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गुरुवार, 8 मार्च 2012

उदयन की कथा

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nआप सब को अनामिका का नमन. बहुत दिनों बाद आज आप के बीच आना हो पाया, क्या किया जाए घर - समाज के जरुरी कार्यों को भी प्राथमिकताएं तो हमें ही देनी हैं. खैर...जरुरी काम निपटा कर अब उपस्थित हूँ आप सब के सामने एक और कथा मञ्जूषा ले कर.


साथियो, अब तक कथासरित्सागर के दस अंक पूर्ण हो चुके हैं जिनमे हमने शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथा पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा,उपकोषा की बुद्धिमत्ता, योगनंद की कथा पढ़ी..और अंत में गुणाढ्य (माल्यवान) की कथा भी पढ़ी. इन सब को पढ़ कर हमने जाना कि कथासरित्सागर की कथाएं सच में चकित कर देने वाले किसी इंद्रजाल से कम नहीं. इनमे मिथक और इतिहास, यथार्थ,फंतासी और सच्चाई के अनूठे संगम के साथ साथ ऐसी बहुरंगी छटा है कि एक बड़ी मंजूषा के भीतर दूसरी, दूसरी को खोलने पर तीसरी कथा निकल ही आती है. मूल कथा में अनेक कथाओं को समेट लेने की यह पद्धति बहुत ही रोचक है.

हम सब को बचपन से ही अपने बड़ों से कहानियां सुनने का बहुत शौंक होता है, चाहे नींद बेचारी नयन द्वार पर आ आ कर लौट जाए लेकिन कहानी पूरी सुने बिना नींद को आने ही नहीं देते थे...वो बात अलग है कि हम बचपन में नींद से हार जाते थे...लेकिन तब हम छोटे थे न ....:-) किन्तु, परन्तु अब तो हम बड़े हो गए हैं...और अब कोई जटिल से जटिल कहानी भी सुनाये या पढाये तो भला हम सो जायेंगे....ना जी ना ऐसा हो ही नहीं सकता...तो लीजिये आज एक और कथा सागर में गोता लगाते हैं..ये कथा है उदयन की जो समझने में थोड़ी जटिल है लेकिन आनंद दायक है. जानती हूँ सोयेंगे नहीं .......हा.हा.हा...

उदयन की कथा

आप सब अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के  नाम से तो भली भांति परिचित  हैं..आज तक हमने पांड्वो और कौरवों के बारे में जाना, महाभारत के युद्ध के बारे में सुना, अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के चक्रव्यूह में मारे जाने के बारे में पढ़ा, उसकी पत्नी उत्तरा जो अभिमन्यु की मृत्यु के समय गर्भवती थी उसके बारे में भी पड़ा...लेकिन उसके आगे उनकी पीढ़ी कहाँ तक विस्तार पाई नहीं जानते.....! कथासरित्सागर हमारे आगे इतिहास की ऐसी ही कुछ सच्चाइयां प्रस्तुत करती है.

अभिमन्यु का बेटा परीक्षित हुआ और और परीक्षित का बेटा हुआ जनमेजय ! राजा जनमेजय का पुत्र था शतानीक जो कि पांडवों का वंशज था और वत्स नामक देश का राजा. कहते हैं यह वत्स देश इतना मनोरम था मानो स्वर्ग का अभिमान दूर करने के लिए ही विधाता ने उसे रचा था. इस वत्स देश की राजधानी थी कौशाम्बी जिस पर धन-धान्य की वर्षा होती थी. शतानीक की रानी का नाम विष्णुमति था जिसने सहस्त्रानीक नामक सुंदर पुत्र को जन्म दिया. सहस्त्रानीक के युवा होने पर पिता शतानीक ने उसे युवराज पद पर अभिषिक्त करने के तुरंत बाद वनवास गमन का विचार किया. लेकिन इसी दौरान भाग्य की लकीरों ने अपना असर दिखाना शुरू किया और  इंद्र देव ने शतानीक को असुरों के साथ युद्ध में सहायता पाने के लिए अपने पास बुला लिया और शतानीक वीरतापूर्वक लड़ते हुए इस युद्ध में मारा  गया. सहस्त्रानीक की माता विष्णुमति अपने पति के साथ सती हो गयी.

देवासुर संग्राम में देवों के  विजय उत्सव में सम्मलित होने के लिए इंद्र ने सहस्त्रानीक को बुलाया.  देवलोक में इंद्र ने सहस्त्रानीक  के साथ  सुखपूर्वक वार्तालाप करते हुए बताया - सहस्त्रानीक जिसके साथ तुम्हारा विवाह होगा उसे मैं जनता हूँ, वो अम्लुषा नामक अप्सरा है, जिसे ब्रह्मा जी ने शाप दिया था. पिछले जन्म में तुम वसु थे और तुम्हें उससे प्रेम था.

सहस्त्रानीक  ने उत्सुक होकर अल्मुषा का पता पूछा, इंद्र ने बताया कि अल्मुषा ने अयोध्या के राजा कृतवर्मा की पुत्री मृगावती के रूप में जन्म लिया है. इतना सुनना था कि सहस्त्रानीक मृगावती को पाने के लिए व्याकुल हो उठा. सहस्त्रानीक के आकाशमार्ग से पृथ्वी की ओर जाते हुए तिलोत्तमा नामक अप्सरा ने उसे पुकारा जिसे सहस्त्रानीक ने अनसुना कर दिया. तिलोत्तमा ने चिढ़ कर उसे शाप दे दिया कि जिस राजकुमारी के लिए तू मेरी बात तक नहीं सुन रहा, तुझे १४ वर्ष उससे अलग रहना होगा. सहस्त्रानीक के साथी मातली ने तिलोत्तमा का यह शाप सुन लिया जिसे राजा नहीं सुन सका.

धरती पर आकर सहस्त्रानीक ने मृगावती से विवाह किया. राजा सहस्त्रानीक रानी मृगावती के प्यार में ही डूबा रहता. कुछ समय बाद मृगावती ने गर्भ धारण किया. राजा की आँखे उसे निहारते थकती न थी और वह बार बार उससे पूछता कि तुम्हारी कोई इच्छा हो तो बताओ. रानी ने खून से भरी हुई वापी में नहाने की इच्छा प्रकट की. राजा ने उसका मान रखने के लिए लाख आदि के रस से भरी वापी बनवाई. जैसे ही रानी उस वापी में गोता लगा कर निकली कि किसी गरुड़ पक्षी ने उसे मांस का पिंड समझ कर झपट कर अपने पंजों में दबोच लिया और रानी को ले उड़ा.

साथियों लगता है देवलोक की अप्सरा तिलोत्तमा का शाप अपना असर दिखाने लगा है...आगे की कथा जानने के लिए थोड़ा इंतजार करते हैं...और अगले सप्ताह जानेंगे  इस कथा का शेष भाग तब तक के लिए आपसे आज्ञा लेती हूँ.

नमस्कार !

गुरुवार, 2 फ़रवरी 2012

माल्यवान (गुणाढ्य) की कथा

माल्यवान (गुणाढ्य) की कथा

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nआप सभी पाठकों को नमन करते हुए अनामिका एक बार फिर हाज़िर है आपके समक्ष कथासरित्सागर की एक और कथा लेकर.  कथासरित्सागर की कहानियों में अनेक अद्भुत नारी चारित्र भी हैं और इतिहास प्रसिद्द नायकों की कथाएं भी हैं.मूल  कथा में अनेक कथाओं को समेट लेने की यह पद्धति रोचक भी है और जटिल भी.  ये  कथाएं आप सब के लिए हमारी भारतीय परंपरा को नए सिरे से समझने में सहायक होंगी.

इस कथासरित्सागर को गुणाढय की बृहत्कथा भी कहा जाता है. गुणाढय को वाल्मीकि और व्यास के समान ही आदरणीय भी माना है.

पिछली कड़ियों को जोड़ते हुए.... पिछले सात अंकों में आपने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथा पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा, उपकोषा की बुद्धिमत्ता, योगनंद की कथा पढ़ी.....प्रथम अंक में शिव-पार्वती प्रसंग में शिव जी पार्वती जी को कथा सुनाते हैं जिसे शिवजी के गण पुष्पदंत योगशक्ति से अदृश्य हो वह कथा सुन लेते हैं और पार्वती क्रोधवश पुष्पदंत को श्राप देती हैं ...पुष्पदंत का मित्र माल्यवान साहस कर उमा भगवती के चरणों पर माथा रख कहता है - इस मूर्ख ने कौतूहलवश यह घृष्टता कर डाली है माँ ! इसका पहला अपराध क्षमा करें, लेकिन पार्वती क्रोधवश माल्यवान को भी शाप देती हैं जिससे पुष्पदंत और माल्यवान मनुष्य योनी पाकर धरती पर आये हैं, जहाँ पुष्पदंत को शाप-मुक्ति के उपाय हेतु काणभूति(सुप्रतीक नामक यक्ष)को वही कहानी सुनानी है और माल्यवान को काणभूति से यह कथा सुनकर मनुष्य योनी में इसका प्रचार करना है तभी इनकी मुक्ति संभव है. अब माल्यवान (गुणाढ्य) की कथा ...

गुणाढ्य राजा सातवाहन का मंत्री था. भाग्य का ऐसा फेर कि उसने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तीनों भाषाओं का प्रयोग न करने की प्रतिज्ञा कर ली थी और विरक्त होकर वह विंध्यवासिनी के दर्शन करने विन्ध्य के वन में आ गया था.

विंध्यवासिनी ने उसे काणभूति के दर्शन करने का आदेश दिया. उसके साथ ही गुणाढ्य को भी पूर्वजन्म का स्मरण हो आया और वह काणभूति के पास आकर बोला - पुष्पदंत ने जो बृहत्कथा तुम्हें सुनाई है, उसे मुझे भी सुना दो, जिससे मैं भी इस शाप से मुक्त होऊं और तुम भी.

