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मंगलवार, 21 अगस्त 2012


‘प्रसाद’ की राष्ट्रीय चेतना का स्वरूप

मनोज कुमार

‘हिन्दुस्तान की कहानी’ में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू ने कहा था, “राष्ट्रीयता एक गहरा और मज़बूत आदर्श है।” मैज़िनी की मानें तो शिक्षा, स्वदेशी और स्वराज्य - राष्ट्रीयता के तीन प्रधान स्तंभ हैं। जो राष्ट्र क हित है, वही व्यक्ति का हित है। स्वदेशी, स्वराज्य और राष्ट्रहित की भावना राष्ट्रीयता कहलाता है। “प्रिंसिपल्स ऑफ सोशियोलॉजी” में ई.ए. रॉस ने कहा है, “किसी भी राष्ट्र के चरित्र में अधःपतन के सबसे प्रबल कारणों में से एक कारण उस राष्ट्र का किसी विदेशी शासन के अधीन हो जाना है। राष्ट्रीयता की चेतना जगाने के लिए विभिन्न विद्वानों-चिंतकों ने समय-समय पर अपना-अपना योगदान दिया है। प्रसाद जी ने भी अपनी रचनाओं में अपने युग की राष्ट्रीय भावनाओं को प्रतिबिम्बित किया है।

‘प्रेम पथिक’ (1910) से ‘कामायनी’ (1936) तक प्रसाद जी के रचनाकाल के अध्ययन से हम पाते हैं कि उनमें राष्ट्रीय चेतना और आधुनिक भावबोध कूट-कूट कर भरे हुए थे।
“बात कुछ छिपी हुई है गहरी,
मधुर है स्रोत, मधुर है लहरी।”

उपर्युक्त पंक्तियां ‘छायावाद’ के स्वरूप को रेखांकित करती हैं। प्रसाद जी को छायावाद का प्रवर्तक कहा जाता है। छायावाद को नवजागरण की अभिव्यक्ति कहा जाता है। इस नवजागरण के पीछे राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना सक्रिय थी। छायावाद का मूल उत्स भारतीय स्वाधीनता संघर्ष में है। जब लोगों में दासता के ख़िलाफ़ संघर्ष के भाव मुखरित हुए, तो उनमें स्वाधीनता की चेतना जगी। इसी चेतना का परिणाम है – कल्पना पर अधिक बल। ध्यान करने वाली बात यह है कि हिंदी कविता में छायावाद और भारतीय राजनीतिक मंच पर महात्मा गांधी का आगमन लगभग एक साथ हुआ। तभी तो डॉ. नगेन्द्र कहते हैं, “जिन परिस्थितियों ने हमारे दर्शन और कर्म को अहिंसा की ओर प्रेरित किया, उन्होंने ही भाव-वृत्ति को छायावाद की ओर।”

प्रसाद जी के काव्य में हमें नवीन भावबोध के साथ स्वाधीनता की चेतना, सूक्ष्म कल्पना, लाक्षणिकता, नए प्रकार का सादृश्य-विधान, नया सौंदर्य बोध आदि के दर्शन होते हैं। छायावादी काव्य में राष्ट्रीय जागरण, सांस्कृतिक जागरण के रूप में आता है। नन्ददुलारे वाजपेयी ने आधुनिक साहित्य में कहा है, “केवल राष्ट्रीयता की भावना देश और समाज के सांस्कृतिक जीवन के बहुमुखी पहलुओं का स्पर्श नहीं करती और एक बड़ी सीमा तक एकांगी बनी रहती है। … नवयुग के कवियों ने इस तथ्य को समझ लिया था और इसीलिए उनकी रचनाएं ‘राष्ट्रीय’ न रहकर अधिक राष्ट्रीय और सांस्कृतिक भूमियों पर पहुंची थीं।”

प्रसाद जी की रचनाओं में कहीं भी भाव-स्थूलता का वर्णन नहीं है। इनमें अनुभूति का सूक्ष्म वर्णन है। वे स्वच्छंदतावादी भी थे। हालांकि कुछ आलोचकों ने, जब उन्होंने “ले चल मुझे भुलावा देकर, मेरे नाविक धीरे-धीरे” लिखा था, पलायनवादी होने का आरोप लगाया। किंतु हमें इस बात का ध्यान रखना होगा कि प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना और ‘द्विवेदी कालीन’ कवियों,  मैथिलीशरण गुप्त, सुभद्रा कुमारी चौहान, माखनलाल चतुर्वेदी, की चेतना में अंतर है। उनकी राष्ट्रीय चेतना बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ के ‘विप्लव गान’ और ‘निराला’ के ‘जागो फिर एक बार’ से भी भिन्न है। इनमें राष्ट्रीयता का स्वरूप स्थूल हैं, इनमें उद्बोधन है, विदेशी सत्ता से मुक्त होने का आह्वान है।

प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना का स्वर प्रच्छन्न है, कोमल है, सौम्य है, सूक्ष्म है। यह सीमित अर्थ में राष्ट्रवाद नहीं है। यहां राष्ट्रीय जागरण ने सांस्कृतिक जागरण का रूप धारण कर लिया है। इस सांस्कृतिक जागरण की अभिव्यक्ति ‘प्रथम प्रभात’, ‘अब जागो जीवन के प्रभात’, ‘बीती विभावरी जाग री’ आदि रचनाओं के अध्ययन से स्पष्ट हो जाती है। प्रसाद जी की राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति शैली अभिधात्मक नहीं है, बल्कि यह अप्रत्यक्ष है, व्यंजना पर आधारित है यह स्वच्छन्दतावाद की मूल चेतना से अभिन्न है
अब जागो जीवन के प्रभात।
वसुधा पर ओस बने बिखरे
हिमकन आंसू जो क्षोभ भरे
ऊषा बटोरती अरुण गात।

जहां प्रसाद जी सूक्ष्म, सास्कृतिक और सौम्य हैं वहीं द्विवेदी युगीन काव्य स्थूल है। भाषा की विलक्षणता पर ज़ोर देकर, आंतरिकता के स्पर्श और आधुनिक बोध और बदली हुई काव्य दृष्टि द्वारा वे मनुष्यों की मुक्ति को महत्त्व दे रहे थे। बंधनों से छुटकारा पाने को बल दे रहे थे। एक प्रकार से यह स्वाधीनता की चेतना के विकास का काम था। नया सौंदर्य बोध, नयी संबंध भावना के विकास का काम था। भारतेदु युग में राष्ट्रीय आदर्शवाद अस्पष्ट और अमूर्त रूप में था। द्विवेदी युग में इतिवृत्तात्मकता और विवरेणात्मकता प्रमुख हो गई, जो स्थूल कथन पर आश्रित थी। प्रसाद जी के समय और उनके द्वारा राष्ट्रीय चेतना अधिक गहरी है, प्रौढ़ है, परिपक्व है। उन्होंने परतंत्र देशवासियों में नवजागरण का शंख फूंका। ‘लहर’ में संकलित लम्बी कविता ‘अशोक की चिंता’, ‘शेरसिंह का शस्त्र समर्पण’, ‘पेशोला की प्रतिध्वनि’, तथा ‘प्रलय की छाया’ में नवजागरण के संकेत हैं। ये रचनाएं 1930 के आस-पास लिखी हईं। प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने कहा कि यह 1930 के में भारत में राजनैतिक पराभव या पराजय की भावना की अभिव्यक्ति है। ‘प्रलय की छाया’ का राजनीतिक अर्थ स्वाधीनता संग्राम के एक विशेष दौर की मनोदशा से संबद्ध है। नामवर सिंह व्याख्या के क्रम में संकेत करते हैं कि कमलावती राजशक्ति को नष्ट करने की कोशिश में स्वयं नष्ट हुईं। इससे उसकी आत्मप्रवंचना के निहितार्थों का अनुमान किया जा सकता है। प्रसाद जी इस पराजय की भावना से देश-प्रेम का संदेश देते हैं।

