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गुरुवार, 4 अगस्त 2011

छायावादी काव्य की प्रेरणा भूमि-2

छायावादी काव्य की प्रेरणा भूमि-2

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पिछले भाग में हमने छायावादी काव्य की प्रेरणा भूमि की बात की थी...उसी चर्चा को आगे बढ़ाते हुए आज हम  छायावाद के रूप और नामकरण पर प्रकाश डालते हैं.

छायावाद का स्पष्ट रूप -

सन 1920 के पूर्व पश्चात छायवादी जीवन दर्शन के दो रूप स्वरूप हो गये -

1. राष्ट्रीय रूप

2. साहित्यिक रूप

कानपुर से प्रकाशित 'प्रताप' और 'प्रभा' पत्रिका मे 'भारतीय आत्मा' और बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' आदि के राष्ट्रीय गीत जनता को राष्ट्रीय आंदोलन के लिए प्रोत्साहित कर रहे थे और दूसरी ओर सांप्रदायिकता और साम्राज्यवादिता से ऊबा हुआ 'प्रसाद', 'पंत' और 'निराला' आदि का कवि हृदय सत्यम-शिवम-सुंदरम् की खोज में अनेक प्रयोग कर रहा था.  सुमित्रानंदन  पंत की 'उच्छवास'  नामक काव्य पुस्तिका, निरालाजी की 'जूही की कली'  और 'पंचवटी',  प्रसाद जी के 'आँसू' का प्रकाशन होते होते छायावाद का जीवन दर्शन धुंधले अंधकार से कुछ कुछ प्रकाश में आने लगा.

छायावाद कव्यान्दोलन -

इसके उपरांत छायावाद कव्यान्दोलन हिन्दी जगत् में  सर्वत्र व्याप्त हो गया. प्रथम महायुद्ध के समय संसार के उन्नत देशों में अनेक प्राचीन मान्यताएँ आहत हो चुकी थी . युद्ध के उपरांत हमारे देश में नयी चेतना और नयी धारणा की लहरें तेज़ी से दौड़ रही थी . महात्मा गाँधी के नेतृत्व में असहयोग आन्दोलन भारतीयों में ऐसे आत्मविश्वास को जमाता जा रहा था जिसका अनुभव सामूहिक रूप से देश ने शताब्दियों से नहीं किया था. इस नवजागरण-युग में भारतीय जनता का चित्त देश, धर्म, साहित्य और समाज को बंधन से मुक्त करने को छटपटा रहा था. साहित्य में रोमांटिक (स्वच्छंदतावाद) व्यक्तिवाद का मूल्य अँग्रेज़ी पठित  समाज समझ गया था,. किंतु अपने देश की राजनीति, समाज नीति, अर्थनीति, धर्मनीति और  भाषा नीति  में चिंताशील वर्ग उस व्यक्तिवाद के साथ  असामंजस्य देख कर तड़प रहा था. 'संवेदनशील युवक के  मन में यह बड़े ही  अंतर्द्वंद का काल था.स्वच्छंदतावादी  प्रवृत्ति का हिन्दी कविता में बीज पनप तो हो चुका था, पर नवीन मानवतावादी, स्वच्छंदतावादी, वैयक्तिक दृष्टि-भंगिमा को व्यक्त करने योग्य भाषा अब भी नहीं बन पाई. ' कई कवियों ने रवीन्द्रनाथ की बंगला शैली का अनुकरण किया, किंतु 'छायावादी  कवियों की वह भाषा व्यंग्य और उपहास  का विषय बनी रही.' पर प्रयत्नशील कवियों ने साहस और धैर्य नहीं छोड़ा; भाषा को भावों के अनुकूल बनाकर ही दम लिया.

