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शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

आँच, आलोचना और मेरी अज्ञानता


आँच, आलोचना और मेरी अज्ञानता
-        सलिल वर्मा

एक धर्मगुरू किसी निर्जन टापू पर फंस गया. वहाँ से निकलने का कोई रास्ता न पाकर वह वहीं भटकता हुआ लौटने की जुगत लगाने लगा, जैसे आग जलाकर धुआँ उत्पन्न कर किसी जहाज को सांकेतिक सन्देश देना. भटकते-भटकते उसने देखा कि कुछ जंगली वहाँ अपने परमात्मा की उपासना कर रहे थे. उनकी प्रार्थना अजीब थी और उस धर्म गुरू के धर्म में बतायी गयी प्रार्थना से सर्वथा भिन्न थी. ऐसे लोग विपत्ति के समय भी अपना स्वभाव नहीं छोडते हैं, अतः उसने अपने धर्म-प्रचार का यह अवसर गंवाना उचित नहीं समझा या कहें कि उसका सदुपयोग ही कर लेना चाहा. वे जंगली लोग आक्रामक नहीं थे. उस गुरू ने देखा कि तीन व्यक्ति उन जंगलियों की उस प्रार्थना की अगुआई कर रहे थे.

धर्म-गुरू ने उन तीनों को अलग बुलाया और उनसे बात की. उसने उन्हें यह भी बताया कि उनकी प्रार्थना-पद्धति सही नहीं है.  वे तीनों उस गुरू की प्रार्थना सीखने को तैयार हो गए. गुरू ने बड़े जतन से उन्हें पूरी पद्धति और विधि-व्यवहार समझाया. संयोग से जिस दिन उनकी पूजा-विधि का व्यावहारिक प्रयोग करने का समय आया, उसी दिन उस गुरू को ढूँढता हुआ एक जहाज उस द्वीप के तट पर आ पहुंचा और धर्म-गुरू को उन जंगलियों को विदा कहना पड़ा. द्वीप से लौटते समय उसके मन में एक संतोष था कि वहाँ बिताए कुछ दिन व्यर्थ नहीं गए, प्रभु के प्रति समर्पित रहे.

जहाज महासागर में निकल पड़ा और लगभग चार-पाँच घंटे की यात्रा में उस द्वीप से मीलों दूर निकल आया. अचानक समुद्र की ओर निहारते हुए उस गुरू को समुद्र की सतह पर दौडती हुई तीन आकृतियाँ दिखाई दीं. जब वे आकृतियाँ पास आईं तो उसने देखा कि पानी पर भूमि की समतल सतह की तरह दौड़ते हुए वे तीनों वही जंगली थे. वह गुरू आश्चर्य-चकित था, इस चमत्कार पर. जब वे तीनों जहाज के समीप पहुंचे तो उन्होंने धर्म-गुरू से पूछा, “श्रीमान! आपके जाते ही हम आपकी बतायी प्रार्थना भूल गए. कृपया एक बार पुनः बताने का कष्ट करें. यही जानने के लिए हमें इतनी दूर आपके पास आना पड़ा! क्षमा चाहते हैं!”
धर्म-गुरू ने अपने दोनों हाथ जोड़ कर उनसे कहा, “महोदय! मुझसे बहुत बड़ी भूल हुई. ईश्वर से संवाद के लिए कोई पद्धति निश्चित नहीं होती. और अपने मन की बात ईश्वर से कहने के लिए किसी भाषा और विधि-विधान की आवश्यकता नहीं. आप जिस पद्धति से अपनी पूजा किया करते थे, वैसे ही करें.”

एक अज्ञानी बेचारा क्या करे, उसे तो यह भी पता नहीं होता कि वह जो कर रहा है उसे उपासना, प्रार्थना या पूजा कहते हैं.  ऐसे में उस अज्ञानी को क्षमा याचना करनी चाहिए. इसीलिये ज्ञानियों ने अज्ञानियों की क्षमा की भी व्यवस्था कर रखी है. वे कहते हैं कि तुम देवी-देवताओं से कहो कि

आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम्। पूजां चैव न जानामि क्षम्यतां परमेश्वरि॥
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि। यत्पूजितं मया देवि परिपूर्ण तदस्तु मे॥