इसी प्रकार ‘अशोक की चिंता’ और ‘अरी ओ करुणा की शांत कछार’ में भी राष्ट्र के प्रति गर्व गौरव की भावना अंकित किया गया है। कवि अशोक के नरसंहार के बाद हृदय परिवर्तन और बौद्ध-धर्म ग्रहण के माध्यम से यह बताना चाहता है कि राजा/शासक का धर्म है जनता की सेवा करना। कवि शांति का संदेश देते हुए कहता है कि विजय लोहे की नहीं होती, विजय आत्मा की होती है। और वह प्रेम, शांति और मानवता से ही संभव है। कवि राष्ट्रीय एकता का भी संदेश इस कविता के माध्यम से देता है।

‘पेशोला की प्रतिध्वनि’ में  महाराणा प्रताप को अस्ताचल के सूर्य के रूप में बताया गया है। वह निर्धन है, ज्वलंतहीन है। पर इसके द्वारा एक तरह से जागृति का संदेश है हम पराजित होकर भी जीवित हैं। इसके द्वारा यह भी बताया गया है कि जिसे जीतना चाहिए था, वह हारा है। ‘अरी ओ करुणा के कछार’ सारनाथ के पास यमुना का वर्णन है। भगवान बुद्ध के अहिंसा, शांति, करुणा के संदेश को याद करता हुआ कवि कहता है
छोड़ कर जीवन के अतिभाव, मध्य पथ से लो सुगति सुधार।
दुख का समुदय उसका नाश, तुम्हारे कर्मों का व्यापार।
विश्व मानवता का जयघोष, यहीं पर हुआ जलद-स्वर-मंद।
मिला था यह पावन आदेश, आज भी साक्षी है रवि-चन्द्र।

प्रसाद जी में संकुचित राष्ट्रीयता नहीं है। यह देश की सीमा से बंधा हुआ नहीं है। यह विश्व-राष्ट्रीयता है इसमें विश्व-मंगल की कामना है।
‘बीती विभावरी जाग री!
...    ...    ...    ...
तू अब तक सोई है आली
आंखों में भरे विहाग री!”

इन पंक्तियों के द्वारा प्रसाद जी राष्ट्र को जागरण का संदेश देते हैं। नन्ददुलारे वाजपेयी का कहना है, “बीती विभावरी जाग री” शीर्षक जागरण गीत प्रसाद जी के संपूर्ण काव्य-प्रयास के साथ उनकी युग-चेतना का परिचायक प्रतिनिधि गीत कहा जा सकता है।” राष्ट्रीय चेतना का स्थूल रूप उनके नाटकों के गीतों, ‘अरुण यह मधुमय देश हमारा’ और ‘हिमाद्रि तुंग श्रृंग से’ में मिलता है। नाटकों के माध्यम से उन्होंने राष्ट्रीय चेतना का प्रसार किया। और जब वे कहते हैं
“इस पथ का उद्देश्य नहीं है श्रांत भवन में टिक रहना,
किंतु पहुंचना उस सीमा पर जिसके आगे राह नहीं।”

तो वे समग्र विश्व तक राष्ट्रीय चेतना का प्रसार करते प्रतीत होते हैं। इसका क्लासिक उदाहरण है ‘कामायनी’।

‘कामायनी’ संकुचित राष्ट्रवाद से ऊपर उठकर विश्वमंगल वाली रचना है। वह संपूर्ण मानवजाति की समरूपता का सिद्धांत अपनाकर आनंद लोक की यात्रा का संदेश देती है
समरस थे जड़ और चेतन
सुंदर आकार बना था
चेतना एक विलसती
आनंद अखंड घना था।
या
‘विश्व भर सौरभ से भर जाए
सुमन के खेलों सुंदर खेल।’

‘कामायनी’ आधुनिक जीवन-बोध का महाकाव्य है। इसमें संघर्ष करना सिखाया गया है। कर्म करना सिखाया गया है। विश्व-मंगल इसका मूल प्रयोजन है। उसकी मूल संकल्पना संकुचित राष्ट्रवाद के विरुद्ध है। मुक्तिबोध इड़ा को पूंजीवादी सभ्यता की उन्नायिका कहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि श्रद्धा, जो रागात्मक वृत्ति का प्रतीक है, का आदर्शीकरण प्रसाद जी करते हैं। श्रद्धा मनु को जीवन में वापस लाती है। कर्म-क्षेत्र में आने से आनंद की प्राप्ति होती है। फिर भी इड़ा का जो व्यक्तित्व विधान है उसमें नई युग चेतना के सभी सकारात्मक तत्त्व वर्तमान हैं
‘बिखरी अलकें ज्यों तर्क-जाल।
गुंजरित मधुप-सा मुकुल सदृश
वह आनन जिसमें भरा गान
वक्षस्थल पर एकत्र धरे
संसृति के सब विज्ञान-ज्ञान
था एक हाथ में कर्म-कलश
वसुधा-जीवन रस सार लिए
दूसरा विचारों के नभ को
था मधुर अभय अवलंब लिए।’

प्रसाद जी की व्यापक राष्ट्रीय सांस्कृतिक चेतना का विश्वमंगल से विरोध न था। वे उत्पीड़न के विरोध में थे द्वंद्वों से क्षुब्ध थे विषमता रहित समाज की स्थापना चाहते थे। ‘कामायनी’ की मिथकीय सीमाओं में भी कर्म चेतना, संघर्ष चेतना, एकता जैसे तत्त्व हैं, जिनका महत्त्व राष्ट्रीय आंदोलन के लिए था।

‘चित्राधार’ में तो वे यहां तक कहने का साहस कर गए कि उस ब्रह्म को लेकर मैं क्या करूंगा जो साधारण जन की पीड़ा नहीं हारता। ‘आंसू’ में भी विश्वमंगल की भावना की अभिव्यक्ति हुई है।
‘सबका निचोड़ लेकर तुम
सुख से सूखे जीवन में
बरसो प्रभात हिमकन-सा
आंसू इस विश्व-सदन में।’

हालांकि घनीभूत पीड़ा आंसू में अभिव्यक्ति पाती है, लेकिन यहां महत्त्वपूर्ण यह है कि व्यक्तिगत वेदना कैसे व्यापक कल्याण भावना में बदलने लगती है।
‘चिरदग्ध दुखी यह वसुधा
आलोक मांगती तब भी।’

यही अनुभव कवि को विश्व भावना तक ले जाता है।

सारांशतः हम यह कह सकते हैं कि प्रसाद जी का काव्य राष्ट्रीय काव्य, सांस्कृतिक जागरण का काव्य हैं। ये स्वाधीन चेतना के बल पर नई मानव परिकल्पना में सक्षम हैं। वह नई संबंध भावना का संकेत हैं। यहां राष्ट्रीयता का भाव संकुचित नहीं है, बल्कि विश्वमंगल हेतु है।
‘शक्तिशाली हो, विजयी बनो
विश्व में गूंज रहा यह गान।’
***

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

ले चल मुझे भुलावा देकर

जयशंकर प्रसादजयशंकर प्रसाद की कविताएं-3

 

ले चल मुझे भुलावा देकर

 

ले चल मुझे भुलावा देकर,

मेरे नाविक! धीरे-धीरे!

 

जिस निर्जन में सागर लहरी

अम्बर के कानों में गहरी --

निश्छल प्रेम-कथा कहती हो,

तज कोलाहल की अवनी रे!

 

जहां सांझ-सी जीवन छाया

ढीले अपनी  कोमल काया,

नील नयन से ढलकाती हो,

ताराओं की  पांति घनी रे!

 

जिस गम्भीर मधुर छाया में --

विश्व चित्र-पट चल माया में --

विभुता विभु-सी पड़े दिखाई

दुःख-सुख वाली सत्य बनी रे!

