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रविवार, 29 मई 2011

कहानी ऐसे बनी - 25 : 'न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको’

कहानी ऐसे बनी - 25 :

'न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको’

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

नमस्कार जी !

अरे बाप रे बाप ........ उस दिन जो बघुअरा वाली और चमनपुर वाली के बीच 'महाभारत' हो रहा था..... ! ऊँह पूछिये मत। कितने दिनों बाद ऐसा-ऐसा आशीर्वाद सुने कि मन तृप्त हो गया। अब आप पूछेंगे कि ये बघुअरा वाली कौन है ? अरे उनको पहचाने नहीं... ? वही चमनपुर वाली की पड़ोसन। धत्त तेरे की .... अब ये चमनपुर वाली कौन है ? अरे महराज कहा तो.... बघुअरा वाली की पड़ोसन.... ? अब आपको लग रहा होगा कि ये दोनों कौन है .... ? अरे साहब ! इसमें भी कोई मैथमेटिक्स थोड़े है .... दोनों अड़ोसन-पड़ोसन हैं ! हा.... हा... हा.... !! देखे कितना मजेदार चुट्कुल्ला सुनाए हम .... लेकिन उस दिन की कहानी भी कम मजेदार नहीं है।

अरे हम झींगुर दास के साथ पैतैली पेठिया (हाट) से बैल बेच कर आ रहे थे। जैसे ही काली थान से आगे बढे की खूब जोरदार चख-चुख सुनाई दिया। देखे अच्छी-खासी भीड़ भी जुट गयी थी। उस बीच में पीली साड़ी के आंचल को कमर में घुमा कर बांधी हुई चमनपुर वाली ऐसा चमक रही थी कि क्या बताएं .... ! उसी तरह उसकी देवरानी जमी हुई थी, बघुअरा वाली। चमनपुर वाली चमके तो इसके मुँह से भी स्नेह की झड़ी फूट पड़े। चमनपुर वाली चमक कर इस कोने से उस कोने को एक कर रही थी। इधर बघुअरा वाली का हाथ ही काफ़ी था। ऐसे चमकाए कि मुँह के बोल को हरी-पीली चूड़ियों का ताल मिल जाए। भीड़ कभी इसकी बात पर हंस पड़े तो कभी उसकी बात पर समझाए। गाँव में ऐसा डृश्य हमेशा ही देखने को मिल जाता है, लेकिन इन दोनों देवरानी-जेठानी के मधुर संवाद की तो बात ही कुछ और है........ ! एकदम समझिये कि सुर-ताल से सजा। एक बोले ‘मैय्याखौकी’ तो दूजा ‘भैय्याखौकी’ ... !

ऊपर से तो ‘हा-हा’ करें मगर यह सब सुनकर अन्दर से हमरा मन भी प्रफुल्लित हो जाता था। हमने हिम्मत की और दोनों अखाड़े  में घुस गए। हमको देखते ही चमनपुर वाली चमक के आ गयी और हमारे दोनों हाथ पकड़ कर लगी चिल्लाने, "देखिये बौआ ! हमारा केलबन्नी (केले का बगान) ! हमारे केला का घौंद !! और ये छुछिया .... ! लुत्तिलगौनी ..... बेइमनठी … ! काट के रख ली है।"

हमारी दृष्टि बघुअरा वाली पर पड़े कि उससे पहले ही उसका स्पीकर चालु हो गया। हाथ को उल्टा चमका-चमका कर कहने लगी, "हाँ ! यही तो एगो छुलाछन (सुलक्षण) है। हरजाई कहीं की..... ! इतना ही गौरव है तो अपनी जमीन में क्यों नहीं रखी केला के बीट।"

इधर बघुअरा वाली भट्ठी में पड़े चना की तरह फरफरा ही रही थी कि उधर चमनपुर वाली तीसी की तरह चनचना उठी।

अब क्या करें ... मजा तो हमको इसमें रानी सुरुंगा के खेल से भी अधिक आ रहा था। लेकिन गाँव-घर का लिहाज। लोग-वाग एक तो हमें पढ़-लिखा बुद्धिमान समझते हैं। मामला की तहकीकात कर दोनों के मरद को तलब किये। चमनपुर वाली के मरद फुलचन गए हुए थे कुटमैती। बघुअरा वाली का मरद रूपचन ताश का खेल छोड़ कर आया। अब हम, झींगुर दास, बदरू झा, फजले मियाँ सब इधर बात ही कर रहे थे कि उधर फिर एक राउंड शुरू हो गया।

चमनपुर वाली कहे ‘शौखजरौनी ! तेरे जुआनी में लुत्ती लगा देंगे’ .... तो बघुअरा वाली भी कहाँ कम थी .... वो कहे ‘तोरे धन में बज्जर गिरा देंगे।’

इसी पर बदरू झा दोनों को डपटकर बोले, "धत्त ! तोरी जात के मच्छर काटे ! लाज-शर्म नहीं है तुम दोनों जनानी को क्या ? अरे इधर मरद-मानुस बात कर ही रहे हैं न .... ममला सुलझाना है कि कपरफोरी करना है.... ! तभी से कें...कें.... कें.... कें.... गाली-गलौज करे जा रही है।" बदरू झा की बोली में अभी भी सरपंची रुआब था। दोनों चुप हुई। तब हमलोग विस्तार से माजरा समझे।

वो क्या था कि फुलचन और रूपचन दोनों भाई ही थे। फुलचन के केला का पौधा गिर गया था रूपचन के मटर खेत में। रूपचन की जनानी घौंद काट के ले आयी। दोनों घर में वैसे ही बहुत प्रेम था। ऊपर से मालभोग केला के घौंद ने और रस बढ़ा दिया। बस हो गया मंगल के दंगल वीर बली का नाम ले कर।

रूपचनमा कहता कि पहले से ही केला का बीट हटाने को बोले थे तो हटाये नहीं .... हमारा धुर भर का मटर बर्बाद हो गया .... तो हम केला कैसे दे दें..... ! उधर चमनपुर वाली कहे कि हम छोड़ेंगे नहीं !

हमलोग बड़े जतन से रूपचनमा को समझाए। कहे, "अरे जैसे तू ... वैसे फुलचन ... ! दोनों घर तो एक ही है। तू भी खाओ ... तेरा भाई-भतीजा भी खायेगा। आधा घौंद केला इसे भी दे दो।"

रूपचनमा तैयार हो गया। हमलोग के सामने ही कचिया हांसू से बराबर दो भाग काट दिया। तब झींगुर दास बोला, "हे चमनपुर वाली कनिया ! सुनो ! केला तेरा ही सही ... लेकिन इसके खेत में गिरा तो मटर तो बर्बाद हो ही गया। काट कर ले आया तो कोई बात नहीं थी .... जैसा तेरा बाल-बच्चा, वैसा इसका। दोनों आदमी आधा-आधा ले लो !"

लेकिन यह भलाई की दुनिया नहीं। चमनपुर वाली लगी फिर चनचनाने। हमारा केला हम आधा क्यों लेंगे.... ? लबरा पंच सब ! मुँह देख कर पंचैती करता है .... !’

लेओ भैय्या ! अब हम लोगों पर ही उखड़ गयी। उधर बघुअरा वाली भी चिल्लाए जा रही थी, "एक छीमी भी नहीं देंगे केला... ! हमारे मटर का हर्जाना कौन भड़ेगा ?"

रूपचन किसी तरह अपनी लुगाई को समझाए मगर उसकी भौजाई को कौन समझाए.... ! वह तो आकाश-पाताल एक कर रही थी। रह-रह के गुर्राने लगे। हमलोग भी क्या करें ... मूकदर्शक बने हुए थे।

अंत में बेचारा रूपचन भी आजीज हो गया। पत्नी को डांट-डपट कर खुद ही टोकरी में केला डाल कर चला गया भौजाई को देने .... मगर चमनपुर वाली ने उसका तन-वदन, धरम-ईमान का एक भी गति नहीं छोडी। आखिर मरद का जात कितना सहे .... ! वह भी तमसा गया। एकदम से बोल पड़ा, "हे.... ! 'न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको...... !!' जय हो अगिन-देवता ! लो केला का भोग लगाव.... !" कह कर धान उबालने के लिए जो बड़ी भट्टी जल रही थी उसी में दोंनो टोकड़ी का केला उड़ेल दिया..... ! ‘अब लो खा लो केला छील-छील कर ... ! "न तोको न मोको....चूल्हे में झोंको !!"

हा.... हा... हा..... ठी... ठी... ठी.... ! खें..... खें....खें...खें...... हे.... हे...हे....हे.... ! एक पहर से यह कीर्तन भजन का आनंद ले रही भीड़ के मुँह से समवेत ठहाके निकल पड़े।

हम भी बोल उठे, "एकदम सही किया, रूपचन ! यह औरतिया झगड़ा .... बाप रे बाप ! छोटा-बड़ा किसी की बात नहीं समझती है। हमारा है तो हमारा है। हम लेंगे तो हम नहीं देंगे..... ! लो अब ठन-ठन गोपाल.... ! न तोको ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!" अब तो संतुष्टि हुई न .... आधा में संतोष नहीं था तो पूरा गया अग्नि देवता के पेट में।"

हम भी अपनी भड़ास निकाल लिए और भीड़ को पुकार कर बोले, "चले-चलो भाई ! चले-चलो !! खेल ख़तम हुआ... !"

हम भी अपना बटुआ संभाले और झींगुर दास के साथ बढ़ गए घर की तरफ। लेकिन एक बात तो भूल ही गए ..... अरे आप आज की कहावत का मतलब समझे कि नहीं .... ? यह तो एकदम सिंपल है ... । अरे

जब किसी वस्तु के लिए दो आदमी इतना खींचा-तानी करें कि न इसका हो सके न उसका .... और खा-म-खा बर्बाद हो जाए तो आप रूपचन की तरह कह दीजिएगा "न तोको, ना मोको..... चूल्हे में झोंको !!"

तो यही था इसका अर्थ। अब चलते हैं। घर जाने में आज बहुद देरी हो गई। लोग घर पे अंदेशा कर रहे होंगे कि बैल बेच के आ रहा है ..... कहीं राहजनी तो नहीं हो गया ..... ! जय राम जी की !!!

रविवार, 15 मई 2011

जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !!

कहानी ऐसे बनी-24
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हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

                                                  रूपांतर :: मनोज कुमार

"धन्य दरभंगा.... दोहरी अंगा...... काहे नाच रहे हैं नंगा.... !!                               हो... ओ... ओ.... धन्य दरभंगा.... दोहरी अंगा...... काहे नाच रहे हैं नंगा..... !!”

उस दिन लहरू भाई साइकिल की घंटी पर ताल मिलाते हुए लहर छोड़ कर गा रहे थे। लहरू भाई को पहचाने कि नहीं..... ? अरे वही डीह पर वाले .... पिछले लगन में जिनका ब्याह हुआ था ..... बराती गए थे न  सुखी हुई जीवछ नदी को पार कर के.... ? याद आया न वही लहरू भाई !

ब्याह का साल भी नहीं लगा और ये लहरू भाई का पांचवा ट्रिप था। इस बार हमें भी साथ ले गए थे। दरअसल बहुत चिढाया था न उनको .... तो बोले कि चल तू भी भौजी से मिल आना। बस हम भी फुल-पैंट और हवाई शर्ट पर चमरौधा बेल्ट कसे और अपनी खटारा साइकिल जोत दिए। सूर्य भगवान अस्ताचल पर थे। पूरा आकाश लाला गया था। चिड़ई-चुनमुन्नी सब चायं-चुइं करते हुए घोसला की तरफ उड़े जा रहे थे और हमलोग भी अपनी साइकिल पर खर-खर करते उनसे रेस लगाए थे। पंछी का हजूम पीपल पर बैठ गया और हम दोनों भाई जीवछ के बाँध से नीचे साइकिल ढुलका दिए।

शाम ढ़लते ही लहरू भाई की ससुराल में साइकिल लगा दिए। छोटे वाले साले डमरुआ कमर ऊपर और गर्दन  नीचे कर के फू...फू...... कर घूरा फूँक रहा था। जैसे ही सिर उठाया.... बेचारे की आँख  आंसू  भरा था और ‘पाहून आये... पाहून आये’ .... का शोर मचाने लगा। ससुर महराज वहीं खाट पर बैठे थे। उनके पांव लगे। फिर वहीं आराम से बेंच पर बैठ गए। थोड़ी देर में लहरू भाई भी अन्दर चले गए। हमें छोड़ गए खूसट ससुर के भरोसे।

बूढा बात भी करते तो क्या .... 'गेहूं की फसल कैसी है... ? सरसों कट्ठा में कैसे गिरा.... ? तम्बाकू का पत्ता तो नहीं न जला   शीत-लहर  में.... ? हम ऊपर से तो हाँ-हूँ कर रहे थे मगर मन ही मन बोले, "आपही क्यों नहीं सबसे पहले झरक गए पाला में।"

अन्दर से फुलही थाली में चूरा का भूजा और हरी मिर्च आया तो ससुर जी का इंटरव्यू बंद हुआ। भूजा फांकने के बाद बुढउ सरक गए घूरा के पास। हम अकेले टुकुर-टुकुर छप्पर की बांस-बल्ली गिन रहे थे। तभी डमरुआ आ कर बोला, "भीतर ही चलिए न... पाहून बुला रहे हैं।'

आंगन में तो एकदम से मंडली ही जमी थी। बडकी सरहज, मझली सरहज, छोटकी साली... बगल वाली.... और न जाने कौन-कौन। सब मिल के लहरू भाई की लहर छुड़ाए हुए थे। कोई इधर से मजाक दागे, कोई उधर से चुटकी.... कोई इधर से छेड़े... तो कोई उधर से संभाले। लेकिन हमें देखते ही लहरू भाई हिम्मत से दोगुने हो गए। पहले हमारा परिचय करवाए सबसे... फिर तो हम भी सब का लाइन-डोरी सीधा कर दिए।  औरत मंडली मुझसे बतकुच्चन में नहीं टिका तो डमरुआ के दो-चार यार-दोस्त सब आ गए.... लेकिन वे हमलोगों जैसे खेले-खाए  से कैसे मोर्चा ले। तुरत हथियार डाल दिया।

बातों ही बातों में कैसे एक पहर रात बीत गयी पता भी नहीं चला। लड़की-लुगाई अपने-अपने घर गयी। लेकिन एक-आध बुजर्ग महिला अभी भी हुक्का गुड़गुड़ा रही थीं। लहरू भाई की मझली साली ठांव-पीढी लगा गयी। बड़की सरहज आ के बोली, "उठिए ! हाथ-मुँह धोइए, भोजन लगाते हैं।"

लहरू भाई छोटकी साली से और हम डमरुआ के हाथ से पितारिया लोटा लिए और गुलगुला कर मुँह का पानी फेंके। हाथ-वाथ धोये और पीढ़ी पर आसन जमा दिए।

परात जैसा दो-दो गो फुलही थाली सामने पड़ गया। अरवा चावल का भात, नयका अरहर की दाल, आलू-बैगन-बड़ी की तरकारी, आम का अंचार, कद्दू का भुजिया, तिलकोर का तरुआ, तिलौरी पापर..... ! ओह... जैसे-जैसे आइटम पर आइटम आ रहा था भूख उतनी ही स्पीड से बढ़ी जा रही थी। वो कहते हैं न कि, "तुलसी सहा न जात है, पत्ते पर की भात !"

