सोमवार, 29 अप्रैल 2013

रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 7 ........दिनकर


'हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?
कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?
जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?

'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती , वीर या दानी हो?
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?
मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।

'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,
कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?

'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,
छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!
हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,
जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।'

गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा,
तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा।
वज्रदंष्ट्र वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने,
और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने।

कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे,
बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे?
पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था,
बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था।

क्रमश:

सोमवार, 22 अप्रैल 2013

रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 6...... रामधारी सिंह ' दिनकर '


वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्‌ग उठाता है,
मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।
सीमित जो रख सके खड्‌ग को, पास उसी को आने दो,
विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।

'जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ,
सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।
'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,
दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।

'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,
परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?
पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,
तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।

'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,
एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।
निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,
तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?

'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने लगते हैं,
मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।
गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?
और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा?

'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,
पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।
और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,
एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?

क्रमश: 

सोमवार, 15 अप्रैल 2013

रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 5 / रामधारी सिंह ' दिनकर '


सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है।
जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।
चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय;
पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय।

'जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,
ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।
अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।
सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,

'कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,
कनक नहीं , कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,
इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,
राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,

'तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,
चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।
थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को,
भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्‌ग की भाषा को।

'रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है,
ग्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।
इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्‌ग धरो,
हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।

'नित्य कहा करते हैं गुरुवर, 'खड्‌ग महाभयकारी है,
इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है।
वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी,
जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।

क्रमश: 

शनिवार, 13 अप्रैल 2013

टैबलेट में हिन्‍दी गुगल इंस्‍टालेशन




टैबलेट में हिन्‍दी गुगल इंस्‍टालेशन

सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के साथ ही बाजार में दिन प्रतिदिन नए-नए इलेक्‍ट्रॉनिक गैजेट आ रहे हैं इनमें सर्वाधिक प्रचलित हैं टैबलेट्स तथा स्‍मार्ट फोन । इस अंक में टैबलेट्स में गुगल हिन्‍दी एप्पलिकेशन इंस्‍टॉल करने संबंधी जानकारी प्रस्‍तुत है।

सर्वप्रथम टैबलेट को इंटरनेट से कनेक्‍ट करें तथा वेबब्राउजर ओपन कर  गुगल प्ले स्टोर में जाकरGoogle Hindi Input सर्च करें या 
https://play.google.com/store/apps/details?id=com.google.android.apps.inputmethod.hindi लिंक क्लिक कर G.H.I.apk फाइल डाउनलोड कर लें। यदि कतिपय कारणों से आप पूर्वोक्‍त साइट से G.H.I.apk फाइल डाउनलोड नहीं कर पा रहे हैं तो इसे http://www.mediafire.com/?dfz243nwxibemzf लिंक से क्लिक कर डाउनलोड करें। यह एप्‍पलिकेशन मात्र 5.85  एम.बी.साइज का है।

डाउनलोड फोल्‍डर या उस फोल्‍डर विशेष को ओपन करें जहॉं आपने G.H.I.apk को सेव किया है । अब G.H.I.apk फाइल को रन कर दें। ऐसा करते ही G.H.I.apk रन करने संबंधी सूचना प्रदर्शित होगी। अगले क्रम में क्रमश: ओ.के., इंस्‍टॉल बटन को टच करते हुए डन बटन को टच करें ।

टैबलेट के सिस्‍टम सेंटिंग को टच कर सक्रिय करें। ऐसा करते ही सेटिंग मेन्‍यू ओपन हो जाएगा जिसमें वाई फाई, डेटा यूसेज, साउन्‍ड, डिस्‍पले, स्‍टोरेज आदि बहुत सारे फिचर प्रदर्शित होंगे। इन्‍हें स्‍क्राल करते हुए लैंग्‍वेज एण्‍ड इनपूट को टच करते हुए सक्रिय करें।

उपरोक्‍त क्रिया के निष्‍पादन के साथ ही समानांतर विंडों में क्रमश: लैंग्‍वेज, स्‍पेलिंग करेक्‍शन,पर्सनल डिक्‍शनरी व की-बोर्ड एण्‍ड इनपूट मेथड़ ऑप्‍शन दिखाई देगा।  