यह अटल सिद्धांत है  कि साहित्य की मान्यताएँ जीवन की मान्यताओं से अधिक काल तक विच्छिन्न होकर नहीं चल सकतीं. दोनों में समझौता करना ही पड़ता है. बाह्यस्थिति और आंतरिक स्थिति मे सामंजस्य किए बिना व्यक्ति रह नहीं सकता, समाज चल नहीं सकता. अतः नयी परिस्थिति और नयी मान्यताओं के साथ कवियों को अपने प्राचीन संस्कारों का सामंजस्य करना पड़ा. साहित्य रचना और उसके आस्वादन  दोनों की शैलियों में जो महान अंतर आ गया था उसके साथ प्राचीन पद्धति को समझौता करना पड़ा. द्विवेदी युग में विषय प्रधान कविता की प्रधानता थी किंतु नये कवियों ने नये युग के प्रभाव से विषयी प्रधान कविता की रचना की. कवि की कल्पना, उसकी चिंतन शैली और उसकी अनुभूति में परंपरागत कल्पना, चिंतन और अनुभूति से बड़ा अंतर आ गया था.

छायावाद का नामकरण

कुछ लोगों  का मत था की यह शब्द अंग्रेजी से अत्याधिक प्रभावित बंगला के द्वारा हिंदी में आया है, किन्तु यह मत अब अमान्य बन गया है. बंगला में छायावाद नाम की कविता का कहीं  पता ही नहीं है.

1. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार 'छायावाद शब्द केवल चल पड़ने के जोर से ही हिंदी में आ गया है' यह शब्द छायावादी कविता की प्रकृति को प्रकट करने में सर्वथा असमर्थ है.

2. पंडित रामचंद्र शुक्ल का मत है कि - 'छायावाद शब्द का प्रयोग दो अर्थो में समझना चाहिए. एक तो रहस्यवाद के अर्थ में, जहाँ  उसका सम्बन्ध काव्यवस्तु से होता है अर्थात जहाँ कवि उस अनंत और अज्ञात प्रियतम को आलंबन बनाकर अत्यंत चित्रमयी भाषा में प्रेम की अनेक प्रकार से व्यंजना करता है.

3. छायावाद का दूसरा प्रयोग काव्यशैली के रूप में है. सन 1885 ई. में फ़्रांस में प्रतीक वादी (symbolist)  कवि  हुए. उनकी शैली में 'प्रस्तुत के स्थान पर अधिकतर अप्रस्तुत प्रतीकों' को ग्रहण किया जाता था. इसी प्रतीक शैली का अनुसरण करने से हिंदी की नवीन कविता छायावादी के नाम से प्रसिद्ध हुई. अतः छायावाद का अर्थ हुआ - प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाली छाया के रूप में अप्रस्तुत का कथन.

4. 'गीतांजलि' तथा अंग्रेजी रोमांटिक कवियों की कविताओं की छाया लेकर जो कविता लिखी गयी उसका उपहास करने के लिए व्यंग्य रूप से किसी ने इसका नाम छायावाद रखा जो आगे चलकर प्रचलित हो गया.

5. कवि  प्रकृति में अपनी ही सप्राण छाया देखता हुआ जड़ में चेतनता का आरोप करता है. अतः ऐसी कविता को छायावादी कविता कहा गया.

अब आगे छायावाद का स्वछंदतावाद, रहस्यवाद, प्रगतिवाद के साथ सम्बन्ध और अंतर पर विचार वर्णन करेंगे.

गुरुवार, 28 जुलाई 2011

छायावादी गीति काव्य की प्रेरणा भूमि

छायावादी गीति काव्य की प्रेरणा भूमि

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आज छायावाद के इतिहास की बात शुरु करते हैं.  परंतु छायावाद के इतिहास को जानने से पहले गीति काव्य के बारे में जनना उचित होगा.  संक्षिप्त रूप से पहले गीति काव्य की पृष्ठभूमी की बात करते हैं .

गीतिकाव्य का इतिहास

यह तो हम सभी जानते हैं कि गीति काव्य को ही काव्य का सबसे प्राचीन रूप माना जाता है. हमारे वेदों में भी एक ऐसा वेद 'सामवेद' है जिसका गायन होता है. गीत शब्द का अर्थ भी गाये जाने से ही है.