सब आइटम पड़ गया थाली में। हम जैसे ही भात में दाल मिलाने लगे कि लहरू भाई के चचेरे ससुर बोले, "आ..हा... ! रुकिए ! घी तो आने दीजिये।"

धत्त्‌ तेरे  के ..... अभी और देर है। हम भी सोचने चलो, घी मे कितनी देर लगेगी .... ? लेकिन यह क्या ... ? और सब आइटम तो फटाफट आता गया.... घी कहीं निकालने तो नहीं लगी ? दो मिनट हुआ कि भौजी के कक्का फिर चिल्लाये, "ए कहाँ गया सब ? जल्दी घी ले के आओ न... !"

थाली में सजा हुआ भोजन को देख कर मेरे मुँह में तो कमला का उफान उठा हुआ था। लेकिन मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी.... किसी तरह हाथ बांधे बैठे रहे। मझली सरहज देखने आयी कि खा रहे हैं या नहीं। उनको देखते ही कक्का बोले, "है दुल्हिन ! अरे देखो ! कुटुम्ब सब थाली पर इंतजार कर रहे हैं। घी दो न जल्दी। दुल्हिन गयी अन्दर तो अंदर ही रह गयी। हमको लगने लगा कि घी मे कुछ गड़बड़ है। तभी बहु के बदले बाहर निकली सासू।

सब कुछ से अनजान बनते हुए सासू जी हमको देख कर हाथ उल्टा चमकाई और लहरू भाई से भौंह नाचा कर बोली, "जा... पाहून अभी तक भोजन नहीं शुरू किये.... कीजिये ! कीजिये !! फिर हमें बोलीं, "बबुआ ! क्या ? कुछ गड़बड़ हो गया क्या ?"

हम बोले, "नहीं-नहीं।"

फिर वो बोली, "तो होइये न... ! भोग लगाइए !"

हम जब तक भात में दाल मिलाते कि हुक्का-मंडली मे से एक महिला बोल पड़ीं, "जा री झाखरा वाली कनिया ! अरे घी पड़ेगा थाली में तब न कुटुंब कौर उठावेंगे।"

हम पर तो समझिये कि वज्रपात ही हो गया.... ! मन-ही-मन लगा कि, "न घी आएगा... न ई लोग कौर उठाने देंगे।” लेकिन बलिहारी लहरू भाई के सासू की हाज़िरजवाबी का। बोली, “नहीं-नहीं। घी का छौंक दाल में ही लगा दिए हैं।”

हम जैसे ही कौर बांधे लगे कि एक दूसरी महिला बोल पड़ीं, "ए दुल्हिन ! छौंक लगा दिए तो क्या .... अरे दामाद जी आये हैं। दीजिये करका के दाल में उड़ेल।”

भीतर-ही-भीतर हम खिसियाइयो रहे थे.... इस घी के चक्कर में खा-म-खा भात-दाल ठंडा रहा है। लेकिन लहरू भाई की सासू भी आयी थी फुल-होमवर्क कर के। कही, "नहीं ए काकी ! हम नहीं देंगे घी करका के। उतना गरम-गरम घी खायेंगे, कहीं दामाद जी की जीभ जल गयी तो .... ? नहीं-नहीं हम ऐसा काम नहीं करते हैं। सो पहिले ही दाल में मिला दिए।.... का पाहून ?"

लहरू भाई भी बसहा-बैल की तरह सिर ऊपर नीचा हिला दिए। सब को राजी देख हुक्का मंडली की पहली महिला बोली, "हाँ ! ठीक ही है। 'जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !! होइये कुटुंब जन ! घी दाल में ही है। शुरू कीजिये भोजन।"

लालटेन की रोशनी में कौर उठाते हुए हमने देखा लहरू भाई की सासू के होठों पर विजयी और हुक्का-मंडली के मुँह पर कुटिल मुस्कान झलक रही थी।

कल जब वापस लौट रहे थे तो हमने लहरू भाई से पूछा, "क्या लहरू भाई ! अरे हुक्का मंडली की कहावत,'जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !!' समझे कि नहीं ?"

हरू भाई बोले, "इस में समझाना क्या है ? अरे गरम घी खाने से जीभ तो जल ही जाएगी न...!"

हमने कहा, "धत्त्‌! आप क्या समझिएगा ? अरे भाई घी की मात्र ही कितनी होती है ? और फिर दाल में मिल जाने पर वो गर्म ही कितना रह जाता है कि जीभ जलने की संभावना हो... ! पापर-तिलौरी, तरुआ सब कुछ तो गर्म ही था..... सब तो फटाफट आ गया। समस्या खाली घी से ही क्यों ... जो उतनी देरी से भी नहीं आया?"

लहरू भाई बोले, "हूँ ! हो सकता है घी दाल छौंकने में ही ख़तम हो गया होगा।"

"हाँ.... !" हम भी हवाई शर्ट के कालर को ऊपर उठा कर बोले, "हाँ ! अब आप समझे।"

लहरू भाई धीरे से बोले, "हूँ" तो मुझे लग गया कि असल बात इन्हें समझ आ गयी है.... कुछ भी है तो है आखिर ससुराल ही न.... ! बात को ज्यादा कुरेदना ठीक नहीं। दोनों आदमी जोर-जोर से साइकिल का पैडिल मारने लगे।

अगर आप नहीं समझे तो समझ लीजिये कि "अभाव या अनुपलब्धता को ढंकने के लिए बेकार तर्क प्रस्तुत किये जाएँ तो हुक्का मंडली की ये कहावत याद रखियेगा, 'जल नहीं जायेगी जी (जीभ) ! जो दामाद खायेंगे घी !!'

रविवार, 10 अप्रैल 2011

कहानी ऐसे बनी-23 : मार खाई पीठिया-अंखिया रोई ! हमनी का होई

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।                                               रूपांतर :: मनोज कुमार

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जय हो ! जय हो !!

भये प्रकट किरपाला..... दीन-दयाला कौसल्या हितकारी........... !!!

बधाई हो रामनवमी का त्यौहार !!!

बस आने ही वाला है। नवरात्र चल रहा है। दो दिन बाद हम रामनवमी भी मना रहे होंगे।

अरे राम नवमी से याद आया......... ओह ! कहाँ गए वे दिन ! हाथ-पैर से होली का रंग छूटा नहीं कि जुट जाते थे रामनवमी की तैयारी में। ध्वजा-पताका, बंदनवार, फूल-माला, रंग-रोगन, नाच-गीत........ तैयारी भी तो महाभारत जैसी ही करनी पड़ती थी। लेकिन एक बात है, महावीर स्थान में रामनवमी होती भी थी जमकर !

एक बार का किस्सा कहते हैं। रामनवमी में कीर्तन के लिए 'टोकना मठ' के बाबाजी लोग आये थे। भकोलिया माय कहती थी कि ये लोग बेजोड़ कीर्तन करते हैं। तरह-तरह का रूप बना कर ऐसा स्वांग भरते हैं कि लगेगा सारी अयोध्या नगरी अपने महावीर स्थान में पहुँच गयी है। इस रामनवमी में एक अरसे के बाद 'टोकना-मठ' की मण्डली आ रही थी।

दोपहर में भगवान का जन्मोत्सव हुआ। फिर हनुमान जी की ध्वजा बदली गयी और फिर शुरू हुआ कीर्तन। हमलोग ‘पछियारी टोला’ में खेल रहे थे। वहीं लाउडस्पीकर की आवाज आयी ...

"ध.... धिन्ना... ध...ध... तिरकिट....... धिन ......

जनमे चारो ललनमा हो रामा....... दशरथ आंगनमा.... !!"

हमारे मुँह से फट से निकला, 'अरे रे रे !! ...... चल रे बैजुआ ! महावीर स्थान में कीर्तन शुरू हो गया।'

फिर जिस हाल में थे वैसे ही सारा खेल तमाशा छोड़ हम, बैजू, पचकोरिया, घंटोलिया, अजगैबी, नेंगरा, कोकाई सब दौड़े सीधे पूर्व की तरफ़।

बीच में हमारा घर पड़ता था, मझकोठी टोल में। हमारे पड़ोसी थे, झुरुखन काका। उनका बेटा बटिया भी हम लोगों की उमर का ही था। बेचारा उम्र के लिहाज से लाखों गुना अधिक काम करता था। झुरुखन काका तो खुद गांजा का सोंट मार कर 'खो-खो... खो-खो' करते रहते थे और घर-द्वार, माल-जाल से लेकर खेती-पथारी का सारा काम बटिया और सुखिया दोनों भाई को करना पड़ता था। उस में थोड़ी भी गड़बड़ी हुई कि दे ‘धमक्का’ पीठ पर।

हमलोग इधर से बेतहाशा दौड़े जा रहे थे। बटिया माल-मवेशी के लिए ‘भुस्कार’ से गेहूं का भूसा निकाल रहा था। हमलोगों को भागते देख पूछा, "अरे ! कहाँ जा रहे हो तुम लोग ?"

"धत्त्‌ बेवकूफ़ ! सुनाई नहीं दे रहा है..... महावीर स्थान में 'टोकना-मठ' वाली मंडली का कीर्तन हो रहा है। वही देखने जा रहे हैं।"

बैजू चहकते हुए बोला। "अरे तोरी के.... जरा ठहरो भाई ! हम भी चलते हैं।"

इतना कहकर बटिया ने सिर पर से टोकड़ी पटका और, उसी देह-दशा में हमलोगों की जमात में शामिल हो गया।

हम लोगों में सब से सीनियर था अजगैबी। बटिया से बोला, "उल्लू कहीं का ! तू जो भूसा छोड़ कर चल दिया कीर्तन में, सो बापू कुछ कहेगे नहीं तुमको ? क्या हाल होगा तेरा ........ डर-वर है कि नहीं बापू का...?"

"क्या होगा...." बटिया ने भी बहुत दृढ़ता से जवाब दिया, "मार खाई पीठिया-अंखिया रोई ! हमनी का होई ?" मतलब मार पड़ेगी पीठ को और रोयेगी आँख ... उस से मेरा क्या ? हा... हा...हा.... आ...हा...हा...हा.... ! उंह !”

बटिया की कहावत सुनकर जो ठहाका गूंजा कि पूछिये मत। लाउडस्पीकर की आवाज फिर आई,

"राजा लुटाबे रामा अन्न-धन-सोनमा... !

रानी लुटाबे हाथ कंगनमा

हो रामा...... दशरथ आंगनमा.... !!"

हम लोग फिर दौड़ पड़े।

कीर्तन तो बड़ा मजेदार हो रहा था। लेकिन हमारा मन बार-बार बटिया की कहावत पर दौड़ जाता था, "मार खाई पीठिया-अंखिया रोई ! हमनी का होई ?"

..... आखिर मतलब क्या हुआ इसका ? एक पहर सांझ गए कीर्तन ख़तम हुआ। केला के पत्ता पर भर-भर कर के साबूदाना की खीर, गेंहू की रोटी का लड्डू और मालभोग केला का परसाद पाए। फिर चले वापिस .... स्व-स्व स्थानं गच्छः !

लेकिन बटिया की कहावत अभी भी हमारे मन में उधम मचाये हुए था। आखिर हम पूछ ही लिए, 'बटेसर ! इस कहावत का मतलब क्या हुआ ? पीठ-आँख सब तो तुम्हारी ही है। चोट तो तुम्ही को लगेगी.... फिर ?

बटिया को तो कुछ कहते नहीं बना लेकिन कोकाई बोला, 'धत्त्... ! अरे थेथर ( हठी, जिस पर किसी बात का असर नहीं होता) है। असल में इसके बापू ने इसे इतना पीटा है कि अब इसे कोई फर्क नहीं पड़ता। पीठ पर धौल जमा के बापू को संतुष्टि मिलती है कि पिटाई किया। थोड़ा-बहुत दर्द हुआ तो आँख से आंसू निकल गया। लेकिन उससे यह सुधर थोड़े न जाएगा। जिसको कभी-कभार डांट-फटकार, मार-पीट होती है, उसको फर्क पड़ता है। इसके लिए तो यह सब रोजाना की बात है। मार खाते-खाते थेथर हो गया है इसीलिए अब पीठ पर मुक्का पड़े, आँख से आंसू जाए, उस से इसका क्या.... कुछ फर्क नहीं।"

अच्छा ! तो यह था कहावत का मतलब। 'धमकी, दंड या अत्याचार कभी-कभार हो तब आदमी को उस से भय होता है। हमेशा मिलने वाले दंड से तो वह अभ्यस्त हो जाता है। फिर उस से न कोई भय, न सुधार की कोई गुंजाइश। क्षण भर के लिए दर्द महसूस हो जाए लेकिन कोई दूरगामी प्रभाव नहीं पड़ने वाला।’

तो रामनवमी के अवसर पर यही था आज का कहानी ऐसी बनी। इसी बात पर बोल दीजिये,

'अयोध्या-रामलला की जय !'

