शनिवार, 6 नवंबर 2010

साहित्यकार - आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी - परम्परा एवं आधुनिकता के बीच समन्वय

मनोज कुमार

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जिनके बचपन का नाम बैजनाथ द्विवेदी था का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 (19 अगस्त, 1907) को ओझवलिया, बलिया, उत्तर प्रदेश में हुआ था। उनके पिता पं. अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। माता श्रीमती ज्योतिष्मती थीं। 1927 ई. में श्रीमती भगवती देवी के साथ विवाह हुआ। इनके सात पुत्र-पुत्रियां थे। इन्होंने हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से ज्योतिष और संस्कृत की उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1929 ई में संस्कृत साहित्य में शास्त्री और 1930 में ज्योतिष विषय लेकर शास्त्राचार्य की उपाधि पाई।

8 नवम्बर, 1930 को हिंदी शिक्षक के रूप में शांतिनिकेतन में कार्यारम्भ किया। वहीं 1930 से 1950 तक हिन्दी-भवन में अध्यक्ष का कार्य करते रहे। अभिनवभारती ग्रन्थमाला का संपादन, कलकत्ता में 1940-46 के बीच किया। विश्वभारती पत्रिका का संपादन 1941-47 तक किया। इन्हें लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्मानार्थ डॉक्टर ऑफ लिट्‌रेचर की उपाधि 1949 में दिया गया। सन् 1950 में काशी हिंदी विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर और हिंदी विभागाध्यक्ष के पद पर नियुक्ति हुई। विश्वभारती, विश्वविद्यालय की एक्जीक्यूटिव काउन्सिल के सदस्य 1950-53 काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष 1952-53 साहित्य अकादेमी दिल्ली की साधारण सभा, काशी के हस्तलेखों की खोज (1952) तथा साहित्य अकादेमी से प्रकाशित नेशलन बिब्ल्योग्रेफी 1954 के निरीक्षक। राजभाषा आयोग के राष्ट्रपति मनोनीत सदस्य 1955 ई। सन् 1957 में राष्ट्रपति द्वारा पद्मभूषण उपाधि से सम्मानित।

1960-67 के दौरान, पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में हिंदी प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष। सन् 1962 में पश्चिम बंग साहित्य अकादेमी द्वारा टैगोर पुरस्कार। 1967 के बाद पुनः काशी हिंदु विश्वविद्यालय में, जहाँ कुछ समय तक रैक्टर के पद भी रहे। 1973 में केंद्रीय साहित्य अकादेमी द्वारा पुरस्कृत। जीवन के अतिंम दिनों में ‘उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान’ के उपाध्यक्ष रहे। 19 मई 1979 को देहावसान ।

द्विवेदी जी, सरल, उदार एवं विनोद प्रिय व्यक्तित्व वाले थे। उनका अध्ययन क्षेत्र बहुत व्यापक है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, बंगला, आदि भाषाओं का गहरा अध्यन था उन्हें। इसके अलावा भाषा, इतिहास, दर्शन, संस्कृति, धर्मशास्त्र आदि विषयों का गहरा ज्ञान था।

द्विदी जी का पांडित्य इनके निबंधों में अत्यंत सहज-सरल बनकर प्रकट हुआ है। निबंधकला की दृष्टि से हिन्दी-निबंधकारों में इनका स्थान बहुत ऊंचा है। द्विवेदी जी की भाषा में भाषण-शैली का प्रवाह और ओज है। संस्कृत, अंग्रेज़ी, ऊर्दू आदि शब्दों का इन्होंने निस्संकोच प्रयोग किया है। द्विवेदी जी का भाषा पर पूर्ण अधिकार था। विषयानुकूल भाषा उनकी विशेषता थी। अपनी संस्कृतनिष्ठ भाषा के होते हुए भी वे आवश्यकतानुसार देशी विदेशी शब्दों के प्रयोग से नहीं चूके। उन्होंने शब्दों के मर्म को पहचान कर मनचाहा अर्थ सम्प्रेषित कराया। इस प्रकार द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य के ऐसे अध्येता हैं जिनमें सर्जन शक्ति की नूतनता, चिन्तन की गम्भीरता, पुरातन और नूतनता का समन्वय है।

