बुधवार, 24 अगस्त 2011

अंधेरे में (खंड-3)

गजानन मा. मुक्तिबोध‘अंधेरे में’ मुक्तिबोध की लंबी कविता है। कविता आठ खंडों में विभाजित है। इस कविता में गहनतम अंधकार है। अंधेरा सामाजिक व्यवस्था और व्यक्ति के अवचेतन दोनों स्तरों पर छाया हुआ है। कविता का नायक अंधेरे में चक्कर लगाता है।

आज प्रस्तुत है तीसरा खंड। इसमें भय और आतंक के वातावरण का प्रसार है। व्यवस्था की अमानवीय साजिश के बीच नायक है। नायक को व्यवस्था अपना शत्रु समझती है। उसकी खोज करती है। सारांश यह है कि विवेक को कोई भी व्यवस्था बर्दाश्त करना नहीं चाहती है।

गजानन माधव मुक्तिबोध की कविताएं-3

अंधेरे में

खंड-३.

समझ न पाया कि चल रहा स्वप्न या

जाग्रति शुरू है।

दिया जल रहा है,
पीतालोक-प्रसार में काल चल रहा है,
आस-पास फैली हुई जग-आकृतियाँ
लगती हैं छपी हुई जड़ चित्रकृतियों-सी
अलग व दूर-दूर
निर्जीव!!
यह सिविल लाइन्स है। मैं अपने कमरे में
यहाँ पड़ा हुआ हूँ
आँखें खुली हुई हैं,
पीटे गये बालक-सा मार खाया चेहरा
उदास इकहरा,
स्लेट-पट्टी पर खींची गयी तसवीर
भूत-जैसी आकृति--
क्या वह मैं हूँ
मैं हूँ?

रात के दो हैं,
दूर-दूर जंगल में सियारों का हो-हो,
पास-पास आती हुई घहराती गूँजती
किसी रेल-गाड़ी के पहियों की आवाज़!!
किसी अनपेक्षित
असंभव घटना का भयानक संदेह,
अचेतन प्रतीक्षा,
कहीं कोई रेल-एक्सीडेण्ट न हो जाय।
चिन्ता के गणित अंक
आसमानी-स्लेट-पट्टी पर चमकते
खिड़की से दीखते।
..........................
हाय! हाय! तॉल्सतॉय
कैसे मुझे दीख गये
सितारों के बीच-बीच
घूमते व रुकते
पृथ्वी को देखते।

शायद तॉल्सतॉय-नुमा
कोई वह आदमी
और है,
मेरे किसी भीतरी धागे का आख़िरी छोर वह
अनलिखे मेरे उपन्यास का
केन्द्रीय संवेदन
दबी हाय-हाय-नुमा।
शायद, तॉल्सतॉय-नुमा।

प्रोसेशन?
निस्तब्ध नगर के मध्य-रात्रि-अँधेरे में सुनसान
किसी दूर बैण्ड की दबी हुई क्रमागत तान-धुन,
मन्द-तार उच्च-निम्न स्वर-स्वप्न,
उदास-उदास ध्वनि-तरंगें हैं गम्भीर,
दीर्घ लहरियाँ!!

गैलरी में जाता हूँ, देखता हूँ रास्ता
वह कोलतार-पथ अथवा
मरी हुई खिंची हुई कोई काली जिह्वा
बिजली के द्युतिमान दिये या
मरे हुए दाँतों का चमकदार नमूना!!

किन्तु दूर सड़क के उस छोर
शीत-भरे थर्राते तारों के अँधियाले तल में
नील तेज-उद्भास
पास-पास पास-पास
आ रहा इस ओर!
दबी हुई गम्भीर स्वर-स्वप्न-तरंगें,
शत-ध्वनि-संगम-संगीत
उदास तान-धुन
समीप आ रहा!!

और, अब
गैस-लाइट-पाँतों की बिन्दुएँ छिटकीं,
बीचों-बीच उनके
साँवले जुलूस-सा क्या-कुछ दीखता!!

और अब
गैस-लाइट-निलाई में रँगे हुए अपार्थिव चेहरे,
बैण्ड-दल,
उनके पीछे काले-काले बलवान् घोड़ों का जत्था
दीखता,
घना व डरावना अवचेतन ही
जुलूस में चलता।
क्या शोभा-यात्रा
किसी मृत्यु दल की?

अजीब!!
दोनों ओर, नीली गैस-लाइट-पाँत
रही जल, रही जल।
नींद में खोये हुए शहर की गहन अवचेतना में
हलचल, (पाताली तल में
चमकदार साँपों की उड़ती हुई लगातार
लकीरों की वारदात!!
सब सोये हुए हैं।
लेकिन, मैं जाग रहा, देख रहा
रोमांचकारी वह जादुई करामात!!)

