गुरुवार, 31 मई 2012

विपथगा


आदरणीय  पाठक वृन्द को   अनामिका का नमस्कार  ! लीजिये जी आ गया ब्रहस्पतिवार  और प्रस्तुत है दिनकरजी के साहित्यिक जीवन सफ़र का एक और नया पृष्ठ  जिसमे दिनकरजी बताते हैं  नौकरी करने की विवशता और अपने द्विमनस्क व्यक्तित्व की व्यथा....

दिनकरजी जीवन दर्पण -10


लीजिये चार पंक्तियाँ दिनकर जी के ही शब्दों में....


कलि की पंखडी पर ओस कण में 
रंगीले स्वप्नों का संसार हूँ मैं,
मुझे क्या आज ही या कल झडू मैं 
सुमन हूँ एक लघु उपहार हूँ मैं.

सन १९३९ से लेकर १९४५ तक दिनकरजी ने जो कुछ भी लिखा, उससे उनकी उग्र राष्ट्रीयता  में कहीं भी कोई कमी  नहीं दिखाई देती. फिर भी सरकार ने उन्हें जहाँ बिठा दिया था वह राष्ट्र विरोधी कामों की जगह थी . इससे  निस्तार उनका तभी हो सकता था यदि वे नौकरी से इस्तीफा दे देते. पर गरीबी से भीत होकर वे उससे चिपके रहे और निंदा, कुत्सा तथा कलंक की बातें सुनकर भी उन्होंने नौकरी नहीं छोड़ी. परिणामतः उनके व्यक्तित्व में वह सुगंध आने से रह गयी जो विद्रोह की वाणी से नहीं, बगावत में व्यवहारिक भग लेने से आती है. चक्रवाल की भूमिका में उन्होंने लिखा है - राजनीति में आने से मैं बचना चाहता था और अंत तक मैं उससे बच भी गया. " बच तो वो गए, किन्तु इसकी उन्हें कीमत भी चुकानी पड़ी, बाद ना होने पर भी बदनामी से ना बचे . युद्ध प्रचार ऐसी ही काजल की कोठरी थी. युद्ध प्रचार विभाग ने चाहा कि प्रचार साहित्य पर दिनकरजी का नाम जाया करें. पर इस मामले में वे बेदाग निकल गए और अपना नाम उन्होंने कहीं भी जाने नहीं दिया.  वे एक कलम से साहित्य और दूसरी कलम से साहित्य लिखते आये थे. तलवार की धार पर यह निरंतर यात्रा उनके व्यक्तित्व की खास चीज़ रही.

फिरंगिया लोकगीत के विख्यात रचयिता और हिंदी के कवि प्रिंसिपल मनोरंजनप्रसाद सिंह ने, जो दिनकर जी के ख़ास मित्रों में से रहे, एक दिन दिनकरजी से कहा - दिनकर तुम्हारी निंदा मुझसे सुनी नहीं जाती, और यहाँ रहने में भी अब कल्याण कहाँ रहा.  लगता है जापान इस देश पर भी कब्ज़ा कर लेगा. तब क्या करोगे ?

दिनकर ने कहा - जापान आया, तो मैं अंत तक उसका विरोध करूँगा. क्या देश ने आन्दोलन इसलिए छेड़ा है कि वह फिर किसीका गुलाम हो जाए ?

पर युद्ध जब समाप्ति के पास आया, उन्होंने उस निन्दित पद से हट जाने के लिए छुट्टियों के बहाने दो-दो बार इस्तीफे दिए, लेकिन इस्तीफा मंजूर नहीं हुआ. सरकार ने कहा - यदि तुम बीमार हो तो आफिस मत आओ, घर पर ही थोड़ा काम करते रहो.

दिनकरजी घर पर ही रहने लगे और इसी क्रम मे उन्होंने 'कुरुक्षेत्र' काव्य पूरा किया.

उन्होंने अपनी तत्कालीन मनोदशा की व्याख्या करते हुए बताया - रूस के आने से युद्ध का रूप बदल गया, इस प्रचार का मुझपर असर तो पड़ा था. यदि मैं स्वयं ही युद्ध का समर्थक नहीं हो गया होता, तो अंग्रेज मेरा तबादला युद्ध प्रचार विभाग में नहीं करते. फिर मैं यह भी समझता था कि यही मौका है जब देश गुलामी का खूंटा तोड़ कर भाग सकता है. रूस का मैं परम प्रशंसक रहा था, जैसे प्रशंसक मेरे अन्य साथी-संगी भी थे. नौकरी में रहने के कारण मैं अपनी माप सरकारी नौकरों को मापने वाले गज से करता था. पर सत्यवादी तो खुली राजनीति में थे. उन्होंने जब आन्दोलन का साथ नहीं दिया, तब इस बात से मुझे चोट लगी. मेरी 'दिल्ली और मास्को'  कविता को समझने की यही कुंजी है.

दिनकरजी की व्यथा द्विमनस्क व्यक्तित्ववाले मनुष्य की व्यथा थी और जो भी बुद्दिमान व्यक्ति सरकारी नौकरी में जाता था, वह इस फटे व्यक्तित्व का शिकार होने से कदाचित ही बच पाता था. दुख है कि दिनकर जी भी इसके अपवाद नहीं हो सके.