आधुनिक युग के मौलिक निबंधकार, उत्कृष्ट समालोचक एवं सांस्कृतिक विचारधारा के प्रमुख उपन्यासकार आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के निबंधों में दार्शनिक तत्वों की प्रधानता रहती है। द्विवेदी जी की भाषा शुध्द साहित्यिक खड़ी बोली है। उन्होंने भाव और विषय के अनुसार ही भाषा का प्रयोग किया है। ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’, ‘भारतीय धर्मसाधना’, ‘सूरदास’, ‘कबीर’ आदि ग्रंथ उनके साहित्य की परख और इतिहास बोध की प्रखरता को एखांकित करते हैं। ‘अशोक के फूल’, ‘कल्पलता’ ‘कुटज’ आदि निबंध संग्रह उनको एक सर्वोत्तम ललित निबंधकार और भारतीय संस्कृति के उद्गाता के रूप में रेखांकित करते हैं।

पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी सांस्कृतिक इतिहास की सर्जनात्मक अभिव्यक्ति करने वाले कालजयी उपन्यासकार थे। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के साथ ही ‘पुनर्नवा’, ‘चारूचन्द्रलेखा’ और ‘अनामदास का पोथा’ जैसे ऐतिहासिक उपन्यास द्विवेदी जी की कलात्मक क्षमता के साथ ही उनके प्रखर इतिहास बोध को भी रेखांकित करते हैं। इन उपन्यासों द्वारा उन्होंने बोध के स्तर पर ऐतिहासिकता और पौराणिकता की रक्षा करते हुए अपने युग और समाज के सच को भी उजागर किया है।

पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी इतिहास, मनुष्य और लोक को केंद्र में रखकर भारत की भाषा समस्या पर मौलिक चिंतन करने वाले लोकवादी भाषा चिंतक और भाषा नियोजक भी थे। उनका कहना था भाषा का मूलभूत प्रयोजन है संप्रेषण। भाषा साधारणतः शब्दों के सामान्य अर्थ का ही कारबार करती है। प्रत्येक शब्द जिस अर्थ को अभिव्यक्त करता है, वह सामान्य अर्थ होता है। परंतु संवेदनशील रचनात्मक साहित्यकार, सामान्य अर्थों से संतुष्ट नहीं होता। वह सामान्य अर्थों को व्यक्त करने वाली भाषा के माध्यम से ही अपनी विशिष्ट अनुभूतियों को लोकचित्त में संप्रेषित करने के लिए व्याकुल रहता है।

उन्होंने परंपरा और इतिहास-बोध की सहायता से समसामयिक भाषा-समस्या को भी सुलझाने के सूत्र अपने निबंधों में दिए हैं। “हिंदी तथा अन्य भाषाएँ” शीर्षक निबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने विस्तार से उन सभी विषयों पर प्रकाश डाला है; जिन पर विचार करना भाषा-नियोजन की आधारभूत आवश्यकता है। जैसे

१. हिंदी का संस्कृत आदि प्राचीन भाषाओं से संबंध,

२. हिंदी का हिंदीतर प्रदेशों की आधुनिक भाषाओं के साथ संबंध,

३. हिंदी का उसकी जनपदीय बोलियों के साथ संबंध,

४. हिंदी का उर्दू के साथ संबंध और

५. हिंदी और अंग्रेजी का संबंध।

“भाषा, साहित्य और देश” तथा “मनुष्य ही साहित्य का लक्ष्य है” में व्याख्यायित हिंदी भाषा के संदर्भ में भी उनके दो मुख्य वक्तव्य सदा ध्यान में रखने योग्य हैं :-

१. ’हिंदी केंद्रीय भाषा है। बड़े परिश्रम से और बड़ी कठिनाइयों के भीतर से इसके उपासकों ने इसे सार्वदेशिक भाषा का रूप दिया है।’

२. ’हिंदी को किसी केंद्रीय राजशक्ति की अंगुली पकड़ाकर आगे नहीं बढ़ाया गया है। विरोधों, आघात-प्रतिघातों के भीतर से ही इसकी शानदार सवारी निकली है।’

