शनिवार, 13 अगस्त 2011

नाटक साहित्य – प्रसाद युग-2


नाटक साहित्य-9

नाटक साहित्य प्रसाद युग-2


“... नाटक रंगमंच के लिए लिखे जाते हैं। प्रयत्न तो यह होना चाहिए कि नाटक के लिए रंगमंच हो, जो व्यावहारिक है।” --- जयशंकर ‘प्रसाद’

प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। उन्होंने काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि सभी विधा में अपने क़लम चलाए। उनके बाल्यकाल में ही भारतेन्दु-मंडल एक-एक कर अंत हो चुके थे। मौलिक नाटक एक्का-दुक्का दिखाई पड़ते थे। बंगला नाटकों के अनुवाद की भरमार थी। शेक्सपीयर के नाटकों का प्रभाव हिन्दी पर गहरा पड़ रहा था। भावोन्माद और करुणा को प्रमुख स्थान दिया जा रहा था। इस प्रकार एक तरफ़ नवयुग-प्रवर्तक भारतेन्दु जी और दूसरी तरफ़ पश्चिमी नाटकों की अभिनय कला के सन्धि-काल में प्रसाद जी ने नाटक-साहित्य-सृजन का काम शुरु किया।

अपने समन्वयात्मक शैली द्वारा प्रसाद जी ने हिंदी नाटकों को कलात्मक विकास तक पहुंचा दिया। उन्होंने हिंदी नाट्य सृजन को एक नई शैली दी और भारतीय और पाश्चात्य नाट्य विधान का समन्वय कर एक नवीन शिल्प का विकास किया। इसके परिणाम स्वरूप उनके नाटकों में पात्रों का चरित्र काफ़ी व्यापक भूमि पर विकसि हुआ है। उनके नाटकों में मानवीय संवेदना के अनेक रूप दर्शाए गए हैं। अपने हरेक पात्र को उन्होंने एक निजी रूप प्रदान किया है। हर पात्र की एक अलग पहचान होती है। चरित्र विकास की यह मौलिकता ही उनके नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता है। पात्रों के अंतर्द्वन्द्व में पात्रों की वैयक्तिकता प्रकट होती है।

उनका भारतीय आदर्शवादी आस्था में पूरा विश्वास था। इसलिए उनके पात्रों का आदर्शवादी चरित्र उसके चरित्र को एक सीमा से आगे नहीं जाने देता। इसलिए उनका नायक न पूरी तरह परंपरासिद्ध है और न ही पूरी तरह वैचित्र्यमूलक ही। उसमें दोनों रूपों का सर्जनात्मक समन्वय है।

जैसा कि हम पहले चर्चा कर आए हैं, एक तरफ़ अव्यवसायी रंगमंच प्रसाद के आते-आते लगभग समाप्त हो गया था। वहीं दूसरी तरफ़ सस्ती जनरुचि के पोषक पारसी रंगमंच को हिंदी के शिष्ट समाज  ने मान्यता ही नहीं दिया था। प्रसाद के लिए उसे अपनाने का प्रश्न ही नहीं था। उनके सामने चुनौती बहुत बड़ी थी। उस समय हिंदी का अपना कोई रंगमंच ही नहीं था। यही वह सबसे बड़ा कारण हो सकता है कि उन्होंने रंगनाटक न लिखकर काव्योमय औपन्यासिक नाटकों का सृजन किया। उन्होंने अपने नाटकों में अभिनयात्मक सृजन शैली का सहरा कम लिया। उनके नाटकों के संवाद वर्णनात्मक हैं और भावुकता से भरे हुए तथा बिम्बात्मक हैं। वे अपने काल्पनिक रंगमंच को व्यावहारिक रूप न दे सके। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके नाटक अन्य सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट होने पर भी अभिनय की दृष्टि से सफल न हो पाये।

प्रसाद जी की वाणी और चिंता दोनों ही इतनी मूल्यवान है कि उनके नाट्यलेखन का तकनीकी तौर पर कई जगह सुघड़ होना या न होना कोई मानी नहीं रखता। हमें यह सोचना चाहिए कि प्रासंगिक क्या है? – वह जो रंगमंचीय है और विचारशून्य है, या वह जिसमें रंगमंच की युक्तियां लेखक ने नहीं दी, किंतु सारी संभवनाओं के दरवाज़े खोल दिए।