 

श्रम-विश्राम क्षितिज-वेला से --

जहां  सृजन  करते मेला से --

अमर जागरण-उषा नयन से --

बिखराती  हो ज्योति  घनी रे!

रविवार, 21 अगस्त 2011

प्रसाद जी की नाट्य संबंधी सोच


नाटक साहित्य-11

नाटक साहित्य – प्रसाद युग-4

प्रसाद जी की नाट्य संबंधी सोच

प्रसाद जी ने ‘हिंदी नाटक का स्थान’, ‘नाटकों में रस का प्रयोग’, ‘नाटकों का आरंभ’ और ‘रंगमंच’ नामक अपने लेखों में नाटक और रंगमंच पर विचार किया है। जब उन्होंने नाटक लिखना शुरु किया था तब हिंदी में नाटकों की समृद्ध परंपरा नहीं थी। भारतेन्दु युग के नाटक उनके सामने थे। इसके साथ ही संस्कृत और पश्चिम के नाटकों की समृद्ध परंपरा भी मौज़ूद थी। उन्होंने संस्कृत के नाटकों और नाट्य संबंधी अवधारणाओं का गहरा अध्ययन किया। पश्चिम के नाट्य चिंतन और परंपराओं से भी वे वाकिफ़ थे। उस समय के रंगमंच पर खेले जाने वाले नाटकों पर पश्चिम के नाटकों का गहरा प्रभाव था। उस समय एक तो शिक्षित समाज के लिए अभिजात्य नाटक खेले जाते थे वहीं दूसरी तरफ़ जनसाधारण के पारसी रंगमंच के नाटक थे। प्रसाद हिंदी पर पारसी रंगमंच के प्रभाव को अच्छा नहीं मानते थे। वे अपनी नाट्य परंपरा के अनुरूप हिंदी नाटक और रंगमंच के विकास के समर्थक थे।

प्रसाद जी नाटक को ‘कला का विकसित रूप’ मानते थे। वे नाटक को ‘सब ललित सुकुमार कलाओं का समन्वय’ कहते थे। नाटक में दृश्य और श्रव्य दोनों कलाओं की अनुभूति होती है। इसलिए वे यह नहीं चाहते थे कि लोग नाटक को देखते वक़्त खुद को भूल जाएं और तल्लीन हो जाएं। प्रसाद जी नाटकीयता और सोद्देश्यता दोनों को नाटक के लिए ज़रूरी मानते थे। वे कहते थे, “जो नाटक मनोभाव का विश्लेषण करके चमत्कार के बल से मोहता हुआ, अंतःकरण में आदर्श सत्य को स्वयंमेव विकसित कर देता है, उसे ... सभी सभ्य जातियों के साहित्य में सम्मान मिलता है।”

प्रसाद जी के अनुसार पश्चिम में कला को अनुकरण माना जाता है जबकि हमारे यहां कला में दार्शनिक सत्य की प्रतिष्ठा की जाती है। आत्मा का अभिनय भाव है। भाव ही आत्म-चैतन्य में विश्रान्ति पा जाने पर रस होते हैं। जैसे विश्व के भीतर से विश्वात्मा की अभिव्यक्ति होती है, उसी तरह नाटकों से रस की। भरत के अनुसार नाटक देखते हुए जो हृदय स्थित भाव है, वही परिपक्व होकर रस रूप में परिणत हो जाता है। जब अभिनेता अपने आत्म चैतन्य में तल्लीन हो जाता है तो उसका भाव रस रूप में परिणत हो जाता है। इस प्रकार पश्चिम में नाटक के केन्द्र में अनुकरण होता है जबकि भारत में रस। इसलिए प्रायः भारत में नाटकों का अंत सुख या आनंद में होता है जबकि पश्चिम में दुखांत।

पश्चिम के नाटकों में त्रासदी का ज़ोर रहा तो इसीलिए कि उनकी परिस्थिति ने उन्हें लगातार दुख और संघर्ष की ओर अग्रसर किया। उपनिवेशों की खोज में दुर्गम भूभागों में उन्हें भटकना पड़ा। विपरीत परिस्थितियों से निरंतर संघर्ष करते हुए जीवन जीना पड़ा। इसीलिए उन्होंने जीवन को दुखमय (ट्रेजेडी) समझ लिया। चूंकि उन्होंने भावना की बजाए बुद्धि पर अधिक भरोसा किया इसलिए उन्होंने इस दुख को ही जीवन का सत्य समझ लिया।

बुद्धिवाद और दुख को (ट्रेजेडी) प्रधानता देने के कारण ही पश्चिमी सिद्धांत मनुष्य के चरित्र-निर्माण का पक्षपाती है। नाटक देखकर या कविता पढ़कर यदि मनुष्य अपने को बुराई की तरफ़ जाने से रोकता है और अपने चरित्र में संशोधन करता है तो साहित्य का लक्ष्य पूरा हो जाता है। मौज़ूदा साहित्य की दो प्रमुख विशेषताओं – व्यक्ति-वैचित्र्य और यथार्थवाद को इसी दृष्टि से देखा जा सकता है। प्रसाद पाश्चात्य के व्यक्ति-वैचित्र्य को साधन मानते हैं, साध्य नहीं। किन्तु उन्होंने आदर्शवाद को भी अंतिम नहीं माना है। उनके शब्दों में, “चरित्र-चित्रण आदर्श के लिए हो, यह अति उत्तम सिद्धांत नहीं है, क्योंकि चरित्र-चित्रण का लक्ष्य आदर्श तो अवश्य है, किन्तु प्रत्येक चरित्र आदर्श हो तो वही उपर्युक्त दोषापत्ति हो जाती है।” प्रसाद ने पात्र के ‘नैतिक विकास’ अर्थात्‌ व्यक्तित्व के सहज विकास को मुख्यता दी है।

पश्चिम के विपरीत भारतीय परंपरा रस पर आधारित है। इसका कारण यह है कि पश्चिम की तरह आर्यों को घरबार छोड़कर इधर-उधर भटकना न पड़ा। भारतीय आर्य निराशावादी नहीं थे। उन्होंने प्रत्येक भावना में अभेद निर्विकार, अनंद लेने में अधिक सुख माना। रस में लोकमंगल की भावना प्रच्छन्न रूप में विद्यमान रहती है। भारतीय परंपरा में लोकमंगल स्थूल सामाजिक रूप में नहीं बल्कि दार्शनिक सूक्ष्मता के आधार पर मौज़ूद रहता है। जबकि पश्चिम में वासना का आधार रहता है। वासना से ही क्रिया संपन्न होती है। क्रिया के संकलन से व्यक्ति का चरित्र बनता है। चरित्र में महत्ता का आरोप हो जाने पर, व्यक्तिवाद का वैचित्र्य उस महती लीलाओं से विद्रोह करता है। इस प्रकार पश्चिम का साहित्य व्यक्ति और समाज की वासनात्मक क्रियाओं से ही संचालित और प्रेरित होता है। यही कारण है कि उसमें किसी दार्शनिक श्रेष्ठता के दर्शन नहीं होते।

आत्माभिव्यक्ति की गीतात्मकता को प्रसाद ने रसानुभूति माना है। रसवाद को अपनाने के कारण मनुष्य की वासनात्मक मनोवृत्तियां साधारणीकरण के द्वारा आनंदमय बना दी जाती हैं। इससे मनुष्य की वासना का संशोधन हो जाता है। इससे मनुष्य की विशिष्टता और विभिन्नता समाप्त हो जाती है। मनुष्य की भावनाओं को मानवीय आधार मिल जाता है। इस आधार हम पाते हैं कि प्रसाद जी नाट्य रचना के लिए पश्चिम के अनुकरण सिद्धांत, बुद्धिवाद और दुख व निराशा को स्वीकार नहीं करते। वे नाटक में लोकमंगल को स्वीकार करते हुए भी रस को ही उसका लक्ष्य मानते हैं। प्रसाद द्वारा विवेचित ‘रसानुभूति’ ही ‘रंगानुभूति’ और ‘जीवनानुभूति’ है, क्योंकि उन्होंने रस का विवेचन ‘नाट्य’ और जीवन-संदर्भों के साथ जोड़ते हुए किया है। एक तरह से वे रस पर विचार करते हुए यथार्थवाद की अपनी परंपरा को तलाशते हैं।

निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि प्रसाद ने अनेक भारतीय रंग-परंपराओं की युक्तियों, रूढ़ियों और व्यवहारों का रचनात्मक उपयोग किया। इस प्रक्रिया में उन्होंने आंशिक रूप से इन्हें नए संदर्भों में स्वीकारा, और कहीं-कहीं नकारा भी है। उनकी यह स्वीकृति न तो विवशता थी और न ही अस्वीकृति महज़ फैशन। वे अपनी विषय-वस्तु के अनुकूल रंग-तत्वों की तलाश करते रहे, जो विशुद्ध मनोरंजन से हटकर नए जीवन-बोध को अनेक आयामों के साथ व्यंजित कर सकें। इस पुनर्रचना के तहत उन्होंने न तो संस्कृत नाटकों के शास्त्रीय नियमों का पूर्ण रूप से पालन किया है, न पारसी नाटकों की अतिनाटकीयता को पूर्णतया स्वीकार किया है, न इब्सन की तरह नाटकों को तर्कमूलक बनाया है और न ही शेक्सपियर के त्रासदी नाटकों से आतंकित हुए हैं।

***

संदर्भ ग्रंथ

१. हिन्दी साहित्य का इतिहास – सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल २. डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली – खंड ९ ३. हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास – हजारीप्रसाद द्विवेदी ४. हिन्दी साहित्य का इतिहास – डॉ. श्यम चन्द्र कपूर ५. हिन्दी साहित्य का इतिहास – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ६. मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा  ७. हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा ८. रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन  ९. कोणार्क – जगदीश चन्द्र माथुर १०. जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद ११. अन्धेर नगरी में भारतेन्दु के व्यक्तित्व के स र्जनात्मक बिन्दु – गिरिश रस्तोगी, रीडर, हिन्दी विभाग, गोरखपुर विश्व विद्यालय १२. रंगमंच का सौन्दर्यशास्त्र – देवेन्द्र राज अंकुर १३. दूसरे नाट्यशास्त्र की खोज - देवेन्द्र राज अंकुर

रविवार, 14 अगस्त 2011

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से

 

जयशंकर प्रसाद की कविता - 1

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से

 

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्वला स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ हैं - बढ़े चलो बढ़े चलो ॥

 

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ विकीर्ण दिव्य दाह-सी
सपूत मातृभूमि के रुको न शूर साहसी
अराति सैन्य सिंधु में सुबाड़वाग्नि से जलो
प्रवीर हो जयी बनो - बढ़े चलो बढ़े चलो

प्रसाद जी की नाट्य-रचनाएं


नाटक साहित्य-10

नाटक साहित्य प्रसाद युग-3

प्रसाद जी की नाट्य-रचनाएं

हैं –
१.      सज्जन (1910) : महाभारत के कथानक को लेकर रचा गया नाटक। गंधर्व चित्रसेन दुर्योधन को उसके मित्रों सहित बन्दी बनाता है। युधिष्ठिर के कहने पर अर्जुन चित्रसेन से युद्ध करने जाता है। चित्रसेन मित्र अर्जुन को पहचान लेता है और दुर्योधन को छोड़ देता है। इसमें भारतेन्दु काल की नाट्य-शैली अपनाई गई है। इसमें पद्यात्मक संवाद योजना है। गद्य में खड़ी बोली है, किंतु पद्य में ब्रजभाषा का व्यवहार किया गया है।

२.      कल्याणी परिणय (1912) : इस एकांकी नाटक का कथानक संक्षिप्त और सरल है। चंद्रगुप्त, कार्नेलिया, सिल्यूकस आदि इसके प्रमुख पात्र हैं। सिल्यूकस चन्द्रगुप्त से सन्धि कर अपनी पुत्री का पाणिग्रहण उससे कर देता है।  ‘चंद्रगुप्त’ इसी का विकसित रूप है। पद्यात्मक संवाद योजना है।

३.      प्रायश्चित (1014) : यह एक एकांकी रूपक है। इसमे जयचंद की मृत्यु घटना को प्रचलित इतिहास से भिन्न रूप में प्रदर्शित किया गया है। अपने कुकर्मों पर पश्चाताप करता हुआ जयचन्द शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी के आक्रमण के समय गंगाजी में डूबकर आत्महत्या कर लेता है। संवाद योजना पद्यात्मक नहीं है।

४.      करुणालय (1921) : यह एक गीति नाट्य है। यह ‘इन्दु’ में प्रकाशित हुआ था। इसमें प्रसाद जी ने ‘अमित्राक्षर अरिल्ल’ छन्द का उपयोग किया है। पितृभक्त शुनःशेप अपने माता-पिता की आज्ञा मानकर नरमेध-यज्ञ के लिए जीवन उत्सर्ग करने को प्रस्तुत होता है, किन्तु राजकुमार रोहित पिता की आज्ञा अनुचित समझकर स्वतन्त्र मत की स्थापना करता है। सम्पूर्ण नाटक पांच दृश्यों में विभक्त है। इसका नाटकीय तत्व कहानी तत्व के सामने फीका पड़ गया है।

५.      राज्यश्री (1915) : इसके दो संस्करणों में भिन्नता पाई जाती है। प्रथम संस्करण की त्रुटियों को दूसरे संस्करण में सुधारा गया है। कल्याणी परिणय और प्रायश्चित रूपकों में इतिहास की मर्यादा का उतना पालन नहीं हुआ है जितना राज्यश्री में। इस नाटक में मालवा, स्थाणेश्वर, कन्नौज और मगध की राजपरिस्थितियों का दिग्दर्शन होता है। इसे प्रसाद जी का प्रथम ऐतिहासिक नाटक कहना उचित होगा। स्थानेश्वर में अपना राज्य स्थापित कर प्रभाकरवर्धन सीमा का विस्तार करता है। अपनी पुत्री राज्यश्री की विवाह कन्नौजराज ग्रहवर्मन से कर देता है। स्थानेश्वर और कन्नौज का उत्कर्ष देखकर मालवा और गौड़ ईर्ष्यालु बन गए। इन्हीं ईर्ष्यालु राजाओं के कुचक्रों की लीला इस नाटक में देखने को मिलता है।

६.      विशाख (1921) : उस समय सत्याग्रह आन्दोलन देशव्यापी बन रहा था। शासक वर्ग भक्षक हो चला था। जनता में उत्तेजना फैल रही थी। इसी प्रकार की घटना को लेकर ‘विशाख’ की रचना की गई थी। नाग जाति की लक्ष्मी चन्द्रलेखा के उपभोग के लिए कामुक किन्नर नरदेव आतुर है और जैसे-तैसे उसका अपहरण भी कर लेता है। फिर तो समस्त नाग जाति विद्रोह का झण्डा खड़ा कर देती है और अभीष्ट को प्राप्त कर लेती है। इस नाटक में तत्कालीन थियेट्रिकल कम्पनियों के नाटकों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई पड़ता है।