बौद्ध साहित्य कि थेर गाथाओं में भी गीति काव्य के दर्शन मिलते हैं. 'मेघदूत' को भी अधिकाँश विद्वान गेय काव्य ही मानते हैं. संस्कृत साहित्य में गीति काव्य अपने वास्तविक रूप में 'गीतगोविन्द' में प्राप्त होता है. जयदेव के इस काव्य का हिंदी साहित्य पर प्रत्यक्ष प्रभाव दिखाई पड़ता है. विद्यापति और चंडीदास दोनों कवियों ने जयदेव की शैली को  ऐसा आत्मसात किया जिससे काव्यरस और संगीत रस के मिश्रण से गीतकारों के सम्मुख हिंदी गीतों का एक आदर्श  रूप सामने आया.

कबीरदास, सूरदास, तुलसीदास, मीरा

 

इसके बाद कबीरदास के रहस्यगीत बहुत लोकप्रिय हुए जिन्होंने खुद को अपने राम की बहुरिया बना कर विरह और मिलन सम्बन्धी गीतों का ऐसा राग फूंका कि आज तक जनता को तड़पाता और आह्लादित करता है.

कबीर के बाद सूरदास, तुलसी और मीरा आदि वैष्णव भक्तों के गीति काव्यों में रागात्मक तत्वों की प्रधानता पायी जाती है. विद्यापति के सामान सूर के पदों पर भी 'गीतगोविन्द' का प्रभाव स्पष्ट झलकता है.  सूर के गीति काव्य में रतिभाव के तीनों प्रबल और प्रधान रूप - भगवद्विशयक रति, वात्सल्य और दाम्पत्य रति - प्रचुर मात्रा में प्राप्त होते हैं.

तुलसीदास की गीतावली में भी भावों की व्यंजना उसी रूप में हुई है जिस रूप में मनुष्य को उनकी अनुभूति हुआ करती है या हो सकती है.

मीरा ने विरहिणी के रूप में जिन पदों में आत्मनिवेदन किया है वे निजत्व की पराकाष्ठा तक पहुँच गये हैं. मीरा के विरह से आहत हृदय को जब कसक और वेदना विक्षिप्त बना देती है उसकी मनोदशा का कोई पारखी नहीं मिलता.

हरिश्चंद्र युग

 

इन सब के बाद हरिश्चंद्र युग की शुरुआत हुई. इस काल में गीति काव्य की दो धारायें हो गयी.

१. आत्मनिवेदन शैली

२. राष्ट्रीय शैली

भारतेंदु की 'चन्द्रावली' में प्रथम शैली और 'भारत दुर्दशा' में दूसरी शैली स्पष्ट झलकती है.

द्विवेदी युग -

राष्ट्रीय गीत ' जय जय प्यारा भारत देश' श्री धर पाठक जी के गीत से सारा हिंदी प्रदेश गूँज उठा. इस युग के मैथिलीशरण गुप्त जी के राष्ट्रीय गीतों का अधिक प्रचार हुआ. 

बाबु गुलाब राय जी का मत था कि गुप्त जी ने चार प्रकार के गीतों का प्रणयन किया ;

१. छायावादी  २. आह्लादसूचक  ३. वेदनासूचक ४. नारी-गौरव सूचक.

छायावादी गीति काव्य की प्रेरणा भूमि

द्विवेदी युग में गीति काव्य की दो प्रमुख धाराएँ थी :