उसकी बात सुन कर काणभूति ने प्रसन्न हो कर कहा - मैं तुम्हें बृहत्कथा तो अवश्य सुनाऊंगा पर पहले मैं तुम्हारे इस जन्म का वृतांत सुनना चाहता हूँ. काणभूति के अनुरोध पर गुणाढ्य ने अपनी कथा सुनाई, जो इस प्रकार थी -

प्रतिष्ठान प्रदेश में सुप्रतिष्ठित नाम का नगर है. वहां सोमशर्मा नामक एक श्रेष्ठ ब्राह्मण रहा करता था. उसके वत्स और गुल्म नामक दो पुत्र तथा श्रुतार्था नाम की एक कन्या थी. कालक्रम से सोमशर्मा और उसकी पत्नी दोनों का निधन हो गया. वत्स तथा गुल्म अपनी छोटी बहन का लालन-पालन करते थे.

एक बार उन्हें पता चला कि उनकी बहन गर्भवती है. पूछने पर श्रुतार्था ने बताया कि नागराज वासुकी के भाई कीर्तिसेन ने एक बार उसे स्नान के लिए जाते देखा था और उन्होंने उसके ऊपर मुग्ध हो कर उससे गान्धर्व विवाह कर लिया था.

दोनों भाइयों ने कहा - इसका क्या प्रमाण है ?

श्रुतार्था ने नागकुमार का स्मरण किया. तुरंत नागकुमार वहां प्रकट हो गए . उसने दोनों भाइयों से कहा - तुम्हारी यह बहन शापभ्रष्ट अप्सरा है और मैंने इस से विवाह किया है. इससे पुत्र उत्पन्न होगा, तब तुम दोनों की और इसकी शाप से मुक्ति हो जाएगी.

समय आने पर श्रुतार्था को पुत्र की प्राप्ति हुई. मैं (गुणाढ्य ) वही पुत्र हूँ.

मेरे जन्म के कुछ समय पश्चात ही शाप से मुक्त हो जाने के कारण मेरी माता और फिर मेरे दोनों मामा चल बसे. मैं बच्चा ही था. फिर भी किसी तरह अपने शोक से उबर कर मैं विद्या की प्राप्ति के लिए दक्षिण की ओर  चल दिया. दक्षिणापथ में रह कर मैंने सारी विद्याएँ प्राप्त कीं . बहुत समय के बाद अपने शिष्यों के साथ उस सुप्रतिष्ठित नगर में मैं लौटा तो मेरे गुणों के कारण वहां मेरी बड़ी प्रतिष्ठा हुई. राजा सातवाहन ने मुझे अपनी सभा में आमंत्रित किया. मैं अपनी शिष्य मंडली के साथ वहां गया. वहां भी मेरी बड़ी आवभगत हुई. राजा ने अपने मंत्रियों से मेरी प्रशंसा सुनी तो उसने प्रसन्न हो कर मुझे अपना एक मत्री नियुक्त कर दिया.

बसंत का समय था. राजा सातवाहन अपनी सुंदर रानियों के साथ राजमहल की वापी (बावड़ी) में जलक्रीड़ा कर रहे थे.  जिस तरह जल में उतरे श्रेष्ठ और मतवाले हाथी पर उसकी प्रेयसी हथनियां अपनी सूंडों में जल भर कर पानी की फुहारें छोडती हैं, वैसे ही वे रानियाँ राजा के ऊपर पानी छींट रही थीं और राजा भी प्रसन्न हो कर उन पर पानी के छींटे उछाल रहा था. एक रानी  ने बार बार अपने ऊपर पानी के तेज छींटे पड़ने से परेशान होकर राजा से कहा - मोद्कैस्ताड्य [( मा (मत ) उद्कै: (जल से ) ताडय (मारो) - यह संधि तोड़ने पर वाक्य का अर्थ होगा और संधि सहित अर्थ होगा मोद्कै: (लड्डुओं से ) ताडय (मारो ) ] राजा ने इस संस्कृत वाक्य का अर्थ समझा कि मुझे मोदकों (लड्डुओं ) से मारो  और उसने तुरंत अपने सेवकों को ढेर सारे लड्डू लाने का आदेश दिया. यह देख कर वह रानी हंस पड़ी और बोली - हे राजन, यहाँ जलक्रीड़ा के समय लड्डुओं का क्या काम. मैंने तो यह कहा था कि मुझे उदक (जल ) से मत  मारो.  आपको तो संस्कृत व्याकरण

के संधि के नियम भी नहीं आते हैं, न आप किसी वाक्य का प्रकरण के अनुसार अर्थ ही लगा पाते हैं.  मोद्कैस्ताड्य [( मा (मत ) उद्कै: (जल से ) ताडय (मारो) - यह संधि तोड़ने पर वाक्य का अर्थ होगा और संधि सहित अर्थ होगा मोद्कै: (लड्डुओं से ) ताडय (मारो ) ]

वह रानी व्याकरण की पंडित थी. उसने राजा को ऐसी ही खरी खोटी सुना दी और बाकी लोग मुह छिपा कर हंसने लगे. राजा तो लाज से गड़ गया. वह जल से चुपचाप बाहर निकला. तब से वह न किसी से बोले न हँसे. उसने तय कर लिया कि या तो पांडित्य प्राप्त कर लूँगा या मर जाऊंगा. उस दिन राजा न किसी से मिला, न भोजन किया, न सोया.

आदरणीय पाठक गण यह एक लम्बी कथा है अतः आगे का वृतांत अगले अंक में प्रस्तुत करने की कोशिश करुँगी तब तक के लिए आज्ञा और नमस्कार !

गुरुवार, 12 जनवरी 2012

योगनंद की कथा (भाग-2)

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nआदरणीय सुधी जनों को  अनामिका का नमन ! पिछले पांच अंकों में आपने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथापाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा, उपकोषा की बुद्धिमत्ता और योगनंद की कथा पढ़ी.


पिछले अंक में अपनी पत्नी उपकोषा के चरित्र की  कथा सुना कर वररुचि ने काणभूति को अपने जीवन की शेष कहानी बताई, जो इस प्रकार थी - व्याकरण शास्त्र में प्रवीण होने के बाद वररुचि ने अपने गुरु उपाध्याय वर्ष से प्रार्थना की कि वे गुरु दक्षिणा  के लिए निर्देश करें. उपाध्याय वर्ष ने कहा - मुझे एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ ला कर दो. एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ केवल राजा नन्द ही दे सकते थे, लेकिन वररुचि के पहुचने के उपरान्त ही राजा नन्द की मृत्यु हो चुकी थी. इन्द्रदत्त योगसिद्धि से परकाय प्रवेश की विद्या जानता था. उसने कहा - मैं इस मृत राजा के देह में प्रवेश करूँगा, वररुचि याचक बनेगा, मैं इसे एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ प्रदान करूँगा, तब तक व्याड़ी मेरे निष्प्राण देह की गुप्त रूप से रक्षा करेगा. इस प्रकार योगनंद (नन्द की देह में प्रविष्ट इन्द्रदत्त के जीव) ने मंत्री शकटार को आदेश दिया और याचक वररुचि को एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ तत्काल दे दी. अपार लक्ष्मी ने पूर्वनंद के देह में रहते इन्द्रदत्त को बावला बना दिया था..... अब आगे...

विलासी योगनन्द का अन्तःपुर असंख्य सुन्दरियों से भरा हुआ था और इधर स्त्रियों के वेश में कामुक पुरुष भी वहां जा घुसे थे. यह बात मैंने राजा को बता दी थी. तब से वह मेरे बारे में और शंकित रहने लगा था.

एक बार एक चित्रकार  ने  महारानी का बड़ा सुंदर चित्र बनाया. राजा ने प्रसन्न हो कर वह चित्र अपने शयनागार में दीवार पर लगवा लिया. मैं राजा के शयनगृह में बेखटके चला जाता था. मैंने वह चित्र देखा तो महारानी के सम्पूर्ण लक्षणों को विचार करके उनके मेखला स्थान (करघनी बाँधने की जगह ) पर तिल होना चाहिए - यह निश्चय करके चित्र में उचित स्थान पर तिल बना दिया और बाहर निकल आया.

राजा ने चित्र में तिल बना देखा तो रक्षकों से पूछा की यह तिल किसने बनाया. रक्षकों ने बताया कि मंत्री वररुचि तिल बना कर गए हैं.

अब योगनंद के मन में मेरे बारे में मिथ्या शंका घर कर गयी. उसने सोचा कि मैं रानी के गुप्त स्थान में बने तिल को कैसे जानता हूँ. अवश्य ही मेरा रानी से अनुचित सम्बन्ध है, तभी अन्तः पुर में स्त्री वेश में रहने वाले पुरुषों की बात भी मुझे विदित है.

यह समझ कर योगनंद ने एक बार शकटार को एकांत में बुलाया और कहा - इस मंत्री वररुचि ने मेरे अन्तःपुर में बड़ा दुराचार किया है, इसे समाप्त कर दो.

शकटार ने कहा - जैसी महाराज की आज्ञा !

पर शकटार ने सोचा कि वररुचि बुद्धिमान है और ब्राह्मण है, इसकी हत्या कराना उचित न होगा. इसलिए उसने मुझे राजा के आदेश के विषय में बता दिया और मुझसे कहा - तुम कुछ दिन छिप कर रहो, मैं राजा से झूठ कह देता हूँ कि वररुचि मार डाला गया है.

मैंने कहा - शकटार तुम बहुत समझदार हो. वैसे तुम मुझे मार भी नहीं सकते थे. क्यूंकि एक राक्षस मेरे मित्र है, वह मुझे बचा लेता.

शकटार ने पूछा - राक्षस तुम्हारा मित्र कैसे हो गया ? यदि सच में वह तुम्हारा मित्र है, तो मुझे दिखाओ.

मैंने राक्षस का स्मरण किया और राक्षस वाहन आ उपस्थित हुआ. शकटार ने मेरा लोहा मान लिया. मैंने उस से कहा - पूर्वनंद के देह में स्थित जीव इन्द्रदत्त ब्राह्मण का है, वह मेरा सहाध्यायी और मित्र है. तुम न उसे मारना न मुझे.

