रविवार, 6 नवंबर 2011

प्रेरक-प्रसंग-10 : परपीड़ा

clip_image001clip_image001

 

परपीड़ा DSCN1516

प्रस्तुतकर्ता : मनोज कुमार

गरमी के दिनों में शिमला जाना बड़ा ही सुहावना होता है। खुशनुमा हवा, ऊंचे-ऊंचे पहाड़, हरी-भरी वादियां मन को हर्षित करते हैं। और जिन दिनों की बात हम करने जा रहे हैं उन दिनों तो भारत की राजधानी गरमी के दिनों में शिमला चली जाती थी। शिमला गरमी आते ही विदेशियों और सैलानियों से अटा पड़ा होता था। बात 1939 की है। बापू भी गरमी के दिनों में शिमला पहुंचे। बदन पर वही लंगोटी और छोटी सी चादर। बापू के जाने से शिमला की सूरत ही बदल गई। उनके दर्शन के लिए लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गई।

उन दिनों दूसरा महायुद्ध छिड़ चुका था। वाइसराय ने घोषणा कर दी थी कि भारत इंगलैंड के पक्ष में है। इससे भारत के स्वाभिमान को ठेस पहुंची। बापू ने अपनी नाराज़गी लेख लिख कर प्रकत कर दी थी। उन दिनों प्रान्तों में लोकप्रिय मंत्रिमंडल का शासन था। भारत किस पक्ष में है, इसकी घोषणा करने के पहले कम-से-कम इन मंत्रिमंडलों से सरकार को सलाह तो लेनी ही चाहिए थी। लेकिन ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि ने इसकी ज़रूरत नहीं समझी। कांग्रेस में भी विश्वयुद्ध के प्रश्न को लेकर अलग-अलग रायें प्रकट हो रही थीं। लेकिन सब इस बात पर सहमत थे कि ब्रिटिश सरकार के साथ बापू ही बातचीत करें। इसी सिलसिले में बापू शिमला पहुंचे थे।

वायसराय तो अंग्रेज़ सरकार के प्रतिनिधि मात्र थे। वे अंतिम निर्णय ले नहीं सकते थे। कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर विलायत से राय आने तक उनको रुकना पड़ता था। इंगलैंड से आदेश आने तक बातचीत रोक दी गई थी। अब बातचीत पुनः एक सप्ताह बाद शुरु होने वाली थी। जो लोग साथ में थे उन लोगों ने इन दिनों में शिमला और आसपास की जगहों की सैर के मंसूबे बांधने लगे। पर बापू का आदेश हुआ, “अपना-अपना बोरिया-बिस्तर बांधो।”

बापू के निजी सचिव, माहादेव देसाई ने पूछा, “कहां जाना है?”

बापू ने कहा, “और कहां? सेवाग्राम वापस।”

“लेकिन एक सप्ताह बाद बातचीत तो फिर से आगे चलने वाली है।”

“हां-हां, लेकिन सेवाग्राम में दो दिन मिलेंगे न?”

“वहां कौन-सा महत्व का काम है?”

“परचुरे शास्त्री की सेवा का काम तो महत्व का है न?” बापू ने जवाब दिया।

महादेव देसाई निरुत्तर हो गए।

इस श्रृंखला में हमने पहले (यहां देखें लिंक) परचुरे शास्त्री के बारे में बताया है। संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे वे। उन्हें कुष्ठ रोग हो गया था। कुष्ठ रोग के लिए समाज में घृणा का वातावरण है। बापू अपनी देख-रेख में उनकी सेवा करते थे। शिमला से भी बापू ने दो दिन के लिए सेवाग्राम जाने का निर्णय लिया। उनके मन में देश की आज़ादी के प्रश्न पर वाइसराय से बातचीत चलाने और एक कुष्ठ रोगी की सेवा करने का महत्व समान था। बापू की जीवन-साधना में व्यक्तिगत चित्त-शुद्धि और सामाजिक क्रांति दोनों अविभाज्य और अभिन्न थे। इसलिए वे एक रोगी की सेवा भी राष्ट्रसेवा जितनी भक्ति से करते थे।

कुष्ठ रोगी की सेवा एक सांकेतिक काम था। इसका मतलब यह था कि एक अत्यंत उपेक्षित वर्ग की सेवा का काम। सर्वोदय का प्रारंभ अन्त्योदय से ही होता है।

11 टिप्‍पणियां:

  1. अब तो ऐसा लक्षण देवताओं में भी दुर्लभ होगा,भारत के नेताओं में नहीं !

    जवाब देंहटाएं
  2. बापू की जीवन-साधना में व्यक्तिगत चित्त-शुद्धि और सामाजिक क्रांति दोनों अविभाज्य और अभिन्न थे। इसलिए वे एक रोगी की सेवा भी राष्ट्रसेवा जितनी भक्ति से करते थे।

    इसी कारण से बापू महान होने के साथ-साथ आदर्श पुरूष के रूप में पूरे विश्व में अपनी निशानी छोड़ गए हैं । आज भी लोग उनके जीवन दर्शन को अच्छी तरह से समझने के लिए अनवरत प्रयास कर रहे हैं । पोस्ट अच्छा लगा । मेर पोस्ट पर आपका स्वागत है ।

    अनगिनत राही गए इस

    राह से उनका पता क्या ,

    पर गए कुछ लोग इस पर

    छो़ड़ पैरों की निशानी ।

    यह निशानी मूक होकर

    भी बहुत कुछ बोलती है, ।

    धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  3. आत्म-चिन्तन के लिए प्रेरित करता उत्तम प्रसंग। आभार।

    जवाब देंहटाएं
  4. ये सब बातें तो गाँधी जी को एकदम अलग करती हैं…परचुरे शास्त्री हों या कोई, गाँधी छुआछूत से तो पूर्णत: मुक्त थे ही…

    जवाब देंहटाएं
  5. आपका पोस्ट अच्छा लगा ।मेरे नए पोस्ट पर आप आमंत्रित हैं । धन्यवाद ।

    जवाब देंहटाएं
  6. सेवाभाव के प्रति समर्पित बापू .. अच्छी जानकारी

    जवाब देंहटाएं
  7. बापू पर केंद्रीत यह प्रेरक-प्रसंग शृंखला अच्छी लग रही है। बापू के जीवन से संबंधित अनछूए पहलुओं को जानने का सुअवसर मिल रहा है, इस शृंखला से। आपका आभार। इस शृंखला के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  8. Bapu jaisa samarpit hokar samaj sewa karne wale aaj dhunde se nahi milte.. bahut badiya prastuti..

    जवाब देंहटाएं

आप अपने सुझाव और मूल्यांकन से हमारा मार्गदर्शन करें