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मंगलवार, 31 जुलाई 2012

जन्म दिवस पर - प्रेमचंद की देन


प्रेमचंद जी के जन्मदिवस पर विशेष प्रस्तुति



पिछले दिनों इसी ब्लॉग के एक पोस्ट पर यह टिप्पणी आई थी। (लिंक)
प्रेमचंद जी एवं उनके समय के अन्य लेखकों(लेखकों और उनके प्रेमियों से क्षमा याचना सहित) की यथार्थ परक समाज-चित्रण वाला कथा साहित्य है जोकि यथार्थ चित्रण में इतना बढ़ाचढ़ा है कि उनका नायक लाख प्रयत्न करे, वो मुंह के बल ही गिरता है। यदि विजय प्राप्त भी करता है तो नैतिक कारणों से, नकि पुरुषार्थ के कारण। ये देख पाठक का मन अनायास ही यह सोचने लगता है कि पुरुषार्थ व्यर्थ है. परिश्रम व्यर्थ है. 
आप जानते ही हैं की प्रेमचंद जी एवं उनके समकालीन अन्य लेखकों का कथा साहित्य भारतीय पाठ्यक्रम में आदि से अन्त तक भरा पड़ा है और इसी कारण से इसे पढ़ने का सौभाग्य, जब मैं मात्र नौ वर्ष का बालक था तभी से प्राप्त हो गया था। मेरे चाचा, बुआ इत्यादि सब विश्वविद्यालय के विद्यार्थी थे अतः उनके पाठ्यक्रम का साहित्य भी घर में उपलब्ध था और इसी कारण हाईस्कूल (कक्षा १०) तक आते आते मैंने ये तथाकथित यथार्थ परक समाज-चित्रण वाला कथा साहित्य सारा ही पढ़ डाला था।
मैं एक नौ वर्ष के बालक का छोटा सा अनुभव आपसब के साथ बांटना चाहूँगा । इस बालक ने प्रेमचंद की कहानी ईदगाह पढ़ी और तीन पैसे ले कर ईदगाह जाने वाले बालक कि मजबूरी से दुखी कोमलमन बालक कई दिन तक गुमसुम रहा वो बालक मै था। ये मेरा स्वयं का अनुभव है. ऐसे अनगिनत मायूस अनुभवों से भरा है मेरा बचपन। इस कथा साहित्य ने मेरी बाल सुलभ मुस्कान, हंसी, मेरा बचपन मुझसे छीन लिया। इससब से उबर परिपक्व होने में जवान होने के बाद भी मुझे बरसों लगा गए।  --- पन्डित सूर्यकान्त 

इस टिप्पणी को डॉ. रमेश मोहन झा को दिखाया और उनसे कहा कि आप इस टिप्पणी को ध्यान में रखकर प्रेमचंद जी के जन्म दिवस के उपलक्ष्य में एक आलेख दीजिए। तो आज वही प्रस्तुत है :-

प्रेमचंद की देन

ज्‍यादातर ऐसा होता है कि जब हमें किसी से कोई बहुत बड़ी चीज मिलती है तो हम न तो देनेवाले की, न उस पाई हुई चीज की ही कद्र कर पाते हैं। लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता है कि हम यह महसूस करते हैं कि हमें कोई बड़ी चीज हासिल हुई है और हम उसके प्रति कृतज्ञता से भर जाते हैं जिससे हमें बहुत कुछ मिलता-सा प्रतीत होता है, हम भले ही ठीक-ठाक यह समझ न पायें कि वह है क्‍या, जो हमें मिला है । प्रेमचंद के संबंध में हिंदी के विद्वानों,पाठकों की जो कृतज्ञता की भावना है, वह बहुत कुछ इसी तरह की है : वह अबोध कृतज्ञता है। हालांकि अपवाद स्‍वरूप इधर एक खास वर्ग प्रेमचंद और उनकी रचनाओं को खारिज करने पर तुला है। अतार्किक (कुतार्किक नहीं) पद्धति से, एक खास चश्‍मे से देखकर उसे निष्‍प्राण करने की कोशिश में लगा है। लेकिन सांच को आंच नहीं। प्रेमचंद जिस आसन पर आसीन है, वहीं रहेंगे भले ही उनपर कुछ लोगों की भृकुटि तनी हो। आज के समय में बूंद भी समुद्र के लहजे में बात करता है, इसलिए इस विषय पर मौन रहना ही श्रेयष्‍कर है।