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1. कहानी ऐसे बनी-१ :: नयन गए कैलाश ! 2. कहानी ऐसे बनी- 2 : 'न राधा को नौ मन घी होगा... !' 3. कहानी ऐसे बनी – 3 "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!" 4. कहानी ऐसे बनीं-४ :: जग जीत लियो रे मोरी कानी ! … 5. कहानी ऐसे बनी–५ :: छोड़ झार मुझे डूबन दे ! 6. कहानी ऐसे बनी– 6 -"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?" 7. कहानी ऐसे बनी– 7 :: मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!  8. कहानी ऐसे बनी– 8 :: न कढी बना न बड़ी!9.कहानी ऐसे बनी-९ :: गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े ! 10. कहानी ऐसे बनी-१०::चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे। 11 कहानी ऐसे बनी-११ :: मियाँ बीवी के झगड़ा ! 12  कहानी ऐसे बनी-१२ :: बिना बुलाये कोहबर गए 13 कहानी ऐसे बनी-१३ :: लंक जरे तब कूप खुनाबा 14 मान घटे जहँ नित्यहि जाय15भला नाम ठिठपाल  16 छौरा मालिक बूढा दीवान 17तेल जले तेली का आँख फटे मशालची का 18 सास को खांसी बहू को दमा 19 वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले....20बिना ब्याहे घर नहीं लौटे..... ! 21 कहानी ऐसे बनी 21 : घर भर देवर..... 22. दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!

शनिवार, 12 मार्च 2011

कहानी ऐसे बनी-22 :: दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

कहानी ऐसे बनी-22

 दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!

जय राम जी की !

सोचते-सोचते शनिवार हो गया और हम अभी तक सोच ही रहे हैं कि कहानी ऐसी बनी में आज आप लोगों के सामने क्या लेकर हाज़िर होएं .... क्योंकि आप तो पाठक लोग राजा हैं और कहावत है,"राजा-जोगी-पेखना (मेला) ! खाली हाथ न देखना !!" सो खाली हाथ डोलाते कैसे सामने आयें इसी उधेरबुन में पड़े थे कि एक और कहावत याद आ गयी। हमारी दादी हमेशा कहती थी, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' आईये आपको इसके पीछे की कहानी बताते हैं। हमें दादी ने कही थी, आपको हम ही कह देते हैं।

हमारे गाँव की बात है। एक घर में दो ही भाई बचे थे। खदेरन और रगेदन। दोनों निहायत गरीब। घर में पूंजी के नाम पर एक चूल्हा रह गया था वह भी सांझ-के सांझ उपवास रहता था। मांग-चांग कर कितना दिन चलता।

एक दिन खदेरन बोला, "ए भाई रगेदन ! रेवाखंड के राजा बड़ा दानी हैं। साक्षात्‌ दानवीर कर्ण। चल उन्ही से कुछ मांग लेते हैं। रोज-रोज कहाँ हाथ फैलाएं ? चल न... राजाजी कुछ दे देंगे तो जिन्दगी बीत जाएगी।

रगेदन सब कुछ सुन कर एक बार होंठ को गोल-गोल इधर-उधर घुमाया और फिर बोला, "भाई ! 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' मिलना अगर होगा तो घर मे भी मिल जाएगा नहीं तो राजा क्या करेगा ?"

वैसे यह कोई पहिली बार की बात नहीं थी। जब भी खदेरन राजा से कुछ मांगने की बात करता रगेदन वही कहावत कह देता था।

कुछ दिन बीते। दोनों की हालत और पतली होने लगी। एक-दिन खदेरन गरमा गया। बोला, 'आखिर तुमको राजा के पास चलने में क्या जाता है? गाँव-जंवार में सब उनके दरबार में शीश नवा कर कितना हंसी-खुशी आते हैं। राजा बटुआ भर-भर मोहर लुटाते हैं। आज तक कोई खाली हाथ नहीं लौटा.... ! हम अब कुछ भी नहीं सुनेंगे। चलना है तो चलना है।'

रगेदन बेचाने मन-मसोस कर कहा, “ठीक है। चलते हैं मगर हमरी बात याद रखना।”

दोनों राज-दरबार में पहुचे। राजा उनकी व्यथा-कथा सुन के बहुत द्रवित हुए। बोले, "आ..हा...हा... ! तुमलोग इतना दुखी-दुर्बल हो गए.... कितना कष्ट उठाया.... पहले क्यों नहीं आए हमरे पास ?"

राजा की बात खतम भी नहीं हुई थी कि खदेरन आँख में आंसू भर के फट से बोला, "माई-बाप ! हम तो कब से कह रहे थे कि चलो अपना राजा सक्षात्‌ दानवीर कर्ण है। वही जाने से हमारा कल्याण होगा। राजाजी को आँख फेरने के देरी है फिर कोई कष्ट नहीं रह जाएगा। मगर देखते नहीं हैं.... यह हमरा भाई जो है मुँहचुप्पा ! अभी कैसे होंठ सी के खड़ा है। और जब भी हम कहते थे आपके पास चलने के लिए तो कहता था, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!'

राजा ने बात की तहकीकात की। रगेदन से पूछा, "क्या जी तुम यह बात बोलते थे।"

रगेदन लाख गरीब था मगर अपनी बात से नहीं डिगने वाला था। एकदम राजा के मुंह पर खरा-खरा बोल दिया,"हाँ, सरकार !! कोई झूठ नहीं कहते हैं। 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' मिलना होगा तो मिलेगा। नहीं तो नहीं। आप राजा हैं तो क्या ... जो किस्मत में लिखा होगा वह थोड़े ही बाँट लीजियेगा।"

लेकिन राजा बड़ा दयालु था, सच में। रगेदन ने मुंह पर खरा-खरा कह दिया फिर भी उसने दोनों को कुछ-कुछ उपहार दिया। रगेदन को थोड़ा चावल-दाल दिया और खदेरन को एक कद्दू और फिर दूसरे दिन दरबार में आने को कहा। दोनों भाई चले आए वापस। रस्ते भर खदेरन मन-ही-मन सोच रहा था,'धत्त ! यह कद्दू लेकर क्या करेंगे ? रगेदना तो आराम से आज भात-दाल खायेगा।'

घर पहुँचते ही उसने तरकीब लगाई। रगेदन से बोला, "ए भाई रगेदन ! राजाजी ने तो दोनों आदमी को उपहार दिया है। दोनों वस्तु एक ही है। सो चलो न हम दोनों भाई आपस में तोहफा बदल लेते हैं।'

रगेदन तैयार हो गया। बोला, 'कोई बात नहीं है। लाओ कद्दू। लेलो चावल-दाल।'

खदेरन गया आँगन में आराम से बहुत दिन के बाद चावल-दाल बना के खाया और राजा का गुणगान करते हुए खटिया पर पसर गया। उधर रगेदन भी अपना कद्दू लेकर गया आँगन में। सोचा आज इसी को उबाल के खाया जाए। लेकिन यह क्या ....? जैसे ही उसनेद्दू काटा .... उसमें से भरभरा कर सोना-अशरफी, हीरा-जवाहिरात निकला। रगेदन बात समझ गया। उसने आधे कद्दू को गमछे में बाँध कर रख दिया।

अगले दिन फिर दोनों पहुंचे राजा के पास। राजा खदेरन को देख कर मुस्कुरा रहे थे। खदेरन के चेहरे पर भी रात के भात-दाल की रौनक अभी तक कायम थी। फिर राजा ने रगेदन से पूछा, "क्या रे रगेदन ! तुम्हारा विचार कुछ बदला कि अभी भी वही सोचते हो.....?"

रगेदन ने जवाब कुछ नहीं दिया। चुपचाप गमछे से आधा कद्दू निकाल कर राजा के सामने रख दिया। अब तो अचरज के मारे राजा की आँख भी फटी की फटी रह गयी। उसने पूछा,“यह कद्दू तुमको कैसे मिला ? रगेदन खदेरन का मुँह देखने लगा। फिर खदेरन बोला, "मालिक ! वो क्या है कि हमने सोचा खाली कद्दू ले कर क्या करेंगे ? चावल-दाल मिल गया तो आराम से भात-दाल पका कर खा लेंगे .... इसीलिये इससे बदल लिया। मगर हमें क्या मालूम ........!" हाय ! कह कर खदेरन ने अपना माथा ठोक लिया।

राजा बेचारा कद्दू को हाथ में उठा कर बोला, " सच कहता है रगेदन। 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' हमने तो तुमको यह सोना-अशरफी दिया था, लेकिन हमरे देने से क्या हुआ? कपाल (किस्मत) में था रगेदन के य्ह हीरा-मोती तो तुमको कहाँ से मिलता।" इतना कहकर राजा ने रगेदन को और भी इनाम दिया और खदेरन को खाने-पीने का समान।

कहानी तो ख़तम हुई। पर कहने का मतलब यही था कि 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' अर्थात किस्मत में जो लिखा होगा वही मिलेगा।

व्यक्ति चाहे जितना भी शक्तिशाली-प्रभावशाली क्यों नहीं हो.... कपाल के लेख को नहीं बदल सकता। देवेच्छा सबसे प्रबल होती है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अपना प्रयास (कर्म) छोड़ देना चाहिए। अरे किस्मत का लिखा तो कर्म करने से मिलेगा न.....! खदेरन और रगेदन राजा के पास नहीं जाते तो जो भी मिला वह मिलता क्या .... ? नहीं ना... ! लेकिन एक बात है, 'दिहैं तो कपाल ! का करिहैं भूपाल !!' किस्मत को तो राजा भी नहीं बदल सकता है।

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1. कहानी ऐसे बनी-१ :: नयन गए कैलाश ! 2. कहानी ऐसे बनी- 2 : 'न राधा को नौ मन घी होगा... !' 3. कहानी ऐसे बनी – 3 "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!" 4. कहानी ऐसे बनीं-४ :: जग जीत लियो रे मोरी कानी ! … 5. कहानी ऐसे बनी–५ :: छोड़ झार मुझे डूबन दे ! 6. कहानी ऐसे बनी– 6 -"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?" 7. कहानी ऐसे बनी– 7 :: मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!  8. कहानी ऐसे बनी– 8 :: न कढी बना न बड़ी! 9.कहानी ऐसे बनी-९ :: गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े ! 10. कहानी ऐसे बनी-१०::चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे। 11 कहानी ऐसे बनी-११ :: मियाँ बीवी के झगड़ा ! 12  कहानी ऐसे बनी-१२ :: बिना बुलाये कोहबर गए 13 कहानी ऐसे बनी-१३ :: लंक जरे तब कूप खुनाबा 14 मान घटे जहँ नित्यहि जाय 15भला नाम ठिठपाल  16 छौरा मालिक बूढा दीवान 17तेल जले तेली का आँख फटे मशालची का 18 सास को खांसी बहू को दमा 19 वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले.... 20बिना ब्याहे घर नहीं लौटे..... ! 21 कहानी ऐसे बनी 21 : घर भर देवर.....

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

कहानी ऐसे बनी 21 : घर भर देवर.....

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

पुराने लिंक

1. कहानी ऐसे बनी-१ :: नयन गए कैलाश ! 2. कहानी ऐसे बनी- 2 : 'न राधा को नौ मन घी होगा... !' 3. कहानी ऐसे बनी – 3 "जिसका काम उसी को साजे ! कोई और करे तो डंडा बाजे !!" 4. कहानी ऐसे बनीं-४ :: जग जीत लियो रे मोरी कानी ! … 5. कहानी ऐसे बनी–५ :: छोड़ झार मुझे डूबन दे ! 6. कहानी ऐसे बनी– 6 -"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?" 7. कहानी ऐसे बनी– 7 :: मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!  8. कहानी ऐसे बनी– 8 :: न कढी बना न बड़ी! 9. कहानी ऐसे बनी-९ :: गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े ! 10. कहानी ऐसे बनी-१०::चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे। 11 कहानी ऐसे बनी-११ :: मियाँ बीवी के झगड़ा ! 12  कहानी ऐसे बनी-१२ :: बिना बुलाये कोहबर गए 13 कहानी ऐसे बनी-१३ :: लंक जरे तब कूप खुनाबा 14 मान घटे जहँ नित्यहि जाय 15 भला नाम ठिठपाल  16 छौरा मालिक बूढा दीवान 17तेल जले तेली का आँख फटे मशालची का 18 सास को खांसी बहू को दमा 19 वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले.... 20 बिना ब्याहे घर नहीं लौटे..... !

हैलो जी ! लीजिये, आ गई 14 फरवरी ! मत दिखाइए हरबड़ी !! और सुनिए एक ताज़ी कहानी कैसे बनी !!! अब क्या बताएं .... यह तो आप भी जानते ही होंगे। जैसे ही गोसाईं बाबा पर संक्रांति का तिल-गुड़ चढ़ता है, बस सारा पर्व-त्यौहार पसर जाता है। हम तो एक ही बात जानते हैं भैय्या ! जब जब बसंती बयार बहेगा तो मनवा में हिलोर तो मारेगा ही। पर्व-त्यौहार का बहाना कर के लोग मन का उल्लास बहराते हैं। अब देखिये न आज-कल गाँव-कस्बा से लेकर शहर-बाजार तक खाली पर्व-त्यौहार हो रहा है।

शहर में तो आज-कल भोलंटाइन बाबा की पूजा की तैय्यारी चल रही है। सब नुक्कड़-चौराहे पर न्योता का रंगीन कार्ड और भोलंटाइन बाबा पर चढ़ाया जाने वाला ताजा-ताजा लाल गुलाब का फूल मिल जाएगा। अब आप सोच रहे होंगे कि भोलंटाइन बाबा की पूजा क्या होती है ? अरे भाई, अँगरेज़ मुल्क में प्रेम के देवता को 'भोलंटाइन' कहते हैं। और अपने मुल्क में सबसे ज्यादा प्रेम फागुन में ही हुलसता है न। सो जवान-अधजवान लड़का-लड़की सब फागुन महीना में 14 फरबरी को भोलंटाइन बाबा की पूजा करते हैं। समझे ??? अब पार्क-वार्क में गला-वला मिलते तो देखते हैं लेकिन भोलंटाइन बाबा की पूजा का ज्यादा विध-विधान हमको पता नहीं है। हम ठहरे देहाती लोग। गांव में रहने वाले। गाँव में तो हमारे जैसे एकाध पढ़े-लिखे आदमी ही भोलंटाइन बाबा का नाम जानते हैं। बांकी को तो पता भी नहीं है। सब 'भोलंटाइन बाबा की पूजा' मनायेंगे और हम यहाँ अकेले बोर होंगे.... सो अच्छा है चल रे मन 'रेवा-खंड'। कुछ भी है तो अपना गाँव, स्वर्ग से भी सुन्दर!