और सरकारी नौकरी के कारण यह हाल उस कवि का हुआ जो जनता का हृदयहार था. दिनकरजी ने 'नयी दिल्ली' नामक अपनी विस्फोट भरी  कविता की रचना सन १९३३ में की थी, यद्यपि वह कविता १९३७ में प्रकाशित हुई, जब प्रान्तों में पहले-पहल कांग्रेसी सरकारें कायम हुई थीं. पर इन चार वर्षों के भीतर छिपे-छिपे ही वह कविता हिंदी प्रान्तों में सर्वत्र पहुँच चुकी थी. सन १९३३ के ही अंत में दिनकर जी ने 'हिमालय' और तांडव' दो कवितायें लिखी, जिनमे भूकंप का आह्वान था. और १९३४ की १५ जनवरी को बिहार में सचमुच ही भयानक भूकंप आ गया. यहाँ तक सुना गया कि हो न हो यह भूकंप दिनकरजी की कविताओं से आहूत है. दिनकरजी ने 'विपथगा' अपनी दूसरी क्रन्तिकारी कविता १९३८ में लिखी थी. उसमे एक पंक्ति आती है - अब की अगस्त्य की बारी है, पापों के पारावार ! सजग !

जब क्रांति १९४२ के अगस्त महीने में आ खड़ी हुई, दिनकरजी के एक मित्र जो पुलिस सुपरिटेंडेंट थे उनसे कहने आये - दिनकरजी क्या तुमने सपने में भी भविष्य देखा था ? 'विपथगा' में तात्पर्य अगस्त्य ऋषि से था, किन्तु उसका मेल अगस्त महीने से भी बैठ गया. मध्यकाल में ऐसी ही उक्तियों को लोग शायद कवि की भविष्यवाणी  समझा करते थे.

क्रमशः 

विपथगा  

विपथगा कविता बहुत लम्बी है इसलिए इसका  कुछ अंश ही प्रस्तुत कर पा रही हूँ. -

झन- न न- न- न  झनन- झनन,
झन- न न- न- न  झनन- झनन,

मेरी पायल  झनकार रही तलवारों की झनकारों में 
अपनी आगमनी बजा रही मैं आप क्रुद्ध हुंकारों में !

मैं अहंकार सी कड़क ठठा हन्ति विद्युत् की धारों में,
बन काल-हुताशन खेल रही पगली मैं फूट पहाड़ों में,
अंगडाई में भूचाल, सांस में लंका के उनचास पवन !
           झन- न न- न- न  झनन- झनन !

मेरे  मस्तक  के आतपत्र  खर काल-सर्पिणी  के  शत फन,
मुझ चिर-कुमारियों के ललाट में नित्य नवीन रुधिर-चन्दन
आँजा  करती  हूँ  चिता-धूम का दृग में अंध तिमिर-अंजन,
संहार-लापत  का  चीर  पहन  नाचा  करती मैं छूम-छनन !
                   झन- न न- न- न  झनन- झनन !

पायल की पहली झमक, सृष्टि में कोलाहल छा जाता है
पड़ते  जिस  ओर  चरण मेरे, भूगोल उधर दब जाता है.
लहराती लपट दिशाओं में, खलभल खगोल अकुलाता है,
परकटे विहाग-सा निरवलम्ब गिर स्वर्ग नरक जल जाता है,
गिरते  दहाड़  कर  शैल-श्रृंग मैं जिधर फेरती हूँ चितवन !
                 झन- न न- न- न  झनन- झनन !

रस्सों से कसे जबान पाप-प्रतिकार न जब कर पाते हैं,
बहनों की लुटती लाज देखकर काँप-कांप रह जाते हैं,
शस्त्रों  के  भय  से जब निरस्त्र आंसू भी नहीं बहाते हैं,
पी अपमानों के गरल-घूँट शासित जब ओठ चबाते हैं,
जिस दिन रह जाता क्रोध मौन, मेरा वह भीषण जन्म लगन 
                 झन- न न- न- न  झनन- झनन!

पौरुष को बेडी डाल पाप का अभय रास जब होता है,
ले जगदीश्वर का नाम-खडग कोई दिल्लीश्वर धोता है,
धन के विलास का बोझ दुखी-दुर्बल दरिद्र जब ढोता है,
दुनियां को भूखों मार भूप जब सुखी महल में सोता है,
सहती कब कुछ मन मार प्रजा,कसमस करता मेरा यौवन 
              झन- न न- न- न  झनन- झनन !

श्वानों  को  मिलते  दूध-वस्त्र,  भूखे बालक अकुलाते हैं,
माँ की हड्डी से चिपक, ठिठुर जाड़ों की रात बिताते हैं,
युवती के लज्जा वासन बेच जब ब्याज चुकाए जाते हैं,
मालिक  जब  तेल-फुलेलों  पर पानी सा द्रव्य बहाते हैं,
पापी  महलों  का अहंकार देता मुझको तब आमंत्रण !
              झन- न न- न- न  झनन- झनन !

