गुरुवार, 5 मई 2011

प्रकृतवादी उपन्यास

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                                                                                             मनोज कुमार
प्रकृतवाद एक विशिष्ट जीवन दर्शन है। यह मानव जीवन को वैज्ञनिक दृष्टि से प्रकृत रूप में (नेचुरल) देखने और चित्रित करने में विश्वास रखता है। इसके अनुसार मनुष्य प्रकृति का उसी प्रकार से क्रमशः विकसित जन्तु है, जिस प्रकार संसार के अन्य प्राणी। उसमें पशु-सुलभ सभी आकर्षण-विकर्षण ज्यों-के-त्यों वर्तमान हैं। प्रकृतवादी लेखक मनुष्य को काम-क्रोध आदि मनोरोगों का गट्ठर मात्र समझता है, और उसके अर्थहीन आचरणों, कामासक्त चेष्टाओं और अहंकार से उत्पन्न धार्मिक वृत्तियों का विशेष भाव से उल्लेख करता है। इस विचार धारा के अनुसार जीवन में जिसे विद्रूप और कुत्सित कहा जाता है, वह सहज और वैज्ञानिक भी है। इस विचार धारा के जनक ज़ोला का मानना है,

“लेखकों का धर्म है कि वे जीवन के गंदे और कुरूप से कुरूप चित्र खींचे। मनुष्य की दुर्बलताओं, रोगों और विकृतियों का वर्णन करते समय उन्हें कोई अंश नहीं छोड़ना चाहिए।”

समाज के पाखंडपूर्ण कुत्सित पक्षों का उद्घाटन और चित्रण करने वाले उपन्यासों के रचनाकरों में प्रमुख हैं –

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चतुरसेन शास्त्री
का जन्म उत्तर प्रदेश के चांदोख नामक गांव में 1891 में हुआ। ग्यारह वर्ष की अवस्था में वे वाराणसी पहुंच गए और वहां व्याकरण तथा साहित्य का अध्ययन किया। उन्होंने साहित्य लेखन को भी व्यवसाय बनाया। जयपुर संस्कृत कॉलेज में आयुर्वेद और संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया।

`हृदय की परख’ (1918), `हृदय की प्यास’ (1932), ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘सोना और ख़ून’, ‘गोली’ ‘सोमनाथ’, ‘खग्रास’, ‘व्यभिचार’, `अमर अभिलाषा’ (1932), `आत्मदाह’ (1937), वयं रक्षाम, मन्दिर की नर्तकी, रक्त की प्यास, आलमगीर, सह्यद्रि की चट्टानें, आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।

उपन्यासों के अलावा उन्होंने कहानियां भी लिखीं हैं और उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं – रजकण, अक्षत आदि।

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पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’
के ‘जिजा जी’, ‘दिल्ली का दलाल’ (1927), ‘चॉकलेट’, ‘चन्द हसीनों के खुतूत’ (1927), ‘बुधुआ की बेटी’ (1928), ‘शराबी’ (1930), ‘सरकार तुम्हारी आंखों में’ आदि प्रसिद्ध उपन्यास हैं। ‘उग्र’ जी की ‘बुधुआ की बेटी’ उपन्यास घोर यथार्थवादी उपन्यास है। ‘चन्द हसीनों के खुतूत’ पत्रात्मक प्रविधि में लिखा गया हिन्दी का पहला उपन्यास है।

‘उग्र’ जी अपने साहित्य में भी उग्र रूप में ही प्रकट हुए हैं। डॉ. गोपाल राय का कहना है,

“‘उग्र’ जी इस युग के सबसे अक्खड़ और सबसे बदनाम उपन्यासकार थे।”

‘चॉकलेट’ में अश्लीलता को लेकर उस ज़माने में हिंदी साहित्य जगत में विवाद खड़ा हो गया था। अपने उपन्यासों द्वारा उन्होंने समाज की बुराइयों को, उसकी नंगी सचाई को, बिना किसी लाग-लपेट के प्रस्तुत किया। उन्होंने समाज के उपेक्षित, निचले तबके के लोग, पतित, को अपने उपन्यास का विषय बनाया, और उसके चित्रण में उन्होंने किसी प्रकार के ‘शील’ या ‘अभिजात्य शिष्टता’ का परिचय नहीं दिया। उनके उपन्यासों में सच्चाई नग्न रूप में आती है। वे समाज के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के बीच धर्म, समाजसुधार, व्यापार, व्यवसाय, सरकारी काम, नई सभ्यता की ओट में होनेवाले पाखंडपूर्ण पापाचार के चटकीले चित्र सामने लानेवाली कथानक गढते हैं। उनकी भाषा बड़ी अनूठी चपलता और आकर्षक वैचित्र्य के साथ चलती है। उनके उपन्यास ‘परचेबाज़ी’ के अधिक निकट दिखते हैं, जिसके कारण उनकी कोई भी कृति कलारूप को ग्रहण नहीं कर पाती। हालाकि उनके सभी उपन्यास सुधारवादी दृष्टिकोण से लिखे गए हैं, फिर भी सपाटबयानी और कम उम्र के पाठकों की रुचि को विकृत करने के खतरे से युक्त होने के कारण उनका सुधारवादी उद्देश्य भी पूरा नहीं हो पाया।