परमात्मा ने एक बार एक देवदूत को पृथ्वी पर उन लोगों की सूची बनाने भेजा जो ईश्वर से प्रेम करते थे. वो देवदूत घर घर जाकर अपनी पुस्तिका में उन प्रविष्टियाँ करने लगा. अबू नामक एक व्यक्ति ने देखा कि वह देवदूत कुछ लिख रहा है तो उसने पूछ लिया कि आप क्या लिख रहे हैं. देवदूत ने बताया कि उन लोगों के नाम लिख रहा है जो प्रभु को प्यार करते हैं. अबू निराश हुआ, क्योंकि उसने तो कभी प्रभु से प्यार नहीं किया था. उसका नाम उस सूची में था भी नहीं. उसने देवदूत से अनुरोध किया , “यदि आप ऐसे लोगों की सूची बनाएँ जो प्रभु की बनायी हर वस्तु तथा व्यक्ति से प्यार करता है, तो मेरा नाम अवश्य लिखें.” देवदूत चला गया. किन्तु अगले दिन वह पुनः अबू के घर आया. अबू ने पूछा कि क्या ये कल वाली ही सूची है. देवदूत ने कहा, “ हाँ! किन्तु आज इस सूची में तुम्हारा नाम सर्वप्रथम है!”

बस और क्या ईश्वर को प्राप्त करने के लिए उसकी भक्ति के ज्ञान से तो उसके बनाए मानव जाति की सेवा  की अज्ञानता ही सबसे बड़ी भक्ति है.

एक दिन एक चाय की दुकान पर रेडियो पर एक गीत बज रहा था. अज्ञानी रामबिलास उस गीत को सुनकर आनंदित हुआ जा रहा था. उसके साथ बैठे एक ज्ञानी सज्जन ने उससे कहा कि तुम्हें पता भी है कि यह गीत राग भैरवी में रूपक ताल पर संगीतबद्ध किया गया है.
रामबिलास बोला,  “महाराज ई गाना सुनकर हमको लगता है कि स्वर्ग का आनंद भी इसके आगे फीका है. हमको आपका राग अउर ताल के बारे में कुच्छो नहीं मालूम. हम ठहरे गंवार, मगर ई जानते हैं कि हमरे किसोरी चचा के गला में सुरसती का बास था. ई गाना जो रेडियो में बज रहा है, किसोरी चचा के गाना से निकाला हुआ है. अब आपको का बताएं कि हमरे किसोरी चचा थे अंगूठा छाप. उनको आपके जइसा सुर, ताल, राग, मात्रा, ठुमरी, दादरा का जानकारी नहीं था, मगर उनके आगे बइठकर कोनो करेजा से उठने वाला गाना का राग छेडिए त तनी, उनका आँख से लोर टपकने लगेगा. अरे संगीत त करेजा से निकलकर करेजा में समा जाने वाला चीज है.”

कमाल का (अ)ज्ञानी था रामबिलास. साइकिल के आगे रेडियो लटकाए घूमता रहता था. संगीत प्रेमी था कि संगीत साधक, पता नहीं.

वही बात कविता के ज्ञान पर कहना चाहता हूँ... क्षमा चाहता हूँ अज्ञान पर. एक चाँद जो किसी वैज्ञानिक को कोई आकाशीय पिंड दिखाई देता है, किसी कवि को उसकी प्रेमिका का मुख, किसी भूखे को रोटी का टुकड़ा, किसी भिखारी को अठन्नी. वैसे ही कविता का अर्थ कोई कैसे ग्रहण करता है यह तो पाठक पाठक पर निर्भर करता है, जब तक कि कवि स्वयं उस कविता के अर्थ पर अपनी टीका की गाँठ न लगा दे. फिर भी दूसरों के द्वारा ग्रहण किये गए अर्थों को ‘डिलीट’ करना तो उस कवि के बस की भी बात नहीं. तभी तो श्रीमद्भागवत गीता की अनगिनत व्याख्याएं उपलब्ध है.

अंत में, कविता के अपने ज्ञान के विषय में कुछ ज्ञानी कवियों के वक्तव्य प्रस्तुत करते हुए अपनी बात समाप्त करता हूँ.

