मन:स्थिति से
गुजर चुका हूँ। सन् 1990 में मेरा ‘अपने
को ही दीप बनओ’ नामक गीत-संकलन
प्रकाशित हुआ था। अब वह आउट
आफ प्रिंट है। पुस्तक की प्रति अगर सुलभ
हो गई तो आप को मेल कर दूँगा। फिलहाल
उसके "टाइटिल सांग" की निम्न पंक्तियाँ प्रस्तुत
है। शायद आपके काम आ जाएं .........
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यह माना गहन अंधेरा है,
आँखों से दूर सबेरा है,
तुम ! अपने दीपक आप बनो़।
तुम ! अपने दीपक आप बनो़।।
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इन शब्दों के प्रति मैं उन्हें जितना भी आभार प्रकट करूँ कम ही होंगे। मैंने देखा कि इस अंधकार से निकलने का रास्ता खुद ही ढ़ूंढना होगा। फिर चिंतन किया --- एक गहरी सांस लेकर! और उसी चिंतन की काव्यात्मक अभिव्यक्ति प्रस्तुत है।
शुक्रवार, 14 मई 2010
सबकी आशा: राजभाषा
सबकी आशा: राजभाषा
प्रेम सागर सिंह
भाषा अहर्निश प्रवाहित नदी के समान है। भाषा जो परिस्थिति, काल, समुदाय के अनुरूप ढ़लने लगती है, वही जीवंत भाषा है। हिंदी की वास्तविक प्रकृति में यह निहित है। अपनी लचीली और ग्राह्य प्रकृति के कारण यह सामाजिक आवश्यकताओं के बदलते परिप्रेक्ष्य में स्वयं को आसानी से परिवर्तित कर लेती है। स्वतंत्रता के दौरान विकसित भाषा के स्वरूप, शैली एवं प्रयोग में आज अत्यधिक परिवर्तन हुआ है। बदलते युग संदर्भ की पृष्ठभूमि में आज यह संचार माध्यम की भाषा बनने के साथ- साथ विज्ञान जगत में भी अपनी सफलता दर्ज कराने में सफल सिद्ध हुई है। प्रवासी भारतीयों की बोली और आज के युवा पीढी़ की धड़कन की भाषा बन गई है। आज भारत में व्यापार के विविध क्षेत्रों में पदार्पण करने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों को भी हिंदी और अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का सहारा लेना पड़ रहा है। सामाजीकरण एवं आर्थिक उदारीकरण के बदलते परिप्रेक्ष्य में आज हिंदी बाजारीकरण और भूमंडलीकरण की भाषा बन गई है एवं शनै: शनै: इसे वैश्विक स्वीकृति भी मिल रही है।
सरकारी कामकाज के प्रत्येक क्षेत्र में राजभाषा हिंदी परिणामोन्मुखी दिशा में अग्रसरित हो रही है। इसे प्रत्येक स्तरों पर नई दशा और दिशा प्रदान करना हम सबका संवैधानिक दायित्व बनता है। सरकार की राजभाषा नीति, अधिनियम एवं विनियम के अनुपालन को सुदृढ़ करने के साथ- साथ इसके विस्तृत आयाम का सृजन ही हमारा उद्देश्य होना चाहिए। हमे अपनी मानसिकता, वैचारिक शक्ति एवं नैतिकता में बदलाव करना परम आवश्यक है। भाषा और संस्कृति हमारे देश की अस्मिता की पहचान हैं। इसके प्रति श्रद्धा. सम्मान, प्रतिबद्धता और इसके उत्तरोत्तर विकास में सहयोग करना हमारा नैतिक एवं संवैधानिक कर्तव्य है। हमे आशा ही नही अपितु पूर्ण विश्वास है कि हम सब अपने-अपने स्तर पर राजभाषा हिंदी की श्रीवृद्दि के लिए सत्य-निष्ठा के साथ इसके चतुर्दिक विकास के लिए कटिबद्ध रहेगे।
यह मान लेना कि हिंदी सर्वरूपेण एवं सर्वभावेन एक सक्षम भाषा है, पर्याप्त नही है। इसे व्यवहारिक बनाना, अमल में लाना और राष्ट्र के मुख्य धारा में शामिल करना भी आवश्यक है। तदुपरांत, इसकी क्षमता का बोध सभी को होगा एवं उस स्थिति में विकास की हर यात्रा व पड़ाव में हमारी सहभागी बन सकेगी। ज्ञान- विज्ञान और सामयिक विषय जब हिंदी में लिखे जाएगे तब इसके प्रति विश्वास बढ़ेगा। इस दिशा में आवश्यकता है आत्म-मंथन की, संकल्प की जिसके माध्यम से शायद हमारा य़ह प्रयास पूर्वजों के मानसिक संकल्पनाओं को साकार करने में सहायक सिद्ध हो। यह शुरूआत तो हमें और आपको ही करनी है। आईए, इस पुनीत कार्य में सार्थक प्रयास की आधारशिला रखें ताकि सरकारी तंत्र, नियम और सरकारी कार्यालयों की कार्य-संहिता के साथ- साथ भारतीय बाजार, अर्थ व्यवस्था एवं सामासिक संस्कृति अपनी समग्रता में अक्षुण्ण बनी रहे।
गुरुवार, 13 मई 2010
नैया बीच नदिया डूबी जाए
संत कबीर की एक पंक्ति है –
“नैया बीच नदिया डूबी जाए”
