‘प्रसाद’ की राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप
मनोज कुमार
‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “राष्ट्रीयता एक गहरा और मज़बूत आदर्श है।” मैज़िनी की मानें तो शिक्षा, स्वदेशी और स्वराज्य - राष्ट्रीयता के तीन प्रधान स्तंभ हैं। जो राष्ट्र क हित है, वही व्यक्ति का हित है। स्वदेशी, स्वराज्य और राष्ट्रहित की भावना राष्ट्रीयता कहलाता है। “प्रिंसिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी” में ई.ए. रॉस ने कहा है, “किसी भी राष्ट्र के चरित्र में अधःपतन के सबसे प्रबल कारणों में से एक कारण उस राष्ट्र का किसी विदेशी शासन के अधीन हो जाना है। राष्ट्रीयता की चेतना जगाने के लिए विभिन्न विद्वानों-चिंतकों ने समय-समय पर अपना-अपना योगदान दिया है। प्रसाद जी ने भी अपनी रचनाओं में अपने युग की राष्ट्रीय भावनाओं को प्रतिबिम्बित किया है।
‘प्रेम पथिक’ (1910) से ‘कामायनी’ (1936) तक प्रसाद जी के रचनाकाल के अध्ययन से हम पाते हैं कि उनमें राष्ट्रीय चेतना और आधुनिक भावबोध कूट-कूट कर भरे हुए थे।
“बात कुछ छिपी हुई है गहरी,
मधुर है स्रोत, मधुर है लहरी।”
उपर्युक्त पंक्तियां ‘छायावाद’ के स्वरूप को रेखांकित करती हैं। प्रसाद जी को छायावाद का प्रवर्तक कहा जाता है। छायावाद को नवजागरण की अभिव्यक्ति कहा जाता है। इस नवजागरण के पीछे राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना सक्रिय थी। छायावाद का मूल उत्स भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में है। जब लोगों में दासता के ख़िलाफ़ संघर्ष के भाव मुखरित हुए, तो उनमें स्वाधीनता की चेतना जगी। इसी चेतना का परिणाम है – कल्पना पर अधिक बल। ध्यान करने वाली बात यह है कि हिंदी कविता में छायावाद और भारतीय राजनीतिक मंच पर महात्मा गांधी का आगमन लगभग एक साथ हुआ। तभी तो डॉ. नगेन्द्र कहते हैं, “जिन परिस्थितियों ने हमारे दर्शन और कर्म को अहिंसा की ओर प्रेरित किया, उन्होंने ही भाव-वृत्ति को छायावाद की ओर।”
प्रसाद जी के काव्य में हमें नवीन भावबोध के साथ स्वाधीनता की चेतना, सूक्ष्म कल्पना, लाक्षणिकता, नए प्रकार का सादृश्य-विधान, नया सौंदर्य बोध आदि के दर्शन होते हैं। छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण, सांस्कृतिक जागरण के रूप में आता है। नन्ददुलारे वाजपेयी ने आधुनिक साहित्य में कहा है, “केवल राष्ट्रीयता की भावना देश और समाज के सांस्कृतिक जीवन के बहुमुखी पहलुओं का स्पर्श नहीं करती और एक बड़ी सीमा तक एकांगी बनी रहती है। … नवयुग के कवियों ने इस तथ्य को समझ लिया था और इसीलिए उनकी रचनाएं ‘राष्ट्रीय’ न रहकर अधिक राष्ट्रीय और सांस्कृतिक भूमियों पर पहुंची थीं।”
प्रसाद जी की रचनाओं में कहीं भी भाव-स्थूलता का वर्णन नहीं है। इनमें अनुभूति का सूक्ष्म वर्णन है। वे स्वच्छंदतावादी भी थे। हालांकि कुछ आलोचकों ने, जब उन्होंने “ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे” लिखा था, पलायनवादी होने का आरोप लगाया। किंतु हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना और ‘द्विवेदी कालीन’ कवियों, मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, की चेतना में अंतर है। उनकी राष्ट्रीय चेतना बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के ‘विप्लव गान’ और ‘निराला’ के ‘जागो फिर एक बार’ से भी भिन्न है। इनमें राष्ट्रीयता का स्वरूप स्थूल हैं, इनमें उद्बोधन है, विदेशी सत्ता से मुक्त होने का आह्वान है।