लेकिन यह मत समझिये कि गाँव में सुन्ना उपवास है। भाई, पर्व तो गांव में भी हो रहा है। हमारा तो गाँव से पुराना प्रेम है। गाँव से दूर रहे तो फागुन में जब कोयलिया कूकती है तो विरहिन के हिरदय में जैसे हूक उठता है, वैसे ही हमारे कलेजे में टीस मारता है। अचानक लगा कि गाँव की एक-एक पगडण्डी विरह में बसंती राग गा रही है, "एलई फगुआ बहार..... हो बबुआ काहे न आइला..... !!" फिर हम से बर्दाश्त नहीं हुआ और बोरिया विस्तार समेटे और पकड़ लिए रेवा-खंड का रास्ता।

अभी झखना गाछी पार भी नहीं किये थे कि दूर से ही मृदंग के थाप पर झांझ की झंकार सुनाई दिया। भगलू दास गा रहा था, "गोरिया तोड़ देबौ गुमान..... अबके फगुआ में !" समझिये कि इतना सुनते ही हमारे पैर का गियर अपने-आप चेंज हो गया। धर-फर करते घर पहुंचे। बड़े-बुजुर्ग के पायं लागे और गठरी पटक कर फटाक से दौड़ गए चौपाल पर। फिर तो खूब हुआ जोगीरासा...रा...रा...रा...रा... !!

नयी दुल्हन की तरह कुसुम रंग चुनर ओढ़े हमारा गाँव फागुन मद में मदमाता हुलास भर रहा था। शहर-बाजार, दूर-देश में रहने वाले भी होली खेलने 'रेवा-खंड' आ गए थे। चारो तरफ गुलजार था। बड़का कक्का के आंगन में तो दो दिन पहले ही से झमाझम रंग बरस रहा था। पीरपैंती वाली भौजी और पुर्णिया वाले पाहून आये हुए थे। दरभंगा से बड़की दीदी भी आयी थी। रगेदन भाई का ब्याह हुआ था पिछले लगन में। उनकी लुगाई, मतलब नवादा वाली भौजी की पहली होली थी ससुराल में।

लगता है कक्का के आँगन में फागुनी पूर्णिमा पहले ही आ गया है। काकी भोर से तान छोडी हुई है,"केशिया संभारि जुड़वा बाँध ले बहुरिया..... होली खेले आएतो देवर-ननदोसिया !!'

उधर ढोरिया अलग ही राग अलाप रहा था, "ऐसे होली खेलेंगे..... नयकी भौजी के संग...रंग...!"

हम भी चट से हजूम में शामिल हो गए। दीदी, भौजी, पाहून, भैया, सुखाई, चमन लाल सब मिल कर लगे फगुआ के रंग लूटने। पुर्णिया वाले पाहून डफली पीट-पीट कर कूद रहे थे। बड़की भौजी देकची पर ताल दे रही थी। बांकी लोग ताली पीट-पीट कर होली गा रहे थे।

इधर तो आँगन में होली की धूम मची थी लेकिन रगेदन भाई की लुगाई ओसारे पर से गुम-सुम देख रही थी। हम भी कम उकाथी नहीं हैं। लगे उनकी तरफ इशारा कर के गाने, "जियरा उदास भौजी सोचन लागी ! आँगन टिकुली हेराय हो..... जियरा.... !!"

हमको लगा कि भौजी इस गीत पर आयेगी अंगना में। लेकिन यह क्या ...... भौजी तो नहीं ही आयीं, उन का इशारा पाकर रगेदन भाई भी अन्दर चले गए। हमलोग समझे कि अच्छा कोई बात नहीं, भौजी की पहली-पहली होली है, सो शरमा रही हैं। रगेदन भाई अपने साथ लेकर आयेंगे।

एक गीत पास हुआ। दूसरा हुआ। फिर जोगीरा सा...रा....रा....रा....रा.... !! लेकिन न रगेदन भाई आये ना भौजी। हमलोग सोचने लगे कि क्या बात है? तभी अन्दर से टेप-रिकॉर्डर पर फिल्मी होली बजने की आवाज़ आई ....... 'चाभे गोरी का यार बलम तरसे.... रंग बरसे....!'

अच्छा तो ये बात है ........ अन्दर में ही प्रोग्राम चल रहा है। वाह रे वाह .... भौजी तो अन्दर में खिलखिला कर हंस रही हैं। अब तो इसी बात पर काकी खिसिया गयी। बोली, "देखो रे बाबू नया जमाना के कनिया..... ! इसी को कहते हैं 'घर भर देवर, पति से ठट्ठा !!'

गुस्से में काकी ऐसे अलाप के बोलीं थीं कि पूरी मंडली को हंसी आ गयी। काकी फेर चौल करते हुए बोली, "हाँ रे बाबू ! देखते नहीं हो ? यहाँ आँगन में ननद-ननदोई, देवर फैले हुए हैं और दुल्हिन रगेदेन के साथ ही हंसी ठिठोली कर रही है। अब इस पर तो कहेंगे ही न, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !"

हम भी लगे-लगे दुहरा दिए, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !" फिर पूछे, "लेकिन काकी ! इस कहावत का अर्थ क्या होता है ?”

काकी देहाती भाषा में जो इसका अर्थ बताई वह आपकी समझ में आयेगा कि नहीं यह तो पता नहीं। मगर हम अपनी तरफ से समझाने का कोशिश करते हैं। "घर भर देवर, पति से ठट्ठा" का मतलब हुआ, 'हंसुआ का ब्याह में खुरपी का गीत' अवसर है कुछ का और कर रहे हैं कुछ। दूसरा, गाँव घर में आज भी रिश्तों में काफी अनुशासन बरता जाता है। वहाँ पर हर रिश्ते के लिए अलग-अलग भाव, स्नेह, प्रेम और सम्मान है। हंसी मजाक का रिश्ता है देवर से। मान लिया कि कहीं देवर नहीं रहे तो कोई बात नहीं। जब देवर की प्रचुरता है, तब कोई पति से ही ठट्ठा मतलब मजाक करे तो कहाबत सही ही है, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !"

अब इसका भावार्थ ये हुआ कि 'उचित संसाधन की उपलब्धता के बावजूद जब कोई व्यक्ति, वस्तु या संबंधों का दुरूपयोग करे तो काकी की कहावत याद रहे, "घर भर देवर, पति से ठट्ठा !"

तो यह थी आज की कहानी ऐसे बनी ........ पसंद आया तो दे ढोलक पर ताल....... और बोलिए, जय हो भोलंटाइन बाबा की ............ !!!!

रविवार, 23 जनवरी 2011

कहानी ऐसे बनी-20 :: बिना ब्याहे घर नहीं लौटे..... !

कहानी ऐसे बनी-20

बिना ब्याहे घर नहीं लौटे..... !

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

जय हो ! जनता-जनार्दन !! कैसी रही मकर संक्रांति? सब कुशल है ना.... ? अरे भाई क्या बताएं .... हमारी संक्रांति में तो ऐसा धमाल मचा कि ज़िन्दगी भर नहीं भूलेंगे। बहुत शौक से गए थे गाँव संक्रांति मनाने .... लेकिन वही हो गया, 'शौक में सोहारी [रोटी] ! आलू बैगन के तरकारी !!'

खैर चलिए, सप्ताह भर बाद आप लोगों से मिल रहे हैं। ज़िन्दा बच गए, बहुत ख़ुशी हो रही है। कहावत भी है, 'जान बचे लाखो पाई !' अब पूछिये आप, क्या हुआ ? अरे भाई क्या नहीं हुआ.... ? पूस में गए थे संक्रांति मनाने हो गया मौगत। वो कोठा पर वाले खखनु ठाकुर नहीं हैं ..... अरे वही जिनकी उजड़ी हुई ज़मींदारी बची है। उन्ही का बेटा है न बिगडुआ। भैंस चढ़ते बिगडु ठाकुर अधबयस [जिसकी आधी उम्र निकल गयी हो] हो गया था, लेकिन घोड़ी पर चढ़ने का नसीब नहीं हुआ। नालायक़ न तो पढ़ा-लिखा, और न कोई गुण-ज्ञान ही सीखा ...... खखनु ठाकुर जैसी पहलवानी भी नहीं कर सकता था ..... ऊपर से डेढ़ आँख का मालिक। पुरानी ज़मींदारी और दो-चार माल मवेशी पर गृहलक्ष्मी कैसे आयें!

बिगडुआ को अब चालिसवां लगने को आया तो बेचारे खखनु ठाकुर के हाथ-पैर जोड़ने और आरजू-मिन्नत पर घरजोरे पंडित जी पिघल गए। बंगाल बोर्डर के गाँव बिच्छुपुर में बिगडु ठाकुर की जोड़ी निकाल ही दिए। बात तय हुई कि दोतरफ़ा खर्चा खखनु ठाकुर ही करेंगे। पंडित जी बहुत खुश थे। दक्षिणा अच्छा मिला था। इसी महीने का सगुन धराया था। संक्रांति से दो दिन पहले का। गाँव गए संक्रांति में तो पता चला। मंगल पेठिया पर बिगडुआ ने तो बताया ही ठाकुरजी ख़ुद भी घर आ कर बारात चलने का न्योता दे गए थे।

भाई अधबयस है तो क्या .... बारात तो है ठाकुर की। ज़मींदारी न चली गई है, रोआब तो अभी है ही है। राजा भोज जैसी बारात सजी थी। हाथी-घोड़ा, ऊँट-बगेड़ा सब आया। बाराती भी दमदार थी। आखिर ठाकुर जी के एकलौते कुलदीपक की बारात थी। चली सज के रेवा-खंडी बाराती।

यात्रा थी दूर की। पहुंचते-पहुंचते सांझ का धुंधलका फैलने लगा था। वैसे तो रास्ते में चूरा-दही हो ही गया था लेकिन दूर से ही जलबासा देख कर 'मुदित बरातिन्ह हने निसाना....!'  है। अरे!! यह क्या!!! .......... जलबासा पर तो एक बाराती पहिले से ही थी। हमने सोचा बिच्छुपुर में आज दो-दो लगन है। बैंड बाजा और नाच में अच्छा कम्पटीशन होगा।

इधर सारे बाराती पानी, शरबत, चाय, नाश्ता का रास्ता देखने लगे। बहुत देर हो गई। कुछ लोगों ने सोचा कि चलो अभी उस तरफ वाली बाराती में बँट रहा होगा तो उधर ही पा लेंगे। लेकिन यह क्या .... इस तरफ भी ठक-ठक माला सीताराम!! खैर, दोनों बाराती में बात-चीत बढी। आप कहाँ से आये हैं ? तो आप कहाँ से आये हैं ?? फिर आप किसके यहाँ आये हैं? तो आप किसके यहाँ ?? दो घड़ी तो बात हुई कि सारा मज़मा बिगड़ गया। अब आपको विश्वास नहीं होगा ........... लेकिन क्या कहें..... अरे महाराज दोनों बाराती एक ही लड़की पर आई थी। अब समझ में आया कि साराती सब क्यों गायब थे? उधर जिस तेजी से दोनों बाराती पहले हिल-मिल रहे थे वैसे ही अब फटाक से दू फार हो गया!

अब नाश्ता-पानी तो दूर फ़िक्र तो इस बात की थी कि यहाँ भी बिगडु ठाकुर का मंगलम भगवान विष्णु होगा कि कपाल पर लाठी ! इधर हम लोगों की बारात के कुछ सुर्खुरू आदमी गए उस साइड के बाराती को समझाने...... । लेकिन क्या मजाल कि मान जाएँ ! आखिर वह भी तो ठाकुरों की ही बारात थी। फिर कुछ लोग खखनु ठाकुर को समझाने लगे। तलवार पुरानी भले ही थी लेकिन काट तो वही थी। राजपूती खून खौल उठा। जमींदारी रोआब दहाड़ मारने लगा। ठाकुर जी बेंत चमका-चमका कर कहने लगे, 'ससुरा.... हमारे दादा के रैय्यत-मोख्तारी करने वाला आज हमरे बेटे के सामने बाराती लाएगा.... ? कलेजा तोड़ देंगे लेकिन पीठ नहीं दिखाएँगे।’

इधर न लड़की वाले का पता ना ... पंडित घरजोरे का। इधर अभी तक चुप-चाप सज-संवर कर बैठा बिगडुआ ने भी युद्ध का शंख नाद कर दिया। हमको आल्हा-रुदाल के नाच वाली कहावत याद आ गई, "बिना ब्याहे घर नहीं लौटें, चाहे जान रहे या जाय.....!" कुछ इसी टोन में बोला था बिगाडुआ। बेटा बिगड़ुआ भी तो नाच का पक्का शौक़ीन था बचपन से ही। जब हो गया ऐलान तब .... कौन पीछे हटे ? उधर से भी लाठी-भाला निकलने लगा। इधर भी बल्लम-बरछी तैयार हो गया। फिर गांव वाले भी टपक पड़े। पहिले दोनों बारात को समझाया गया। लेकिन समझे कौन ? फिर शुरू हो गया ........ 'अथ श्री महाभारत कथा'। वहाँ तो दुतरफ़ा ही होता था यहाँ तो तीन तरफ़ा हो गया। दे दनादन....ले टनाटन...! हम तो गत्ते से जान बचा कर सामने एक झोपड़ी में छुप कर सारा तमाशा देखने लगे। बिगड़ुआ सेहरा उतार कर फेंका और फिर 'आल्हा' वाली कहावत दुहराया, "बिना ब्याहे घर नहीं लौटें चाहे जान रहे या जाए....!" बगल वाले से एक लाठी झपट कर जो भी सामने आये सबको भैंसे की तरह हांकने लगा।

इधर घमासान मचा हुआ था। तभी बिच्छुपुर के मुखिया सरपंच सब जुट गए। गहमा-गहमी के बीच में दोनों पार्टी से बात की गई। लडकी वालों को बुला कर खूब सुनाया। लड़की वाले अंत मे तैयार हो गया कि भाई, हमें कोई ऐतराज़ नहीं। हमसे बहुत बड़ी ग़लती हो गई। अब ये दोनों बाराती आपस में फैसला कर लें। जिस से कहें हम कन्यादान कर देंगे। अभी एक राउंड झगरा-झंझट हुआ ही था। हम सोचने लगे अभी शांति होगी। लेकिन बिगडुआ फिर से बादल की तरह फट पड़ा, "अब आ गए हैं बाराती लेकर तो दुल्हन लेकर ही जायेंगे ! बिना ब्याहे घर नहीं लौटें.....!!" हालांकि गांव वालों का मन भी उस पक्ष के लड़के पर डोल रहा था लेकिन उस साइड की बाराती ने हिम्मत हार दी थी। उधर के लड़के के बापू बोले, 'हमारा लेन-देन लौटा दें, हम अपने बेटे को कहीं और ब्याह लेंगे। बेचारा दूल्हा मन-मसोस कर रह गया।

बात पटरी पर आ गयी तो हम भी झोपड़ी से निकले। इधर खखनु बाबू भी खुश थे। बोले, लेन-देन तो हम ही लौटा देंगे। और फटाफट बटुआ खोल कर गिन भी दिए। इस तरह से उधर की बारात खाली हाथ ही लौट गई। और बिगडुआ जिसे लड़की वाले ना भी पसंद कर रहे थे फिर भी दुल्हन लेके लौटा।

तो यह था कहावत का कमाल, "बिना ब्याहे घर नहीं लौटे ! चाहे जान रहे या जाय !!" देखिये बिगड़ुआ था वज्र मूर्ख लेकिन बात किया बड़ी दूर की। और जो कहा उसने वह किया भी। आखिर उसकी कहावत का मतलब ही है पुरषार्थ से लबालब।

अर्थात "जिस काम के लिए आये हैं वो कर के ही जायेंगे। जोखिम के डर से लक्ष्य से नहीं भूलेंगे।" जब ऐसा दृढ निश्चय था तब लक्ष्य भी मिल ही गया। आखिर ब्याह हो गया न। और उधर की बाराती में यही निश्चय नहीं था। थोड़ी सी घुड़की देखे कि फुसफुसा गए। फिर तो समर्थन होने के बावजूद भी दुल्हन, यानी कि लक्ष्य से वंचित रहना पड़ा। तो भैय्या यही थी अद्भुत बारात की बात। अब आप लोग टिपिया के बताइयेगा कैसी लगी !!!

