मंगलवार, 19 जुलाई 2011

सभी लुजलुजे हैं






रघुवीर सहाय 
सभी लुजलुजे हैं

खोंखियाते हैं, किंकियाते हैं, घुन्‍नाते हैं
चुल्‍लु में उल्‍लू हो जाते हैं

मिनमिनाते हैं, कुड़कुड़ाते हैं
सो जाते हैं, बैठ जाते हैं, बुत्ता दे जाते हैं

झांय झांय करते है, रिरियाते हैं,
टांय टांय करते हैं, हिनहिनाते हैं
गरजते हैं, घिघियाते हैं
ठीक वक़्त पर चीं बोल जाते हैं

सभी लुजलुजे हैं, थुलथुल है, लिब लिब हैं,
पिलपिल हैं,
सबमें पोल है, सब में झोल है, सभी लुजलुजे हैं।
(सीढि़यो पर धूप, से)

9 टिप्‍पणियां:

  1. यथार्थ को कहती सटीक रचना पढवाने के लिए आभार

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  2. "सभी लुजलुजे हैं" सत्य के लगभग करीब, सहाय जी की रचना है पढवाने के लिए आभार - बहुत बढ़िया

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  3. ऱघुबीर सहाय द्वारा विरचित कविता ' सभी लुजलुजे हैं' पढ़कर अच्छा लगा। हिंदी साहित्य-जगत में इनकी ख्याति एक कवि के रूप में ही अधिक हुई है।
    स्वातंत्र्योत्तर भारत में उस समय जो काव्य-धारा साहित्य-जगत में उभर कर सामने आई उसमे रचनाकारों का एक बड़ा समुदाय लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति उदासीन होता गया। लेकिन उस युग में सहाय जी ही एक ऐसे कवि थे जिन्होंने अपनी लोकतांत्रिक संवेदना को अपना संगी बनाए ऱखा। इन्होंने अपना मार्ग विना किसी विचारधारा से प्रभावित होकर स्वयं प्रशस्त किया तथा जीवन और समाज के प्रति अपने रवैये को एक अलग पहचान भी दिया। इसी भाव का प्रतिविंब उनकी कविता 'सभी लुजलुजे हैं,में परिलक्षित होता है। बहुत ही सुंदर प्रस्तुति।
    धन्यवाद।

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  4. मनोज जी! बहुत दिनों से इस कविता की प्रतीक्षा थी.. मुझे याद है आज भी जब आपने इस कविता का उद्धरण दिया था एक टिप्पणी में और आज वो कविता हमारे समक्ष है.. रघुवीर सहाय जी की यह कविता अपने आप में एक मानदंड है, क्योंकि यह कई मान डंडों को तोडती है..
    राहत इन्दौरी साहब की गज़ल का ये शेर देखिये:
    आपकी कत्थई आँखों में हैं जंतर मंतर सब,
    चाकू-वाकू,छुरियाँ-वुरियाँ, खंजर-वंजर सब!!

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  5. स्व्छ्न्दता वाद का एक अदभुत नमूना पेश करती ये कविता.

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