फिर मेरे कहने से राक्षस अंतर्धान हो गया. शकटार ने मुझसे पूछा - यह राक्षस कब से और कैसे तुम्हारा मित्र है ?

शकटार के अनुरोध पर मैंने उसे राक्षस के साथ अपनी मित्रता की कथा सुनाई, जो इस प्रकार थी -

पाटलिपुत्र नगर में जो भी नगराधिप बनता, उसे रात्री में गश्त देते समय कोई मार डालता. तब योगनंद ने नगराधिप का काम मुझे सौंप दिया. मैं रात को भ्रमण के लिए निकला और एक शून्य स्थान में राक्षस ने मुझे पकड़ लिया और पूछा - बताओ इस नगर में सबसे स्त्री कौन है ?

मैंने हंस कर उत्तर दिया - अरे मूर्ख, जिसका जी जिस पर आ जाए, उसके लिए वही स्त्री सबसे सुंदर है.

यह सुन कर राक्षस प्रसन्न हो गया और बोला - अब मैं तुम्हारी हत्या नहीं करूँगा . मैं तुम पर प्रसन्न हूँ. आज से हम तुम मित्र हुए. तुम मुझे जब भी स्मरण करोगे, मैं उपस्थित हो जाऊंगा.

वररुचि ने काणभूति  को अपने जीवन की आगे की कथा सुनाते हुए कहा - बहुत समय तक शकटार ने मुझे छिपा कर रखा. एक बार राजा योगनंद विपत्ति में पद गया. उसका लड़का था राजकुमार हिरण्यगुप्त. वह पागल हो गया. शकटार ने भी अवसर देख कर कहा - यदि वररुचि होता, तो वही बता सकता था कि राजकुमार के पागलपन का कारण क्या है.

योगनंद को भी उसी समय मेरी बड़ी याद आई. अवसर पा कर शकटार ने मेरे जीवित होने का रहस्य खोला. योगनंद ने मुझे देखने की इच्छा प्रकट की. मैं  उसके सामने प्रकट हुआ. योगनंद ने राजकुमार के पागल होने का कारण पूछा . मैंने कहा - इसने मित्रद्रोह किया है. मित्र के शाप से यह पागल हुआ है.

मेरे इतना कहते ही राजकुमार ने भी मित्रद्रोह की बात स्वीकार कर ली और इसके साथ ही उसका पागलपन चला गया. राजा ने पूछा - तुमने इसका रहस्य कैसे जान लिया.

मैंने कहा - वैसे ही जैसे मैंने तुम्हारी रानी के मेखला स्थान में तिल होने का रहस्य जान लिया था. प्रतिभावान व्यक्ति अपनी प्रज्ञा से अतीत, अनागत और अदृश्य को भी देख लेता है.

राजा ने यह सुन कर मेरा बड़ा सम्मान किया और फिर से मंत्री पद पर कार्य करने का अनुरोध किया. मैं उसके दान-सम्मान की उपेक्षा कर के चल दिया.


वररुचि की कथा का शेष वृतांत अगले अंक में प्रकाशित किया जाएगा तब तक के लिए आज्ञा और नमस्कार !

गुरुवार, 5 जनवरी 2012

योगनंद की कथा

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nआदरणीय सुधी जनों को  अनामिका का नमन ! पिछले चार अंकों में आपने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथा पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा, और उपकोषा की बुद्धिमत्ता पढ़ी.

कथासरित्सागर को गुणाढय की बृहत्कथा भी कहा जाता है.  कथासरित्सागर की कहानियों में अनेक अद्भुत नारी चारित्र भी हैं और इतिहास प्रसिद्द नायकों की कथाएं भी हैं. कथासरित्सागर कथाओं की मंजूषा प्रस्तुत करता है. इसी श्रृंखला को क्रमबद्ध करते हुए पिछले अंक में वररुचि के मुंह से बृहत्कथा सुन कर पिशाच योनी में विंध्य के बीहड़ में रहने वाला यक्ष काणभूति शाप से मुक्त हुआ और वररुचि की प्रशंसा करते हुए उससे उसकी आत्मकथा सुनाने का आग्रह करता है. वररुचि काणभूति को अपनी आपबीती सुनाते हुए अपनी पत्नी उपकोषा के चरित्र और बुद्धिमत्ता की कथा सुनाता है . अब आगे...

 

योगनंद की कथा

अपनी पत्नी उपकोषा के चरित्र की  कथा सुना कर वररुचि ने काणभूति को अपने जीवन की शेष कहानी बताई, जो इस प्रकार थी -

मैंने हिमालय पर रह कर भगवान् शिव की अराधना की. वे प्रसन्न हुए और उन्होंने मुझे पाणिनि के व्याकरण में पारंगत होने का वरदान दिया. तब मैंने पाणिनि व्याकरण पर वार्तिक की रचना की.

घर आया, तो मुझे अपने माता तथा अन्य लोगों से उपकोषा के अद्भुत चरित और शील की कथा सुनने को मिली. मेरे मन में उसके लिए स्नेह और आदर बढ़ गया. उपाध्याय वर्ष को जब पता चला कि मैंने पाणिनि का व्याकरण न केवल अच्छी तरह समझ लिया है, उस पर वार्तिक की रचना तक कर डाली है, तो उन्होंने उसको सुनने की इच्छा प्रकट की. पर उनसे चर्चा होते ही मैं जान गया कि पाणिनि का व्याकरण भी कुमार कार्तिकेय की कृपा से पहले से ही उपाध्याय वर्ष के मानस में प्रकाशित है. अब व्याड़ी और इन्द्रदत्त भी नए व्याकरण शास्त्र में प्रवीण हो गए और हम सबने  उपाध्याय वर्ष से प्रार्थना की कि वे गुरु दक्षिणा  के लिए निर्देश करें. उपाध्याय वर्ष ने कहा - मुझे एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ ला कर दो.

हम लोगो ने तय किया कि एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ तो केवल राजा नन्द ही दे सकते हैं, जो निन्यानवे करोड़ मुद्राओं के स्वामी हैं. व्याड़ी और इन्द्रदत्त ने कहा - कुछ समय पहले ही तुम्हारी पत्नी उपकोषा को राजा नन्द ने अपनी धर्म बहन बनाया है, इसलिए वह इतना धन देने में आनाकानी नहीं करेंगे.

नन्द का शिविर उस समय अयोध्या में था. हम तीनों सहाध्यायी वहां पहुंचे. पर हमारे वहां पहुँचते ही पाता चला कि अभी अभी राजा नन्द का स्वर्गवास हो गया है. मंत्री और प्रजानन दुख में डूबे हुए थे और अनेक लोग नन्द के शव को घेर कर विलाप  कर रहे  थे.

इन्द्रदत्त योगसिद्धि से परकाय प्रवेश की विद्या जानता था. उसने कहा - मैं इस मृत राजा के देह में प्रवेश कर जाता हूँ, वररुचि याचक बनेगा, मैं इसे एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ प्रदान करूँगा, तब तक व्याड़ी मेरे निष्प्राण देह की गुप्त रूप से रक्षा करेगा.

नगर से दूर एक सूने देवालय में  व्याड़ी  को इन्द्रदत्त के देह की रक्षा के लिए छोड़ कर मैं शिविर पहुंचा, जहाँ राजा नन्द के सहसा जी उठने का उत्सव मनाया जा रहा था. मैंने स्वस्तिवाचन किया और गुरु दक्षिणा की राशि की याचना की. योगनंद (नन्द के देह में प्रविष्ट इन्द्रदत्त के  जीव) ने मंत्री शकटार को आदेश दिया कि इस याचक को एक करोड़ स्वर्णमुद्राएँ तत्काल दे दी जाएँ. मृत राजा के जी उठते ही याचक का आना और इतनी बड़ी राशि माँगना तथा राजा का तत्काल उसे देने के लिए आदेश देना - यह सब शकटार को खटका - उसने मुझे ठहरने को कहा और फिर अपने सेवकों को आदेश दिया कि जहाँ कहीं मुर्दा दिखे, तुरंत जलवायें और नगर के भीतर बाहर खोजें  कि कहीं कोई मुर्दा छिपा कर न रखा गया हो.

थोड़ी ही देर में व्याड़ी ने वहा आ कर रोते रोते योगनंद से कहा - महाराज, बड़ा अनर्थ हुआ. योगसमाधि में स्थित एक ब्राह्मण के शव को आपके सैनिकों ने जबरदस्ती मुझसे छीन कर जला डाला है. यह सुन कर योगनंद की तो सांप छछूंदर जैसी स्थिति हो गयी. शकटार ने समझ लिया कि अब ब्राह्मण का जीव नन्द के देह को छोड़ कर नहीं जाएगा, तो उसने मुझे एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ दिलवा दीं.

इधर एकांत में योगनंद ने बिलखते हुए व्याड़ी से कहा - यह क्या हो गया ? मैं ब्राह्मण हो कर भी शूद्र हो गया हूँ. इस अपार धन संपदा और राज्यश्री को ले कर भी मैं क्या करूँगा ?

व्याड़ी उसे दिलासा देने लगा - अब खेद मत करो.  शकटार तुम्हारा रहस्य जानता है. उससे सावधान रहो. पूर्वनंद का बेटा अभी छोटा है, और राज्य के शत्रु बहुत हैं. इसलिए शकटार चाहता है कि कुछ समय तुम पूर्वनंद के शरीर में बने रहो. अवसर पाते ही वह तुम्हें इस देह से मुक्त कर चन्द्रगुप्त को राजा बना देगा. तुम ऐसा करो कि वररुचि को अपना मंत्री बना लो. वह बुद्धिमान है तुम्हारी सहायता करेगा.

इस तरह मैं योगनंद का मंत्री बन बैठा. मेरे परामर्श से योगनंद ने  शकटार को सपरिवार एक अंधकूप में पटकवा दिया. उसका यह अपराध घोषित किया गया कि उसने एक जीवित ब्राह्मण को जलवाया था.

