शुक्रवार, 16 दिसंबर 2011


आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की कविताएं-6
ज़िंदगी की कहानी 

ज़िंदगी की कहानी रही अनकही !
दिन गुज़रते रहे, साँस चलती रही !

अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए,
कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,
धूप ढलती रही, छाँह छलती रही !

बाँसुरी जब बजी कल्पना-कुंज में
चाँदनी थरथराई तिमिर पुंज में
पूछिए मत कि तब प्राण का क्या हुआ,
आग बुझती रही, आग जलती रही !

जो जला सो जला, ख़ाक खोदे बला,
मन न कुंदन बना, तन तपा, तन गला,
कब झुका आसमाँ, कब रुका कारवाँ,
द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !

बात ईमान की या कहो मान की
चाहता गान में मैं झलक प्राण की,
साज़ सजता नहीं, बीन बजती नहीं, 
उँगलियाँ तार पर यों मचलती रहीं !

और तो और वह भी न अपना बना,
आँख मूंदे रहा, वह न सपना बना !
चाँद मदहोश प्याला लिए व्योम का, 
रात ढलती रही, रात ढलती रही !

यह नहीं जानता मैं किनारा नहीं,
यह नहीं, थम गई वारिधारा कहीं !
जुस्तजू में किसी मौज की, सिंधु के- 
थाहने की घड़ी किन्तु टलती रही !

6 टिप्‍पणियां:

  1. धूप ढलती रही, छाँह छलती रही !
    जिंदगी की धूप छाँव की कहानी कहती आचार्य जी की बेहतरीन कविता.

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  2. इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए आभार!

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  3. अर्थ क्या ? शब्द ही अनमने रह गए,
    कोष से जो खिंचे तो तने रह गए,
    वेदना अश्रु-पानी बनी, बह गई,

    बहुत सुन्दर रचना ..इसे यहाँ पढवाने के लिए आभार

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  4. द्वंद्व चलता रहा पीर पलती रही !

    अद्भुत रचना पढवाई.... धन्यवाद

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  5. शास्त्री जी की कविता अर्थ-गांभीर्य मुग्ध कर देता है !

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