रविवार, 16 जनवरी 2011

कहानी ऐसी बनी - 19 : वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले....

कहानी ऐसी बनी – 19

वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले..

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

पिछले सप्ताह तो खूब धमाचौकड़ी मची। शहर में भोलंटाइन बाबा का मेला लगा रहा तो गाँव में भोला बाबा का। हमने तो शहर से देखना शुरू किया और गाँव तक पहुँच गए। मिसरिया बाबा के मठ पर खूब धूम-धाम से शिवरात हुआ। शिवजी की बारात भी निकली थी। पंडौल के पंडित जी आये थे माधो मिरदंगिया के साथ, कथा कीर्तन के लिए। हम भी मौका देख कर बाराती बन गए। शिव-मठ पर सोहे लाल धुजा खूब फहराए।

गाँव के ही बौकू झा महादेव बने थे। झा जी के मुँह के दांतों ने तो पहले ही साथ छोड़ दिया था। पटुआ का जट्टा और प्लास्टिक का सांप लगा के औरिजनल महादेव लग रहे थे। अपने बछड़ा को बसहा भी बना लिया था उन्होंने। फागुन की रात में बसंती हवा जब केवल बाघम्बरी गमछा से ढके बूढी हड्डी में छेनी की तरह प्रहार करती थी तो झा जी ऐसे कंपकंपाते थे कि लगता था महादेव ब्याह के बदले तांडव शुरू कर दिए हैं। वो गीत है ना, "सब बात अनोखी दैय्या..... बौराहवा के बरियात में.... !!!" वैसे ही बारात बन गयी थी।

स्वांग ही क्यों न हो मगर पंडौलिया पंडित जी हारमोनियम को इस कोने से उस कोने तक गरगरा कर 'शिव-विवाह' को एकदम साक्षात बना देते हैं। गला भी बड़ा सुरीला है। खुद पंडित तो हैं ही। सब विध-व्यवहार याद है। कथा और कीर्तन के बीच में ऐसी एक्टिंग के साथ टोन छोड़ते हैं कि लगता है सच में ब्याह हो रहा है।

बाराती दरवाजा लगा दिए। द्वारपूजा होगी। सासू आ रही है महादेव की गल-सेदी करने। पंडित जी परिछन के गीत का ऐसा तान छोड़ते हैं और एकाएक हारमोनियम की पटरी पर तीन बार हाथ मार कर पें..पें...पें.... कर के रोक देते हैं। पंडित जी अपनी मैना माई बन जाते हैं। महादेव बने बौकू झा के मुँह पर से जट्टा हटाये और प्लास्टिक वाला सांप से ऐसे डर कर भागे कि..... अरे रे ... !! लगे आ कर फिर से हारमोनियम पर गाने, "एहन बूढ़ वर नारद लायेला...... हम नहीं जियब गे माई !"

खैर मान-मनौती, बोल-संभार के बाद मैना माई फिर परिच्छ कर ले गयीं शिव दूल्हा को। ब्याह हुआ। ज्योनार होगा अब। लेकिन बिना दहेज़ के दूल्हा जीमेंगे कैसे ? कौर नहीं उठाएंगे बिना दहेज़ के। हम तो देखते हैं कि अभी भी दूल्हा सब रूठ जाता है ससुराल में। टीवी मिल गया तो फटफटिया। फटफटिया मिल गया तो कार दीजिये तब कौर उठाएंगे।

अब महादेव क्या करते हैं पता नहीं! खैर पर्वतराज हिमांचल के एकलौते दामाद हैं। जो मांगेंगे मिल ही जाएगा। सामने में दो चार लोटा-थाली पसार दिया। बौकू झा तिरछी नज़र से इधर उधर देख रहे थे। इधर पंडौलिया पंडित जी गाने-गाने में इशारा कर रहे थे। दूल्हा मांग लीजिये। मालदार ससुराल है। जो भी लेना है अभी ही खींच लीजिये। लोटा-थाली पर नहीं मानियेगा..... । लेकिन बौकू झा तो सच्च में जैसे बुत बन गए। कुछ बोल ही नहीं रहे थे। लगता है महादेव ही समझ रहे थे खुद को। सोचे कि एक बार तो रूप-रंग देख कर सासू भड़क गयी थी। परिछन के लिए भी तैयार नहीं थी। किसी तरह ब्याह हुआ। अब दहेज़ में कुछ मांगे तो बनी बात भी बिगड़ न जाए। पंडित जी गीत गा गा के कहते रहे मगर महादेव मुँह खोले नहीं। वैसे महादेव हैं तो निर्विकार तो मांगेंगे क्या ?

एक चुटकी छोड़ के लगे पंडित मजकिया गीत गाने, "वर हुआ बुद्धू.... हो...ओ...ओ... वर हुआ बुद्धू .... दहेज़ कौन ले.... हे.... दहेज़ कौन ले.... !" छमक के एक ही बार रुके और बाईं हथेली पर उल्टी दायें हथेली पटक कर बोले, 'वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले ?' हा...हा... हा..... !! पूरा मंडली बौकू झा के सामने उल्टा ताली पीटे लगा, "वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले ?'

तब हमारी समझ में आया। अच्छा..... तो यह है कहावत की जड़। हम पहले सोचते थे कि क्यों कहते हैं, "वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले.... ?" अब साफ-साफ समझ में आ गया। जब अपनी ही अयोग्यता, लापरवाही, बेवकूफी, अत्यंत सरलता, विनम्रता या किसी भी कारण से संभावित लाभ नहीं मिल पाता है तो लोग कहते हैं, 'वर हुआ बुद्धू दहेज़ कौन ले ?' लगता है महादेव से ही यह कहावत शुरू हुई होगी। तो इसी बात पर बोल दीजिये, 'हर-हर महादेव !'

रविवार, 19 दिसंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-16 : छौरा मालिक बूढा दीवान

कहानी ऐसे बनी-16

छौरा मालिक बूढा दीवान

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी

रूपांतर :: मनोज कुमार

राम राम हजूर ! हमें भूले तो नहीं... ? हमें भूले तो भूले.... आज रविवार है, यह याद है न...... !! रवि याद है तो कहानी ऐसे बनी भी याद ही होगा ... हमें भूल भी गए तो कोई बात नहीं। वो क्या है कि हम पिछले पखवाड़े में अपने गाँव गए थे। रेवा-खंड। अब गाँव की बात तो समझते ही हैं... माटी में भी अपनापन झलकता है। गाछ-वृक्ष, खर-पतवार सब में एक अलग ही स्नेह दिखता है। जब भी बसंती बयार बहती है.... तो समझिये कि प्रेम एकदम से कसमसा कर रह जाता है।

दो दिनों तक अलमस्त पुरानी टोली के संग गाँव का चप्पा-चप्पा छान मारे। सब-कुछ तो वैसा ही था। वही गौरी पोखर, खिलहा चौर, काली-थान, खादी भण्डार, पागल महतो की चाय की दूकान, मिश्र जी का भीरा.... अरे हाँ.... एक चीज नहीं है... वो आंवला का बड़ा सा पेड़! ओह... क्या बड़ा-बड़ा आंवला होता था... छोटे आलू के आकार का। सुबह-सुबह हमलोग पहुँचते थे चुनने। गिरा हुआ मिला तो ठीक, नहीं तो एक-आध ढेला भी मार देते थे। उधर से धोती संभालते हुए मिश्र जी जब तक निकले .... तब तक तो ये गया वो गया ... सारे लड़के फरार। मिश्र जी कह रहे थे कि गए हथिया में जड़ से ही उलट गया था आंवला का पेड़।

भीरा के पास ही बमपाठ सिंह की हवेली है। पूरे जवार में नामी जमींदार है, बमपाठ बाबू। गंडक के इस पार देख रहे हैं ..... जहां तक आप की नजर जायेगी सब बमपाठ सिंह की ही जमीन है और उस पार भी बावन बीघा है। क्या कड़क पंच-फुटिया जवान थे..! बाबा कहते थे कि जवानी में तो एक खस्सी अकेले निपटा देते थे। हमने अपनी आँख से भी देखा हैं, दो-दो कबूतर तो नाश्ते में उड़ा दिए थे। बमपाठ सिंह हर साल काली पूजा में देसुआ अखाड़ा पर कुश्ती भी लड़ते थे। बमपाठ बाबू के पोते को हमने कुछ दिन पढाया भी था। इसीलिए कुछ ज़्यादा ही हेल-मेल था। सोचा कि जरा हवेली पर भी माथा टेक लें।

“है कहाँ वो बुड्ढा दीवान ..... आज छोड़ेंगे नहीं ! काम के न काज के ! सेर भर अनाज के... !! और....... यह ललबबुआ चला है मालिक बनने !!! आज हम सब मल्कियत और दीवानी निकालते हैं ........ आज तो सिसपेंड कर के ही छोड़ेंगे !!!” बाप रे बाप..... बमपाठ सिंह तो आपे से बाहर थे। कूद कर के दुर्खा और कूद के दालान...... ! लग रहा था झुर्रीदार चमरी से गुस्सा फट कर बाहर आ जाएगा। देखा उनका पोता लालबाबू बड़े संदूक पर केहुनी टिकाये खड़ा था। हमको देख के बोला, "प्रणाम माटसाब" और एक कुर्सी आगे कर दिया।

हमें देख बमपाठ सिंह बाहर आए। हमारे प्रणाम का जवाब भी नहीं दिए और गुस्से से तमतमाए सामने एक कुर्सी ऐसे खींच कर बैठे कि हम भी डर गए। सकपका कर पूछे, "लगता है कुछ बहुत बड़ी गड़बड़ी हुई है .... तभी सरकार इतने गुस्से में हैं ?"

सिंहजी के उफनते हुए गुस्से पर कुछ ठंडा पानी पड़ा। बेचारे फुंफकार छोड़े, "हूँ..."। संदूक की तरफ मुंह घुमा कर हम पूछे, "क्या हुआ है लालबाबू ?"

फिर से बमपाठ सिंह दहाड़े, “यह मुँहचुप्पा क्या बतायेगा... ? अरे हम से न सुनो। कहता नहीं है, "छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ-बिहान !!" सिंह जी गुस्से में भी इतना अलाप कर यह कहावत कहे कि हमारे तो अंदर ही अंदर हंसी छूट गई। हमने थोड़ी हिम्मत की और पूछे, "क्या बोले ... क्या बोले...?”

फिर सिंह जी विस्तार से समझाने लगे, छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ-बिहान !!" देखते नहीं हैं, इस ललबबुआ को ... यह सवा सौ बीघा की जमींदारी संभालेगा... ! एक तो आज-कल रैय्यत और बटीदार भी क़ानून बकता है और ये महाराज भोलानाथ ! हाये रे मालिक... जिस किसी ने कोई बात कह दी .. उसी में बह गए। एक तो ई करेला उस पर से वो नीम चढ़ा बूढा दीवान। एकदम सठिया गया है। अब न उसका शरीर काम करता है न दिमाग... ससुरा दही-घी के लोभ में दरबार भी नहीं छोड़ता है। और ये मालिक साहेब सब कुछ दिवान जी पर ही छोड़े हुए हैं। ये दोनों "छौरा मालिक और बूढा दीवान" मिल कर दो साल में जो चपत लगाया है कि क्या-क्या बताएं माटसाब !!!”

