शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

नवगीत :: गुप्त गोदावरी होकर बहो मुझमें बहो!

नवगीत

गुप्त गोदावरी होकर बहो मुझमें बहो!

Sn Mishraश्यामनारायण मिश्र

गुप्त गोदावरी होकर,

बहो मुझमें

बहो भीतर बहो!

 

हम उजड़े तट हैं,

अपनी पहचान यही

कंधों पर शव

       वक्ष पर चिता है,

पर्वत हैं वे

नदियों को फेंकना-पटकना

आता है इनको

       ये पिता हैं,

झरने से झील हो

सर पटकती रहो!

गुप्त गोदावरी होकर,

बहो मुझमें

बहो भीतर बहो!

रेत-रेत होकर

घुलना, फिर बहना तुममें

सदा-सदा साथ-साथ

             बहने के प्रण हम।

नित्य  नए मेलों पर

पर्वों पर उत्सव पर

छोटी सी पंखुरी

             छोटे से कण हम।

तुम्हें भी कुछ याद है,

याद है तो कहो

कुछ तो कहो!

गुप्त गोदावरी होकर,

बहो मुझमें

बहो भीतर बहो!

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुन्दर नवगीत गोदावरी के माध्यम से बहुत कुछ कह गया।

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  2. तुम्हें भी कुछ याद है,

    याद है तो कहो

    कुछ तो कहो!

    गुप्त गोदावरी होकर,

    बहो मुझमें

    बहो भीतर बहो!

    Beautiful presentation of thoughts

    .

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  3. टिप्पणी बाक्स में -
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    कृपया सुधार कर लीजिए!
    सही शब्द "मूल्यांकन" है।

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  4. इनकी जितनी भीरचनाएँ इस स्तम्भ के अंर्गत पढ़ीं, सभी ने मुग्ध किया है!! इस रचना ने भी!!

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  5. आदरणीय शास्त्री जी धन्यवाद। सुधार कर दिया गया है।

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  6. दक्षिण की गंगा गोदावरी का मानवीकरण अच्छा लगा।

    काव्य के धरातल पर कथ्यों से गुंफित और खरी उतरती हुई कविता जिसकी अनुगूँज बहुत दूर तक जायेगी।

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  7. प्रकृति के माध्यम से काव्य (नवगीत) में लक्ष्यार्थक प्रयोग में मिश्रजी का कोई जबाब नहीं।

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  8. गोदावरी नदी के माध्यम से भावों की प्रस्तुति बहुत सुन्दर है.

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  9. गुप्त गोदावरी होकर बहो मुझमें बहो- इसे नवगीत के रूप में प्रस्तुत करना अच्छा लगा। कवि का प्रणय निवेदन गोदावरी नदी के माध्यम से अपनी पूर्ण समग्रता में वांक्षित भाव-भूमि को स्पर्श करने में सफल सिद्ध हुआ है।नवगीत अच्छा लगा। धन्यवाद।

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  10. बहो मुझमें बहो भीतर बहो!....

    श्यामनारायण मिश्र जी के गुप्त गोदावरी को समर्पित सुंदर नवगीत के लिए उन्हें साधुवाद !

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