रविवार, 21 नवंबर 2010

कहानी ऐसे बनी-१३ :: लंक जरे तब कूप खुनाबा

कहानी ऐसे बनी-१३

लंक जरे तब कूप खुनाबा

हर जगह की अपनी कुछ मान्यताएं, कुछ रीति-रिवाज, कुछ संस्कार और कुछ धरोहर होते हैं। ऐसी ही हैं, हमारी लोकोक्तियाँ और लोक-कथाएं। इन में माटी की सोंधी महक तो है ही, अप्रतिम साहित्यिक व्यंजना भी है। जिस भाव की अभिव्यक्ति आप सघन प्रयास से भी नही कर पाते हैं उन्हें स्थान-विशेष की लोकभाषा की कहावतें सहज ही प्रकट कर देती है। लेकिन पीढी-दर-पीढी अपने संस्कारों से दुराव की महामारी शनैः शनैः इस अमूल्य विरासत को लील रही है। गंगा-यमुनी धारा में विलीन हो रही इस महान सांस्कृतिक धरोहर के कुछ अंश चुन कर आपकी नजर कर रहे हैं करण समस्तीपुरी।

रूपांतर :: मनोज कुमार

हैलो जी ! पहचाने नहीं...? हा..हा..हा... वो क्या है कि आज हमरा स्टाइल थोड़ा बदल गया है जी ... । अब हमें भी ज़रा शहर की हवा लग गयी है। अब हम बात-बात पर खाली कहवात कहने वाले साधारण मानुष नहीं रहे.. । क्या बताएं.... अधिकांश समय तो गांव में ही रहे। लेकिन इस बार बड़ा दिन की छुट्टी मनाने आ गए बंगलूरू। इस शहर को कोई ऐसा-वैसा छुटभैय्या शहर नहीं समझिये। बहुत बड़ा शहर है... पटना से भी बड़ा...! समझिये कि बम्बई के जोड़ का ... ! हां.... इतना बड़ा-बड़ा मकान सब है कि क्या बताएं ? हमने तो जैसे ही स्टेशन से बाहर निकल कर एक मकान देखने के लिए गर्दन को घुमाया कि सिर पर की पगड़ी ही गिर गयी। इतनी स्पीड में गाड़ी सब चलती है कि आप तो देखते ही रह जाइएगा । वो तो हम थे जो कोई दिक्कत नहीं हुई। और दिक्कत हो भी तो क्यों... ? आपको न हम 'घर के जोगी जोगरा' लगते हैं लेकिन बंगलूरू में हमारी बहुत जान-पहचान है। ढेरों लोग पहचानते हैं।

बड़ा दिन यहाँ सब में क्या पता चलेगा...। आप लोग तो खाली नाम ही सुनते होइएगा... कभी बंगलूरू आइयेगा तब देखिएगा.. कैसा होता है बड़ा दिन... ! शहर-बाजार में इतनी भीड़-भार रहती है.... इतनी ही सजावट... और इतना बम-पटाखा छूटता है कि आपको दिवाली ही लगेगा । लेकिन इसमें 'शुभ दीपावली' नहीं बोलते हैं। पर्व के नाम पर भी खीचम-खींच किये रहते हैं। एक कहेगा 'मेरी क्रिसमस' तो दूसरा भी कहेगा 'मेरी क्रिसमस'। हमने कहा कि इसमें लड़ाई करने की क्या ज़रूरत है, 'न मेरी क्रिसमस... ना तेरी क्रिसमस... सबकी क्रिसमस'।

क्रिसमस के बहाने प्लान बना सिनेमा देखने का। क्या सिनेमा-हॉल सब है ... आप तो खाली लाइट-हाउस, जवाहर और अप्सरा का नाम सुने होंगे। यहाँ तो मल्टीप्लेक्स होता है। एक हॉल में चार-चार सिनेमा एक शो में चलता है। और हॉल के बाहर जो भीड़ देखिएगा तो लगेगा कि सोनपुर का मेला भी फेल है। और सिनेमा भी लगा हुआ था बड़ा बेजोर। अमीर खान का नया सिनेमा, "थ्री इडीअट्स"। बड़ा मजेदार सिनेमा है। एकदम समझिये कि खान भाई और उसका दोस्त लोग हिला के रख दिहिस है। आप सोच रहे होंगे कि अंग्रेजी फिलिम में हमें क्या समझ में आया होगा... ? अरे भाई ! सिनेमा का खाली नाम ही है अंग्रेजी में, बांक़ी पूरा सिनेमा तो हिंदी में ही है। हा..हा... हा... !!

