सोमवार, 29 नवंबर 2010

विडम्बना ......

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अक्सर -
सुबह सड़क पर
नन्हें बच्चों को देखती हूँ ,
कुछ सजे - संवरे 
बस्ता उठाये
बस के इंतज़ार में
माँ का हाथ थामे हुए
स्कूल जाने के लिए 
उत्साहित से , प्यारे से ,
लगता है 
देश का भविष्य बनने को 
आतुर हैं ।


और कुछ नन्हे बच्चे 
नंगे पैर , नंगे बदन
आंखों में मायूसी लिए
चेहरे  पर उदासी लिए
एक बड़ा सा झोला थामें 
कचरे के डिब्बे के पास
चक्कर काटते हुए
कुछ बीनते हुए
कुछ चुनते हुए
एक दिन की 
रोटी के जुगाड़ के लिए
अपना भविष्य 
दांव पर लगाते हुए
हर पल व्याकुल हैं ,
आकुल हैं.

25 टिप्‍पणियां:

  1. मानव जीवन की विडम्बना को प्रोजेक्त करती कविता

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  2. वाकई विडम्बना है ...मगर शायद जीवन इसी का नाम है !
    अच्छी रचना के लिए धन्यवाद आपका ...

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  3. भविष्य का विरोधाभास और उसकी विडम्बना!!
    अच्छा चित्र प्रस्तूत किया, दीदी!!

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  4. हमारे पास एक कालबेलिया कॉलोनी है। मैंने वहाँ कई वर्षों तक सामाजिक कार्य किया। बच्‍चे वही कचरा बीनने का कार्य करते हैं। हमने वहाँ एक स्कूल भी चलाया लेकिन उनमें से किसी की भी रुचि पढने में नहीं थी। आखिर हम ही थकहार कर वहाँ से हट गए लेकिन उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं ला सके। इसलिए कुछ लोग ऐसा ही जीवन पसन्‍द करते हैं। वे उन्‍नति का मार्ग अपनाना ही नहीं चाहते। आपने अपनी कविता में दोनों प्रकार के जीवन का वर्णन किया है लेकिन उन्‍नति स्‍वयं के करने से ही होती है।

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  5. समाज की विसंगति की ओर इशारा करती कृति , लेकिन सच्चाई की धरातल पर मै कही ना कही अजीत गुप्ता जी से भी सहमत हूँ.

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  6. मेरा बस्ता कितना भारी!
    बोझ उठाना है लाचारी!
    --
    कूड़े और कचरे में बालक रोजी कमा रहे हैं!
    पढ़ने लिखने की आयु में बचपन गँवा रहे हैं!!
    --
    बहुत सुन्दर रचना सोचने को मजबूर करती हुई!

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  7. बच्चों को घास-पात की तरह पैदा कर देनेवाले माता-पिता उनकी परवरिश के प्रति अपनी जिम्मेदारी भूल जाएँ तो वे क्या मनुष्य कहलाने के अधिकारी हैं?कभी-कभी तो वे बच्चों को ही अपनी आजीविका का साधन बना लेते हैं.असली समस्या वे माँ-बाप हैं ,इसके समाधान बिना यह क्रम कभी रुकनेवाला नहीं .

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  8. यही तो समाजिक विसंगति है और जीवन की त्रासदी कि हम सिर्फ़ उसे महसूस कर पाते हैं और कुछ कर नही पाते………………मानव की इस विडम्बना को तुलनात्मक दृष्टि से बखूबी उकेरा है।

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  9. यही तो विडम्बना है इस देश के बचपन का। बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
    विचार::पूर्णता

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  10. सामाजिक विसंगतियाँ दर्शाती अच्छी रचना पर बदलाव बहुत मुश्किल है .करना भी चाहो तो कुछ लोग बदलना ही नहीं चाहते.

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  11. मन द्रवित हो गया...बहुत ही कुशलता से इन विसंगतियों को कवता में उभारा है

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  12. भावुक कर देने वाली रचना ।

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  13. सामाजिक विसंगति का मार्मिक चित्रण!

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  14. समाज की विसंगति पर भावपूर्ण रचना..

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  15. रोटी के जुगाड़ के लिए
    अपना भविष्य
    दांव पर लगाते हुए
    हर पल व्याकुल हैं
    आकुल हैं

    देश के लाखों बच्चे इस तरह अपने जीवन को दांव पर लगा कर रोटी का जुगाड़ कर रहे हैं।
    मन को द्रवित कर देने वाली रचना।

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  16. डॉ.शाह ने एक कविता टीवी पर लाफ़्टर के कार्यक्रम में सुनाई थी.. जैसे याद है कहता हूँः
    सुबह सुबह उस क्लब के सामने
    जहाँ कुछ लोग टेनिस खेलने जाते हैं
    कुछ बच्चे काम पर निकलकर
    मज़दूरी करने जा रहे होते हैं.
    यही व्यथा है... संगीता दी! बहुत मार्मिक!!

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  17. सभी पाठकों का आभार ...

    यह रचना केवल दो दृश्य प्रस्तुत कर रही है ...लेकिन इस विषमता के पीछे क्या और कितने कारण हैं यह अलग बात है ...कहीं उनकी मजबूरी है तो कहीं उनकी स्वयं की चाहत ..कोई उसी ज़िंदगी में खुश है और अपनी उन्नति नहीं चाहता ....यह सारे विषय अलग हैं ...
    आगे बढने और शिक्षा दिलाने के प्रयास भी दम तोड़ देते हैं जब ऐसे बच्चे और उनके माँ बाप शिक्षा का महत्त्व नहीं समझते .. जैसा की अजीत जी ने कहा ...

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  18. आपने अपनी कविता में वास्तविक जीवन के दो दृश्यों को बखूबी उकेरा है ! और यह भी सच है कि ऐसे वंचित बच्चों के जीवन में बदलाव लाना आसान नहीं है ! लेकिन असंभव भी नहीं है ! हमें उनकी बेहतरी के लिये यथासंभव प्रयत्न ज़रूर करते रहना चाहिए ! इनके अंधकारमय जीवन में शिक्षा और आशा की एक किरण भी यदि हम आलोकित कर सके तो उनके साथ साथ हमारा जीवन भी सफल हो जाएगा ! खूबसूरत रचना के लिये आभार !

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  19. मन को द्रवित कर देने वाली रचना

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  20. यही तो विडम्बना है. मन द्रवित करती कविता

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  21. जीवन का विरोधाबास किस खूबसूरती से शब्दों में पिरोया है आपने । विडम्बना तो है ही कि हमारे नौनिहाल इस हाल में रहने को मजबूर हैं ।

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  22. Wonderful !! Geetji, mere paas abhi hindi typing setting nahi hai. Par Aap ki Kavita, Aap ki Abhivyakti ateev sunder aur hakikat se bharpur hai.

    Accept my complements.

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