पारसी रंगमंच का अंधानुकरण करने वालों या उनका विरोध करने वालों हिन्दी नाटककारों ने रंगकर्म से असंवाद की स्थिति बना ली। इसका परिणाम यह हुआ कि उस युग का नाटक सृजनात्मक-कलात्मक मूल्यों से दूर होता चला गया। इस स्थिति से उबरने के लिए प्रसाद जी ने, जीवन और रंगमंच के व्यापक संदर्भों को जोड़कर, नाटक को एक परिवर्तनकारी शक्ति में बदलने का सार्थक प्रयास किया।

प्रसाद जी का मानना था कि विदेशी औपनिवेशिक तंत्र के विरुद्ध लड़ने के पहले अपने भीतर के मानव को झिंझोड़कर उसे नई वैचारिक उष्मा के द्वारा प्रबुद्ध और जागृत करना होगा। इस दृष्टि को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने नई रंग-शैली का सृजन किया। इसीलिए उनके नाटक विचार और व्यवहार, भावना और यथार्थ, परंपरा और आधुनिक, ऐतिहासिक और युगीन अंतर्विरोधी शक्तियों की टकराहट को दृश्य में रूपांतरित करने की छटपटाहट को व्यंजित करते हैं।

प्रसाद जी की कल्पनाशील रोमांटिक-धर्मी प्रकृति ने उनके नाटकों को बहुत आकर्षक रूप प्रदान किया। उनके नाटक, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की राजनैतिक उथल-पुथल, अंतर्विरोधों और तनावों के बीच, भारतीय संदर्भ में मानव-नियति को समझने की कोशिश का नतीज़ा है।

संदर्भ ग्रंथ
१.      हिन्दी साहित्य का इतिहास सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल
२.      डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली खंड ९
३.      हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास हजारीप्रसाद द्विवेदी
४.      हिन्दी साहित्य का इतिहास डॉ. श्यम चन्द्र कपूर
५.      हिन्दी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
६.      मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा
७.      हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा
८.      रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन
९.      कोणार्क जगदीश चन्द्र माथुर
१०.  जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद
११.  अन्धेर नगरी में भारतेन्दु के व्यक्तित्व के सर्जनात्मक बिन्दु गिरिश रस्तोगी, रीडर, हिन्दी विभाग, गोरखपुर विश्व विद्यालय
१२.  रंगमंच का सौन्दर्यशास्त्र देवेन्द्र राज अंकुर
१३.  दूसरे नाट्यशास्त्र की खोज - देवेन्द्र राज अंकुर

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सार्थक और जानकारी देता अच्छा लेख

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  2. मनोज जी ,प्रसाद की जीवन दृष्टि उनके नाटकों में प्रकट हुई है .

    प्रसाद जी की कल्पनाशील रोमांटिक-धर्मी प्रकृति ने उनके नाटकों को बहुत आकर्षक रूप प्रदान किया। उनके नाटक, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की राजनैतिक उथल-पुथल, अंतर्विरोधों और तनावों के बीच, भारतीय संदर्भ में मानव-नियति को समझने की कोशिश का नतीज़ा है।
    व्हाई स्मोकिंग इज स्पेशियली बेड इफ यु हेव डायबिटीज़ ?

    http://kabirakhadabazarmein.blogspot.com/
    रजोनिवृत्ती में बे -असर सिद्ध हुई है सोया प्रोटीन .

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  3. मनोज जी ,प्रसाद की जीवन दृष्टि उनके नाटकों में प्रकट हुई है .बेहतरीन प्रस्तुति और सन्दर्भों के लिए आपका आभार .

    प्रसाद जी की कल्पनाशील रोमांटिक-धर्मी प्रकृति ने उनके नाटकों को बहुत आकर्षक रूप प्रदान किया। उनके नाटक, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की राजनैतिक उथल-पुथल, अंतर्विरोधों और तनावों के बीच, भारतीय संदर्भ में मानव-नियति को समझने की कोशिश का नतीज़ा है।
    व्हाई स्मोकिंग इज स्पेशियली बेड इफ यु हेव डायबिटीज़ ?

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    रजोनिवृत्ती में बे -असर सिद्ध हुई है सोया प्रोटीन .

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  4. संग्रहनीय पोस्ट... कई नई जानकारियां मिली...

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  5. अच्छा आलेख। एक लेख अलग से कामायनी पर दें तो अच्छा रहेगा।

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