शकटार के पास कुछ पानी और सत्तू रखवा दिया गया. शकटार ने पुत्रों से कहा - इतने से सत्तू और जल से एक व्यक्ति भी कुछ ही दिन जीवित रह सकेगा. इसलिए हम में से वही इस सत्तू और जल का ग्रहण करे, जो योगनंद से बदला लेने की शक्ति रखता हो. शकटार के सौ पुत्रों ने एकमत से कहा - केवल आप ही राजा योगनंद से बदला लेने की शक्ति रखते हैं, अतः आप यह सत्तू और जल ग्रहण करते हुए जीवन धारण कीजिये.

शकटार के देखते देखते उसके सौ पुत्र एक एक करके दम तोड़ते गए. कंकालों से घिरा हुआ अकेला वह जीवित रह गया.

समय बीतता गया. व्याड़ी को तो सारी घटना से ऐसा वैराग्य हो गया था कि वह योगनंद के मना करने पर भी तपस्या करने चला गया था. इधर योगनंद के चरित्र में बड़ा परिवर्तन होने लगा. वह उच्छृंखल और मतवाले हाथी जैसा नियंत्रण हीन  होता जा रहा था. देवयोग से मिली अपार लक्ष्मी ने पूर्वनंद के देह में रहते इन्द्रदत्त को बावला बना दिया था. अब वह मेरी भी नहीं सुनता था. राज्य का कहीं और अमंगल न हो - यह सोचकर मैंने शकटार को अंधकूप से बाहर निकलवाने का निश्चय कर डाला.

शकटार अंधकूप से बाहर आया और उसने मंत्री पद  का काम संभाल लिया. इससे मेरे और योगनंद के संबंधों में दरार पड़ गयी.शकटार ने भी यह भांप लिया कि मेरे रहते वह योगनंद का और मेरा भी कुछ अहित नहीं कर पायेगा.

पाठक गण यह एक लम्बी कथा है अतः शेष वृतांत अगले अंक में प्रकाशित किया जाएगा तब तक के लिए आज्ञा और नमस्कार !

गुरुवार, 29 दिसंबर 2011

उपकोषा की बुद्धिमत्ता

उपकोषा की बुद्धिमत्ता

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nआदरणीय पाठक वृन्द को अनामिका का सादर प्रणाम ! पिछले तीन अंकों में हमने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा, वररुचि की कथा और पाटलिपुत्र (पटना)नगर की कथा पढ़ी.

कथासरित्सागर की  पिछली कड़ियों को जोड़ते हुए....प्रथम अंक में पार्वती जी शिव के गण पुष्पदंत द्वारा योगशक्ति से कथा सुन लेने पर श्राप देती हैं और वह  धरती पर जाकर पाटलिपुत्र के राजा नन्द का मंत्री वररूचि  बन गया है, जहाँ उसे शाप-मुक्ति उपाय हेतु सुप्रतीक नामक यक्ष, जो कि काणभूति के नाम से जाना जाता है, को कहानी सुनानी है. कहानी सुन काणभूति शाप से मुक्त हो वररुचि की प्रशंसा करते हुए उससे उसकी आत्मकथा सुनाने का आग्रह करता है..द्वित्तीय अंक में वररुचि अपने जन्म और गुरु वर्ष से ज्ञान प्राप्ति का वृतांत बताते हुए तृतीय अंक में पाटलिपुत्र नगर की कथा कहते हैं.अब आगे..

विंध्य के उस वन में वररुचि काणभूति को अपने गुरु उपाध्याय वर्ष के मुख से सुनी हुई पाटलिपुत्र नगर के निर्माण की यह कथा सुना कर फिर अपनी आपबीती सुनाने लगा, जो इस प्रकार थी :

अपने दोनों गुरुभाइयों - व्याड़ी तथा इन्द्रदत्त के साथ पाटलिपुत्र में रहते हुए मेरा बचपन बीत गया. एक बार हम तीनों नगर में इन्द्रोत्त्सव देखने के लिए घूम रहे थे, तो मैंने एक कन्या देखी, जो काम के धनुष जैसी लगती थी. इन्द्रदत्त ने पता करके मुझे बताया कि वह हमारे गुरु वर्ष के भाई उपवर्ष की  पुत्री उपकोषा है. मैं उपकोषा के आकर्षण में इस तरह बंध गया कि मुझे रात भर नींद नहीं आई. सवेरा होने पर मैं उपकोषा के घर के निकट आम के एक बगीचे में जा कर बैठ गया. उपकोषा की  एक सखी वहां आई तो उसके द्वारा मैंने उपकोषा की माता तक अपने मन की बात पहुंचाई. उपकोषा की माँ ने अपने पति उपवर्ष से चर्चा की और मेरा विवाह तय हो गया. उपाध्याय वर्ष की आज्ञा ले कर व्याड़ी कौशाम्बी चला गया और मेरी माता को ले कर आ गया. मेरा उपकोषा के साथ विवाह हो गया और मैं अपनी पत्नी, माता के साथ सुख से पाटलिपुत्र रहने लगा.

इधर उपाध्याय वर्ष के पांडित्य की ख्याति सारे राष्ट्र में फ़ैल गयी थी और उनके शिष्यों की संख्या लगातार बढती जा रही थी. इन्हीं में से एक शिष्य था पाणिनि . वह अत्यंत मंदबुद्धि था. गुरुपत्नी ने उसे हिमालय पर जा कर शिव की उपासना करने को कहा. वह हिमालय चला गया.

हिमालय से जब पाणिनि लौटा, तो उसे शिव की कृपा से नया व्याकरण प्राप्त हो चुका था. उसने मुझी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा. हम दोनों का शास्त्रार्थ आरम्भ हुआ और सात दिन तक चलता रहा. आठवें दिन मैंने पाणिनि को हरा ही दिया, पर ठीक इसी समय भगवान् शिव ने आकाश से भयंकर  हुंकार किया  और उसके प्रभाव से हमारा पढ़ा हुआ सारा का सारा ऐन्द्र व्याकरण नष्ट हो गया. हम लोग फिर से मूर्ख हो गए.

पाणिनि से मिली पराजय के कारण मेरे जी में वैराग्य उत्पन्न हो गया. मैंने घर का खर्च चलाने  के लिए कुछ धन हिरण्यगुप्त नामक वणिक के पास रख दिया जिससे उपकोषा आवश्यकता पड़ने पर उससे पैसा मंगवा सके और मैं भगवान् शिव की अराधना के लिए हिमालय की ओर चल दिया.

उपकोषा भी मेरी सफलता के लिए व्रत उपवास करती हुई प्रतिदिन प्रातः नियमित रूप से गंगा-स्नान के लिए जाती रही. वह मेरे विरह में पीली पड़ गयी थी, और प्रतिप्रदा के चंद्रमा के समान लगती थी. वसंत का समय था. उपकोषा को प्रतिदिन गंगास्नान के लिए आते-जाते राजपुरोहित, नगरपाल और युवराज का मंत्री - ये तीनों लोग देखते थे और उसके रूप - लावण्य पर मोहित हो गए थे.

उपकोषा इन तीनों की विकृत दृष्टि को समझ चुकी थी और किसी तरह अपना शील बचाए हुए अपना धर्म पाल रही थी. एक दिन गंगास्नान से लौटते हुए उसे कुमार सचिव (युवराज के मंत्री) ने रोक ही लिया. उपकोषा से उसे समझाया, और जब वह न माना तो कहा - इस तरह मिलने का प्रयास करना तुम्हारे लिए भी ठीक नहीं है, न मेरे लिए. इसीलिए  तुम वसंतोत्सव के दिन, जब सारे नागरिक उत्सव की धूमधाम में लगे हुए हों, रात के पहले पहर में मेरे घर आ जाओ.

उससे पीछा छुड़ा कर उपकोषा आगे बड़ी, तभी उसे राजपुरोहित ने घेर लिया. उपकोषा ने और कोई चारा न देख उसी प्रकार वसंतोत्सव के दिन रात के तीसरे प्रहर में उसे घर आने का संकेत दे दिया. पुरोहित से बच कर घबरायी हुई वह कुछ आगे बढ़ी थी कि दंडाधिप (नगरपाल) ने उसे पकड़ लिया. उपकोषा ने उसे उसी दिन रात के दूसरे पहर में घर आने को कहा.

भय से कांपती वह घर आई. दासियों को बुला कर उनके साथ परामर्श किया और सारी  रात मेरा स्मरण करते हुए निराहार रह कर बितायी. अगले दिन ब्राह्मणों के भोजन तथा दान के लिए धन की आवश्यकता होने से दासी को हिरण्यगुप्त के यहाँ मेरे द्वारा रखी धरोहर में से धन लाने के लिए भेजा.

हिरण्यगुप्त वणिक उलटे उसी के पास चला आया और एकांत में उससे बोला - तुम मेरी सेवा करो, तो मैं तुम्हारे पति का धन तुम्हें दे दूंगा. उपकोषा ने उसे वसंतोत्सव की रात के चौथे पहर में घर आने को कहा.

अब उपकोषा ने दासियों के द्वारा तेल में सना हुआ बहुत सारा काजल तैयार कराया और उसमे कस्तूरी आदि सुगन्धित द्रव्य मिलवाये. फिर उसने चार चिथड़े उस काजल में अच्छी तरह सनवा लिए. इसके बाद उसने एक बहुत बड़ा संदूक तैयार करवाया, जिसमे बाहर से बंद करने के लिए साकंल लगी थी.