विचित्र प्रोसेशन,
गम्भीर क्वीक मार्च....
कलाबत्तूवाला काला ज़रीदार ड्रेस पहने
चमकदार बैण्ड-दल--
अस्थि-रूप, यकृत-स्वरूप, उदर-आकृति
आँतों के जाल से, बाजे वे दमकते हैं भयंकर
गम्भीर गीत-स्वप्न-तरंगें
उभारते रहते,
ध्वनियों के आवर्त मँडराते पथ पर।
बैण्ड के लोगों के चेहरे
मिलते हैं मेरे देखे हुओं-से
लगता है उनमें कई प्रतिष्ठित पत्रकार
इसी नगर के!!
बड़े-बड़े नाम अरे कैसे शामिल हो गये इस बैण्ड-दल में!
उनके पीछे चल रहा
संगीत नोकों का चमकता जंगल,
चल रही पदचाप, ताल-बद्ध दीर्घ पाँत
टेंक-दल, मोर्टार, ऑर्टिलरी, सन्नद्ध,
धीरे-धीरे बढ़ रहा जुलूस भयावना,
सैनिकों के पथराये चेहरे
चिढ़े हुए, झुलसे हुए, बिगड़े हुए गहरे!
शायद, मैंने उन्हे पहले भी तो कहीं देखा था।
शायद, उनमें कई परिचित!!
उनके पीछे यह क्या!!
कैवेलरी!
काले-काले घोड़ों पर ख़ाकी मिलिट्री ड्रेस,
चेहरे का आधा भाग सिन्दूरी-गेरुआ
आधा भाग कोलतारी भैरव,
आबदार!!
कन्धे से कमर तक कारतूसी बेल्ट है तिरछा।
कमर में, चमड़े के कवर में पिस्तोल,
रोष-भरी एकाग्रदृष्टि में धार है,
कर्नल, बिग्रेडियर, जनरल, मॉर्शल
कई और सेनापति सेनाध्यक्ष
चेहरे वे मेरे जाने-बूझे से लगते,
उनके चित्र समाचारपत्रों में छपे थे,
उनके लेख देखे थे,
यहाँ तक कि कविताएँ पढ़ी थीं
भई वाह!
उनमें कई प्रकाण्ड आलोचक, विचारक जगमगाते कवि-गण
मन्त्री भी, उद्योगपति और विद्वान
यहाँ तक कि शहर का हत्यारा कुख्यात
डोमाजी उस्ताद
बनता है बलवन
हाय, हाय!!
यहाँ ये दीखते हैं भूत-पिशाच-काय।
भीतर का राक्षसी स्वार्थ अब
साफ़ उभर आया है,
छिपे हुए उद्देश्य
यहाँ निखर आये हैं,
यह शोभायात्रा है किसी मृत-दल की।
(विचारों की फिरकी सिर में घूमती।)

इतने में प्रोसेशन में से कुछ मेरी ओर
आँखें उठीं मेरी ओर-भर
हृदय में मानो कि संगीन नोंकें ही घुस पड़ीं बर्बर,
सड़क पर उठ खड़ा हो गया कोई शोर--
"मारो गोली, दाग़ो स्साले को एकदम
दुनिया की नज़रों से हटकर
छिपे तरीक़े से
हम जा रहे थे कि
आधीरात--अँधेरे में उसने
देख लिया हमको
व जान गया वह सब
मार डालो, उसको खत्म करो एकदम"

रास्ते पर भाग-दौड़ थका-पेल!!
गैलरी से भागा मैं पसीने से शराबोर!!

एकाएक टूट गया स्वप्न व छिन्न-भिन्न हो गये सब चित्र

जागते में फिर से याद आने लगा वह स्वप्न,
फिर से याद आने लगे अँधेरे में चेहरे,
और, तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक
गहन मृतात्माएँ इसी नगर की
हर रात जुलूस में चलतीं,
परन्तु दिन में
बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
विभिन्न दफ़्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में।

हाय, हाय! मैंने उन्हे दैख लिया नंगा,
इसकी मुझे और सज़ा मिलेगी।

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर कविता है यह मुक्तिवोध जी को नमन और आपका आभार

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  2. मुक्तिबोध को पढना समूची काव्य-विधा से परिचित होने जैसा है. आभार आपका.

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  3. अपनी अभिव्यक्तियों के आयाम को कविता के विस्तृत फलक पर मूर्त रूप देने वाले कवि मुक्तिबोध जी विपरीत आलोचनाओं एवं टिप्पणियों की परवाह किए बिना निर्बाध रूप से अपनी रचनाओं एवं भावों को हम सबके सामने प्रस्तुत करते रहे । उन्होंने अपने जीवन-काल में ज्ञानार्जन को अधक महत्व दिया धनार्जन को नही। जो भी भाव उनके अंतर्मन को आंदोलित कर गए उन्ही भावों को अपनी पूर्ण समग्रता में पाठकों के सामने प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं । इसके लिए उनकी कविताओं की प्रासांगिकता आज भी महत्वपूर्ण है एवं किसी भी साहित्कार ने इसे हाशिए पर ऱखने का दुस्साहस नही किया । उनको पढ़ना अच्छा लगता है । उनकी लंबी एवं सत्य को सबोधित करती कविता " अंधेरे में" अच्छी लगी । प्रस्तुति के लिए आपका धन्यवाद।

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  4. और, तब मुझे प्रतीत हुआ भयानक
    गहन मृतात्माएँ इसी नगर की
    हर रात जुलूस में चलतीं,
    परन्तु दिन में
    बैठती हैं मिलकर करती हुई षड्यंत्र
    विभिन्न दफ़्तरों-कार्यालयों, केन्द्रों में, घरों में।

    मुक्तिबोध की यह रचना पढवाने के लिए आभार ..

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  5. मुझे तो इनकी कविताओं से बड़ा डर लगता था.. पहली बार जब "चाँद का मुँह टेढा है" पढ़ने बैठा तो लगा कि हाथ पैर फूल जायेंगे.. मगर बाद में जो आनंद मिला वो अतुलनीय है..
    प्रस्तुत कविता बहुत ही सुन्दर है!!

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