अर्थात् नदी नाव में डूबी जा रही है। यहां कबीर व्यक्ति के उस विकास की ओर संकेत कर रहे हैं जहां व्यक्ति की जीवनरूपी नौका इतनी विराट हो जाती है कि पूरा भवसिंधु (नदी) उसी में समाहित हो जाता है। उक्त विकास के स्वरूप को व्यक्त करने के लिए शायद “नदिया डूबी जाए” के कवि को इससे अच्छा बिम्ब नहीं मिला इसलिए उसने संत कबीरदास के ही बिम्ब को अपना लिया है। वैसे देखा जाए तो प्रत्यक्ष रूप से व्यक्ति जीवन के साथ ही भवसिंधु का अंत हो जाता है। यह हमारे राग द्वेष आदि पूर्ण विचार जब विकल्पहीन हो जाते हैं तो ही यह काल बिन्दु आता है। भवसिन्धु कुछ और नहीं बल्कि हमारा इन्द्रीयजनित व्यक्तिगत और समष्टिगत भाव जगत है, जो मृत्यु के साथ ही विलीन हो जाता है। इसके अतिरिक्त यह कविता जीवन और मृत्यु के बीच की रस्साकसी को भी व्यंजित करती दीखती है जिसे उपभोगजनित उल्लास और पीड़ा में पाया जाता है।
महाप्रकृति समस्त सृष्टि एवं उसके उत्स की विधायिका एवं नियामिका है। उसने सृष्टि की हर व्यष्टि (Unit) को स्वतंत्रता और परतंत्रता दोनों को मौलिक अधिकार के रूप में प्रदान किया है। मनुष्य के रूप में हमें उन अधिकारों को समझने की अधिक शक्ति दी गई है। जिसे हमने सहस्त्राब्दियों से विभिन्न सभ्यताओं में विकसित होते देखा है। जिस सभ्यता में उन्हें सही दिश में समझा है और उनकी अनुकूलता बनाए रखी वह अधिक यशस्वी और दीर्घकालिक बनी रही।
कहावत है कि जहां से दूसरों की स्वतंत्रता प्रारंभ होती है वहां हमारी स्वतंत्रता समाप्त होती है चाहे वह भौतिक स्वतंत्रता हो या मानसिक स्वतंत्रता हो। हमारा मान-सम्मान या पहचान इसी से होती है। अपनी सृष्टि का महाप्रकृति बहुत सम्मान करती है, यदि समझा जाए तो।
इसी भाव-भूमि पर नदिया डूबी जाए कविता लिखी गई है।
नदिया डूबी जाए
-आचार्य परशुराम राय
किस अचेतन की तली से
चेतना ने बाँग दी
कि
काल का घेरा कहीं से
टूटने को आ गया है।
विद्रोह करती वेदना,
आदिम इच्छा के
मात्र एक फल चख लेने की
काट रही सजा,
सृजन के कारागार से
अब बाहर निकल कर आ गई है।
मुक्त शीतल मन्द पवन
जब भी करवट बदलेगा
महाप्रलय की बेला में
हिमालय की गोद भी
मेरे तो सौभाग्य और दुर्भाग्य की
सारी रेखाएं कट गई,
संस्कारों का विकट वन
जलाने से निकले
श्रम सीकर
अभी तक सूखे नहीं।
बन्धन मेरी सीमा नहीं,
मात्र बस ठहराव था।
तो मोहवश नहीं
करुणा की धारवश।
जीवन की धार देख
नाव नदी में नहीं
नदी नाव में डूबने को है!
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बुधवार, 12 मई 2010
तिमिर घना है
तिमिर घना है--- मनोज कुमार |
- मानव जीवन क्षणभंगुर है।
पानी केरा बुदबुदा
अस मानस की जात
देखत ही छिप जाएगा
ज्यों तारा प्रभात।
मन कुछ देखता है। देख नहीं पाता। अनदेखा कर देता है। सुनता है। सुन नहीं पाता। अनसुना कर देता है। ये अनभिज्ञता कैसी? क्या अज्ञानता है मेरी। जो है वह दीखता नहीं। एक अंतहीन खोज है सत्य की। अपने भीतर बाहर भी। पाने की चाहत। मेरा अहंकार मुझे उस सच से वंचित रखता है।
मेरी खोज अनंत, क्यूंकि यह अनंत की खोज है। गुरू का आश्रय लेता हूँ। पुरखों का भी। वेद-शास्त्र पुराणों से भी संग जोड़ता हूँ। पर मेरा भाग्य मेरा साथ नहीं देता। सब छूट जाते हैं। साथ छुड़ा लेते हैं। सब!
उदास, निराश, हताश हूँ, अपने लक्ष्य से दूर हूँ। बहुत दूर ..... मैं, अज्ञानी।
किंकर्तव्यमूढ़ हूँ। कुछ सूझ नहीं रहा कौन सा रास्ता अपनाऊँ। जैसे अर्जुन को हुआ। युद्ध के पहले। उनको तो कृष्ण मिल गए। मेरा मार्गदर्शक कौन है? कहां है? मोह माया से घिरा हूँ। अंधकार ही अंधकार है। कृष्ण जैसा कोई मार्गदर्शक मिल जाए जो प्रकाश की राह दिखाए। अंधकार दूर हो।
तिमिर घना है |
--- --- मनोज कुमार
तिमिर घना है
रूकना मना है
आत्मशक्ति शेष नहीं
आत्मज्ञान की कामना है!
चंचल मन
अचल पग
हृदय रस विहीन
क्या कोई शेष संभावना है?
युद्ध घमासान
अंतस्थल में
एक तरफ़ स्वयं
दूसरी ओर सेना विराट
काम क्रोध मद लोभ अज्ञानता की
इनसे मोह टूटने का दृश्य
डरावना है।
पथ दिखा
ओ कृपानिधान!
कर आलोकित पथ मेरा
चित्त से विकार सब मिट जाए
बस यही सद्भावना है।
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