इस सिनेमा में एक आमीर खान रहता है और दो है उसका दोस्त। तीनों बहुत बड़ा कमीना रहता है। लेकिन तीनों इंजीनियरिंग की पढाई करता है। उस इंजीनियरिंग कॉलेज का डायरेक्टर रहता है भारी खडूस। वह इन तीनों को देखना नहीं चाहता है। और आमीर खान ससुरा इतना बड़ा बदमाश है कि डायरेक्टर की छोटकी बेटी को ही पटा लेता है। एक बात है, ये तीनों लड़के ऊपर-झापर से ही शैतानी करते हैं लेकिन दिल के एकदम हीरा हैं, हीरा। और समझिये कि जरूरत पड़े तो किसी की मदद के लिए अपनी जान भी दे दें।

तो सिनेमा में क्या होता है कि  उसी डायरेक्टर की बड़ी बेटी को प्रसव होने वाला रहता है। एकदम आखिरी टाइम। लेकिन वर्षा कहे कि हम आज छोड़ेंगे ही नहीं। आसमान फार के जो मूसलाधार बरसने लगा कि रोड सब पर छाती भर पानी लग गया। और उसी में डायरेक्टर की लड़की को प्रसव पीड़ा शुरू हो गया। गाड़ी-घोड़ा कुछ नहीं। संयोग से डायरेक्टर की छोटी बेटी डाक्टरनी थी लेकिन वह भी साथ में नहीं थी। अब डायरेक्टर साहेब परेशान। तभी ये तीनों लड़के वहाँ पहुँच गए। वर्षा में उसको लेकर कहाँ जाए ? कॉलेज में ही उठा-पुठा कर ले आए। अब उसकी डाक्टरनी बहन फ़ोन और कप्यूटर पर बताने लगी... ऐसे करो। वैसे करो। इधर दबाओ। उधर से उठाओ। समझिये कि लड़का सब पढाई किहिस इंजीनियरिंग का और करने लगा डाक्टरी। सब कुछ किया लेकिन प्रसव नहीं हुआ। फिर उस डाक्टरनी ने कहा कि 'वेकुअम' देना पड़ेगा। अब आमीर खान पूछता है कि "ये वेकुअम क्या होता है जी ?" तब वो बोली कि 'यह ऐसा-ऐसा मशीन होता है ... बच्चा को बाहर खीचने का।' आमीर खान बोला, "धत्‌ तेरी के ! यह कौन सी बड़ी बात है ? हम तो इंजीनियरिंग का विद्यार्थिये हैं ही। यह मशीन तो हम तुरत ही बना देंगे।"

और ससुर लगा मशीन बनाने। ये लाओ, वो लाओ। और उधर वह बेचारी दर्द से अधमरी बेसुध छट-पटा रही है। हमें तो इतना गुस्सा आया कि क्या बताएं। उधर वो बेचारी प्रसव-पीड़ा से मर रही है और यह कमीना सब मशीन ही बना रहा है। इसी को कहते हैं कि "लंक जले तब कूप खुनाबा"। भोज के वक्त में कहीं दही जमाया जाता है ? लेकिन एक बात है। आमीर खान का दिमाग साला रॉकेट से भी फास्ट चलता था। और था पक्का इंजीनियर। झटपट मशीन बना कर तैयार कर दिया। इतना ही नहीं... ऐन मौक़े पर लाइन चला गया तो चट-पट में एक 'इनवर्टर' भी बना लिया। फिर उस बिचारी का प्रसव करवाया। तब जाकर सब का मन प्रसन्न हुआ।

लेकिन हम सोचने लगे कि वह तो आमीर खान पहिले से कुछ जोगार कर के रक्खा हुआ था तब ऐन मौका पर मशीन बना लिया। लेकिन बड़का पंडित रावण ब्रहमज्ञानी। सोचा कि बगल मे समुद्र है ही। पानी का काम चल ही जाएगा। काहे खा-म-खा सोना की लंका को खुदवा कर मिटटी निकलवाएँ। ससुर पूरा लंका में एक भी कुआं-तालाब नहीं खुदवाया। और जब हनुमान जी लंका में आग लगा दिए तो सब घड़ा-बाल्टी लेकर इधर-उधर दौड़ने लगा। सब घर द्वार धू-धू कर के जलने लगा तब जा कर रावण जल्दी-जल्दी कुआं खोदने का आर्डर दिया। जब तक कुआं खुदाए तब तक तो लंका-दहन हो चुका था। तभी से यह कहावत बनी कि "लंक जले तब कूप खुनाबा"। मतलब कि

जरूरत एकदम सिर पर सवार हो गया हो तो चले उसके समाधान का रास्ता खोजने।

ऐसा नहीं होना चाहिए। रास्ता पहिले खोज के रखिये नहीं तो जरूरत के समय 'ठन-ठन गोपाल' हो जाएगा। समझे !!! आप 'लंक जले तब कूप खुनाबे' नहीं जाइयेगा।

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8 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बढ़िया तरीके से कहावत का विस्तार किया है ....बढ़िया कहानी ....रावण की बात आमिर खान से जोड़ने की कला... बस आप ही कर सकते हैं ;)

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  2. इसी का दूसरा रूप है... "भोज काल में कुम्हार रोप्नाई' ... बढ़िया लगा...गाँव की ताजगी लिए आलेख...

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  3. अरुण जी के कहावत का देसी रूप है बरात के समय कोंहड़ा रोपना... अच्छी रही!!

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  4. संदेशपूर्ण !
    कहावत का सुन्दर विस्तार!

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