वसंतोत्सव का दिन आ पहुंचा. रात के पहले पहर में कुमार सचिव उपकोषा से मिलने आ धमका. उपकोषा ने कहा - मैं किसी पुरुष को तभी छूती हूँ, जब वह मेरे पास स्नान करके आये. तो आप पहले स्नान कर लीजिये. वह मूर्ख तुरंत स्नान के लिए तैयार हो गया. दासियाँ उसे घर के भीतरी भाग में ले गयी जहाँ अँधेरा था और काजल में सना कपडा उसके बदन पर अच्छी तरह पोतती रहीं और काजल उसके तन पर लगाती रहीं. वह समझता रहा कि उसे सुगन्धित उबटन लगाया जा रहा है. यही करते करते रात का दूसरा पहर हो गया और पुरोहित आ पहुंचा. दासियों ने कुमारसचिव से कहा - यह हमारे स्वामी वररुचि का मित्र पुरोहित आ गया, तुम यहाँ छिप कर चुपचाप बैठ जाओ - यह कह कर उन्होंने उसे संदूक में उतार कर संदूक बंद कर दिया. यही गति पुरोहित और दंडाधिप की भी हुई - तीनों उस संदूक में बंद हो गए. उनकी देह एक दूसरे को छू रही थी, पर वे भय से चुप थे.

रात के चौथे पहर में हिरण्यगुप्त वणिक आ गया. दिया जला कर स्नानागार तक ला कर उपकोषा ने उससे कहा - पहले मेरे पति का दिया हुआ धन मुझे लौटा दो.

हिरण्यगुप्त ने देखा कि वहां एकदम एकांत है, तो वह बोला - मैंने कह तो दिया मेरी सेवा करो तो तुम्हारे पति की धरोहर में से मैं तुम्हें धन देता रहूँगा.

उपकोषा ने वहां रखी हुई संदूक की ओर मुह करके ऊँचे स्वर में कहा - सुनो देवताओं, इस हिरण्यगुप्त वाणिक का वचन सुनो यह कह कर उसने दीपक बुझा दिया और दासियों से वणिक को स्नान कराने के लिए कहा. दासियों ने वणिक को उसी तरह काजल में लिपटा, चिथड़ा पहनाया और उबटन के बहाने अच्छी तरह काजल उसके तन पर लपेट दिया.

यह करते करते सवेरा हो गया और दासियों ने उससे कहा - अब प्रातः काल हो गया, तुम जाओ. वणिक आनाकानी करने लगा, तो दासियों ने उसे धक्का दे कर घर से बाहर कर दिया. काजल में सना, फटा चिथड़ा लपेटे और काजल से पुते देह वाला वणिक पाटलिपुत्र के राजमार्ग पर प्रातः निकला. कुत्ते भौंकते हुए उसे काटने को दौड़ रहे थे. किसी तरह वह घर पहुंचा और अपने सेवकों से देह में पुता काजल धुलवाने लगा. लाज के कारण वह उन सेवकों के आगे आँख नहीं उठा पा रहा था.

इधर उपकोषा ने एक दासी को साथ लिया और राजा नन्द के महल में गुहार करने जा पहुंची. उसने राजा से कहा कि हिरण्यगुप्त नामक बनिया मेरे पति के निक्षेप का धन हड़पना चाहता है. राजा ने तुरंत वणिक को बुलाया. उसने राजा से कहा - महाराज, मेरे पास वररुचि  कोई धरोहर रख के नहीं गया.

उपकोषा ने कहा - महाराज, मेरे गृहदेव, जो एक संदूक में बंद हैं, इस बात के साक्षी हैं. आप अपने सेवकों को भेज कर मेरे घर से संदूक उठवा लीजिये, देव गवाही देंगे.

राजा को बड़ा कौतुक हुआ. उसने संदूक मंगवाया. उपकोषा ने संदूक के सामने ऊँचे स्वर में कहा - हे देवो, बताओ इस बनिए के पास मेरे पति की धरोहर का धन है या नहीं, यदि तुम नहीं बताओगे तो इस भरी सभा में संदूक खोल कर मैं तुम्हारे दर्शन राजा को करा दूंगी. संदूक में बंद तीनों लोग डर के मरे एक साथ बोले - 'उपकोषा सच कहती है, हिरण्यगुप्त वणिक के पास  वररुचि धन रख कर गया है.

संदूक के भीतर से आते स्वर से राजा नन्द बड़ा चकित हुआ और उसने अर्गला तुडवा कर संदूक खुलवाया. अँधेरे के पिंडों की तरह तीन पुरुष उसमे से बाहर निकले. बड़ी कठिनाई से वे तीनों उस भरी राजसभा में पहचाने गए और उनकी जगहंसाई हुई.

राजा के पूछने पर उपकोषा ने सारा वृतांत सुनाया. राजा ने उसकी बड़ी प्रशंसा की और कहा कि आज से तुम मेरी बहिन हो. इसके साथ ही कुमारसचिव, दंडाधिप तथा पुरोहित की  संपत्ति जब्त करके राजा ने तीनों को देश निकाला दे दिया.

इसके बाद इन सारी घटनाओं का पता हमारे गुरु वर्ष और मेरे ससुर उपवर्ष को चला, तो उन्होंने उपकोषा की बुद्धिमत्ता को बहुत सराहा. सारे नगर में उपकोषा की जयजयकार होने लगी.


पाठक गण ये कथा यहीं समाप्त होती है. नमस्कार !

गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

पाटलिपुत्र की कथा

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nअनामिका

सभी सुधी पाठकों को अनामिका का सादर प्रणाम ! पिछले दो अंकों में हमने कथासरित्सागर से शिव-पार्वती जी की कथा और वररुचि की कथा पढ़ी..और मैंने अगली कड़ी में पाटलिपुत्र नगर की कथा प्रस्तुत करने का वायदा करके आपसे विदा ली थी तो लीजिये प्रस्तुत है पाटलिपुत्र की कथा जिसे आज हम पटना के नाम से जानते हैं.....

पिछले अंक – १. कथासरित्सागर : शिव- पार्वती प्रसंग  २. वररुचि की कथा

पाटलिपुत्र की कथा

(वररुचि ने काणभूति से कहा)- उपाध्याय वर्ष ने सारा ज्ञान तो हमें दिया ही, उसके साथ उन्होंने हमें अनेक कथाएं भी सुनाई थीं.उनमे से एक कथा पाटलिपुत्र नगर के निर्माण की है, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ.

गंगाद्वार(हरिद्वार) में कनखल नाम का पावन तीर्थस्थल है, जहाँ से इंद्र के हाथी एरावत ने उशीनर पहाड़ के शिखर को तोड़ कर गंगा की धरा पर उतारा था. उसी कनखल में  एक ब्राह्मण ने तप कर के तीन पुत्र प्राप्त किये. वे तीनो पुत्र अपने माता-पिता के स्वर्ग सिधारने के पश्चात विद्या अध्ययन के लिए राजगृह पहुंचे. राजगृह में विद्या अध्ययन करके वे दक्षिण की ओर चल पड़े और वहां कुमार कार्तिकेय का उन्होंने दर्शन किया. इसके पश्चात् वे समुद्रतट पर बसी चिंचिनी नामक नगरी में पहुंचे और वहां भोजिक नाम के एक ब्राह्मण के घर रहने लगे. उस ब्राह्मण के तीन कन्याएँ थीं. उसने इन तीनो को उपयुक्त वर मान कर अपनी उन कन्याओं से तीनो ब्राह्मण कुमारों का विवाह कर दिया और स्वयं गंगाद्वार की ओर चला गया. वे ब्राह्मणकुमार अपने श्वसुर के घर में रहने लगे.

कुछ समय बाद उस नगरी में सूखा पड़ जाने से भीषण अकाल हो गया. तब घबरा कर वे तीनों ब्राह्मण अपनी पत्नियों को छोड़ कर भाग गए. उनकी पत्नियाँ घर में अकेली रह गयी. उन तीनों में मंझली बहन गर्भवती थी. वे तीनों विपत्ति के समय में अपने पिता के एक मित्र यज्ञदत्त के घर चली आई और किसी तरह अपने शील व् चरित्र की रक्षा करती हुई तथा अपने अपने पतियों का ध्यान करती हुई बहुत कष्ट में जीवन बिताने लगीं.

कुछ समय बीतने पर मंझली बहिन ने एक पुत्र को जन्म दिया. तीनों बहनें बच्चे के प्रति अत्यधिक ममता से भर उठीं और अपना स्नेह उस पर उड़ेलने लगीं.

एक बार वे तीनों उस बच्चे को अपने अपने अंकों में बारी-बारी से खिला रही थीं और वात्सल्य से गदगद हो रही थीं, उसी समय आकाश में भगवान शिव और पार्वती विहार करने को निकले. कुमार कार्तिकेय की माता पार्वती ने भगवान शिव के अंक में बैठ कर धरती का यह अनुपम दृश्य देखा. देख कर वे आह्लादित हुई, उच्छवासित हुई, और भगवान शिव से बोलीं - देखिये,देखिये तो भगवन, ये तीनों बहनें उस बच्चे को कैसे स्नेह से खिला रही हैं, लाड़ कर रही हैं. उन्हें विश्वास है कि यह दुधमुहाँ  बच्चा बड़ा होकर उनका लालन-पालन करेगा, उनकी देखभाल करेगा. भगवन, अब आप इन दुखियारी नारियों पर दया कीजिये. कुछ ऐसा कर दीजिये कि यह बच्चा आगे चल कर अपनी इन दुखियारी माताओं का पालन-पोषण कर सके.

शिव मुस्कुराये ! बोले - कहने की आवश्यकता ही नहीं है देवी ! इस बच्चे ने पिछले जन्म में अपनी पत्नी के साथ मेरी बड़ी अराधना की है. इसकी पत्नी थी पाटली. इस समय वह राजा महेंद्र वर्मा की बेटी है. इस जन्म में भी वह फिर इसकी पत्नी होगी. तुम कह रही हो, तो मैं इन दुखियारी माताओं को कुछ आश्वासन तो अभी दिए देता हूँ.