१. भारतीय परंपरावादी

२. परिवर्तनवादी

महावीर प्रसाद द्विवेदी प्रथम धारा के समर्थक थे, और नवयुवक  कवियों मे मुकुट धारी, प्रसाद, पंत, निराला आदि द्वितीय धारा के परिपोषक थे. परंपरावादियों की रूढ़िवादिता और हिन्दी के प्रति अँग्रेज़ीदानों की उपेक्षा के थपेड़ो से ऊबकर नवयुवक वर्ग कोई नया मार्ग ढूँढने को व्यग्र हो रहा था.  इसी काल मे बंगाल का एक भारतीय अपनी ही भाषा और अपने ही परिचित विचारों के बल से काव्य के विशाल मंदिर में विश्व के दिग्गज विद्वानों द्वारा सम्मानित किया जा रहा था. उसकी कविता ने भारतीय भाषा प्रेमियों को उस तिमिराच्छन्न काल मे आशा की वह ज्योति दिखाई जिसकी ओर निराश हृदय नवयुवक दौड़ पड़े. रवीन्द्रनाथ टैगोर की रचनाए बड़ी रूचि के साथ  पढ़ी जाने लगीं. गुप्त बंधु और सुमित्रा नंदन पंत  ने यह स्वतः स्वीकार किया है कि उन पर रवीन्द्रनाथ की रचनाओं का अत्यधिक प्रभाव पड़ा है.

पंत जी का मत है कि - पूर्व में उपनिषदों के दर्शन के जागरण की आभा को पश्चिम की यंत्र युग की सभ्यता सौंदर्य बोध से दूषित कर कवीन्द्र रवीन्द्र ने सर्व-प्रथम छायावाद की भावना को जन्म दिया.

इतिहास साक्षी है कि ईसा की बीसवीं शताब्दी लगते लगते स्कूलों और कालेजों में अँग्रेज़ी साहित्य की शिक्षा का प्रचार व्यापक बन गया था. परिणाम-स्वरूप अँग्रेज़ी काव्य का प्रभाव हिन्दी कविता की गतिविधि पर पड़ने लगा. नंददुलारे वाजपेयी का मत है कि इसका सबसे अधिक प्रभाव हिन्दी की उस काव्यधारा पर पड़ा जो थोड़ी अधिक भाव-प्रवणता लिए उद्भासित  हुई. इस स्वच्छंदतावादी  काव्य प्रवृति में उत्तर  भारत की परिवर्तन शील सामाजिक स्थितियाँ मुख्य रूप से कारण बनीं थी.

इन सब कारणों से छायावादी कविता का जन्म हुआ. जन्मकाल मे इसका रूप कई आचार्यों को इतना विकृत प्रतीत हुआ कि वे इसका जन्म - देश और जाति के लिए अमंगलकारी मानते थे. आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने एक बार खीजकर लिखा : छायावादियों की रचना तो कभी समझ में भी नही आती. ये लोग बहुधा बड़े ही विलक्षण छंदों या वृतों का भी प्रयोग करते हैं. कोई चौपदे लिखते हैं, कोई छःपदे, कोई ग्यारह पदे, कोई तेरह पदे  ! किसी की चार सतरें गज गज भर लंबी तो दो सतरें दो ही दो अंगुल की. फिर ये लोग बेतुकी पद्यावलि भी लिखने की बहुधा कृपा करते हैं. इस दशा में इनकी रचना एक अजीब गोरख धंधा हो जाती है. न ये शास्त्र की  आज्ञा के कायल, न ये पूर्ववर्ति कवियों की प्रणाली के अनुवर्ती ; न ये समालोचकों के परामर्श की परवाह करनेवाले. इनका क्या इलाज हो सकता है, कुछ समझ में नहीं आता.

छायावाद की प्रयोगावस्था -

छायावादी  कविता अपने आरंभिक काल में स्वच्छंदतावाद के समीप पहुँचती है और परिपक्वावस्था में रहस्यवाद का दर्शन कराती है. सन 1850 से 1912 तक की हिन्दी कविताओं पर अँग्रेज़ी की स्वच्छंदतावादी काव्य प्रवृति के अपरिपक्व रूप का प्रभाव झलकता है, किंतु सन 1913 से 20 तक का समय ऐसा प्रतीत होता है मानो हिन्दी कवियों की स्वच्छंदतावादी प्रवृत्ति परिपक्व और प्रगाढ़ बनती हुई छायावाद की विशिष्ट काव्यशैली के रूप में परिवर्तित और परिणत होती जा रही है.

अगला भाग अगले वृहस्पतिवार को …

                                                                                                                                                       क्रमशः