७.      अजातशत्रु (1922) : इस नाटक में चार राज्यों, मगध, काशी, कोशल और कौशाम्बी को कथानक का केन्द्र बनाया गया है। बिम्बसार, प्रसेनजित, उदयन, पद्मावती, वासवी आदि पात्र एक दूसरे से संबंधित हैं और इन चार राज्यों से एक या दूसरे का स्म्बंध है। चारों राज्य एक-दूसरे से इतने सम्बद्ध हैं कि एक राज्य में घटित होनेवाली घटना का प्रभाव अनिवार्य रीति से शेष पर पड़ता ही है। सभी जगह क्रान्ति का घोष सुनाई देता रहता है। इस अमर कृति में एक ऐसी विचारधारा प्रवाहित होती है जो संतप्त मानव-जीवन को शान्ति प्रदान करती है। डॉ. दशरथ ओझा के अनुसार, इस नाटक के “कथानक के संगठन में जो नाट्यकला झलकने लगती है, वह चरित्र-चित्रण और अंतर्द्वन्द्व की ज्योति पाकर चमक उठती है।” प्रसाद जी ने विविध घटनाओं को श्रृंखलाबद्ध करने का जो पहला प्रयास किया, उस नये प्रयोग में वे सफल रहे।

८.      जनमेजय का नागयज्ञ (1926) : इसका कथानक महाभारत से लिया गया है। ब्रह्म-हत्या के प्रायश्चित-स्वरूप राजा जनमेजय ने जो अश्वमेघ यज्ञ किया, उसको केन्द्र में रखक्रकर यह नाटक लिखा गया है। इस नाटक में पहले के नाटकों से अलग योजना है। इसके कारण पर विचार करते हुए डॉ. दशरथ ओझा कहते हैं, “आश्चर्य नहीं कि तत्कालीन हिन्दू-मुस्लिम संघर्ष को देखकर प्रसाद जी को इस समस्या के सुलझाने का विचार मन में आया हो। ... नाटक का कथानक 1926 में होने वाले भीषण हिन्दू-मुस्लिम दंगे की ओर संकेत करता है। उस काल में महात्मा गांधी दोनों जातियों में पुनः सौमनस्य स्थापित करने का आन्दोलन चला रहे थे। प्रसाद जी महात्मा गांधी जी द्वारा संचालित आंदोलन में यद्यपि सक्रिय भाग नहीं लेते थे, किन्तु उनके सिद्धान्तों से सहमत होने के कारण अपने सुसंस्कृत नाटकों में उनके विचारों को सन्निविष्ट करते जाते थे।” इस नाटक में प्रसाद जी ने जो दृश्य योजना की है, कला की दृश्टि से अस्वाभाविक है।

९.      कामना (1927) : प्रसाद जी ने दार्शनिक विचारों को मूर्तरूप देने के लिए मनोवृत्तियों को पात्र बनाकर इस नाटक की रचना की। इसके पुरुष पात्र हैं – संतोष, विनोद, विलास, विवेक, दम्भ, दुर्वृत्त आदि और स्त्री पात्र हैं शान्ति, कामना, लीला, लालसा, करुणा, महात्त्वाकांक्षा आदि। इस नाटक में प्रतीकात्मक पात्रों के चरित्र चित्रण द्वारा उन्होंने मानव-जाति की सभ्यता और संस्कृति के विकास और ह्रास का इतिहास अंकित किया है। द्विजेन्द्रलाल राय का मत है, “कामना में जिस प्रतीकात्मक शैली का सूत्रपात हुआ है वह आगे चलकर ‘आंसू’ (काव्य), ‘प्रतिध्वनि’ (कहानी० और ‘एक घूंट’ (नाटक) में विकसित हुई है और वही ‘कामायनी’  में पूर्ण प्रस्फुटित हो उठी है।” ‘कामना’ में विभिन्न मनोविकारों को प्रतीक के रूप में रंगमंच पर उपस्थित किया गया है। उनके कार्यकलापों के द्वारा मानव सभ्यता और संस्कृति के विकास की कथा प्रस्तुत की गई है। हालाकि नाट्यशिल्प की दृष्टि से इसे विशेष महत्व नहीं दिया जा सकता, पर इससे प्रसाद जी की प्रयोगधर्मिता का तो पता चलता ही है।

१०.  स्कन्दगुप्त (1928) : प्रसाद जी के नाटकों में ‘स्कंदगुप्त’ का महत्वपूर्ण स्थान है। यह एक ऐतिहासिक नाटक है। इसकी कथावस्तु गुप्त वंश के प्रसिद्ध सम्राट स्कंदगुप्त के जीवन पर आधारित है। उसका समय 5वीं सदी माना जाता है। यह वह समय था जब देश शकों और हूणों के हमले से आक्रांत था। स्कंदगुप्त ने हूणों के हमले से अपने राज्य की रक्षा की। जब प्रसाद जी ने इस नाटक की रचना की तब देश पर अंग्रेज़ों का शासन था। आज़ादी की लड़ाई ज़ारी थी। ज़ाहिर है कि देशभाक्ति की भावना के प्रसार द्वारा लोगों को ज़्यादा से ज़्यादा इस संघर्ष में शामिल किया जा सकता था। यह तभी संभव था जब लोग जाति, धर्म, भाषा और क्षेत्र के मतभेदों से ऊपर उठ कर और एकजुट होकर अंग्रेज़ी शासन के विरुद्ध संघर्ष करते। ‘स्कंदगुप्त’ में समृद्धि और ऐश्वर्य के शिखर पर आसीन गुप्त-साम्राज्य की उस स्थिति का चित्रण हुआ है, जहां आंतरिक कलह, पारिवारिक संघर्ष और विदेशी आक्रमणों के फलस्वरूप उसके भावी क्षय के लक्षण दिखने लगे हैं। विषय और रचना शिल्प की दृष्टि से यह प्रसाद जी का सर्व-श्रेष्ठ नाटक माना जाता है। भारतीय और पाश्चात्य नाटक पद्धतियों का इतना सुंदर समन्वय उनके अन्य नाटक में नहीं मिलता। स्कंदगुप्त और देवसेना के चरित्र पाठकों पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाते हैं।

११.  चन्द्रगुप्त (1931) : ‘चंद्रगुप्त’ में विदेशियों से भारत का संघर्ष और उस संघर्ष में भारत की विजय की थीम उठायी गयी है। प्रसाद जी के मन में भारत की गुलामी को लेकर गहरी व्यथा थी। इस ऐतिहासिक प्रसंग के माध्यम से उन्होंने अपने इसी विश्वास को वाणी दी है। शिल्प की दृष्टि से इसमें अपेक्षाकृत गति शिथिल है।  इसकी कथा में वह संगठन, संतुलन और एकतानता नहीं है, जो ‘स्कंदगुप्त’ में है। अंक और दृश्यों का विभाजन भी असंगत है। चरित्रों का विकास भी ठीक तरह से नहीं हो पाया है। फिर भी ‘चंद्रगुप्त’ हिंदी की एक श्रेष्ठ नाट्यकृति है, प्रसाद जी की प्रतिभा ने इसकी त्रुटियों को ढंक दिया है।

१२.  ध्रुवस्वामिनी (1933) : ‘ध्रुवस्वामिनी’ का प्रसाद जी के नाटकों में एक विशिष्ट स्थान है। इसका विशेष महत्व समस्यानाटक के रूप में है। इसमें तलाक और पुनर्विवाह की समस्या को बड़े कौशल से उठाया गया है।

१३.  एक घूंट (1930) : ‘एक घूंट’ का विशेष महत्व इसके एकांकी होने में है। हालाकि आधुनिक एकांकी की एकलक्ष्यता, तीव्रता और यथार्थबोध का इसमें नितांत अभाव है, फिर भी नाट्यशिल्प की दिशा में प्रसाद जी का यह प्रयोग उपेक्षणीय नहीं माना जा सकता।

डॉ. दशरथ ओझा के शब्दों में कहें तो प्रसाद जी के नाटक किसी भी उत्कृष्ट कृति की तरह उन लोगों की समझ से बाहर रहे हैं जिनको अपनी संस्कृति, दर्शन और इतिहास और भाषा की गरिमा का न तो ज्ञान है और न उनमें आस्था। प्रसाद जी के नाटक चाहे रंगमंचीय हों, चाहे न हों, वे हिन्दी साहित्य की बहुमूल्य निधि माने गए हैं और माने जाएंगे।