इन विकल्‍पों में से की-बोर्ड एण्‍ड इनपूट मेथड़ ऑप्‍शन को टच कर एक्टिवेट कर लें। ऐसे होते ही‘’सिलेक्‍ट इनपूट मेंथड़’’ नामक नया विंडों ओपन हो जाएगा जिसमें विद्यमान इंग्लिश एंड्रायड की-बोर्ड तथा हिन्‍दी ट्रॉन्‍स्‍लिट्रेशन  गुगल हिन्‍दी इनपूट की-बोर्ड संबंधी विकल्‍प प्रदर्शित हो जाएगा। इनमें से हिन्‍दी ट्रॉन्‍स्‍लिट्रेशन  गुगल हिन्‍दी इनपूट की-बोर्ड को टच करते हुए डिफाल्‍ट की-बोर्ड के रूप में सेट करें। ऐसा करने पर हिन्‍दी ट्रॉन्‍स्‍लिट्रेशन  गुगल हिन्‍दी इनपूट की-बोर्ड के सम्‍मुख बना रेडियो बटन हाईलाइट हो जाएगा तथा आपके टैबलेट में गुगल हिन्‍दी इनपूट संस्‍थापित हो जाएगा । इस इनपूट विधि से आप टैबलेट में विद्यमान वर्ड, स्‍प्रेडशीट, प्रेजेंटेशन, मेसेज, नोटपैड तथा इन्टरनेट ब्राउजर पर सहजता के साथ हिन्‍दी में टंकण कर सकेंगे।



हिन्‍दी की-बोर्ड :-
किसी भी टैक्‍स्‍ट एडिटिंग प्रोग्राम को ओपन करें तथा लिखने के लिए टैक्‍स्‍ट एरिया में अपनी उंगलियॉं टच करें। ऐसा करते ही वर्चुअल की-बोर्ड स्‍क्रीन पर प्रदर्शित हो जाएगा। प्रथमत: यह की-बोर्ड अंग्रेजी में प्रदर्शित होगा। हिन्‍दी में लिखने के लिए प्रदर्शित की-बोर्ड के स्‍पेसबार की बॉंयी ओर मौजूद ’’टोगल-की’’ को टच करें। प्रतिक्रियास्‍वरूप वर्चुअल हिन्‍दी की-बोर्ड प्रस्‍तुत हो जाएगा।

हिन्‍दी में टंकण विधि :-
टैबलेट में हिन्‍दी टाइप करना बहुत आसान है। हिन्‍दी वर्चुअल की-बोर्ड की प्रथम दो पंक्तियों में व्‍यंजन तथा तृतीय पंक्ति में स्‍वर टाइप करने की व्‍यवस्‍था है। उल्‍लेखनीय है इस कि-बोर्ड पर एक बार में केवल 20 व्‍यंजन तथा 7 स्‍वर प्रदर्शित करने की व्‍यवस्‍था है। अत : शेष व्‍यंजन एवं स्‍वर देखने अथवा टाइप करने हेतु "1/2" की दिया गया है जिसे टच कर शेष व्‍यंजनों तथा स्‍वरों का टाइप किया जा सकता है। इसके अतिरिक्‍त हिन्‍दी में अंक, प्रतिशत, हैश, रूपये, जोड़, घटाव, कोष्‍ठक, प्रश्‍नचिह्न तथा गुणा संबंधी प्रतीक चिह्नों के टंकण हेतु विशेष की भी इस की-बोर्ड में है।

पुन: अंग्रेजी की-बोर्ड सक्रिय करना:
"टोगल-की" को टच कर पुन: अंग्रेजी की-बोर्ड का सक्रिय किया जा सकता है।

सोमवार, 8 अप्रैल 2013

रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 4 ...... दिनकर


खड्‌ग बड़ा उद्धत होता है, उद्धत होते हैं राजे,
इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे।
और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,
राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।

'सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,
डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की।
औ' रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को,
परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को।

'रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों,
और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों।
रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें,
बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।

'रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले,
भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले।
ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है,
और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।

'अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है,
ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है।
कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके,
धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।

'और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?
यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।
चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की,
जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!