यों मैं कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ:
काव्य-तत्त्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ ?
चाहता हूँ आप मुझे
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें ।
पर प्रतिमा--अरे, वह तो
जैसी आप को रुचे आप स्वयं गढ़ें । (अज्ञेय)
या फिर

कहनेवाले चाहे कुछ कहें
हमारी हिंदी सुहागिन है सती है खुश है
उसकी साध यही है कि खसम से पहले मरे
और तो सब ठीक है पर पहले खसम उससे बचे
तब तो वह अपनी साध पूरी करे । (रघुवीर सहाय)

और एक तुकबंदी जहाँ शब्दों की फिजूलखर्ची साफ़ दिखाई देती है जिसे पढकर सड़क पर भागते पहिये का नहीं रेलगाड़ी के पहियों का दृश्य और उसकी गति का अनुमान स्वतः ही हो जाता है...

फुलाए छाती, पार कर जाती,
आलू रेत, बालू के खेत
बाजरा धान, बुड्ढा किसान
हरा मैदान, मंदिर मकान
चाय की दुकान
पुल पगडंडी, टीले पे झंडी,
पानी का कुण्ड, पंछी का झुण्ड,
झोपड़ी झाडी, खेती बाड़ी,
बादल धुआँ, मोट कुआं,
कुँए के पीछे, बाग बगीचे...   (डॉ. हरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय)

इति!

मंगलवार, 26 जुलाई 2011

तेरी बिंदियाँ रे!


तेरी बिंदियाँ रे!
सलिल वर्मा
बहुत पुरानी एक घटना का वर्णन, जो मेरे परिवार के लगभग हर सदस्य को मुखस्थ है, आज के विषय के अनुसार बिलकुल उपयुक्त लग रही है. प्रस्तुत है उस घटना के दो पात्र मेरे अनुज और उसके एक मित्र के मध्य हुए वार्त्तालाप का एक अंश:


अरे यार! कहाँ जा रहे हो?
संज़य के घर.
कुछ ख़ास?
पूज़ा है.
अच्छा है. धर्म-कर्म करना चाहिए.
क्या करें. ज़ाना ही पडता है.
क्यों?
मज़बूरी है, समाज़ में करना पडता है.


ध्यान दें कि मेरे अनुज के प्रत्येक प्रश्न के उत्तर में उसके मित्र ने जितने भी वक्तव्य दिए हैं सब में उच्चारण की भूल की है. यदि यह उच्चारण की भूल है तो अवश्य ही उनके लेखन में भी परिलक्षित होगी.


उर्दू भाषा के कई शब्द हिन्दी में इस तरह घुल-मिल गए हैं कि दोनों में विभेद करना दुरूह हो गया है. दोनों भाषाओं की वर्णमाला में मूलभूत अन्तर यही है कि उर्दू में कई अक्षर हिन्दी के समान हैं और उर्दू में भी पाए जाते हैं, किन्तु उन्हीं अक्षरों का उच्चारण भिन्न प्रकार से किया जाता है. इस उच्चारण के कारण ही वे उर्दू वर्णमाला का नया वर्ण बन जाते हैं.  


उदाहरण के लिए उर्दू का अक्षर जीम जिसे ध्वनि के लिए प्रयोग किया जाता है, जबकि ज़ाल वर्ण का उच्चारण ज़ है. वैसे ही क़ाफ क़ के लिए और काफ के लिए प्रयुक्त होता है. हिन्दी में इन्हें अपनाने के साथ सबसे बड़ी समस्या इनके उच्चारण की थी और लिपिबद्ध करने की भी. लिपिबद्ध करना इसलिए भी अनिवार्य हो गया था कि उच्चारण स्पष्ट हो सके.


इसका सरल उपाय यह निकाला गया कि इन वर्णों को लिखते समय, देवनागरी के उन वर्णों के नीचे एक बिंदी लगाई जाए (जिसे उर्दू में नुक्ता कहते हैं). इसका कोइ वैज्ञानिक कारण नहीं रहा होगा, सिवा इसके कि उन शब्दों को उच्चारित करते समय यह ध्यान रहे कि उन वर्णों का उच्चारण विशेष प्रकार से करना है.


इस लेख के प्रारम्भ में जो वार्तालाप के अंश दिए गए हैं, उसमें सबसे बड़ी भूल यही है कि उस व्यक्ति ने प्रत्येक वाक्य में का प्रयोग ज़ के रूप में किया है. जबकि किसी भी शब्द में उसकी आवश्यकता नहीं थी. प्रायः इस तरह की स्थितियां व्यक्ति को हास्य का पात्र बना देती है. इस घटना को याद कर हम आज भी हँसते हैं.


