सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

मन-मस्तिष्क सितार हो गए–कविता श्यामनारायण मिश्र

वसन्त का आगमन हो चुका है. १४फ़रवरी भी निकट ही है. ऐसे में वातावरण में एक संगीत सा रच बस गया है. ऐसे में  मुझे श्यामनारायण मिश्र जी की एक छोटी कविता याद आ रही है. उसे ही आज पेश करता हूं.
मन-मस्तिष्क सितार हो गए
तुमने नेह-नज़र से देखा
    सब अभाव अभिसार हो गए.
मनु के एकाकी जीवन में
    श्रद्धा के अवतार हो गए.

हर मौसम वसंत का मौसम
             रात चांदनी रात हो गई.
कांटों के जंगल में जैसे
            फूलों की बरसात हो गई.
जब से छेड़ दिया है तुमने
      मन-मस्तिष्क सितार हो गए.
तुमने नेह-नज़र से देखा
    सब अभाव अभिसार हो गए.
मनु के एकाकी जीवन में
    श्रद्धा के अवतार हो गए.

14 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत भाव पूर्ण अभिव्यक्ति ....कविता को पढ़कर हम भी निहाल हो गए

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  2. बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..... बसंत का रंग जमना ही चाहिए ....शुभकामनायें

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  3. आपको एक मेल भेजा है कृपया चैक कर लें

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  4. वाह...वाह...वाह...

    मनमोहक प्रवाहमयी अतिसुन्दर गीत.....

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  5. कहा आगंतुक ने सस्नेह! मनु और श्रद्धा के माध्यम से एक अद्भुत शृंगार दर्शन हुए मिश्र जी की कविता के माध्यम से..

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  6. गज़ब की मनभावन श्रृंगार रस की उत्तम अभिव्यक्ति।

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  7. वसन्त ऋतु के संदर्भ में स्व.मिश्रजी की कविता बड़ी ही मोहक है। प्रस्तुति के लिए आभार।

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  8. बहुत उम्दा रचना!
    बसन्तपञ्चमी की शुभकामनाएँ!

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  9. तुमने नेह नजर से देखा
    सब अभाव अभिसार हो गए,
    मनु के एकाकी जीवन में
    श्रद्धा के अवतार हो गए।
    जयशंकर प्रसाद की कामायनी याद आ गयी। मनु और श्रद्धा का मिलन..........।बहुत सुंदर प्रस्तुति।

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