प्रेमचंद ने हिंदी कथा साहित्‍य के क्षेत्र में अभूतपूर्व क्रांति की थी। साहित्‍य के इस क्षेत्र मे उनकी कृतियों ने युगांतर उपस्थित कर दिया और किसी न पुराने को ढहते और नये को उठते देखा तक नहीं। प्रेमचंद ने पूर्ववर्ती युग की प्रवृति को आघात पहुंचाये बिना उसका परिष्‍कार किया। उन्‍होंने आलोचना के प्रतिमानों को चुनौती न देकर नये मूल्‍य स्‍थापित किए। हंगामा जरा भी न हुआ और परिवर्तन बहुत बड़ा हो गया। नई या विपरीत दिशा में मुड़ना झटके के साथ होता है और सदैव ध्‍यान आकृष्‍ट करता है। किंतु, कभी ऐसा भी होता है कि आगे बढ़ना, नजदीक रहने वालों के लिए अस्‍पष्‍ट होने पर भी, इतनी दूर तक पहुंचा देता है कि जब हम देख पाते हैं तब चकित हो जाते हैं। प्रेमचंद ने बहुत दूर आगे बढ़कर युगांतर उपस्थित किया था, नया मोड़ नहीं लिया था।

प्रेमचंद ने कुछ भी ऐसा नहीं किया जो उनके पहले हो नहीं चुका था, या हो नहीं रहा था। प्रेमचंद के पहले दवकीनंदन खत्री ऐसे उपन्‍यास लिख चुके थे, जिसने अपनी रोचकता के बल पर लो‍कप्रियता के सारे रिकार्ड तोड़ दिए थे। प्रेमचंद ने, खत्री जी की तरह तिलस्‍म और ऐयारी के सहारे, अपने उपन्‍यासों या कहानियों को रोचक नहीं बनाया। वे इनके बिना ही रोचक हैं।

किशोरीलाल गोस्‍वामी ने, बंगला से प्रभावित होकर रूमाने प्रेम से पगी और कोमलकांत पदावली जैसी भाषा के योग से कथा को रोचक बनाने का प्रयास किया था। प्रेमचंद ने यथार्थ और आदर्श का समन्‍वय करते हुए ऐसी रोचकता बनाए रखी, जैसी गोस्‍वामी जी के कथा-साहित्‍य में शायद ही मिलती हो।

यथार्थ और आदर्श के समन्‍वय का प्रयास भी, अपने ढंग से, प्रेमचंद के पहले के हिंदी-कथा-साहित्‍य में हुआ था। श्रीनिवास दास, राधाकृष्‍ण दास और बालकृष्‍ण भट्ट के उपन्‍यासों में और कुछ हो या न हो, इस समन्‍वय की एक हद तक सफल चेष्‍टा तो है ही। किंतु प्रेमचंद ने आदर्शोन्‍मुख यथार्थवाद के साथ कथानक की रोचकता बनाए रखी, जबकि दोनों परस्‍पर-विरोधी सिद्ध होते हैं। यह आगे बढ़ना ही नहीं, काफ़ी दूर तक आगे बढ़ना है। इसे ही आगे चलकर बाद के लोग युगांतर करना कहते हैं।

प्रेमचंद ने सेवा-सदन, निर्मला, वरदान, गबन लिखकर, पूर्ववर्ती युग से भिन्‍न प्रेमचंद-युग का प्रवर्तन किया था। प्रेमचंद-युग से भिन्‍न युग की स्‍थापना के लिए भी वे प्रायः इसी समय से प्रयोग करते लग गए थे। प्रेमाश्रम, रंगभूमि और कर्मभूमि उस प्रयोग के सोपान हैं, जिसका शिखर गोदान है।

‘गोदान’ में जीवन के दृश्यमान सरल व जटिल यथार्थ को इस तरह आबद्ध किया गया है कि उसकी गहराइयां और जटिलताएं ऊपरी सतह पर प्रदर्शित न होती हुई भी निभ्रांत रूप से नीचे, अंदर झलकती रहती है। गोदान में शुद्ध यथार्थ है, इस कारण कथा सारे भारतीय जीवन को उसके विश्रृंखल रूप में उपस्थिति करती है।

