मंगलवार, 10 अप्रैल 2012

बोल्ड विषय पर साहित्य : एक अध्ययन की कोशिश


बोल्ड विषय पर साहित्य : एक अध्ययन की कोशिश

अरुण चंद्र रॉय
भाग : 1
पृष्ठभूमि 
हिंदी की एक सक्रिय ब्लोगर श्रीमती वंदना गुप्ता जी द्वारा रचित स्त्री पुरुष सम्बन्ध पर एक कविता ने  हिंदी ब्लोगिंग में एक तूफ़ान सा ला दिया है. उनके ब्लॉग से लेकर फेसबुक तक, एक से बढ़ कर एक अश्लील और आपत्तिजनक टिप्पणी देने की होड़ सी मची है. ऐसे में मुझे लगा यह सही समय है कि "साहित्य में एरोटिक तत्व" पर एक अध्ययन कर लिया जाय. इस विषय का जिक्र होते ही मुझे प्रसिद्द लेखक पवन वर्मा और संध्या मूलचंदानी के संपादन में हार्पर कॉलिन्स  से प्रकाशित पुस्तक "लव एंड लस्ट: एन एन्थोलोज्य ऑफ़ एरोटिक लिटरेचर फ्रॉम अन्सियेंट एंड मेडिवल इण्डिया" की याद आ गई. भारत में एरोटिक साहित्य की बात करते ही सबसे पहले वात्सायन कृत "कामसूत्र" की चर्चा होने लगती है. वास्तव में ऐसा नहीं है. हमारे चारो वेदों में एरोटिक साहित्य की भरमार है. आदि शंकराचार्य द्वारा रचित "सौंदर्य लहरी" संस्कृत का सबसे कामुक साहित्य माना जाता है. पवन वर्मा के अनुसार भारतीय संस्कृति में पुरुष और स्त्री को बराबर का दर्ज़ा प्राप्त था और हमारे प्राचीन साहित्य में इसका उल्लेख दर्शाता है कि जीवन में एरोटिसिज्म को प्राकृतिक और सहज माना  जाता था. साहित्य में एरोटिक तत्व यदि रचनागत सौंदर्य के साथ मौजूद है तो उसे मूल साहित्य में स्थान मिला है. 

ग्रीक साहित्य में एरोटिज्म
ग्रीक और रोमन साहित्य में एरोटिक तत्व विपुल मात्रा में हैं. लेस्बियन शब्द की उत्पत्ति लेस्बोस से हुई है. लेस्बोस एक द्वीप समूह था जहाँ जन्मी थी ग्रीक कवियत्री सैफो. ग्रीक साहित्य में सैफो को नौ चुनिन्दा कवियों में शामिल किया गया था.   ग्रीक से अंग्रेजी में पौल रोच द्वारा अनुवादित एक कविता, जिसमे साहित्य भी है और एरोटिज्म के तत्व भी. 

Please
Come back to me, Gongyla, here tonight,
You, my rose, with your Lydian lyre.
There hovers forever around you delight:
A beauty desired.
Even your garment plunders my eyes.
I am enchanted: I who once
Complained to the Cyprus-born goddess,
Whom I now beseech
Never to let this lose me grace
But rather bring you back to me:
Amongst all mortal women the one
I most wish to see.


इसके अतिरिक्त स्तार्तन ऑफ़ सार्दिस, रोमन कवि ऑटोमेडों, ओविड, जुवेनल आदि प्रमुख हैं. ओविड एक श्रेष्ठ साहित्यकार, नाटककार माने जाते हैं. 


अंग्रेजी साहित्य में एरोटिज्म 
सत्रहवी शताब्दी में जोन विल्मोट- एर्ल आफ रोस्टर की कविताओं में रोमांस के साथ साथ एरोटिज्म  साथ साथ था. उनकी मृत्यु के बाद ये कवितायें प्रकाशित हुई.  उनके एक एरोटिक कविता दी इम्पेर्फेक्त एंजोयमेंट की कुछ पंक्तियाँ काफी हैं. इस कविता में सौन्दर्य भी है. 




"Naked she lay, clasped in my longing arms,
I filled with love, and she all over charms;
Both equally inspired with eager fire,
Melting through kindness, flaming in desire.
With arms,legs,lips close clinging to embrace,
She clips me to her breast, and sucks me to her face.
Her nimble tongue, Love's lesser lightening, played
Within my mouth, and to my thoughts conveyed"



अंग्रेजी साहित्य के सबसे बड़े कवि और नाटककार पर भी एरोटिक कविता लिखने का आरोप लगता रहा है. उनके सोनेट (चौदह पंक्ति की कविता) के बारे में कहा जाता है कि कुछ सोनेट किसी पुरुष मित्र के लिए लिखा गया था. इन्ही सोनेट में डार्क लेडी का जिक्र भी आता है. कुछ सोनेट डार्क लेडी को भी समर्पित हैं. सोनेट १४४ और सोनेट १५१ में एरोटिक छाप देखी जा सकती है. 


