रविवार, 15 मई 2011

जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !!

कहानी ऐसे बनी-24
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हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

                                                  रूपांतर :: मनोज कुमार

"धन्य दरभंगा.... दोहरी अंगा...... काहे नाच रहे हैं नंगा.... !!                               हो... ओ... ओ.... धन्य दरभंगा.... दोहरी अंगा...... काहे नाच रहे हैं नंगा..... !!”

उस दिन लहरू भाई साइकिल की घंटी पर ताल मिलाते हुए लहर छोड़ कर गा रहे थे। लहरू भाई को पहचाने कि नहीं..... ? अरे वही डीह पर वाले .... पिछले लगन में जिनका ब्याह हुआ था ..... बराती गए थे न  सुखी हुई जीवछ नदी को पार कर के.... ? याद आया न वही लहरू भाई !

ब्याह का साल भी नहीं लगा और ये लहरू भाई का पांचवा ट्रिप था। इस बार हमें भी साथ ले गए थे। दरअसल बहुत चिढाया था न उनको .... तो बोले कि चल तू भी भौजी से मिल आना। बस हम भी फुल-पैंट और हवाई शर्ट पर चमरौधा बेल्ट कसे और अपनी खटारा साइकिल जोत दिए। सूर्य भगवान अस्ताचल पर थे। पूरा आकाश लाला गया था। चिड़ई-चुनमुन्नी सब चायं-चुइं करते हुए घोसला की तरफ उड़े जा रहे थे और हमलोग भी अपनी साइकिल पर खर-खर करते उनसे रेस लगाए थे। पंछी का हजूम पीपल पर बैठ गया और हम दोनों भाई जीवछ के बाँध से नीचे साइकिल ढुलका दिए।

शाम ढ़लते ही लहरू भाई की ससुराल में साइकिल लगा दिए। छोटे वाले साले डमरुआ कमर ऊपर और गर्दन  नीचे कर के फू...फू...... कर घूरा फूँक रहा था। जैसे ही सिर उठाया.... बेचारे की आँख  आंसू  भरा था और ‘पाहून आये... पाहून आये’ .... का शोर मचाने लगा। ससुर महराज वहीं खाट पर बैठे थे। उनके पांव लगे। फिर वहीं आराम से बेंच पर बैठ गए। थोड़ी देर में लहरू भाई भी अन्दर चले गए। हमें छोड़ गए खूसट ससुर के भरोसे।

बूढा बात भी करते तो क्या .... 'गेहूं की फसल कैसी है... ? सरसों कट्ठा में कैसे गिरा.... ? तम्बाकू का पत्ता तो नहीं न जला   शीत-लहर  में.... ? हम ऊपर से तो हाँ-हूँ कर रहे थे मगर मन ही मन बोले, "आपही क्यों नहीं सबसे पहले झरक गए पाला में।"

अन्दर से फुलही थाली में चूरा का भूजा और हरी मिर्च आया तो ससुर जी का इंटरव्यू बंद हुआ। भूजा फांकने के बाद बुढउ सरक गए घूरा के पास। हम अकेले टुकुर-टुकुर छप्पर की बांस-बल्ली गिन रहे थे। तभी डमरुआ आ कर बोला, "भीतर ही चलिए न... पाहून बुला रहे हैं।'

आंगन में तो एकदम से मंडली ही जमी थी। बडकी सरहज, मझली सरहज, छोटकी साली... बगल वाली.... और न जाने कौन-कौन। सब मिल के लहरू भाई की लहर छुड़ाए हुए थे। कोई इधर से मजाक दागे, कोई उधर से चुटकी.... कोई इधर से छेड़े... तो कोई उधर से संभाले। लेकिन हमें देखते ही लहरू भाई हिम्मत से दोगुने हो गए। पहले हमारा परिचय करवाए सबसे... फिर तो हम भी सब का लाइन-डोरी सीधा कर दिए।  औरत मंडली मुझसे बतकुच्चन में नहीं टिका तो डमरुआ के दो-चार यार-दोस्त सब आ गए.... लेकिन वे हमलोगों जैसे खेले-खाए  से कैसे मोर्चा ले। तुरत हथियार डाल दिया।

बातों ही बातों में कैसे एक पहर रात बीत गयी पता भी नहीं चला। लड़की-लुगाई अपने-अपने घर गयी। लेकिन एक-आध बुजर्ग महिला अभी भी हुक्का गुड़गुड़ा रही थीं। लहरू भाई की मझली साली ठांव-पीढी लगा गयी। बड़की सरहज आ के बोली, "उठिए ! हाथ-मुँह धोइए, भोजन लगाते हैं।"

लहरू भाई छोटकी साली से और हम डमरुआ के हाथ से पितारिया लोटा लिए और गुलगुला कर मुँह का पानी फेंके। हाथ-वाथ धोये और पीढ़ी पर आसन जमा दिए।

परात जैसा दो-दो गो फुलही थाली सामने पड़ गया। अरवा चावल का भात, नयका अरहर की दाल, आलू-बैगन-बड़ी की तरकारी, आम का अंचार, कद्दू का भुजिया, तिलकोर का तरुआ, तिलौरी पापर..... ! ओह... जैसे-जैसे आइटम पर आइटम आ रहा था भूख उतनी ही स्पीड से बढ़ी जा रही थी। वो कहते हैं न कि, "तुलसी सहा न जात है, पत्ते पर की भात !"