डरपोक हुकूमत जुल्मों से लोहा जब नहीं बजाती है,
हिम्मतवाले कुछ कहते हैं, तब जीभ तराशी जाती है,
उलटी  चालें  ये  देख  देश  में  हैरत-सी  छा  जाती है,
भट्ठी की ओदी आंच छिपी तब और अधिक धुन्धुआती है,
सहसा  चिंघार  खड़ी  होती दुर्गा मैं करने दस्यु-दलन !
               झन- न न- न- न  झनन- झनन !

चढ़कर जूनून-सी चलती हूँ, मृत्युंजय वीर कुमारों पर,
आतंक  फ़ैल  जाता  कानूनी  पार्लमेंट,  सरकारों पर,
'नीरों'  के  जाते  प्राण  सूख  मेरे  कठोर  हुंकारों पर,
कर  अट्टहास  इठलाती  हूँ  जारों के हाहाकारों पर,
झंझा  सी पकड़ झकोर हिला देती दम्भी के सिंहासन !
               झन- न न- न- न  झनन- झनन !

(हुंकार ) 

मंगलवार, 29 मई 2012

सत्यमेव जयते: अधूरे शोध का बाजारवादी प्रदर्शन

सत्यमेव जयते:
अधूरे शोध का बाजारवादी प्रदर्शन
arunpicअरुण चन्द्र रॉय
आमिर खान  कहते हैं कि वे सपने देखते हैं इसलिए वे सत्यमेव जयते कार्यक्रम कर रहे हैं. बाज़ार भी सपने देखता है और दिखता भी है. जीवन को बदल देने का लुभावना वादा करके हमारे दिल दिमाग को जकड लेता है. दास बना लेता है. विज्ञापन के सुन्दर चित्र और रिश्ते उपभोग को बढ़ाने का पूरा इंतजाम करते हैं. हाल में जब मीडिया ने राजनीति से लेकर क्रांति, खेल से लेकर रियेलिटी, सेक्स से लेकर संबंधो जैसे विषयों पर सनसनीखेज़ कार्यक्रम बना कर थक गया तो सभी चैनलों के टी आर पी में एक रुकावट, एक ठहराव आने सा लगा था. सीरियल के प्रति क्रेज़ ख़त्म हो रहा था. ऐसे में बाज़ार को लगा कि राष्ट्रवाद, सामाजिक मुद्दे बिक सकते हैं, जैसे कि अन्ना हजारे के मामले में हुआ था. आमिर भाई साहब को भी छोटे परदे के माध्यम से घर घर तक पहुचना था और रामायण और महाभारत के बाद रविवार का स्लॉट अब भी खाली था.


फिर तैयारी शुरू हुई सत्यमेव जयते की. अब तक तीन कड़ियाँ प्रसारित हो गई हैं. स्टार टीवी की टीआरपी नई ऊंचाई पर है. बाध्य होकर दूरदर्शन को भी इस दौड़ में शामिल होना पड़ा. आकाशवाणी पर भी यह कार्यक्रम प्रसारित हो रहा है. और समूचा देश एक गिरफ्त में सा लगता है.  मेरा दुर्भाग्य कहिये या सौभाग्य, केवल कड़ी ही देख पाया हूं, जिसमे दवाई और डाक्टर के बीच के नेक्सस को दिखाने की कोशिश की गई है. इस कड़ी को बहुत ध्यान से देखा. इस कार्यक्रम को देखने के बाद जब उठा तो कुछ सवाल मैंने स्वयं से पूछे... इस में कौन सी ऐसी बात आमिर खान ने की जो आम आदमी को नहीं पता है. एक-एक बच्चा जानता है कि डाक्टर साहब कमीशन लेकर दवाई लिखते हैं. सरकारी अस्पतालों के खस्ता हाल पर रोज़ ही अखबारों में ख़बरें रहती हैं. दवाई के बिना दम तोड़ देने की कहानी रोज़ ही आपको मिल जाएगी . फिर नया क्या था ! नया यह है कि इसे आमिर खान कह रहे हैं.

RAMVILAS PASWAN
दिल्ली के गुरु तेगबहादुर अस्पताल में जन औषधि स्टोर का उद्घाटन करते हुए श्री रामविलास पासवान

पिछली कड़ी को देखने के बाद कहना चाहूँगा कि आमिर खान की टीम का शोध सतही होने के साथ साथ अधूरा है. जेनरिक दवाई की जो मुहिम राजस्थान में शुरू हुई थी, उसे देश भर में फ़ैलाने का काम तत्कालीन रसायन एवं उर्वरक मंत्री राम विलास पासवान ने शुरू किया था. रामविलास पासवान नई औषध नीति लाना चाह रहे थे किन्तु २००५ से २०१० तक जब वे मंत्री रहे कई बार कोशिश की लेकिन मंत्रिमंडल ने उसे लौटा दिया और यह नीति संसद तक नहीं पहुच सकी. कारण... दवाई बनाने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनियों का दवाब. छोटे दवाई निर्माता और बड़े दवाई निर्माता को एक मंच पर लाने और दवाइयों का वाजिब दाम रखने की अनूठी पहल श्री पासवान जी ने औषध सलाहकार मंच का गठन करके किया था और उस मंच पर मैंने देखा है कि किस तरह बड़े दवाई निर्माता विद्रोह पर उतर आते थे और उनके प्रतिनिधि बैठक छोड़ कर चले जाते थे. मंत्री रहते हुए भी रामविलास पासवान की मज़बूरी हमने पांच सालों तक देखी. किसी मीडिया को तब फुर्सत नहीं थी कि इसे रिपोर्ट करे.
JANAUSHADHI SOTRE
हैदराबाद के ओ.एम.जी. अस्पताल में जन औषधि स्टोर
देश में किसी भी उत्पाद का मूल्य निर्धारित करने के लिए कभी कोई नीति नहीं बनी है. तभी तो १ रूपये की लगत वाली वस्तु १०० रूपये तक में बिकती है. कहीं कोई रोक नहीं है. लेकिन जीवन रक्षक दवाइयों के लिए एक मूल्य निर्धारण नीति बनी थी. रामविलास पासवान ने कोशिश की थी कि दवाइयों के मूल्य निर्धारण के लिए जिम्मेदार संस्था नेशनल फार्मास्युटिकल प्रयिसिंग अथोरिटी (एनपीपीए)  के दांत तेज़ किये जाएँ लेकिन वे असफल ही रहे. सत्यमेव जयते में भारतीय प्रशाशनिक अधिकारी श्री सुमित की बड़ी भूमिका रही है लेकिन उस से बड़ी भूमिका थी आरडीपीएल यानी राजस्थान ड्रग्स एंड फार्मास्युटिकल की. साथ ही कर्णाटक ड्रग एंड फार्मास्युटिकल लिमिटेड (केडीपीएल) की भी बड़ी भूमिका है जेनरिक दवाओं के उत्पादन में.  जेनरिक औषधियों में इन कंपनियों  ने कमाल कर दिखाया है और ये देश की पहली लोक उपक्रम हैं जो सस्ती दवाइयां बना कर भी लगातार लाभ अर्जित कर रही हैं .
JAN AUSHADI SOTRE AT BHATINDA
भटिंडा के सरकारी अस्पताल में जन औषधि स्टोर
जेनरिक दवाइयों को आमजन तक पहुचने की दिशा में रामविलास पासवान के पहल पर जन औषधि स्टोर खोले जाने शुरू ही ही हुए थी कि लोक सभा चुनाव आ गए. फिर भी अभी देश में लगभग १०० ऐसे स्टोर सरकारी अस्पतालों के आहते में खुले हैं जो ब्रांडेड दवाइयों के स्थान पर सस्ते जेनरिक दवाइयां देते हैं. दिल्ली के गुरु तेगबहादुर अस्पताल में एक स्टोर सफलतापूर्वक चल रहा है. उनकी योजना देश से सभी सरकारी अस्पतालों और जिला मुख्यालय में ऐसे स्टोर खोलने की ताकि लोगों को महँगी दवाइयों से थोड़ी रहत मिले. लेकिन देश का दुर्भाग्य कहिये कि ऐसा हो न सका. वर्तमान मंत्री इस प्रोजेक्ट में रूचि नहीं ले रहे क्योंकि शायद इसमें कोई कमीशन या कट नहीं है. जन औषधि स्टोर के जिक्र के बिना आमिर खान का यह एपिसोड अधूरा ही कहा जायेगा.

सत्यमेव जयते में बहुत सी बाते कहीं गई लेकिन एक बड़ी बात रह गई वो है.. दवाइयों के रैपर पर हिंदी में दवाओं का नाम और दाम का जिक्र होना. पहली बार जब यह प्रस्ताव दावा कंपनियों के सामने लाया गया तो दवाई माफिया इस बात का पुरजोर विरोध कर रहे थी किन्तु जनहित के आगे उन्हें झुकना ही पड़ा और आज आप पायेंगे कि दवाइयों के रैपर पर हिंदी और अंग्रेजी में दवाओं के नाम मुद्रित हैं. इस से आम आदमी को बहुत लाभ पंहुचा है. कम से कम वह दवाइयों का नाम पढ़ तो सकता है.  संयोग की बात है कि यह काम भी रामविलास पासवान के पहल पर ही शुरू हुआ था.

इनसे प्रतीत होता है विषय पर गहन शोध न करके इसे बाज़ार के लिहाज़ से तैयार किया जाता है, ताकि जनभावना को तालियों और टीआरपी में बदला जा सके.

सोमवार, 28 मई 2012

कुरुक्षेत्र .... सप्तम सर्ग ...भाग - 2 / रामधारी सिंह दिनकर


प्रस्तुत भाग में जब युधिष्ठिर युद्ध के पश्चात विलाप करते हैं और उनके मन में वैराग्य  का भाव जन्म लेता है  तब शर शैया पर लेते भीष्म  उन्हें नीति की बात बता रहे हैं ---

द्वापर समाप्त हो रहा है धर्मराज , देखो , 
लहर समेटने लगा है  एक  पारावार ।
जग से विदा हो जा रहा  है काल - खंड एक 
साथ लिए  अपनी समृद्धि की चिता  का क्षार । 
संयुग की धूलि में समाधि  युग की ही बनी 
बह  रही जीवन की आज भी अजस्र  धार । 
गत ही अचेत हो  गिरा  है मृत्यु गोद बीच , 
निकट मनुष्य के  अनागत  रहा पुकार । 

मृति के  अधूरे , स्थूल भाग ही मिटे हैं यहाँ 
नर का जला  है नहीं भाग्य  इस रण  में । 
शोणित में डूबा  है मनुष्य , मनुजत्त्व  नहीं ,
छिपता फिरा है देह छोड़ वह मन में । 
आशा है मनुष्य की मनुष्य में , न ढूंढो उसे 
धर्मराज , मानव का लोक छोड़ वन में , 
आशा मनुजत्त्व की विजेता के विलाप में है 
आशा है मनुष्य की तुम्हारे अश्रु कण में । 

रण में प्रवृत्त राग - प्रेषित मनुष्य होता 
रहती विरक्त  किन्तु , मानव की मति है ।
मन से कराहता मनुष्य ,  पर , ध्वंस - बीच 
तन में नियुक्त  उसे करती नियति है । 
प्रतिशोध से हो दृप्त वासना हँसाती उसे , 
मन को कुरेदती मनुष्यता  की क्षति है । 
वासना - विराग , दो कगारों में पछाड़ खाती 
जा रही मनुष्यता बनाती  हुयी गति है । 

ऊंचा उठ देखो , तो किरीट , राज , धन , तप , 
जप , याग , योग से मनुष्यता महान है ।
धर्म सिद्ध  रूप नहीं भेद - भिन्नता का यहाँ 
कोई भी मनुष्य   किसी अन्य के समान है । 
वह भी मनुष्य , है न धन और बल जिसे ,
मानव ही वह जो धनी या बलवान है ।
मिला जो निसर्ग - सिद्ध जीवन मनुष्य को है , 
उसमें न दीखता कहीं भी व्यवधान है । 

अब तक किन्तु , नहीं मानव है देख सका 
शृंग चढ़ जीवन की समता - अमरता ।
प्रत्यय  मनुष्य का मनुष्य में न दृढ़  अभी ,
एक दूसरे से अभी मानव  है डरता । 
और है रहा सदैव  शंकित मनुष्य यह 
एक दूसरे में  द्रोह - द्वेष - विष भरता । 
किन्तु , अब तक है मनुष्य बढ़ता ही गया 
एक दूसरे से सदा लड़ता - झगड़ता । 

कोटी नर वीर , मुनि  मानव के जीवन का 
रहे खोजते ही शिव रूप आयु - भर हैं । 
खोजते इसे ही सिंधु  मथित हुआ है और 
छोड़ गए व्योम  में अनेक ज्ञान - शर हैं । 
खोजते इसे ही पाप - पंक में मनुष्य  गिरे , 
खोजते इसे ही  बलिदान हुये नर हैं । 
खोजते इसे ही मानवों ने है विराग लिया 
खोजते इसे ही किए ध्वंसक  समर हैं । 

खोजना इसे हो ,  तो जलाओ  शुभ्र ज्ञान दीप , 
आगे बढ़ो वीर , कुरुक्षेत्र के शमशान से ।
राग में  विरागी , राज दंड - धर योगी बनो ,
नर को दिखाओ पंथ त्याग बलिदान से । 
दलित मनुष्य में   मनुष्यता  के भाव भरो , 
दर्प की दुराग्नि  करो दूर बलवान से । 
हिम - शीट भावना में आग अनुभूति की दो , 
छीन लो हलाहल उदग्र  अभिमान से । 

रण रोकना  है , तो उखाड़ विषदन्त फेंको ,
वृक - व्याघ्र - भीति से महि को मुक्त  कर दो । 
अथवा अजा  के छागलों को भी बनाओ व्याघ्र 
दांतों में कराल काल कूट - विष भर दो । 
वट  की विशालता के नीचे  जो अनेक वृक्ष 
ठिठुर रहे हैं , उन्हें फैलने का वर दो । 
रस सोखता है जो मही का भीमकाय वृक्ष ,
उसकी शिराएँ तोड़ो , डालियाँ कतर दो । 


क्रमश: 



प्रथम सर्ग --        भाग - १ / भाग –२

द्वितीय  सर्ग  --- भाग -- १ / भाग -- २ / भाग -- ३ 

तृतीय सर्ग  ---    भाग -- १ /भाग -२

चतुर्थ सर्ग ---- भाग -१    / भाग -२  / भाग - ३ /भाग -४ /भाग - ५ /भाग –6 




षष्ठ  सर्ग ---- भाग - 1भाग -2 / भाग -3 / भाग -- 4

सप्तम सर्ग ---- भाग - 1




रविवार, 27 मई 2012

प्रेरक प्रसंग-37 : बापू का बड़प्पन

प्रेरक प्रसंग-37 : बापू का बड़प्पन


बात उन दिनों की है जब बापू आग़ा ख़ा महल में क़ैद थे। बापू को कारावास में रखने के लिए उस महल को जेल में तबदील कर दिया गया था। एक दिन बापू सोकर उठे। उन्होंने देखा कि वहां काफ़ी चहल-पहल है। उन्होंने बा से पूछा, “आज क्या बात है? कुछ गुपचुप तैयारी चल रही है?”