फ्रेंच मूल धारा के साहित्य में भी एरोटिक तत्व विद्यमान हैं. कुछ एरोटिक संकलन जो बहुत प्रसिद्द हुए वे हैं..Les Muses gaillardes (1606) Le Cabinet satyrique (1618) and La Parnasse des poetes satyriques (1622)


इंग्लैंड में १७६३ में चार एरोटिक कविता का संग्रह "एन एसे आन वोमैन" प्रकाशित हुआ था जिसमे मशहूर अंग्रेजी कवि एलेक्जेंदर पोप की कविता एन एसे ऑन मैन की एरोटिक परोडी थी.


आज के लिए बस इतना ही. शेष अगले अंक में 

26 टिप्‍पणियां:

  1. साहित्य के बारे मे मुझे ज्यादा जानकारी नहीं है पर हाँ जिस तरह से हाल ही मे यह विवाद हुआ है वो बेहद दुखद है ... खास कर जिस तरह वंदना गुप्ता जी के खिलाफ निजी द्वेष को सिद्धांतों का चोगा पहना कर माहौल बनाया गया वो सब से ज्यादा दुखद था ... विरोध का भी एक तरीका होता है ! पिछले कुछ समय से बेकार मे निजी विवादो को ब्लॉग जगत पर थोपने का जो प्रयास चल रहा है वो किसी भी रूप मे तारीफ के काबिल नहीं है ! ब्लॉग जगत मे हम सब एक समान है कोई छोटा या बड़ा नहीं ... सब की यही कोशिश होनी चाहिए कि यहाँ सदभाव बना रहे !

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    1. आदरणीय शिवम् भाई वंदना जी को बहाना हैं. थोडा साहित्य के भूले बिसरे पन्नो को पलट लिए इसी बहाने. बाकी विरोध वही कर रहे हैं जिन्होंने साहित्य को गंभीरता से नहीं पढ़ा.

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    2. साहित्य तो माफ कीजिएगा मुझ अज्ञानी ने भी नहीं पढ़ा ... तो क्या मैं शुरू हो जाऊ विरोध मे ... बिना यह देखे कि विरोध कर किस बात का रहा हूँ और कैसे कर रहा हूँ ? आपकी यह पोस्ट भले ही एक ऐसे विषय पर साहित्य का इतिहास बताती हो पर यहाँ बार बार हाल मे हुये विवाद सामने आएंगे ही ... आप नहीं रोक सकते उसको ... लोग आहत है ... विवाद शायद ही किसी को पसंद हो ... और यहाँ ऐसे लोग है जो जानबूझ कर विवाद करवाने को तैयार बैठे है ! विवादो की आग मे पकी रोटियाँ न जाने कब तक उनका पेट भरेंगी !?

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  2. अच्छा सामयिक लेख लिखा है आपने ...
    सेक्स विषयों पर लिखना त्याज्य समझा जाता है , जबकि विश्व में, जबसे मानव है, भोजन के बाद सबसे अधिक पसंद का विषय यही है ! आज़ाद और लोकतंत्र के नागरिक होने के नाते अभिव्यक्ति पर रोक क्यों और कौन लगाएगा ??
    बोल्ड नेस का स्वागत होना चाहिए .... जिनकी समझ में नहीं अत है तो उसे नहीं पढना चाहिए ! बस ....
    शुभकामनायें

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  3. हर तरह की रचनाये हर काल में रची जाती रहीं हैं और उनका उस समय परिवेश के हिसाब से विरोध और विवाद भी हुआ है.और बहुत सी प्रसिद्द भी हुई हैं.
    परन्तु व्यक्तिगत आक्षेप निंदनीय है.

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    1. ऐसे विषय मानव जीवन से गहरे से जुड़े हैं तो साहित्य में भी होंगे ही....