सब आइटम पड़ गया थाली में। हम जैसे ही भात में दाल मिलाने लगे कि लहरू भाई के चचेरे ससुर बोले, "आ..हा... ! रुकिए ! घी तो आने दीजिये।"

धत्त्‌ तेरे  के ..... अभी और देर है। हम भी सोचने चलो, घी मे कितनी देर लगेगी .... ? लेकिन यह क्या ... ? और सब आइटम तो फटाफट आता गया.... घी कहीं निकालने तो नहीं लगी ? दो मिनट हुआ कि भौजी के कक्का फिर चिल्लाये, "ए कहाँ गया सब ? जल्दी घी ले के आओ न... !"

थाली में सजा हुआ भोजन को देख कर मेरे मुँह में तो कमला का उफान उठा हुआ था। लेकिन मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी.... किसी तरह हाथ बांधे बैठे रहे। मझली सरहज देखने आयी कि खा रहे हैं या नहीं। उनको देखते ही कक्का बोले, "है दुल्हिन ! अरे देखो ! कुटुम्ब सब थाली पर इंतजार कर रहे हैं। घी दो न जल्दी। दुल्हिन गयी अन्दर तो अंदर ही रह गयी। हमको लगने लगा कि घी मे कुछ गड़बड़ है। तभी बहु के बदले बाहर निकली सासू।

सब कुछ से अनजान बनते हुए सासू जी हमको देख कर हाथ उल्टा चमकाई और लहरू भाई से भौंह नाचा कर बोली, "जा... पाहून अभी तक भोजन नहीं शुरू किये.... कीजिये ! कीजिये !! फिर हमें बोलीं, "बबुआ ! क्या ? कुछ गड़बड़ हो गया क्या ?"

हम बोले, "नहीं-नहीं।"

फिर वो बोली, "तो होइये न... ! भोग लगाइए !"

हम जब तक भात में दाल मिलाते कि हुक्का-मंडली मे से एक महिला बोल पड़ीं, "जा री झाखरा वाली कनिया ! अरे घी पड़ेगा थाली में तब न कुटुंब कौर उठावेंगे।"

हम पर तो समझिये कि वज्रपात ही हो गया.... ! मन-ही-मन लगा कि, "न घी आएगा... न ई लोग कौर उठाने देंगे।” लेकिन बलिहारी लहरू भाई के सासू की हाज़िरजवाबी का। बोली, “नहीं-नहीं। घी का छौंक दाल में ही लगा दिए हैं।”

हम जैसे ही कौर बांधे लगे कि एक दूसरी महिला बोल पड़ीं, "ए दुल्हिन ! छौंक लगा दिए तो क्या .... अरे दामाद जी आये हैं। दीजिये करका के दाल में उड़ेल।”

भीतर-ही-भीतर हम खिसियाइयो रहे थे.... इस घी के चक्कर में खा-म-खा भात-दाल ठंडा रहा है। लेकिन लहरू भाई की सासू भी आयी थी फुल-होमवर्क कर के। कही, "नहीं ए काकी ! हम नहीं देंगे घी करका के। उतना गरम-गरम घी खायेंगे, कहीं दामाद जी की जीभ जल गयी तो .... ? नहीं-नहीं हम ऐसा काम नहीं करते हैं। सो पहिले ही दाल में मिला दिए।.... का पाहून ?"

लहरू भाई भी बसहा-बैल की तरह सिर ऊपर नीचा हिला दिए। सब को राजी देख हुक्का मंडली की पहली महिला बोली, "हाँ ! ठीक ही है। 'जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !! होइये कुटुंब जन ! घी दाल में ही है। शुरू कीजिये भोजन।"

लालटेन की रोशनी में कौर उठाते हुए हमने देखा लहरू भाई की सासू के होठों पर विजयी और हुक्का-मंडली के मुँह पर कुटिल मुस्कान झलक रही थी।

कल जब वापस लौट रहे थे तो हमने लहरू भाई से पूछा, "क्या लहरू भाई ! अरे हुक्का मंडली की कहावत,'जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !!' समझे कि नहीं ?"

हरू भाई बोले, "इस में समझाना क्या है ? अरे गरम घी खाने से जीभ तो जल ही जाएगी न...!"

हमने कहा, "धत्त्‌! आप क्या समझिएगा ? अरे भाई घी की मात्र ही कितनी होती है ? और फिर दाल में मिल जाने पर वो गर्म ही कितना रह जाता है कि जीभ जलने की संभावना हो... ! पापर-तिलौरी, तरुआ सब कुछ तो गर्म ही था..... सब तो फटाफट आ गया। समस्या खाली घी से ही क्यों ... जो उतनी देरी से भी नहीं आया?"