इसी प्रकार “नई समस्याएँ” शीर्षक निबंध में भी संस्कृत और हिंदी भाषा के परस्पर संबंधों के सांस्कृतिक एवं जातीय आधार को विशेषतः रेखांकित किया गया है। तटस्थ भाषावैज्ञानिक की तरह चिंतन करते हुए कहा है कि कई कारणों से इस देश में और बाहर यह बार-बार विज्ञापित किया जाता है कि इस महादेश में सैकड़ों भाषाएँ प्रचलित हैं और इसीलिए इसमें अखंडता या एकता की कल्पना नहीं की जा सकती। इस मिथ का निराकरण करते हुए वे याद दिलाते हैं कि हमारे इस देश ने हजारों वर्ष पहले से भाषा की समस्या हल कर ली थी। हिमालय से सेतुबंध तक सारे भारतवर्ष के धर्म, दर्शन, विज्ञान, चिकित्सा आदि विषयों की भाषा कुछ सौ वर्ष पहले तक एक ही रही है। द्विवेदी जी के इस मत से सहमत न होने का कोई कारण नहीं है कि यह भाषा संस्कृत थी। वे याद दिलाते हैं कि भारतवर्ष का जो कुछ श्रेष्ठ है, जो कुछ उत्तम है, जो कुछ रक्षणीय है, वह इस भाषा के भंडार में संचित किया गया है।

द्विवेदी जी के अनुसार हिंदी की असली शक्ति लोक की शक्ति है। उनका मत है कि“हिंदी साधारण जनता की भाषा है। जनता के लिए ही उसका जन्म हुआ था और जब तक वह अपने को जनता के काम की चीज बनाए रहेगी, जन-चित्त में आत्मबल का संचार करती रहेगी, तब तक उसे किसी से डर नहीं है। वह अपने आपकी भीतरी अपराजेय शक्ति के बल पर बड़ी हुई है, लोक-सेवा के महान् व्रत के कारण बड़ी हुई है और यदि अपनी मूल-शक्ति के स्रोत को भूल नहीं गई तो निस्संदेह अधिकाधिक शक्तिशाली होती जाएगी।”

द्विवेदी जी ने परम्परा एवं आधुनिकता के बीच समन्वय कर एक नई दिशा प्रदान की। उनके अनुसार मरे हुए बच्चे को गोद में दबाये रखने वाली बंदरिया मनुष्य का आदर्श नहीं बन सकती। साथ ही यह भी मानना था कि यह भी नहीं होना चाहिए कि हम नयी अनुसंधिता के नशे में चूर होकर अपना सरबस खो दें। द्विवेदी जी के निबंध ललित शैली में लिखे गये हैं जिनमें संस्कृति की पुष्टि, सरसता, गहनता, अनुभूति की संवेदना आदि के दर्शन होते हैं। उन्होंने जीवन के गतिशील तत्वों को पहचान कर भारतीय सांस्कृतिक यात्रा की। उन्होंने बाणभट्ट की आत्म कथा लिख कर संस्कृत वाङ्मय से हिन्दी कथा साहित्य को पुष्ट किया। उन्होंने शब्दों के मर्म को पहचान कर मनचाहा अर्थ सम्प्रेषित कराया। इस प्रकार द्विवेदी जी हिन्दी साहित्य के ऐसे अध्येता हैं जिनमें सर्जन शक्ति की नूतनता, चिन्तन की गम्भीरता, पुरातन और नूतनता का समन्वय है।

 

जन्म

19 अगस्त, 1907

मृत्यु

19 मई 1979

स्थान

ग्राम-ओझौलिया, ज़िला-बलिया, उत्तर प्रदेश

शिक्षा

हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी से ज्योतिष और संस्कृत से उच्च शिक्षा।

वृत्ति

1930 से 1950 तक शांतिनिकेतन के हिंदी-भवन में अध्यक्ष, 1950 से 1960 तक हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी के हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष। इसके बाद पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ में अद्यक्ष एवं प्रोफ़ेसर (1960-67)

सम्मान

1. 1949 में लखनऊ वि. वि. से डी. लिट की उपाधि से सम्मानित।

2. राष्ट्रपति द्वारा पद्म भूषण से सम्मानित (1957 में)

3. पश्चिम बंग साहित्य अकादमी से टैगोर पुरस्कार द्वारा सम्मानित (1966)

4. साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत (1973)।

5. सदस्यता-

अ..विश्व भारती वि. वि. की एक्जीक्यूटिव काउंसिल के सदस्य (1950-53)

आ. काशी नागरी प्रचारिणी सभा के अध्यक्ष (1952-53)

इ. साहित्य अकादमी दिल्ली की साधारण सभा और प्रबंध समिति के अध्यक्ष।

ई. नागरी प्रचारिणी सभा (काशी) के हस्तलिखित लेखों की खोज (1952) तथा साहित्य अकादमी से प्रकाशित नेशनल जिबिलियोग्राफी (1954) के निरीक्षक

उ. जीवन के अंतिम दिनों तक उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष,

कृतियां

उपन्यास

बाणभट्ट की आत्मकथा ,पुनर्वा अनामदास का पोथा,चारु-चंद्रलेख

आलोचना

सूर साहित्य, कबीर, कालिदास की लालित्य योजना, मध्यकालीन बोध का स्वरूप, साहित्य का मर्म, प्राचीन भारत में कलात्मक विनोद, मेघदूत, एक पुरानी कहानी, मध्यकालीन धर्म साधना , सहज साधना

निबंध संकलन

साहित्य सहचर, कल्प लता, विचार और वितर्क, अशोक के फूल, विचार-प्रवाह, आलोक पर्व, कुटज

साहित्येतिहास

हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, नाथ सम्प्रदाय। साहित्यसहचर, हिन्दी साहित्य : उद्भव और विकास

सम्पादित

पृथ्वीराज रासो., संदेश रासकनाथ सिध्दों की बानियां।

13 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत उम्दा और कलात्मक लेख , दिवेदी जी भारतीय संस्कृति के उद्भट विद्वान् थे , अशोक के फुल नमक निबंध संग्रह में जो चिंतन हमारे सामने रखा है सच में गंभीर है , आम बोरा गए है , अशोक के फुल ,तोता मैना आदि ऐसे कई निबंध है जो दिवेदी जी के विचारों से अवगत करवाते हैं , सहित्य की प्रत्येक विधा पर उनकी लेखनी खूब चली है ...और आप इन जानकारियों को हम तक पहुंचा रहे हो आपका शुक्रिया

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  2. Acharya Hajari Prasad Dwivedi mere priya Sahityakar rahe hai. Unhe sachitra apke blog par dehkar barbas hi mera man punah unhe phir se samajhne ke liye Umar ghumar kar unki rachnao ko padhne ke liye vadhya kar diya hai.KUTAJ,VANBHATTA KI ATMKATHA
    Aur Ashok ke phool Jaise Nibandh Bahut hi prasansiya hain.Vidya aur vinay ki saumya murti Dwivedi marne ke bad bhi sahtya Jagat me amar hai.Thanks for this pos .GOOD MORNING, Sir.

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  3. बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी। आभार…… साहित्य के ऐसे प्रणेताओं के रहते हुए भी आज अपने देश मे "हिंदी दिवस" मनाना पड़ता है……।

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  4. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी जी के बारे में बहुत अच्छी जानकारी दी है ...अच्छे लेख के लिए बधाई ...

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  5. बहुत ही अच्‍छी जानकारी दी आपने ...सुन्‍दर लेखन ।

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  6. हिन्दी साहित्य गगन के चमकीले सितारे थे आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी. उन पर इस परिचयात्मक आलेख के लिए आभार. सराहनीय प्रस्तुति. बधाई.

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  7. इन बहुमूल्य जानकारियों को हम तक पहुंचाने के लिए कोटि कोटि नमन.

    बहुत अच्छी जानकारी.

    शुक्रिया.

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  8. ek aadhi jaaankaari boobs par bhi e diya kro

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  9. आचार्य का उपनाम क्या है।हमें बताऐं।

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  10. जय मां हाटेशवरी...
    अनेक रचनाएं पढ़ी...
    पर आप की रचना पसंद आयी...
    हम चाहते हैं इसे अधिक से अधिक लोग पढ़ें...
    इस लिये आप की रचना...
    दिनांक 19/08/2016 को
    पांच लिंकों का आनंद
    पर लिंक की गयी है...
    इस प्रस्तुति में आप भी सादर आमंत्रित है।

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  11. बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी। आभार…

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