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ऋषभचरण जैन : के प्रमुख उपन्यास हैं ‘वैश्यापुत्र’, ‘मास्टर साहब’, ‘सत्याग्रह’, ‘बुर्क़ेवाली’, ‘चांदनी रात’, ‘दिल्ली का कलंक’, ‘दिल्ली का व्यभिचार’, ‘रहस्यमयी’, ‘हर हाईनेस’, ‘दुराचार के अड्डे’, ‘मयख़ाना’। उन्होंने तत्कालीन समाज के वर्जित विषयों पर प्रकृतवादी उपन्यास लिखा और यथार्थ के नाम पर मानव जीवन की विकृतियों का खुलकर वर्णन किया है।

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अनूपलाल मंडल : उन्होंने ‘निर्वासिता’ (1929) के अलावा पत्रात्मक प्रविधि में ‘समाज की बेदी पर’ और ‘रूपरेखा’ शीर्षक उपन्यास लिखे।

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जयशंकर प्रसाद ने ‘कंकाल’ (1929) और ‘तितली’ (1934) की रचना द्वारा उपन्यासकार के रूप में भी चर्चा का विषय बने। ‘तितली’ में ग्रामीण और कृषक जीवन का वर्णन है। ‘कंकाल’ में उन्होंने समाज के त्यागे हुए, अवैध और अज्ञात-कुलशील संतानों की कथा कही है। इस उपन्यास का विषय प्रकृतवादी है। हालाकि उनकी दृष्टि सामाजिक है, फिर भी इस उपन्यास में कुछ व्यक्ति ही प्रधान बन गए हैं। ये व्यक्ति समाज में अकेले हैं। इनका कोई वर्ग नहीं है। स्वभाव से ये पात्र असामान्य हैं। प्रसाद समाज के इन उपेक्षित और लांछित व्यक्तियों के मसीहा बन कर उपस्थित होते हैं, और इनको केन्द्र में रखकर कहानी गढ़ते हैं। प्रसाद की कलम का असर है कि पाठक की करुणा इनके प्रति जगती है। लेकिन कहानी घटनाओं और चमत्कारों पर आधारित होने के कारण कृत्रिम और अविश्वसनीय लगती है। दूसरी बात कि प्रसाद की भाषा उपन्यासोचित नहीं है। इन कारणों से उपन्यासकार के रूप में प्रसाद बहुत सफल नहीं रहे। भाषा को अलंकृत करने का मोह वो त्याग न सके। भाषा को लक्षणा शक्ति से सजाने के कारण वह विषय से अलग लगने लगती है। इसलिए गोपाल राय कहते हैं,
“प्रतिभा-संपन्न लेखक होते हुए भी प्रसाद हिन्दी-उपन्यास को कोई नया आयाम नहीं दे सके।”

प्रकृतवादी उपन्यासकारों ने जीवन का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जिसे पढ़कर वितृष्णा पैदा होती है। ऐसा महसूस होता है कि जीवन में सब कुछ विद्रूप, कुत्सित और वीभत्स है। इस प्रवृत्ति को अधिक प्रश्रय नहीं मिला।

10 टिप्‍पणियां:

  1. हिंदी साहित्य के प्रसिद्द और बेबाक लिखने वाले उपन्यासकारों से परिचय करने के लिए साधुवाद. आचार्य चतुरसेन को पढ़ा है किन्तु शेष के बारे अधिक जानकारी नहीं रखते थे.

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  2. अबतक पत्र-पत्रिका में आलोचना पढ़ती आई थी..कोई स्पष्ट राय नहीं बना पायी ..अब आपको पढ़कर सोच को एक दिशा मिल रही है..

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  3. वाह बेहद ज्ञानवर्धक श्रृंखला है
    आभार.

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  4. हर उपन्यासकार कि लेखन शैली कि बहुत सार्थक समीक्षा की है ...बहुत ज्ञानवर्द्धक लेख

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  5. नित्य नई जानकारी नयी रोचकता के साथ प्रस्तुत कर रहे है ज्ञान वर्धक है, जारी रखे

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  6. सभी उपन्यासकार,जिनका परिचय आपने दिया, वे आधार स्तंभ हैं हिन्दी साहित्य के. आचार्य चतुरसेन जी के उपन्यासों में "वयम रक्षामः" का नाम न पाकर आश्चर्य हुआ.

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  7. हिंदी साहित्य के उपन्यासकारों के बारे में जानकारी अच्छी लगी। मेरे विचार से जयशंकर प्रसाद के उपन्यास यदि अभिधा शैली में रहते तो शायद उन्हे लक्षणा के प्रयोग के लिए चर्चा का विषय नही बनना पड़ता। मुझे उनकी साहित्यिक कृतियों ने अत्यधिक प्रभावित किया है। बहुत ही सुंदर पोस्ट।

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  8. @ सलिल भाई,
    भूल सुधार दिया।
    आभार!

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  9. aaj aapke blog par bade -bade sahity-karon v lekhkon se milne ka soubhagy prapt hua
    लेखकों का धर्म है कि वे जीवन के गंदे और कुरूप से कुरूप चित्र खींचे। मनुष्य की दुर्बलताओं, रोगों और विकृतियों का वर्णन करते समय उन्हें कोई अंश नहीं छोड़ना चाहिए।”
    main lekhak ki is baat se purntah sahmat hun .par durbhagy ki baat hai ki is tarah ki sachchi galat mansikta rakhne wale logo kohajam nahi hoti .aur sahitykar ko bhi bahut jhelna pad jaata hai .ia s baat ka gavaah hamaare purv itihaas se bdhkar aur kya hosakta hai
    bahut hi jankari deti aapke sbhi blog .jin par aakr unhe padhna aue samjhna dono ho bahut achha lagta hai
    bahut bdhiya prastuti hardik naman
    poonam

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