प्रेमचंद ने भारतीय उपन्यासकारों में सबसे पहले औद्योगिकरण-जनित समस्‍याओं का चित्रण किया, अश्रुविगलित पात्रों की जगह औसत सामाजिक मनुष्यों का सुख-दुख लिया, शोषित-वंचित किसान-मज़दूर की गाथा प्रस्‍तुत की, किंतु ये उनके द्वारा किए गए सार्वाधिक महत्‍वपूर्ण कथा-प्रयोग के साध्‍य नहीं, गौण साधन मात्र है। उनके प्रयोग का साध्‍य था भारतीय जीवन का पूर्ण चित्रण। प्रेमचंद ने सफलतापूर्वक ऐसा प्रयोग किया था। उन्होंने लगातार प्रायास कर एक अभीष्ट उपन्यास-स्‍थापत्‍य गढ़ लिया, जिसके कारण ‘गोदान’ जैसा उपन्‍यास वो हमें दे सके। स्‍थापत्‍य के साथ-साथ उन्‍होंने अपने ढंग से चेखव तथा तुर्गनेव की तरह साधारणता को अपने उपन्‍यासों और कहानियों का उपकरण बनाने का साहस दिखाया है, यह उनकी विशिष्‍ट देन है।

प्रेमचंद की भाषा की जो सरलता व सहजता है, उसके पीछे उसके अंगभूत दृष्टिकोण की यही अनिवार्यता काम करती है। शैली की यह सरलता पत्रकारिता की सरलता नहीं है, जीवन की साधारणता को व्‍यक्‍त करने की मौलिक और वैशिष्‍ट्यपूर्ण चेष्‍टा है। यही कारण है कि प्रेमचंद के समकालीनों में से कुछ-एक ने और बाद के अनेक उपन्‍यासकारों ने, सरल शैली में लिख अवश्‍य, किंतु उनकी सरलता प्रेमचंद की सरलता नहीं है। प्रेमचंद की शैली अनुकरणीय है, पर अनुकरण के लिए अत्‍यंत कठिन।

प्रेमचंद की महत्‍ता इस बात में भी निहित है कि उन्‍होंने दिलचस्प और लो‍कप्रिय किस्‍सा-कहानी तथा साहित्यिक तथा कलापूर्ण गल्‍प के बीच की झूठी खाई को मिटा दिया था। तथाकथित उच्‍चकोटि की साहित्‍यक गल्‍पों में शैली की विशिष्‍टता और चरित्र तथा भाव के कुशल अंकन के बावजूद, साहित्यिकता की दृष्टि से, हमें किस्‍से कहानियों के घटना-वैचित्र्य, प्रवाह, नाटकीयता और मनुष्‍यता के अभाव खटकते हैं। प्रेमचंद ने इस अभाव को अपनी कृतियों से दूर कर दिया।

और अंत में मैं वहीं आता हूँ जहां मैने मौन रहने की बात कही है। मैं उस खास वर्ग या पूर्वग्रह से ग्रसित ऐसे लोगों पर आता हूँ जो बिना वजह के ऐस शिखर से टकराते हैं। ये जब प्रेमचंद पर विचार करते हैं, तो उन्हें अपने नजरिये से देखते हैं। अपने नजरिये से किसी चीज को देखना बुरा नहीं है। लेकिन अपने नजरिये से देखे हुए को ही मुख्‍य और असल बताना और बाकी सबसे इन्‍कार करना गलत है। ये प्रेमचंद के साथ ऐसे ही सलूक कर रहे हैं। ये प्रेमचंद को अपनी जमीन पर नहीं रहने देना चाहते। वे खींचकर अपनी जमीन पर लाते हैं और फिर खड़ा करते हैं, मानो यह बताना चाहते हैं कि प्रेमचंद की अपनी जमीन थी ही नहीं, या वे यहां महान नहीं मालूम होते। प्रेमचंद स्वयं में इतने समर्थ लेखक है कि उन्‍हें किसी दूसरे आधार की जरूरत नहीं है। इस प्रसंग में मुझे साहिर के गीत की ये पंक्तियां याद आ रही है

अश्‍कों में जो पाया है वो गीतो में दिया है,
इस पर भी सुना है कि जमाने को गिला है।

डॉ. रमेश मोहन झा
ए.डी- 119, रवीन्‍द्र पल्‍ली
कृष्‍णापुर
कोलकाता 700101
दूरभाष 09433204657