प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना का स्वर प्रच्छन्न है, कोमल है, सौम्य है, सूक्ष्म है। यह सीमित अर्थ में राष्ट्रवाद नहीं है। यहां राष्ट्रीय जागरण ने सांस्कृतिक जागरण का रूप धारण कर लिया है। इस सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति ‘प्रथम प्रभात’, ‘अब जागो जीवन के प्रभात’, ‘बीती विभावरी जाग री’ आदि रचनाओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति शैली अभिधात्मक नहीं है, बल्कि यह अप्रत्यक्ष है, व्यंजना पर आधारित है – यह स्वच्छन्दतावाद की मूल चेतना से अभिन्न है –
अब जागो जीवन के प्रभात।
वसुधा पर ओस बने बिखरे
हिमकन आंसू जो क्षोभ भरे
ऊषा बटोरती अरुण गात।
जहां प्रसाद जी सूक्ष्म, सास्कृतिक और सौम्य हैं वहीं द्विवेदी युगीन काव्य स्थूल है। भाषा की विलक्षणता पर ज़ोर देकर, आंतरिकता के स्पर्श और आधुनिक बोध और बदली हुई काव्य दृष्टि द्वारा वे मनुष्यों की मुक्ति को महत्त्व दे रहे थे। बंधनों से छुटकारा पाने को बल दे रहे थे। एक प्रकार से यह स्वाधीनता की चेतना के विकास का काम था। नया सौंदर्य बोध, नयी संबंध भावना के विकास का काम था। भारतेदु युग में राष्ट्रीय आदर्शवाद अस्पष्ट और अमूर्त रूप में था। द्विवेदी युग में इतिवृत्तात्मकता और विवरेणात्मकता प्रमुख हो गई, जो स्थूल कथन पर आश्रित थी। प्रसाद जी के समय और उनके द्वारा राष्ट्रीय चेतना अधिक गहरी है, प्रौढ़ है, परिपक्व है। उन्होंने परतंत्र देशवासियों में नवजागरण का शंख फूंका। ‘लहर’ में संकलित लम्बी कविता ‘अशोक की चिंता’, ‘शेरसिंह का शस्त्र समर्पण’, ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’, तथा ‘प्रलय की छाया’ में नवजागरण के संकेत हैं। ये रचनाएं 1930 के आस-पास लिखी हईं। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि यह 1930 के में भारत में राजनैतिक पराभव या पराजय की भावना की अभिव्यक्ति है। ‘प्रलय की छाया’ का राजनीतिक अर्थ स्वाधीनता संग्राम के एक विशेष दौर की मनोदशा से संबद्ध है। नामवर सिंह व्याख्या के क्रम में संकेत करते हैं कि कमलावती राजशक्ति को नष्ट करने की कोशिश में स्वयं नष्ट हुईं। इससे उसकी आत्मप्रवंचना के निहितार्थों का अनुमान किया जा सकता है। प्रसाद जी इस पराजय की भावना से देश-प्रेम का संदेश देते हैं।
इसी प्रकार ‘अशोक की चिंता’ और ‘अरी ओ करुणा की शांत कछार’ में भी राष्ट्र के प्रति गर्व गौरव की भावना अंकित किया गया है। कवि अशोक के नरसंहार के बाद हृदय परिवर्तन और बौद्ध-धर्म ग्रहण के माध्यम से यह बताना चाहता है कि राजा/शासक का धर्म है जनता की सेवा करना। कवि शांति का संदेश देते हुए कहता है कि विजय लोहे की नहीं होती, विजय आत्मा की होती है। और वह प्रेम, शांति और मानवता से ही संभव है। कवि राष्ट्रीय एकता का भी संदेश इस कविता के माध्यम से देता है।
‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ में महाराणा प्रताप को अस्ताचल के सूर्य के रूप में बताया गया है। वह निर्धन है, ज्वलंतहीन है। पर इसके द्वारा एक तरह से जागृति का संदेश है – हम पराजित होकर भी जीवित हैं। इसके द्वारा यह भी बताया गया है कि जिसे जीतना चाहिए था, वह हारा है। ‘अरी ओ करुणा के कछार’ सारनाथ के पास यमुना का वर्णन है। भगवान बुद्ध के अहिंसा, शांति, करुणा के संदेश को याद करता हुआ कवि कहता है –
छोड़ कर जीवन के अतिभाव, मध्य पथ से लो सुगति सुधार।
दुख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मों का व्यापार।
विश्व मानवता का जयघोष, यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद।
मिला था यह पावन आदेश, आज भी साक्षी है रवि-चन्द्र।
प्रसाद जी में संकुचित राष्ट्रीयता नहीं है। यह देश की सीमा से बंधा हुआ नहीं है। यह विश्व-राष्ट्रीयता है – इसमें विश्व-मंगल की कामना है।
‘बीती विभावरी जाग री!
... ... ... ...
तू अब तक सोई है आली
आंखों में भरे विहाग री!”