शनिवार, 13 अगस्त 2011

नाटक साहित्य – प्रसाद युग-2


नाटक साहित्य-9

नाटक साहित्य प्रसाद युग-2


“... नाटक रंगमंच के लिए लिखे जाते हैं। प्रयत्न तो यह होना चाहिए कि नाटक के लिए रंगमंच हो, जो व्यावहारिक है।” --- जयशंकर ‘प्रसाद’

प्रसाद जी बहुमुखी प्रतिभा के साहित्यकार थे। उन्होंने काव्य, नाटक, कहानी, उपन्यास आदि सभी विधा में अपने क़लम चलाए। उनके बाल्यकाल में ही भारतेन्दु-मंडल एक-एक कर अंत हो चुके थे। मौलिक नाटक एक्का-दुक्का दिखाई पड़ते थे। बंगला नाटकों के अनुवाद की भरमार थी। शेक्सपीयर के नाटकों का प्रभाव हिन्दी पर गहरा पड़ रहा था। भावोन्माद और करुणा को प्रमुख स्थान दिया जा रहा था। इस प्रकार एक तरफ़ नवयुग-प्रवर्तक भारतेन्दु जी और दूसरी तरफ़ पश्चिमी नाटकों की अभिनय कला के सन्धि-काल में प्रसाद जी ने नाटक-साहित्य-सृजन का काम शुरु किया।

अपने समन्वयात्मक शैली द्वारा प्रसाद जी ने हिंदी नाटकों को कलात्मक विकास तक पहुंचा दिया। उन्होंने हिंदी नाट्य सृजन को एक नई शैली दी और भारतीय और पाश्चात्य नाट्य विधान का समन्वय कर एक नवीन शिल्प का विकास किया। इसके परिणाम स्वरूप उनके नाटकों में पात्रों का चरित्र काफ़ी व्यापक भूमि पर विकसि हुआ है। उनके नाटकों में मानवीय संवेदना के अनेक रूप दर्शाए गए हैं। अपने हरेक पात्र को उन्होंने एक निजी रूप प्रदान किया है। हर पात्र की एक अलग पहचान होती है। चरित्र विकास की यह मौलिकता ही उनके नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता है। पात्रों के अंतर्द्वन्द्व में पात्रों की वैयक्तिकता प्रकट होती है।

उनका भारतीय आदर्शवादी आस्था में पूरा विश्वास था। इसलिए उनके पात्रों का आदर्शवादी चरित्र उसके चरित्र को एक सीमा से आगे नहीं जाने देता। इसलिए उनका नायक न पूरी तरह परंपरासिद्ध है और न ही पूरी तरह वैचित्र्यमूलक ही। उसमें दोनों रूपों का सर्जनात्मक समन्वय है।

जैसा कि हम पहले चर्चा कर आए हैं, एक तरफ़ अव्यवसायी रंगमंच प्रसाद के आते-आते लगभग समाप्त हो गया था। वहीं दूसरी तरफ़ सस्ती जनरुचि के पोषक पारसी रंगमंच को हिंदी के शिष्ट समाज  ने मान्यता ही नहीं दिया था। प्रसाद के लिए उसे अपनाने का प्रश्न ही नहीं था। उनके सामने चुनौती बहुत बड़ी थी। उस समय हिंदी का अपना कोई रंगमंच ही नहीं था। यही वह सबसे बड़ा कारण हो सकता है कि उन्होंने रंगनाटक न लिखकर काव्योमय औपन्यासिक नाटकों का सृजन किया। उन्होंने अपने नाटकों में अभिनयात्मक सृजन शैली का सहरा कम लिया। उनके नाटकों के संवाद वर्णनात्मक हैं और भावुकता से भरे हुए तथा बिम्बात्मक हैं। वे अपने काल्पनिक रंगमंच को व्यावहारिक रूप न दे सके। इसका परिणाम यह हुआ कि उनके नाटक अन्य सभी दृष्टियों से उत्कृष्ट होने पर भी अभिनय की दृष्टि से सफल न हो पाये।

प्रसाद जी की वाणी और चिंता दोनों ही इतनी मूल्यवान है कि उनके नाट्यलेखन का तकनीकी तौर पर कई जगह सुघड़ होना या न होना कोई मानी नहीं रखता। हमें यह सोचना चाहिए कि प्रासंगिक क्या है? – वह जो रंगमंचीय है और विचारशून्य है, या वह जिसमें रंगमंच की युक्तियां लेखक ने नहीं दी, किंतु सारी संभवनाओं के दरवाज़े खोल दिए।

पारसी रंगमंच का अंधानुकरण करने वालों या उनका विरोध करने वालों हिन्दी नाटककारों ने रंगकर्म से असंवाद की स्थिति बना ली। इसका परिणाम यह हुआ कि उस युग का नाटक सृजनात्मक-कलात्मक मूल्यों से दूर होता चला गया। इस स्थिति से उबरने के लिए प्रसाद जी ने, जीवन और रंगमंच के व्यापक संदर्भों को जोड़कर, नाटक को एक परिवर्तनकारी शक्ति में बदलने का सार्थक प्रयास किया।

प्रसाद जी का मानना था कि विदेशी औपनिवेशिक तंत्र के विरुद्ध लड़ने के पहले अपने भीतर के मानव को झिंझोड़कर उसे नई वैचारिक उष्मा के द्वारा प्रबुद्ध और जागृत करना होगा। इस दृष्टि को मूर्त रूप देने के लिए उन्होंने नई रंग-शैली का सृजन किया। इसीलिए उनके नाटक विचार और व्यवहार, भावना और यथार्थ, परंपरा और आधुनिक, ऐतिहासिक और युगीन अंतर्विरोधी शक्तियों की टकराहट को दृश्य में रूपांतरित करने की छटपटाहट को व्यंजित करते हैं।

प्रसाद जी की कल्पनाशील रोमांटिक-धर्मी प्रकृति ने उनके नाटकों को बहुत आकर्षक रूप प्रदान किया। उनके नाटक, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध की राजनैतिक उथल-पुथल, अंतर्विरोधों और तनावों के बीच, भारतीय संदर्भ में मानव-नियति को समझने की कोशिश का नतीज़ा है।

संदर्भ ग्रंथ
१.      हिन्दी साहित्य का इतिहास सं. डॉ. नगेन्द्र, सह सं. डॉ. हरदयाल
२.      डॉ. नगेन्द्र ग्रंथावली खंड ९
३.      हिन्दी साहित्य उद्भव और विकास हजारीप्रसाद द्विवेदी
४.      हिन्दी साहित्य का इतिहास डॉ. श्यम चन्द्र कपूर
५.      हिन्दी साहित्य का इतिहास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
६.      मोहन राकेश, रंग-शिल्प और प्रदर्शन – डॉ. जयदेव तनेजा
७.      हिन्दी नाटक : उद्भव और विकास – डॉ. दशरथ ओझा
८.      रंग दर्शन – नेमिचन्द्र जैन
९.      कोणार्क जगदीश चन्द्र माथुर
१०.  जयशंकर प्रसाद : रंगदृष्टि नाटक के लिए रंगमंच – महेश आनंद
११.  अन्धेर नगरी में भारतेन्दु के व्यक्तित्व के सर्जनात्मक बिन्दु गिरिश रस्तोगी, रीडर, हिन्दी विभाग, गोरखपुर विश्व विद्यालय
१२.  रंगमंच का सौन्दर्यशास्त्र देवेन्द्र राज अंकुर
१३.  दूसरे नाट्यशास्त्र की खोज - देवेन्द्र राज अंकुर

सोमवार, 8 अगस्त 2011

आह ! वेदना मिली विदाई …. जयशंकर प्रसाद




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जन्म: 30 जनवरी 1889 
निधन: 14 जनवरी 1937

आह ! वेदना मिली विदाई
मैंने भ्रमवश जीवन संचित,
मधुकरियों की भीख लुटाई



छलछल थे संध्या के श्रमकण
आँसू-से गिरते थे प्रतिक्षण
मेरी यात्रा पर लेती थी
नीरवता अनंत अँगड़ाई