उर्दू-शब्दों के हिन्दी में प्रयोग करने के कारण एक और सामान्य भूल जो देखने में आती है वह है उर्दू के उन वर्णों का उच्चारण अत्यधिक बलपूर्वक करना. जैसे ग़ैरत में इतने बल प्रयोग से उच्चारण करना कि गले की बलगम बाहर आ जाए. ऐसे ही कोई व्यक्ति किसी तेल-फुलेल वाले की दुकान पर जाकर पूछने लगा, क्या आपके पास गुलरोग़न का तेल मिलेगा? लेकिन यह बोलते समय उन्होंने इतना जोर लगाया कि दुकानदार को कहना पड़ा, मिल तो जाएगा, लेकिन उतना गाढा नहीं होगा जितना आप ढूंढ रहे हैं.


अब ज़रा और फ़ की करामात भी देखिए. किसी ने अपनी प्रेमिका की प्रशंसा में कह दिया कि दुनिया में तुमसे अच्छा फ़ूल मैंने नहीं देखा. और बेचारे का प्यार परवान चढाने से पहले ही टूट गया. प्रेमिका उर्दू की अच्छी समझ रखती थी और उसने समझ लिया  कि फ़ूल तो अंग्रेज़ी का शब्द है जिसका अर्थ है मूर्ख. अब एक मामूली सी बिंदी ने सब गुड़ गोबर कर दिया. एक शब्द तो ऐसा है जिसमें हिन्दी और उर्दू का अंतर भी नहीं दिखाई देता. वह शब्द है फिर. लेकिन बहुत से लोग इसे बोलते हैं फ़िर. टीवी सीरियल्स में तो धडल्ले से यह प्रयोग होता है.


एक प्रोग्राम में जावेद अख्तर साहब ने भी इस बात पर अपनी शिकायत दर्ज़ की थी. लेकिन असर शायद ही होता दिखता है. मेरे अभिन्न मित्र जब भी कोइ आलेख लिखते हैं तो मुझे पहले भेज देते हैं. उनका कहना है कि वे नहीं समझ पाते कि कहाँ बिंदियाँ लगानी है कहाँ नहीं. लिहाजा कहीं नहीं लगाते.

मेरे प्यारे दोस्त हैं और उससे भी प्यारी है उनकी बात. उनका कहना है, एक रचना भेज रहा हूँ. इसे बिंदियों से सजाकर दुल्हन बना दो!