गुस्सा के मारे सिंह जी की लाल-लाल आँखों के ऊपर खिचड़ी हो चोकी भौंह फरक रही थी। बदन की एक-एक झुर्री काँप रही थी। "पिछले साल इसको कुछ समझ में आया नहीं और दीवानजी को आज-कल का आलस लगा रहा... सारा पटुआ पानी में ही सड़ गया। तम्बाकू भेजना था पुर्णियां मंडी और भेज दिया सातनेपुर में। पचासों हज़ार का घाटा लगवाया ... इन दोनों ने मिल कर। कितना जतन से हम अरजे ..... ! ये सब पानी जैसे बहा रहा है। रोसड़ा लीची बगान का पट्टा लेने में कितना पापड़ बेलना पड़ा था, वह ये ललबबुआ नहीं जानता है। दीवानजी तो साथ-साथ ही थे। उस दीवान को तो चश्मा से भी नहीं सूझता है। और ये ललबबुआ .... शाही लीची को बेच दिया औने-पौने दाम में। हम कहते हैं, माटसाब, एक-एक पेड़ हम परियार साल दो-दो सौ टका में बेचे थे, सुखार था तब। इस साल ये पचहत्तर रुपैए में ही गाछ बेच दिया।"

गुस्से में आगबबूला सिंहजी गिनाये जा रहे थे, "वही हाल जलकर का किया। हाकिम-हुक्काम सब को चुका कर भी लाख टका मछली से आ जाता था.... इस बबुसाहेब को कुछ बुझाया ही नहीं .... और दीवान जी तो आजकल सब कुछ भूल ही जाते हैं। जब तक हम देख रहे थे तो वही साले-साल जलकर का रसीद कटाते थे। और ये इस साल रसीदे कटना ही भूल गए। जिसका मन हुआ मछली मार के ले गया, एक पैसा घर नहीं आया.... उलटे जीरा डालने की पूंजी भी गई पानी में। ईंख बेचा सो पैसा अभी तक लटका हुआ है.... हथिया नच्छत्तर में धान का बिचरा गिराया.... परिणाम हुआ कि समय पर बिचरा तो खरीदना ही पड़ा जमीन भी खा-म-खा फंसा रह गया।"

लगता है आज बमपाठ सिंह सारा हिसाब कर देंगे, "पटपरा वाला रैय्यत के यहाँ से साल भर से एक दना नहीं आया है। मालगुजारी पर भी आफत है। दीवान बूढा एकदम सठिया गया है। जवानी में एक-एक अक्किल ऐसा लगाता था कि रैय्यत पैर पकड़ के झूलें अब रैय्यत के द्वार पर अपने झूलते रहता है। और इनको देखो.... बड़ा खून का गर्मी दिखाने गए थे। कहते हैं साहब, खून की गर्मी से कहीं राज चला है। एक पैसा का आमद तो हुआ नहीं... उलटे मार-पीट कर लिहिस। जो रैय्यत हमारे बाबा-पुरखा का पैर पूजता था हमारे पोता पर लाठी पूज दिया। रैय्यत से अक्किल लगा कर माल निकलवाना था कि लाठी से... ? हम कहते हैं क्या जरूरी था पर-गाँव में जा कर रंगदारी करने का.. ? पता नहीं है कि अब सरकार की आँख जमींदार सब पर लगी हुई है। अब लो मार भी खाया और मुक़दमा भी लड़ो। बाबू साहब तो लड़ लिए, दीवान जी के भरोसे कि सब कुछ फरिया ही देंगे लेकिन उस बूढे से अब कुछ होता है ... निखट्टू एक थानेदार तक को नहीं पटा पाया। लोअर कोर्ट में मरा हुआ वकील पकड़ा और अब जाओ हाई कोर्ट।"

"मालिक है जवान तो इसका दिमाग नहीं चलता है .... अल के बल औडर दे देता है। अपना दिमाग कुछ लगाता ही नहीं है। ज़ूम मे आकर सब बेदिमागी फैसला करता है। और दीवान जी बुढा गए हैं तो उनका देह ही नहीं चलता है। दौड़-भाग का कोई भी काम नहीं होता है। चश्मे से भी दिखाई नहीं देता है और दिमाग भी सठिया गया है। इसीलिए न कहते हैं, "छौरा मालिक बूढा दीवान ! मामला बिगड़े सांझ बिहान !!"

मालिक को बूढा रहना चाहिए ताकि वो अपने अनुभव से काम ले। और दीवान मतलब कार्यकारी को जवान रहना चाहिए ताकि वह तन और मन दोनों लगा कर पूरे जोश से काम करे। और नहीं जो उल्टा हो गया तो लो... "मामला बिगड़े सांझ बिहान!"

इतना कह के बमपाठ सिंह तुरत ऐलान कर दिए कि राज-पाट वो फिर से अपने हाथ में ले रहे हैं। अब छौरा मालिक नहीं रहेगा। सामने हमको भी जवान देखे और अक्किल बुद्धि से तो पहिले ही परिचित थे। लगे हाथ हमें ही दीवान में बहाल कर लिए। कहे कि अब न रहेगा छौरा मालिक, ना रहेगा बूढा दीवान और ना ही मामला बिगड़ेगा सांझ बिहान !! समझे, इसीलिए पिछले सप्ताह भेंट नहीं हुई। लेकिन हम तो ठहरे रमता जोगी बहता पानी, दरबारी कमाने में हमरा मन नहीं लगेगा न .... ! उधर मामला मुक़दमा फिट हुआ और इधर हम अपना झोली-डंडा उठाए और चले आये आपको ये कहानी ऐसी बनी सुनाने ! बोलो हरि !!!

रविवार, 5 दिसंबर 2010

कहानी ऐसे बनी – १५ :: भला नाम ठिठपाल

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

ऊँह...ऊँह....... जय हो महाराज की ! ओह रे ओह... ! आज तो मुढ़ी, लाई, तिल और गुड़ की सोंधी सुगंध से चारो दिशाएँ ग़म-ग़म कर रही हैं। रवि की फसल निकल आई थी। इस बार इन्द्र महराज धोखा दे दिए। पटवन तो अब विश्कर्मा बाबा के भरोसे है। चर का गेहूं कमौनी भी मांग रहा है। घर में सब उसी मे बीजी थे। सबसे छोट तो हम ही थे। इस बार सुभद्रा फुआ के यहाँ तिल-संक्रांति का भार लेकर जाने का डिउटी हमारा ही लगा। अन्दर से तो हम भी यही चाहते थे। बुआ के यहाँ खूब मान-दान होता था। दो-दो भौजी थी .... हंसी-मजाक में कैसे दिन रात कट जाता था कि पता भी नहीं चलता था। हफ्ता-दस दिन तक किताब-कॉपी में भी माथा-पच्ची नहीं करनी पड़ती थी। पीरपैंती वाली भौजी के हाथ का बनाया तर माल पर छक के जीभ फेरते थे और घूरा के पास बैठ के मुफ़्त में भाषण हांकते थे। हम भी सुबह-सुबह ही तैयार हो गए।

वैसे तो इस बार सुखार पड़ गया लेकिन खिलहा चौरी में कुछ पानी लगा था। बाबा उस में छिटुआ तुलसीफूल धान बोये थे। चढ़ते अगहन कट्ठे-मन फसल आ गई थी घर में। गरमा, बकोल और पूसा-36 का तो की तो ढेर लग गई थी लेकिन तुलसीफुल कोठी में बचा कर रखा गया था, पर्व-त्यौहार, पाहून-कुटुम्ब के लिए। बाबा के आदेश पर तिल-संक्रांति के लिए उसी धान का चूरा कुटवाया था। तुलसीफुल धान का चूरा .... समझिये कि एक हफ्ता से पूरा टोला खुश्बू से तर था। अखारा पर के यद्दु राय आधा मन दूध पहुंचा गए थे पिछले हफ्ते। उसी दूध का दही जमाया गया था। दोपहर में ही एक बोरा लाई-तिलकुट, चूरा-मुढ़ी और बड़े तसले में जमा दही भर कर धनपत महतो के साथ हम सुभद्रा फुआ के घर का रास्ता पकड़े।

चार कोस पर तो था फुआ का घर। सूरज ढलते-ढलते पहुँच गए। दरवाजे पर खोखाई मंडल बड़ा घूरा फूँक रहे थे। हमें देखते ही बौआ-बौआ कर के दौड़े। धनपत के माथा पर से दही का तसला उतारे। दही का तसला और चूरा-मुढ़ी वाला बोरिया अन्दर रख के दोनों आदमी घूरा में बीड़ी सुलगाने लगे। हमें तो फ्री पास मिला था सो सीधे अन्दर पहुँच गए। वहाँ भी दूर से ही जरुआ गुड़ की सुगंध आ रही थी। ऊँह बुआ चश्मा पहन कर डायरेक्शन दे रही थी और दोनों भौजी झटपट गुड़ के पाक में तिल, मुढ़ी और चूरा की लाई बनाने में जुटी थी। साथ में कोनैला वाली इधर-उधर कर टहल बजा रही थी। हमको देखते ही पीरपैंती वाली भौजी चूल्हे के पास से मजाक का तान छोड़ने लगी। हम कुछ सकपकाए कि आकर हमरा हाथ पकड़ क्र सीधे चूल्हे के पास पहुँच गयी। हम बुआ के पैर छुए और वहीं एक पीढी पर बैठ गए।

उधर काला तिल चन-चन उड़ रहा था। छोटकी भौजी मुढ़ी को गुड़ में लपेट रही थी। हंसी-मजाक में पीरपैंती वाली भौजी एक-एक कर लाई-तिलबा हमें टेस्ट कराये जा रही थी। तभी उधर से साला ठिठपलवा पहुँच गया। अरे भौजी के भाई का नाम था ठिठपाल। बड़ा सुपात्र था। हमलोग इतना मजाक करते थे लेकिन बेचारा हँसते रहता था। सामने वाली पीढी पर बैठ गया। हाल समाचार हुआ। अब हमको भी मज़ाक करने वाला मिल गया था। तब से तो भौजी सब हमको चाट के साफ़ किये हुई थी, अब हम सारा कसार ठिठपाल पर निकालने लगे। बहुत हंसी-मजाक हुआ लेकिन ठिठपलवा उखरा नहीं। फिर हम एकदम सटा के एक मजाक किये। उससे पूछे, यह बताओ कि तुम्हारा नाम ठिठपाल क्यों पड़ा ? दुनिया में नाम का अकाल पड़ गया था क्या जो ऐसा नाम रख लिया। साला जैसा ठिठिया हुआ रहता है वैसा ही नाम रख लिया है ठिठपाल !

लेकिन वह ज़रा भी नहीं उखरा। बड़े इत्मीनान से जवाब दिया। बोला, "करणजी ! अभी आप दुनिया देखे कहाँ हैं ? यहाँ तो, आवत को जावत देखा, धनपत माथ पोआल ! लक्ष्मी तन पर वस्त्र नाहे, भला नाम ठिठपाल !!" हम तो उसका फकरा सुन कर चुप ही हो गए। फिर इसका मतलब पूछे तब उसने विस्तार से समझाया। कहा देखिये, यही खोखाई मंडल है न उसको जब जाना होगा तो बोलता है, 'आते हैं दुल्हिन जी !' और हम आपके यहाँ भी देखे हुए हैं। धनपत महतो माथा पर धान का पुआल ढो रहा था। धान जाए आपके घर में और पोआल उसके माथा पर ! फिर वह काहे का धनपत? और इसी कोनैला वाली का बेटा है न, लक्ष्मी। शौक से बेटा का नाम लक्ष्मी तो रख ली लेकिन कहाँ आयी लक्ष्मी बेचारी के घर में ? देखिये, इस माघ महीना की ठंडी में भी उसको पहनने के लिए भर बदन कपड़ा नहीं है। बेचारा लक्ष्मी जूट का बोडिया ओढ़ के ठंडी काट रहा है। तो ऐसा नाम से क्या मतलब हुआ ? आँख के अंधा नाम नयन सुख रहने से हमारा भला नाम ठिठपाल। ठिठियाते रहते हैं तो नाम है ठिठपाल। नाम का कुछ मतलब तो भला हुआ।

हम तो उसकी बात सुन कर अचरज से मुंह फारे उसी को निहारते रह गए। ठिठपाल तो बड़ा ज्ञानी निकला। देखिये, कितना दुरुस्त बात कह दिया। वैसे तो यह दुनिया ही उल्टी है। कहेगा पुर्व तो चलेगा पच्छिम। लेकिन बात कुछ सार्थक होनी चाहिए। अब सही में गुण के विपरीत नाम रहने से क्या फ़ायदा ? आखिर नाम का कुछ प्रभाव रहना चाहिए। नहीं तो बात वही हुई न कि नाम बड़े पर दर्शन थोड़े ! "आवत को जावत देखा, धनपत माथ पोआल ! लक्ष्मी तन पर वस्त्र नहीं, भला नाम ठिठपाल !!" हम तो रह-रह कर ठिठपाल का दोहा याद कर इतना हँसे कि तिलवा सरक गया। लेकिन आप सिर्फ हंस के नहीं रह जाइए। ठिठपाल के इस कहावत का सारांश यही है कि 'नाम से कोई बड़ा नहीं होता, काम से बड़ा होता है।' जब काम ही छोटा हो तो नाम बड़ा लेकर क्या?' समझे ! तो अब आप भी जाइए तिलबा लाई समाप्त कर दीजिये। हम भी चलते हैं, भौजी खाने के लिए आवाज़ दे रही हैं। देर होगी तो फिरर गरियायेगी। जय राम जी की !!

रविवार, 28 नवंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-१४ :: मान घटे जहँ नित्यहि जाय

 
कहानी ऐसे बनी-१४
मान घटे जहँ नित्यहि जाय

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

नमस्कार मित्रों! आज बात करते हैं खखोरने काका की।

बीते वैशाख काका का ब्याह हुआ था। तिरहुत का गाँव है, सिरिपट्टी। हम लोग बारात गए थे। लड़की वालोम ने बहुत मान-दान किया था। दही-जलेबी की तो नदी बहा दी थी। मरजाद और भात-खई भी खूब जोरदार हुआ था। जलवासा के सामने वाले पोखर से ही बड़ी-बड़ी रोहू मछली छनवा कर भोज के लिए बनवाई गए थी और उसकी उसकी लहसुनिया सुगंध अभी तक नाक में तैर रही है। खैर दो दिनों बाद बारात विदा हुई लेकिन काका को ससुराल वाले नहीं आने दिए ।

पूरे सवा महीना पर काका गाँव लौटे थे। काका जवान तो पहले ही थे। अब तो चेहरा और भी लाल टस्स लग रहा था। एक सींक मार दें तो खून ऐसे फ़ेंक दे जैसे करेह नदी बाँध टूटने पर पानी फेंकती है। लाल धोती, सिल्क का कुर्ता और पैर में चमरौंधा जूता पहिने काका मच-मच करते आगे चले आ रहे थे। पीछे एक खवास बड़ी-सी पेटी माथे पर उठाए हुए था। काकी नहीं थी। साल भर पर द्विरागमन होगा तब आयेंगी। काका हर चार कदम पर पीली घड़ी देखना नहीं भूलते थे। और गर्दन वाली चेन को पता नहीं कितनी बार ठीक कर चुके थे। चेन-घड़ी संभालते-संभालते ही काका घर पहुँच गए। मर्द-औरतें बच्चे-बूढे सब का हुजूम उमड़ आया था काका को देखने।

गीत-नाद के बाद काका द्वार पर गए। प्रणाम-पाती हुआ। “ऐसा लगता है मानों सासुराल में दूध में सिन्दूर मिला कर नहला दिया है, लाल तो बाबू ऐसे ही लगते हैं...” पुर्णियां वाली काकी मजाक करने लगी।

तर से उच्चैठ वाले बुआ ने मोर्चा थाम लिया, "ऐ दुल्हिन ! अपने नैहर वाली कोशी का किनारा ना समझो। खखोरन की ससुराल है! धन्य दरभंगा, दोहरी अंगा!! मिथिला से अधिक पाहुन का मान-सम्मान और कहीं होता है!!!”