लहरू भाई बोले, "हूँ ! हो सकता है घी दाल छौंकने में ही ख़तम हो गया होगा।"

"हाँ.... !" हम भी हवाई शर्ट के कालर को ऊपर उठा कर बोले, "हाँ ! अब आप समझे।"

लहरू भाई धीरे से बोले, "हूँ" तो मुझे लग गया कि असल बात इन्हें समझ आ गयी है.... कुछ भी है तो है आखिर ससुराल ही न.... ! बात को ज्यादा कुरेदना ठीक नहीं। दोनों आदमी जोर-जोर से साइकिल का पैडिल मारने लगे।

अगर आप नहीं समझे तो समझ लीजिये कि "अभाव या अनुपलब्धता को ढंकने के लिए बेकार तर्क प्रस्तुत किये जाएँ तो हुक्का मंडली की ये कहावत याद रखियेगा, 'जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !!'

11 टिप्‍पणियां:

  1. प्रिय दोस्तों! क्षमा करें.कुछ निजी कारणों से आपकी पोस्ट/सारी पोस्टों का पढने का फ़िलहाल समय नहीं हैं,क्योंकि 20 मई से मेरी तपस्या शुरू हो रही है.तब कुछ समय मिला तो आपकी पोस्ट जरुर पढूंगा.फ़िलहाल आपके पास समय हो तो नीचे भेजे लिंकों को पढ़कर मेरी विचारधारा समझने की कोशिश करें.
    दोस्तों,क्या सबसे बकवास पोस्ट पर टिप्पणी करोंगे. मत करना,वरना......... भारत देश के किसी थाने में आपके खिलाफ फर्जी देशद्रोह या किसी अन्य धारा के तहत केस दर्ज हो जायेगा. क्या कहा आपको डर नहीं लगता? फिर दिखाओ सब अपनी-अपनी हिम्मत का नमूना और यह रहा उसका लिंक प्यार करने वाले जीते हैं शान से, मरते हैं शान से
    श्रीमान जी, हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु सुझाव :-आप भी अपने ब्लोगों पर "अपने ब्लॉग में हिंदी में लिखने वाला विजेट" लगाए. मैंने भी लगाये है.इससे हिंदी प्रेमियों को सुविधा और लाभ होगा.क्या आप हिंदी से प्रेम करते हैं? तब एक बार जरुर आये. मैंने अपने अनुभवों के आधार आज सभी हिंदी ब्लॉगर भाई यह शपथ लें हिंदी लिपि पर एक पोस्ट लिखी है.मुझे उम्मीद आप अपने सभी दोस्तों के साथ मेरे ब्लॉग एक बार जरुर आयेंगे. ऐसा मेरा विश्वास है.
    क्या ब्लॉगर मेरी थोड़ी मदद कर सकते हैं अगर मुझे थोडा-सा साथ(धर्म और जाति से ऊपर उठकर"इंसानियत" के फर्ज के चलते ब्लॉगर भाइयों का ही)और तकनीकी जानकारी मिल जाए तो मैं इन भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के साथ ही अपने प्राणों की आहुति देने को भी तैयार हूँ.
    अगर आप चाहे तो मेरे इस संकल्प को पूरा करने में अपना सहयोग कर सकते हैं. आप द्वारा दी दो आँखों से दो व्यक्तियों को रोशनी मिलती हैं. क्या आप किन्ही दो व्यक्तियों को रोशनी देना चाहेंगे? नेत्रदान आप करें और दूसरों को भी प्रेरित करें क्या है आपकी नेत्रदान पर विचारधारा?
    यह टी.आर.पी जो संस्थाएं तय करती हैं, वे उन्हीं व्यावसायिक घरानों के दिमाग की उपज हैं. जो प्रत्यक्ष तौर पर मनुष्य का शोषण करती हैं. इस लिहाज से टी.वी. चैनल भी परोक्ष रूप से जनता के शोषण के हथियार हैं, वैसे ही जैसे ज्यादातर बड़े अखबार. ये प्रसार माध्यम हैं जो विकृत होकर कंपनियों और रसूखवाले लोगों की गतिविधियों को समाचार बनाकर परोस रहे हैं.? कोशिश करें-तब ब्लाग भी "मीडिया" बन सकता है क्या है आपकी विचारधारा?

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  2. रोचक शैली....अपनी कमियों अथवा मजबूरियों को ऐसे ही ढ़का जाता है .....

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  3. लोक-जीवन की विभिन्न स्थितियों का कुशल और रोचक निरूपण !

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  4. कहावतें और लोकोक्तियाँ अब भी सार्थता व संक्षिप्तता के लिए कारगर हैं परंतु इनका उपयोग अब न तो लोग करते हैं और न ही सीखते हैं। अब तो कुछ ही लोग इसका उपयोग करते हैं। गाँव के लोग तो इनका भरपूर उपयोग करते ही हैं। आज ऐसी ही पोस्टों की आवश्यकता है। कोशिश में लगे रहें।

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