भगवन शिव पार्वती से ऐसा कह रहे थे, तभी धरती पर रात हो गयी. तीनों बहनें उस बच्चे को अपने अंक में लिपटाए हुए सो गयी और तीनों ने एक साथ एक एक सपना देखा. सपने में वे देखती हैं कि साक्षात भगवान् शिव उनसे कह रहे हैं कि तुम अपने इस बच्चे से बार-बार पुत्रक, पुत्रक ऐसा कहती हो, तो यह पुत्रक नाम से ही प्रसिद्द होगा. प्रतिदिन इसके सिरहाने एक लाख स्वर्णमुद्रा मिलती रहेंगी और आगे चल कर यह राजा बनेगा.

समय बीतता गया. पुत्रक बड़ा होने लगा. एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन मिलती रहीं. माताएं बहुत आनंदित होती रहीं. सुख के दिन लौट आये. पुत्रक राजा बना. वह प्रतिदिन बहुत सी स्वर्णमुद्राएँ दान में दे देता था. धीरे धीरे उसकी ख्याति चारों  ओर फैलने लगी. धीरे धीरे ये बात उसके भागे हुए पिता तथा पितृव्यों तक भी पहुंची और वे अपनी ससुराल में लौट आये. कुछ दिन तो वे अपने पुत्र की अतुल संपत्ति का उपभोग करते हुए सुख से रहे, पर धीरे धीरे उनके मन में फिर पाप सामने आने लगा. वे राजा पुत्रक को मार कर उसका राज्य हड़पने की इच्छा से उसे विंध्यवासिनी देवी के दर्शन कराने के बहाने वहां ले गए. मंदिर के भीतर उन्होंने बधिकों को तैनात कर दिया और पुत्रक को पहले देवी के दर्शन करने भेज दिया. बधिक उसकी हत्या करने को उद्यत हुए, तो उसने बधिकों से पूछा कि तुम लोग मुझे क्यों मार रहे हो ? बधिकों ने कहा - तुम्हारे पिता और पितृव्यों ने हमें सोना देकर तुम्हारी हत्या के काम में हमें नियोजित किया है. पुत्रक ने कहा - मैं तुम्हें सारे अमूल्य आभूषण दे देता हूँ. तुम लोग मुझे छोड़ दो. मैं किसी से कुछ न कहूँगा और यहाँ से चला जाऊंगा.

बधिकों ने उसकी बात मान ली. उन्होंने पुत्रक के पिता और पितृव्यों से झूठ कह दिया कि हमने पुत्रक को मार डाला है. वे लोग संतुष्ट होकर चिन्चनी नगरी लौट आये, पर पुत्रक के मंत्रियों को उन पर संदेह हुआ और मंत्रियों ने उन तीनों को मरवा डाला.

इधर पुत्रक संसार से विरक्त हो कर विन्ध्य के गहन वन में चला गया. वहां घुमते हुए उसे दो राक्षसों को बाहुयुद्ध के लिए कमर कसे हुए देखा. उसने राक्षसों से पूछा - तुम लोग कौन हो और क्यों लड़ना चाहते हो ?

राक्षसों ने कहा - हम दोनों मयासुर के लड़के हैं. हमारे पास पैतृक धन के रूप में एक पात्र, एक लाठी और दो खडाऊं हैं. हम दोनों में जो बलवान होगा, वह इस धन को प्राप्त करेगा. इसलिए अब हम अपने इस धन के लिए युद्ध करने वाले हैं.

पुत्रक को उनकी बात सुन कर हंसी आ गयी और उसने कहा - बस इतने से धन के लिए तुम दोनों भाई एक दूसरे को मारने पर उतर आये ?

राक्षसों ने कहा - ये सामान्य वस्तुए नहीं हैं, जिनके लिए हम लड़ रहे हैं. लाठी से जो लिख दिया जाता है वो सत्य हो जाता है. पात्र में जिस प्रकार के भोजन का ध्यान करें, वह उसमे भर जाता है और खडाऊं पहन कर मनुष्य आकाशाचारी  बन जाता है.

यह सुन कर पुत्रक ने कहा - इन वस्तुओं के लिए परस्पर युद्ध करके किसी के प्राण लेना तुम लोगों के लिए उचित नहीं है. तुम दोनों में से दौड़ने में जो आगे रहे, वह तीनों वस्तुए ले ले.वे दोनों राक्षस उसकी बात मान कर दौड़ पड़े. जैसे ही वे दौड़े पुत्रक ने उनकी लाठी और पात्र हाथ मे उठाये और खदाउ पहन कर आकाश में उड़ गया. दोनो राक्षस बुद्धू बन गये.

पुत्रक आकाश में उड़ कर नीचे उतरा, और एकांत में एक जर्जर मकान को देख कर उसमें चला गया. वहाँ उसने एक बूढ़ी स्त्री को देखा. उसने बुढ़िया को कुछ धन दिया और उसके मकान मे छुप कर रहने लगा.

एकबार बातचीत करते हुए बुढ़िया उससे बोली - बेटा मैं चाहती हूँ कि तेरे लिए कोई अच्छी सी बहू मिल जाए. इस राज्य के राजा की कन्या बड़ी सुंदर है.वह तेरे ही योग्य है, पर उसे रनिवास में बड़े कड़े पहरे में रखा जाता है.

बुढ़िया की बातें सुन-सुन कर पुत्रक के मन में उस राज्य की राजकुमारी पाटली के प्रति अनुराग उत्पन्न हो गया और वह ख़ड़ाऊ पहन कर आकाश मार्ग से रनिवास मे घुस गया. पर्वत के शिखर के समान उँचे महल मे उसने खिड़की से भीतर जाकर रात के समय एकांत मे सोई हुई पाटली को देखा. खिड़की से आती चांदनी उस पर पड़ रही थी और वह थक कर सोयी हुई कामदेव की मूर्तीमती शक्ति जैसी लगती थी.

पुत्रक ने धीरे से उसे आलिंगन करके जगा दिया. पहले तो पाटली अचानक उसे सामने देख कर लज्जित और चकित रह गयी. फिर धीरे धीरे दोनों में बातचीत हुई, बात बढ़ी और दोनों ने गन्धर्व विवाह कर लिया. फिर दोनों प्रतिदिन रात में मिलने लगे.

कुछ दिनों बाद पाटली के तन पर कुछ चिन्ह देख कर रनिवास के पहरेदारों ने राजा को खबर की. राजा ने एक चतुर स्त्री को राजकुमारी की निगरानी के लिए नियुक्त कर दिया. उस स्त्री ने पुत्रक को रात में राजकुमारी से मिलते देखा और चोरी से पुत्रक के वस्त्रों पर महावर से चिन्ह बना दिए.

अगले दिन राजा के सैनिकों ने खोजते खोजते वस्त्रों पर लगे महावर के चिन्हों के द्वारा पुत्रक को पहचान कर पकड़ लिया और राजा के सामने प्रस्तुत किया. राजा को अपने ऊपर कुपित जान कर पुत्रक ने खडाऊं पहनी और आकाश में उड़ गया. वह सीधा रनिवास पहुंचा और पाटली से बोला तुम्हारे पिता को हमारा रहस्य पता चल गया है, आओ हम आकाश में उड़ चलें.

पाटली उसके साथ चलने को तुरंत तैयार हो गयी और वह उसे अंक में उठाये हुए उड़ता उड़ता गंगा के किनारे पहुंचा. यहाँ दोनों सुख से रहने लगे. पुत्रक अपनी प्रिया पाटली को अपने पास के दिव्य पात्र से मनोवांछित भोजन कराता. पाटली ने गंगा के तट पर निवास करने की इच्छा प्रकट की, तो उसने लाठी से वहां एक नगर लिख दिया. तत्काल पाटलिपुत्र नगर बस गया.

ये प्रसंग यहीं समाप्त होता है.

नमस्कार !

गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

वररुचि की कथा

कथासरित्सागर-2

पिछले अंक – १. कथासरित्सागर : शिव- पार्वती प्रसंग

164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nअनामिका

आप सब को नमन करते हुए अनामिका  एक बार फिर हाज़िर है आपके समक्ष कथासरित्सागर की पिछली कड़ी को जोड़ते हुए....पिछले अंक में शिव-पार्वती प्रसंग में शिव जी पार्वती जी को कथा सुनाते हैं जिसे शिवजी के गण पुष्पदंत योगशक्ति से अदृश्य हो वह कथा सुन लेते हैं और पार्वती क्रोधवश पुष्पदंत और उसके मित्र माल्यवान को मनुष्य योनी का श्राप देती हैं जिससे पुष्पदंत मृत्युलोक यानि धरती पर जाकर पाटलिपुत्र के राजा नन्द का मंत्री वररूचि  बन गया है, जहाँ उसे शाप-मुक्ति के उपाय हेतु सुप्रतीक नामक यक्ष, जो कि काणभूति के नाम से जाना जाता है, को यही कहानी सुनानी है और माल्यवान को काणभूति से यह कथा सुनकर मनुष्य योनी में इसका प्रचार करना है तभी इनकी मुक्ति संभव है. अब यहाँ से आगे ...

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वररुचि के मुंह से बृहत्कथा सुन कर पिशाच योनी में विंध्य के बीहड़ में रहने वाला यक्ष काणभूति शाप से मुक्त हुआ और उसने वररुचि की प्रशंसा करते हुए कहा - आप तो शिव के अवतार प्रतीत होते हैं. शिव के अतिरिक्त ऐसी कथाएं और कौन सुना सकता है ? यदि गोपनीय न हो, तो आप अपनी कथा भी मुझे सुनाइये. वररुचि ने कहा - सुनो  काणभूति, मैं तुम्हें अपनी रामकहानी भी सुना देता हूँ....

कौशाम्बी में सोमदत्त नामक ब्राह्मण रहते थे. वसुदत्ता उनकी पत्नी थी. ये ही मेरे पिता और माता हैं. मेरे शैशव में ही पिता का स्वर्गवास हो गया. माता ने बड़े कष्ट उठा कर मुझे पाला.

एक बार की बात है. दो बटोही हमारे घर आये. दोनों ब्राह्मण थे और बड़ी दूर से चल कर आ रहे थे. थके होने से हमने उन्हें अपने घर ठहरा  लिया. रात का समय था. दूर से मृदंग की थाप सुनाई दी. सुनते ही मेरी माँ की आँखे आंसुओं से डबडबा आई और उसने मुझसे कहा - बेटा, ये तुम्हारे पिता के मित्र नन्द हैं. ये बड़े अच्छे नर्तक हैं. गाँव में इनका नर्तन हो रहा है.

मैं तो बच्चा ही था. उल्लासित हो बोला - माँ मैं नन्द चाचा का नर्तन देखने जाता हूँ. फिर तुमको उनके अभिनय के सारे संवाद अक्षरशः सुनाऊंगा और उनका नर्तन भी वैसा का वैसा ही करके दिखाऊंगा. हम दोनों माँ-बेटे की बातचीत दोनों अभ्यागत सुन रहे थे. उनमें से एक ने बड़े कौतुक से पूछा - माता, यह बालक क्या कह रहा है ?

मेरी माता ने कहा - मेरा बेटा वररुचि विलक्षण बुद्धि वाला है. एक बार जो भी देख और सुन लेता है, वैसा का वैसा ही यह तुरत याद कर लेता है. मेरी परीक्षा लेने के लिए उस ब्राह्मण ने वैदिक व्याकरण का एक पाठ मेरे आगे बोला. मैंने सुना और जस का तस दोहरा दिया.

तब तो वह ब्राह्मण मेरी माँ के चरणों पर गिर पड़ा और बोला - माता, मैं व्याड़ी हूँ. यह मेरा मित्र इन्द्रदत्त है. हम दोनों ऐसे ही विलक्षण बुद्धि वाले व्यक्ति को खोज रहे हैं. आपके घर आकर हमारा जन्म सफल हो गया.

मेरी माँ के पूछने पर व्याड़ी ने अपना वृतांत इस प्रकार बताया - बेतस नामक नगर में देवस्वामी और करम्भक नामक दो ब्रह्मण भाई रहते थे. उनमे से एक का पुत्र मैं व्याड़ी हूँ और दूसरे का यह इन्द्रदत्त है. मेरे पिता तो मेरे जन्म के बाद ही चल बसे और उनके दुख में कुछ समय बाद इन्द्रदत्त के पिता ने भी देह त्याग दिया. पतियों के ना रहने पर हम दोनों की माताएं भी शोक में घुल-घुल कर चल बसीं. हम दोनों अनाथ हो गए. इधर उधर भटकने लगे. धन हमारे पास बहुत था, विद्या नहीं थी. तो हम दोनों ने कुमार कार्तिकेय की अराधना की. एक दिन कार्तिकेय ने हमें स्वप्न में दर्शन दिए और बताया की पाटलिपुत्र नामक नगर में, जहाँ राजा नन्द राज्य करता है वर्ष (वर्ष व्याकरण में पाणिनि गुरु के रूप में माने जाते हैं) नामक एक ब्राह्मण रहता है, उससे हम दोनों को विद्या मिल सकती है. हम दोनों पाटलिपुत्र पहुंचे. बहुत पूछताछ करने पर लोगो ने बताया की वर्ष नाम का कोई मूर्ख रहता तो इस  नगर में है. जिस ढंग से पाटलिपुत्र के लोगों ने वर्ष का नाम लिया, उससे तो हमारा मन ही डूब गया. अस्तु, किसी तरह वर्ष के घर का पता लगाकर हम वहां पहुंचे. वर्ष  का घर चूहों की बिलों से भरा हुआ था. उसकी दीवारें ढ़हने को थीं और छप्पर तो लगभग उड़ ही गया था. उसी घर में वर्ष ध्यान लगाये बैठे थे. उनकी पत्नी ने हमारा आतिथ्य किया. वह मूर्तिमती दुर्गति के समान लगती थी. धूसर देह, कृष काया और फटे पुराने कपडे. हमने उसे अपने आने का प्रयोजन बताया तो उसने कहा - तुम लोग मेरे बेटे जैसे हो. मैं तुम्हें अपनी कथा सुनाती हूँ.

वर्ष की पत्नी ने अपनी कहानी इस प्रकार बताई - इसी पाटलिपुत्र नगर में शंकरस्वामी नामक ब्राह्मण रहता था. उसके दो पुत्र हुए, एक था मेरा पति वर्ष और दूसरे उपवर्ष. मेरे पति मूर्ख और दरिद्र निकल गए, जबकि छोटे भाई उपवर्ष बड़े विद्वान् और धनी थे. एक बार वर्षा का समय था. स्त्रियाँ इस ऋतु में गुड़ और आटे की पीठी से गुप्तांगों की मूर्तियाँ बनाकर हंसी हंसी में मूर्ख ब्राह्मणों को दान देते हैं. यह कुत्सित रीति यहाँ चली आ रही है. मेरी देवरानी को और कोई ब्राह्मण नहीं मिला, तो उसने अपना जुगुप्सित दान अपने जेठ अर्थात मेरे ही पति देव को दे दिया और ये मूर्खराज प्रसन्न हो कर उसे घर भी ले आये. देवरानी के इस अपमानजनक व्यवहार से तो मेरे तन में आग लग गयी और मैंने अपने पति को खूब फटकारा. इन्हें भी अपनी मूर्खता और अज्ञान पर बहुत पछतावा हुआ और ये कुमार कार्तिकेय की अराधना करने लगे. कुमार कार्तिकेय ने इन्हें वरदान दिया कि तुम्हें सारी विद्याएँ प्रकाशित हो जाएँगी पर तुम्हें अपना सारा ज्ञान किसी श्रुतधर (एक बार में सुनकर पूरा याद कर लेने वाले) को ही सबसे पहले बताना होगा.

इतनी कथा सुनकर वर्ष की पत्नी ने हम दोनों (व्याड़ी और इन्द्रदत्त)से कहा - तो पुत्रो, यदि तुम्हें मेरे पतिदेव से सारा ज्ञान अर्जित करना है, तो किसी श्रुतधर को खोजो. ये अपनी विद्या केवल उसी को बता सकते हैं, अन्य किसी को नहीं.

वर्ष की पत्नी की बात सुन कर हमने सबसे पहले तो उसे सौ स्वर्ण मुद्राएँ दी, जिससे उसकी दरिद्रता कुछ समय के लिए दूर हो सके. तब से हम किसी श्रुतधर बालक की खोज कर रहे हैं.

(वररुचि ने काणभूति से कहा) - व्याड़ी तथा इन्द्रदत्त की इतनी कथा सुन कर मेरी माँ ने कहा - पुत्रों मेरे इस बेटे वररुचि के जन्म के समय आकाशवाणी हुई थी कि यह वर्ष नामक उपाध्याय से सारी विद्याएँ प्राप्त करेगा. इतने वर्षों से मैं तो स्वयं इस चिंता में घुली जा रही हूँ कि वर्ष नाम के गुरु मेरे बेटे को कब और कहाँ मिलेंगे. तुम लोगो ने मेरी चिंता दूर कर दी. तुम इसे ले जाओ.

(वररुचि ने काणभूति से कहा) - तब व्याड़ी और इन्द्रदत्त ने मेरी माँ को भी प्रचुर धन दिया और मुझे ले कर पाटलिपुत्र में वर्ष गुरुदेव के पास पहुंचे.

मैं, व्याड़ी तथा इन्द्रदत्त- तीनो उपाध्याय वर्ष के सामने पवित्र भूमि पर बैठे. वर्ष सारे शास्त्र बोलते चले गए और मैं एक बार सुन कर सब याद करता गया. व्याड़ी में किसी भी शास्त्र को दो बार सुन कर याद कर लेने की योग्यता थी और इन्द्रदत्त तीन बार सुन कर याद रख सकता था. मैं एक बार सुन कर स्मरण किये हुए शास्त्र को बाद में उन दोनों के सामने सुनाता, तो वे शास्त्र पहले व्याड़ी को याद हो जाते, फिर व्याड़ी उन्हें इन्द्रदत्त को सुनाता, तो तीसरी बार सुन लेने से इन्द्रदत को भी वे याद होते जाते. फिर क्या था, सारे पाटलिपुत्र में वर्ष के अद्भुत शास्त्रज्ञान और उसके साथ हमारी योग्यता की भी धूम मच गयी. समूह के समूह ब्राह्मण महाज्ञानी वर्ष के दर्शन के लिए आने लगे और जब यह सारी बात राजा नन्द को विदित हुई, तो उन्होंने वर्ष के घर को धन-धान्य से भर दिया.

पाठक गण ये कथा यहीं समाप्त होती है....अगली कड़ी में पाटलिपुत्र नगर की कथा प्रस्तुत की जाएगी.

नमस्कार.