बा ने कहा, “मुझे तो कुछ भी मालूम नहीं। पर कुछ ज़रूर है, ये लोग किसी काम की योजना ज़रूर बना रहे हैं।”

बापू हंसे और बोले, “तुमको सब पता है!” और बापू ने सलाह दी, “सबको बोल दो अति-उत्साह में कुछ ज़्यादा न हो, सबको समझा दो, एकदम साधारण ढंग से सब काम होना चाहिए।”

उस दिन दो अक्तूबर था, बापू का जन्म दिन।

डॉ. सुशीला नायर, मीरा बहन आदि बापू का जन्म दिन अलग हट के मनाना चाह रहे थे। तभी बापू को किसी ने आकर बताया कि बापू को जन्म दिन की बधाई देने उस ज़िले के कलक्टर भी आ रहे हैं। यह सुन बापू ने जेलर से एक कुर्सी की व्यवस्था करने का निवेदन किया।


डॉ. सुशीला नायर ने पूछा, “कुर्सी किसलिए? इसकी क्या ज़रूरत है?”

बापू का आसन ज़मीन पर ही होता था। बापू ने कहा, “उनके सम्मान में उठकर खड़ा होने में मुझे तकलीफ़ होगी। कुर्सी पर बैठा रहूंगा तो उठने में आसानी होगी। 

सहयोगियों ने कहा, “बापू आपको उठने की कोई ज़रूरत नहीं। आप बैठे रहिएगा। कलेक्टर खड़ा रहेगा।”


बापू ने कहा, “नहीं यह शिष्टाचार के ख़िलाफ़ होगा। वह कलेक्टर इस राज्य का प्रतिनिधि है, और इस समय मैं एक मामूली क़ैदी हूं। उसको उचित सम्मान देना मेरा धर्म है।”

कुर्सी मंगा ली गई। जब कलेक्टर आया तो बापू ने उठकर उससे हाथ मिलाया। उसका धन्यवाद ज्ञापन किया।

शनिवार, 26 मई 2012

पुस्तक परिचय-30 : आधे-अधूरे

पुस्तक परिचय-30

आधे-अधूरे

मनोज कुमार

मोहन राकेश की रचनाएं 1958 के बाद की हैं। वे पहले कहानी और उपन्यास लिखा करते थे। बाद में उन्होंने नाटक लिखना शुरु किया। इस विधा में उन्हें काफ़ी पसिद्धि मिली।

उनकी शिक्षा-दीक्षा लाहौर में हुई। वे साधारण परिवार के व्यक्ति थे। पिता एक वकील थे। उनका घर बदबूदार और सीलन भरा था। इस कारण से वे हमेशा बीमार रहा करते थे। उनके दीमाग पर ग़रीबी का आतंक छाया रहता था। इन सब कारणों से उनमें समाज के प्रति चिढ़ और कुढ़ की भवना घर कर गई थी।

पिता के स्वर्गवास के बाद उनका जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। उन्होंने संस्कृत और हिन्दी में एम.ए. किया। वे स्वच्छंदतावादी व्यक्ति थे। काफ़ी घूमते रहते थे। लहौर के अलाव मुम्बई आदि की यात्रा उन्होंने की। वे अनुशासन प्रिय तो थे पर नियमों से आबद्ध नहीं थे। कुछ लोग उन्हें आवारा व्यक्तित्व का मानते हैं। उन्होंने दो-तीन शादियां की। उनके अस्त-व्यस्त ढ़ंग से जीने का ढ़ंग उनकी रचनाओं पर भी पड़ा।

आधुनिक युग की छाप है उनकी रचनाओं पर। आधुनिक युग के समाज की विशेषता का प्रभाव उनकी रचनाओं पर देखने को मिलता है। आधुनिक युग औद्योगिक युग है। साथ ही यह वैज्ञानिक युग भी है। इस युग में मानव भी औद्योगिक और वैज्ञानिक हो गया है। उत्पादन के साधन में परिवर्तन के साथ मानव के स्वभाव में भी परिवर्तन होता है। जब-जब समय का परिवर्तन होता है, समाज की संरचना में भी परिवर्तन होता है। आज संयुक्त परिवार का विघटन हो गया है। एकाकी परिवार का प्रचलन है। व्यक्ति-व्यक्ति का संबंध अलग हो गया है। परिवार के अंदर भी आपसी संबंध में भी तनाव परिलक्षित है। पति-पत्नी का संबंध, मां-बाप के साथ बच्चे के संबंध में सहयोग, विश्वास आदि की भावना भी क्षतिग्रस्त हो गई है। लोग आत्मकेन्द्रीत होते जा रहे हैं। मानव मूल्य में परिवर्तन आ गया है। स्वार्थ की बोलबाला है। आज धन ही सर्वोपरि हो गया है। आपसी सामाजिक संबंध विलीन हो गए हैं।

समाज तीन वर्गों उच्च, मध्यम और निम्न वर्ग में बंटा हुआ है। आधुनिक चिंतक मार्क्स ने मध्यम वर्ग को बुर्जुआ या सर्वहारा कहा। इस पेटी बुर्जुआ (मध्य वर्गी) की जीवनधारा अत्यंत विचित्र हो गई है। पूंजीपती या शोषक वर्ग का ध्येय है – लाभ कमाना, समाज में बिखराव लाना, समाज में एकता को नहीं लाने देना, सरकार को अपने वश में करना। निम्न वर्ग का एकमात्र उद्देश्य है किसी तरह जीवन यापन करना। मध्य वर्ग जहां एक ओर सामाजिक मान्यता में विश्वास रखता है वही उसमें बाहरी आडंबर, दिखावे की भावना भी है और वह पुराने मूल्य को नहीं स्वीकार करना चाहता है। अपने स्वजनों को अपना कहने में वह आनाकानी करता है। बाह्य आडंबर में जीना उसकी आदत बन गई है और वह धारती पर रहकर आकाश की बात करता है। व्यक्तिगत परिवार (Nucleus Family) में अविश्वास, संत्रास, हतोत्साह, खालीपन, अकेलापन आज की हक़ीक़त है। इसकी सबसे बड़ी विडंबना है – मनुष्य अपने को हमेशा अकेला पाता है। यही अकेलापन मनुष्य को बोध कराता है कि वह आधा है, अधूरा है। वह अपने को पूर्ण करने की तलाश करता है। यही बिखराव, खास कर स्त्री-पुरुष के संबंध में, मोहन राकेश के नाटकों आषाढ का एक दिन, लहरों का राज हंस, आधे-अधूरे में देखने को मिलता है।

‘आधे-अधूरे’ आधुनिक मध्यवर्गीय, शहरी परिवार की कहानी है। इस परिवार का प्रत्येक सदस्य अपने को अधूरा महसूस करता है। हर सदस्य अपने को पूर्ण करने की चेष्टा करता है। परिवार में पति-पत्नी, एक पुत्र और दो बेटियां हैं। पत्नी के चार मित्र हैं। महेन्द्रकांत बिज़नेसमैन है। उसे व्यापार में असफलता हाथ लगती है। पत्नी सावित्री पति के पास काम नहीं रहने की वजह से नौकरी करने घर से बाहर निकलती है। उसे तब पति में दायित्वबोध की कमी नज़र आती है। उसे लगता है कि वह सबसे बेकार आदमी है। वह सम्पूर्ण मनुष्य नहीं है। बाहर निकलने पर सावित्री की मुलाक़ात चार लोगों से होती है। एक है धनी व्यक्ति, वह मित्र स्वभाव का है औ सज्जन व्यक्ति है। दूसरा डिग्री धारी व्यक्ति शिवदत्त है जो सारे संसार में घूमता रहता है। वह एकनिष्ठ नहीं है। तीसरा सामाजिक व्यक्ति है, मनोज। वह सावित्री से दोस्ती तो गांठता है पर उसकी बेटी से प्रेम विवाह करता है। और चौथा व्यक्ति एक व्यापारी है। वह चालाक और घटिया किस्म का आदमी है। चालीस वर्षीय सावित्री जिसके चेहरे पर अभी भी चमक बरकरार है, अपनी ज़िन्दगी के ख़ालीपन को भरने के लिए एक सम्पूर्ण पुरुष की तलाश में रहती है। इस क्रम में वह इन पुरुषों के सम्पर्क में आती है। इनसे संबंध बनाकर भे उसे पूर्णता का अहसास नहीं होता। हर व्यक्ति अपने-अपने ढ़ंग से अपने-अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए उसका उपयोग करता है।

पहला व्यक्ति मित्र ढ़ंग का है। अपनी पत्नी से उसका पटता नहीं है। पत्नी को छोड़कर वह सावित्री के साथ संबंध बनाता है। जब बीमार होता है तो फिर सावित्री के पास से वापस पत्नी के पास चला जाता है।

मनोज मित्रता तो करता है सावित्री से पर सावित्री की बेटी को अपने प्रेमपाश में बांध कर उसके साथ भागकर शादी रचाता है। जब बेटी को अहसास होता है कि उसने जिस चाहत से मनोज को अपनाया था वह पूरी नहीं हो रही तो वह भी वापस मां के पास लौट आती है।

छोटी बच्ची मुंहफट है। मां-बाप के बीच संबंधों का तनाव बच्चों पर भी पड़ता है। बड़ी बेटी को मां से कोई सहानुभूति नहीं है। छोटी बेटी अश्लील उपन्यासों में रमी रहती है। मुंहफट तो है ही। लड़कों से संबंध बनाने को इच्छुक रहती है। बेटे में भी असंतोष की भावना घर किए हुए है। उसके मन में समाज के प्रति विद्रोह की भावना है। मां-बाप के प्रति भी विद्रोह की भावना है। तीनों संतान आधुनिक परिवेश की उपज हैं। परिवार के तनाव और माता-पिता के संबंधों के कारण उनमें ऐसी भावना घर कर गई है।

नाटक के अंत में सभी पात्र एक-एक कर घर वापस लौट आते हैं। सावित्री शिवदत्त के घर से निकल पड़ती है। शिवदत्त उसे नहीं रोकता। लौट कर वह घर चली आती है। महेन्द्रकांत भी अपने मित्र के यहां से लौट आता है। बेटी भी आ जाती है।