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  4. आपका कहना ठीक है, और आपने अँग्रेजी की जिन कविताओं का ज़िक्र किया वीएच भी अपनी जगह सही बात है, लेकिन यदि आप वंदना गुप्ता जी की बीएलडी पोस्ट पर बात करें तो मुझे ऐसा लगता है कि हिन्दी ब्लॉग जगत के मेरे अब तक के अनुभव के अनुसार यह पहली ऐसी रचना थी जो वाकई जरूरत स ज्यादा ही बोल्ड थी। अब वो क्या कहना चाह रहीं थी,लोगों ने उसको क्या समझा यह सबका अपना-अपना नज़रिया है और जिस तरह उन्हें ऐसी बोल्ड पोस्ट अपने खुद के ब्लॉग पर पोस्ट करने का सम्पूर्ण अधिकार है तो वहाँ उनकी इस पोस्ट पर अपनी समझ के अनुसार टिप्पणी करने का भी सभी को पूरा अधिकार है। अब अगर यदि उनको आपत्ति है तो उनको कमेंट बॉक्स बंद कर देना चाहिए मगर उन्होने ऐसा नहीं किया इसका मतलब है उन्हें किसी भी तरह कि टिप्पणी से कोई आपत्ति नहीं तो फिर जाने क्यूँ लोग आपत्ति दर्शा रहे हैं।

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    1. बात यहां उस पोस्ट की नहीं, उसने तो लिख ही दिया था कि विषय बोल्ड है। बात है उसके बहाने विश्व साहित्य में इस विषय पर अध्ययन की कोशिश की।
      और विरोध है एक महिला को कुछ लिखने पर असभ्य भाषा में हमला करने की। विरोध उसका है।
      जहां तक इस विषय पर रचना की बात है वर्षों से ब्लॉग ऐसी भाषा और ऐसे विषय पर लिखा गया है, उनमें से कुछ आज वन्दना के विरोध में पोस्ट लिख रहे हैं, कविता कर रहे हैं। कहीं न कहीं अपनी कुंठा और भड़ास निकाल राहे हैं।

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    2. पल्लवी जी, मेरे आलेख पर चर्चा करें. वंदना जी को सन्दर्भ में लेकर इसे न पढ़ें.,... सबके लिए यह ठीक है...

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  5. बहुत अच्छी बात कही है आपने।
    वंदना जी के लिए अपने कई निजी और साझा ब्लॉग पर हम यही लिख चुके हैं और ब्लॉगर्स मीट वीकली 38 का ख़ास मुददा इस बार हमने यही रखा है।
    सामाजिक सरोकार के प्रति किसी ब्लॉगर के चिंतन के पर क्यों कतर देना चाहते हैं कुछ ब्लॉगर ?
    http://hbfint.blogspot.in/

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  6. गीत गोविन्दम भी इसी कर्म में था राधा कृष्णा श्रृंगारिक प्रेम .नख शिख वरन की परम्परा भी रही है .

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  7. बहुत सार्थक पोस्ट .... यह शोध आगे भी जारी रहना चाहिए .... हिन्दी साहित्य से भी कुछ उदाहरण सामने लाएँ ... आभार

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  8. लिखे हुए का विरोध तो निराला और पन्त ने आपस की रचनाओं का भी किया था.यहाँ मुद्दा यह है कि जो व्यक्ति किसी बात के लिए ,अपने तर्कों से शालीन लहजे में विरोध करता है,क्या उसे यह छूट भी नहीं है? 'बोल्ड-विषय' लिखा गया है तो बोल्ड-टीपों की आशंका भी तो होगी ही.हाँ,यदि अशालीन टीप है तो उसे हटाया जा सकता है.
    ...यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता स्त्री-पुरुष को अलग नहीं है.लेकिन यदि किसी आपत्ति जताने वाले को खुले-आम असभ्य,अशालीन और हिंसक तरीके से ललकारा जाता है तो हम मौन हो जाते हैं और उसकी पहचान को स्त्री-पुरुष से मापते हैं.जबकि लेखक या कवि स्त्री-पुरुष क्यों हो जाता है ? ऐसे में यह गैर-बराबरी नहीं तो क्या है ?

    किसी से हमारे विचार न मिलें,पर गंदे विचारों को तो हम समर्थन नहीं दी सकते हैं न !

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  9. समय और समाज की मनोदशा के विपरीत जब भी और जिस किसी काल में भी लिखा जाएगा तब वह लेखन चर्चा में रहेगा। यौन सम्‍बंधों के अतिरिक्‍त भी वैज्ञानिक, धार्मिक, सामाजिक लेखन और चिन्‍तन के बारे में भी युद्ध छिडें हैं। ईसा, सुकरात, दयानन्‍द सरस्‍वती आदि इसके उदाहरण हैं। यह सारी दुनिया केवल नर और मादा के सम्‍बन्‍धों पर टिकी हुई है, सम्‍पूर्ण सृष्टि में इनपर किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है। लेकिन मनुष्‍य सामाजिक प्राणी है इसलिए समय-समय पर यहाँ नियमों में परिवर्तन होते रहते हैं, इसी कारण किसी कालखण्‍ड में कामसूत्र की रचना, शंकराचार्य और उभय भारती संवाद, मन्दिरों में चित्र आदि विवादित नहीं थे लेकिन आज हैं। इसलिए समय और स्‍थान को नजरअंदाज करते हुए किया गया लेखन विवादित तो रहेगा ही। जिन्‍हें भी आपत्ति है वे आक्रमण भी करेंगे ही, लेकिन आपको शालीनता के साथ उत्तर देने होंगे। आपको उसका औचित्‍य बताना होगा। पक्ष और विपक्ष में लॉबी खड़ा करना, स्‍वस्‍थ लेखन के लिए ठीक नहीं है।