दही में सही लगाते हुए खखोरन काका बोले, "एकदम ठीक कहती हो बुआ। भौजी क्या समझेंगी। हम तो अघा गए खाते-खाते। गरम-कचौरी, नरम कचौरी, खोया, मछली और कवाब खा खा के पेट जवाब दे दिया। इतना मान हुआ कि दो-चार दिन धोतिए में ही मैदान हो गया। लेकिन देसी घी में नहा कर और बासमती चावल का राज-भोग खा कर पूरा शरीर दुगुना होय गया है। बहुत दिलदार हैं सिरिपट्टी वाले। भगवान ऐसी ससुराल भैया को भी देते।"

भौजी भुनभुनाते हुए चली गयी और हमलोग हंसने लगे।

महीना भी नहीं गता था, हम एकदिन ताश खेलने के लिए काका को खोजने गए तो पता चला कि 'अरे... वो तो पिछले सप्ताह से ही ससुराल में हैं। पता नहीं कब आयेंगे।'

पुर्णियां वाली काकी से कुशल-समाचार बतियाने लगे। तभी उधर से साइकिल की घंटी बजी। हमने पलट कए देखा, "अरे खखोरन काका ! आप आ गए ससुराल से?"

'हाँ आ गया।' काका झुंझलाते हुए बोले। साईकिल पटके और दालान पर बैठ कर बतियाये लगे। पुर्णियां वाली काकी पूछी, "लाल बौआ ! बहुत जल्दी चले आये। इस बार सास-ससुर रोके नहीं क्या ?"

काका बोले, "रोके तो बहुत। लेकिन हम बोले कि हम किसी कीमत पर नहीं रुकेंगे।"

खों...खों... ओह्हों... खोह्हों..... खांसते हुए खखोरन काका पुर्णियां वाली काकी से बोले, "भौजी ! जरा तुलसी पत्ता के काढ़ा बना के लाना... दो-चार दिन महुआ दही खा लिए, और बाहर शीत में सो गए सो खांसी हो गया है।“

काकी मजाक में ही बोली, "हाँ बौआ ! काहे नहीं..... ससुराल का मजा तो महुआ दही में ही है।" और उठ कर काढ़ा बनाने चली गयी।

कुछ दिन काढ़ा पीते बीता फिर खांसी नरम हुआ। काका को फिर से सासुराल का मान-दान याद आने लगा। रविवार को सुबह-सवेरे केश-दाढी छंटाये और नहा-धो कर सायकिल जोत दिए, पूर्व की तरफ़। दोपहर में उन्हीं के दालान पर ताश-पार्टी जमी। काका नहीं थे लेकिन हर कोई काका की ही चर्चा कर रहा था। रमेसर झा बोले कि 'खखोरन नहीं कि उसकी ससुराल नहीं'।

नथुनी दस बोला, “ऐसा मत कहिये पंडित जी ! सच में खखोरन बाबू की ससुराल में बेजोड़ मान-दान होता है।“

रामजी बाबा रंग का गुलाम फेंकते हुए खिसिया कर बोले, "धुर्र बुरबक ! ससुराल है तो मान-दान तो होगा ही। इसका मतलब क्या रोज चला जाएगा... ?"

खेल अभी चल ही रहा था कि साईकिल टन-टनाते काका आ धमके। दरवाजे पर एक तरफ साईकिल पटका। धम्म से दालान में आ कर बैठ गए। एक हाथ से पेट पकड़ कर लगे कराहने, "भौजी, एक लोटा पानी भेजना.... अआह.... रे मन्गरुआ..... अरे जा कर जरा वैद्य जी को बुला लाओ।”

काका बेदम होने लगे। झट-पट में मदन डाक्टर बुलाये गए। नाड़ी देखा, फिर जीभ। फिर बोले, “कुर्ता हटाओ।“

गर्दन मे लटकी हुई मशीन निकली। उसका टोंटी कान में घुसाया और मशीन काका के पेट पर सटा-सटा कर उसके अन्दर की आवाज़ सुनने लगे। काका, 'अआह... उह.... यहीं दुखता है डाक्टर साहेब.... हाँ इधर ही।“

“हूँ!” डाक्टर साहब चश्मा को ज़रा नाक पर सरकाते हुए बोले, “घबराने की कोई बात नहीं है। हम आला लगा कर चेक कर लिए हैं। पेट-वेट ठीक है। लगता है कुछ उल्टा-सीधा खा लिए होंगे, उसी से दर्द हो रहा है। ये लो पुर्जा लिख दिए हैं। एक पचनौल की गोली है, एक वायु-विकार का और एक एंटीबायोटिक है।“ डाक्टर साहब पुर्जा थमा कर दसटकिया जेब में रखे और चल दिए।

डाक्टर जाने के बाद हम पूछे, “काका आप तो ससुराल गए रहे। वहाँ क्या खा लिए कि पेट में इतना दर्द हो गया?”

दर्द से कराहते हुए काका बोले, “किस्मत खराब हो तो ससुराल क्या वैकुण्ठ में भी क्लेश है। क्या बताएं... ससुराल का मान-दान तो पता ही है। जैसे ही पहुंचे, हमरी सास जलपान के लिए बुला ली। फुलही थाली में भर कर दोबर चूरा रख दिहिस और गयी दही लाने सो आधा घंटा तक भीतर ही रह गयी। हम यहाँ इन्तज़ार कर रहे हैं, सासू जी दही लाने गयी है कि जमाने गयी है? .... काफ़ी देर बाद सास तो नहीं अन्दर से सरहज निकली। हमको चूरा पर हाथ फेरते हुए देख कर बोली, "पाहून ! क्या बताएं रात में दही जमाना ही भूल गए। लगता है सासु माँ बगल से दही लाने गयी हैं। तब तक आप भोग लगाइए न... आ ही जायेगी।’

हम भी ऐसे ढीठ कि बोले, 'कोई बात नहीं भौजी ! यह भी तो अपना ही घर है। दही नहीं जमा तो क्या हुआ ? दूध ही ले आईये।' अच्छा ठीक है कह कर भौजी अन्दर गयी तो वो भी आउट होकर जाने वाला क्रिकेट के बल्लेबाज की तरह अंदर ही रह गयी। हार के हम आवाज दिए तो छोटकी साली रस के प्याली भर के बोली, 'जीजाजी, देखिये न भाभी बहुत परेशान है। सीका पर से दूध उतार रही थी कि बरतने ही हाथ से छूट गया। पूरा दूध माटी में मिल गया।’

काका अपनी बात को जारी रखते हुए बोले, "एक भोर साईकिल हांक कर आये थे। भूख के मारे रहा नही जा रहा था। बोले कि कोई बात नहीं। ज़रा नमक-तेल और अंचार ही दे-देना।" ‘ठीक है’ कह कर कर साली अन्दर गयी तो हमरी नजर रसोई घर के दरवाज़े पर अटक गयी कि पाता नहीं अब कौन भदवा पड़ेगा। लेकिन साली दो मिनट में ही वापस आ गयी। चुटकी भर नमक रख दी थाली में। फिर बोली, 'जीजाजी तेल तीसी का है। कच्चा खाने में अच्छा नहीं लगेगा इसीलिये नहीं लाई और अंचार इतना खट्टा है कि दांत खट्टे हो जायेंगे इसीलिये ये हरी मिर्च लाई हूँ।’ इतना कह कर चार लौंगिया हरी मिर्च चूरा के ऊपर से रख दी।

काका कहे जा रहे थे, 'भूख ना माने बासी भात। वही मिर्च के साथ तीन पाव चूरा फांके और एक लोटा पानी पीकर दालान में आये ही थे कि पेट में ऐसी व्यथा शुरू हुई कि दो बार लोटा लेकर गाछी दौड़े। दर्द और बढता ही जा रहा था। वहाँ न कोई डाक्टर-वैद, ना कोई मरद-मानुस। सास-सरहज कोई एक बार भी बार हाल पूछने भी बाहर नहीं आयीं। हम सोचे कि इससे पहले कि हाल और बिगड़ जाए अपने घर लौट चलते हैं। भरी दोपहरी में हम चल दिए लेकिन किसी ने निकल कर रोका तक नहीं।' कहते-कहते काका की लाल-लाल आँखों से गोल-गोल आंसू ढलक पड़े।

तभी रामेसर झा चिल्लाए, "सुना रे निर्धनमा! ससुराल में बड़ा मान-दान होता है....??? ससुराल है एक दिना। दौड़-दौड़ कर जाएगा तो ऐसा ही मान-दान होगा..... !”

रामजी बाबा भी कहाँ पीछे रहने वाले थे। बोले, "ठीक कह रहे हैं पंडित जी। मान घटे जहँ नित्यहि जाय। ससुराल रहे चाहे समधियाना, हमेशा जाने वाले को क्या मान मिलेगा। जहाँ नित्य दिन जाइयेगा वहाँ सम्मान घटेगा ही। हां।"

कहने का मतलब समझे हजूर लोग ? अरे भाई ! कहीं भी बार-बार नहीं जाना चाहिए। और जाते हैं तो मान-सम्मान की परवाह नहीं कीजिये। पाहून-कुटुंब होते हैं एक-दो दिन के लिए। अब हमेशा जायेंगे तो सम्मान घटेगा ही। इसीलिये कहते हैं, "मान घटे जहाँ नित्यहि जाय"। तो कहानी ऐसे बनी। याद रहा तो ठीक है नहीं तो दुबारा ससुराल जाने से पहले इसे एक बार फिर पढ़ लीजिएगा। अभी हमको और्डर दीजिये ! राम-राम !!!

रविवार, 21 नवंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-१३ :: लंक जरे तब कूप खुनाबा

कहानी ऐसे बनी-१३

लंक जरे तब कूप खुनाबा

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

हैलो जी ! पहचाने नहीं...? हा..हा..हा... वो क्या है कि आज हमरा स्टाइल थोड़ा बदल गया है जी ... । अब हमें भी ज़रा शहर की हवा लग गयी है। अब हम बात-बात पर खाली कहवात कहने वाले साधारण मानुष नहीं रहे.. । क्या बताएं.... अधिकांश समय तो गांव में ही रहे। लेकिन इस बार बड़ा दिन की छुट्टी मनाने आ गए बंगलूरू। इस शहर को कोई ऐसा-वैसा छुटभैय्या शहर नहीं समझिये। बहुत बड़ा शहर है... पटना से भी बड़ा...! समझिये कि बम्बई के जोड़ का ... ! हां.... इतना बड़ा-बड़ा मकान सब है कि क्या बताएं ? हमने तो जैसे ही स्टेशन से बाहर निकल कर एक मकान देखने के लिए गर्दन को घुमाया कि सिर पर की पगड़ी ही गिर गयी। इतनी स्पीड में गाड़ी सब चलती है कि आप तो देखते ही रह जाइएगा । वो तो हम थे जो कोई दिक्कत नहीं हुई। और दिक्कत हो भी तो क्यों... ? आपको न हम 'घर के जोगी जोगरा' लगते हैं लेकिन बंगलूरू में हमारी बहुत जान-पहचान है। ढेरों लोग पहचानते हैं।

बड़ा दिन यहाँ सब में क्या पता चलेगा...। आप लोग तो खाली नाम ही सुनते होइएगा... कभी बंगलूरू आइयेगा तब देखिएगा.. कैसा होता है बड़ा दिन... ! शहर-बाजार में इतनी भीड़-भार रहती है.... इतनी ही सजावट... और इतना बम-पटाखा छूटता है कि आपको दिवाली ही लगेगा । लेकिन इसमें 'शुभ दीपावली' नहीं बोलते हैं। पर्व के नाम पर भी खीचम-खींच किये रहते हैं। एक कहेगा 'मेरी क्रिसमस' तो दूसरा भी कहेगा 'मेरी क्रिसमस'। हमने कहा कि इसमें लड़ाई करने की क्या ज़रूरत है, 'न मेरी क्रिसमस... ना तेरी क्रिसमस... सबकी क्रिसमस'।

क्रिसमस के बहाने प्लान बना सिनेमा देखने का। क्या सिनेमा-हॉल सब है ... आप तो खाली लाइट-हाउस, जवाहर और अप्सरा का नाम सुने होंगे। यहाँ तो मल्टीप्लेक्स होता है। एक हॉल में चार-चार सिनेमा एक शो में चलता है। और हॉल के बाहर जो भीड़ देखिएगा तो लगेगा कि सोनपुर का मेला भी फेल है। और सिनेमा भी लगा हुआ था बड़ा बेजोर। अमीर खान का नया सिनेमा, "थ्री इडीअट्स"। बड़ा मजेदार सिनेमा है। एकदम समझिये कि खान भाई और उसका दोस्त लोग हिला के रख दिहिस है। आप सोच रहे होंगे कि अंग्रेजी फिलिम में हमें क्या समझ में आया होगा... ? अरे भाई ! सिनेमा का खाली नाम ही है अंग्रेजी में, बांक़ी पूरा सिनेमा तो हिंदी में ही है। हा..हा... हा... !!