इन पंक्तियों के द्वारा प्रसाद जी राष्ट्र को जागरण का संदेश देते हैं। नन्ददुलारे वाजपेयी का कहना है, “बीती विभावरी जाग री” शीर्षक जागरण गीत प्रसाद जी के संपूर्ण काव्य-प्रयास के साथ उनकी युग-चेतना का परिचायक प्रतिनिधि गीत कहा जा सकता है।” राष्ट्रीय चेतना का स्थूल रूप उनके नाटकों के गीतों, ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ और ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से’ में मिलता है। नाटकों के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय चेतना का प्रसार किया। और जब वे कहते हैं –
“इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रांत भवन में टिक रहना,
किंतु पहुंचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं।”
तो वे समग्र विश्व तक राष्ट्रीय चेतना का प्रसार करते प्रतीत होते हैं। इसका क्लासिक उदाहरण है – ‘कामायनी’।
‘कामायनी’ संकुचित राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर विश्वमंगल वाली रचना है। वह संपूर्ण मानवजाति की समरूपता का सिद्धांत अपनाकर आनंद लोक की यात्रा का संदेश देती है –
समरस थे जड़ और चेतन
सुंदर आकार बना था
चेतना एक विलसती
आनंद अखंड घना था।
या
‘विश्व भर सौरभ से भर जाए
सुमन के खेलों सुंदर खेल।’
‘कामायनी’ आधुनिक जीवन-बोध का महाकाव्य है। इसमें संघर्ष करना सिखाया गया है। कर्म करना सिखाया गया है। विश्व-मंगल इसका मूल प्रयोजन है। उसकी मूल संकल्पना संकुचित राष्ट्रवाद के विरुद्ध है। मुक्तिबोध इड़ा को पूंजीवादी सभ्यता की उन्नायिका कहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि श्रद्धा, जो रागात्मक वृत्ति का प्रतीक है, का आदर्शीकरण प्रसाद जी करते हैं। श्रद्धा मनु को जीवन में वापस लाती है। कर्म-क्षेत्र में आने से आनंद की प्राप्ति होती है। फिर भी इड़ा का जो व्यक्तित्व विधान है उसमें नई युग चेतना के सभी सकारात्मक तत्त्व वर्तमान हैं –
‘बिखरी अलकें ज्यों तर्क-जाल।
गुंजरित मधुप-सा मुकुल सदृश
वह आनन जिसमें भरा गान
वक्षस्थल पर एकत्र धरे
संसृति के सब विज्ञान-ज्ञान
था एक हाथ में कर्म-कलश
वसुधा-जीवन रस सार लिए
दूसरा विचारों के नभ को
था मधुर अभय अवलंब लिए।’
प्रसाद जी की व्यापक राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का विश्वमंगल से विरोध न था। वे उत्पीड़न के विरोध में थे – द्वंद्वों से क्षुब्ध थे – विषमता रहित समाज की स्थापना चाहते थे। ‘कामायनी’ की मिथकीय सीमाओं में भी कर्म चेतना, संघर्ष चेतना, एकता जैसे तत्त्व हैं, जिनका महत्त्व राष्ट्रीय आंदोलन के लिए था।
‘चित्राधार’ में तो वे यहां तक कहने का साहस कर गए कि उस ब्रह्म को लेकर मैं क्या करूंगा जो साधारण जन की पीड़ा नहीं हारता। ‘आंसू’ में भी विश्वमंगल की भावना की अभिव्यक्ति हुई है।
‘सबका निचोड़ लेकर तुम
सुख से सूखे जीवन में
बरसो प्रभात हिमकन-सा
आंसू इस विश्व-सदन में।’
हालांकि घनीभूत पीड़ा आंसू में अभिव्यक्ति पाती है, लेकिन यहां महत्त्वपूर्ण यह है कि व्यक्तिगत वेदना कैसे व्यापक कल्याण भावना में बदलने लगती है।
‘चिरदग्ध दुखी यह वसुधा
आलोक मांगती तब भी।’
यही अनुभव कवि को विश्व भावना तक ले जाता है।
सारांशतः हम यह कह सकते हैं कि प्रसाद जी का काव्य राष्ट्रीय काव्य, सांस्कृतिक जागरण का काव्य हैं। ये स्वाधीन चेतना के बल पर नई मानव परिकल्पना में सक्षम हैं। वह नई संबंध भावना का संकेत हैं। यहां राष्ट्रीयता का भाव संकुचित नहीं है, बल्कि विश्वमंगल हेतु है।
‘शक्तिशाली हो, विजयी बनो
विश्व में गूंज रहा यह गान।’
***