क्रमश:

सोमवार, 25 मार्च 2013

रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 3 / दिनकर


कर्ण मुग्ध हो भक्ति-भाव में मग्न हुआ-सा जाता है,
कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,
चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,
कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।

'वृद्ध देह, तप से कृश काया , उस पर आयुध-सञ्चालन,
हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।
किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,
और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।

'कहते हैं , 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,
मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?
अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,
सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।

'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,
और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।
इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,
इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।

'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।
विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?
कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।

'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?
जन्म साथ , शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?
क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,
मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्‌ग क्षत्रिय-कर में।
क्रमश:

सोमवार, 18 मार्च 2013

रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 2 / दिनकर


श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,
युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।
हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?
जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?

आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?
या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?
मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?
या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?

परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,
क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।
तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,
तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।

किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?
एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?
कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,
रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!

मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,
शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।
यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,
भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।

हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,
सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।
पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,
पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।
क्रमश;

सोमवार, 11 मार्च 2013

रश्मिरथी / द्वितीय सर्ग / भाग 1 / दिनकर


शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,
कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।
जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,
हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।

आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,
शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।
कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,
कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।

हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,
भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,
धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?
झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।

बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,
वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।
सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,
नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।

अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,
एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।
चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,
लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।

सोमवार, 4 मार्च 2013

रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग - 4 / दिनकर


जनमे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।

'मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
बढ़ता गया अगर निष्कंटक यह उद्‌भट भट बांल,
अर्जुन! तेरे लिये कभी यह हो सकता है काल!

'सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,
इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!'

रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
कञ्चन के युग शैल-शिखर-सम सुगठित, सुघर सुवर्ण,
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ' कर्ण।

बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से।
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्ध अवसान,
विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।

और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।

क्रमश: 

सोमवार, 25 फ़रवरी 2013

रश्मिरथी / प्रथम सर्ग / भाग - 3


'करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।

'अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ।
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।'
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।

कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से,
फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से।
दुर्योधन ने हृदय लगा कर कहा-'बन्धु! हो शान्त,
मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्‌भ्रान्त?

'किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको!
अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू ग्रहण करे यदि मुझको ।'
कर्ण और गल गया,' हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह!
वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह।

'भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है,
पहले-पहल मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है।
उऋण भला होऊँगा उससे चुका कौन-सा दाम?
कृपा करें दिनमान कि आऊँ तेरे कोई काम।'

घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी,
होते ही हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी।
चाहे जो भी कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान,
जनता निज आराध्य वीर को, पर लेती पहचान।

लगे लोग पूजने कर्ण को कुंकुम और कमल से,
रंग-भूमि भर गयी चतुर्दिक् पुलकाकुल कलकल से।
विनयपूर्ण प्रतिवन्दन में ज्यों झुका कर्ण सविशेष,
जनता विकल पुकार उठी, 'जय महाराज अंगेश।

'महाराज अंगेश!' तीर-सा लगा हृदय में जा के,
विफल क्रोध में कहा भीम ने और नहीं कुछ पा के।
'हय की झाड़े पूँछ, आज तक रहा यही तो काज,
सूत-पुत्र किस तरह चला पायेगा कोई राज?'

दुर्योधन ने कहा-'भीम ! झूठे बकबक करते हो,
कहलाते धर्मज्ञ, द्वेष का विष मन में धरते हो।
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम?
नर का गुण उज्जवल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धान।

'सचमुच ही तो कहा कर्ण ने, तुम्हीं कौन हो, बोलो,
जनमे थे किस तरह? ज्ञात हो, तो रहस्य यह खोलो?
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल,
निज आँखों से नहीं सुझता, सच है अपना भाल।

कृपाचार्य आ पड़े बीच में, बोले 'छिः! यह क्या है?
तुम लोगों में बची नाम को भी क्या नहीं हया है?
चलो, चलें घर को, देखो; होने को आयी शाम,
थके हुए होगे तुम सब, चाहिए तुम्हें आराम।'

रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते,
कोई कर्ण, पार्थ का कोई-गुण आपस में गाते।
सबसे अलग चले अर्जुन को लिए हुए गुरु द्रोण,
कहते हुए -'पार्थ! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन?

क्रमश: