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शनिवार, 28 जुलाई 2012

मूठ / मुंशी प्रेमचंद


इस महीने की 31 तारीख को प्रेमचन्द जी का जन्मदिन है और यह पूरा मास हम “राजभाषा हिंदी” ब्लॉग टीम की तरफ़ से प्रेमचन्द जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के ऊपर कुछ पोस्ट ला रहे हैं। इसी कड़ी में आज प्रस्तुत है मुंशी प्रेम चंद की कहानी

मूठ 


डॉक्टर जयपाल ने प्रथम श्रेणी की सनद पायी थी, पर इसे भाग्य ही कहिए या व्यावसायिक सिद्धान्तों का अज्ञान कि उन्हें अपने व्यवसाय में कभी उन्नत अवस्था न मिली। उनका घर सँकरी गली में था; पर उनके जी में खुली जगह में घर लेने का विचार तक न उठा। औषधालय की आलमारियाँ, शीशियाँ और डाक्टरी यंत्र आदि भी साफ-सुथरे न थे। मितव्ययिता के सिद्धांत का वह अपनी घरेलू बातों में भी बहुत ध्यान रखते थे।
लड़का जवान हो गया था, पर अभी उसकी शिक्षा का प्रश्न सामने न आया था। सोचते थे कि इतने दिनों तक पुस्तकों से सर मार कर मैंने ऐसी कौन-सी बड़ी सम्पत्ति पा ली, जो उसके पढ़ाने-लिखाने में हजारों रुपये बर्बाद करूँ। उनकी पत्नी अहल्या धैर्यवान महिला थी, पर डॉक्टर साहब ने उसके इन गुणों पर इतना बोझ रख दिया था कि उसकी कमर भी झुक गयी थी। माँ भी जीवित थी, पर गंगास्नान के लिए तरस-तरस कर रह जाती थी; दूसरे पवित्र स्थानों की यात्र की चर्चा ही क्या ! इस क्रूर मितव्ययिता का परिणाम यह था कि इस घर में सुख और शांति का नाम न था। अगर कोई मद फुटकल थी तो वह बुढ़िया महरी जगिया थी। उसने डॉक्टर साहब को गोद में खिलाया था और उसे इस घर से ऐसा प्रेम हो गया था कि सब प्रकार की कठिनाइयाँ झेलती थी, पर टलने का नाम न लेती थी।
डॉक्टर साहब डाक्टरी आय की कमी को कपड़े और शक्कर के कारखानों में हिस्से लेकर पूरा करते थे। आज संयोगवश बम्बई के कारखाने ने उनके पास वार्षिक लाभ के साढ़े सात सौ रुपये भेजे। डॉक्टर साहब ने बीमा खोला, नोट गिने, डाकिये को विदा किया, पर डाकिये के पास रुपये अधिक थे, बोझ से दबा जाता था। बोला हुजूर रुपये ले लें और मुझे नोट दे दें तो बड़ा अहसान हो, बोझ हलका हो जाय। डॉक्टर साहब डाकियों को प्रसन्न रखा करते थे, उन्हें मुफ्त दवाइयाँ दिया करते थे। सोचा कि हाँ, मुझे बैंक जाने के लिए ताँगा मँगाना ही पड़ेगा, क्यों न बिन कौड़ी के उपकार वाले सिद्धांत से काम लूँ। रुपये गिन कर एक थैली में रख दिये और सोच ही रहे थे कि चलूँ उन्हें बैंक में रखता आऊँ कि एक रोगी ने बुला भेजा। ऐसे अवसर यहाँ कदाचित् ही आते थे। यद्यपि डॉक्टर साहब को बक्स पर भरोसा न था, पर विवश हो कर थैली बक्स में रखी और रोगी को देखने चले गये। वहाँ से लौटे तो तीन बज चुके थे, बैंक बंद हो चुका था। आज रुपये किसी तरह जमा न हो सकते थे। प्रतिदिन की भाँति औषधालय में बैठ गये। आठ बजे रात को जब घर के भीतर जाने लगे, तो थैली को घर ले जाने के लिए बक्स से निकाला, थैली कुछ हलकी जान पड़ी, तत्काल उसे दवाइयों के तराजू पर तौला, होश उड़ गये। पूरे पाँच सौ रुपये कम थे। विश्वास न हुआ। थैली खोल कर रुपये गिने। पाँच सौ रुपये कम निकले। विक्षिप्त अधीरता के साथ बक्स के दूसरे खानों को टटोला परंतु व्यर्थ। निराश होकर एक कुरसी पर बैठ गये और स्मरण-शक्ति को एकत्र करने के लिए आँखें बँद कर दीं और सोचने लगे, मैंने रुपये कहीं अलग तो नहीं रखे, डाकिये ने रुपये कम तो नहीं दिये, मैंने गिनने में भूल तो नहीं की, मैंने पचीस-पचीस रुपये की गड्डियाँ लगायी थीं, पूरी तीस गड्डियाँ थीं, खूब याद है। मैंने एक-एक गड्डी गिन कर थैली में रखी, स्मरण-शक्ति मुझे धोखा नहीं दे रही है। सब मुझे ठीक-ठीक याद है। बक्स का ताला भी बंद कर दिया था, किंतु ओह, अब समझ में आ गया, कुंजी मेज पर ही छोड़ दी, जल्दी के मारे उसे जेब में रखना भूल गया, वह अभी तक मेज पर पड़ी है। बस यही बात है, कुंजी जेब में डालने की याद नहीं रही, परंतु ले कौन गया, बाहर दरवाजे बंद थे। घर में धरे रुपये-पैसे कोई छूता नहीं, आज तक कभी ऐसा अवसर नहीं आया। अवश्य यह किसी बाहरी आदमी का काम है। हो सकता है कि कोई दरवाजा खुला रह गया हो, कोई दवा लेने आया हो, कुंजी मेज पर पड़ी देखी हो और बक्स खोल कर रुपये निकाल लिये हों।
इसी से मैं रुपये नहीं लिया करता, कौन ठिकाना डाकिये की ही करतूत हो, बहुत सम्भव है, उसने मुझे बक्स में थैली रखते देखा था। रुपये जमा हो जाते तो मेरे पास पूरे ... हजार रुपये हो जाते, ब्याज जोड़ने में सरलता होती। क्या करूँ। पुलिस को खबर दूँ ? व्यर्थ बैठे-बिठाये उलझन मोल लेनी है। टोले भर के आदमियों की दरवाजे पर भीड़ होगी। दस-पाँच आदमियों को गालियाँ खानी पड़ेंगी और फल कुछ नहीं ! तो क्या धीरज धर कर बैठ रहूँ ? कैसे धीरज धरूँ ! यह कोई सेंतमेंत मिला धन तो था नहीं, हराम की कौड़ी होती तो समझता कि जैसे आयी, वैसे गयी। यहाँ एक-एक पैसा अपने पसीने का है। मैं जो इतनी मितव्ययिता से रहता हूँ, इतने कष्ट से रहता हूँ, कंजूस प्रसिद्ध हूँ, घर के आवश्यक व्यय में भी काट-छाँट करता हूँ, क्या इसीलिए कि किसी उचक्के के लिए मनोरंजन का सामान जुटाऊँ ? मुझे रेशम से घृणा नहीं, न मेवे ही अरुचिकर हैं, न अजीर्ण का रोग है कि मलाई खाऊँ और अपच हो जाय, न आँखों में दृष्टि कम है कि थियेटर और सिनेमा का आनन्द न उठा सकूँ। मैं सब ओर से अपने मन को मारे रहता हूँ, इसीलिए तो कि मेरे पास चार पैसे हो जायँ, काम पड़ने पर किसी के आगे हाथ फैलाना न पड़े। कुछ जायदाद ले सकूँ, और नहीं तो अच्छा घर ही बनवा लूँ। पर इस मन मारने का यह फल ! गाढ़े परिश्रम के रुपये लुट जायँ। अन्याय है कि मैं यों दिनदहाड़े लुट जाऊँ और उस दुष्ट का बाल भी टेढ़ा न हो। उसके घर दीवाली हो रही होगी, आनंद मनाया जा रहा होगा, सब-के-सब बगलें बजा रहे होंगे।
डॉक्टर साहब बदला लेने के लिए व्याकुल हो गये। मैंने कभी किसी फकीर को, किसी साधु को, दरवाजे पर खड़ा होने नहीं दिया। अनेक बार चाहने पर भी मैंने कभी मित्रों को अपने यहाँ निमंत्रित नहीं किया, कुटुम्बियों और संबंधियों से सदा बचता रहा, क्या इसीलिए ? उसका पता लग जाता तो मैं एक विषैली सुई से उसके जीवन का अंत कर देता।
किन्तु कोई उपाय नहीं है। जुलाहे का गुस्सा दाढ़ी पर। गुप्त पुलिसवाले भी बस नाम ही के हैं, पता लगाने की योग्यता नहीं। इनकी सारी अक्ल राजनीतिक व्याख्यानों और झूठी रिपोर्टों के लिखने में समाप्त हो जाती है। किसी मेस्मेरिजम जानने वाले के पास चलूँ, वह इस उलझन को सुलझा सकता है। सुनता हूँ, यूरोप और अमेरिका में बहुधा चोरियों का पता इसी उपाय से लग जाता है। पर यहाँ ऐसा मेस्मेरिजम का पंडित कौन है और फिर मेस्मेरिजम के उत्तर सदा विश्वसनीय नहीं होते। ज्योतिषियों के समान वे भी अनुमान और अटकल के अनंत सागर में डुबकियाँ लगाने लगते हैं। कुछ लोग नाम भी तो निकालते हैं। मैंने कभी उन कहानियों पर विश्वास नहीं किया, परन्तु कुछ न कुछ इसमें तत्त्व है अवश्य, नहीं तो इस प्रकृति-उपासना के युग में इनका अस्तित्व ही न रहता। आजकल के विद्वान् भी तो आत्मिक बल का लोहा मानते जाते हैं, पर मान लो किसी ने नाम बतला ही दिया तो मेरे हाथ में बदला चुकाने का कौन-सा उपाय है, अंतर्ज्ञान साक्षी का काम नहीं दे सकता। एक क्षण के लिए मेरे जी को शांति मिल जाने के सिवाय और इनसे क्या लाभ है ?
हाँ, खूब याद आया। नदी की ओर जाते हुए वह जो एक ओझा बैठता है, उसके करतब की कहानियाँ प्रायः सुनने में आती हैं। सुनता हूँ, गये हुए धन का पता बतला देता है, रोगियों को बात की बात में चंगा कर देता है, चोरी के माल का पता लगा देता है, मूठ चलाता है। मूठ की बड़ी बड़ाई सुनी है, मूठ चली और चोर के मुँह से रक्त जारी हुआ, जब तक वह माल न लौटा दे रक्त बन्द नहीं होता। यह निशाना बैठ जाय तो मेरी हार्दिक इच्छा पूरी हो जाय ! मुँहमाँगा फल पाऊँगा। रुपये भी मिल जायँ, चोर को शिक्षा भी मिल जाय ! उसके यहाँ सदा लोगों की भीड़ लगी रहती है। इसमें कुछ करतब न होता तो इतने लोग क्यों जमा होते ? उसकी मुखाकृति से एक प्रतिभा बरसती है। आजकल के शिक्षित लोगों को तो इन बातों पर विश्वास नहीं है, पर नीच और मूर्ख-मंडली में उसकी बहुत चर्चा है। भूत-प्रेत आदि की कहानियाँ प्रतिदिन ही सुना करता हूँ। क्यों न उसी ओझे के पास चलूँ ? मान लो कोई लाभ न हुआ तो हानि ही क्या हो जायगी। जहाँ पाँच सौ गये हैं, दो-चार रुपये का खून और सही। यह समय भी अच्छा है। भीड़ कम होगी, चलना चाहिए।
जी में यह निश्चय करके डॉक्टर साहब उस ओझे के घर की ओर चले, जाड़े की रात थी। नौ बज गये थे। रास्ता लगभग बन्द हो गया था। कभी-कभी घरों से रामायण की ध्वनि कानों में आ जाती थी। कुछ देर के बाद बिलकुल सन्नाटा हो गया। रास्ते के दोनों ओर हरे-भरे खेत थे। सियारों का हुँआना सुन पड़ने लगा। जान पड़ता है इनका दल कहीं पास ही है। डॉक्टर साहब को प्रायः दूर से इनका सुरीला स्वर सुनने का सौभाग्य हुआ था। पास से सुनने का नहीं। इस समय इस सन्नाटे में और इतने पास से उनका चीखना सुन कर उन्हें डर लगा। कई बार अपनी छड़ी धरती पर पटकी, पैर धमधमाये। सियार बड़े डरपोक होते हैं, आदमी के पास नहीं आते; पर फिर संदेह हुआ, कहीं इनमें कोई पागल हो तो उसका काटा तो बचता ही नहीं। यह संदेह होते ही कीटाणु, बैक्टिरिया, पास्टयार इन्स्टिच्यूट और कसौली की याद उनके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगी। वह जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाये चले जाते थे। एकाएक जी में विचार उठा कहीं मेरे ही घर में किसी ने रुपये उठा लिये हों तो। वे तत्काल ठिठक गये, पर एक ही क्षण में उन्होंने इसका भी निर्णय कर लिया, क्या हर्ज है घरवालों को तो और भी कड़ा दंड मिलना चाहिए। चोर की मेरे साथ सहानुभूति नहीं हो सकती, पर घरवालों की सहानुभूति का मैं अधिकारी हूँ। उन्हें जानना चाहिए कि मैं जो कुछ करता हूँ उन्हीं के लिए करता हूँ। रात-दिन मरता हूँ तो उन्हीं के लिए मरता हूँ। यदि इस पर भी वे मुझे यों धोखा देने के लिए तैयार हों तो उनसे अधिक कृतघ्न, उनसे अधिक अकृतज्ञ, उनसे अधिक निर्दय और कौन होगा ? उन्हें और भी कड़ा दंड मिलना चाहिए। इतना कड़ा, इतना शिक्षाप्रद कि फिर कभी किसी को ऐसा करने का साहस न हो।