श्रमित स्वप्न की मधुमाया में
गहन-विपिन की तरु छाया में
पथिक उनींदी श्रुति में किसने
यह विहाग की तान उठाई

लगी सतृष्ण दीठ थी सबकी
रही बचाए फिरती कब की
मेरी आशा आह ! बावली
तूने खो दी सकल कमाई

चढ़कर मेरे जीवन-रथ पर
प्रलय चल रहा अपने पथ पर
मैंने निज दुर्बल पद-बल पर
उससे हारी-होड़ लगाई

लौटा लो यह अपनी थाती
मेरी करुणा हा-हा खाती
विश्व ! न सँभलेगी यह मुझसे
इसने मन की लाज गँवाई



गुरुवार, 5 मई 2011

प्रकृतवादी उपन्यास

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                                                                                             मनोज कुमार
प्रकृतवाद एक विशिष्ट जीवन दर्शन है। यह मानव जीवन को वैज्ञनिक दृष्टि से प्रकृत रूप में (नेचुरल) देखने और चित्रित करने में विश्वास रखता है। इसके अनुसार मनुष्य प्रकृति का उसी प्रकार से क्रमशः विकसित जन्तु है, जिस प्रकार संसार के अन्य प्राणी। उसमें पशु-सुलभ सभी आकर्षण-विकर्षण ज्यों-के-त्यों वर्तमान हैं। प्रकृतवादी लेखक मनुष्य को काम-क्रोध आदि मनोरोगों का गट्ठर मात्र समझता है, और उसके अर्थहीन आचरणों, कामासक्त चेष्टाओं और अहंकार से उत्पन्न धार्मिक वृत्तियों का विशेष भाव से उल्लेख करता है। इस विचार धारा के अनुसार जीवन में जिसे विद्रूप और कुत्सित कहा जाता है, वह सहज और वैज्ञानिक भी है। इस विचार धारा के जनक ज़ोला का मानना है,

“लेखकों का धर्म है कि वे जीवन के गंदे और कुरूप से कुरूप चित्र खींचे। मनुष्य की दुर्बलताओं, रोगों और विकृतियों का वर्णन करते समय उन्हें कोई अंश नहीं छोड़ना चाहिए।”

समाज के पाखंडपूर्ण कुत्सित पक्षों का उद्घाटन और चित्रण करने वाले उपन्यासों के रचनाकरों में प्रमुख हैं –

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चतुरसेन शास्त्री
का जन्म उत्तर प्रदेश के चांदोख नामक गांव में 1891 में हुआ। ग्यारह वर्ष की अवस्था में वे वाराणसी पहुंच गए और वहां व्याकरण तथा साहित्य का अध्ययन किया। उन्होंने साहित्य लेखन को भी व्यवसाय बनाया। जयपुर संस्कृत कॉलेज में आयुर्वेद और संस्कृत साहित्य का अध्ययन किया।

`हृदय की परख’ (1918), `हृदय की प्यास’ (1932), ‘वैशाली की नगरवधू’, ‘सोना और ख़ून’, ‘गोली’ ‘सोमनाथ’, ‘खग्रास’, ‘व्यभिचार’, `अमर अभिलाषा’ (1932), `आत्मदाह’ (1937), वयं रक्षाम, मन्दिर की नर्तकी, रक्त की प्यास, आलमगीर, सह्यद्रि की चट्टानें, आदि उनके प्रसिद्ध उपन्यास हैं।

उपन्यासों के अलावा उन्होंने कहानियां भी लिखीं हैं और उनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं – रजकण, अक्षत आदि।

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पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’
के ‘जिजा जी’, ‘दिल्ली का दलाल’ (1927), ‘चॉकलेट’, ‘चन्द हसीनों के खुतूत’ (1927), ‘बुधुआ की बेटी’ (1928), ‘शराबी’ (1930), ‘सरकार तुम्हारी आंखों में’ आदि प्रसिद्ध उपन्यास हैं। ‘उग्र’ जी की ‘बुधुआ की बेटी’ उपन्यास घोर यथार्थवादी उपन्यास है। ‘चन्द हसीनों के खुतूत’ पत्रात्मक प्रविधि में लिखा गया हिन्दी का पहला उपन्यास है।

‘उग्र’ जी अपने साहित्य में भी उग्र रूप में ही प्रकट हुए हैं। डॉ. गोपाल राय का कहना है,

“‘उग्र’ जी इस युग के सबसे अक्खड़ और सबसे बदनाम उपन्यासकार थे।”

‘चॉकलेट’ में अश्लीलता को लेकर उस ज़माने में हिंदी साहित्य जगत में विवाद खड़ा हो गया था। अपने उपन्यासों द्वारा उन्होंने समाज की बुराइयों को, उसकी नंगी सचाई को, बिना किसी लाग-लपेट के प्रस्तुत किया। उन्होंने समाज के उपेक्षित, निचले तबके के लोग, पतित, को अपने उपन्यास का विषय बनाया, और उसके चित्रण में उन्होंने किसी प्रकार के ‘शील’ या ‘अभिजात्य शिष्टता’ का परिचय नहीं दिया। उनके उपन्यासों में सच्चाई नग्न रूप में आती है। वे समाज के भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के बीच धर्म, समाजसुधार, व्यापार, व्यवसाय, सरकारी काम, नई सभ्यता की ओट में होनेवाले पाखंडपूर्ण पापाचार के चटकीले चित्र सामने लानेवाली कथानक गढते हैं। उनकी भाषा बड़ी अनूठी चपलता और आकर्षक वैचित्र्य के साथ चलती है। उनके उपन्यास ‘परचेबाज़ी’ के अधिक निकट दिखते हैं, जिसके कारण उनकी कोई भी कृति कलारूप को ग्रहण नहीं कर पाती। हालाकि उनके सभी उपन्यास सुधारवादी दृष्टिकोण से लिखे गए हैं, फिर भी सपाटबयानी और कम उम्र के पाठकों की रुचि को विकृत करने के खतरे से युक्त होने के कारण उनका सुधारवादी उद्देश्य भी पूरा नहीं हो पाया।

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ऋषभचरण जैन : के प्रमुख उपन्यास हैं ‘वैश्यापुत्र’, ‘मास्टर साहब’, ‘सत्याग्रह’, ‘बुर्क़ेवाली’, ‘चांदनी रात’, ‘दिल्ली का कलंक’, ‘दिल्ली का व्यभिचार’, ‘रहस्यमयी’, ‘हर हाईनेस’, ‘दुराचार के अड्डे’, ‘मयख़ाना’। उन्होंने तत्कालीन समाज के वर्जित विषयों पर प्रकृतवादी उपन्यास लिखा और यथार्थ के नाम पर मानव जीवन की विकृतियों का खुलकर वर्णन किया है।

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अनूपलाल मंडल : उन्होंने ‘निर्वासिता’ (1929) के अलावा पत्रात्मक प्रविधि में ‘समाज की बेदी पर’ और ‘रूपरेखा’ शीर्षक उपन्यास लिखे।