इस सिनेमा में एक आमीर खान रहता है और दो है उसका दोस्त। तीनों बहुत बड़ा कमीना रहता है। लेकिन तीनों इंजीनियरिंग की पढाई करता है। उस इंजीनियरिंग कॉलेज का डायरेक्टर रहता है भारी खडूस। वह इन तीनों को देखना नहीं चाहता है। और आमीर खान ससुरा इतना बड़ा बदमाश है कि डायरेक्टर की छोटकी बेटी को ही पटा लेता है। एक बात है, ये तीनों लड़के ऊपर-झापर से ही शैतानी करते हैं लेकिन दिल के एकदम हीरा हैं, हीरा। और समझिये कि जरूरत पड़े तो किसी की मदद के लिए अपनी जान भी दे दें।

तो सिनेमा में क्या होता है कि  उसी डायरेक्टर की बड़ी बेटी को प्रसव होने वाला रहता है। एकदम आखिरी टाइम। लेकिन वर्षा कहे कि हम आज छोड़ेंगे ही नहीं। आसमान फार के जो मूसलाधार बरसने लगा कि रोड सब पर छाती भर पानी लग गया। और उसी में डायरेक्टर की लड़की को प्रसव पीड़ा शुरू हो गया। गाड़ी-घोड़ा कुछ नहीं। संयोग से डायरेक्टर की छोटी बेटी डाक्टरनी थी लेकिन वह भी साथ में नहीं थी। अब डायरेक्टर साहेब परेशान। तभी ये तीनों लड़के वहाँ पहुँच गए। वर्षा में उसको लेकर कहाँ जाए ? कॉलेज में ही उठा-पुठा कर ले आए। अब उसकी डाक्टरनी बहन फ़ोन और कप्यूटर पर बताने लगी... ऐसे करो। वैसे करो। इधर दबाओ। उधर से उठाओ। समझिये कि लड़का सब पढाई किहिस इंजीनियरिंग का और करने लगा डाक्टरी। सब कुछ किया लेकिन प्रसव नहीं हुआ। फिर उस डाक्टरनी ने कहा कि 'वेकुअम' देना पड़ेगा। अब आमीर खान पूछता है कि "ये वेकुअम क्या होता है जी ?" तब वो बोली कि 'यह ऐसा-ऐसा मशीन होता है ... बच्चा को बाहर खीचने का।' आमीर खान बोला, "धत्‌ तेरी के ! यह कौन सी बड़ी बात है ? हम तो इंजीनियरिंग का विद्यार्थिये हैं ही। यह मशीन तो हम तुरत ही बना देंगे।"

और ससुर लगा मशीन बनाने। ये लाओ, वो लाओ। और उधर वह बेचारी दर्द से अधमरी बेसुध छट-पटा रही है। हमें तो इतना गुस्सा आया कि क्या बताएं। उधर वो बेचारी प्रसव-पीड़ा से मर रही है और यह कमीना सब मशीन ही बना रहा है। इसी को कहते हैं कि "लंक जले तब कूप खुनाबा"। भोज के वक्त में कहीं दही जमाया जाता है ? लेकिन एक बात है। आमीर खान का दिमाग साला रॉकेट से भी फास्ट चलता था। और था पक्का इंजीनियर। झटपट मशीन बना कर तैयार कर दिया। इतना ही नहीं... ऐन मौक़े पर लाइन चला गया तो चट-पट में एक 'इनवर्टर' भी बना लिया। फिर उस बिचारी का प्रसव करवाया। तब जाकर सब का मन प्रसन्न हुआ।

लेकिन हम सोचने लगे कि वह तो आमीर खान पहिले से कुछ जोगार कर के रक्खा हुआ था तब ऐन मौका पर मशीन बना लिया। लेकिन बड़का पंडित रावण ब्रहमज्ञानी। सोचा कि बगल मे समुद्र है ही। पानी का काम चल ही जाएगा। काहे खा-म-खा सोना की लंका को खुदवा कर मिटटी निकलवाएँ। ससुर पूरा लंका में एक भी कुआं-तालाब नहीं खुदवाया। और जब हनुमान जी लंका में आग लगा दिए तो सब घड़ा-बाल्टी लेकर इधर-उधर दौड़ने लगा। सब घर द्वार धू-धू कर के जलने लगा तब जा कर रावण जल्दी-जल्दी कुआं खोदने का आर्डर दिया। जब तक कुआं खुदाए तब तक तो लंका-दहन हो चुका था। तभी से यह कहावत बनी कि "लंक जले तब कूप खुनाबा"। मतलब कि

जरूरत एकदम सिर पर सवार हो गया हो तो चले उसके समाधान का रास्ता खोजने।

ऐसा नहीं होना चाहिए। रास्ता पहिले खोज के रखिये नहीं तो जरूरत के समय 'ठन-ठन गोपाल' हो जाएगा। समझे !!! आप 'लंक जले तब कूप खुनाबे' नहीं जाइयेगा।

***

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5. कहानी ऐसे बनी–५ :: छोड़ झार मुझे डूबन दे !
6. कहानी ऐसे बनी– 6 -"बिल्ली के गले में घंटी कौन बांधे ?"
7. कहानी ऐसे बनी– 7 :: मरद उपजाए धान ! तो औरत बड़ी लच्छनमान !!
8. कहानी ऐसे बनी– 8 :: न कढी बना न बड़ी!
9. कहानी ऐसे बनी-९ :: गोनू झा मरे ! गाँव को पढ़े !
10. कहानी ऐसे बनी-१०::चच्चा के तन ई बधना देखा और बधना के तन चच्चा देखे थे।
  1. कहानी ऐसे बनी-११ :: मियाँ बीवी के झगड़ा ! 
कहानी ऐसे बनी-१२ :: बिना बुलाये कोहबर गए

रविवार, 14 नवंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-१२ :: बिना बुलाये कोहबर गए

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।         रूपांतर :: मनोज कुमार

कहानी ऐसे बनी-१२

बिना बुलाये कोहबर गए

हा ... हा... हा ... ! हा ... हा... हा .. हा ... !! आ ... हा .. हा ... हा ... हा !!! अरे बाप रे बाप ! हा ... हा... हा ... !!!! रविवार की सुबह हो गई। आप लोग भी कहानी ऐसे बनी का इंतजार कर रहे होंगे ..... ! हा ... हा ... हा .... !! लेकिन क्या बताएं .... मारे हंसी के दम नहीं धरा जा रहा है। हा... हा ... हा .... !!! बड़का भैय्या कल ही ससुराल से आये हैं। शाम में ऐसा किस्सा सुनाये कि हंसी रुक ही नहीं रही है। हा ... हा .... हा .... हा ..... !!

पिछले सप्ताह बड़का भैय्या ससुराल गए थे, अपने मझिला साला के शादी में। आ .. हा ... हा .... भगवान सबका घर आबाद वाद करें। भैय्या का साला बेचारा सोलह सोमवारी का व्रत रखा था। तब जा कर यह रिश्ता पक्का हुआ। फिर भी कोई अंतिम समय अड़चन न पड़े ... सो बेचारे ने लगन निकलते ही सत्यनारायण भगवान की पूजा कबूल ली .... "हे भगवान ! भले-भली हमारी 'लीलावती-कलावती' मिल जाएँ तो मधु-यामिनी से पहले ही पान-फूल और पांच खंड नैवेद लेकर आपकी पूजा करेंगे।"

इस अंदेशा के बावजूद भी बेचारा था बहुत खुश। उछल-उछल कर जोरा-जामा-जूता बनवाया। जयपुरिया पगरी का और्डर दिया...। आई-माई पौनी पसारी के साड़ी-धोती, न्योत-निमंत्रण से लेकर एंड-बैंड सब का जोगार .... बेचारा भूख प्यास भूल कर लगा रहा। जैसे-जैसे दिन नजदीक आ रहा था, बेचारे की ख़ुशी का पारावार उमरा जा रहा था। इसी ख़ुशी में गधे के सिंघ की तरह ऐसा गायब हुआ कि आज तक नजर नहीं आया। खैर, भैय्या के मुंह से ही सही, ब्याह का आँखों देखा हाल सुन कर हँसते-हँसते अभी भी पेट में बल पड़ रहे हैं।

भैय्या को तो पहिले अपनी ससुराल खोजने में ही ढाई चक्कर लगाना पड़ा। ऊँह .... पचासों आदमी लगे हुए थे पंडाल बांधने में। भैय्या झट से पॉकेट से पुर्जी निकाल कर पता देखे... “अरे पता तो यही है! फिर हमारी ससुराल कहाँ चली गई इस अगहन के महीने में किस दुर्गा-पूजा के पंडाल में हम पहुँच गए...?"

भैय्या अपने मन में यह बात कह ही रहे थे कि उधर से ससुर जी तम्बाकू पर ताली मारते हुए निकले और व्यस्त हो गए मजदूरों को निर्देश देने में। भैय्या ससुरजी के पैर छुए तब जा कर उनकी नजर पड़ीं .... 'पाहून ... !' फिर तो पाहून आये - पाहून आये का शोर मच गया। बड़का साला-छोटका साला... साली सलहज -ऊपर बाहर निकल पड़े। बालकनी से सासूजी और खिड़की से सरहजें झाँकने लगी। एक खवास समान उठा कर अन्दर ले गया। पीछे भैय्या भी दरवाजे पर जा कर बैठे। चाय-पानी के साथ-साथ वर-बारात व्यवस्था-बात पर चर्चा चलने लगी।

लगन के घर में कहीं समय का पता चलता है। गीत-गाली, रंग-रहस करते-करते ब्याह का दिन आ गया। भैया का मझिला साला पीला धोती पहने कलाई पर आम का पत्ता बांधे दिन भर बेतार वाला फोन पर पता नहीं किससे कितना बतिया रहा था। बीच-बीच में ब्रेक लेकर उबटन भी मलवा लेता था। दस बजे दिन में ही बाजा वाला भी पहुँच गया। ढोल पुजाई हुआ और शुरू हो गया.... 'आज मेरे यार की शादी है....!'

दिन भर ये विध, वो व्यवहार.... ये आये... वो निकले... सब व्यस्त। इधर घड़ी का कांटा दो पर गया और दूल्हा जी घुस गए बाथरूम में। पता नहीं.... नहा रहे थे कि दहा रहे थे। वो तो लोग-बाग़ बार-बार किवाड़ पीटने लगे तो बेचारा निकला। चार बजे से ही जोरा-जामा पहन कर कुर्सी छेक कर बैठा और सबको लगा हरकाने। ज़ल्दी करो जल्दी करो, सांझ हो गया, बारात निकलेगी। और बारात क्या ... समझिये कि 'देखले कनिया देखले वर ! कोठी तर बिछौना कर !!' इस गली से निकल कर उस मोहल्ले में जाना था। लेकिन साले साहब को भरोसा कहाँ।

खैर सूरज ढलते ही बेचारे घोड़ी पर सवार हो गए। अब तो बारात निकलना मजबूरी ही थी। भाई बारात ही तो एक ऐसा मौका होता है कि जिसके पैर में चक्की बंधी हो वह भी दो बार कूद जरूर लेगा। सो दूल्हा लाख ज़्ल्दबाज़ी करे लेकिन बिना नाच के बारात कैसी। इस पांच मिनट के रास्ते नाच-गान के चक्कर में पांच कोस हो गया था। वो ...... दूर से एक और सजा सजाया पंडाल जैसे ही दिखा कि दूल्हे की अधीरता तो समझिये कि सौ गुना बढ़ गई। अब शादी की घोड़ी तो अंग्रेजी बाजा के ताल पर ही चलेगी लेकिन दूल्हा इतना अधीर हो चुका था कि लोग हाँ .. हाँ ... न … करते तो बेचारा उतर कर दौर पड़ता। फिर बाजा वाला 'आगे बाराती पीछे बैंड बाजा ....' वाला धुन बदल कर, 'जिमी .... जिमी .... जिमी ... ! आजा ... आजा ... आजा ... !!' लगा दिया तब जा के घोड़ी का कुछ स्पीड बढ़ा और दुल्हे राजा की उम्मीद।

जल्दी-जल्दी गल-सेंकाई हुआ। फटाक से महाराज जी मंडप में पहुंचे। दूल्हा के दो -चार दोस्त और भैय्या लोगों के लिए मंडप के पास ही बैठने की ख़ास व्यवस्था थी। संयोग देखिये कि पंडित जी किराए वाले ही थे। बस, फास्ट-फॉरवार्ड बटन दबा दिए। फटाफट सारा विध-व्यवहार होते हुए नौ से बारह के शो की तरह ब्याह भी कम्प्लीट हो गया। कनिया की सखी-सहेली गीत-नाद गाती हुई, उन्हें लेकर कोहबर की तरफ बढ़ चली।

दूल्हा वहीं खड़े दोस्तों से दो-चार बात किया। फिर पता नहीं क्या याद आया .... बेचारा दौड़ पड़ा कोहबर की तरफ। जैसे ही करीब पहुंचा .... हल्ला हो गया ..... 'जा ... जा .... दूल्हा आ गया .... कैसा धर-फरिया दूल्हा है .... अभी विध बांक़ी ही है ! जा .. जा ... !! आनन-फानन में दुल्हन की माँ बीच में रास्ता रोकते हुए बोली, "पाहून!! यहाँ कहाँ आ गए ? अरे, अभी यहाँ पर विध हो रहा है। आपको बुलाया जाता, तब आना चाहिए था न ... !" कनिया की माँ बेचारे दुल्हे की अधीरता क्या समझे ... उनको तो विध की पड़ीं थी। लेकिन सखी-सहेलियां कहाँ चूकने वाली थीं। हंसी का ऐसा पटखा फूटा और लगी दुल्हे राजा से मजाक करने, "बिना बुलाये कोहबर (सुहाग-कक्ष) धाये ! कनिया की माँ पूछी, आप कहाँ आये ??" हा .. हा ... हा .... !! इतना कहते-कहते भैय्या की भी हंसी नहीं रुकी ! हा...हा...हा.... !! महराज अब क्या बताएं, हम तो कल्ह सांझे से ही हँसते-हँसते बेदम हैं। हा ... हा ... हा ... !

लेकिन देखिये, हंसी-मजाक में एक कहावत बन गई ... "बिना बुलाये कोहबर धाये ! कनिया की माँ पूछी, आप कहाँ आये ?" और इस कहावत में अर्थ भी छुपा हुआ है बड़ा चमत्कारी।

मतलब कि

'रिश्ता चाहे जैसा भी हो, जितना भी ख़ास हो, लेकिन बिना बुलाये नहीं जाना चाहिए। नहीं तो आपको भी खा-म-खा सुनना पड़ेगा, "बिना बुलाये कोहबर धाये ! कनिया की माँ पूछी, आप कहाँ आये ??"

हा .. हा ... हा .... !! वैसे बिना पूछ-ताछ के अपने मन से सब जगह टपकने वाले भैय्या के साला की तरह यह सब तो सुनते ही रहते हैं। हा ... हा ... हा ... !!

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