अंत में वे ओझे के घर के पास जा पहुँचे। लोगों की भीड़ न थी। उन्हें बड़ा संतोष हुआ। हाँ, उनकी चाल कुछ धीमी पड़ गयी। फिर जी में सोचा, कहीं यह सब ढकोसला ही ढकोसला हो तो व्यर्थ लज्जित होना पड़े। जो सुने, मूर्ख बनाये। कदाचित् ओझा ही मुझे तुच्छबुद्धि समझे। पर अब तो आ गया, यह तजरबा भी हो जाय। और कुछ न होगा तो जाँच ही सही। ओझा का नाम बुद्धू था। लोग चौधरी कहते थे। जाति का चमार था। छोटा-सा घर और वह भी गन्दा। छप्पर इतनी नीची थी कि झुकने पर भी सिर में टक्कर लगने का डर लगता था। दरवाजे पर एक नीम का पेड़ था। उसके नीचे एक चौरा। नीम के पेड़ पर एक झंडी लहराती थी। चौरा पर मिट्टी के सैकड़ों हाथी सिंदूर से रँगे हुए खड़े थे। कई लोहे के नोकदार त्रिशूल भी गड़े थे, जो मानो इन मंदगति हाथियों के लिए अंकुश का काम दे रहे थे। दस बजे थे। बुद्धू चौधरी जो एक काले रंग का तोंदीला और रोबदार आदमी था, एक फटे हुए टाट पर बैठा नारियल पी रहा था। बोतल और गिलास भी सामने रखे हुए।
बुद्धू ने डॉक्टर साहब को देख कर तुरंत बोतल छिपा दी और नीचे उतर कर सलाम किया। घर से एक बुढ़िया ने मोढ़ा ला कर उनके लिए रख दिया। डॉक्टर साहब ने कुछ झेंपते हुए सारी घटना कह सुनायी। बुद्धू ने कहा हुजूर, यह कौन बड़ा काम है। अभी इसी इतवार को दारोगाजी की घड़ी चोरी गयी थी, बहुत कुछ तहकीकात की, पता न चला। मुझे बुलाया। मैंने बात की बात में पता लगा दिया। पाँच रुपये इनाम दिये। कल की बात है, जमादार साहब की घोड़ी खो गयी थी। चारों तरफ दौड़ते फिरते थे। मैंने ऐसा पता बता दिया कि घोड़ी चरती हुई मिल गयी। इसी विद्या की बदौलत हुजूर हुक्काम सभी मानते हैं।
डॉक्टर को दारोगा और जमादार की चर्चा न रुची। इन सब गँवारों की आँखों में जो कुछ है, वह दारोगा और जमादार ही हैं। बोले मैं केवल चोरी का पता लगाना नहीं चाहता, मैं चोर को सजा देना चाहता हूँ।
बुद्धू ने एक क्षण के लिए आँखें बंद कीं, जमुहाइयाँ लीं, चुटकियाँ बजायीं और फिर कहा यह घर ही के किसी आदमी का काम है।
डॉक्टर कुछ परवाह नहीं, कोई हो।
बुढ़िया पीछे से कोई बात बने या बिगड़ेगी तो हजूर हमीं को बुरा कहेंगे।
डॉक्टर इसकी तुम कुछ चिंता न करो, मैंने खूब सोच-विचार लिया है ! बल्कि अगर घर के किसी आदमी की शरारत है तो मैं उसके साथ और भी कड़ाई करना चाहता हूँ। बाहर का आदमी मेरे साथ छल करे तो क्षमा के योग्य है, पर घर के आदमी को मैं किसी प्रकार क्षमा नहीं कर सकता।
बुद्धू तो हुजूर क्या चाहते हैं ?
डॉक्टर बस यही कि मेरे रुपये मिल जायँ और चोर किसी बड़े कष्ट में पड़ जाय।
बुद्धू मूठ चला दूँ ?
बुढ़िया ना बेटा, मूठ के पास न जाना। न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े।
डॉक्टर तुम मूठ चला दो, इसका जो कुछ मेहनताना और इनाम हो, मैं देने को तैयार हूँ।
बुढ़िया बेटा, मैं फिर कहती हूँ, मूठ के फेर में मत पड़। कोई जोखम की बात आ पड़ेगी तो वही बाबूजी फिर तेरे सिर होंगे और तेरे बनाये कुछ न बनेगी। क्या जानता नहीं, मूठ का उतार कितना कठिन है ?
बुद्धू हाँ बाबू जी ! फिर एक बार अच्छी तरह सोच लीजिए। मूठ तो मैं चला दूँगा, लेकिन उसको उतारने का जिम्मा मैं नहीं ले सकता।
डॉक्टर अभी कह तो दिया, मैं तुमसे उतारने को न कहूँगा, चलाओ भी तो।
बुद्धू ने आवश्यक सामान की एक लम्बी तालिका बनायी। डॉक्टर साहब ने सामान की अपेक्षा रुपये देना अधिक उचित समझा। बुद्धू राजी हो गया। डॉक्टर साहब चलते-चलते बोले ऐसा मंतर चलाओ के सबेरा होते-होते चोर मेरे सामने माल लिये हुए आ जाय।
बुद्धू ने कहा आप निसाखातिर रहें।
डॉक्टर साहब वहाँ से चले तो ग्यारह बजे थे। जाड़े की रात, कड़ाके की ठंड थी। उनकी माँ और स्त्री दोनों बैठी हुई उनकी राह देख रही थीं। उन्होंने जी को बहलाने के लिए बीच में एक अँगीठी रख ली थी, जिसका प्रभाव शरीर की अपेक्षा विचार पर अधिक पड़ता था। यहाँ कोयला विलास्य पदार्थ समझा जाता था। बुढ़िया महरी जगिया वहीं फटा टाट का टुकड़ा ओढ़े पड़ी थी। वह बार-बार उठ कर अपनी अँधेरी कोठरी में जाती, आले पर कुछ टटोल कर देखती और फिर अपनी जगह पर आ कर पड़ रहती। बार-बार पूछती, कितनी रात गयी होगी। जरा भी खटका होता तो चौंक पड़ती और चिंतित दृष्टि से इधर-उधर देखने लगती। आज डॉक्टर साहब ने नियम के प्रतिकूल क्यों इतनी देर लगायी, इसका सबको आश्चर्य था। ऐसे अवसर बहुत कम आते थे कि उन्हें रोगियों को देखने के लिए रात को जाना पड़ता हो। यदि कुछ लोग उनकी डाक्टरी के कायल भी थे, तो वे रात को उस गली में आने का साहस न करते थे। सभा-सोसाइटियों में जाने को उन्हें रुचि न थी। मित्रों से भी उनका मेल-जोल न था। माँ ने कहा जाने कहाँ चला गया, खाना बिलकुल पानी हो गया।
अहल्या आदमी जाता है तो कह कर जाता है, आधी रात से ऊपर हो गयी।
माँ कोई ऐसी ही अटक हो गयी होगी, नहीं तो वह कब घर से बाहर निकलता है ?
अहल्या मैं तो अब सोने जाती हूँ, उनका जब जी चाहे आयें। कोई सारी रात बैठा पहरा देगा।
यही बातें हो रही थीं कि डॉक्टर साहब घर आ पहुँचे। अहल्या सँभल बैठी; जगिया उठकर खड़ी हो गयी और उनकी ओर सहमी हुई आँखों से ताकने लगी। माँ ने पूछा आज कहाँ इतनी देर लगा दी ?
डॉक्टर तुम लोग तो सुख से बैठी हो न ! हमें देर हो गयी, इसकी तुम्हें क्या चिंता ! जाओ, सुख से सोओ, इन ऊपरी दिखावटी बातों से मैं धोखे में नहीं आता। अवसर पाओ तो गला काट लो, इस पर चली हो बात बनाने !
माँ ने दुःखी हो कर कहा बेटा ! ऐसी जी दुखाने वाली बातें क्यों करते हो ? घर में तुम्हारा कौन बैरी है जो तुम्हारा बुरा चेतेगा ?
डॉक्टर मैं किसी को अपना मित्र नहीं समझता, सभी मेरे बैरी हैं, मेरे प्राणों के ग्राहक हैं ! नहीं तो क्या आँख ओझल होते ही मेरी मेज से पाँच सौ रुपये उड़ जायँ, दरवाजे बाहर से बंद थे, कोई ग़ैर आया नहीं, रुपये रखते ही उड़ गये। जो लोग इस तरह मेरा गला काटने पर उतारू हों, उन्हें क्योंकर अपना समझूँ। मैंने खूब पता लगा लिया है, अभी एक ओझे के पास से चला आ रहा हूँ। उसने साफ कह दिया कि घर के ही किसी आदमी का काम है। अच्छी बात है, जैसी करनी वैसी भरनी। मैं भी बता दूँगा कि मैं अपने बैरियों का शुभचिंतक नहीं हूँ। यदि बाहर का आदमी होता तो कदाचित् मैं जाने भी देता। पर जब घर के आदमी जिनके लिए रात-दिन चक्की पीसता हूँ, मेरे साथ ऐसा छल करें तो वे इसी योग्य हैं कि उनके साथ जरा भी रिआयत न की जाय। देखना सबेरे तक चोर की क्या दशा होती है। मैंने ओझे से मूठ चलाने को कह दिया है। मूठ चली और उधर चोर के प्राण संकट में पड़े।
जगिया घबड़ा कर बोली भइया, मूठ में जान जोखम है।
डॉक्टर चोर की यही सजा है।
जगिया किस ओझे ने चलाया है ?
डॉक्टर बुद्धू चौधरी ने।
जगिया अरे राम, उसकी मूठ का तो उतार ही नहीं।
डॉक्टर अपने कमरे में चले गये, तो माँ ने कहा सूम का धन शैतान खाता है। पाँच सौ रुपया कोई मुँह मार कर ले गया। इतने में तो मेरे सातों धाम हो जाते।
अहल्या बोली कंगन के लिए बरसों से झींक रही हूँ, अच्छा हुआ, मेरी आह पड़ी है।
माँ भला घर में उसके रुपये कौन लेगा ?
अहिल्या किवाड़ खुले होंगे, कोई बाहरी आदमी उड़ा ले गया होगा।
माँ उसको विश्वास क्योंकर आ गया कि घर ही के किसी आदमी ने रुपये चुराये हैं।
अहल्या रुपये का लोभ आदमी को शक्की बना देता है।
रात को एक बजा था। डॉक्टर जयपाल भयानक स्वप्न देख रहे थे। एकाएक अहल्या ने आ कर कहा जरा चल कर देखिए, जगिया का क्या हाल हो रहा है। जान पड़ता है, जीभ ऐंठ गयी। कुछ बोलती ही नहीं, आँखें पथरा गयी हैं।
डॉक्टर चौंक कर उठ बैठे। एक क्षण तक इधर-उधर ताकते रहे; मानो सोच रहे थे, यह भी स्वप्न तो नहीं है। तब बोले क्या कहा ! जगिया को क्या हो गया ?
अहल्या ने फिर जगिया का हाल कहा। डॉक्टर के मुख पर हलकी-सी मुस्कराहट दौड़ गयी। बोले चोर पकड़ा गया ! मूठ ने अपना काम किया।
अहल्या और जो घर ही के किसी आदमी ने ले लिये होते ?
डॉक्टर तो उसकी भी यही दशा होती, सदा के लिए सीख जाता।
अहल्या पाँच सौ रुपये के पीछे प्राण ले लेते ?
डॉक्टर पाँच सौ रुपये के लिए नहीं, आवश्यकता पड़े तो पाँच हजार खर्च कर सकता हूँ, केवल छल-कपट का दंड देने के लिए।
अहल्या बड़े निर्दयी हो।
डॉक्टर तुम्हें सिर से पैर तक सोने से लाद दूँ तो मुझे भलाई का पुतला समझने लगो, क्यों ? खेद है कि मैं तुमसे यह सनद नहीं ले सकता।
यह कहते हुए वह जगिया की कोठरी में गये। उनकी हालत उससे कहीं अधिक खराब थी जो अहल्या ने बतायी थी। मुख पर मुर्दनी छायी हुई थी, हाथ-पैर अकड़ गये थे, नाड़ी का पता न था। उसकी माँ उसे होश में लाने के लिए बार-बार उसके मुँह पर पानी के छींटे दे रही थी। डॉक्टर ने यह हालत देखी तो होश उड़ गये। उन्हें अपने उपाय की सफलता पर प्रसन्न होना चाहिए था। जगिया ने रुपये चुराये इसके लिए अब अधिक प्रमाण की आवश्यकता न थी; परंतु मूठ इतनी जल्दी प्रभाव डालने वाली और घातक वस्तु है, इसका उन्हें अनुमान भी न था। वे चोर को एड़ियाँ रगड़ते, पीड़ा से कराहते और तड़पते देखना चाहते थे। बदला लेने की इच्छा आशातीत सफल हो रही थी; परंतु वहाँ नमक की अधिकता थी, जो कौर को मुँह के भीतर धँसने नहीं देती। यह दुःखमय दृश्य देख कर प्रसन्न होने के बदले उनके हृदय पर चोट लगी। रोब में हम अपनी निर्दयता और कठोरता का भ्रममूलक अनुमान कर लिया करते हैं। प्रत्यक्ष घटना विचार से कहीं अधिक प्रभावशालिनी होती है। रणस्थल का विचार कितना कवित्वमय है। युद्धावेश का काव्य कितनी गर्मी उत्पन्न करने वाला है। परंतु कुचले हुए शव के कटे हुए अंग-प्रत्यंग देख कर कौन मनुष्य है, जिसे रोमांच न हो आवे। दया मनुष्य का स्वाभाविक गुण है।
इसके अतिरिक्त इसका उन्हें अनुमान न था कि जगिया जैसी दुर्बल आत्मा मेरे रोष पर बलिदान होगी। वह समझते थे, मेरे बदले का वार किसी सजीव मनुष्य पर होगा; यहाँ तक कि वे अपनी स्त्री और लड़के को भी इस वार के योग्य समझते थे। पर मरे को मारना, कुचले को कुचलना, उन्हें अपना प्रतिघात मर्यादा के विपरीत जान पड़ा। जगिया का यह काम क्षमा के योग्य था। जिसे रोटियों के लाले हों, कपड़ों को तरसे, जिसकी आकांक्षा का भवन सदा अंधकारमय रहा हो, जिसकी इच्छाएँ कभी पूरी न हुई हों, उसकी नीयत बिगड़ जाय तो आश्चर्य की बात नहीं। वे तत्काल औषधालय में गये, होश में लाने की जो अच्छी-अच्छी औषधियाँ थीं, उनको मिला कर एक मिश्रित नयी औषधि बना लाये, जगिया के गले में उतार दी। कुछ लाभ न हुआ। तब विद्युत यंत्र ले आये और उसकी सहायता से जगिया को होश में लाने का यत्न करने लगे। थोड़ी ही देर में जगिया की आँखें खुल गयीं। उसने सहमी हुई दृष्टि से डॉक्टर को देखा, जैसे लड़का अपने अध्यापक की छड़ी की ओर देखता है, और उखड़े हुए स्वर में बोली हाय राम, कलेजा फुँका जाता है, अपने रुपये ले ले, आले पर एक हाँड़ी है, उसी में रखे हुए हैं। मुझे अंगारों से मत जला। मैंने तो यह रुपये तीरथ करने के लिए चुराये थे। क्या तुझे तरस नहीं आता, मुट्ठी भर रुपयों के लिए मुझे आग में जला रहा है, मैं तुझे ऐसा काला न समझती थी, हाय राम !
यह कहते-कहते वह फिर मूर्छित हो गयी, नाड़ी बंद हो गयी, ओठ नीले पड़ गये, शरीर के अंगों में खिंचाव होने लगा। डॉक्टर ने दीन भाव से अहल्या की ओर देखा और बोले मैं तो अपने सारे उपाय कर चुका, अब इसे होश में लाना मेरी सामर्थ्य के बाहर है। मैं क्या जानता था कि यह अभागी मूठ इतनी घातक होती है। कहीं इसकी जान पर बन गयी तो जीवन भर पछताना पड़ेगा। आत्मा की ठोकरों से कभी छुटकारा न मिलेगा। क्या करूँ, बुद्धि कुछ काम नहीं करती।
अहल्या सिविल सर्जन को बुलाओ, कदाचित् वह कोई अच्छी दवा दे दे। किसी को जान-बूझ कर आग में ढकेलना न चाहिए।
डॉक्टर सिविल सर्जन इससे अधिक और कुछ नहीं कर सकता, जो मैं कर चुका। हर घड़ी इसकी दशा और गिरती जाती है, न जाने हत्यारे ने कौन-सा मंत्र चला दिया। उसकी माँ मुझे बहुत समझाती रही, पर मैंने क्रोध में उसकी बातों की जरा भी परवाह न की।
माँ बेटा, तुम उसी को बुलाओ जिसने मंत्र चलाया है; पर क्या किया जायगा। कहीं मर गयी तो हत्या सिर पर पड़ेगी। कुटुम्ब को सदा सतायेगी।
दो बज रहे थे, ठंडी हवा हड्डियों में चुभी जाती थी। डॉक्टर लम्बे पाँवों बुद्धू चौधरी के घर की ओर चले जाते थे। इधर-उधर व्यर्थ आँखें दौड़ाते थे कि कोई इक्का या ताँगा मिल जाय। उन्हें मालूम होता था कि बुद्धू का घर बहुत दूर हो गया। कई बार धोखा हुआ, कहीं रास्ता तो नहीं भूल गया। कई बार इधर आया हूँ, यह बाग तो कभी नहीं मिला, लेटर-बक्स भी सड़क पर कभी नहीं देखा, यह पुल तो कदापि न था, अवश्य राह भूल गया। किससे पूछूँ। वे अपनी स्मरण-शक्ति पर झुँझलाये और उसी ओर थोड़ी दूर तक दौड़े। पता नहीं, दुष्ट इस समय मिलेगा भी या नहीं, शराब में मस्त पड़ा होगा। कहीं इधर बेचारी चल न बसी हो। कई बार इधर-उधर घूम जाने का विचार हुआ पर अंतःप्रेरणा ने सीधी राह से हटने न दिया। यहाँ तक कि बुद्धू का घर दिखाई पड़ा। डॉक्टर जयपाल की जान में जान आयी। बुद्धू के दरवाजे पर जा कर जोर से कुण्डी खटखटायी। भीतर से कुत्ते ने असभ्यतापूर्ण उत्तर दिया, पर किसी आदमी का शब्द न सुनायी दिया। फिर ज़ोर-ज़ोर से किवाड़ खटखटाये, कुत्ता और भी तेज पड़ा, बुढ़िया की नींद टूटी। बोली यह कौन इतनी रात गये किवाड़ तोड़े डालता है ?
डॉक्टर मैं हूँ, जो कुछ देर हुई तुम्हारे पास आया था।
बुढ़िया ने बोली पहचानी, समझ गयी इनके घर के किसी आदमी पर बिपत पड़ी, नहीं तो इतनी रात गये क्यों आते; पर अभी तो बुद्धू ने मूठ चलाई नहीं। उसका असर क्योंकर हुआ, समझाती थी तब न माने। खूब फँसे। उठकर कुप्पी जलायी और उसे लिये बाहर निकली। डॉक्टर साहब ने पूछा बुद्धू चौधरी सो रहे हैं। जरा उन्हें जगा दो।
बुढ़िया न बाबू जी, इस बखत मैं न जगाऊँगी, मुझे कच्चा ही खा जायगा, रात को लाट साहब भी आवें तो नहीं उठता।
डॉक्टर साहब ने थोड़े शब्दों में पूरी घटना कह सुनायी और बड़ी नम्रता के साथ कहा कि बुद्धू को जगा दे। इतने में बुद्धू अपने ही आप बाहर निकल आया और आँखें मलता हुआ बोला कहिए बाबू जी, क्या हुकुम है।
बुढ़िया ने चिढ़ कर कहा तेरी नींद आज कैसे खुल गयी, मैं जगाने गयी होती तो मारने उठता।
डॉक्टर मैंने सब माजरा बुढ़िया से कह दिया है, इसी से पूछो।
बुढ़िया कुछ नहीं, तूने मूठ चलायी थी, रुपये इनके घर की महरी ने लिये हैं, अब उसका अब-तब हो रहा है।
डॉक्टर बेचारी मर रही है, कुछ ऐसा उपाय करो कि उसके प्राण बच जायँ !
बुद्धू यह तो आपने बुरी सुनायी, मूठ को फेरना सहज नहीं है।
बुढ़िया बेटा, जान जोखिम है, क्या तू जानता नहीं। कहीं उल्टे फेरनेवाले पर ही पड़े तो जान बचना ही कठिन हो जाय।
डॉक्टर अब उसकी जान तुम्हारे ही बचाये बचेगी, इतना धर्म करो।
बुढ़िया दूसरे की जान की खातिर कोई अपनी जान गढ़े में डालेगा ?
डॉक्टर तुम रात-दिन यही काम करते हो, तुम उसके दाँव-घात सब जानते हो। मार भी सकते हो, जिला भी सकते हो। मेरा तो इन बातों पर बिलकुल विश्वास ही न था, लेकिन तुम्हारा कमाल देख कर दंग रह गया। तुम्हारे हाथों कितने ही आदमियों का भला होता है, उस गरीब बुढ़िया पर दया करो।
बुद्धू कुछ पसीजा, पर उसकी माँ मामलेदारी में उससे कहीं अधिक चतुर थी। डरी, कहीं यह नरम हो कर मामला बिगाड़ न दे। उसने बुद्धू को कुछ कहने का अवसर न दिया। बोली यह तो सब ठीक है, पर हमारे भी बाल-बच्चे हैं ! न जाने कैसी पड़े कैसी न पड़े। वह हमारे सिर आवेगी न ? आप तो अपना काम निकाल कर अलग हो जायेंगे। मूठ फेरना हँसी नहीं है।
बुद्धू हाँ बाबू जी, काम बड़े जोखिम का है।
डॉक्टर काम जोखिम का है जो मुफ्त तो नहीं करवाना चाहता।
बुढ़िया आप बहुत देंगे, सौ-पचास रुपये देंगे। इतने में हम कै दिन तक खायेंगे। मूठ फेरना साँप के बिल में हाथ डालना है, आग में कूदना है। भगवान् की ऐसी ही निगाह हो तो जान बचती है।
डॉक्टर तो माता जी, मैं तुमसे बाहर तो नहीं होता हूँ। जो कुछ तुम्हारी मरजी हो वह कहो। मुझे तो उस गरीब की जान बचानी है। यहाँ बातों में देर हो रही है, वहाँ मालूम नहीं, उसका क्या हाल होगा।
बुढ़िया देर तो आप ही कर रहे हैं, आप बात पक्की कर दें तो यह आपके साथ चला जाय। आपकी खातिर यह जोखिम अपने सिर ले रही हूँ दूसरा होता तो झट इनकार कर जाती। आपके मुलाहजे में पड़ कर जान-बूझ कर जहर पी रही हूँ।
डॉक्टर साहब को एक क्षण एक वर्ष जान पड़ रहा था। बुद्धू को उसी समय अपने साथ ले जाना चाहते थे। कहीं उसका दम निकल गया तो यह जा कर क्या बनायेगा। उस समय उनकी आँखों में रुपये का कोई मूल्य न था। केवल यही चिन्ता थी कि जगिया मौत के मुँह से निकल आये। जिस रुपये पर वह अपनी आवश्यकताएँ और घरवालों की आकांक्षाएँ निछावर करते उसे दया के आवेश ने बिलकुल तुच्छ बना दिया था। बोले तुम्हीं बतलाओ, अब मैं क्या कहूँ, पर जो कुछ कहना हो झटपट कह दो।
बुढ़िया अच्छा तो पाँच सौ रुपये दीजिए, इससे कम में काम न होगा।
बुद्धू ने माँ की ओर आश्चर्य से देखा, और डॉक्टर साहब मूर्छित से हो गये, निराशा से बोले इतना मेरे बूते के बाहर है, जान पड़ता है उसके भाग्य में मरना ही बदा है।
बुढ़िया तो जाने दीजिए, हमें अपनी जान भार थोड़े ही है। हमने तो आपके मुलाहिजे से इस काम का बीड़ा उठाया था। जाओ बुद्धू, सोओ।
डॉक्टर बूढ़ी माता, इतनी निर्दयता न करो, आदमी का काम आदमी से निकलता है।
बुद्धू नहीं बाबूजी, मैं हर तरह से आपका काम करने को तैयार हूँ, इसने पाँच सौ कहे, आप कुछ कम कर दीजिए। हाँ, जोखिम का ध्यान रखिएगा।
बुढ़िया तू जा के सोता क्यों नहीं ? इन्हें रुपये प्यारे हैं तो क्या तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है। कल को लहू थूकने लगेगा तो कुछ बनाये न बनेगी, बाल-बच्चों को किस पर छोड़ेगा ? है घर में कुछ ?
डॉक्टर साहब ने संकोच करते हुए ढाई सौ रुपये कहे। बुद्धू राजी हो गया, मामला तय हुआ, डॉक्टर साहब उसे साथ लेकर घर की ओर चले। उन्हें ऐसी आत्मिक प्रसन्नता कभी न मिली थी। हारा हुआ मुकदमा जीत कर अदालत से लौटने वाला मुकदमेबाज भी इतना प्रसन्न न होगा। लपके चले जाते थे। बुद्धू से बार-बार तेज चलने को कहते। घर पहुँचे तो जगिया को बिलकुल मरने के निकट पाया। जान पड़ता था यही साँस अंतिम साँस है। उनकी माँ और स्त्री दोनों आँसू भरे निराश बैठी थीं। बुद्धू को दोनों ने विनम्र दृष्टि से देखा। डॉक्टर साहब के आँसू भी न रुक सके। जगिया की ओर झुके तो आँसू की बूँदें उसके मुरझाये हुए पीले मुँह पर टपक पड़ीं। स्थिति ने बुद्धू को सजग कर दिया, बुढ़िया के देह पर हाथ रखते हुए बोला बाबू जी, अब मेरा किया कुछ नहीं हो सकता, यह दम तोड़ रही है।
डॉक्टर साहब ने गिड़गिडा कर कहा नहीं चौधरी, ईश्वर के नाम पर अपना मंत्र चलाओ, इसकी जान बच गयी तो सदा के लिए मैं तुम्हारा गुलाम बना रहूँगा।
बुद्धू आप मुझे जान-बूझ कर जहर खाने को कहते हैं। मुझे मालूम न था कि मूठ के देवता इस बखत इतने गरम हैं। वह मेरे मन में बैठे कह रहे हैं, तुमने हमारा शिकार छीना तो हम तुम्हें निगल जायेंगे।
डॉक्टर देवता को किसी तरह राजी कर लो।
बुद्धू राजी करना बड़ा कठिन है, पाँच सौ रुपये दीजिए तो इसकी जान बचे। उतारने के लिए बड़े-बड़े जतन करने पड़ेंगे।
डॉक्टर पाँच सौ रुपये दे दूँ तो इसकी जान बचा दोगे ?
बुद्धू हाँ, शर्त बद कर।
डॉक्टर साहब बिजली की तरह लपक कर अपने कमरे में आ गये और पाँच सौ रुपयों की थैली लाकर बुद्धू के सामने रख दी। बुद्धू ने विजय की दृष्टि से थैली को देखा। फिर जगिया का सर अपनी गोद में रखकर उस पर हाथ फेरने लगा। कुछ बुदबुदा कर छू-छू करता जाता था। एक क्षण में उसकी सूरत डरावनी हो गयी, लपटें-सी निकलने लगीं। बार-बार अँगड़ाइयाँ लेने लगा। इसी दशा में एक बेसुरा गाना आरम्भ किया, पर हाथ जगिया के सर पर ही था। अंत में कोई आध घंटा बीतने पर जगिया ने आँखें खोल दीं, जैसे बुझते हुए दीये में तेल पड़ जाय। धीरे-धीरे उसकी अवस्था सुधरने लगी। उधर कौवे की बोली सुनाई दी, जगिया एक अँगड़ाई ले कर उठ बैठी।
सात बजे थे जगिया मीठी नींद सो रही थी; उसकी आकृति निरोग थी, बुद्धू रुपयों की थैली ले कर अभी गया था। डॉक्टर साहब की माँ ने कहा बात-की-बात में पाँच सौ रुपये मार ले गया।
डॉक्टर यह क्यों नहीं कहती कि एक मुरदे को जिला गया। क्या उसके प्राण का मूल्य इतना भी नहीं है।
माँ देखो, आले पर पाँच सौ रुपये हैं या नहीं ?
डॉक्टर नहीं, उन रुपयों में हाथ मत लगाना, उन्हें वहीं पड़े रहने दो। उसने तीरथ करने के वास्ते लिये थे, वह उसी काम में लगेंगे।
माँ यह सब रुपये उसी के भाग के थे।
डॉक्टर उसके भाग के तो पाँच सौ ही थे, बाकी मेरे भाग के थे। उनकी बदौलत मुझे ऐसी शिक्षा मिली, जो उम्र भर न भूलेगी। तुम मुझे अब आवश्यक कामों में मुट्ठी बंद करते हुए न पाओगी।

-- अन्य कहानियाँ .....

शनिवार, 21 जुलाई 2012

लेखक / मुंशी प्रेमचंद


इस महीने की 31 तारीख को प्रेमचन्द जी का जन्मदिन है और यह पूरा मास हम “राजभाषा हिंदी” ब्लॉग टीम की तरफ़ से प्रेमचन्द जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के ऊपर कुछ पोस्ट ला रहे हैं। इसी कड़ी में आज प्रस्तुत है मुंशी प्रेम चंद की कहानी

लेखक 
प्रात:काल महाशय प्रवीण ने बीस दफा उबाली हुई चाय का प्याला तैयार किया और बिना शक्कर और दूध के पी गये। यही उनका नाश्ता था। महीनों से मीठी, दूधिया चाय न मिली थी। दूध और शक्कर उनके लिए जीवन के आवश्यक पदार्थों में न थे। घर में गये जरूर, कि पत्नी को जगाकर पैसे माँगें; पर उसे फटे-मैले लिहाफ़ में निद्रा-मग्न देखकर जगाने की इच्छा न हुई। सोचा, शायद मारे सर्दी के बेचारी को रात भर नींद न आयी होगी, इस वक्त जाकर आँख लगी है। कच्ची नींद जगा देना उचित न था। चुपके से चले आये।
चाय पीकर उन्होंने कलम-दावात सँभाली और किताब लिखने में तल्लीन हो गये, जो उनके विचार में इस शताब्दी की सबसे बड़ी रचना होगी, जिसका प्रकाशन उन्हें गुमनाम से निकालकर ख्याति और समृद्धि के स्वर्ग पर पहुँचा देगा।
आध घण्टे बाद पत्नी आँखें मलती हुई आकर बोली-क्या तुम चाय पी चुके?
प्रवीण ने सहास्य मुख से कहा-हाँ, पी चुका। बहुत अच्छी बनी थी।
‘पर दूध और शक्कर कहाँ से लाये?’
‘दूध और शक्कर तो कई दिन से नहीं मिलता। मुझे आजकल सादा चाय ज्यादा स्वादिष्ट लगती है। दूध और शक्कर मिलाने से उसका स्वाद बिगड़ जाता है। डाक्टरों की भी यही राय है कि चाय हमेशा सादा पीनी चाहिए। योरोप में तो दूध का बिलकुल रिवाज नहीं है। यह तो हमारे यहाँ के मधुर-प्रिय रईसों की ईजाद है।’
‘जाने तुम्हें फीकी चाय कैसे अच्छी लगती है! मुझे जगा क्यों न लिया? पैसे तो रखे थे।’
महाशय प्रवीण फिर लिखने लगे। जवानी ही में उन्हें यह रोग लग गया था, और आज बीस साल से वह उसे पाले हुए थे। इस रोग में देह घुल गयी, स्वास्थ्य घुल गये, और चालीस की अवस्था में बुढ़ापे ने आ घेरा; पर यह रोग असाध्य था। सूर्योदय से आधी रात तक यह साहित्य का उपासक अन्तर्जगत् में डूबा हुआ, समस्त संसार से मुँह मोड़े, हृदय के पुष्प और नैवेद्य चढ़ाता रहता था। पर भारत में सरस्वती की उपासना लक्ष्मी की अभक्ति है। मन तो एक ही था। दोनों देवियों को एक साथ कैसे प्रसन्न करता, दोनों के वरदान का पात्र क्योंकर बनता? और लक्ष्मी की यह अकृपा केवल धनाभाव के रूप में न प्रकट होती थी। उसकी सबसे निर्दय क्रीड़ा यह थी कि पत्रों के सम्पादक और पुस्तकों के प्रकाशक उदारता-पूर्वक सहायता का दान भी न देते थे। कदाचित् सारी दुनिया ने उसके विरुद्ध कोई षड्यन्त्र-सा रच डाला था। यहाँ तक कि इस निरन्तर अभाव ने उसके आत्म-विश्वास को जैसे कुचल दिया था। कदाचित् अब उसे यह ज्ञात होने लगा था, कि उसकी रचनाओं में कोई सार, कोई प्रतिभा नहीं है, और यह भावना अत्यन्त हृदय-विदारक थी। यह दुर्लभ मानव-जीवन यों ही नष्ट हो गया! यह तस्कीन भी नहीं कि संसार ने चाहे उसका सम्मान न किया हो, पर उसकी जीवनकृति इतनी तुच्छ नहीं। जीवन की आवश्यकताएँ घटते-घटते सन्यास की सीमा को भी पार कर चुकी थीं। अगर कोई सन्तोष था, तो उसकी जीवन-सहचरी त्याग और तप में उनसे भी दो कदम आगे थी। सुमित्रा इस दशा में भी प्रसन्न थी। प्रवीणजी को दुनिया से शिकायत हो, पर सुमित्रा जैसे गेंद में भरी हुई वायु की भाँति उन्हें बाहर की ठोकरें से बचाती रहती थी। अपने भाग्य का रोना तो दूर की बात थी, इस देवी ने कभी माथे पर बल भी न आने दिया।
सुमित्रा ने चाय का प्याला समेटते हुए कहा-तो जाकर घण्टा-आध-घण्टा कहीं घूम फिर क्यों नहीं आते? जब मालूम हो गया कि प्राण देकर काम करने से भी कोई नतीजा नहीं, तो व्यर्थ क्यों सिर खपाते हो?
प्रवीण ने बिना मस्तक उठाये, कागज पर कलम चलाते हुए कहा-लिखने में कम-से-कम यह सन्तोष तो होता है कि कुछ कर रहा हूँ। सैर करने में तो मुझे ऐसा जान पड़ता कि समय का नाश कर रहा हूँ।
‘यह इतने पढ़े-लिखे आदमी नित्य-प्रति हवा खाने जाते हैं, तो अपने समय का नाश करते हैं?’
‘मगर इनमें अधिकांश वही लोग हैं, जिनके सैर करने से उनकी आमदनी में बिल्कुल कमी नहीं होती। अधिकांश तो सरकारी नौकर हैं, जिनको मासिक वेतन मिलता है, या तो ऐसे पेशों के लोग हैं, जिनका लोग आदर करते हैं। मैं तो मिल का मजूर हूँ। तुमने किसी मजूर को हवा खाते देखा है? जिन्हें भोजन की कमी नहीं, उन्हीं को हवा खाने की भी जरूरत है। जिनको रोटियों के लाले हैं, वे हवा खाने नहीं जाते। फिर स्वास्थ्य और जीवन-वृद्धि की जरूरत उन लोगों को है जिनके जीवन में आनन्द और स्वाद है। मेरे लिए तो जीवन भार है। इस भार को सिर पर कुछ दिन और बनाये रहने की अभिलाषा मुझे नहीं है।
सुमित्रा निराशा में डूबे हुये शब्द सुनकर आँखों में आँसू भरे अन्दर चली गयी। उसका दिल कहता था, इस तपस्वी की कीर्ति-कौमुदी एक दिन अवश्य फैलेगी। चाहे लक्ष्मी की अकृपा बनी रहे। किन्तु प्रवीण महोदय अब निराशा की उस सीमा तक पहुँच चुके थे, जहाँ से प्रतिकूल दिशा में उदय होने वाली आशामय उषा की लाली भी नहीं दिखाई देती थी।
एक रईस के यहाँ कोई उत्सव है। उसने महाशय प्रवीण को भी निमन्त्रित किया है। आज उनका मन आनन्द के घोड़े पर बैठा हुआ नाच रहा है। सारे दिन वह इसी कल्पना में मग्न रहे। राजा साहब किन शब्दों में उनका स्वागत करेंगे और वह किन शब्दों में उनको धन्यवाद देंगे, किन प्रसंगों पर वार्तालाप होगा, और वहाँ किन महानुभावों से उनका परिचय होगा, सारे दिन वह इन्हीं कल्पनाओं का आनन्द उठाते रहे। इस अवसर के लिए उन्होंने एक कविता भी रची, जिसमें उन्होंने जीवन की एक उद्यान से तुलना की थी। अपनी सारी धारणाओं की उन्होंने आज उपेक्षा कर दी, क्योंकि रईसों के मनोभावों को वह आघात न पहुँचा सकते थे।
दोपहर ही से उन्होंने तैयारियाँ शुरू कीं। हजामत बनायी, साबुन से नहाया, सिर में तेल डाला। मुश्किल कपड़ों की थी। मुद्दत गुजरी, जब उन्होंने एक अचकन बनवाई थी। उसकी दशा भी उन्हीं की दशा जैसी जीर्ण हो चुकी थी। जैसा जरा-सी सर्दी या गर्मी से उन्हें जुकाम या सिरदर्द हो जाता था, उसी तरह वह अचकन भी नाजुक-मिजाज थी। उसे निकाला और झाड़-पोंछकर रखा।
सुमित्रा ने कहा-तुमने व्यर्थ ही यह निमन्त्रण स्वीकार किया। लिख देते, मेरी तबियत अच्छी नहीं है। इन फटेहालों जाना तो और भी बुरा है।
प्रवीण ने दार्शनिक गम्भीरता से कहा-जिन्हें ईश्वर ने हृदय और परख दी है, वे आदमियों की पोशाक नहीं देखते-उनके गुण और चरित्र देखते हैं। आखिर कुछ बात तो है कि राजा साहब ने मुझे निमन्त्रित किया। मैं कोई ओहदेदार नहीं, जमींदार नहीं, जागीरदार नहीं, ठेकेदार नहीं, केवल एक साधारण लेखक हूँ। लेखक का मूल्य उसकी रचनाएँ होती हैं। इस एतबार से मुझे किसी भी लेखक से लज्जित होने का कारण नहीं है।
सुमित्रा उनकी सरलता पर दया करके बोली-तुम कल्पनाओं के संसार में रहते-रहते प्रत्यक्ष संसार से अलग हो गये हो। मैं कहती हूँ, राजा साहब के यहाँ लोगों की निगाह सबसे ज्यादा कपड़ों पर ही पड़ेगी। सरलता जरूर अच्छी चीज है, पर इसका अर्थ यह तो नहीं कि आदमी फूहड़ बन जाए।
प्रवीण को इस कथन में कुछ सार जान पड़ा। विद्वज्जनों की भाँति उन्हें भी अपनी भूलों को स्वीकार करने में कुछ विलम्ब न होता था। बोले-मैं समझता हूँ, दीपक जल जाने के बाद जाऊँ।
‘मैं तो कहती हूँ, जाओ ही क्यों?
‘अब तुम्हें कैसे समझाऊँ, प्रत्येक प्राणी के मन में आदर और सम्मान की एक क्षुधा होती है। तुम पूछोगी, यह क्षुधा क्यों होती है? इसलिए कि यह हमारे आत्मविश्वास की एक मंजिल है। हम उस महान सत्ता के सूक्ष्मांश हैं, जो समस्त ब्रह्माण्ड में व्याप्त हैं। अंश में पूर्ण के गुणों का होना लाजिमी है। इसलिए कीर्ति और सम्मान, आत्मोन्नति और ज्ञान की ओर हमारी स्वाभाविक रुचि है। मैं इस लालसा को बुरा नहीं समझता।’
सुमित्रा ने गला छुड़ाने के लिए कहा-अच्छा भाई, जाओ। मैं तुमसे बहस नहीं करती, लेकिन कल के लिए कोई व्यवस्था करते आना; क्योंकि मेरे पास केवल एक आना और रह गया है। जिनसे उधार मिल सकता था, उनसे ले चुकी और जिससे लिया उसे देने की नौबत नहीं आयी। मुझे तो और अब कोई उपाय नहीं सूझता।
प्रवीण ने एक क्षण के बाद कहा-दो पत्रिकाओं से मेरे लेखों के रुपये आने वाले हैं। शायद कल तक आ जायँ। और अगर कल उपवास ही करना पड़े तो क्या चिन्ता? हमारा धर्म है काम करना। हम काम करते हैं और तन-मन से करते हैं। अगर इस पर भी हमें फाका करना पड़े, तो मेरा दोष नहीं। मर ही तो जाऊँगा। हमारे जैसे लाखों आदमी रोज मरते हैं। संसार का काम ज्यों-का-त्यों चलता रहता है। फिर इसका क्या गम कि हम भूखों मर जाएँगे? मौत डरने की वस्तु नहीं। मैं तो कबीरपन्थियों का कायल हूँ, जो अर्थी को गाते-बजाते ले जाते हैं। मैं इससे नहीं डरता। तुम्हीं कहो, मैं जो कुछ करता हूँ, इससे अधिक और कुछ मेरी शक्ति के बाहर है या नहीं। सारी दुनिया मीठी नींद सोती होती है ओर मैं क़लम लिये बैठा रहता हूँ। लेाग हँसी-दिल्लगी, आमोद-प्रमोद करते रहते हैं, मेरे लिए वह सब हराम है। यहाँ तक कि महीनों से हँसने की नौबत नहीं आयी। होली के दिन भी मैंने तातील नहीं मनाई। बीमार भी होता हूँ, तो लिखने की फिक्र सिर पर सवार रहती है। सोचो, तुम बीमार थीं, और मैं वैद्य के यहाँ जाने के लिए समय न पाता था। अगर दुनिया नहीं कदर करती, न करे। इसमें दुनिया का ही नुकसान है। मेरी कोई हानि नहीं! दीपक का काम है जलना। उसका प्रकाश फैलता है या उसके सामने कोई ओट है, उसे इससे प्रयोजन नहीं।
मेरा भी ऐसा कौन मित्र, परिचित या सम्बन्धी है, जिसका मैं आभारी नहीं? यहाँ तक कि अब घर से निकलते शर्म आती है। सन्तोष इतना ही है कि लोग मुझे बदनीयत नहीं समझते। वे मेरी कुछ अधिक मदद न कर सकें, पर उन्हें मुझसे सहानुभूति अवश्य है। मेरी खुशी के लिए इतना ही काफी है कि आज वह अवसर तो आया कि एक रईस ने मेरा सम्मान किया।
फिर सहसा उन पर एक नशा-सा छा गया। गर्व से बोले-नहीं, मैं अब रात को न जाऊँगा। मेरी ग़रीबी अब रुसवाई की हद तक पहुँच चुकी है। उस पर परदा डालना व्यर्थ है। मैं इसी वक्त जाऊँगा। जिसे रईस और राजे आमन्त्रित करें, वह कोई ऐसा-वैसा आदमी नहीं हो सकता। राजा साहब साधारण रईस नहीं हैं। वह इस नगर के ही नहीं, भारत के विख्यात रईसों में हैं। अगर अब भी मुझे कोई नीचा समझे, तो वह खुद नीचा है।
सन्ध्या का समय है। प्रवीणजी अपनी फटी-पुरानी अचकन और सड़े हुए जूते और बेढंगी-सी टोपी पहने घर से निकले। खामख्वाह बाँगड़ू उचक्के-से मालूम होते थे। डीलडौल और चेहरे-मुहरे के आदमी होते, तो इस ठाठ में भी एक शान होती। स्थूलता स्वयं रोब डालने वाली वस्तु है। पर साहित्य-सेवा और स्थूलता में विरोध है। अगर कोई साहित्य-सेवी मोटा-ताजा, डबल आदमी है, तो समझ लो, उसमें माधुर्य नहीं, लोच नहीं, हृदय नहीं। दीपक का काम है, लजना। दीपक वही लबालब भरा होगा, जो जला न हो। फिर भी आप अकड़े जाते हैं। एक-एक अंग से गर्व टपक रहा है।
यों घर से निकलकर वह दूकानदारों से आँखें चुराते, गलियों से निकल जाते थे। पर आज वह गरदन उठाये, उनके सामने से जा रहे हैं। आज वह उनके तकाजों का दन्दाँशिकन जवाब देने को तैयार थे। पर सन्ध्या का समय है, हरेक दूकान पर ग्राहक बैठे हुए हैं। कोई उनकी तरफ नहीं देखता। जिस रकम को वह अपनी हीनावस्था में दुर्विचार समझते थे, वह दूकानदारों की निगाह में इतनी जोखिम न थीं, कि एक जाने-पहचाने आदमी को सा-बाज़ार टोकते, विशेषकर जब वह आज किसी से मिलने जाते हुए मालूम होते थे।
प्रवीण ने एक बार सरे-बाज़ार का चक्कर लगाया, पर जी न भरा तब दूसरा चक्कर लगाया, पर वह भी निष्फल। तब वह खुद हाफ़िज समद की दूकान पर जाकर खड़े हो गये। हाफ़िजजी बिसाते का कारोबार करते थे। बहुत दिन हुए प्रवीण इस दूकान से एक छतरी ले गये थे और अभी तक दाम न चुका सके थे। प्रवीण को देखकर बोले-महाशयजी, अभी तक छतरी के दाम नहीं मिले। ऐसे सौ-पचास ग्राहक मिल जाएँ, तो दिवाला ही हो जाए। अब तो बहुत दिन हुए।
प्रवीण की बाछें खिल गईं। दिली मुराद पूरी हुई। बोले-मैं भूला नहीं हूँ हाफ़िजजी, इन दिनों काम इतना ज्यादा था कि घर से निकलना मुश्किल था। रुपये तो नहीं हाथ आते, पर आपकी दुआ से क़दरशिनासों की कमी नहीं। दो-चार आदमी घेरे ही रहते हैं। इस वक़्त भी राजा साहब-अजी वही जो नुक्कड़ वाले बँगले में रहते हैं-उन्हीं के यहाँ जा रहा हूँ। दावत है। रोज ऐसा कोई-न-कोई मौक़ा आता ही रहता है।
हाफ़िज समद प्रभावित होकर बोला-अच्छा! आज राजा साहब के यहाँ तशरीफ ले जा रहे हैं। ठीक है, आप जैसे बाक़मालों की कदर रईस ही कर सकते हैं, और कौन करेगा? सुभानल्लाह! आप इस जमाने में यकता हैं। अगर कोई मौका हाथ आ जाय, तो गरीबों को न भूल जाइएगा। राजा साहब की अगर इधर निगाह हो जाय, तो फिर क्या पूछना! एक पूरा बिसाता तो उन्हीं के लिए चाहिए। ढाई-तीन लाख सालाना की आमदनी है।
प्रवीण को ढाई-तीन लाख कुछ तुच्छ जान पड़े। जबानी जमाखर्च है, तो दस-बीस लाख कहने से क्या हानि? बोले-ढाई-तीन लाख! आप तो उन्हें गालियाँ देते हैं। उनकी आमदनी दस लाख से कम नहीं। एक साहब का अन्दाज तो बीस लाख का है। इलाका है, मकानात हैं, दूकानें हैं, ठीका है, अमानती रुपये हैं और फिर सबसे बड़ी सरकार बहादुर की निगाह है।
हाफ़िज ने बड़ी नम्रता से कहा-यह दूकान आप की है जनाब, बस इतनी ही अरज है। अरे मुरादी, जरा दो पैसे के अच्छे-से पान बना ला आपके लिए। आइए दो मिनट बैठिए। कोई चीज पसन्द हो तो दिखाऊँ। आपसे तो घर का वास्ता है।
प्रवीण ने पान खाते हुए कहा-इस वक्त तो मुआफ़ रखिए। वहाँ देर होगी। फिर कभी हाज़िर हूँगा।
यहाँ से उठकर वह एक कपड़े वाले की दूकान के सामने रुके। मनोहरदास नाम था। इन्हें खड़े देखकर आँखें उठायीं। बेचारा इनके नाम को रो बैठा था। समझ लिया, शायद इस शहर में हैं ही नहीं। समझा रुपये देने आये हैं। बोले-भाई प्रवीणजी, आपने तो बहुत दिनों दर्शन ही नहीं दिये। रुक्का कई बार भेजा, मगर प्यादे को आपके घर का पता ही न मिला। मुनीमजी, जरा देखो तो आपके नाम क्या है।
प्रवीण के प्राण तकाजों से सूख जाते थे; पर आज वह इस तरह खड़े थे, मानों उन्होंने कवच धारण कर लिया है, जिस पर किसी अस्त्र का आघात नहीं हो सकता। बोले-जरा इन राजा साहब के यहाँ से लौट आऊँ, तो निश्चित होकर बैठूँ। इस समय जल्दी में हूँ। राजा साहब पर मनेाहरदास के कई हज़ार रुपये आते थे। फिर भी उनका दामन न छोड़ता था। एक के तीन वसूल करता। उसने प्रवीणजी को ऊँची श्रेणी में रखा जिनका पेशा रईसों को लूटना है। बोला-‘पान तो खाते जाइए महाशय!’ राजा साहब एक दिन के हैं। हम तो बारहों मास के हैं, भाई साहब! कुछ कपड़े दरकार हों तो ले जाइए। अब तो होली आ रही है। मौका हो, तो जरा राजा साहब के खजानची से कहिएगा पुराना हिसाब बहुत दिन से पड़ा हुआ है, अब तो सफ़ाई हो जाए! हम सब ऐसा कौन-सा नफ़ा लेते हैं कि दो-दो साल हिसाब ही न हो?
प्रवीण ने कहा-इस समय तो पान-वान रहने दो भाई? देर हो जाएगी। जब उन्हें मुझसे मिलने का इतना शौक है और मेरा इतना सम्मान करते हैं, तो अपना भी धर्म है कि उनको मेरे कारण कष्ट न हो। हम तो गुणग्राहक चाहते हैं, दौलत के भूखे नहीं। कोई अपना सम्मान करे, तो उसकी गुलामी करें। अगर किसी को रियासत का घमण्ड हो, तो हमें उसकी परवाह नहीं।
प्रवीणजी राजा साहब के विशाल भवन के सामने पहुँचे, तो दीये जल चुके थे। अमीरों और रईसों की मोटरें खड़ी थीं। वरदी-पोश दरबान द्वार पर खड़े थे। एक सज्जन मेहमानों का स्वागत कर रहे थे। प्रवीणजी को देखकर वह जरा झिझके। फिर उन्हें सिर से पाँव तक देखकर बोले-आपके पास नवेद है?
प्रवीण की जेब में नवेद था। पर इस भेदभाव पर उन्हें क्रोध आ गया। उन्हीं से क्यों नवेद माँगा जाय? औरों से भी क्यों न पूछा जाय? बोले-जी नहीं, मेरे पास नवेद नहीं है। अगर आप अन्य महाशयों से माँगते हों; तो मैं भी दिखा सकता हूँ। वरना मैं इस भेद को अपने लिए अपमान की बात समझता हूँ। आप राजा साहब से कह दीजिए, ‘प्रवीणजी आये थे और द्वार से लौट गये।’
‘नहीं-नहीं, महाशय अन्दर चलिए। मुझे आपसे परिचय न था। बेअदबी माफ कीजिए। आप ही ऐसे महानुभावों से तो महफिल की शोभा है। ईश्वर ने आपको वह वाणी प्रदान की है, कि क्या कहना।’
इस व्यक्ति ने प्रवीण को कभी न देखा था। लेकिन जो कुछ उसने कहा, वह हरेक साहित्य-सेवी के विषय में कह सकते हैं, और हमें विश्वास है कि कोई साहित्य-सेवी इस दाद की उपेक्षा नहीं कर सकता।
प्रवीण अन्दर पहुँचे तो देखा, बारहदरी के सामने विस्तृत और सुसज्जित प्रांगण में बिजली के कुमकुमे अपना प्रकाश फैला रहे हैं। मध्य में एक हौज है, हौज में संगमरमर की परी, परी के सिर पर फौवारा, फौवारे की फुहारें रंगीन कुमकुमों से रंजित होकर ऐसी मालूम होती थीं, मानो इन्द्र-धनुष पिघलकर ऊपर से बरस रहा है। हौज के चारों ओर मेजें लगी हुई थीं। मेजों पर सुफेद मेज-पोश, ऊपर सुन्दर गुलदस्ते।
प्रवीण को देखते ही राजा साहब ने स्वागत किया-आइए, आइए! अबकी ‘हंस’ में आपका लेख देखकर दिल फडक़ उठा। मैं तो चकित हो गया। मालूम ही न था, कि इस नगर में आप-जैसे रत्न भी छिपे हुए हैं।
फिर उपस्थित सज्जनों से उनका परिचय देने लगे-आपने महाशय प्रवीण का नाम तो सुना होगा। वह आप ही हैं। क्या माधुर्य है, क्या ओज है, क्या भाव है, क्या भाषा है, क्या सूझ है, क्या चमत्कार है, क्या प्रवाह है कि वाह! वाह! मेरी तो आत्मा जैसे नृत्य करने लगती है।
एक सज्जन ने, जो अँगरेजी सूट में थे, प्रवीण को ऐसी निगाह से देखा मानो वह चिडिय़ा-घर के कोई जीव हों और बोले-आपने अँग्रेजी के कवियों का भी अध्ययन किया है-बायरन, शेली, कीट्स आदि।
प्रवीण ने रुखाई से जवाब दिया-जी हाँ, थोड़ा-बहुत देखा तो है।
‘आप इन महाकवियों में से किसी की रचनाओं का अनुवाद कर दें, तो आज हिन्दी-भाषा की अमर सेवा करें।’
प्रवीण अपने को बायरन, शेली आदि से जौ-भर भी कम न समझते थे। वह अँग्रेजी के कवि थे। उनकी भाषा, शैली, विषय-व्यंजना सभी अँग्रेज की रुचि के अनुकूल था। उनका अनुवाद करना वह अपने लिए गौरव की बात न समझते थे, उसी तरह जैसे वे उनकी रचनाओं का अनुवाद करना अपने लिए गौरव की वस्तु न समझते। बोले-हमारे यहाँ आत्म-दर्शन का अभी इतना अभाव नहीं है, कि हम विदेशी कवियों से भिक्षा माँगें। मेरा विचार है कि कम-से-कम इस विषय में भारत अब भी पश्चिम को कुछ सिखा सकता है।
यह अनर्गल बात थी। अँग्रेजी के भक्त महाशय ने प्रवीण को पागल समझा।
राजा साहब ने प्रवीण को ऐसी आँखों से देखा, जो कह रही थीं-जरा मौका-महल देखकर बातें करो! और बोले-अंग्रेजी साहित्य का क्या पूछना! कविता में तो वह अपना जोड़ नहीं रखता।
अंग्रेजी के भक्त महाशय ने प्रवीण को सगर्व नेत्रों से देखा-हमारे कवियों ने अभी तक कविता का अर्थ ही नहीं समझा, अभी तक वियोग और नख-शिख को कविता का आधार बनाये हुए हैं।
प्रवीण ने ईंट का जवाब पत्थर से दिया-मेरा विचार है कि आपने वर्तमान कवियों का अध्ययन नहीं किया, या किया तो उतरी आँखों से।
राजा साहब ने अब प्रवीण की जबान बन्द कर देने का निश्चय किया-आप मिस्टर परांजपे हैं, प्रवीण जी! आपके लेख अंग्रेजी पत्रों में छपते हैं और बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते हैं।
उसका आशय यह था, कि अब आप न बहकिए।
प्रवीण समझ गये। परांजपे के सामने उन्हें नीचा देखना पड़ा। विदेशी वेश-भूषा और भाषा का यह भक्त जाति-द्रोही होकर भी इतना सम्मान पाये, यह उनके लिए असह्य था। पर क्या करते?
उसी भेष के एक-दूसरे सज्जन आये। राजा साहब ने तपाक से उनका अभिवादन किया-आइए डाक्टर चड्ढा! कैसे मिजाज हैं?
डाक्टर साहब ने राजा साहब से हाथ मिलाया और फिर प्रवीण की ओर जिज्ञासा-भरी आँखों से देखकर पूछा-आपकी तारीफ़?
राजा साहब ने प्रवीण का परिचय दिया-आप महाशय प्रवीण हैं। आप भाषा के अच्छे कवि और लेखक हैं।
डाक्टर साहब ने एक खास अन्दाज से कहा-अच्छा! आप कवि हैं! और बिना कुछ पूछे आगे बढ़ गये।
फिर उसी भेष में एक और महाशय पधारे। यह नामी बैरिस्टर थे। राजा साहब ने उनसे भी प्रवीण का परिचय कराया। उन्होंने भी उसी अन्दाज में कहा-अच्छा! आप कवि हैं? और आगे बढ़ गये। यही अभिनय कई बार हुआ। और हर बार प्रवीण को यही दाद मिली-‘अच्छा! आप कवि हैं?’
यह वाक्य हर बार प्रवीण के हृदय पर एक नया आघात पहुँचाता था। उसके नीचे जो भाव था उसे प्रवीण खूब समझते थे। उसका सीधा-सादा आशय यह था कि तुम अपने खयाली-पुलाव पकाते हो, पकाओ! यहाँ तुम्हारा क्या प्रयोजन? तुम्हारा इतना साहस कि तुम इस सभ्य-समाज में बेधडक़ आओ।
प्रवीण मन-ही-मन अपने ऊपर झुँझला रहे थे। निमन्त्रण पाकर उन्होंने अपने को धन्य माना था, पर यहाँ आकर उनका जितना अपमान हो रहा था, उसके देखते तो वह सन्तोष की कुटिया स्वर्ग थी। उन्होंने अपने मन को धिक्कारा-तुम जैसे सम्मान के लोभियों का यह दण्ड है। अब तो आँखें खुलीं, तुम कितने सम्मान के पात्र हो! तुम इस स्वार्थमय संसार में किसी के काम नहीं आ सकते। वकील-बैरिस्टर तुम्हारा सम्मान क्यों करें? तुम उनके मुवक्किल नहीं हो सकते, न उन्हें तुम्हारे द्वारा कोई मुकदमा पाने की आशा है। डाक्टर या हकीम तुम्हारा सम्मान क्यों करें? उन्हें तुम्हारे घर बिना फीस आने की इच्छा नहीं। तुम लिखने के लिए बने हो, लिखे जाओ। बस, और संसार में तुम्हारा कोई प्रयोजन नहीं।
सहसा लोगों में हलचल पड़ गयी। आज के प्रधान अतिथि का आगमन हुआ। यह महाशय हाईकोर्ट के जज नियुक्त हुए थे। इसी उपलक्ष्य में यह जलसा हो रहा था। राजा साहब ने लपककर जल्द हाथ मिलाया और आकर प्रवीणजी से बोले-आप अपनी कविता तो लिख ही लाये होंगे?
प्रवीण ने कहा-मैंने कोई कविता नहीं लिखी।
‘सच! तब तो आपने ग़जब ही कर दिया। अरे भले आदमी, अबसे कोई चीज लिख डालो। दो-ही चार पंक्तियाँ हो जाएँ। बस! ऐसे अवसर पर एक कविता का पढ़ा जाना लाज़िमी है।’
‘मैं इतनी जल्दी कोई चीज नहीं लिख सकता।’
‘मैंने व्यर्थ ही इतने आदमियों से आपका परिचय कराया?’
‘बिल्कुल व्यर्थ।’
‘अरे भाई जान, किसी प्राचीन कवि की ही कोई चीज सुना दीजिए। यहाँ कौन जानता है।’
‘जी नहीं, क्षमा कीजिएगा। मैं भाट नहीं हूँ, न कथक हूँ।’
यह कहते हुए प्रवीणजी तुरन्त वहाँ से चल दिये। घर पहुँचे तो उनका चेहरा खिला हुआ था।
सुमित्रा ने प्रसन्न होकर पूछा-इतनी जल्दी कैसे आ गये?
‘मेरी वहाँ कोई जरूरत न थी।’
‘चलो, चेहरा खिला हुआ है खूब सम्मान हुआ होगा।’
‘हाँ सम्मान तो, जैसी आशा न थी वैसा हुआ।’
‘खुश बहुत हो।’
इसी से कि आज मुझे हमेशा के लिए सबक मिल गया। मैं दीपक हूँ और जलने के लिए बना हूँ। आज मैं इस तत्व को भूल गया था। ईश्वर ने मुझे ज्यादा बहकने न दिया। मेरी यह कुटिया ही मेरे लिए स्वर्ग है। मैं आज यह तत्व पा गया कि साहित्य-सेवा पूरी तपस्या है।

-- अन्य कहानी ---


शनिवार, 14 जुलाई 2012

खुच्चड़ .... कहानी / मुंशी प्रेमचंद

इस महीने की 31 तारीख को प्रेमचन्द जी का जन्मदिन है और यह पूरा मास हम “राजभाषा हिंदी” ब्लॉग टीम की तरफ़ से प्रेमचन्द जी के व्यक्तित्व और कृतित्व के ऊपर कुछ पोस्ट ला रहे हैं। इसी कड़ी में आज प्रस्तुत है मुंशी प्रेम चंद की कहानी --खुच्च्ड़



जन्म - 31 जुलाई 1880 
निधन - 8 अक्तूबर 1936 


बाबू कुन्दनलाल कचहरी से लौटे, तो देखा कि उनकी पत्नीजी एक कुँजड़िन से कुछ साग-भाजी ले रही हैं। कुँजड़िन पालक टके सेर कहती है, वह डेढ़ पैसे दे रही हैं। इस पर कई मिनट तक विवाद होता रहा। आखिर कुँजड़िन डेढ़ ही पैसे पर राजी हो गई। अब तराजू और बाट का प्रश्न छिड़ा। दोनों पल्ले बराबर न थे। एक में पसंगा था। बाट भी पूरे न उतरते थे। पड़ोसिन के घर से सेर आया। साग तुल जाने के बाद अब घाते का प्रश्न उठा। पत्नीजी और माँगती थीं, कुँजड़िन कहती थी, 'अब क्या सेर-दो-सेर घाते में ही ले लोगी बहूजी।'
खैर, आधा घंटे में वह सौदा पूरा हुआ, और कुँजड़िन फिर कभी न आने की धमकी देकर बिदा हुई। कुन्दनलाल खड़े-खड़े यह तमाशा देखते रहे। कुँजड़िन के जाने के बाद पत्नीजी लोटे का पानी लाईं तो आपने कहा, 'आज तो तुमने जरा-सा साग लेने में पूरे आधा घंटे लगा दिये। इतनी देर में तो हजार-पाँच का सौदा हो जाता। जरा-जरा से साग के लिए इतनी ठॉय-ठॉय करने से तुम्हारा सिर भी नहीं दुखता ? '
रामेश्वरी ने कुछ लज्जित होकर कहा, 'पैसे मुफ्त में तो नहीं आते ! '
'यह ठीक है; लेकिन समय का भी कुछ मूल्य है। इतनी देर में तुमने बड़ी मुश्किल से एक धेले  की बचत की। कुँजड़िन ने भी दिल में कहा, होगा कहाँ की गँवारिन है। अब शायद भूलकर भी इधर न आये।'
'तो, फिर मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि पैसे की जगह धेले का सौदा लेकर बैठ जाऊँ।'
'इतनी देर में तो तुमने कम-से-कम 10 पन्ने पढ़े होते। कल महरी से घंटों सिर मारा। परसों दूधवाले के साथ घंटों शास्त्रार्थ किया। जिन्दगी क्या इन्हीं बातों में खर्च करने को दी गई है ?'
कुन्दनलाल प्राय: नित्य ही पत्नी को सदुपदेश देते रहते थे। यह उनका दूसरा विवाह था। रामेश्वरी को आये अभी दो ही तीन महीने हुए थे। अब तक तो बड़ी ननदजी ऊपर के काम किया करती थीं। रामेश्वरी की उनसे
न पटी। उसको मालूम होता था, यह मेरा सर्वस्व ही लुटाये देती हैं। आखिर वह चली गईं। तब से रामेश्वरी ही घर की स्वामिनी है; वह बहुत चाहती है कि पति को प्रसन्न रखे। उनके इशारों पर चलती है; एक बार जो बात सुन लेती है, गाँठ बाँध लेती है। पर रोज ही तो कोई नई बात हो जाती है, और कुन्दनलाल को उसे उपदेश देने का अवसर मिल जाता है। एक दिन बिल्ली दूध पी गई। रामेश्वरी दूध गर्म करके लाई और स्वामी के सिरहाने रखकर पान बना रही थी कि बिल्ली ने दूध पर अपना ईश्वरप्रदत्त अधिकार सिद्ध कर दिया। रामेश्वरी यह अपहरण स्वीकार न कर सकी। रूल लेकर बिल्ली को इतने जोर से मारा कि वह दो-तीन लुढ़कियाँ खा गई। कुन्दनलाल लेटे-लेटे अखबार पढ़ रहे थे। बोले 'और जो मर जाती ? '
रामेश्वरी ने ढिठाई के साथ कहा, 'तो मेरा दूध क्यों पी गई ? '
'उसे मारने से दूध मिल तो नहीं गया ?'
'जब कोई नुकसान कर देता है, तो उस पर क्रोध आता ही है।'
'न आना चाहिए। पशु के साथ आदमी भी क्यों पशु हो जाय ? आदमी और पशु में इसके सिवा और क्या अन्तर है ?'
कुन्दनलाल कई मिनट तक दया, विवेक और शांति की शिक्षा देते रहे। यहाँ तक कि बेचारी रामेश्वरी मारे ग्लानि के रो पड़ी। इसी भाँति एक दिन रामेश्वरी ने एक भिक्षुक को दुत्कार दिया, तो बाबू साहब ने फिर उपदेश देना शुरू किया। बोले तुमसे न उठा जाता हो, तो लाओ मैं दे आऊँ। गरीब को यों न दुत्कारना चाहिए।
रामेश्वरी ने त्योरियाँ चढ़ाते हुए कहा, 'दिन भर तो तांता लगा रहता है। कोई कहाँ तक दौड़े। सारा देश भिखमंगों ही से भर गया है शायद।'
 कुन्दनलाल ने उपेक्षा के भाव से मुस्कराकर कहा, 'उसी देश में तो तुम भी बसती हो ! '
 'इतने भिखमंगे आ कहाँ से जाते हैं ? ये सब काम क्यों नहीं करते ?'
'कोई आदमी इतना नीच नहीं होता, जो काम मिलने पर भीख माँगे।'
हाँ, अपंग हो, तो दूसरी बात है। अपंगों का भीख के सिवा और क्या सहारा हो सकता है ?'
'सरकार इनके लिए अनाथालय क्यों नहीं खुलवाती ?'
'जब स्वराज्य हो जायगा, तब शायद खुल जायँ; अभी तो कोई आशा नहीं है मगर स्वराज्य भी धर्म ही से आयेगा।'
'लाखों साधु-संन्यासी, पंडे-पुजारी मुफ्त का माल उड़ाते हैं, क्या इतना धर्म काफी नहीं है ? अगर इस धर्म में से स्वराज्य मिलता, तो कब का मिल चुका होता।'
'इसी धर्म का प्रसाद है कि हिन्दू-जाति अभी तक जीवित है, नहीं कब की रसातल पहुँच चुकी होती। रोम, यूनान, ईरान, सीरिया किसी का अब निशान भी नहीं है। यह हिन्दू-जाति है, जो अभी तक समय के क्रूर आघातों का सामना करती चली जाती है।'
'आप समझते होंगे; हिन्दू-जाति जीवित है। मैं तो उसे उसी दिन से मरा हुआ समझती हूँ, जिस दिन से वह अधीन हो गई। जीवन स्वाधीनता का नाम है, गुलामी तो मौत है।'
कुन्दनलाल ने युवती को चकित नेत्रों से देखा, ऐसे विद्रोही विचार उसमें कहाँ से आ गये ? देखने में तो वह बिलकुल भोली थी। समझे, कहीं सुन-सुना लिया होगा। कठोर होकर बोले --'क्या व्यर्थ का विवाद करती हो। लजाती तो नहीं, ऊपर से और बक-बक करती हो।' रामेश्वरी यह फटकार पाकर चुप हो गई। एक क्षण वहाँ खड़ी रही, फिर धीरे-धीरे कमरे से चली गई।
 एक दिन कुन्दनलाल ने कई मित्रों की दावत की। रामेश्वरी सबेरे से रसोई में घुसी तो शाम तक सिर न उठा सकी। उसे यह बेगार बुरी मालूम हो रही थी। अगर दोस्तों की दावत करनी थी तो खाना बनवाने का कोई प्रबन्ध क्यों नहीं किया ? सारा बोझ उसी के सिर क्यों डाल दिया ! उससे एक बार पूछ तो लिया होता कि दावत करूँ या न करूँ। होता तब भी यही; जो अब हो रहा था। वह दावत के प्रस्ताव का बड़ी खुशी से अनुमोदन करती, तब वह समझती, दावत मैं कर रही हूँ। अब वह समझ रही थी, मुझसे बेगार ली जा रही है। खैर, भोजन तैयार हुआ, लोगों ने भोजन किया और चले गये; मगर मुंशीजी मुँह फुलाये बैठे हुए थे। रामेश्वरी ने कहा, 'तुम क्यों नहीं खा लेते, क्या अभी सबेरा है ? '
बाबू साहब ने आँखें फाड़कर कहा, 'क्या खा लूँ, यह खाना है, या बैलों की सानी ! '
रामेश्वरी के सिर से पाँव तक आग लग गई। सारा दिन चूल्हे के सामने जली; उसका यह पुरस्कार ! बोली, 'मुझसे जैसा हो सका बनाया। जो बात अपने बस की नहीं है, उसके लिए क्या करती ? '
'पूड़ियाँ सब सेवर हैं !'
'होंगी।'
'कचौड़ी में इतना नमक था किसी ने छुआ तक नहीं।'
'होगा।'
'हलुआ अच्छी तरह भुना नहीं क़चाइयाँ आ रही थीं।'
'आती होंगी।'
'शोरबा इतना पतला था, जैसे चाय।'
'होगा।'
'स्त्री का पहला धर्म यह है कि वह रसोई के काम में चतुर हो।'
फिर उपदेशों का तार बँधा; यहाँ तक कि रामेश्वरी ऊब कर चली गई ! पाँच-छ: महीने गुजर गये। एक दिन कुन्दनलाल के एक दूर के संबंधी उनसे मिलने आये। रामेश्वरी को ज्यों ही उनकी खबर मिली, जलपान के लिए मिठाई भेजी; और महरी से कहला भेजा आज यहीं भोजन कीजिएगा। वह महाशय फूले न समाये। बोरिया-बँधना लेकर पहुँच गये और डेरा डाल दिया। एक हफ्ता गुजर गया; आप टलने का नाम भी नहीं लेते। आवभगत में कोई कमी होती, तो शायद उन्हें कुछ चिन्ता होती; पर रामेश्वरी उनके सेवा-सत्कार में
जी-जान से लगी हुई थी। फिर वह भला क्यों हटने लगे। एक दिन कुन्दनलाल ने कहा, 'तुमने यह बुरा रोग पाला।'
रामेश्वरी ने चौंककर पूछा, 'क़ैसा रोग ? '
'इन्हें टहला क्यों नहीं देतीं ?'
'मेरा क्या बिगाड़ रहे हैं ?'
'कम-से-कम 10 की रोज चपत दे रहे हैं। और अगर यही खातिरदारी रही, तो शायद जीते-जी टलेंगे भी नहीं।'
'मुझसे तो यह नहीं हो सकता कि कोई दो-चार दिन के लिए आ जाय, तो उसके सिर हो जाऊँ। जब तक उनकी इच्छा हो रहें।'
'ऐसे मुफ्तखोरों का सत्कार करना पाप है। अगर तुमने इतना सिर न चढ़ाया होता, तो अब तक लंबा हुआ होता। जब दिन में तीन बार भोजन और पचासों बार पान मिलता है, तो उसे कुत्ते ने काटा है, जो अपने घर जाय।'
'रोटी का चोर बनना तो अच्छा नहीं !'
'कुपात्र और सुपात्र का विचार तो कर लेना चाहिए। ऐसे आलसियों को खिलाना-पिलाना वास्तव में उन्हें जहर देना है, जहर से तो केवल प्राण निकल जाते हैं; यह खातिरदारी तो आत्मा का सर्वनाश कर देती है। अगर
यह हजरत महीने भर भी यहाँ रह गये, तो फिर जिंदगी-भर के लिए बेकार हो जायँगे। फिर इनसे कुछ न होगा और इसका सारा दोष तुम्हारे सिर होगा।'
तर्क का तांता बँध गया। प्रमाणों की झड़ी लग गई। रामेश्वरी खिसियाकर चली गई। कुन्दनलाल उससे कभी सन्तुष्ट भी हो सकते हैं, उनके उपदेशों की वर्षा कभी बन्द भी हो सकती है, यह प्रश्न उसके मन में बार-बार उठने लगा।
एक दिन देहात से भैंस का ताजा घी आया। इधर महीनों से बाजार का घी खाते-खाते नाक में दम हो रहा था। रामेश्वरी ने उसे खौलाया, उसमें लौंग डाली और कड़ाह से निकालकर एक मटकी में रख दिया। उसकी सोंधी-सोंधी सुगंध से सारा घर महक रहा था। महरी चौका-बर्तन करने आई तो उसने चाहा कि मटकी चौके से उठाकर छींके या आले पर रख दे। पर संयोग की बात, उसने मटकी उठाई, तो वह उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ी। सारा घी बह गया। धमाका सुनकर रामेश्वरी दौड़ी, तो महरी खड़ी रो रही थी और मटकी चूर-चूर हो गई थी। तड़पकर बोली, 'मटकी कैसे टूट गई ? मैं तेरी तलब से काट लूँगी। राम-राम, सारा घी मिट्टी में मिला दिया ! तेरी आँखें फूट गई थीं क्या ? या हाथों में दम नहीं था ? इतनी दूर से मँगाया, इतनी मिहनत से गर्म किया; मगर एक बूँद भी गले के नीचे न गया। अब खड़ी बिसूर क्या रही है, जा अपना काम कर।'
महरी ने आँसू पोंछकर कहा, बहूजी, अब तो चूक हो गई, चाहे तलब काटो, चाहे जान मारो। मैंने तो सोचा उठाकर आले पर रख दूँ, तो चौका लगाऊँ। क्या जानती थी कि भाग्य में यह लिखा है। न-जाने किसका मुँह देखकर उठी थी।'
रामेश्वरी —‘  मैं कुछ नहीं जानती, सब रुपये तेरी तलब से वसूल कर लूँगी। एक रुपया जुरमाना न किया तो कहना।'
महरी—‘ मर जाऊँगी सरकार, कहीं एक पैसे का ठिकाना नहीं है।'
रामेश्वरी –‘मर जा या जी जा, मैं कुछ नहीं जानती।'
महरी ने एक मिनट तक कुछ सोचा और बोली, ‘अच्छा, काट लीजिएगा सरकार। आपसे सबर नहीं होता; मैं सबर कर लूँगी। यही न होगा, भूखों मर जाऊँगी। जीकर ही कौन-सा सुख भोग रही हूँ कि मरने को डरूँ। समझ लूँगी; एक महीना कोई काम नहीं किया। आदमी से बड़ा-बड़ा नुकसान हो जाता है, यह तो घी ही था।'
रामेश्वरी को एक ही क्षण में महरी पर दया आ गई ! बोली, 'तू भूखों मर जायगी, तो मेरा काम कौन करेगा? '
महरी –‘क़ाम कराना होगा, खिलाइएगा; न काम कराना होगा, भूखों मारिएगा। आज से आकर आप ही के द्वार पर सोया करूँगी।'
रामेश्वरी –‘सच कहती हूँ, आज तूने बड़ा नुकसान कर डाला।‘
महरी –‘मैं तो आप ही पछता रही हूँ सरकार।‘
रामेश्वरी –‘जा गोबर से चौका लीप दे, मटकी के टुकड़े दूर फेंक दे।और बाजार से घी लेती आ।'
महरी ने खुश होकर चौका गोबर से लीपा और मटकी के टुकड़े बटोर रही थी कि कुन्दनलाल आ गए, और हाँड़ी टूटी देखकर बोले, 'यह हाँड़ी कैसे टूट गई ? '
रामेश्वरी ने कहा, महरी उठाकर ऊपर रख रही थी, उसके हाथ से छूट पड़ी।'
कुन्दनलाल ने चिल्लाकर कहा, 'तो सब घी बह गया ? '
'और क्या कुछ बच भी रहा !'
'तुमने महरी से कुछ कहा, नहीं ?'
'क्या कहती ? उसने जान-बूझकर तो गिरा नहीं दिया।'
'यह नुकसान कौन उठायेगा ?'
'हम उठायेंगे, और कौन उठायेगा। अगर मेरे ही हाथ से छूट पड़ती तो क्या हाथ काट लेती।'
कुन्दनलाल ने ओंठ चबाकर कहा, 'तुम्हारी कोई बात मेरी समझ में नहीं आती। जिसने नुकसान किया है, उससे वसूल होना चाहिए। यही ईश्वरीय नियम है। आँख की जगह आँख, प्राण के बदले प्राण यह ईसामसीह-जैसे दयालु पुरुष का कथन है। अगर दण्ड का विधान संसार से उठ जाय, तो यहाँ रहे कौन ? सारी पृथ्वी रक्त से लाल हो जाय, हत्यारे दिनदहाड़े लोगों का गला काटने लगें। दण्ड ही से समाज की मर्यादा कायम है। जिस दिन दण्ड न रहेगा, संसार न रहेगा। मनु आदि स्मृतिकार बेवकूफ नहीं थे कि दण्ड-न्याय को इतना महत्त्व दे गये। और किसी विचार से नहीं, तो मर्यादा की रक्षा के लिए दण्ड अवश्य देना चाहिए। ये रुपये महरी को देने पड़ेंगे। उसकी मजदूरी काटनी पड़ेगी। नहीं तो आज उसने घी का घड़ा लुढ़का दिया है, कल कोई और नुकसान कर देगी।'
रामेश्वरी ने डरते-डरते कहा, 'मैंने तो उसे क्षमा कर दिया है।'
कुन्दनलाल ने आँखें निकालकर कहा, 'लेकिन मैं नहीं क्षमा कर सकता।'
महरी द्वार पर खड़ी यह विवाद सुन रही थी। जब उसने देखा कि कुन्दनलाल का क्रोध बढ़ता जाता है और मेरे कारण रामेश्वरी को घुड़कियाँ सुननी पड़ रही हैं, तो वह सामने जाकर बोली, 'बाबूजी, अब तो कसूर हो  गया। अब सब रुपये मेरी तलब से काट लीजिए। रुपये नहीं हैं, नहीं तो अभी लाकर आपके हाथ पर रख देती।'
रामेश्वरी ने उसे घुड़ककर कहा, 'ज़ा भाग यहाँ से, तू क्या करने आई। बड़ी रुपयेवाली बनी है ! '
कुन्दनलाल ने पत्नी की ओर कठोर नेत्रों से देखकर कहा, 'तुम क्यों उसकी वकालत कर रही हो। यह मोटी-सी बात है और इसे एक बच्चा भी समझता है कि जो नुकसान करता है, उसे उसका दण्ड भोगना पड़ता है।
मैं क्यों पाँच रुपये का नुकसान उठाऊँ ? बेवजह ? क्यों नहीं इसने मटके को सँभालकर पकड़ा, क्यों इतनी जल्दबाजी की, क्यों तुम्हें बुलाकर मदद नहीं ली ? यह साफ इसकी लापरवाही है।'यह कहते हुए कुन्दनलाल बाहर चले गये।
रामेश्वरी इस अपमान से आहत हो उठी। डॉटना ही था, तो कमरे में बुलाकर एकान्त में डॉटते। महरी के सामने उसे रुई की तरह धुन डाला। उसकी समझ ही में न आता था, यह किस स्वभाव के आदमी हैं। आज एक
बात कहते हैं, कल उसी को काटते हैं, जैसे कोई झक्की आदमी हो। कहाँ तो दया और उदारता के अवतार बनते थे, कहाँ आज पाँच रुपये के लिए प्राण देने लगे। बड़ा मजा आ जाय, कल महरी बैठ रहे। कभी तो इनके मुख से प्रसन्नता का एक शब्द निकला होता ! अब मुझे भी अपना स्वभाव बदलना पड़ेगा। यह सब मेरे सीधे होने का फल है। ज्यों-ज्यों मैं तरह देती हूँ, आप जामे से बाहर होते हैं। इसका इलाज यही है कि एक कहें, तो दो सुनाऊँ। आखिर कब तक और कहाँ तक सहूँ। कोई हद भी है ! जब देखो डॉट रहे हैं। जिसके मिजाज का कुछ पता ही न हो, उसे कौन खुश रख सकता है। उस दिन जरा-सा बिल्ली को मार दिया, तो आप दया का उपदेश करने लगे। आज वह दया कहाँ गई। उनको ठीक करने का उपाय यही है कि समझ लूँ, कोई कुत्ता भूँक रहा है। नहीं, ऐसा क्यों करूँ। अपने मन से कोई काम ही न करूँ; जो यह कहें, वही करूँ; न जौ-भर कम, न जौ-भर ज्यादा। जब इन्हें मेरा कोई काम पसन्द नहीं आता, मुझे क्या कुत्ते ने काटा है, जो बरबस अपनी टाँग अड़ाऊँ। बस, यही ठीक है। वह रात-भर इसी उधेड़बुन में पड़ी रही। सबेरे कुन्दनलाल नदी स्नान करने गये। लौटे, तो 9 बज गये थे। घर में जाकर देखा, तो चौका-बर्तन न हुआ था। प्राण सूख गये। पूछा, 'क्या महरी नहीं आयी ? '
रामे.—‘ नहीं।'
कुन्दन. —‘ –‘तो फिर ? '
रामे.—‘ –‘ज़ो आपकी आज्ञा।'
कुन्दन. —‘ –‘यह तो बड़ी मुश्किल है।'
रामे.—‘ –‘हाँ, है तो।'
कुन्दन. —‘ –‘पड़ोस की महरी को क्यों न बुला लिया ? '
रामे.—‘ क़िसके हुक्म से बुलाती; अब हुक्म हुआ है, बुलाये लेती हूँ।'
कुन्दन. —‘ अब बुलाओगी, तो खाना कब बनेगा ? नौ बज गये और इतना तो तुम्हें अपनी अक्ल से काम लेना चाहिए था कि महरी नहीं आयी तो पड़ोसवाली को बुला लें।'
रामे.—‘ अगर उस वक्त सरकार पूछते, क्यों दूसरी महरी बुलाई, तो क्या जवाब देती ? अपनी अक्ल से काम लेना छोड़ दिया। अब तुम्हारी ही अक्ल से काम लूँगी। मैं यह नहीं चाहती कि कोई मुझे आँखें दिखाये।
 कुन्दन. —‘ अच्छा, तो इस वक्त क्या होगा ? '
रामे.—‘ ज़ो हुजूर का हुक्म हो।'
कुन्दन. —‘ तुम मुझे बनाती हो।'
रामे.—‘ मेरी इतनी मजाल कि आप को बनाऊँ ! मैं तो हुजूर की लौंडी हूँ। जो कहिए, वह करूँ।'
कुन्दन. —‘ मैं तो जाता हूँ, तुम्हारा जो जी चाहे करो।'
रामे.—‘ ज़ाइए, मेरा जी कुछ न चाहेगा और न कुछ करूँगी।'
कुन्दन. —‘ आखिर तुम क्या खाओगी ? '
रामे.—‘ ज़ो आप देंगे, वही खा लूँगी।'
कुन्दन. —‘ लाओ, बाजार से पूड़ियाँ ला दूँ।'
रामेश्वरी रुपया निकाल लाई। कुन्दनलाल पूड़ियाँ लाये। इस वक्त का काम चला। दफ्तर गये। लौटे, तो देर हो गयी थी। आते-ही-आते पूछा, 'महरी आयी ? '
रामे.—‘ नहीं।'
कुन्दन. —‘ मैंने तो कहा, था, पड़ोसवाली को बुला लेना।'
रामे.—‘ बुलाया था। वह पाँच रुपये माँगती है।'
कुन्दन. —‘ तो एक ही रुपये का फर्क था, क्यों नहीं रख लिया ? '
रामे.—‘ मुझे यह हुक्म न मिला था। मुझसे जवाब-तलब होता कि एकरुपया ज्यादा क्यों दे दिया, खर्च की किफायत पर उपदेश दिया जाने लगता, तो क्या करती।'
कुन्दन. —‘ तुम बिलकुल मूर्ख हो।'
रामे.—‘ बिलकुल।'
कुन्दन. —‘ तो इस वक्त भी भोजन न बनेगा ? '
रामे.—‘ मजबूरी है।'
कुन्दनलाल सिर थामकर चारपाई पर बैठ गये। यह तो नयी विपत्ति गले पड़ी। पूड़ियाँ उन्हें रुचती न थीं। जी में बहुत झुँझलाये। रामेश्वरी को दो-चार उल्टी-सीधी सुनायीं, लेकिन उसने मानो सुना ही नहीं। कुछ बस न चला, तो महरी की तलाश में निकले। जिसके यहाँ गये, मालूम हुआ, महरी काम करने चली गयी। आखिर एक कहार मिला। उसे बुला लाये। कहार ने दो आने लिये और बर्तन धोकर चलता बना।
रामेश्वरी ने कहा, 'भोजन क्या बनेगा ? '
कुन्दन. —‘ रोटी-तरकारी बना लो, या इसमें कुछ आपत्ति है ? '
रामे.—‘ तरकारी घर में नहीं है।'
कुन्दन. —‘ दिन भर बैठी रहीं, तरकारी भी न लेते बनी ? अब इतनी रात गये तरकारी कहाँ मिलेगी 
रामे.—‘ मुझे तरकारी ले रखने का हुक्म न मिला था। मैं पैसा-धेला ज्यादा दे देती तो ? '
कुन्दनलाल ने विवशता से दाँत पीसकर कहा, 'आखिर तुम क्या चाहती हो ? '
रामेश्वरी ने शान्त भाव से जवाब दिया 'क़ुछ नहीं, केवल अपमान नहीं चाहती।'
कुन्दन. —‘ तुम्हारा अपमान कौन करता है ?
रामे.—‘ आप करते हैं।'
कुन्दन. —‘ तो मैं घर के मामले में कुछ न बोलूँ ? '
रामे.—‘ आप न बोलेंगे, तो कौन बोलेगा ? मैं तो केवल हुक्म की ताबेदार हूँ।'
रात रोटी-दाल पर कटी। दोनों आदमी लेटे। रामेश्वरी को तो तुरन्त नींद आ गयी। कुन्दनलाल बड़ी देर तक करवटें बदलते रहे। अगर रामेश्वरी इस तरह सहयोग न करेगी, तो एक दिन भी काम न चलेगा। आज ही बड़ी मुश्किल से भोजन मिला। इसकी समझ ही उलटी है। मैं तो समझाता हूँ, यह समझती है, डॉट रहा हूँ। मुझसे बिना बोले रहा भी तो नहीं जाता। लेकिन अगर बोलने का यह नतीजा है, तो फिर बोलना फिजूल है। नुकसान होगा, बला से; यह तो न होगा कि दफ्तर से आकर बाजार भागूँ। महरी से रुपये वसूल करने की बात इसे बुरी लगी और थी भी बेजा। रुपये तो न मिले, उलटे महरी ने काम छोड़ दिया।
रामेश्वरी को जगाकर बोले 'क़ितना सोती हो तुम ? '
रामे.—‘ मजूरों को अच्छी नींद आती है।'
कुन्दन. —‘ चिढ़ाओ मत, महरी से रुपये न वसूल करना।'
रामे.—‘ वह तो लिये खड़ी है शायद।'
कुन्दन. —‘ उसे मालूम हो जायगा, तो काम करने आयेगी।'
रामे.—‘ अच्छी बात है कहला भेजूँगी।'
कुन्दन. —‘ आज से मैं कान पकड़ता हूँ, तुम्हारे बीच में न बोलूँगा।'
रामे.—‘ और जो मैं घर लुटा दूँ तो ? '
कुन्दन. —‘ लुटा दो, चाहे मिटा दो, मगर रूठो मत। अगर तुम किसी बात में मेरी सलाह पूछोगी, तो दे दूँगा; वरना मुँह न खोलूँगा।'
रामे.—‘ मैं अपमान नहीं सह सकती।'
कुन्दन. —‘ इस भूल को क्षमा करो।'
रामे.—‘ सच्चे दिल से कहते हो न ? '
कुन्दन. —‘ सच्चे दिल से।'


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