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  10. जब जीवन का हिस्सा है तब इसका भी जिक्र वर्ज्य नहीं होना चाहिए। बढिया काम शुरू किया है आपने... शोधपरक!

    पवन वर्मा के अनुसार भारतीय संस्कृति में पुरुष और स्त्री को बराबर का दर्ज़ा प्राप्त था

    यह कभी सही था, इसका कोई वैज्ञानिक और ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं है... मात्र देह के वर्णन से यह निष्कर्ष कहीं से नहीं निकाला जा सकता।

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  11. ---बहुत अच्छा शोध किया है..बधाई..परन्तु हिन्दी से भी उदाहरण दिये जाते तो शोध को सम्पूर्ण माना जाता....अन्ग्रेज़ी कल्चर व साहित्य के बारे में क्या कहा जाय सब जानते हैं यद्यपि वहां भी सहित्य में सेक्स वर्णन सदा कन्ट्रोवर्सिअल रहा है...
    ---जैसा प्रेम आर्या जी ने भी कहा...श्रिन्गार वर्णन व नख-शिख वर्णन, श्री क्रिष्ण वर्णन...सेक्स क्रिया वर्णन..सेक्स अन्गों का वर्णन में अन्तर है....साहित्य में नाभि के नीचे अन्गों का वर्णन वर्ज्य है...अलन्कारिक रूप वर्णन किया जा सकता है वह भी त्याज्य है...
    --- संगीता जी की इच्छानुरूप हिन्दी सहित्य के कुछ उदाहरण हम देते हैं--देखिये घोर श्रन्गार लिये हुए भी मर्यादित..अलन्कारिक वर्ण्य चमत्कार व व्यन्जनात्मक भाव वर्णन--

    " पन्कज नाल सी बाहें प्रिया,
    उर बीच धरे हो क्यों अंखियां मींचे।
    मत्त मतन्ग की नाल सी बाहें,
    भरें उर बीच रखें मन सींचे ॥---- प्रेम काव्य , षष्ठ सुमनान्जलि..रस-श्रन्गार..पेज-८३ अथवा इसे मेरे ब्लोग ’साहित्य श्याम’ पर पढें...

    ---- सन्स्क्रित साहित्य में व्यतिरेक अलन्कार के उदाहरण में एक वर्णन है जिसका हिन्दी काव्यान्तर यह है--
    " धन्य सखी प्रिय संग समागम काल हू बात लुभावनि करिहौ।
    बोल शतानि भरे चतुराई, रहे रतिकाल हू खूब उचरिहौ।
    सांची कहूं सखि,ग्यान न ध्यान न मान न आन कछू रहि पावै,
    ध्यान रहे न कछू ता पल,प्रिय हाथ जो नारे की ओर बढावै॥"
    --- यह साहित्य है..
    -- यदि और श्रन्गार वर्णन की मर्यादा देखना चाह्ते हैं तो--सन्स्क्रित साहित्य,कालिदास, कुमार सम्भव पढें...जैसा कि सभी जानते हैं...
    ---और एक आधुनिक यथार्थवादी युग के साहित्य का वर्णन--- यद्यपि उसमे यौनान्गो का वर्णन नहीं है फ़िर भी जिसे सदा विरोध ही मिला.. सम्मान नहीं...क्योकि मर्यादित साहित्य नहीं है..
    " नीम के पेड के नीचे,
    वह कुम्हार का लडका,
    और एक लडकी,
    भेंस की पीठ पर कोहनी टिकाये,
    देखते ही देखते चिकोटी काटी, और-
    छातियां मसल दीं।"

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  12. सन्दर्भानुसार---सन्तोष जी व पल्लवी जी की टिप्पणी भी ध्यान देने योग्य है...

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  13. angerji ke lekhakon ke bad thoda sanskrit ke lekhako ka bhi ulekh kijiyega. rochkta aur adhik badh jayegi.

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