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जयशंकर प्रसाद ने ‘कंकाल’ (1929) और ‘तितली’ (1934) की रचना द्वारा उपन्यासकार के रूप में भी चर्चा का विषय बने। ‘तितली’ में ग्रामीण और कृषक जीवन का वर्णन है। ‘कंकाल’ में उन्होंने समाज के त्यागे हुए, अवैध और अज्ञात-कुलशील संतानों की कथा कही है। इस उपन्यास का विषय प्रकृतवादी है। हालाकि उनकी दृष्टि सामाजिक है, फिर भी इस उपन्यास में कुछ व्यक्ति ही प्रधान बन गए हैं। ये व्यक्ति समाज में अकेले हैं। इनका कोई वर्ग नहीं है। स्वभाव से ये पात्र असामान्य हैं। प्रसाद समाज के इन उपेक्षित और लांछित व्यक्तियों के मसीहा बन कर उपस्थित होते हैं, और इनको केन्द्र में रखकर कहानी गढ़ते हैं। प्रसाद की कलम का असर है कि पाठक की करुणा इनके प्रति जगती है। लेकिन कहानी घटनाओं और चमत्कारों पर आधारित होने के कारण कृत्रिम और अविश्वसनीय लगती है। दूसरी बात कि प्रसाद की भाषा उपन्यासोचित नहीं है। इन कारणों से उपन्यासकार के रूप में प्रसाद बहुत सफल नहीं रहे। भाषा को अलंकृत करने का मोह वो त्याग न सके। भाषा को लक्षणा शक्ति से सजाने के कारण वह विषय से अलग लगने लगती है। इसलिए गोपाल राय कहते हैं,
“प्रतिभा-संपन्न लेखक होते हुए भी प्रसाद हिन्दी-उपन्यास को कोई नया आयाम नहीं दे सके।”

प्रकृतवादी उपन्यासकारों ने जीवन का ऐसा चित्र प्रस्तुत किया जिसे पढ़कर वितृष्णा पैदा होती है। ऐसा महसूस होता है कि जीवन में सब कुछ विद्रूप, कुत्सित और वीभत्स है। इस प्रवृत्ति को अधिक प्रश्रय नहीं मिला।

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

काव्य प्रयोजन :: आधुनिक काल

काव्य प्रयोजन :: आधुनिक काल

द्विवेदी युग

इस युग में रीतिवाद विरोधी अभियान चला। मकसद था हिन्दी कविता को दरबारी काव्य की रूढियों से मुक्त करना! आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने ‘सरस्वती’ पत्रिका के माध्यम से इस आंदोलन को गति प्रदान की। उनका मानना था कि साहित्य की महत्ता लोकजागरण की चेतना से सम्बद्ध है। साहित्य में जो शक्ति है वह तो, तलवार और बम में भी नहीं है। उनके अनुसार लोकजागरण के लिए साहित्य से बढकर कोई दूसरा  समर्थ माध्यम नहीं है।

मैथिलीशरण गुप्त ने भी इस आंदोलन को आगे बढाया। उन्होंने कविता के प्रयोजन को बताते हुए कहा
(१)
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए
(२)
है जिस कविता का काम लोकहित करना
सद्भावों से मन मनुज मात्र का भरना
पहले तो कांता सदृश हृदय का हरना
फिर प्रकटित करना विमल ज्ञान का झरना

(३)
अर्पित हो मेरा मनुज काय
बहुजन हिताय बहुजन हिताय
(४)
संदेश नहीं मैं स्वर्गलोक का लाया
इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया
इस तरह से इनके साहित्य का उद्देश्य लोकमंगल भावना को हम पाते हैं।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने रस की लोकमंगलवादी व्याख्या की। उन्होंने कलावाद-रूपवाद का विरोध किया, साथ ही विरुद्धों के सामंजस्य सिद्धांत का समर्थन किया। उन्होंने तुलसीदास और उनके ‘रामचरितमानस’ को लोकमंगल की साधनावस्था का प्रतिमान माना तथा विद्यापति और बिहारीलाल को सिद्धावस्था का कवि कहा।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी साहित्य का प्रयोजन “लोकचिंता” को मानते थे। उनके प्रिय कवि हैं कबीर। इनका मानना था कि लोकचिंताओं से जुड़कर ही रचनाकार को लोक को दिशा-दृष्टि देनी चाहिए।

छायावाद के कवियों ने सृजन को मानव-मुक्ति चेतना की ओर ले जाने का काम किया। सुमित्रानंदन पंत ने रीतिवाद का विरोध करते हुए ‘पल्लव’ की भूमिका में कहा कि मुक्त जीवन-सौंदर्य की अभिव्यक्ति ही काव्य का प्रयोजन है।

जयशंकर प्रसाद का कहना था आनंद और लोकमंगल दोनों का सामंजस्य ही सृजन-धर्म है - “श्रेयमयी प्रेम ज्ञानधारा”।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला ने नवजागरण परंपरा का विस्तार किया और रूढिवाद का विरोध।

महादेवी वर्मा के अनुसार साहित्य का उद्देश्य है मानव करुणा का विस्तार।

प्रगतिवाद ने रूढिवादिता का विरोध किया और मार्क्सवादी समाज-चिंतन को अपनाया।
प्रेमचंद के अनुसार रचनाकार समाज में आगे चलने वाली मशाल होता है। अतः साहित्य का उद्देश्य जनता की चेतना को जाग्रत करना तथा परिष्कृत करना होता है।
प्रगतिवाद एक निश्चित तत्ववाद को सूचित करता है। ऐसे साहित्य में विषय-वस्तु या अंतर्वस्तु को अधिक महत्व दिया जाता है। रूप को, कला-विन्यास को कम। इनके मतावलंबियों के अनुसार साहित्य का उद्देश्य है प्रतिक्रियावादी शक्तियों के लोक-विरोधी, जन-विरोधी चरित्र का भंडाफोर और मनुष्य का, मनुष्यता का विकास-परिष्कार-प्रसार। अर्था‍त्‌ उपयोगितावाद-यर्थार्थवाद की महत्वप्रतिष्ठा।
डॉ. रामविलास शर्मा ने लोकमंगलवादी चिंतन-दृष्टि का विकास ही साहित्य का प्रयोजन माना।

गजानन माधव मुक्तिबोध ने साहित्य को जनता के लिए जनजागरण का अस्त्र माना और उन्होंने अपनी रचनाओं, “चांद का मुंह टेढा है” और “भूरी-भूरी खाक धूल” द्वारा पूंजीवादी-साम्राज्यवादी चिंतन का विरोध किया।

नयीकविता युग तथा समकालीन युग के विद्वानों, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, निर्मल वर्मा आदि, कवियों के मतानुसार साहित्य का प्रयोजन मानव-व्यक्तित्व का समग्र विकास, मानव-स्वाधीनता की रक्षा, मुक्त-चिंतन का विकास है।

उपसंहार
इस प्रकार हम पाते हैं कि हिन्दी चिंतन परंपरा में लोकमंगलवादी मानव सत्यों से साक्षात्कारवादी दृष्टि ही साहित्य का प्रयोजन रही है। रचनाकार का मानवतावाद रचना की अर्थ-व्यंजना में निहित रहता है।
हिन्दुस्तान में संस्कृति का आधारभूत तत्व है - “सुरसरि सम सबका हित होई।” अर्थात्‌ गंगा की तरह सभी को अपने में मिलाना और गंगा बना देना। लोक-कल्याण और आनंद दो अलग नाम हैं परन्तु तत्त्वतः दोनों एक हैं, दोनों का मूल प्रयोजन है – लोक के साथ जीना, लोक-चिंता के साथ जीना।
अपने हृदय को लोक के हृदय में मिला देना ही “रस दशा” है। इसका अर्थ है हृदय की मुक्तावस्था, भावयोग दशा, साधारणीकरण या समष्टिभावना का आनंद। हिन्दी काव्यशास्त्र का प्रयोजन इसी हिन्दुस्तानी लय से ओत-प्रोत है।
निष्कर्षतः हम कह सकते हैं कि काव्य का प्रयोजन है लोकमंगल भावना अर्थात्‌ मनुष्यता का विकास। जिसमें मानव के प्रति गहरे सामाजिक सरोकार हों। रचनाकार मानवता के प्रति करुणा और सहानुभूति की चेतना का विस्तार कर अपने-पराए की भेद-बुद्धि को मिटाता है और मानवतावाद की दृष्टि का प्रचार करता है। लोकजागरण और लोक-कल्याण ही जीवन का सत्य  है, शिव है, सुन्दर है। और यही है साहित्य का प्रयोजन!