शनिवार, 4 जून 2011

आओ मिल जाएँ हम सुगंध और सुमन की तरह


                          Salil Varma 
- सलिल वर्मा
(एक घोषणा: मुझमें भाषा की कोई समझ नहीं है और ना ही मैं साहित्य का विद्यार्थी रहा हूँ. यह आलेख एक सामान्य जानकारी और साधारण जिज्ञासा का परिणाम है, जो किसी भी व्यक्ति के मन में जागृत हो सकती है. इसलिए इस आलेख को उसी आलोक में ग्रहण किया जाए.)
भाषा और राजभाषा की चर्चा से पूर्व एक पहेली. भारतवर्ष की एक ऐसी भाषा का नाम बताएं जो पाँच अक्षरों के मेल से बनी है और जिसे उलटा सीधा दोनों तरफ से एक समान पढ़ा जा सकता है. अगर आपका उत्तर है मलयालम, तो मैं कहूँगा, गलत जवाब! और मेरी बात यहीं से आरम्भ होती है. मलयालम शब्द वस्तुतः मलयाळम है, अतः इसे उलटा पढने पर, इस शब्द में और का स्थान परिवर्तित हो जाएगा, साथ ही उच्चारण भी. अब आप समझ गए होंगे कि आपका उत्तर क्यों और कैसे गलत है.
हिन्दी से राजभाषा के रूप में परिचय अपनी नौकरी के सिलसिले में हुआ. भारत सरकार के उपक्रम में कार्य करने के कारण हिन्दी दिवस, हिन्दी कार्यशाला आदि के माध्यम से राजभाषा के रूप में हिन्दी की उपयोगिता जानने को मिली. बताया गया कि देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली यह भाषा अत्यंत सरल है और इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि शब्दों को जिस प्रकार उच्चारित किया जाता है, ठीक वैसे ही इन्हें लिपिबद्ध भी किया जाता है. अर्थात, जैसा उच्चारण, वैसा ही लेखन या हिज्जे. एक और विशेषता यह भी बताई गयी कि इस भाषा ने कई स्थानीय, प्रादेशिक, देशज व विदेशज शब्दों को सहज ही सामाहित कर लिया है, जिसके कारण वे शब्द हिन्दी का ही एक अभिन्न अंग प्रतीत होते हैं.
मेरे विचार से इसी उदारता के कारण हमारी वर्णमाला की सीमा का भी पता चला. कालान्तर में कई ऐसे स्वर, व्यंजन अथवा मात्राएं प्रयोग में लाई गईं, जो हिन्दी-वर्णमाला में नहीं थीं. कारण स्पष्ट है कि देवनागरी की वर्णमाला हिन्दी शब्दों के लिए थी, न कि हिन्दी इतर भाषाओं के लिए. न वे शब्द थे हिन्दी में, न उनको लिखने के लिए हमारे पास वर्णमाला में अक्षर थे; न वे ध्वनियाँ थीं, न उनको लिपिबद्ध करने के लिए हमारे पास मात्राएं थीं.
विज्ञापन की दुनिया ने इस आवश्यकता का सर्वाधिक बोध कराया, जब कई शब्द अंग्रेज़ी से हू-ब-हू लिप्यांतरित कर दिए गए. एक विज्ञापन की टैग लाइन है “Go get it!”. यदि इसे देवनागरी में लिखा जाए तो एक शब्द व्यवधान पैदा करता है. वह शब्द है “Get”. हिन्दी में Get और Gate दोनों को गेट ही लिखा जाता है. किन्तु पहले शब्द की ध्वनि, दूसरे स्वर की ध्वनि से भिन्न है अर्थात उच्चारण भिन्न. यही बात College शब्द के भी साथ दिखाए देती है. बिहार में जहां इसे कौलेज कहा जाता है, वहीं यू.पी. में कालेज. जबकि इस शब्द का उच्चारण दोनों के मध्य कहीं पर है.
दक्षिण भारतीय भाषाओं में यह समस्या नहीं है. वहाँ की वर्णमाला में स्वर , और तथा , और सम्मिलित हैं. जिस कारण वे इस प्रकार लिखते हैं:
Get: गॅट        Gate: गेट     College: कॉलेज
मराठी और दक्षिण भारतीय भाषाओं में एक अक्षर है जिसका उच्चारण, हिन्दी के से भिन्न है. किन्तु इसे भी हम के स्थानापन्न के रूप में प्रयोग करते हैं. जबकि किसी मराठी माणूस को पूछ कर देखें तो दलवी और काले बिलकुल अलग हैं दळवी और काळे से.
पिछले दिनों कनिमोड़ी के समाचारों में बने रहने के कारण, उनके नाम की कई हिज्जे देखने को मिली. दक्षिण भारतीय भाषाओं में एक अक्षर है इसका उच्चारण बड़ा कठिन है, क्योंकि इसमें जीभ को घुमाकर कंठ की ओर ले जाकर एक ध्वनि उत्पन्न की जाती है, जो हिन्दी के और ड़ के बीच की ध्वनि है. रोमन लिपि में इसे “Zha” लिखने का प्रचलन है और अंग्रेज़ी का अंधानुकरण करने के कारण हम कभी कनिमोझी, कभी कनिमोज़ी लिखते और बोलते हैं. पहले इस अक्षर को में नुक्ता लगाकर लिखा जाता था.
उर्दू और हिन्दी के संबंधों पर तो कई चर्चाएं और बहस हुईं है. ग़ालिब और मीर भी देवनागरी में लिप्यांतरित होकर उपलब्ध हैं. उर्दू के कई शब्दों को हमने देवनागरी के अक्षरों के नीचे बिंदी लगाकर अपना लिया है जैसे ग़ालिब, ज़ेवर, फ़रमाइश आदि.
आज जब लिप्यान्तरण, अनुवाद तथा साझेदारी, भाषा को समृद्ध कर रही है (अंग्रेज़ी शब्दकोष में हिन्दी भाषा से लिए गए शब्द Loot, Dacoity, Bandh, Gherao आदि) तो आवश्यकता है कि उनको ससम्मान स्वीकार किया जाए; इसके लिए चाहे क्यों न हिन्दी वर्णमाला, मात्राओं आदि में स्वल्प परिवर्तन करना पड़े. प्रांतीय भाषाओं को अंतर नहीं पड़ता, किन्तु राजभाषा और राष्ट्रभाषा होने के लिए यह अनिवार्य है कि हिन्दी के सुमन से अन्य भाषाओं की सुगंध साहित्य को सुवासित करे.