इस नाटक में आपस का तनाव, आना-जाना के रूप में कई प्रकार की मनोवृत्ति का अनावरण हुआ है। जैसे स्वतंत्रता की भावना को दिखया जाना। यह अंत में साबित होता है कि वे स्वतंत्र रहकर भी पारिवारिक बंधन में बंधे हैं। एक प्रकार के ख़ालीपन की भावना लोगों के जीवन के अधूरेपन को दर्शाता है। इस अधूरेपन को पूर्ण करने के लिए वे अन्य लोगों से सम्पर्क करते हैं। इसमे यह भी दिखाया गया है कि अर्थिक विपन्नता से परिवार में बिखराव आ जाता है। यह संदेश भी दिया गया है कि जब नारी मुक्ति प्राप्त करने के लिए प्रयास करती है और उसे स्वतंत्रता मिलती है तो किस प्रकार वह परिवार को भुला देती है। स्त्री-पुरुष का संबंध मर्यादित होता है। उन्मुक्त काम भावना से यह मर्यादा समाप्त हो जाती है। उसे पूर्ण करने के लिए विभिन्न प्रकार के पुरुषों से सम्पर्क साधती है। पुरुष-प्रधान समाज से नारी मुक्ति के प्रश्न को भी उठाया गया है। नारी स्वतंत्र तभी हो सकती है जब वह आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो। इस अर्थ-संग्रह की भावना उसमें अनुशासनहीनता लाती है। मानव-मूल्य समाप्त होता है। पारिवारिक सुख-शांति समाप्त होती है। इस नाटक में बड़े प्रभावी तरीक़े से दिखाया गया है कि किस प्रकार से स्त्री-पुरुष संबंध बन और बिगड़ रहा है। अंत में यह बताया गया है कि परिवार ही वह धूरी है जो सबको बांधे है। परिवार रूपी संस्था ही एक प्रकार से जीवन को अनुशासित रखती है। आज प्रत्येक परिवार में कलह है। उच्छृंखलताएं, अनुशासनहीनता जो समाज और परिवार में दिख रही हैं उसका मुख्य कारण है समाज का उद्योगीकरण और भौतिकवादी स्वभाव। लेखक यह संकेत देता है कि हमारा जीवन किस ओर जा रहा है? यह एक प्रकार के अदिम अवस्था की ओर जा रहा है। हम लोग एक सभ्य आदिम समाज की ओर बढ़ रहे हैं। फिर भी लेखक आशावादी है। एक प्रकार की आशा है। परिवार यदि अनुशासित हो तो बिखराव से बच सकता है।

***

पुस्तक का नाम

आधे-अधूरे

रचनाकार

मोहन राकेश

प्रकाशक

राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली

संस्करण

प्रथम संस्करण : 2008

मूल्य

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पेज

119

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1. व्योमकेश दरवेश, 2. मित्रो मरजानी, 3. धरती धन न अपना, 4. सोने का पिंजर अमेरिका और मैं, 5. अकथ कहानी प्रेम की, 6. संसद से सड़क तक, 7.मुक्तिबोध की कविताएं, 8. जूठन, 9. सूफ़ीमत और सूफ़ी-काव्य, 10. एक कहानी यह भी, 11. आधुनिक भारतीय नाट्य विमर्श, 12. स्मृतियों में रूस13. अन्या से अनन्या 14. सोनामाटी 15. मैला आंचल 16. मछली मरी हुई 17. परीक्षा-गुरू 18.गुडिया भीतर गुड़िया 19.स्मृतियों में रूस 20. अक्षरों के साये 21. कलामे रूमीपुस्तक परिचय-22 : हिन्द स्वराज : नव सभ्यता-विमर्श पुस्तक परिचय-23 : बच्चन के लोकप्रिय गीत पुस्तक परिचय-24 : विवेकानन्द 25. वह जो शेष है 26. ज़िन्दगीनामा 27. मेरे बाद 28. कब पानी में डूबा सूरज 29. मुस्लिम मन का आईना

शुक्रवार, 25 मई 2012

दोहावली .... भाग --13 / संत कबीर

जन्म  --- 1398

निधन ---  1518



एक कहूँ तो है नहीं, दूजा कहूँ तो गार
है जैसा तैसा हो रहे, रहें कबीर विचार 121


जो तु चाहे मुक्त को, छोड़े दे सब आस
मुक्त ही जैसा हो रहे, बस कुछ तेरे पास 122


साँई आगे साँच है, साँई साँच सुहाय
चाहे बोले केस रख, चाहे घौंट भुण्डाय 123


अपने-अपने साख की, सबही लीनी मान
हरि की बातें दुरन्तरा, पूरी ना कहूँ जान 124


खेत ना छोड़े सूरमा, जूझे दो दल मोह
आशा जीवन मरण की, मन में राखें नोह 125


लीक पुरानी को तजें, कायर कुटिल कपूत
लीख पुरानी पर रहें, शातिर सिंह सपूत 126


सन्त पुरुष की आरसी, सन्तों की ही देह
लखा जो चहे अलख को, उन्हीं में लख लेह 127


भूखा-भूखा क्या करे, क्या सुनावे लोग
भांडा घड़ निज मुख दिया, सोई पूर्ण जोग 128


गर्भ योगेश्वर गुरु बिना, लागा हर का सेव
कहे कबीर बैकुण्ठ से, फेर दिया शुक्देव 129


प्रेमभाव एक चाहिए, भेष अनेक बनाय
चाहे घर में वास कर, चाहे बन को जाय 130