गुरुवार, 8 दिसंबर 2011

कथासरित्सागर : शिव- पारवती प्रसंग

कथासरित्सागर: शिव- पार्वती  प्रसंग
164323_156157637769910_100001270242605_331280_1205394_nअनामिका
आदरणीय पाठक वृन्द को अनामिका का सादर प्रणाम !  महादेवीजी के जीवन वृत्तांत के समाप्त होने के बाद आज मैं एक बार फिर से हाज़िर हूँ आपके सामने एक नए विषय और नई सामग्री के साथ. आप सब ने कथासरित्सागर  के बारे में तो सुना होगा. वास्तव में कथासरित्सागर विश्व कथा साहित्य को भारत की अनूठी देन है. कथासरित्सागर को गुणाढय की बृहत्कथा भी कहा जाता है.  यह  सबसे पहले प्राकृत भाषा में लिखी गयी थी. बृहत्कथा संस्कृत साहित्य की परंपरा को सर्वाधिक प्रभावित करने वाला ग्रन्थ है.  गुणाढय को वाल्मीकि और व्यास के समान ही आदरणीय भी माना है.
बृहत्कथा  भारतीय कथा परंपरा का महाकोश है. मिथक और इतिहास, यथार्थ और फंतासी, सचाई और इंद्रजाल का अनूठा संगम इसमें हुआ है. कथासरित्सागर की कहानियों में अनेक अद्भुत नारी चारित्र भी हैं और इतिहास प्रसिद्द नायकों की कथाएं भी हैं. भारतीय समाज जितनी विविधता और बहुरंगी छटा में यहाँ प्रस्तुत है, उतना अन्य किसी प्राचीन कथाग्रंथ में नहीं मिलता. कथासरित्सागर कथाओं की ऐसी मंजूषा प्रस्तुत करता है, जिसमें एक बड़ी मंजूषा के भीतर दूसरी, दूसरी को खोलने पर तीसरी निकल आती है. मूल  कथा में अनेक कथाओं को समेट लेने की यह पद्धति रोचक भी है और जटिल भी. मुझे विश्वास है कि जटिलता और विस्तार के इस कथासरित्सागर की कहानियां जो मैं यहाँ हर वृहष्पतिवार आपके समक्ष लाने का प्रयास करुँगी, ये  आप सब के लिए हमारी भारतीय परंपरा को नए सिरे से समझने में सहायक होंगी. 
साथियो, ऐसा भी हो सकता है प्रस्तुत की जाने वाली कथाओं में से कुछ कथाएं आप सब गुणी जनों  की नज़रों से हो कर निकली हों, फिर भी मैं एक नयी शुरुआत करने की कोशिश कर रही हूँ अगर आपको पसंद आये तो इसे आगे भी श्रृंखलाबद्ध करती रहूंगी...वर्ना इसे बंद कर दिया जायेगा.   तो चलिए आज श्री गणेश करती हूँ शिव- पारवती जी के प्रसंग से....
- पार्वती ने देखा कि आज शिव प्रसन्न हैं. बहुत हंस-हंस कर बोल रहे हैं. तो उन्होंने फिर वही अनुरोध दोहरा दिया - हमें कोई सुंदर सी कथा सुनाइये न भगवन ! ऐसी कथा जो किसी ने ना सुनी हो. किसी को न आती हो. कितने दिनों से कह रही हूँ आप से. आप बस टाल देते हैं.
शिव मुस्कुराये ! फिर ध्यानमग्न हो गए.  बात तो सच थी. उमा कितने ही वर्षों से कहती आ रही हैं. कथा ऐसी हो कि मन लगा रहे. बड़ी भी हो. इतनी बड़ी कि सुनते-कहते गणनातीत समय निकल जाए. फिर कथा ऐसी भी हो कि किसी न किसी से आज तक न कही हो, न किसी ने किसी से सुनी हो.
शिव समाधि में डूबे और विद्याधरों की कथाएं एक एक कर उनके चित्त में प्रकाशित होने लगीं.
- यह क्या ? अब तो आप सुन भी नहीं रहे हैं. - उन्हें मौन देखकर पार्वती ने तुनक कर कहा.
- शिव की समाधि भंग हुई. वे हँसे. फिर बोले - चलो आज कथा सुना ही देते हैं.
- आप जब तब कथा जैसी कथा सुना देते हैं, वैसी नहीं. हमें आपसे बड़ी कथा सुननी है.
- हाँ, हाँ. बृहत्कथा सुनायेंगे. अब तो प्रसन्न हो.
- और जो किसी को न आती हो - शिव ने फिर हंस कर दोहराया.
- किसी को नहीं सुनने दूंगी. अकेली मैं ही सुनूंगी. पार्वती ने हठ किया.
पार्वती के हठ के आगे भला भगवान शिव की चल सकती थी ? पार्वती को साथ लेकर वे कैलाश पर्वत की अपनी गुफा में बैठे तो बैठे ही रह गए. वे कथा सुनाते गए, सुनाते गए. पार्वती सुनती रहीं.  दोनों को ध्यान ही नहीं रहा कि कितना समय बीत गया. दिन पर दिन, महीने पर महीने, बरस पर बरस. कथा ऐसी कि समाप्त होने को ना आये.  गुफा के द्वार पर नंदी पहरा देते रहे. किसी को भीतर आने की अनुमति नहीं.
इस तरह पार्वती ने शिव से बृहत्कथा सुनी. सुन कर वे तृप्त हुई, मुदित हुई.
एक बार पार्वती जया, विजया आदि के बीच बैठी थीं. उनके जी में आया कि शंकर के मुख से सुनी कथा इन लोगों को भी सुना दें. वे बोलीं - चलो, मैं तुम लोगों को ऐसी कथा सुनाती हूँ, जो आज तक मेरे अतिरिक्त किसी ने नहीं सुनी है. - और वे बृहत्कथा सुनाने लगीं.
जया ने बीच में टोक कर कहा - देवी, यह कथा तो मेरी सुनी हुई है. और वह पार्वती को आगे की कथा बताने लगी.
पार्वती पहले तो स्तब्ध रह गयी. फिर विस्फारित नेत्रों से जया को ताकने लगीं. - तुझे यह कथा आती है ? - डूबते स्वर में उन्होंने जया से पूछा.
हाँ ! यह कथा मैंने अपने पति पुष्पदंत से सुनी है.
पार्वती की आँखें क्रोध से लाल हो उठीं. ओठ कांपने लगे. ऐसा क्यों किया भगवान शिव ने ? उन्होंने यही कथा पुष्पदंत को क्यों सुना दी ?
वे उठीं और आंधी की तरह भगवान शिव के सामने जा पहुंची. क्रोध और अपमान से रुंआसे स्वर में उन्होंने भगवान् से कहा - यह आपने क्या किया ? आपने वह कथा अपने गणों को भी सुनाई है. ऐसा आपने क्यों किया ?
मैंने ? मैंने तो वह कथा तुम्हारे अतिरिक्त कभी किसी को नहीं सुनाई.
वह कथा तो सबको विदित है. पुष्पदंत ने जया को वही कथा सुनाई.
इर्ष्या से उमा की भौहें टेढ़ी हो गयी थीं. शिव मुग्ध हो कर उस ओर ताकते रह गए.
फिर हंस कर बोले - हमने अपने किसी गण को कभी भी बृहत्कथा नहीं सुनाई. नंदी से कहो सारे गणों को हमारे समक्ष उपस्थित करें.
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भय से थर थर कांपते पुष्पदंत ने सारे गणों की उपस्थिति में भगवान के आगे अपना अपराध स्वीकार कर लिया. जब भगवान देवी को कथा सुनाने का उपक्रम कर रहे थे, तभी वह उनके दर्शन के लिए पहुंचा था. नंदी ने गुफा में जाने का निषेध किया था. तब वह अद्भुत कथा सुनने के लोभ से योगशक्ति से अदृश्य हो कर गुफा में जा छिपा और उसने पूरी कथा सुन ली. और फिर जया को उसने वही कथा सुनाई.
- नीच तेरा यह साहस ! - पार्वती के नेत्रों से चिंगारियां छूटने लगीं.
पुष्पदंत की घिग्घी बंध गयी. उसके मित्र माल्यवान ने साहस किया और आगे बढ़ कर उमा भगवती के चरणों पर माथा रख दिया फिर कहा - इस मूर्ख ने कौतुहलवश यह घृष्टता कर डाली है माँ ! इसका पहला अपराध क्षमा करें.
- अच्छा, तो तू इसका पक्ष ले रहा है. मैं तुम दोनों को शाप देती हूँ - तुम दोनों मनुष्य योनी में जा गिरो. जाओ !
शिव चुपचाप बैठे मुस्कुराते रहे. पार्वती और अपने गणों के बीच वे कुछ नहीं बोले.
पति को शाप मिलने की बात सुन जया दौड़ी हुई आई और रो-रो कर पार्वती से दया की भीख मांगने लगी. दोनों शापग्रस्त गणों ने भी माता के चरणों पर माथा टेक दिया.
आखिर पार्वती  द्रवित हुई. शापमुक्ति का उपाय बताते हुए उन्होंने कहा - सुप्रतीक नामक एक यक्ष शापग्रस्त हो कर कानभूति के नाम से विन्ध्य  के वन में पिशाच बन कर रहता है. सुनो पुष्पदंत, जब मनुष्य योनी में तुम उसे यही कथा सुना दोगे, तो तुम्हारी शापमुक्ति हो जाएगी. यह  माल्यवान उस काणभूति से यह कथा सुनकर मनुष्योनी में इसका प्रचार करेगा, तब इसकी भी मुक्ति होगी.
पुष्पदंत और माल्यवान उसी क्षण मनुष्य योनी में जा गिरे.
बहुत समय बीत गया. पार्वती  के मन में कचोट होती रहती थी कि नाहक तनिक सी बात पर उन्होंने अपने पति के प्रिय सेवकों को मृत्यु लोक में निर्वासित कर दिया. एक दिन उन्होंने भगवान् शिव से पूछ ही लिया - उन दोनों गणों का क्या हुआ भगवन - पुष्पदंत और माल्यवान का ? वे लौट कर कैलाश कब आयेंगे ?
शिव फिर मुस्कुराये . कहा - पहले तो शाप दे दिया, अब करुणा से द्रवित हो रही हो. पर हमें अच्छा लगा. धरती पर जा कर हमारा पुष्पदंत तो बहुत बड़ा व्यक्ति बन गया.
अच्छा ! चकित होकर पार्वती ने विस्फारित नयनों से उन्हें निहारते हुए कहा - क्या बन गया वह ?
वह देखो - शिव ने धरती की ओर बहुत नीचे दिखाते हुए कहा - उस व्यक्ति को देख रही हो ?
वहां ? विन्ध्य के वन में ? कौन है वह ?
वह पुष्पदंत है. वह पाटलिपुत्र के राजा नन्द का मंत्री वररूचि  बन गया है. और वह उस शापग्रस्त यक्ष के पास तुम्हारी प्रिय कथाएं सुनाने जा रहा है. यह वररूचि कात्यायन के नाम से भी जाना जाता है. यह व्याकरण का पंडित बन गया है.
साथियो ! यह कथा यहीं समाप्त होती है. अगली श्रृंखला में वररूचि  की कथा को क्रमबद्ध किया जायेगा.
नमस्कार.